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मौर्य राजवंश भाग - 2
4.0 राज्य का नियंत्रण
ब्राह्मण धर्म ग्रंथों के अनुसार राजा को विधि के अनुसार अपना शासन चलाना चाहिए और धर्मशास्त्र के अनुसार आचरण करना चाहिए। कौटिल्य ने राजा को सलाह दी है कि जब वर्ण और आश्रम व्यवस्था नष्ट होने लगे तो राजा धर्म का सहारा लेना चाहिए। उसने राजा का धर्मप्ररलका या ‘धर्म प्रवर्तक‘ कहा है। इस प्रकार राजसी आदेश अन्य आदेशों जो कि अशोक के शिलालेखों में उकेरे गये थे की तुलना में उच्च स्थान रखते थे। अशोक ने धर्म का सहारा लेते हुए अधिकारी नियुक्त किये तथा उनके माध्यम से पूरे देश में धर्म को जनता के मध्य स्थापित करने की कोशिश की।
मगध के राजकुमारों द्वारा सैन्य अभियानों के परिणामस्वरूप अंग, वैशाली, काशी, कोसल, अवंति, कलिंग आदि को जीता गया, जिसका यह स्वाभाविक परिणाम था कि राजा की सर्वोच्चता स्थापित हो। इन क्षेत्रों पर मगध के द्वारा जो सैन्य नियंत्रण किया गया था उसका यह स्वाभाविक परिणाम था कि उस क्षेत्र के लोगों का जीवन भी प्रभावित होने लगा। मगध को इन क्षेत्रों पर लगातार नियंत्रण बनाये रखने के लिए तलवार की शक्ति की जरूरत थी।
इस विशाल साम्राज्य में प्रत्येक क्षेत्र में नियंत्रण बनाये रखने के लिए बड़ी मात्रा में कर्मचारियों की जरूरत थी। इतिहास के किसी भी दौर में इतनी बड़ी मात्रा में प्रशासनिक अधिकारियों के बारे में ज्ञात नहीं होता जितना की मौर्य काल में।
इस प्रशासनिक तंत्र को एक सशक्त गुप्तचर व्यवस्था का समर्थन हासिल था। राज्य में विभिन्न प्रकार के गुप्तचर नियुक्त किये गये थे जो विदेशी शत्रुओं के बारे में सूचनाएं उपलब्ध कराते थे तथा अधिकारियों पर भी निगरानी रखते थे।
महत्वपूर्ण अधिकारियों को तीर्थ कहा जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश कर्मचारियों को नगद भुगतान किया जाता था। उच्चतम अधिकारी मंत्री, पुरोहित, सेनापति और युवराज हुआ करते थे जिन्हें उच्च वेतन दिया जाता था। इन्हें 48000 पन (एक चांदी की मुद्रा जो लोला के तीन चौथाई के बराबर है) दिये जाते थे। न्यूनतम वेतन छोटे कर्मचारियों को 10 से 20 पन तक दिया जाता था। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उच्चतम और न्यूनतम श्रेणी के कर्मचारियों के बीच एक बहुत बड़ा अंतर था।
4.1 आर्थिक गतिविधियां
यदि हम कौटिल्य के अर्थशास्त्र पर विश्वास करें तो यह मानना होगा कि राज्य ने 27 अध्यक्ष नियुक्त किये थे जो आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित करते थे। वे कृषि, व्यापार, नापतौल तथा कढ़ाई-बुनाई तथा खनन आदि गतिविधियां का निरीक्षण करते थे। राज्य की ओर से कृषि कार्य हेतु सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराई जाती थी। मेगास्थनीज हमें बताते है कि मौर्य साम्राज्य में जमीन की नपती करने के लिए अधिकारी नियुक्त किये जाते थे और वे जल वितरण की व्यवस्था की देखभाल भी करते थे।