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औपनिवेशीकरण, गैर-औपनिवेशीकरण, राष्ट्रीय सीमाओं का पुनर्रेखांकन भाग - 2
8.0 इज़राइल की स्थापना
हालाँकि, रोमनों द्वारा निष्कासन के अठारह सदियों बाद तक यहूदी, इज़राइल की भूमि पर एक निरंतर उपस्थिति (यद्यपि छोटी) बनाए रहे, यहूदीवाद (झियोनिज़्म) की अवधारणा-जिसने इज़राइल राज्य के निर्माण को जन्म दिया, उसकी जड़ें 19 वीं सदी के यूरोप में थीं। वहाँ, यहूदियों ने राजनीतिक एवं वैज्ञानिक पुनर्जागरण (Emancipation) का अनुभव किया, जिसने यहूदियों को उन देशों के दिन-प्रतिदिन के मामलों से उनके सामान्य अलगाव को भंग करने का अवसर दिया, जिसमें वे रहते थे। अनेक यहूदियों ने नस्लीय-राष्ट्रवाद विचारधारा को अपनाया जो यूरोप में उस समय विकसित हो रही थी तथा मोशविम समुदायों की स्थापना की पेरिस के बैरन एडमन्ड डी. रोथशील्ड द्वारा व्यापक रूप से वित्त पोषण किया गया। उनकी प्राचीन ग्रह भूमि इज़राइल थी। यहूदियों की वह पहली लहर जिसका ऐसा झुकाव था, वह इज़राइल (उस समय पेलेस्टाइन के रूप में जाना जाता था) में सन 1882 में पहुँची, जिसे प्रथम अलीयाह के रूप में जाना जाता है (’’ऊपर जाना’’ वह तरीका जिसे यहूदी लोग पवित्र भूमि में अपने अप्रवास को वणित करते हैं)।
अन्य यहूदी लोग अपने-अपने मेजबान देशों में घुल-मिल गये। ऐसा ही एक यहूदी थियोडोर हर्ज़्ल था, जो हंगरी में पैदा हुआ एक रिपोर्टर था। हालाँकि वह यूरोप के समाज में पूरी तरह से घुल-मिल गया, किन्तु हर्ज़्ल का जीवन एवं विश्व का दृष्टिकोण सन् 1895 में नाटकीय रूप से उस समय बदला जब उसने कैप्टन अल्फ्रेड ड्रेफस के कोर्ट मार्शल को कवर किया। कोर्ट मार्शल फ्रांसीसी इंटेलीजेंट सर्विसेज के उस गोपनीय सैन्य दस्तावेज की खोज का परिणाम था जिसे एक फ्रांसीसी अधिकारी से पेरिस में जर्मन दूतावास के लिए भेजा गया था। हालाँकि साक्ष्य से ऐसा प्रतीत होता था कि वास्तविक विश्वासघाती हंगरी निवासी मेजर फर्डीनान्ड वल्सिन एस्टरहाजी था, जिसके जर्मन लोगों से संबंध थे, फ्रांसीसी सैन्य स्थापना ने यह मानने से मना कर दिया कि एस्टरहाजी दोषी था। इसके बजाय, उन्होंने ड्रेफस पर आरोप लगाया, प्राथमिक रूप से इसलिए क्योंकि वह यहूदी था, जिसने उसे फ्रांसीसी सेना की नजरों में एक संभावित विश्वासघाती बनाया। 5 जनवरी सन् 1895 को, एक गोपनीय कोर्ट मार्शल के बाद, ड्रेफस को सार्वजनिक रूप से पदावनत कर दक्षिणी अमेरिका के पास डेविल्स् द्वीप हेतु निष्कासित कर दिया गया।
पब्लिक अवनति समारोह में, हर्ज़्ल ने भीड़ के सदस्यों के द्वारा उच्चारित अनेक नारों को सुना, जिसमें शामिल था ’’यहूदियों को मौत के घाट उतारो’’। हर्ज़्ल इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि यहूदी लोग अपने मेजबान देशों में कितना घुल-मिल जाएँ, उन्हें हमेशा ही परेशान किया जाना है। हर्ज़्ल ने ऐसा माना कि इसका एक मात्र समाधान यहूदियों का इन देशों से प्रस्थान है, विशेषरूप से यहूदी देश के लिए। हालाँकि इज़राइल राज्य के उदय से दशकों पूर्व, सन् 1904 में उनका निधन हो गया, किंतु इज़राइल का अस्तित्व आर्ज हर्ज़्ल के विचारों का परिणाम है।
बीसवीं शताब्दी के प्रथम अर्द्ध भाग में, यहूदियों का इज़राइल की ओर अप्रवास जारी रहा। इस अवधि की बड़ी घटना, हालाँकि, इज़राइल में घटित नहीं हुई बल्कि नाज़ी जर्मनी में, जिसमें लाखों यहूदियों को होलोकॉस्ट (महाविनाश) में मार ड़ाला गया। हिटलर ने लाखों को गैस चेम्बरों के अन्दर मार डाला, या फिर शिविरों में।
