यूपीएससी तैयारी - विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं - व्याख्यान - 13

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औपनिवेशीकरण, गैर-औपनिवेशीकरण, राष्ट्रीय सीमाओं का पुनर्रेखांकन भाग - 1

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1.0 उपनिवेशवाद और उपनिवेशण (Colonialism and Colonization)

उपनिवेशवाद एक रणनीतिक और भू-राजनीतिक दर्शन है जिसके अनुसार एक देश जो अपने आपको किसी अन्य देश से बेहतर मानता है, उस देश को अधीनस्थ समझने का, और उसके नागरिकों को अपने बच्चे मानने का निर्णय लेता है। आमतौर पर पितृसुलभ दृष्टिकोण उस देश द्वारा अपनाया जाता है, जो अपने आपको उस दूसरे देश से श्रेष्ठ समझता है, और यह सब उस देश में समृद्धि और बेहतर चीजें लाने के नाम पर किया जाता है! स्थानीय जनसंख्या की संस्कृति और शिक्षा को लगातार दुष्प्रचार द्वारा या जो लोग उस संस्कृति का पालन नहीं करते उनके लिए एक श्रेष्ठ जीवन शैली का चित्रण करके पूरी तरह से नष्ट कर दिया जाता है। आमतौर पर इसे एक व्यापक औद्योगिक संकुल का, या आधुनिक विश्व में वित्तीय संसाधनों का समर्थन प्राप्त होता है। 15वीं से 18वीं सदी के दौरान यूरोपीय शक्तियों के लिए उपनिवेशवाद का आधार औद्योगिक क्रांति और बेहतर औद्योगिक प्रौद्योगिकी पर उनका अधिपत्य था। भारत में, और अधिकांश एशिया में ब्रिटिशों की उपस्थिति इसका एक उदाहरण है। विश्लेषकों का कहना है कि 21वीं सदी में पूंजी उपनिवेशवाद का आधार बन गई है। इस दृष्टि से बहुराष्ट्रीय निगमों को आधुनिक उपनिवेशवादी कहा जा सकता है।  

उपनिवेशण वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से लोग भौतिक रूप से जाकर ऐसे विदेशी स्थानों में बस जाते हैं जहां पहले से ही लोग बसे हुए हैं। ये नए उपनिवेशी मूल स्थानीय लोगों को उनकी सदियों से चली आ रही प्राचीन प्रथाओं को छोड़ने और नई आयातित प्रथाओं का पालन करना शुरू करने के लिए प्रभावित करते हैं, राज़ी करते हैं, प्रवृत्त या प्रेरित करते हैं या बाध्य करते हैं। मूल निवासियों को नई विचारधारा में परिवर्तित किया जाता है। इसका स्थानीय लोगों के कानूनों और उनकी आध्यात्मिकता पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। इस भूमि पर होने वाले निरंतर प्रवसन के कारण उसकी जनसांख्यिकीय रूपरेखा परिवर्तित हो जाती है, आमतौर पर स्थानीय लोगों के लिए यह परिवर्तन प्रतिकूल होता है। फिलिस्तीनी क्षेत्र में इज़रायली बस्तियों (अलियाह) को उपनिवेशनण का एक उदाहरण माना जा सकता है, हालांकि यह संपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय सहमति से किया गया था। उदारवाद पर अधिक ज़ोर दिए जाने के कारण और अनेक देशों के अप्रवासन मानदंड़ों में ढील दिए जाने के कारण प्रत्येक देश के प्रवासी लगभग प्रत्येक अन्य देश में विद्यमान हैं। हालांकि अधिकांश समय यह स्वचालित ढंग से होता है, परंतु कभी-कभी इसका उद्देश्य राजनीतिक भी हो सकता है। तिब्बत में चीन का अन्तःप्रवाह माओ त्से तुंग शासन की एक साभिप्राय नीति थी, ताकि स्थानीय तिब्बती अस्तित्व को वश में किया जा सके। इस संदर्भ में वैश्विक मीड़िया ने यूरोप के विभिन्न देशों में इस्लामिक जनसंख्या के बढ़ते प्रतिशत पर भी अनुमान लगाया है।

2.0 पिछले 1000 वर्षों के प्रमुख उपनिवेशवादी 

आधुनिक इतिहास में उपनिवेशवाद का उद्गम यूरोप में खोजा जा सकता है। यूरोपीय देशों ने उपनिवेशवाद को गढ़ा है, और वे स्वयं भी इससे काफी हद तक गढे़ गए हैं। न केवल स्पेन और इंग्लैंड जैसी वास्तविक उपनिवेशवादी शक्तियों, बल्कि जर्मनी जैसे ‘‘देर से इसमें शामिल होने वाले‘‘ देशों ने भी औपनिवेशिक विस्तारवाद की ऐतिहासिक प्रक्रिया में सहभागिता की है। 

क्रिस्टोफर कोलंबस (1451-1506) को विश्व का पहला शाही अधिदेश-प्राप्त उपनिवेशवादी माना जा सकता है। भारत के लिए मार्ग की खोज करने के प्रयास में उसने 1492 में एटलांटिक महासागर को पार किया। हालांकि वह गुआनाहनी (बहामा द्वीपों में) नामक एक द्वीप पर पंहुचा जिसे उसने बाद में सान साल्वाडोर नाम दिया। वहां उपनिवेशवादियों की मुलाकात स्थानीय टैनो इंडियनों से हुई जिनमें से अनेक को कोलंबस के आदमियों द्वारा पकड़ लिया गया और बाद में उन्होंने उन्हें गुलामी में बेच दिया। कोलंबस को यह गलतफहमी हुई कि वह एशिया में पहुंच गया था, और उसने इस क्षेत्र को इंडीज़ कहा, और वहां के निवासियों को इंडियन कहा। 1492 और 1504 के बीच उसने कैरेबियाई द्वीपों की  साथ ही दक्षिण अमेरिका की कुल चार यात्रायें कीं जिनमें से प्रत्येक दौरे में उसने एक नए प्रदेश की खोज की और अपने प्रत्येक अभियान से वह और अधिक लूट और अधिक गुलाम साथ लाया। वह एक गुलामों का व्यापारी बन गया था!