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार मौर्यकाल का सबसे बड़ा सामाजिक परिवर्तन यह था कि दासों को कृषि कार्यो में रोजगार दिया गया। मेगास्थनीज कहता है कि उसने भारत में कोई भी दास नहीं देखा। किंतु इसमें भी कोई शक नहीं है कि वैदिककाल से ही भारत में घरेलू दास प्रथा प्रचलन में थी। मौर्य काल से ही दासों को बड़ी संख्या में कृषि कार्य में उपयोग किया जाने लगा। राज्य के द्वारा भी कृषि कार्य में बड़ी संख्या में दासों को लगाया गया था। अशोक के द्वारा कलिंग से लाये गये 150000 युद्ध बंदियों को भी कृषि कार्य में लगाया गया। किंतु प्राचीन भारतीय समाज में दास प्रथा का प्रचलन नहीं था। जो स्थिति ग्रीस और रोम में दासों की थी वहीं स्थिति भारत में शुद्रों की थी। शुद्र उच्च तीन वर्णों की सामूहिक सम्पत्ति माने जाते थे। उन्हें दासों, कारीगरों, कृषि श्रमिकों, और घरेलू नौकरों के रूप में कार्य करने को मजबूर किया जाता था।
कुछ कारणों से यह स्पष्ट होता है कि सम्पूर्ण साम्राज्य में प्रशासनिक नियंत्रण बहुत कठोर था। ऐसा पाटली पुत्र की रणनीतिक स्थिति के कारण सम्भव हो सका क्योंकि यहां से चारों दिशाओं की ओर नियंत्रण आसान था। नौका मार्ग के अतिरिक्त पाटली पुत्र से वैशाली और चंपारण होते हुए नेपाल तक का राजमार्ग भी उपलब्ध था। हमें हिमालय की तरई की सड़कां के बारे में सुनने को मिलता है। एक सड़क वैशाली से चंपारन होते हुए कपिलवस्तु, कल्सी (देहरादून जिले में स्थित), हजारा होते हुए पेशावर तक पहुचती थी। मेगास्थनीज उत्तर पश्चिम भारत से पटना को जोड़ने वाली सड़क के बारे में भी बताता है। पटना से होते हुए सासाराम के रास्ते मिर्जापुर से मध्य भारत तक भी पहुंचा जा सकता था। पूर्वी मध्य प्रदेश के रास्ते पाटलीपुत्र कलिंग से भी जुड़ा हुआ था और कलिंग के आगे यह रास्ता आंध्र होते हुए कर्नाटक पहुंचता था। इन सारे मार्गो से परिवहन व्यवस्था सुदृढ़ हो गई थी और यहां घोड़े यातायात का एक प्रमुख साधन थे। उत्तर के मैदानों में गंगा और अन्य नदियां यातायात का प्रमुख मार्ग थी।
प्रमुख राजमार्गों पर अशोक के शिलालेखों का पाया जाना यह दर्शाता है कि देश के प्रमुख हिस्सों पर मौर्य सत्ता का नियंत्रण मुगलों और अंग्रेजों के समान ही था। मध्यकालीन यातायात व्यवस्था सुचारू राजमार्गों पर घोड़ां के उपयोग के कारण तुलनात्मक रूप से आधुनिक हो चुकी थी। ईस्ट इंडिया कंपनी तो 1830 के बाद से नौकाओं का उपयोग करने लगी थी।
मौर्य शासकों को बहुत बड़ी जनसंख्या का सामना नहीं करना पड़ा। सभी के मतानुसार मौर्य सेना की संख्या 650000 से ज्यादा नहीं थी। यदि कुल जनसंख्या के दस प्रतिशत लोगों को भी सेना में भर्ती किया गया होगा तो भी गंगा के मैदानों की जनसंख्या के 65 लाख से ज्यादा नहीं रही होगी। अशोक के शिलालेख बताते हैं कि राजसी आदेश सुदूर पूर्व और दक्षिण को छोड़कर पूरे देश में लागू होते थे, किंतु गंगा के मैदानों को छोड़कर कई प्रदेशों में मौर्य नियंत्रण सख्त नहीं था।
प्राचीन भारत की कर प्रणाली के दृष्टिकोण से मौर्यकाल एक महत्वपूर्ण पढ़ाव था। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में किसानों, कारीगरों और व्यापारियों से कई प्रकार के करों के लिए जाने का उल्लेख किया है। इसके निर्धारण, संग्रहण आदि के लिए एक सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था की जरूरत थी। मौर्य शासकों ने कर संग्रहण की अपेक्षा उसके निर्धारण पर ज्यादा जोर दिया। कर निर्धारण के लिए समाहर्ता उच्च अधिकारी हुआ करता था तथा राज्य के कोषालय के प्रमुख को सन्नीधाता कहा जाता था। प्रथम अधिकारी के द्वारा की गई हानि को द्वितीय अधिकारी द्वारा की गई हानि से ज्यादा गम्भीर माना जाता था। वास्तव में मौर्यकाल में एक विस्तृत कर प्रणाली प्रचलन में थी। अर्थशास्त्र में वर्णित करों की सूची विस्तृत है और यदि वास्तव में इतने कर एकत्रित किये जाते थे तो शायद ही कोई कराधान से बच पाता होगा।
