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विभिन्न संविधानों के मूल गुणधर्मों की तुलना
1.0 अमेरिकी संविधान और सरकार
अमेरिकी संविधान संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान है, जिसकी स्थापना 1787 की अमेरिकी क्रांति (1775-1783) के पश्चात् हुई थी। संविधान को 1787 के फीलडैलफिया सम्मलेन में स्वीकृत किया गया एवं 1789 से लागू किया गया। अमेरिकी संविधान की प्रमुख विशेषताओं को नीचे विस्तार से समझाया गया है।
1.1 लिखित संविधान
अमेरिकी संविधान को आमतौर पर लिखित संविधान के एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। वास्तव में, यह विश्व के विद्यमान लिखित संविधानों में सबसे प्राचीन संविधान है। यह पूरा संविधान 12 पन्नों में समाविष्ट है, जिसमें प्रस्तावना, 7 अनुच्छेद और 27 संशोधन शामिल हैं। हालांकि वास्तविक कार्यात्मक संवैधानिक प्रणाली में, संविधान के दस्तावेज के अतिरिक्त निम्न बातें शामिल हैंः
- कांग्रेस (अर्थात, अमेरिका की विधायिका) की संविधियाँ (विधान) जो कई शासकीय एजेंसियों की संरचना, संगठन और कार्यों को निर्धारित करती हैं।
- कांग्रेस द्वारा निर्मित संविधियों को व्यावहारिक स्वरुप प्रदान करने के उद्देश्य से राष्ट्रपति द्वारा समय-समय पर जारी किये गए आदेश।
- न्यायिक समीक्षा प्रणाली के माध्यम से संविधान की व्याख्या से सम्बंधित न्यायिक निर्णय। उदाहरणार्थ, सर्वोच्च न्यायालय ने संघीय क्षेत्राधिकार का दायरा ‘अन्तर्निहित शक्तियों’ के सिद्धांत के माध्यम से विस्तारित कर दिया है।
- संविधान के दायरे में धीरे-धीरे विकसित हुईं राजनीतिक परम्पराएँ। उदाहरणार्थ, राष्ट्रपति का मंत्रिमंडल पूरी तरह से एक परंपरा का उत्पाद है।
अमेरिका का संविधान, या संवैधानिक प्रणाली, जैसी वह आज विद्यमान है, 1787 के संवैधानिक दस्तावेजों और बाद के संशोधनों, कांग्रेस द्वारा निर्मित संविधियों, कार्यकारी आदेशों, न्यायिक व्याख्याओं और राजनीतिक परम्पराओं का परिणाम है।
1.2 अनम्य संविधान
ब्रिटिश संविधान के विपरीत, अमेरिका का संविधान अनम्य संविधान है। इसे, जिस प्रकार सामान्य कानून बनाये जाते हैं, उस प्रकार से सरलता से संशोधित नहीं किया जा सकता। इसे संविधान में इसके लिए निहित विशिष्ट प्रक्रिया के माध्यम से ही कांग्रेस द्वारा संशोधित किया जा सकता है। इसीलिए अमेरिका में संवैधानिक कानून और सामान्य कानून में अंतर दिखाई देता है।
अमेरिकी संविधान, विश्व का सबसे अनम्य संविधान, इसमें संशोधन के लिए निम्न दो प्रक्रियाएं निर्दिष्ट करता है
- कांग्रेस के दोनों सदनों के दो तिहाई मतों से संशोधन प्रस्तावित किया जा सकता है। इसकी संपुष्टि तीन चौथाई राज्यों की विधायिकाओं द्वारा (50 में से 38) सात वर्ष की कालावधि के भीतर होना आवश्यक है।
- वैकल्पिक रूप से, कोई संशोधन दो-तिहाई राज्यों की विधायिकाओं (50 में से 34) की याचिका पर कांग्रेस द्वारा बुलाये गए संवैधानिक सम्मेलन द्वारा प्रस्तावित किया जा सकता है। सम्मेलन द्वारा इसकी संपुष्टि तीन-चौथाई राज्य विधायिकाओं द्वारा (50 में से 38) होना अनिवार्य है।
अतः, अमेरिकी संविधान द्वारा निर्दिष्ट संशोधन प्रक्रिया अत्यंत कठिन, जटिल और धीमी है। इसकी अनम्य विशेषता की कल्पना इस बात से भलीभांति की जा सकती है, कि 1789 में लागू होने के बाद से अब तक इसमें केवल 27 बार संशोधन किये गए हैं।
1.3 संघीय संविधान
संयुक्त राज्य अमेरिका एक संघ राज्य है। वास्तव में, संयुक्त राज्य अमेरिका आधुनिक विश्व में पहला और सबसे प्राचीन संघ राज्य है। यह एक संघीय गणराज्य है जिसमें 50 राज्य (मूल रूप से 13 राज्य थे) और कोलंबिया का जिला (डी.सी.) शामिल हैं। संविधान में संघ शासन (केंद्र) और राज्य शासनों के बीच अधिकारों के विभाजन का प्रावधान है। यह संघ में सीमित और विशिष्ट शक्तियां ही निहित करता है, जबकि बची हुई (अवशिष्ट) शक्तियां राज्यों में निहित करता है (ये शक्तियां संविधान में उल्लेखित नहीं हैं)। प्रत्येक राज्य का अपना स्वतंत्र संविधान, निर्वाचित विधायिका, राज्यपाल (गवर्नर) और सर्वोच्च न्यायालय है।
1.4 राष्ट्रपति शासन
ब्रिटिश संविधान के विपरीत, अमेरिकी संविधान में राष्ट्रपति शासन प्रणाली का प्रावधान किया गया है। अमेरिका की अध्यक्षीय शासन प्रणाली की विशेषतायें निम्नानुसार हैं :
