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उत्तर - मौर्य काल भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
यह काल लगभग 200 ईसा पूर्व आरंभ होता है। यद्यपि इस काल का कोई भी साम्राज्य मौर्य काल के मौर्य साम्राज्य जितना विशाल नहीं था, फिर भी यह मध्य एशिया और भारत के घनिष्ठ और व्यापक संपर्कों के लिए उल्लेखनीय है। शुंगो, कण्वों और सातवाहनों जैसे कई शासक मौर्यों के पश्चात् सत्ता में आये। ये पूर्व, मध्य भारत व दक्कन क्षेत्रों में थे। उत्तर-पश्चिम भारत में उनका स्थान मध्य-एशिया के शासकों ने ले लिया। ये सभी तथ्य प्राचीन भारत के इतिहास के इस भाग के अध्ययन को बहु-स्तरीय और रोचक बनाते हैं।
2.0 हिन्दू-यूनानी राज्य
भारत पर विदेशी आक्रमणों की एक श्रृंखला 200 ईसा पूर्व आरंभ हुई। यूनानीयों ने सर्वप्रथम हिन्दूकुश पर्वत श्रृंखला को पार किया था, जो कि बैक्ट्रिया या बाख्तर के शासक थे, जो कि ऑक्सस नदी के दक्षिण भाग में उत्तरी अफगानिस्तान में सम्मिलित क्षेत्र में निहित है। एक के बाद एक आक्रमणकारी आते गए परन्तु उनमें से कुछ ने एक ही समय में शासन किया। इन आक्रमणों का मुख्य कारण सेल्युसिद साम्राज्य की शक्ति का क्षीण होना था, जो कि बैक्ट्रिया में व ईरान के सन्निकट क्षेत्रों में स्थापित था जिसे पार्थिया कहते थे। सिथीयन कबीलों के बढ़ते दबाव के कारण बाद के यूनानी शासक इस क्षेत्र में अपनी सत्ता बनाए रखने में असमर्थ रहे और चीन की महान दीवार के निर्माण के साथ ही असमर्थ सिथियनों को चीनीयों द्वारा चीनी सीमाओं से पीछे हटा दिया गया। इस प्रकार उन्होंने अपना ध्यान पड़ोसी यूनानीयों व पार्थियों पर केन्द्रित किया। सिथीयन कबीलों द्वारा धकेले गए बैक्ट्रियाई यूनानी भारत पर आक्रमण करने पर विवश हुए। अशोक के उत्तराधिकारी, इस काल में हुए विदेशी आक्रमणों की इस लहर को रोकने के लिए अत्यधिक कमजोर सिद्ध हुए।
यूनानी भारत पर आक्रमण करने वालों में प्रथम थे, जिन्हें हिन्दू यूनानी या बैक्ट्रियाई यूनानी कहा जाता है। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आरंभ में हिन्दू-यवनों ने उत्तर पश्चिमी भारत के एक व्यापक भू-भाग पर कब्जा कर लिया जो कि सिकंदर द्वारा जीते गए भू-भाग से भी बड़ा था। ऐसा कहा जाता है कि वे अयोध्या व पाटलीपुत्र (पटना) तक पंहुच गये थे। परन्तु यूनानी, भारत में एक संगठित शासन स्थापित करने में असफल रहे। एक ही समय में और एक ही साथ दो यूनानी राजवंशां ने उत्तर पश्चिमी भारत पर शासन किया। उनमें से सबसे प्रसिद्ध हिन्दू-यवन शासक मिनेंडर (165-145 ईसा पूर्व) था। उसे मिलिंद नाम से भी जाना जाता है। उसकी राजधानी पंजाब में सकल (वर्तमान में सियालकोट) थी और उसने गंगा-यमुना दोआब पर आक्रमण किया। नागसेन, जिसे नागार्जुन नाम से भी जाना जाता है, उनके वचनों से प्रभावित होकर मिलिंद ने बौद्ध धर्म अपना लिया। मिलिंद ने उनसे बौद्ध धर्म के विषय में कई प्रश्न किए। इन प्रश्नों व नागसेन द्वारा इनके दिए हुए उत्तरों को एक पुस्तक के रूप में अभलिखित किया गया है जिसे मिलिंद पन्हां या मिलिंद के प्रश्न कहा जाता है।