1917 से, फिलिस्तीन ब्रिटेन के नियंत्रण में रहा था, जिसने इस पवित्र भूमि में यहूदियों के सृजन को संभव बनाया। महाविनाश के समय यहूदियों के विनाश के दौरान यहूदियों के प्रति सहानुभूति बढ़ी। सन् 1946 में, फिलिस्तीन मुद्दा नवसृजित संयुक्त राष्ट्र के समक्ष लाया गया, जिसने इसकी पृथकता का प्रारूप तैयार करने की योजना बनाई।
19 नवम्बर, सन् 1947 में, संयुक्त राष्ट्र की साधारण सभा ने यहूदी राज्य इजराइल के गठन को संभव करने के लिए, अरबों एवं यहूदियों के मध्य, फिलिस्तीन को बांटने हेतु एक प्रस्ताव पास किया।
इस योजना में फिलिस्तीन को तीन यहूदी भागों में, चार अरब भागों में एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रशासनिक शहर जेरूसलम में संगठित किया गया। इस योजना को पश्चिमी राष्ट्रों के साथ ही साथ सोवियत यूनियन का भी सशक्त सहारा था। इसका अरब राष्ट्रों के द्वारा विरोध किया गया।
साधारण सभा ने बँटवारे के पक्ष में 33-13 से मत दिया। सभा में छः अरब राष्ट्रों ने इसके विरोध में वॉकआउट किया। न्यूयार्क टाइम्स ने अपनी रिपोर्ट में कहा ’’अरब प्रतिनिधियों के वॉकआउट को इस बात के एक स्पष्ट संकेत के रूप में लिया गया कि फिलिस्तीन अरबों का असेम्बली के निर्णय से कोई लेना-देना नहीं है। ब्रिटेन ने इस बात पर बार-बार जोर दिया कि ब्रिटिश टुकड़ियों को उस निपटान को लागू करने के लिए प्रयुक्त नहीं किया जा सकता जो यहूदियों एवं अरबों दोनों को ही स्वीकार न हो, तथा बँटवारे की योजना व्यवस्था को बनाए रखने के लिए बाहरी सैन्यबल को नहीं लगाया जाएगा। इसके बजाय, यह आन्तरिक व्यवस्था को बनाए रखने हेतु दो निकटवर्ती राज्यों के द्वारा नई सशस्त्र सेनाओं की स्थापना सुनिश्चित करना है।‘‘
छः महीने बाद, 14 मई 1948 को, क्षेत्र के यहूदी नेताओं ने इज़राइल राज्य का निर्माण किया। ब्रिटिश टुकड़ियों चली गईं, हज़ारों फिलिस्तीनी अरबों ने पलायन किया तथा अरब की सेना ने इज़राइल पर आक्रमण किया। अरब-इजरायली यु़द्ध में, इजराइल ने अपने दुशमनों को परास्त किया। यह इजराइल एवं उसके पड़ोसियों में लड़े गये युद्धों में से पहला युद्ध था।
उस यहूदी देश इज़राइल को तार्किकता से शिखर पर ले जाने के लिए यहूदी देश की स्थापना के लिए महाविनाश (Holocaust) हर्ज़्ल के कारणों का अत्यंत सशक्त प्रदर्शन था। इज़राइल राज्य को द्वितीय विश्व युद्ध के अंतिम दिनों के मात्र तीन वर्षों के बाद ही, 14 मई सन् 1948 में, यहूदी राज्य घोषित कर दिया गया।
2000 वर्षों में पहली बार बने एक यहूदी राज्य इज़राइल की घोषणा 14 मई, 1948 को 4 बजे तेल अवीव में कर दी गई। यह उद्घोषणा अंतिम ब्रिटिश टुकड़ियों के अगले दिन वापस जाने से ही प्रभाव में आ गई। फिलीस्तीनी लोग 15 मई को ’’अल-नकबा’’, या विनाश के रूप में याद करते हैं।
यह वर्ष यहूदी व अरब सेनाओं के बीच युद्ध से शुरू हुआ, जब ये दोनों ही एक दूसरे के क्षेत्रों पर हमले कर रहे थे। इर्गन एवं लेही आतंकी समूहों से सुसज्जित यहूदी बलों ने अधिक प्रगति की, एवं उन्होंने न केवल यहूदी लोगों के लिए आवंटित क्षेत्रों में कब्जा जमाया बल्कि फिलिस्तीनी लोगों के लिए आवंटित बहुत बड़े क्षेत्र को भी जीत लिया।