- अमेरिका का राष्ट्रपति राज्य प्रमुख और शासन प्रमुख, दोनों है (भारत के विपरीत, जहां राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ये दो अलग-अलग कार्य करते हैं)। राज्य के प्रमुख के रूप में, वह एक रस्मी स्थान रखता है। शासन प्रमुख के रूप में, वह सरकार के कार्यपालिका तंत्र का नेतृत्व करता है। संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति प्रमुख वास्तविक कार्यकारी है। (भारत में यह स्थान प्रधान मंत्री का है)
- राष्ट्रपति का निर्वाचन एक निर्वाचन मंडल द्वारा चार वर्ष की स्थिर अवधि के लिए किया जाता है। उसे कांग्रेस द्वारा, किसी गंभीर असंवैधानिक कार्य के लिए महाभियोग को छोड़ कर, हटाया नहीं जा सकता।
- राष्ट्रपति एक मंत्रिमंडल की सहायता से, या एक छोटे निकाय के माध्यम से, जिसे गुप्त सलाहकार (किचन कैबिनेट) भी कहा जाता है, शासन चलाता है। यह केवल एक परामर्श देने वाला समूह है, जिसमें गैर निर्वाचित विभागीय सचिव शामिल होते हैं। उनका चयन और उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा ही की जाती है, और वे केवल राष्ट्रपति के प्रति ही उत्तरदायी होते हैं। वह उन्हें किसी भी समय हटा सकता है। (भारत में वे सभी संसद के निर्वाचित सदस्य होते हैं - या तो लोक सभा के या राज्य सभा के)
- राष्ट्रपति और उनके सचिव अपने कार्यों के लिए कांग्रेस के प्रति उत्तरदायी नहीं होते। वे ना तो कांग्रेस के सदस्य होते हैं, और ना ही उसके अधिवेशनों में भाग लेते हैं। (भारत में स्थिति इसके ठीक उलटी है )
- 5.राष्ट्रपति प्रतिनिधि सभा - कांग्रेस का निचला सदन - को भंग नहीं कर सकते।
1.5 अधिकारों का विभाजन
अधिकारों के विभाजन का सिद्धांत अमेरिकी संवैधानिक प्रणाली का आधार है। शासन की विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शक्तियां विभाजित की गई हैं और इन्हें शासन के तीन स्वतंत्र तंत्रों के अंतर्गत रखा गया है। संविधान के प्रथम तीन अनुच्छेद संविधान की इस विशेषता को स्पष्ट रूप से विशद करते हैं। अनुच्छेद 1 कहता है कि एतद् द्वारा प्रदत्त सभी विधायी शक्तियां कांग्रेस में निहित होंगी। अनुच्छेद 2 कहता है कि कार्यकारी शक्तियां राष्ट्रपति में निहित होंगी। अनुच्छेद 3 में प्रावधान है कि सभी न्यायिक शक्तियां एक सर्वोच्च न्यायालय और ऐसे निचले न्यायालयों में निहित होंगी जो कांग्रेस द्वारा समय-समय पर आदेशित किये जाएंगे या स्थापित किये जायेंगे।
(हमारे यहां भारत में, एक सैद्धांतिक रूप से नियंत्रण और संतुलन प्रणाली अस्तित्व में है, किंतु आमतौर पर कार्यकारी विधायिका के अधीन हो जाता है, हालांकि न्यायपालिका काफी हद तक स्वतंत्र रहती है)
1.6 नियंत्रण और संतुलन (चेक्स् व बैलेंसेस्)
अमेरिकी संविधान की नियंत्रण और संतुलन प्रणाली शक्तियों के विभाजन के सिद्धांत के पालन करने का परिणाम है। यह शासन के प्रत्येक अंग को अन्य अंगों पर आंशिक प्रभाव डालने में सक्षम बनाता है, जिससे कोई भी अंग निरंकुश और गैर-जिम्मेदार नहीं बन पाता। इसका अर्थ यह है कि शासन के किसी भी अंग को अपने अधिकार क्षेत्र में भी असीमित और अप्रतिबंधित शक्तियां प्राप्त नहीं हैं।
अमेरिकी संवैधानिक प्रणाली में कार्यरत नियंत्रण और संतुलन प्रणाली के कुछ पहलू निम्नानुसार हैंः
- राष्ट्रपति कांग्रेस द्वारा पारित विधेयकों पर अपने निषेधाधिकार का प्रयोग कर सकता है। उसके पास दो प्रकार के निषेधाधिकार हैं - पॉकेट वीटो और अर्हता प्राप्त वीटो।
- राष्ट्रपति द्वारा की गई उच्च पदस्थ नियुक्तियों और राष्ट्रपति द्वारा की गई अंतर्राष्ट्रीय संधियों की पुष्टि सीनेट द्वारा की जाती है।
- कांग्रेस न्यायपालिका के संगठन और अपीलीय क्षेत्राधिकार का निर्धारण करती है।
- राष्ट्रपति सीनेट की सहमति से न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय कांग्रेस द्वारा निर्मित कानूनों और राष्ट्रपति के आदेशों को अधिकारतीत घोषित कर सकता है।
2.0 फ्रेंच संविधान और शासन
फ्रांसिसी क्रांति (1789-1799) का फ्रांसिसी संविधान प्रणाली के विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है। क्रांति के समय से, फ्रांस ने अपना संविधान औसतन प्रत्येक 12 वर्षों की अवधि में परिवर्तित किया है। उसने अब तक तीन राजतंत्रवादी, दो अधिनायकवादी, तीन साम्राज्यवादी और चार गणतंत्रवादी संविधानों का अंगीकार किया है। (याद रहे, भारत ने 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात केवल एक ही संविधान रहा है!) फ्रांस का वर्तमान संविधान, जिसने पांचवें गणतंत्र की स्थापना की है, 1958 में लागू किया गया। इसकी निर्मिति जनरल डी गॉल के निर्देशों के अधीन की गई थी। इसकी रचना फ्रांस को एक सशक्त और स्थायी शासन प्रदान करने के उद्देश्य से की गई थी। फ्रांस के पांचवें गणतंत्रवादी संविधान की प्रमुख विशेषतायें निम्नानुसार हैंः