हिन्दू-बैक्ट्रियाई शासन भारत के इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है क्योंकि इस काल में व्यापक संख्या में यूनानी सिक्के जारी किए गए थे। हिन्दू-यूनानी वे पहले शासक थे जिन्हांने भारत में सिक्के जारी किए, जिसका श्रेय निश्चित रूप से उन राजाओं को दिया जा सकता है। यह आरंभिक पंचमार्क्ड सिक्कों के विषय में संभव नहीं था, जो कि किसी भी राजवंश को नहीं दर्शाते थे। भारत में स्वर्ण मुद्राएँ जारी करने वालो में हिन्दू यूनानी प्रथम थे। जिन सिक्कां की संख्या कुषाणों के अधीन और बढ़ गई थी। यूनानी शासकों ने भारत की उत्तर पश्चिमी सीमाओं में हेलेनेस्टिक (रोमन) कला का आरंभ किया। यह कला सिकंदर की मृत्यु के पश्चात् यूनानीयों व यूनानीयों द्वारा जीते गये गैर यूनानी लोगों के बीच आरंभ हुई कला की प्रतियोगिता का परिणाम थी। भारत में गांधार कला इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण थी।
3.0 शक
यूनानीयों के बाद शक भारत आए, जिन्हांने यूनानीयों की तुलना में भारत के अधिक व्यापक क्षेत्र पर नियंत्रण किया। शकों की पाँच शाखाऐं थीं जिनकी सत्ता के केन्द्र भारत और अफगानिस्तान के विभिन्न भागों में स्थित थे। शकों की एक शाखा अफगानिस्तान में बस गई और दूसरी शाखा पंजाब में जहाँ तक्षशिला को उन्हांने अपनी राजधानी बनाया। तीसरी शाखा मथुरा में बस गई जहाँ उन्होंने दो शताब्दीयों तक शासन किया। चौथी शाखा भारत के पश्चिमी भाग में बस गई जहाँ शकों ने निरंतर चौथी शताब्दी ईसवीं तक शासन किया। शकों की पांचवी शाखा ने अपनी सत्ता ऊपरी दक्कन में स्थापित की।
शकों को भारत के शासकों व लोगों से बहुत कम प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। हम लगभग 58 ईसा पूर्व उज्जैन के एक राजा के बारे में सुनते है जिन्होंने शकों के विरूद्ध प्रभावी ढ़ंग से युद्ध किया और उन्हें मार भगाया, जिनका नाम विक्रमादित्य बताया जाता है। 57 ईसा पूर्व शकों पर उनकी विजय की इस घटना को केन्द्र मानकर एक नये काल विक्रम सम्वत् की गणना की गई। इस काल के पश्चात् विक्रमादित्य शीर्षक एक प्रतिष्ठित उपाधि बन गई। जो कोई भी व्यक्ति एक महान उपलब्धि प्राप्त करता था वह इस उपाधि को ठीक उसी प्रकार ग्रहण करता था जिस प्रकार रोमन शासकों द्वारा अपनी शक्ति दर्शाने के लिये सीज़र की उपाधि ग्रहण की जाती थी। इस प्रथा के परिणाम स्वरूप हमें भारतीय इतिहास में 14 विक्रमादित्य प्राप्त होते हैं। यह उपाधि भारतीय राजाओं के मध्य 12 वीं शताब्दी तक प्रचलन में थी। विशेषतः भारत के पश्चिमी भाग और पश्चिमी दक्कन में।
यद्यपि शकों ने भारत के विभिन्न भागों में अपना शासन स्थापित किया था, परन्तु जिन शकों ने भारत के पश्चिमी भाग में शासन किया केवल वे ही चार शताब्दियों या इससे अधिक समय के एक उल्लेखनीय काल के लिये अपनी सत्ता बनाये रखने में सफल रहे थे। भारत में इनमें से सबसे प्रसिद्ध शक शासक रूद्रदमन था (130-150 ईस्वी)। उसने न केवल सिंध पर अपितु गुजरात, कोंकण, नर्मदा घाटी, मालवा एवं काठियावाड़ के व्यापक भू-भाग पर भी शासन किया। इतिहास में वह सुप्रसिद्ध है क्योंकि उसने काठियावाड़ के अर्धशुष्क क्षेत्र में सुदर्शन झील की मरम्मत का कार्य करवाया था। यह झील सिंचाई के लिये लंबे समय से उपयोग में लाई जा रही थी, और यह मौर्य वंश जितनी प्राचीन थी।