इर्गन एवं लेही ने 9 अप्रैल के दिन जेरूसलम के निकट डेर यासीन नामक गाँव के काफी सारे निवासियों का नरसंहार किया। इस नरसंहार का आतंक फिलिस्तीनियों में फैल गया तथा वे सैकड़ों हजारों की तादाद में लेबनान, मिस्त्र एवं पश्चिमी किनारे (West-Bank) के रूप में अब जाने जाने वाले क्षेत्र में पलायन कर गये। यहूदी सेनाएं नेगेव, गैलिली, पश्चिमी जेरूसमल एवं अधिकांश तटीय मैदानों में विजयी रही थीं।
इज़राइल राज्य की घोषणा के एक दिन बाद ही जॉर्डन, मिस्त्र, लेबनान, सीरिया एवं ईराक की पाँच अरब सेनाओं ने तुरंत ही इज़राइल पर हमला किया लेकिन उन्हें पीछे धकेल कर इज़राइल की सेना ने प्रतिरोध को कुचला। हथियार-विरामों ने इज़राइल की सीमाओं को अधिकांश पूर्व के ब्रिटिश जनमत फिलिस्तीन के मोर्चे तक स्थापित किया।
मिस्त्र ने गाजापट्टी को रखा जबकि जॉर्डन ने पूर्वी जेरूसलम के आस-पास के क्षेत्र (एवं अब वेस्ट बैंक के रूप में जानी जाने वाली भूमि) को अपने में मिलाया। ये क्षेत्र ब्रिटिश जनमत वाले फिलिस्तीन के कुल क्षेत्र के लगभग 25 प्रतिशत से बने हैं।
9.0 अफ्रीकी राष्ट्र
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्, अफ्रीका में राष्ट्रवादी आंदोलनों ने तेजी से गति पकड़ी। ऐसा युद्ध एवं इसके प्रभावों के कारण ही था। कई हजार अफ्रीकी लोग सहयोगी सेनाओं में लड़े थे, अंतर्राष्ट्रीय मामलों के बारे में अपनी सोच एवं ज्ञान को बढ़ाते हुए; तथा वह युद्ध कुछ हद तक प्रतिजातीय युद्ध रहा था-धुरी शक्तियों की नस्लवादी सरकारों के विरूद्ध। अनेक अफ्रीकी लोग अभी तक आधुनिक शिक्षा की शुरूआत कर चुके थे। उन्होंने राजनीतिक मामलों में रूचि लेना शुरू कर दिया था। अफ्रीका के अनेक भागों में असाधारण नेताओं का उदय हुआ जैसे गोल्ड कोस्ट के क्वामे क्रुमाह, केन्या के जोमो केन्याटा, तंज़ानिया के जूलियस न्येरेरे, गिनी के सिकोऊ तूरे (फ्रेन्च), आइवरी कोस्ट के होफोउट-बोइग्नी।
साथ ही अफ्रीका में दो बड़ी उपनिवेशी शक्तियों - फ्रांस एवं ब्रिटेन - की स्थिति परिवर्तित हुई तथा उनका उपनिवेशवाद के प्रति रवैया भी बदला था। फ्रांस पराजित हुआ था तथा युद्ध के पश्चात् शीघ्र ही उसे अपने दक्षिण-पूर्व एशियाई उपनिवेश साम्राज्य में गम्भीर समस्याएँ आने लगीं। इन सबका उसने सन् 1954 में परित्याग कर दिया। सन् 1947 में ब्रिटेन को अपना भारत साम्राज्य छोड़ने पर बाध्य होना पड़ा। उसके उपनिवेशों व संरक्षक के रूप में शासन वाले स्थानों पर स्वशासन की ओर राजनीतिक रियायतों के लिए ब्रिटिश दृष्टिकोण अनुकूल होता जा रहा था।
पहला कदम उत्तर में उठा। दक्षिण-पूर्वी एशिया से अपनी वापसी के बाद, फ्रांस को मोरक्को व ट्यूनीशिया में राष्ट्रवादी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था, जिसे वे रोकने में असमर्थ थे, तथा दोनों ही को सन् 1956 में स्वतंत्रता दी गई - वह वर्ष जिसमें ब्रिटिश लोगों ने सूडान को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में छोड़ा।
फ्राँस को सबसे बड़ा धक्का अल्जीरिया में मुस्लिम विद्रोह से लगा, जिसे फ्राँस का ही एक भाग बताया जाता था तथा वहाँ पर दस लाख से भी अधिक यूरोपीय लोग बसे हुए थे। सन् 1954 से लेकर 1958 तक चार वर्षों तक, फ्रांसीसी टुकड़ियों की विशाल संख्या को अल्जीरिया में विद्रोहियों को कुचलने के लिए भेजा गया, परन्तु वे ऐसा करने में असफल रहे। 1958 में, फ्रांसीसी सरकार ने सौदेबाजी करने का प्रयास किया, जहाँ पर अल्जीरिया में बाहर से बसे एवं फ्रांसीसी सेना के नेताओं ने सत्ता पर कब्जा कर लिया। स्थिति को पुनः हासिल करने के लिए डी गॉल ने लोक-उत्साह की लहर पर, फ्राँस में जनमत के अनुमोदिन के साथ ही, अल्जीरिया की स्वतंत्रता को स्वीकार कर लिया गया। लाखों लोग फ्राँस की ओर कूच कर गए।