2.1 लिखित संविधान
अमेरिकी संविधान की ही तरह, फ्रांस का संविधान भी एक लिखित संविधान है, जिसमें एक प्रस्तावना और 92 अनुच्छेद हैं जो 15 खंडों में विभाजित हैं। यह पांचवें गणतंत्र के आदर्शवाक्य के रूप में ‘स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे’ को उद्घोषित करता है। संविधान का अनुच्छेद 2 कहता है कि ‘फ्रांस एक गणतंत्र है, जो अविभाज्य, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और सामाजिक है।’
अनुच्छेद 1 गणतंत्र और विदेशी प्रदेशों द्वारा संविधान के अंगीकरण और एक समुदाय की स्थापना से संबंधित है। इसे प्रस्तावना के अंतर्गत ही रखा गया है।
2.2 अनम्य संविधान
ब्रिटिश संविधान के विपरीत, फ्रांस के संविधान का स्वरुप अनम्य संविधान का है। इसमें संशोधन के लिए एक विशेष प्रक्रिया है। संसद द्वारा दोनों सदनों के 60 प्रतिशत मतों के आधार पर इसे संशोधित किया जा सकता है। एक अन्य विकल्प के रूप में संविधान में संशोधन पर राष्ट्रपति एक राष्ट्रीय जनमत संग्रह आमंत्रित कर सकते हैं। हालांकि फ्रांस के शासन का गणतंत्रवादी स्वरुप संशोधन के क्षेत्राधिकार से बाहर है। इस प्रकार, फ्रांस में राजशाही के लिए कोई स्थान नहीं है।
2.3 एकात्मक संविधान
फ्रांस एक एकात्मक राज्य है (भारत एक एकात्मक झुकाव वाली अर्ध-संघीय राज्य व्यवस्था है)। केंद्र और स्थानीय या प्रांतीय सरकारों के बीच अधिकारों का विभाजन नहीं है। सभी अधिकार पैरिस स्थित एकमात्र सर्वोच्च केंद्र सरकार में निहित हैं। स्थानीय सरकारें केंद्र सरकार द्वारा प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से निर्मित या समाप्त की जाती हैं। वास्तविकता यह है कि फ्रांस ब्रिटेन की तुलना में अधिक एकात्मक है।
2.4 अर्ध-अध्यक्षीय और अर्ध-संसदीय
फ्रांस के संविधान में न तो पूर्ण अध्यक्षीय शासन का प्रावधान है, और ना ही पूर्ण संसदीय शासन का। बल्कि, यह इन दोनों प्रणालियों के तत्वों का मिश्रण है। एक ओर इसमें एक सशक्त राष्ट्रपति का प्रावधान है, जो लोगों द्वारा सीधे पांच वर्षों के कार्यकाल के लिए चुना जाता है, वहीं दूसरी ओर, इसमें एक मनोनीत मंत्री परिषद होती है जिसका नेतृत्व प्रधान मंत्री करते हैं, और जो संसद के प्रति उत्तरदायी होती है। हालांकि मंत्री संसद के सदस्य नहीं होंगे।
2.5 द्विसदन व्यवस्था
फ्रांस की संसद के दो सदन हैं - राष्ट्रीय असेंबली (निचला सदन) और सीनेट (उच्च सदन)। राष्ट्रीय असेंबली में 577 सदस्य होते हैं, जो पांच वर्षों के लिए सीधे चुने जाते हैं। सीनेट में 321 सदस्य होते हैं, जो अप्रत्यक्ष पद्धति से नौ वर्ष के कार्यकाल के लिए निर्वाचित होते हैं। राष्ट्रीय असेंबली सीनेट की तुलना में अधिक प्रभावी और अधिक शक्तिशाली होती है।
2.6 युक्तिसंगत संसद
फ्रांस का संविधान एक युक्तिसंगत संसद की स्थापना करता है, अर्थात, एक ऐसी संसद जिसके अधिकार प्रतिबंधित और सीमित हैं राजनीतिक कार्यकारी के रूबरू फ्रांस की संसद के अधिकार प्रतिबंधित हैं। वह उन्हीं विषयों पर कानून बना सकती हैं जो संविधान में वर्णित हैं। अन्य सभी मामलों में, सरकार को कार्यकारी आज्ञप्ति द्वारा ही कानून बनाने का अधिकार है। संसद कानून निर्मिति के अधिकार कार्यकारी शाखा को सौंप सकती है संसदीय प्राधिकरण पर ये प्रतिबंध एक सशक्त कार्यकारी प्रदान करने के उद्देश्य से थोपे गए थे।
2.7 संवैधानिक परिषद
फ्रांस में एक संवैधानिक परिषद भी है। इसमें नौ सदस्य होते हैं, जिनकी नियुक्ति नौ वर्षों के लिए की जाती है। यह एक न्यायिक प्रहरी के रूप में काम करती है, और सुनिश्चित करती है कि कार्यकारी की आज्ञप्तियां और संसदीय कानून, संविधान के प्रावधानों के अनुसार बने हैं अथवा नहीं। हालांकि यह एक सलाहकार के रूप में काम करती है, और और इसकी राय बंधनकारक नहीं होती।
2.8 राजनीतिक दलों को मान्यता
फ्रांस का संविधान राजनीतिक दलों और उनकी भूमिका को मान्यता प्रदान करता है। यह पहली बार हुआ है, कि एक गणतांत्रिक संविधान न केवल राजनीतिक दलों का उल्लेख करता है, बल्कि उन्हें सामान्य राजनीतिक जीवन के एक भाग के रूप में स्वीकार भी करता है। संविधान का अनुच्छेद 4 कहता है कि ‘दलों को राष्ट्रीय संप्रभुता और लोकतंत्र के सिद्धांतों का सम्मान करना चाहिए।’