रूद्रदमन संस्कृत भाषा के एक महान प्रेमी थे। यद्यपि वे भारत में बसे हुए एक विदेशी थे, उन्होंने ही संस्कृत भाषा में पहला शिलालेख जारी किया। देश में इससे प्राचीन सभी शीलालेख प्राकृत भाषा में हैं।
4.0 पार्थियन
उत्तर पश्चिमी भारत में शकों के वर्चस्व के पश्चात् पार्थियन भारत आए और कई प्राचीन भारतीय संस्कृत ग्रंथों में दोनों को एक सम्मिलित शब्द ‘‘शक पह्लव’’ नाम से संबोधित किया गया। वास्तव में उन्हांने कुछ समय के लिये साथ-साथ इस देश में शासन किया। पार्थियन मूलतः ईरान के निवासी थे जहां से वह भारत आए। शकों व यूनानीयों की तुलना में उन्हांने पहली शताब्दी में भारत के एक बहुत छोटे भू-भाग पर शासन किया। सबसे प्रसिद्ध पार्थियन राजा गोंडोफर्नेश था जिसके शासन काल में सेंट थॉमस ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिये भारत आए। समय की धारा के साथ-साथ शकों के समान पार्थियन भारतीय राजनीति व समाज का एक अभिन्न अंग बन गये थे।
5.0 कुषाण
पार्थियन के पश्चात् कुषाण भारत आए जिन्हें युची या तोचारियन्स भी कहते हैं। कुषाण उन पाँच वंशों में से एक है जिनमें कि युची जनजाति को विभाजित किया जाता हैं। कुषाण चीन के पड़ोस के उत्तर मध्य एशिया के मैदानी इलाकों के खानाबदोश लोग थे जिन्होंने सबसे पहले बैक्ट्रिया या उत्तरी अफगानिस्तान को अपने अधिकार में लिया, जहाँ से उन्होंने शकों को प्रतिस्थापित कर दिया। धीरे-धीरे वे काबुल घाटी की ओर बढ़े और हिन्दूकुश पर्वतों को पार करके उन्होनें गांधार पर कब्जा किया, और वहा से यूनानीयों और पार्थियन के शासन को प्रतिस्थापित किया। उन्हांने निचले सिंधु घाटी और गंगा घाटी के एक बड़े भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। उनका साम्राज्य ऑक्सस से लेकर गंगा तक, मध्य एशिया में ख़ुरासन से लेकर उत्तर प्रदेश में वाराणासी तक फैल गया। मध्य एशिया का एक बड़ा भू-भाग जो बाद में सोवियत संघ में सम्मिलित हुआ (वर्तमान में निर्जीव क्षेत्र) ईरान और अफगानिस्तान का एक बड़ा भू-भाग, लगभग पूरा पाकिस्तान और लगभग पूरा उत्तरी भारत कुषाण राज्य के अधीन आ गया। इसके परिणाम स्वरूप लोगों और संस्कृतियों को मिश्रित होने का एक अनूठा अवसर प्राप्त हुआ और इस प्रक्रिया ने एक नई प्रकार की संस्कृति को जन्म दिया जिसे पाँच आधुनिक देशों द्वारा अपनाया गया।
हम कुषाणों के दो सिलसिलेवार राजवंशों को देखते हैं। पहला राजवंश समूह के प्रमुखों द्वारा स्थापित किया गया था जिन्हें कैडफिशेज़ कहा जाता था और जिन्होनें 50 ई. से लगभग 28 वर्षों तक शासन किया। इस राजवंश के दो राजा थेः प्रथम कैडफिशेज़ थे जिन्होंने हिन्दूकुश के दक्षिणी भाग में सिक्के जारी किये थे। दूसरे राजा कैडफिशेज द्वितीय थे, जिन्हांने अपने शासन में बड़ी संख्या में स्वर्ण राशि जारी की और अपने राज्य का विस्तार सिंधु के पूर्वी क्षेत्र तक किया।