इसी बीच, सन् 1958 में फ्रांस ने अफ्रीका में बचे हुए शेष फ्रांसीसी क्षेत्रों को शामिल करने के लिए ’’अफ्रीकी राष्ट्रों के समुदाय’’ को प्रस्तुत किया। (डी गॉल ने शायद यह उम्मीद की थी कि अल्जीरिया उसमें शामिल होगा) समुदाय में प्रत्येक राज्य स्वशासी था, लेकिन विदेश, रणनीतिक, वित्तीय एवं आर्थिक मामलों में फ्राँस से निकटता से जुड़ा हुआ था। ये सदस्य बनेः सेनेगल, गैबन, चाड, काँगो, सेन्ट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक, मॉरीतानिया, माली, नाइजर, अपर वोल्टा, आईवरी कोस्ट, बेनिन (दाहोमे), एवं मालागासी (मैडागास्कर)। गिनी नहीं स्वतंत्र रहा।
दो वर्ष बाद, समुदाय के सभी सदस्य पूवर्तः स्वतंत्र बने-जहाँ उनमें से छः ने (मॉरीतानिया, माली, नाइजर, अपर वोल्टा, आईवरी कोस्ट एवं बेनिन) समुदाय छोड़ दिया। बाद में समुदाय ठंडा हो गया, पर फ्रेंच प्रभाव बना रहा। भूतपूर्व-जनमत टोगो एवं कैमरून भी 1960 में स्वतंत्र हो गए तथा कम्युनिटी से संबंधित क्षेत्र बने रहे। फ्रेंच सोमालीलैण्ड ’’फ्रांस से संबंधित क्षेत्र’’ बना रहा तथा सन् 1977 में जिबूती गणराज्य के रूप में पूर्ण स्वतंत्र हो गया।
इन सभी भूतपूर्व-फ्रेंच अफ्रीकी राज्यों में, सिवाय उत्तरी अफ्रीका वालों को छोड़कर, फ्रेंच अभी भी औपचारिक भाषा है तथा यह भूतपूर्व-फ्रेंच उत्तरी अफ्रीका में भी काफी बोली जाती है।
स्वतंत्रता प्राप्त करने वाला पहला नीग्रो राज्य ब्रिटिश उपनिवेश, गोल्ड कोस्ट था जो सन् 1957 में क्रुमाह के नेतृत्व में स्वतंत्र घाना बना (तथा टोगो आज्ञापत्र के ब्रिटिश भाग को घाना में शामिल किया गया)। पश्चिमी अफ्रीका में अन्य ब्रिटिश क्षेत्र थे - नाईजीरिया, सिएरा लियोन, एवं गैम्बिया - एवं ये भी 1960 एवं 1965 के मध्य स्वतंत्र बने। (गैम्बिया ने स्वतंत्रता के पश्चात् ’’द गैम्बिया’’ नाम धारण कर लिया)।
इन पश्चिम-अफ्रीकी राज्यों में स्व-शासन एवं संपूर्ण स्वतंत्रता की ओर प्रगति अच्छी थी जहाँ कुछ ही गोरे बाशिंदे थे जबकि मौसम की दृष्टि से पूर्वी अफ्रीका के कुछ अधिक स्वास्थ्यकर क्षेत्रों में ऐसे यूरोपीय लोगों तथा एशियाई लोगों की काफी संख्या थी जो अफ्रीकी शासन के अंतर्गत अपने भविष्य के प्रति आशावान नहीं थे। उदाहरण के लिए केन्या में लगभग 40-50,000 गोरे लोग थे, लगभग इतनी ही संख्या में अरबी लोग थे तथा लगभग 2,00,000 ऐसे भारतीय एवं पाकिस्तानी लोग थे जिन्हें मूल रूप से रेलवे निर्माण संबंधी कार्यों के लिए वहाँ लाया गया था।
इतने पर भी, पूर्वी अफ्रीका में सभी ब्रिटिश अधिकार वाले क्षेत्रों को 1960 एवं 1964 के मध्य स्वतंत्रता दे दी गईः ब्रिटिश सोमालीलैण्ड (जो सोमालिया नाम के नये राज्य के निर्माण के लिए भूतपूर्व - इतालवी सोनालीलैण्ड के साथ मिला दिया गया), तन्जानिया, युगाण्डा, केन्या, मलावी, एवं जाम्बिया। केन्या में, ब्रिटेन की 1950 की अधिकांश अवधि के दौरान एवं आतंकवादी संगठन, माउ-माउ से भिड़ंत होती रही, एवं गुप्त समाज किकूयू यूरोपियन बाशिंदों एवं अफ्रीकी लोगों के लिए भूमि के आवंटन पर प्रतिबंध के विरोध में अपना रोष व्यक्ति कर रहा था।
दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश संरक्षण वाला बेचुआनालैण्ड सन् 1966 में स्वतंत्र बोत्सवाना बना; तथा दो अन्य आदिवासी क्षेत्र बासुतोलैण्ड एवं स्वाज़ीलैण्ड - जो कि दक्षिण अफ्रीकी संघ से घिरे हुए थे, एवं क्रमशः सन् 1868 एवं 1902 में ब्रिटिश संरक्षण वाले स्थान बने, ने बासुतोलैण्ड (लेसोथे के रूप में) ने सन् 1966 में एवं स्वाजीलैण्ड ने सन् 1968 में स्वतंत्रता प्राप्त की।
1960 में, दक्षिण अफ्रीकी संघ गणराज्य बना, तथा 1961 में इसने ब्रिटिश कॉमनवेल्थ (राष्ट्रमंडल) छोड़ दिया। पूर्व के ब्रिटिश उपनिवेश एवं उसके संरक्षण वाले घाना, नाइजीरिया, सियेरा लियोन, द गैम्बिया, तन्ज़ानिया, युगाण्डा, केन्या, मलावी, ज़ाम्बिया, बोत्सवाना, लेसोथे एवं स्वाजीलैण्ड कॉमनवेल्थ में ही बने रहे।
दक्षिणी रोडेशिया में स्थिति कठिन थी। ब्रिटेन के बहुमत शासन (अफ्रीकी कानून के प्रभाव में) के साथ उसकी स्वतंत्रता की योजना का अधिकांश 2.5 लाख गोरे बाशिंदों ने विरोध किया। प्रश्न पर किसी भी प्रकार की सहमति तक पहुँचने में असफल होने पर सन् 1965 में गोरे रोडेशियाई लोगों ने रोडिशिया को एक स्वतंत्र अधिशासी राज्य, राष्ट्रमंडल के अंदर ही, घोषित कर दिया। सौदेबाजियों व चर्चा तथा आंतरिक समस्याओं का दौर 15 वर्षों तक चलता रहा, जब तक कि सन् 1980 में रोडेशिया ब्रिटिश कॉमनवेल्थ में रहते हुए स्वतंत्र अफ्रीकी राष्ट्र जिम्बाब्वे नहीं बन गया।
10.0 यू.एस.एस.आर. का पतन
गैर-रूसी क्षेत्रों में, जो सीमांत थे, सोवियन यूनियन का विघटन शुरू हुआ। सर्वप्रथम जिस क्षेत्र में असंतुष्टों का समूह उभरा, वह क्षेत्र बाल्टिक क्षेत्र था, जहाँ सन् 1987 में एस्टोनिया की सरकार ने स्वायत्तता की माँग उठायी। इस कदम का लिथुआनिया व लाटविया में भी अनुसरण हुआ, जो कि दो अन्य बाल्टिक गणराज्य थे। बाल्टिक्स में राष्ट्रवादी आंदोलन गोर्बाचोव की ग्लासनोस्त नीति के सामने एक बड़ी चुनौती थे। वे इन आंदोलनों में भाग लेने वाले को ध्वस्त करने के लिए ज्यादा गंभीर कदम नहीं उठाना चाहते थे, लेकिन फिर भी उसी समय, यह बात उभरकर सामने आयी कि यदि उनके इस कृत्य को यूँ ही जारी रहने दिया गया तो यह सोवियत यूनियन के लिए गंभीर आपदा ला सकता था। यदि आसपास के सभी क्षेत्र स्वतंत्रता की माँग कर बैठते तो वह पूर्ण रूप से पतन के गर्त में चला जाता।
एस्टोनिया के शुरूआत करने के पश्चात् पूर्व सोवियत संघ में सभी स्थानों पर उसी प्रकार के आंदोलन शुरू होने लगे। ट्राँस-कॉकेशस क्षेत्र (सोवियत संघ के दक्षिण) में, अज़रबैजान गणराज्य में, नागोर्नोकाराबाघ के आर्मेनियाई-जनसंख्या वाले स्चायत्त क्षेत्र में एक आंदोलन विकसित होने लगा। इस क्षेत्र की आर्मीनियाई जनसंख्या यह माँग करने लगी कि उन्हें स्वेच्छापूर्वक अलग होने तथा आर्मीनिया गणराज्य में शामिल होने का अधिकार मिले, जिसकी जनसंख्या से वे नस्ल के आधार पर जुड़े हुए थे। नार्गोनो-काराबाघ में विद्रोहियों के सशक्तिकरण के लिए आर्मीनिया में जंगी प्रदर्शन किए गए। गोर्बाचोन की सरकार ने नार्गोनो-काराबाघ के लोगों को अलग होने की अनुमति देने से इनकार कर दिया, तथा स्थिति ने हिंसक क्षेत्रीय विवाद का रूप ले लिया, व धीरे-धीरे यह एक संपूर्ण विघटनकारी युद्ध में बदल गया जो आज भी जारी है।
एक बार इस भानुमति के पिटारे के खुलने के बाद, राष्ट्रवादी आंदोलन, जॉर्जिया, यूक्रेन, मोल्दोवा, बेलारूस, एवं मध्य एशियाई गणराज्यों में भी उभरने लगे। इन आंदोलनों के कारण केन्द्रीय सरकार की शक्ति काफी कमजोर होने लगी व गणराज्यों में सरकार सरकारी लोगों का सहयोग पाने में सफल न रही।