2.9 फ्रांसीसी राष्ट्रपति
प्रारंभ में, संविधान में राष्ट्रपति के अप्रत्यक्ष चुनाव का प्रावधान था। उसे एक तीन प्रकार के सदस्यों वाले निर्वाचन मंडल द्वारा निर्वाचित किया जाना थाः
- राष्ट्रीय प्रतिनिधि (संसद के दोनों सदनों के सदस्य);
- स्थानीय प्राधिकरणों के प्रतिनिधि और
- विदेशी क्षेत्रों के प्रतिनिधि। परंतु 1962 में संविधान में एक जनमत संग्रह के माध्यम से संशोधन किया गया।
वर्तमान में, राष्ट्रपति का निर्वाचन सीधे सार्वजनिक मताधिकार के द्वारा किया जाता है (भारत में ऐसा नहीं है)। चुनाव में विजयी होने ले लिए, एक प्रत्याशी को डाले गए मतों में पूर्ण बहुमत प्राप्त करना आवश्यक है। यदि किसी भी प्रत्याशी को प्रथम मतदान में आवश्यक बहुमत हासिल नहीं होता, तो एक दूसरा मतदान कराया जाता है। प्रथम मतदान में सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले प्रथम दो प्रत्याशी ही दूसरे मतदान में प्रत्याशी के रूप में पात्र हो सकते हैं।
2.10 कार्यकाल और पदच्युति
राष्ट्रपति का निर्वाचन पांच वर्षों के कार्यकाल के लिए होता है। वे जितनी बार चाहें उतनी बार पुनर्निर्वाचन के लिए पात्र होते हैं। साथ ही संविधान ने राष्ट्रपति पद के लिए किसी प्रकार की अईताएं (न्यूनतम आयु सीमा सहित) भी निर्धारित नहीं की हैं।
यदि सामान्य कार्यकाल समाप्त होने के पूर्व ही राष्ट्रपति का पद रिक्त हो जाता है, तो राष्ट्रपति के कार्य (केवल जनमत संग्रह के लिए विधेयक पेश करने और राष्ट्रीय परिषद को भंग करने के कार्यों को छोड कर) अस्थायी तौर पर सीनेट के अध्यक्ष द्वारा निष्पादित किये जाते हैं, और यदि वह भी ऐसा करने की स्थिति में नहीं है, तो ये कार्य सरकार द्वारा निष्पादित किये जाते हैं। (भारत में इस समस्या का निपटारा उप-राष्ट्रपति करते हैं)
राष्ट्रपति को उनका पांच वर्षों का सामान्य कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व उच्च राजद्रोह के लिए एक महाभियोग के माध्यम से हटाया जा सकता है। महाभियोग का प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों द्वारा पूर्ण बहुमत द्वारा पारित होना आवश्यक है। संसद द्वारा लगाये गए इस अभियोग के बाद राष्ट्रपति पर उच्च न्यायालय द्वारा मुकदमा चलाया जाता है।
2.11 अधिकार एवं कर्तव्य
राष्ट्रपति संविधान की धुरी हैं, और सरकार की प्रणाली में एक महत्वपूर्ण पद पर आसीन हैं। वे राज्य के वास्तविक प्रमुख, राष्ट्र के नेता और राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं। उनके अधिकार एवं कर्तव्य निम्नानुसार हैंः
- वे प्रधानमंत्री की नियुक्ति करते हैं और उनका त्यागपत्र स्वीकारते हैं। (भारत के समान ही)
- वे प्रधान मंत्री की सलाह से सरकार के अन्य सदस्यों (मंत्री परिषद) की नियुक्ति और उनकी बर्खास्तगी भी करते हैं।
- वे मंत्री परिषद की बैठकों की अध्यक्षता करते हैं। यह उन्हें सरकार की नीतियों को प्रभावित करने, उन्हें मार्गदर्शन करने, और उनको नियंत्रित करने का अवसर प्रदान करता है। (भारत में यह व्यवस्था नहीं है)
- वे राज्य के नागरिक और सैन्य पदों पर नियुक्तियां करते हैं। (भारत में भी कुछ पदों पर नियुक्तियां राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं)
- वे देश के सुरक्षा बालों के प्रधान सेनापति होते हैं। (भारत के समान ही)
- वे संधियां और समझौते करते हैं, और की गई संधियों का अनुसमर्थन करते हैं। (कुछ हद तक भारत के समान ही)
- जो अंतर्राष्ट्रीय संधियां उनके अनुसमर्थन के अधीन नहीं हैं ऐसी सभी संधियों में जारी बातचीत की प्रगति से उन्हें अवगत कराया जाता है, जिन पर हस्ताक्षर होने जा रहे हैं।
- वे राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधित सभी उच्च परिषदों और समितियों की अध्यक्षता करते हैं। (कुछ हद तक भारत के समान)
- वे फ्रांसीसी समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसकी अध्यक्षता करते हैं।
- वे संविधान परिषद के अध्यक्ष और तीन सदस्यों की नियुक्ति करते हैं।
- किसी कानून के संसद द्वारा अंगीकरण और सरकार को उसके हस्तांतरण के 15 दिनों के अंदर वे उन कानूनों को प्रख्यापित करते हैं। हालांकि इस अवधि के समाप्त होने से पहले वे संसद से उस पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकते हैं। इस पुनर्विचार को संसद द्वारा अस्वीकार नहीं किया जा सकता। (भारत में राष्ट्रपति के अध्यादेश की पद्धति है, जिसका उपयोग प्रधान मंत्री और सरकार द्वारा किया जा सकता है)