हमारे पास ऐसे कई प्रमाण है जो यह दर्शाते हैं कि ग्रामीण स्तर पर खाद्य संग्रहण के केन्द्र थे। यह भी प्रतीत होता है कि कर संग्रहण एक लचीली प्रक्रियां थी। और यह खाद्य संग्रहण केन्द्र ग्रामीणों और गरीबों की मदद के लिए थे। अकाल, भुखमरी, या सूखे के समय की पूर्व योजना भी तैयार की जाती थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि चांदी के ऐसे सिक्के जिस पर मयूर का निशान बना होता था राज मुद्रा हुआ करती थी। ऐसे सिक्के बड़ी मात्रा में पाये गये है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस सुचारू मुद्रा प्रणाली के कारण ही इतनी बड़ी मात्रा में कर संग्रहण तथा अधिकारियों को नगद वेतन भुगतान किया जाता था। इसके अतिरिक्त, इसकी एकरूपता के कारण यह मुद्रा देश के बड़े हिस्से में व्यापार के लिए भी उपयोगी थी।
4.2 कला और स्थापत्य
मौर्य शासकों ने कला और स्थापत्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उस काल में पत्थर की नक्काशी वृहद स्तर पर विकसित हुई। मेगास्थनीज कहता है कि पाटलीपुत्र में बना मौर्यों का महल उतना ही भव्य था जितना की ईरान की राजधानी में बना हुआ। आधुनिक पटना के बाह्य क्षेत्र कुमहरार में खोजा गया महल 80 स्तम्भों पर टिका हुआ था जो पत्थर से बने हुए थे। मेगास्थनीज कहता है कि मौर्यकाल में कारीगरों द्वारा पत्थर को चमकदार बनाया जाता था। आज भी कई ऐसे अवशेष उपलब्ध है जिनमें पत्थर की चमक यथावत बनी हुई है। उस दौर में यह निश्चित ही एक कठिन कार्य रहा होगा की इतने बड़े पत्थरों को विस्थापित कर, चमकदार बनाकर उन्हें उचित स्थान पर लगाया जाता था। निश्चित ही, इसमें उच्च स्तर की तकनीकी दक्षता की आवश्यकता रहीं होगी। प्रत्येक स्तम्भ एक ही पत्थर से बना होता था। इसके शीर्ष पर शेर या वृषभ की आकृती उकेरी जाती थी। यह चमकदार स्तम्भ पूरे देश में पाये जाते है जो उस दौर में उपलब्ध यातायात के साधनों की दक्षता के बारे में भी बताते है। मौर्यकालिन कारीगरों ने बौद्ध भिक्षुओं के रहने के लिए गुफाओं का निर्माण भी किया। गया से 30 कि.मी. स्थित बराबर गुफाएं इसका सर्वोत्तम उदाहरण है बाद में इस प्रकार की गुफाएं पश्चिमी और दक्षिणी भारत में भी बनाई गई।
5.0 पदार्थवादी संस्कृति का विस्तार और राज्य प्रणाली
एक और जहा मौर्य शासकों ने पहली बार एक सुव्यवस्थित प्रशासनिक तंत्र स्थापित किया था जो सम्राज्य के केन्द्र से संचालित होता था। वहीं दूसरी ओर उनकी जीतों ने व्यापार और धर्माथ कार्यो के लिए भी नवीन द्वारा खोल दिये। ऐसा लगता है कि प्रशासकों, व्यापारियों, तथा बौद्ध और जैन श्रमणों के नवीन सम्पर्क के कारण गंगा के मैदानों में विकसीत संस्कृति राज्य के बाह्य छोरों तक फैलने लगी। गंगा के मैदानों में विकसित यह संस्कृति लोहे के उपयोग तथा चांदी की मुद्रा और कारीगरी पर आधारित थी। जिसके कारण पकी हुई ईटों का इस्तेमाल लगभग पूरे भारत के शहरों में होने लगा। एरीयन्स नामक एक ग्रीक लेखक कहता है कि भारत में उस समय बसे हुए शहरों की संख्या पता करना सम्भव नहीं था क्योंकि वें बहुत ज्यादा मात्रा में थे।