अंततः अगस्त 1991 में स्थिति खुलकर सामने आई। सोवियत संघ को बचाने के लिए अंतिम प्रयास किया गया जो उन राजनीतिक आंदोलनों के प्रभाव में छटपटा रहा था जो गोर्बाचोव के ग्लासनोस्त के लागू किये जाने के समय से ही उभरे थे, कम्युनिस्ट विचारधारा के ’’गरमदल’’ के लोगों के समूह ने तख्ता-पलट का प्रयास किया। उन्होंने गोर्बाचोव का अपहरण किया तथा फिर 19 अगस्त सन् 1991 के दिन उन्होंने राज्य के टेलीविजन पर यह घोषणा की कि गोर्वाचोव अधिक बीमार हैं तथा वे अधिक दिनों तक देश चलने के योग्य नहीं हैं। देश में भूचाल की स्थिति आ गई। मॉस्को, लेनिनग्राद, एवं सोवियत संघ के अन्य कई मुख्य शहरों में कई विशाल विरोध प्रदर्शन किए गए। जब विद्रोहियों ने सेना लाने का प्रयास किया, तो सैनिक स्वयं ही विद्रोह पर उतारू हो गए, यह कहते हुए कि वे अपने ही साथी देशवासियों पर गोली नहीं चला सकते हैं। महाविरोध प्रदर्शन के तीन दिन बाद विद्रोहियों ने आत्मसमर्पण कर दिया, यह महसूस करते हुए कि सेना के सहयोग के बिना, वे देश की समूची आबादी पर काबू पाने में सक्षम नहीं है।
विद्रोह के असफल प्रयास के पश्चात् कुछ ही महीने हुए थे कि सोवियत संघ पूर्ण रूप से ढह गया। सरकार एवं लोग दोनों ने ही यह महसूस किया कि नियति को उल्टा घुमाने का कोई तरीका नहीं है; ’’अगस्त दिवसों’’ के विशाल प्रदर्शनों ने यह दिखा दिया कि लोग लोकतंत्र से कम कुछ भी स्वीकार नहीं करेंगे। गोर्बाचोव ने जन-शक्ति को स्वीकार किया, यह महसूस करते हुए कि वे आबादी की शक्ति को अधिक समय तक निहित नहीं रख सकते। 25 दिसम्बर, 1991 को उन्होंने इस्तीफा दे दिया। जनवरी, 1992 तक, सोवियत संघ का अस्तित्व थम गया। इसके स्थान पर एक नई सत्ता का निर्माण हुआ। इसे ’’कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिपेंडेंट रिपब्लिक्स (CIS)" (स्वतंत्र गणराज्यों का राष्ट्रमंडल) के नाम से जाना गया तथा इसमें पूर्व सोवियत संघ के अधिकांश स्वतंत्र देश शामिल थे। हालांकि जहाँ एक ओर इसके सदस्य देशों को पूर्ण राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त थी, वहीं दूसरी ओर वे अन्य कॉमनवेल्थ देशों से आर्थिक एवं कुछ प्रकरणों में सैन्य समझौते के माध्यम से जुड़े थे।
अब जब अपनी केन्द्रीयकृत आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था के साथ सोवियत संघ का अस्तित्व समाप्त हो चुका था, इसके पश्चात् नवगठित पन्द्रह स्वतंत्र देश महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना कर रहे थे। उन्हें अपनी अथव्यवस्था का विकास करना था, अपनी राजनीतिक व्यवस्था पुनर्गठित करनी थी, तथा अनेक प्रकरणों में, अप्रिय क्षेत्रीय विवादों को सुलझाना था। पूर्व सोवियत संघ की सीमाओं पर अनेक युद्धों की शुरूआत हुआ। साथ ही, सम्पूर्ण क्षेत्र ने ही गम्भीर आर्थिक कठिनाईयों का सामना किया। हालाँकि, क्षेत्र के द्वारा सामना की जाने वाली अनेक कठिनाईयों के बावजूद भी लोकतंत्र, पुनर्गठन एवं पुनर्निमाण की दिशा में अनेक साहसिक कदम उठाए गए।
11.0 नव-उपनिवेशवाद