- वे संसद को संदेश भेज सकते हैं, और उसका विशेष सत्र बुला सकते हैं। (भारत के सामान ही)
- वे सरकार के किसी भी विधेयक को संसद के अधिवेशन के दौरान, या संसद के दोनों सदनों के संयुक्त प्रस्ताव पर सरकार के किसी भी प्रस्ताव पर जनमत संग्रह के लिए प्रस्तुत कर सकते। यदि जनमत संग्रह में विधेयक स्वीकृत हो जाता है, तो राष्ट्रपति को उसे 15 दिन के अंदर प्रक्ष्यपित करना अनिवार्य है।
- वे उन अध्यादेशों और आज्ञप्तियों पर हस्ताक्षर करते हैं, जिनपर मंत्री परिषद द्वारा विचार किया जा चुका है।
- उन्हें क्षमादान का अधिकार है। (भारत के समान ही)
- वे न्यायपालिका की उच्च परिषद की अध्यक्षता करते हैं। वे इसके नौ सदस्यों की नियुक्ति भी करते हैं। (भारत के समान ही)
- वे न्यायिक प्राधिकरण की स्वतंत्रता के संरक्षक हैं।
- आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिए उन्हें विशेष अधिकार प्रदत्त किये गए हैं। इस कालावधि के दौरान, प्रधान मंत्री, संसद की दोनों असेंबलियों (सदनों) के अध्यक्षों और संविधान परिषद से सलाह करने के पश्चात उचित कदम उठा सकते हैं।
- वे प्रधान मंत्री, और दोनों असेंबलियों (संसद के सदनों) के अध्यक्षों से सलाह करने के पश्चात राष्ट्रीय असेंबली को भंग कर सकते हैं। हालांकि संविधान दो सीमाएँ लगता हैः
- बारह महीने की अवधि में वे राष्ट्रीय असेंबली को एक से अधिक बार भंग नहीं कर सकते; और
- आपातकाल के दौरान राष्ट्रीय असेंबली भंग नहीं की जा सकती। विशेष रूप से, राष्ट्रपति के लिए प्रधान मंत्री और दोनों असेंबलियों के अध्यक्षों की सलाह का पालन करना अनिवार्य नहीं है। आगे, प्रधान मंत्री द्वारा कहे जाने पर राष्ट्रपति राष्ट्रीय असेंबली को भंग करने से इंकार कर सकते हैं।
3.0 जापान का संविधान और सरकार
जापान का आधुनिक राज्य 1868 की मेइजी बहाली और 200 वर्षों तक जापान पर राज्य करने वाले तोकुगावा शोगुनेट के पतन के बाद अस्तित्व में आया। मेइजी संविधान 58 वर्षों तक (1889 से 1947 तक) लागू रहा। यह संविधान तानाशाही, निरंकुशता और राजशाही पर आधारित था।
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात (1939-45), 1945 से 1952 तक जापान मित्र राष्ट्रों के कब्जे में रहा। अमेरिकी जनरल डगलस मैकआर्थर जापान में मित्र शक्तियों के सर्वोच्च कमांडर थे। उनके मार्गदर्शन में 1946-47 में जापान ने एक नए लोकतांत्रिक शांतिवादी संविधान का अंगीकार किया। कब्जेदारी शक्तियों (अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र) द्वारा नियोजित रूप में यह संविधान लोकतंत्र और शांति के आदर्शों पर आधारित है।
जापान का नवीन और वर्तमान संविधान 1947 में लागू किया गया। इसे मैकआर्थर संविधान और शोवा संविधान दोनों कहा जाता है। शोवा सम्राट हिरोहितो के शासन का शीर्षक है, और इसका अर्थ होता है ‘उज्ज्वल शांति’। नए संविधान के लागू होते समय हिरोहितो जापान के सम्राट थे और शिदेहरा प्रधान मंत्री थे। इस समय अकिहितो सम्राट हैं और शिंजो अबे प्रधान मंत्री हैं (2014)।
3.1 एक लिखित संविधान
अमेरिकी संविधान की ही तरह, जापान का संविधान भी एक लिखित संविधान है। इसमें प्रस्तावना सहित 103 अनुच्छेद हैं, जो 11 खंडों में विभाजित हैं। यह अमेरिकी और ब्रिटिश पद्धितियों का एक अद्वितीय मिश्रण है। इसकी प्रस्तावना जनता की संप्रभुता पर जोर देती है।
3.2 अनम्य संविधान
अमेरिकी संविधान की ही तरह, जापान का संविधान भी एक न लचने वाला अनम्य संविधान है। जिस प्रकार से डाइट (जापानी संसद) द्वारा सामान्य कानून बनाये जाते हैं, उस प्रकार इसमें डाइट द्वारा संशोधन नहीं किया जा सकता। यह संविधान द्वारा प्रदत्त विशेष प्रक्रिया द्वारा ही संशोधित किया जा सकता है। अतः जापान में संवैधानिक कानून और सामान्य कानून में अंतर होता है।
संविधान में संशोधन के लिए निम्न प्रक्रिया का प्रावधान किया गया हैः
- संविधान संशोधन की पहल डाइट द्वारा की जाएगी। इस प्रकार का प्रस्ताव इसकी सदस्य संख्या के दो तिहाई बहुमत द्वारा पारित किया जाना आवश्यक है।
- इसके पश्चात, यह एक विशेष जनमत संग्रह के माध्यम से अथवा एक विशिष्ट चुनाव के माध्यम से जनता के समक्ष अनुसमर्थन के लिए प्रस्तुत किया जायेगा। इसे जनता का पूर्ण बहुमत प्राप्त होना आवश्यक है।