कैडफिशेज़ के समूह के उत्तराधिकारी कनिष्क हुए। इसके राजाओं ने कुषाणों की सत्ता को ऊपरी भारत व निचले सिंधु बेसिन तक फैला दिया। प्राचीन कुषाणों ने कई स्वर्ण मुद्राऐं जारी कीं जिनकी धातु की शुद्धता का स्तर गुप्त शासकों द्वारा जारी की गई स्वर्ण मुद्राओं से उच्च स्तरीय था। यद्यपि कुषाण स्वर्ण मुद्राए सिंधु के पूर्वी भाग में पाई गई हैं परन्तु उनके शिलालेख न केवल उत्तर पूर्वी भारत और सिंध में अपितु मथुरा, कौशांबी और वाराणासी में भी पाये गये हैं। अतः उन्हांने गंगा घाटी के बड़े भू-भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित किया हुआ था। मथुरा में प्राप्त कुषाण स्वर्ण मुद्राएं, शिलालेख, संरचनाएँ और मूर्तिकला के टुकड़े यह दर्शाते हैं कि यह भारत में उनकी दूसरी राजधानी थी, जबकि पहली राजधानी पुरूषपुर या पेशावर थी जहां कनिष्क ने एक मठ और एक विशाल स्तूप या स्मारक मिनार खड़ा किया जो विदेशी यात्रियों को आकर्षित करता है।
5.1 कनिष्क
कनिष्क दक्षिण एशिया में कुषाण साम्राज्य के एक राजा थे। वे उनकी सैन्य, राजनीतिक और आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिये प्रसिद्ध थे और बौद्ध अनुयाईयों के द्वारा अशोक और हर्षवर्धन के साथ उनका नाम भी महान राजाओं में लिया जाता है। उनका साम्राज्य एक विशाल साम्राज्य था जो पूर्व में ऑक्सस नदी से लेकर पश्चिम में वाराणासी तक और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में गुजरात के तटों और मालवा तक फैला हुआ था। उनके राज सिंहासन के राज्याभिषेक की तिथि अज्ञात है, परन्तु ऐसा विश्वास है कि वह 78 वीं ई. थी। यह वर्ष एक नये संवत् के आरंभ का चिन्ह है जिसे शक संवत् कहते हैं। कनिष्क के शासन के अधीन कुषाण राजवंश अपनी सत्ता के शीर्ष बिंदु तक पहुंच गया और विश्व का एक शक्तिशाली साम्राज्य बन गया।
कनिष्क के मन में सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता थी। उन्होंने अपने शासन काल में कई सिक्के जारी किए। उनके सिक्कों में धर्मनिरपेक्ष नीति की झलक थी, उनके सिक्कों में हिन्दू, बौद्ध, यूनानी, पारसी और सुमेर-एलाम देवी देवता चित्रित किये गये थे। उन्हे बौद्ध धर्म से जुड़े होने के लिये जाना जाता है। वे स्वयं धर्म परिवर्तित बौद्ध थे, और उन्होंने कश्मीर में चौथी बौद्ध समिति संयोजित की। इस समिति ने कश्मीर में बौद्ध धर्म के महायान पंथ की शुरूआत की। उन्होंने यूनानी बौद्ध कला के गांधार विद्यालय और हिन्दू कला के मथुरा विद्यालय दोनों को आश्रय प्रदान किया। उन्होंने बौद्ध धर्म प्रचारकों को बौद्ध धर्म फैलाने के लिये विश्व के कई भागों में भेजा। कनिष्क को उनके द्वारा पेशावर में निर्मित बौद्ध स्तूपों के लिये बौद्ध वास्तुकला के क्षेत्र में मुख्य रूप से जाना जाता है। सातवीं शताब्दी में चीनी दार्शनिक ह्वेन सांग भारत आए जो इन बहु मंजिला स्तूपों का विस्तृत विवरण देते हैं। उन्होनें चीन में अपनी राज्य सीमाओं के विस्तार के साथ ही वहा भी बौद्ध धर्म फैला दिया। सुमित्र पार्श्व, संघरक्ष और अश्वघोष जैसे कई बौद्ध धर्म शास्त्री कनिष्क से जुड़े हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कनिष्क द्वारा बौद्ध धर्म को दिया गया संपूर्ण आश्रय राजनीतिक था।
इतिहासकार कनिष्क की मृत्यु के विषय में अनिश्चित हैं। चीनी वार्षिकवृतान्त हमें एक कुषाण राजा की कथा बताते हैं जो प्रथम शताब्दी ईसवीं के अंत में चीनी सेनापति पान चाओ के द्वारा परास्त किया गया था। कुछ लोगों का विश्वास है कि वह राजा कनिष्क ही था।