‘‘नव-उपनिवेशवाद‘‘ या नए-उपनिवेशवाद का संबंध अन्य मार्गों से उपनिवेशवाद से है। विशिष्ट रूप से नव उपनिवेशवाद का संबंध इस सिद्धांत से है कि औपचारिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद जीएटीटी या डब्लूटीओ द्वारा स्थिर किये गए पूर्व या विद्यमान आर्थिक संबंधों का उपयोग व्यापार और अन्य आर्थिक शक्तियों पर नियंत्रण के माध्यम से पूर्व उपनिवेशों पर नियंत्रण जारी रखने के लिए किया जा रहा है। व्यापक दृष्टि से नव उपनिवेशवाद का सीधा संबंध शक्तिशाली देशों द्वारा कम शक्तिशाली देशों के मामलों में हस्तक्षेप से लगाया जा सकता है, और यह एक प्रकार के आर्थिक उपनिवेशवाद का संकेत प्रदान करता है। आश्रितता के सिद्धांत के अनुसार, जो मार्क्सवादी विचारधारा पर आधारित है, उपनिवेशवाद और नव-उपनिवेशवाद विश्व व्यवस्था में गरीबी के कारण हैं। इस सिद्धांत का तर्क है कि विभिन्न देश असमान दर से इसलिए विकसित हुए हैं क्योंकि संपन्न देशों ने पूर्व में उपनिवेशवाद के माध्यम से गरीब देशों का शोषण किया है, और आज वे विदेशी ऋण और विदेशी व्यापार का साधनों के रूप में उपयोग करके नव-उपनिवेशवाद के माध्यम से उनका शोषण कर रहे हैं।
11.1 मूलभूत, अर्द्ध परिधीय और परिधीय (Core, semi-peripheral, peripheral)
विश्व व्यवस्था सिद्धांत के अनुसार उपनिवेशवाद का परिणाम था नव उपनिवेशवाद का नवीन अनुशीलन। यह प्रथा विश्व व्यवस्था के अंदर असमान आर्थिक संबंधों का निर्माण करती है। समाजशास्त्री इमानुएल वालेरस्टीन ने आर्थिक असमानता के इन प्रकारों का सविस्तार किया है। इस सिद्धांत में विश्व व्यवस्था को क्रमानुक्रम के तीन प्रकार के देशों में विभाजित किया गया हैः मूलभूत, अर्द्ध परिधीय और परिधीय। मूलभूत देश (उदाहरणार्थ अमेरिका, जापान, जर्मनी) प्रमुख पूंजीवादी देश हैं जिनकी विशेषताएं हैं उच्च स्तर का औद्योगीकरण और शहरीकरण। परिधीय देश (उदाहरणार्थ अधिकांश अफ्रीकी देश और दक्षिण अमेरिका के निम्न आय देश) पूंजी के लिए मूलभूत देशों पर निर्भर होते हैं, और इनमें औद्योगीकरण और शहरीकरण काफी कम मात्रा में होता है। परिधीय देश आमतौर पर कृषि अर्थव्यवस्था वाले देश होते हैं और इनमें साक्षरता का स्तर बहुत अल्प होता है और इनके अनेक क्षेत्रों में इंटरनेट संयोजकता का अभाव होता है। अर्द्ध परिधीय देश (उदाहरणार्थ दक्षिण कोरिया, ताइवान, मेक्सिको, ब्राजील, भारत, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका) मूलभूत देशों की तुलना में कम विकसित होते हैं, परंतु परिधीय देशों की तुलना में अधिक विकसित होते हैं।
अफ्रीका नव उपनिवेशवाद की नवीनतम युद्धभूमि प्रतीत हो रहा है, और यूरोप के साथ ही दो सबसे बडे़ एशियाई देश भारत और चीन भी लूट के लिए प्रयासरत हैं। 2014 में चीन और अफ्रीका के बीच का व्यापार 200 बिलियन डॉलर मूल्य से भी अधिक का था, जो वर्ष 2000 की तुलना में 20 गुना अधिक था। इस मॉडल का सार उपनिवेशवाद के यूरोपीय मॉडल जैसा ही है।
अनेक बिलियन डॉलर मूल्य के अफ्रीकी संसाधन निकाले जा रहे हैं और इनका उपयोग विनिर्मित वस्तुओं के उत्पादन के लिए किया जा रहा है, और यही विनिर्मित वस्तुएं ऊंची कीमतों पर वापस अफ्रीकी बाजारों में बेची जा रही हैं। इसका परिणाम वही होता है जहां प्राकृतिक संसाधनों का मूल्य और पैसा अफ्रीका के बजाय पश्चिमी और पूर्वी एशिया में जा रहा है। इस असंयमित व्यापार का परिणाम अफ्रीका में गरीबी के स्तर में होने वाली वृद्धि में हो रहा है। कुछ स्रोतों के अनुसार 1990 और 2003 के बीच अफ्रीकी देशों को ऋण के रूप में 540 बिलियन डॉलर प्राप्त हुए थे, जिसके बदले में उन्होंने कुल 580 बिलियन डॉलर का पुनर्भुगतान किया, और अभी भी उनपर 330 बिलियन डॉलर का ऋण बकाया है। इस प्रकार की ‘‘सहायता‘‘ उस गरीब महाद्वीप का खून चूसने का एक वैकल्पिक मार्ग है।