- जब इसे जनता का अनुसमर्थन प्राप्त हो जाता है, तो सम्राट इसे जनता के नाम पर संविधान के एक अभिन्न भाग के रूप में घोषित करेंगे।
यहां यह जानकारी देना आवश्यक है, कि जापान के संविधान में 2014 जुलाई तक एक भी संशोधन नहीं किया गया है। इस तरह से जापान का संविधान आज भी वही है, जो 1947 में था। यह काफी उल्लेखनीय है! (किंतु शिंज़ों अबे की सरकार जापान को कम शांतिवादी बनाना चाहती है)
3.3 एकात्मक संविधान
ब्रिटिश संविधान की तरह ही जापान के संविधान में भी एकात्मक राज्य की व्यवस्था है। केंद्र और प्रांतीय सरकारों के बीच किसी प्रकार के अधिकारों का विभाजन नहीं है। सभी अधिकार एवं शक्तियां एक ही टोक्यो स्थित सर्वोच्च केंद्रीय सरकार में निहित हैं। प्रांतीय सरकारें अपनी शक्तियां केंद्र से प्राप्त करती हैं। डाइट प्रांतों के अधिकारों और क्षेत्राधिकारों को विस्तारित या संकुचित कर सकती है। अतः प्रांत, सरकार की अधीनस्थ इकाइयां हैं और उन्हें वे ही अधिकार प्राप्त हैं जो केंद्र की सर्वोच्च सरकार द्वारा उन्हें प्रदान किये गए हैं। (भारत में यह स्थिति नहीं है। हम एक अर्ध संघीय राज्य हैं जिसका झुकाव एकात्मक है)
3.4 संसदीय सरकार
जापान ने अमेरिकी राष्ट्रपति शासन व्यवस्था की तुलना में ब्रिटिश संसदीय शासन पद्धति की ओर अपना झुकाव प्रदर्शित किया है। संविधान ने सम्राट को केवल संवैधानिक राज्यप्रमुख बनाया है। उनकी शक्तियां सम्राट के संवैधानिक कार्यों तक ही सीमित हैं। उसके ब्रिटिश समकक्ष की ही तरह वह राजा है पर राज नहीं करता। (भारत में सम्राट नहीं है)
3.5 संविधान की सर्वोच्चता और न्यायिक समीक्षा
जापान का संविधान संविधान की सर्वोच्चता को स्थापित करता है। संविधान को देश का सर्वोच्च (सबसे ऊंचा या मूलभूत) कानून माना जाता है। कानून, अध्यादेश, शाही फरमान और आधिकारिक कार्य इस सर्वोच्च कानून के अनुरूप होने आवश्यक हैं। यदि ये संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध हैं, तो देश का सर्वोच्च न्यायालय इन्हें अधिकारातीत, और इस कारण से शून्य घोषित कर सकता है। (भारत में भी यही व्यवस्था है - सर्वोच्च न्यायालय ने यह अनिवार्यता दी है, कि संविधान की मूल संरचना में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता)
इस प्रकार, जापान ने न्यायिक समीक्षा की अमेरिकी पद्धति को अंगीकार किया है। किंतु दोनों में अंतर है। अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक समीक्षा का अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त नहीं है, जबकि जापान के सर्वोच्च न्यायलय की न्यायिक समीक्षा की शक्तियां सीधे संविधान द्वारा प्रदत्त हैं। संविधान का अनुच्छेद 81 स्पष्ट रूप से कहता है कि सर्वोच्च न्यायालय अंतिम विकल्प का न्यायालय है, जिसे किसी भी कानून, आदेश, अधिनियम या शासकीय कार्य की संवैधानिकता को निर्धारित करने का अधिकार प्राप्त है।
3.6 मूलभूत अधिकार
जापान का संविधान अमेरिका के बिल ऑफ राइट्स की पद्धति पर अधिकार प्रदान करता है। यह जापान के नागरिकों को बडी संख्या में नागरिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकार प्रदान करता है, और इन्हें ‘शाश्वत और अखण्ड‘ घोषित करता है। सर्वोच्च न्यायालय की अध्यक्षता में न्यायपालिका अपनी न्यायिक समीक्षा के अधिकार के माध्यम से इन अधिकारों की संरक्षक है।
जापान के संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार अमेरिका के बिल ऑफ राइट्स की तुलना में अधिक विस्तृत और स्पष्ट हैं। संविधान के कुल 103 अनुच्छेदों में से 31 अनुच्छेद (10 से 40) नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों को समर्पित हैं। संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार निम्नानुसार हैंः
- समानता का अधिकार
- स्वतंत्रता का अधिकार
- धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
- निजी संपत्ति का अधिकार
- आर्थिक अधिकार
- शिक्षा का अधिकार
- सांस्कृतिक अधिकार
- संवैधानिक उपचार का अधिकार
- (भारतीय संविधान मूलभूत अधिकारों के छह समूह प्रदान करता है)
3.7 युद्ध का त्याग
जापान का संविधान राष्ट्र के संप्रभु अधिकार के रूप में युद्ध त्याग को प्रतिपादित करता है, और डराने या शक्ति के प्रयोग द्वारा अंतर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने को भी प्रतिबंधित करता है। यह जापान को थलसेना, नौसेना और वायुसेना और अन्य युद्ध सामग्री रखने से प्रतिबंधित करता है। यह राज्य की युद्ध-संलग्नता को भी मान्यता प्रदान नहीं करता। जापान एकमात्र ऐसा आधुनिक राज्य है जिसने संवैधानिक रूप से हमेशा के लिए युद्ध का त्याग किया है। यह व्यवस्था जापान के संविधान की सबसे अजीब और विवादस्पद विशेषता है।