इस प्रकार मौर्यकाल में गंगा के मैदानों के साथ-साथ सम्पूर्ण भारत में पदार्थवादी संस्कृति का विस्तार हुआ। दक्षिण बिहार में उपलब्ध लोहे की सहजता के कारण इसका उपयोग बड़ी मात्रा में होने लगा। इस काल खंड में लोहे की कुल्हाड़ियों हलों आदि का उपयोग खूब होने लगा। यद्यपि अस्त-शस्त्रों के निर्माण पर मौर्य शासकों का एकाधिकार हुआ करता था, किंतु अन्य औजारों के बनाने पर दूसरे वर्गों के लिए कोई प्रतिबंध नहीं था। इनका निर्माण और उपयोग गंगा घाटी से लगाकर सम्राज्य के सूदूर शहरों तक होता था। मौर्यकाल में पहली मर्तबा पकी हुई ईटों का इस्तेमाल होने लगा। बिहार और उत्तरप्रदेश में पकी हुई ईटों के उपयोग के अवशेष मिलते है। मकान ईटों के साथ-साथ लकड़ी के भी बने होते थे जो कि उस दौर में प्रचुर मात्रा में आसानी से उपलब्ध थी।
मेगास्थनीज राजधानी पाटलीपुत्र में बने हुए लकड़ी के मकानों का उल्लेख करता है। प्रमाण यह भी बताते है कि लकड़ी के गठ्ठां का उपयोग बाढ़ और विदेशी आक्रमण से बचने के लिए भी किया जात था। पकी हुई इटों का उपयोग लगभग पूरे साम्राज्य में होने लगा था। क्योंकि मौसम ज्यादा तर नम होता था और भारी वर्षा भी होती थी इसलिए कच्ची मिट्टी के मकानों का उपयोग सहज नहीं था। इसलिए पकी हुई ईट की खोज एक वरदान सिद्ध हुई। इसके परिणामस्वरूप साम्राज्य में शहरों का फलना-फूलना प्रारंभ हुआ। इसी प्रकार कुओं के उपयोग का पहला प्रमाण ही मौर्यकाल में उपलब्ध होता है। क्योंकि कुओं से लोगों को घरेलू जरूरतों के लिए पानी उपलब्ध होने लगा तो उनके लिए अब यह जरूरी नहीं रह गया था कि वे केवल नदीयों के किनारे ंही अपनी बस्तियां बसाये। इस प्रकार अन्य क्षेत्रों में भी बस्तियां विकसित होने लगी।
गंगा के मैदानों में विकसित संस्कृति उत्तरी बंगाल, कलिंग, आंध्र और कर्नाटक में भी स्थानांतरित होने लगी। बांग्लादेश में बोगरा जिले में ब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ महास्थान लेख पाया जाता है। इसके अतिरिक्त बंगाल के दिनाजपूर जिले और चोबिस परगना जिलों में भी शिलालेख उपलब्ध होते है। उड़ीसा के शिशुपालगढ़ में भी गंगा के मैदानों की संस्कृति देखी जा सकती है। यह बस्तियां मौर्यकाल में तीन शताब्दी ई.पू. अस्तित्व में आई और इनमें एनबीपीडब्ल्यू और लोहे के उपयोग के साथ-साथ चॉंदी के सिक्कों का उपयोग होने लगा था। क्योंकि शिशुपालगढ़ ढोली के निकट स्थित है जहा प्राचीन राजमार्ग के अशोक के शीलालेख पाये गये है, इससे यह सिद्ध होता हैं कि पदार्थवादी संस्कृति मगध के सम्पर्क के कारण वहॉं तक फैल चुकी थी। यह सम्पर्क चौथी शताब्दी ई.पू. तब प्रारंभ हुआ होगा जब नंदवंश ने कलिंग को जीत लिया था। किंतु इसका प्रभाव अशोक की कलिंग विजय के पश्चात ज्यादा गहरा हो गया जब उसने तीसरी शताब्दी ई.पू में शांति की नीति को अपनाते हुए ओडिसा को अपने साम्राज्य में मिला लिया।