गरीब देशों को ऋण प्रदान करने की शर्त के रूप में विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रमों का आग्रह करते हैं, जो इन देशों को अपनी अर्थव्यवस्थाओं के निजीकरण के लिए मजबूर करते हैं, साथ ही पश्चिमी निगमों को उनके कच्चे माल और बाजारों तक प्रवेश प्रदान करते हैं। तांबे की खदानों के निजीकरण के लिए जांबिया की सरकार पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक का दबाव इस नीति का एक जीता जागता उदाहरण है। हालांकि जांबिया में विश्व के तीसरे सबसे बडे़ तांबे के भंडार हैं, फिर भी जांबिया के 64 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं, और यहां के 80 प्रतिशत लोग प्रति दिन 2 डॉलर से कम पर अपना जीवन यापन करते हैं। एक बार फिर से संसाधनों को अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं को संपन्न बनाने के लिए निकाला जा रहा है। स्वीडिश अंतर्राष्ट्रीय विकास अभिकरण फोरम सिड़ बताती है कि इस महाद्वीप में परिचालन करने वाले बहुराष्ट्रीय निगमों की कर चोरी के कारण अफ्रीकी देशों को 160 बिलियन के कर राजस्व की हानि होती है। यह राशि संपूर्ण विकासशील विश्व को एक वर्ष में प्रदान की जाने वाली सहायता राशि के डेढ़ गुना के बराबर है। इसके बजाय यह राशि या तो समृद्ध पश्चिमी देशों में जाती है या कर मुक्त क्षेत्रों में एकत्रित होती है।
दक्षिण कोरियाई सरकार और कोरियाई बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने खाद्यान्नों की दीर्घकालीन आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए तीसरे विश्व के अल्प-विकसित देशों में कई मिलियन हेक्टेयर भूमि के दोहन अधिकार खरीद लिए हैं। संपूर्ण अफ्रीका और बाकी विकासशील विश्व में हजारों गैर सरकारी संस्थाएं गरीबों, दलितों और बदकिस्मत लोगो की सहायता के कार्य में जुटी हुई हैं। जबकि उनके विशिष्ट उद्देश्य भिन्न हो सकते हैं, फिर भी उनका व्यापक लक्ष्य केवल ष्सहायताष् करना है। हालांकि इसके विपरीत इतने सारे गैर सरकारी संगठनों और संयुक्त राष्ट्र कर्मियों की उपस्थिति, साथ ही उनके विशाल बजट अर्थव्यवस्था पर विकृत प्रभाव पैदा करते हैं। क्षेत्र में होने वाला बडे़ पैमाने पर अंतर्वाह अर्थव्यवस्था में कृत्रिम तेजी निर्माण करता है जिसके कारण अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में मुद्रास्फीति की स्थिति निर्मित हो जाती है। स्थानीय छोटे व्यापारियों के लिए योग्य कर्मियों की भर्ती और उन्हें बनाये रखना कठिन हो जाता है।
11.2 नाओमी क्लीन (Naomi Klein)
अपनी नवीनतम पुस्तक ‘‘द शॉक डॉक्ट्रिनः द राइज ऑफ डिजास्टर कैपिटलिज्म‘‘, में नाओमी क्लीन यह बताती है कि बड़े निगमों (और पूंजीवाद समर्थक सरकारों) को आपदा और संघर्ष से न केवल लाभ मिलता है, बल्कि वे सक्रिय रूप से संकटग्रस्त देशों का शोषण करने का कार्य करते हैं। जैसे कि क्लीन उसे परिभाषित करती हैं ‘‘शॉक डॉक्ट्रिन‘‘ एक आतंकवादी हमले, एक विनाशकारी तूफान, एक शासन परिवर्तन के बाद कार्यरत हो जाता है; वास्तव में किसी भी आपदा के बाद, जब निगमों की रूचि गुमराह लोगों पर झपट पड़ती है ताकि वाणिज्य और वैश्वीकरण के पक्ष में नियमों का पुनर्लेखन किया जा सके।
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