संविधान में यह प्रावधान जनरल मैक आर्थर द्वारा डलवाया गया था, ताकि जापान फिर से एक सैन्य राष्ट्र के रूप में ना उभर सके, जैसा कि वह 1913 से 1945 के दौरान था। साथ ही, वे यह भी चाहते थे कि जापान को सुदूर पूर्व में अमेरिका एक विरोधी के रूप में समाप्त कर दिया जाये। हालांकि इसका यह मतलब बिलकुल नहीं है कि जापान अपनी सुरक्षा और रक्षा के लिए हथियारों और सैन्य बलों का इस्तेमाल नहीं कर सकता। अन्य किसी भी आधुनिक राज्य की ही तरह, जापान की भी अपनी सुरक्षा क्षमताएं हैं, परंतु संविधान में जिस शब्द का प्रयोग किया गया है वह है ‘आत्म-रक्षा बल’, ताकि यह संवैधानिक रूप से ठीक लगे। वे इस आधार पर न्यायोचित हैं कि हर राष्ट्र का अधिकार है कि वह विदेशी आक्रमणों के विरुद्ध स्वयं की रक्षा करें।
4.0 ब्रिटिश संविधान
4.1 उत्पत्ति और विकासवादी प्रगति
ब्रिटिश संविधान पंद्रह से अधिक शताब्दियों की विकासवादी प्रक्रिया का परिणाम है, और विकास की यह प्रक्रिया अभी भी जारी है। इसे बुद्धि और अवसर की संतान कहना सबसे सटीक होगा। यह समय के साथ धीरे-धीरे विकसित हुआ है, और इसकी उत्पत्ति का कोई निश्चित समय नहीं है और इसकी निर्मिति में कोई निश्चित व्यक्ति नहीं हैं।
4.2 गैर-संहिताबद्ध
ब्रिटिश संविधान की यह सबसे अनूठी विशेषता है। यह ब्रिटेन में लंबे समय से चली आ रही परंपराओं और रिवाज़ों पर आधारित है। संविधान का अधिकांश भाग ऐसे अलिखित स्रोतों से व्याप्त है। इसमें कई अधिनियम और संधियां हैं, जो लिखित रूप में हैं और ये इसे आंशिक रूप से लिखित लेकिन फिर भी गैर-संहिताबद्ध बनाती हैं। ये भी समय के साथ जोडी गयीं और अंततः लागू की गयीं। पहला लिखित अंश था ‘मैग्ना कार्टा 1215’, ‘अधिकार पत्र 1689’, ‘1911 और 1949 के संसदीय अधिनियम’ और कई अन्य। (भारत में, संविधान सभा ने संविधान निर्माण के लिए दो वर्षों से अधिक का समय लिया)
4.3 सिद्धांत और प्रकटन के बीच अंतर
यह ब्रिटिश संविधान के एक और महत्वपूर्ण विशेषता है। सिद्धांत कहता है कि सम्राज्ञी की स्वीकृति के बिना कोई भी कानून प्रभावी नहीं होता, जबकि व्यवहार में, सम्राज्ञी को उनके समक्ष प्रस्तुत प्रत्येक विधेयक पर हस्ताक्षर करने ही होंगे।
ओग्ग के अनुसार, ‘ब्रिटेन में सरकार, अंतिम सिद्धांत के अनुसार एक पूर्ण राजशाही है, स्वरुप में एक सीमित संवैधानिक राजशाही है, और अपने वास्तविक चरित्र में एक लोकतांत्रिक गणतंत्र है।’
सैद्धांतिक दृष्टि से सम्राट में सभी शक्तियां निहित हैं, और वह उनका उपयोग कर सकता है, परंतु वास्तव में वह एक हस्ताक्षरकर्ता आकृति है। वह प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार कार्य करता है। जैसा कि वाल्टर बागेहोट उद्धृत करते हैं ‘ब्रिटिश महारानी रानी हैं पर राज्य नहीं करतीं’।
4.4 अवास्तविकता
सिद्धांत और व्यवहार में अंतर के अलावा, ब्रिटिश संविधान में एक ‘अवास्तविकता’ का तत्व भी है। चीजें वैसी नहीं हैं, जैसी वे दिखाई देती हैं। इसके सिद्धांत में व्यापक विचलन विद्यमान है।
4.5 परंपराओं का स्वरुप
परंपराओं की ब्रिटिश संविधान के मूल में गहरी पैठ है। यदि कोई ब्रिटिश संविधान को जानना चाहता है, तो उसे परम्पराओं का सावधानीपूर्वक अध्ययन करना होगा। ऐसी कई परम्पराएं हैं जो केवल मंत्रिमंडल, न्यायपालिका और संसद को ज्ञात हैं। ये सभी संविधान के विस्तृत अलिखित भाग हैं, और महत्वपूर्ण विशेषतायें होने के कारण संविधान का एक महत्वपूर्ण स्रोत भी हैं।
उदाहरणार्थ,
- प्रधानमंत्री का चयन हाउस ऑफ कॉमन्स में से होता है।
- संसद द्वारा पारित सभी विधेयकों को महारानी को स्वीकृति प्रदान करना अनिवार्य है।
- हाउस ऑफ लॉर्ड्स की बेंचें लाल हैं, जबकि हाउस ऑफ कॉमन्स की बेंचें हरी हैं।
4.6 संविधान का लचीलापन
हालांकि संविधान सही तरीके से संहिताबद्ध नहीं है, फिर भी इसका चरित्र महान आत्मसाती है। नए कानून बनाना और संशोधित करना बहुत ही आसान है। एक संशोधन विधेयक को पारित करने के लिए साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है। इसमें इतना लचीलापन होते हुए भी अब तक इसमें बहुत ही अल्प परिवर्तन हुए हैं।
4.7 एकात्मक राज्य
