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उत्तर - मौर्य काल भाग - 2
7.0 धार्मिक विकास
कुछ विदेशी शासकों ने वैष्णव पंथ को धारण कर लिया जिसका अर्थ है विष्णु की उपासना, जो रक्षण व पालन करने वाले भगवान हैं। हेलिडॉरस नामक यूनानी राजदूत ने भगवान विष्णु के सम्मान में मध्यप्रदेश में विदिशा के निकट (विदिशा जिले का मुख्यालय) लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व एक स्तंभ स्थापित किया।
कुछ अन्य शासकों ने बौद्ध धर्म अपना लिया। प्रसिद्ध यूनानी शासक मिनेंडर (मिलिंद) बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गए। उनके द्वारा बौद्ध गुरू नागसेन (जिसे नागर्जुन भी कहा जाता है) से किए गए प्रश्न उत्तर का विनिमय उत्तर मौर्य काल के प्रज्ञात्मक इतिहास का एक अच्छा स्त्रोत है। कुषाण शासक बुद्ध व शिव दोनों की उपासना करते थे। ये देवता कुषाण सिक्कों में भी दिखाई देते हैं। कई कुषाण शासक विष्णु के उपासक थे। यह तथ्य कुषाण शासक वासुदेव के विषय में निश्चित है, जिनका स्वयं का नाम श्री कृष्ण का एक पर्यायवाची है, जिनकी उपासना विष्णु के अवतार के रूप में की जाती है।
7.1 महायान बौद्ध धर्म का उद्गम
व्यापार व शिल्पकारी गतिविधियों में एक बड़़ी उछाल के कारण व आंशिक रूप से मध्य एशिया के कई लोगों के भारत में अन्तर्वाह के कारण भारतीय धर्म उत्तर मौर्य काल में कई परिवर्तनों से गुजरे। बौद्ध धर्म विशेष रूप से प्रभावित हुआ। भिक्षुओं व मठवासिनियों में नगरों में केन्द्रित व्यापारियों व शिल्पकारों के बढ़ते समूहों का दान खोने का सामर्थ्य नहीं था। आन्ध्र प्रदेश में नागार्जुनकोंडा क्षेत्र के मठों में अत्याधिक संख्या में सिक्के पाए गए हैं। इसके अतिरिक्त बौद्ध अनुयाईयों ने उन विदेशियों का भी स्वागत किया जो मांसाहारी थे। यह सभी कारक दर्शाते हैं कि मठवासिनियों और भिक्षुओं के भौतिक सुविधा विहीन दैनिक जीवन में शिथिलता आ चुकी थी। वे अब सोना और चाँदी स्वीकारने लगे थे, माँसाहारी भोजन ग्रहण करने लगे थे और विस्तृत वस्त्र पहनने लगे थे। उनका आत्मसंयम इतना निर्बल हो गया था कि उन्होंने धार्मिक अनुशासन या संघ का भी परित्याग कर दिया और पुनः गृहस्थ जीवन व्यतीत करने लगे। बौद्ध धर्म का यह नया रूप महायान या महान चक्र कहलाता है। प्राचीन पवित्र बौद्ध धर्म में गौतम बुद्ध से जुड़ी हुई कुछ वस्तुओं की उपासना उनके प्रतीक के रूप में की जाती थी। ईसाई युग की शुरूआत के साथ इन वस्तुओं का स्थान उनके (गौतम बुद्ध) के चित्रों ने ले लिया था। व्यापक पैमाने पर बौद्ध धर्म में चित्र की उपासना ने इसे ब्राम्हणवाद की ओर अग्रसर किया। महायान के उदय के साथ ही, प्राचीन पवित्र बौद्ध धर्म को हीनायन या हीन चक्र नाम से जाना जाने लगा।
महायान धर्म के लिये यह सौभाग्य की बात था कि, कनिष्क इसके आश्रयदाता बन गये। उन्होंने कश्मीर में एक धार्मिक परिषद स्थापित की थी। परिषद ने 3,00,000 शब्दों का संकलन किया, जिससे पिटक या बौद्ध साहित्य के संग्रह को विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है। कनिष्क ने इन टिप्पणियों को लाल ताम्र पत्रों पर ऊत्कीर्ण करवाया, उन्हें पत्थर के एक संदूक में संलग्न किया और उस पर एक स्तूप का निर्माण करवाया। यदि परिपाटी सही है, तो स्तूप व इसके ताम्र पत्रों की खोज बौद्ध ग्रंथ व ज्ञान पर एक नवीन प्रकाश डाल सकती है। कनिष्क ने गौतम बुद्ध की स्मृति में कई स्तूपों की स्थापना की।
7.2 गांधार व मथुरा के कला विद्यालय