6.0 मध्य एशियाई संपर्कों पर प्रभाव
6.1 संरचनाएं व मृदभाण्ड (मिट्टी के बर्तन)
शक-कुषाण चरण, निर्माण की भिन्न और उन्नत गतिविधियों के लिये जाना जाता है। उत्खनन से निर्माण की कई परतें उजागर हुई हैं, जो कि उत्तर भारत के विभिन्न स्थानों पर आधे दर्जन से भी अधिक मात्रा में प्राप्त हुई हैं। हमें उनके फर्शीकरण के लिये पकी हुई इंटें और छत निर्माण व फर्शीकरण दोनों के लिये खपरैल प्राप्त होती हैं। परन्तु संभवतः सुर्खी व खपरैलों का उपयोग देश के बाहर से नहीं अपनाया गया था। यह काल ईंट की दीवारों के निर्माण के लिये भी अंकित किया गया है। इसके विशिष्ट मृदभांड़ दोनों प्रकार के लाल मृदभांड़, साधे तथा पॉलिश किये गये सम्मिलित हैं। इनमें मध्यम से लेकर सूक्ष्म रेशा लगा होता था। भिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तनों में छिड़काव के लिये प्रयोग में लाये जाने वाले वक्राकार नली युक्त बर्तन सम्मिलित है जो सोवियत मध्य एशिया से प्राप्त कुषाण काल के सूक्ष्म रेशे युक्त लाल मिट्टी के बर्तनों की याद दिलाते हैं। लाल मृदभाण्ड की तकनीक मध्य एशिया में व्यापक रूप से ज्ञात थी, और वे फरगना जैसे क्षेत्रों में भी पाए जाते हैं जो कि कुषाण सांस्कृतिक क्षेत्र की परिसीमा पर स्थित था।
6.2 बेहतर अश्वसेना
शकों व कुषाणों ने भारतीय संस्कृति में एक नए अवयव को जोड़ा और इसे व्यापक स्तर पर समृद्ध किया। वे भारत में हमेशा के लिए बस गए और यहां की संस्कृति के अनुरूप ढल चुके थे। चूंकि उनकी कोई लिपि, लिखित भाषा या कोई संगठित धर्म नहीं था उन्होंने इन घटकों को भारत से ही अपना लिया। वे भारतीय सभ्यता के अभिन्न अंग बन गए जिसमें उन्होंने उल्लेखनीय योगदान दिया। उन्हांने एक बेहतर अश्वसेना (घुड़सेना) और घुड़सवारी के उपयोग की व्यापक स्तर पर शुरूआत की। उन्होंने बागडोर व काठी के उपयोग को आम बना दिया जिसकी झलक दूसरी व तीसरी शताब्दियों की मूर्तियों में दिखाई देती है। शक और कुषाण उत्कृष्ट घुड़सवार थे। घुड़सवारी के प्रति उनके अनुरागमय प्रेम की संपुष्टि अफगानिस्तान के बगरम की कुषाण काल की कई टेराकोटा (पक्की मिट्टी) की बनी घुड़सवार मूर्तियों से होती है। इन विदेशी घुड़सवारों में से कुछ भारी कवचयुक्त होते थे, और भालों व शूलों से युद्ध करते थे। सम्भवतः उन्हांने किसी प्रकार की रस्सी से बने पंजे वाले रकाब का उपयोग भी किया होगा जो उनकी गतिशीलता में सहायता करता था। शक और कुषाणों ने पगड़ी, अंगरखा, पतलून की शुरूआत की यहां तक की अब भी अफगान व पंजाबी पगड़ी व लंबे कोट के स्थान पर शेरवानी पहनते हैं। मध्य एशियाई अपने साथ टोपी, शिरस्त्राण (हेलमेट) व जूते भी लाए जो कि योद्धाओं द्वारा युद्ध में उपयोग किए जाते थे।
इन सभी अनुकूल परिस्थितियों के द्वारा उन्होनें ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत में अपने प्रतिद्वंदियों का पूरी सफाया कर दिया। बाद में जब यह तकनीक पूरे देश में फैल गई तब उन विदेशी शासकों पर निर्भर मूल भारतीय युवराजां ने इसका उचित उपयोग उन विदेशी विजेताओं के विरूद्ध किया।
6.3 व्यापार