यद्यपि कर्नाटक और अ्रांध में मौर्यकालीन लौह अस्त-शस्त्र पाये गये है, तो भी लोह तकनीक के विकास में पत्थर के कारीगरों का योगदान रहा होगा जिन्होनें इन औजारों की मदद से पत्थर के बड़े-बड़े सतम्भ तैयार किये। अशोक के शीलालेख जो पत्थर की कारीगरी का द्वितीय नमूना है आंध्रप्रदेश में अमरावती से लगाकर कर्नाटक तक पाये गये हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे-जैसे लोग मौर्यकला के सम्पर्क में आते गये वैसे-वैसे मौर्यकला दक्षिण के पठार की ओर बढ़ती गई।
मौर्य सम्पर्को के साथ लौहे से स्टील बनाने की कला भी पूरे देश में फैलने लगी। दूसरी शताब्दी ई.पू. के स्टील की चीजें गंगा के मैदानों में पाई गई है। स्टील के उपयोग ने जंगलों को काटने और कलिंग की भूमि को कृषि योग्य बनाने में मदद की होगी; इसी की मदद से इस क्षेत्र में चैती राज्य विकसित हुआ होगा। यद्यपि पहली शताब्दी ई.पू. दक्षिण में सातवाहन साम्राज्य का उदय हो गया था तो भी कई अर्थो में यह वंश मौर्य साम्राज्य की ही अगली कड़ी था। उन्होंने मौर्य शासन प्रणाली की कई इकाईयों को यथावत बनाये रखा। उनके साम्राज्य में मौर्यकार्य प्रणाली कई स्तरों पर बनी रहीं।
दक्षिण प्रायद्विपीय भारत में राज्य निर्माण के तत्व न केवल चैती और सातवाहनों ने अपनाये बल्कि चेर, चोल और पांड्य ने भी मौर्य प्रणाली से प्रेरणा ग्रहण की। अशोक के शिलालेखों के अनुसार उपरोक्त तीनों ही प्रकार के लोग सत्यपुत्र कहे जाते थे और तमप्रपणी या श्रीलंका में रहते हुए मौर्य साम्राज्य की सीमाओं में प्रवेश करते थे। इस प्रकार वें मौर्य राज्य से परिचित थे। पाण्डया वंश से तो मेगास्थनीज भी परिचित था। अशोक ने स्वंय के लिए ‘देवानामप्रिय‘ की उपाधि ली थी जिसका तमिल में भी अनुवाद किया गया और जो संगम साहित्य में भी उपलब्ध है।
अशोक के शीलालेखें और मौर्यकानीन मुद्राओं का बांग्लादेश, उड़ीसा, आंध्रा और कर्नाटक जैसे सुदूर क्षेत्रों में पाया जाना इस तथ्य का संकेत है कि मौर्य शासकों ने गंगा के तटीय क्षेत्रों की संस्कृति को अन्य राज्यों में भी फैलाने का प्रयास किया। यह लगता है कि इस प्रक्रियां में कौटिल्य को सलाह का पालन किया गया। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कहा है कि नवीन क्षेत्रों में कृषको को बसाया जाना चाहिए, जो निश्चित रूप से वैश्य होने चाहिए तथा क्षुद्रों को श्रकिं को अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्रों से भेजा जाना चाहिए। नवीन भूमि कृषि योग्य बनाने के लिए नये कृषकों को करों से छूट दी जाना चाहिए और साथ ही उन्हें मवेशी, बीज व धन भी उपलब्ध कराना चाहिए। राज्य ने इस आशा के साथ इस नीति को अपनाना चाहिए कि इस निवेश का प्रतिफल भविष्य में मिलेगा। ऐसे क्षेत्रों में जहा लोग लोहे के औजारों से परिचित नहीं है, ऐसा बस्तियां बसाना आवश्यक है। इस नीति के परिणामस्वरूप कईं नवीन बस्तियां बसाना आवश्यक है। इस नीति के परिणामस्वरूप कई नवीन बस्तियां अस्तित्व में आयी और बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाया जा सका।