इसे एकात्मक राज्य इसलिए कहा जाता क्योंकि ब्रिटेन में कोई इकाइयां नहीं हैं। सारे अधिकार एकमात्र केंद्रीय सत्ता में केंद्रित हैं।
4.8 द्विसदन
इसका शब्दशः अर्थ है दो भागों में विभाजित ब्रिटिश विधायिकी शक्ति। वहां की संसद, निम्नानुसार विभाजित हैः
- हाउस ऑफ लॉर्ड्स
- हाउस ऑफ कॉमन्स
हाउस ऑफ लॉर्ड्सः इसमें चर्च ऑफ इंग्लैंड के 26 बिशप और आर्कबिशप शामिल हैं, जिन्हें ‘आध्यात्मिक साथी’ कहा जाता है। इसमें 92 वंशानुगत पीयर, 1 आयरिश पीयर, 16 स्कॉटिश पीयर और सैकडों लाइफ पीयर हैं। ये प्रधानमंत्री की सलाह पर सिंहासन द्वारा मनोनीत किये जाते हैं।
हाउस ऑफ कॉमन्सः इसमें ब्रिटेन की जनता द्वारा निर्वाचित 650 सदस्य होते हैं। यह सदन हाउस ऑफ लॉर्ड्स की तुलना में अधिक शक्तिशाली है। मौद्रिक विधेयक केवल हाउस ऑफ कॉमन्स से ही निकल सकते हैं। प्रधानमंत्री का चुनाव भी हाउस ऑफ कॉमन्स से ही होता है।
4.9 संसद की संप्रभुता
ब्रिटेन की संसद बहुत ही शक्तिशाली और सर्वोच्च है। ये मुख्य बिंदु हैं, जो इसका वर्णन करते हैं और इसके स्वरुप को स्पष्ट करते हैंः
- ऐसा कोई कानून नहीं जो ब्रिटिश संसद बना या मिटा नहीं सकती। (ठीक भारत की तरह)
- संसद द्वारा पारित कानूनों और अधिनियमों को कोई भी न्यायालय चुनौती नहीं दे सकता। (भारत में, भारत का सर्वोच्च न्यायालय ऐसा कर सकता है)
- यह सम्राट पर शासन करती है और उसके भविष्य और कार्यों का निर्णय कर सकती है। (भारत में सम्राट नहीं है)
- यह राजा को अपनी पसंद की लड़की से विवाह करने से रोक सकती है।
- यह मात्र एक अधिनियम के माध्यम से सिंहासन के वंशानुगत शासन को समाप्त कर सकती है।
- यह राजशाही को समाप्त कर सकती है, हाउस ऑफ लॉर्ड्स को समाप्त कर सकती है, और अधिकारों को जनता में विभाजित कर सकती है।
- यह एक पुरुष को स्त्री और स्त्री को पुरुष बनाने के अलावा कुछ भी कर सकती है!
4.10 कानून का शासनः ऐसा कहा जाता है कि कानून सर्वोपरि होता है और यह सभी पर लागू होता है। यह एक बहुत ही मूलभूत परिकल्पना है जिसके निम्नलिखित पहलू हैंः
- वैधताः राज्य के सभी कार्य अधिकृत होने चाहियें। कानून मनमाने नहीं होने चाहिये। (कम से कम सैद्धांतिक रूप में तो भारत की ही तरह)
- निश्चितताः कानून स्पष्ट, निश्चित और उम्मीद के मुताबिक होने चाहिए। (भारत के समान ही)
- निरंतरताः कानून सभी पर समान रूप से लागू होने चाहिये, कोई भी कानून से उपर नहीं है। (भारत की ही तरह)
- जवाबदेहीः राज्य के कार्यों के मूल्यमापन के लिए मानदंड निर्धारित करने की दृष्टि से कानून आवश्यक हैं।
- न्याय के लिए उचित प्रक्रिया और पहुँचः बिना मुकदमा चलाये किसी को भी दंडित ना किया जाये। यह निष्पक्ष होना चाहिए और एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायाधिकरण के समक्ष होना चाहिए। (भारत के समान ही)
- अधिकारों का विलयनः अधिकारों के विलयन का ब्रिटेन एक अच्छा उदाहरण है। इसकी सरकार के तीन स्तंभ हैं।
- कार्यपालिकाः यह वह संस्था है, जो कानूनों का निष्पादन करती है, प्रस्तावित करती है, और उनका क्रियान्वयन करती है। इसमें सम्राट और प्रधानमंत्री शामिल हैं।
- विधायिकाः यह वह संस्था है जो कानून बनाती है और उनमे संशोधन करती है।
- न्यायपालिकाः यह कानूनों की व्याख्या करती है। (भारतीय लोकतंत्र के भी ये तीन स्तंभ हैं)
ब्रिटेन में, कार्यपालिका और विधायिका का संलयन करके एक अन्य संस्था बनी है ‘मंत्रिमंडल’। 2009 से पहले, ब्रिटेन को अधिकारों के पूर्ण विलयन के रूप में देखा जाता था। अब ब्रिटेन में सर्वोच्च न्यायालय भी अलग से स्थापित हुआ है। पूर्व में कार्यपालिका (सिंहासन और प्रधानमंत्री), विधायिका और न्यायपालिका को वेस्टमिंस्टर में एक किया गया था।
4.11 मिश्रित संविधान
यह ब्रिटिश संविधान की एक अनोखी विशेषता है। यह राजशाही, कुलीनतंत्र और लोकतंत्र का मिश्रण है।
4.12 समायोज्यता का तत्व
ब्रिटिश राजनीतिक संस्थाओं की अनुकूलनता और समायोज्यता उनके राजनीतिक जीवन के वर्णनीय गुण हैं। सामंतवाद से पूंजीवाद, पूर्ण राजशाही से संविधानिक राजशाही और एक पुलिस राज्य से एक कल्याणकारी राज्य ये सभी परिवर्तन और स्थित्यन्तर शांतिपूर्ण और क्रमिक रहे हैं। हालांकि उसके उपनिवेशों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता, जो भारत सहित विश्व के अनेक भागों में सदियों तक बर्बरता का शिकार बने रहे।
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