विदेशियों के आने से भारत और मध्य एशिया के मध्य घनिष्ठ संबंध स्थापित हुए जिसके परिणाम स्वरूप भारत को मध्य एशिया के अल्तई पवर्तों से भारी मात्रा में सोना प्राप्त हुआ। रोमन साम्राज्य के साथ उनके व्यापार से भी सोना भारत को प्राप्त हुआ। कुषाणों ने रेशम मार्ग पर नियंत्रण कर लिया जो चीन से शुरू होकर मध्य एशिया व अफगानिस्तान में उनके साम्राज्य से लेकर ईरान व पूर्वी एशिया तक जाता था, जो कि पूर्वी भूमध्य सागर के क्षेत्र में रोमन साम्राज्य का एक भाग था। यह मार्ग कुषाणों के लिए आय का एक स्त्रोत था और उन्होंने व्यापारियों पर लगाए गए पथकर द्वारा एक विशाल समृद्ध राज्य का निर्माण किया। यह भी उल्लेखनीय है कि कुषाण भारत में वे पहले शासक थे जिन्होंने व्यापक पैमाने पर स्वर्ण मुद्राएं जारी की।
6.4 राजनीतिक व्यवस्था
मध्य एशिया के इन विजेताओं ने कई छोटे-छोटे मूल निवासी युवराजों पर अपना शासन थोपा, जिसके परिणाम स्वरूप एक सामंतवादी संगठन का विकास हुआ। कुषाणों ने राजाओं के राजा की गौरवमय उपाधि ग्रहण की। यह कई छोटे-छोटे प्रधानों पर उनके प्रभुत्व को दर्शाता है।
शकों व कुषाणों ने राज प्रशासन की दिव्य उत्पत्ति के विचार को बल दिया। कुषाण राजाओं को ईश्वर का पुत्र कहा जाता था। कुषाणों द्वारा यह चीनीयां से प्रेरित होकर अपनाई गई। चीनी अपने राजा को स्वर्ग का पुत्र कहते थे। स्वाभाविक रूप से भारत में इस अवधारणा को राज अधिपत्य को मान्य रूप से स्थापित करने के लिए उपयोग किया गया। हिन्दू विधिकर्ता मनु लोगों से कहते हैं कि यदि राजा बाल्यावस्था में हो तो भी उसका सम्मान करना चाहिए क्योंकि वह मानव रूप में शासन करने वाला साक्षात् ईश्वर ही है।
कुषाणों ने शासन में क्षत्रप प्रणाली की शुरूआत की। साम्राज्य को कई क्षत्रपियों में विभाजित किया जाता था, और प्रत्येक क्षत्रपी एक क्षत्रप के शासन के अधीन होता था। कुछ अपूर्व प्रथाएं शुरू की गइंर्, जैसे पैतृक-द्विक शासन जिसके अंतर्गत समान समय में दो राजा एक ही समय में शासन करते थे। हम यह पाते हैं कि पिता व पुत्र सम्मिलित रूप से एक ही समय में शासन करते थे। इस प्रकार यह प्रतीत होता है कि इन शासकों के अधीन केन्द्रीकरण बहुत कम था।
यूनानीयों ने सैन्य नियंत्रण की प्रथा की शुरूआत की थी। उन्होंने नियंत्रकों की नियुक्ति की जिन्हें क्षत्रप कहा जाता था। विजय प्राप्त लोगों पर नवीन शासक को सत्ता बनाए रखने के लिये सैन्य नियंत्रकों की आवश्यकता थी।
6.5 भारतीय समाज में नए तत्व
यूनानी, शक, पार्थियन और कुषाणों ने अंततः भारत में अपनी मूल पहचान खो दी। वे समय की धारा के साथ पूर्णतः भारतीयकृत हो गए। चूंकि उनमें से अधिकतम युद्ध द्वारा विजय प्राप्त करने के लिये आए थे वे भारतीय समाज में एक योद्धा जाति के रूप में समाहित हुए जिन्हे क्षत्रिय कहा जाता है। ब्राम्हणवादी समाज में उनके प्रतिस्थापन का विवरण एक अद्वितीय प्रकार से दिया जाता है। विधिकर्ता मनु कहते हैं कि शक व पार्थियन वे क्षत्रिय थे जो अपने कर्तव्यों से विचलित हो गए और उनकी दशा निरंतर गिरती गई। दूसरे शब्दों में उन्हें क्षत्रियों की दूसरी श्रेणी समझा जाता था। प्राचीन भारत के किसी भी काल में विदेशियों को भारतीय समाज में इतने व्यापक स्तर पर आत्मसात नहीं किया गया जितना कि उत्तर मौर्य काल में।
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