गंगा के मैदानों की संस्कृति को मध्यभारत की जनजातिय संस्कृति में मिलाने में मौर्यशासक किस सीमा तक सफल हुये यह नहीं कहा जा सकता, किंतु यह स्पष्ट है कि अशोक ने जनजातिय लोगों से सम्पर्क बनाये रखा था, तथा उन्हें धर्म के पालन के लिए प्रोत्साहित भी किया था। अशोक द्वारा नियुक्त ‘धर्ममहामात्य‘ से जनजातिय लोगों के सम्पर्क ने उन्हे गंगा के मैदानों की संस्कृति को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। अशोक ने इस संबंध में एक उदारवादी और व्यवस्थित नीति को अपनाया। वह कहता है कि धर्म के साथ एकाकार होना ही ईश्वर के साथ मिलना है। इसका परिणाम यह हुआ कि जनजातीय समूह, करदाता किसानों के रूप में परिवर्तित हो गये तथा राज-परिवार, बौद्ध-भिक्षु तथा राजसी अधिकारियों का सम्मान करने लगे। इन अर्थों में उसकी नीति सफल हुई। अशोक ने दावा किया है कि मछुआरों और शिकारी समूहों ने धर्म की खातिर अपना व्यवसाय छोड़ दिया था। इसका आशय यह है कि वे भी कृषक-समाज के रूप में परिवर्तित हो गये थे।
6.0 मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण
मगध साम्रराज्य, जो लगातार लड़े गये युद्धों के कारण सशक्त हुआ था, कलिंग युद्ध के समय अपने शीर्ष पर पहुंच गया। तथा 232 ई.पू. में अशोक के निर्गमन के पश्चात् इसका पतन प्रारम्भ हो गया। मौर्य साम्रराज्य के पतन के कुछ प्रमुख कारण निम्नानुसार है :
6.1 ब्राह्मण प्रतिक्रिया
अशोक की नीति के विरूद्ध ब्राह्मण प्रतिक्रियाएं प्रारम्भ हो चुकी थी। निसंदेह अशोक ने सहिष्णु नीतियां अपनायी थी और लोगों से ब्राह्मणों का सम्मान करने का आव्हान किया था, किंतु उसने पशु-पक्षियों की हत्या पर प्रतिबंध लगा दिया था और पण्डितों के रीति-रीवाजों पर भी प्रतिबंध लगा दिया था। इसके कारण ब्राह्मणों की आय प्रभावित होने लगी थी। अशोक और बौद्ध धर्म का बली प्रथा का विरोध वाली प्रवृत्ति के कारण ही ब्राह्मणों को मिलने वाला दान प्रभावित होने लगा था। इसलिए अशोक की सहिष्णु नीति के बावजूद ब्राह्मणों में अशोक के प्रति एक किस्म का विरोध प्रारंभ हो गया था। स्पष्ट है कि वे अशोक की नीतियों से संतुष्ट नहीं थे। वास्तव में वे एक ऐसी नीति चाहते थे जो उनके विशेषाधिकारों को बनाये रखे। मौर्य साम्रज्य के पतन के बाद जिन राज्यों का उदय हुआ उनका शाषण ब्राह्मणों द्वारा ही किया गया। शुंग और कण्व जिन्होने मध्यप्रदेश और मौर्य साम्राज्य के पूर्वी हिस्से पर शासन किया वे ब्राह्मण ही थे। इसी प्रकार सात वाहन जिन्होंने दक्षिण के अांध्र में राज्य स्थापित किया भी ब्राह्मण ही थे। ब्राह्मण राजवंशों ने अशोक के द्वारा प्रतिबंधित की गई वैदिक बली प्रथा को पुनः प्रारंभ किया।
6.2 वित्तीय संकट
सेना और प्रशासनिक अधिकारियों के बड़े अमले को दिये जाने वाला नगद वेतन भी एक बहुत बड़ी समस्या था जो मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण बनी । जहां तक हमें ज्ञात होता है प्राचीन भारत मे मौर्य साम्राज्य के पास सबसे विशाल सेना और सबसे बड़ा प्रशासनिक तंत्र था। प्रजा पर सभी प्रकार के कर लादने के बावजूद भी इतने बड़े तंत्र को सम्भालना कठिन था। इसके अतिरिक्त अशोक ने बौद्ध भिक्षुओं बहुत बड़ी मात्रा में दान दिया जिसके कारण राजकीय कोषालय पूरी तरह खाली हो गया। अपने अंतिम दौर में मौर्य साम्राज्य को अपने व्यय को पूरा करने के लिए उन सोने की मूर्तियों को भी पिघालना पड़ा जो उनके पूर्वजों ने बनाई थी।
6.3 अत्याचारी शासन