विदेशी शासक भारतीय कला व साहित्य के उत्साहपूर्ण संरक्षक बन गए और उन्होंने नये धर्मान्तरण के प्रति उत्साह प्रदर्शित किया। कुषाण साम्राज्य अपने साथ विभिन्न देशों और विद्यालयों से प्रशिक्षित राज मिस्त्रियों और शिल्पकारों को भारत लाया था। इसके द्वारा मध्य एशियाई में कई कला विद्यालयों का उदय हुआ। मध्य एशिया के मूर्तिकला के घटकों में बौद्ध धर्म के प्रभाव के अंतर्गत स्थानीय व भारतीय दोनों तत्वों का संश्लेषण दिखाई दिया।
भारतीय शिल्पकार विशेषतः भारत के गांधार के उत्तर पश्चिमी सीमावर्ती इलाकों में कई मध्य एशियाई, यूनानी व रोमन शिल्पकारों के संपर्क में आए। इससे नई कला का उदय हुआ जिसमें बुद्ध के चित्र यूनानी रोमन शैली में बनाए गए थे। गौतम बुद्ध के बाल यूनानी-रोमीय शैली में बनाए गए थे।
गांधार कला का प्रभाव मथुरा तक भी फैल गया था। यद्यपि यह स्वदेशी कला का प्राथमिक केन्द्र था। मथुरा में गौतम बुद्ध के सुन्दर चित्र बनाए गए परन्तु यह कनिष्क की शीर्षहीन (बिना सिर वाली) प्रतिमा के लिए भी प्रसिद्ध है जिसका नाम प्रतिमा के नीचले भाग पर उत्कीर्ण है। यहां पर वर्धमान महावीर की भी कई पत्थर की मूर्तियां बनाई गइंर्। यद्यपि मथुरा श्री कृष्ण का जन्मस्थान है व इसे उनके प्रारंभिक जीवन का स्थान भी माना जाता है फिर भी पूर्व गुप्त काल में कृष्ण की मूर्तियों व शिलालेखों की उपेक्षा की गई थी। मथुरा कला विद्यालय ईसाई युग की प्रारंभिक शताब्दियों में विकसित हुआ और लाल बलुआ पत्थर के बने इसके उत्पाद मथुरा के बाहर भी पाए जाते हैं। वर्तमान में कुषाण काल में बनी मूर्तियों का सबसे बड़ा संग्रह भारत में मथुरा संग्रहालय के पास है।
इसी अवधि में दक्षिण विंध्य के कई स्थानों पर सुंंदर कला के कार्य देखने में आते हैं। महाराष्ट्र में चट्टानों को काट कर सुन्दर बौद्ध गुफाओं का निर्माण किया गया। आन्ध्र प्रदेश में नागार्जुनाकोंड व अमरावती बौद्ध कला के केन्द्र बन गए और गौतम बुद्ध की कथा कई पट्टिकाओं में प्रस्तुत की गई। सबसे प्राचीन बौद्ध पट्टिकाओं में गया, सांची, भारूत दूसरी सदी ई. पूर्व की हैं। परन्तु हम ईसाई युग की प्रारंभिक शताब्दियों में मूर्तिकला कला के और अधिक विकास को देखते हैं।
8.0 साहित्य और शिक्षा
विदेशी शासकों ने संस्कृत साहित्य को संरक्षण व विकास प्रदान किया। सबसे आरंभिक काव्य शैली के प्रतिरूप काठियावाड़ में रूद्रदमन द्वारा प्राप्त शिलालेखों में दिखाई देते हैं जो लगभग 150 ई. के हैं। इसके बाद के शिलालेख शुद्ध संस्कृत में रचित किए जाने लगे यद्यपि प्राकृत में संकलित शिलालेखों का उपयोग चौथी शताब्दी ई. व उसके आगे तक भी हुआ।
ऐसा प्रतीत होता है कि अश्वघोष जैसे रचनात्मक लेखकों ने कुषाणों के आश्रय का आनंद प्राप्त किया। अश्वघोष ने बुद्धचरिता की रचना की जो की गौतम बुद्ध की जीवनी है। उन्होंने सौन्दरनन्द की रचना भी की जो संस्कृत काव्य का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
महायान बौद्ध धर्म की विकास प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप कई अवदानों की रचना हुई। इनमें से अधिकतम लेख उस भाषा में संकलित किए गए थे जिसे बौद्ध संकरित संस्कृत कहते हैं। इस भाषा का एकमात्र उद्देश्य महायान बौद्ध
धर्म की शिक्षाएं प्रदान करना था। इस शैली की महत्वपूर्ण पुस्तकों में महावस्तु व दिव्यवदन सम्मिलित हैं।