प्रांतों में अत्याचारी शासन भी साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण था। बिंदुसार के शासन काल में भी तक्षशिला के नागरिक अधिकारियों के बुरे व्यवहार की शिकायत करते थे। अशोक के शासनकाल में नागरिकों की शिकायतों का निवारण हो जाता था। किंतु अशोक जब शासक बना तब भी यह शिकायत तो बनी ही रही।
अशोक का कलिंग शिलालेख बताता है कि अशोक इन अत्याचारों से बहुत दुखी था। इसलिए उसने अपने महामात्यों को आदेश दिया था कि वह बिना उचित कारण के महिलाओं को परेशान ना करें। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए वह तोषली, उज्जयनी और तक्षशिला के अधिकारियों का स्थानांरण करता रहता था। उसने स्वंय 256 दिनों की एक धार्मिक यात्रा भी की थी जिसने उसने प्रशासनिक परिक्षण में मदद की होगी। किंतु इन सब के बावजूद भी साम्राज्य के प्रांतों विशेषकर सुदूर इलाकों में जनता पर अत्याचार होते ही थे।
6.4 बाह्य क्षेत्रों में नवीन ज्ञान
मगध को उसकी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति का फायदा मिला था क्यांकि इस क्षेत्र में कुछ आधारभूत संसाधन उपलब्ध थे। जैसे ही इन संसाधनों का ज्ञान गंगा
के मैदान के बाहरी क्षेत्रों में फैला वैसे ही मगध साम्राज्य का विस्तार रूक गया। लोह के औजारों और अस्त-शस्त्रों का उपयोग अब बाह्य राज्यों में होने लगा था जो कि मौर्य साम्राज्य के पतन कारण बना। मगध से ही इन चीजों का ज्ञान लेकर नये साम्राज्य स्थापित हो गये। मध्य भारत में शुंग और कण्व राजवंशों का उदय हुआ तथा दक्षिण में चैती और सात वाहन अस्तित्व में आये।
6.5 उत्तर-पश्चिम सीमांत की अवहेलना तथा चीन की महान दीवार
क्योंकि अशोक ने अपनी सारी उर्जा धर्माथ कार्यो में खर्च की, इसलिए वह उत्तर पश्चिम सीमा की सुरक्षा की ओर ध्यान नहीं दे सका। तीसरी शताब्दी ई.पू. में मध्य एशिया की जनजातियों में होने वाले बदलावों के कारण यह आवश्यक हो गया था। मध्य एशिया में सीथिनियन एक महत्वपूर्ण राज्य था। यह एक खानाबदोश जनजाति के द्वारा शासित राज्य था जो घोड़ों की अच्छी नस्लों के लिए प्रसिद्ध था। वे भारत और चीन के स्थापित साम्राज्यों के लिए एक खतरा बनकर उभर रहे थे। शिह-हुंग-टी (247-210 ई.पू.) ने सीदियन आक्रमणों से बचने के लिए 220 ई.पू. में चीन की महान दीवार बनाना प्रारंभ कर दिया था। अशोक ने ऐसे कोई कदम नहीं उठाये। स्वाभाविक तौर पर जब सिथीयन लोग जब भारत की तरफ खदेड़े गये तो उन्होंने परथियन, शक और ग्रीक लोगों को भारत की ओर अंदर तक खदेड़ा। ग्रीक लोगों ने उत्तरी अफगानिस्तान में बैक्ट्रीया नामक एक राज्य स्थापित कर लिया था। 206 ई.पू. में वे पहले विदेशी थे जिन्होंने भारत पर आक्रमण किया था। अगले 200 वर्षां तक यह सिलसिला जारी रहा। 185 ई.पू. में पुष्यमित्र शुंग द्वारा अंततः मौर्य साम्राज्य को समाप्त घोषित कर दिया गया। वह एक ब्राम्हण था जो बृहद्रथ नामक अंतिम मौर्य सम्राट का सेनापति था। उसने बृहद्रथ को जनता के सामने मार डाला और सिहांसन पर अधिकार कर लिया। शुंग राजवंश ने पाटलीपुत्र और मध्य भारत में शासन किया और उन्होनें कुछ वैदिक प्रथाओं को पुनः प्रारंभ करवाया जिनमें से बली प्रथा भी एक थी। यह कहा जाता है कि उसने कई बौद्ध भिक्षओं को मरवा भी दिया था। शुंग राजवंश के पश्चात कर्ण राजवंश का उदय हुआ वे भी ब्राहम्ण ही थे।
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