पर्दों के उपयोग की शुरूआत करके यूनानीयों ने भारतीय रंगमंच में योगदान दिया। चूंकि पर्दों की अवधारण यूनानीयों से लिए गई थी इसलिए इन्हें यवनिका नाम से जाना जाने लगा। इस शब्द की व्युत्पत्ति यवन शब्द से हुई जो यूनानी शब्द का संस्कृत रूप था। यवन यूनानीयों की एक शाखा थी जो प्राचीन भारतीयों को ज्ञात थी। बाद में यवन शब्द का उपयोग सभी प्रकार के विदेशियों के लिए किया जाने लगा।
धर्म निरपेक्ष साहित्य के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण वात्स्यायन द्वारा रचित कामसूत्र में प्रकट होते हैं। तीसरी शताब्दी ई. में रचित, यह मैथुन व सम्भोग तथा कामोत्तेजना पर आधारित आरंभिक साहित्यिक कार्य है। यह हमें नगरीय नस्ल के व्यक्ति या नागरिक के जीवन का चित्र प्रदान करता है, जो नगरीकरण की संपन्नता की अवधि में जीवन यापन करता था।
9.0 विज्ञान व प्रौद्योगिकी
उत्तर मौर्य काल में खगोल शास्त्र व ज्योतिष शास्त्र भी यूनानीयों के संपर्क से लाभान्वित हुए। ग्रहों की गतियों के संदर्भ में कई यूनानी शब्दों का उपयोग संस्कृत के लेखों में देखने को मिलता है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र पर यूनानी विचारों का प्रभाव पड़ा और यूनानी शब्द हारोस्कोप से उत्पन्न शब्द होरशास्त्र का प्रयोग ज्योतिष शास्त्र के लिए संस्कृत में किया जाने लगा। यूनानी सिक्के जो कि उचित आकार व मोहर वाले होते थे वे पंच मार्क्ड सिक्कों पर एक महान सुधार था। यूनानी शब्द द्रक्मा को धर्म नाम से जाना जाने लगा। जिसके बदले में यूनानी शासकों ने भी ब्राम्ही लिपि का उपयोग किया तथा उनके कुछ सिक्कों पर भारतीय रूपांकनों को दर्शाया। कुत्ते, मवेशी व गजदन्त के टुकड़े यूनान से आयात किए जाते थे परन्तु उन्होंने भारत से कोई शिल्पकला सीखी या नहीं यह स्पष्ट नहीं हुआ है।
हालांकि भारतीयों पर औषधी, वनस्पति विज्ञान व रसायन शास्त्र के क्षेत्रों में योगदान के लिए यूनानीयों पर कोई विशेष ऋण नहीं है। इन तीन विषयों का सरोकार चरक व सुश्रुत से है। चरकसंहिता में कई पौधों व जड़ी बूटियों के नाम सम्मिलित है जिनके मिश्रण से रोगी के उपचार के लिए दवाई बनाई जा सकती है। पौधों को मिश्रित करने व पीसने की प्रक्रियाएं हमें प्राचीन भारत के रसायन शास्त्र के विकसित ज्ञान की एक अंतःदृष्टि (अंदर की झलक) प्रदान करती है। बीमारियों के उपचार के लिए प्राचीन भारतीय मुख्य रूप से औषधियों पर निर्भर थे, जिनके लिए औषधी शब्द का प्रयोग किया जाता था और जिसके परिणाम स्वरूप दवा को औषधी नाम से जाना जाने लगा।
प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी भारतीयों को मध्य एशियाई लोगों के संपर्क में आने से लाभ हुआ, ऐसा लगता है। कनिष्क पतलून और लंबी जूते पहने जाने के द्योतक हैं। संभवतः भारत में चमड़े के जूते बनाने की प्रथा इसी काल से शुरू हुई होगी। हर हाल में भारत में कुषाण तांबे के सिक्के, रोमन सिक्कों की नकल थे। इसी प्रकार भारत में सोने के सिक्के, रोमन सोने के सिक्कों की नकल करके कुषाण द्वारा चलन में लाए गए थे। ऐसा सुनने में आता है कि भारतीय राजाओं और रोमन राजाओं के बीच दो राजदूत प्रतिपादित किये गए थे। भारत से राजदूतों को ई. 27-28 में रोमन सम्राट ऑगस्टस की अदालत में और ई. 110-20 में रोमन सम्राट ट्राजन की अदालत में भेजा गया था। इस प्रकार, प्राचीन भारत के रोम के साथ संबंधों ने प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नई प्रथाओं को जन्म दिया होगा। इस अवधि में कांच के काम पर विदेशी विचारों और व्यवहारों का काफी प्रभाव पड़ा। इस अवधि के दौरान कांच बनाने में जितनी प्रगति हुई, उतनी प्राचीन भारत के किसी भी काल में नहीं हुई।
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