7 जून 1494 को स्पेन और पुर्तगाल के बीच हुई तोर्देसिलास की संधि को नायकत्व की ओर यूरोपीय दावे की शुरुआत के रूप में माना जाता है। शुरुआत में पुर्तगाल और स्पेन (व्यक्तिगत मेलजोल के साथ 1580-1640) की रूचि मुख्य रूप से ब्राजील और फिलीपींस के साथ विदेशी व्यापार में थी और वे ईसाई मिशनरी उत्साह से प्रेरित थे। 

हालांकि 17 वीं सदी में प्रतियोगिता बढ़ गई, जब अंग्रेजों, फ्रांसीसियों और डच लोगों ने आगे दबाव बनाना शुरू किया, प्रारंभ में स्पेनी और पुर्तगालियों के प्रदेशों में नहीं, परंतु पड़ोसी क्षेत्रों में। इसे आदर्श रूप में आधुनिक कनाडा के फ्रेंच कब्ज़ां और दक्षिण में स्पेनी दावों के बीच उत्तरी अमेरिकी एटलांटिक तट पर दर्शाया गया है। जब यूरोप के प्राचीन शासन में संकट को आगे टालना असंभव हो गया, तो औपनिवेशिक साम्राज्यों की एकजुटता भी समाप्त हो गई। ब्रिटिशों ने उत्तरी अमेरिका और भारत में अपने फ्रेंच विरोधियों के विरुद्ध विजय प्राप्त की, दक्षिण पूर्वी एशिया में डच के विरुद्ध और दक्षिण अमेरिका में स्पेनियों के विरुद्ध विजय प्राप्त की। संयुक्त राज्य अमेरिका की स्वतंत्रता को भारत में, दक्षिण अफ्रीका में और विशेष रूप से समुद्रों पर अद्वितीय शाही नौसेना और मुक्त व्यापार के साथ वर्चस्व के साथ प्रतिस्थापित किया गया। राजतंत्र के नाम के स्वरुप, जिसमें सत्ता का उपयोग व्यापक रूप से नियंत्रित संसद द्वारा किया जाता था, ने भी ब्रिटिशों को अन्य साम्राज्यों से अधिक समय तक शासन जारी रखने में सहायता प्रदान की। 

1830 में फ्रांस की अल्जीरिया पर विजय ने इस अफ्रीकी महाद्वीप में उपनिवेशवाद के द्वार खोल दिए। इसने यूरोप के आतंरिक आर्थिक और औद्योगिक तनावों को भी कम करने में सहायता प्रदान की। हालांकि इसने 1870 और प्रथम विश्व युद्ध (जिसकी शुरुआत 1914 में हुई) के बीच साम्राज्यवाद को उच्च शिखर पर पहुंचा दिया। 

19 वीं सदी के दौरान रूस और हाल ही में औद्योगिक बने हुए जापान ने भी विश्व का उपनिवेशण करना शुरू किया। नवीनतम लगभग 1900 के आसपास महान शक्तियों की यूरोपीय व्यवस्था वैश्विक प्रतियोगिता के समक्ष खड़ी हुई। धीरे-धीरे उपनिवेशवाद का शिकंजा विश्व भर में फैल गया। यह देखा जा सकता है कि उपनिवेशवाद के सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों तत्व थे। सकारात्मक उपलब्धियों में आधुनिक राज्य पद की संकल्पना की निर्मिति, शहरीकरण और यौक्तिकीकरण (धार्मिक असहिष्णुता के विरूद्ध) शामिल हैं। उदारतावाद, समाजवाद और निश्चयात्मकता जैसी सकारात्मक वैचारिक व्यवस्थाओं को फ्रांस में, इंग्लैंड में, साथ ही ब्राज़ील और जापान में भी उत्साह के साथ स्वीकार किया गया। दूसरी ओर, इसके साथ ही नकारात्मक विरासतें भी हैं, जैसे सीज़रवाद (करिश्माई तानाशाह का शासन), जातिवाद और औपनिवेशिक हिंसा।

3.0 स्थानीय (स्वदेशी) लोगों पर उपनिवेशण का प्रभाव 

स्पेनी, ब्रिटिश, फ्रांसीसी और पुर्तगालियों ने आपसी प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप स्वयं के सशक्तिकरण के लिए संपूर्ण विश्व का उपनिवेशण कर दिया। हालांकि स्थानीय जनसंख्या पर उनका प्रभाव अधिकांशतः प्रतिकूल ही हुआ। स्पेनी, ब्रिटिश और फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों के कारण उपनिवेश क्षेत्रों की संस्कृति, अर्थव्यवस्था और धर्म बडे़ पैमाने पर परिवर्तित हुए हैं। लैटिन अमेरिका के भूतपूर्व स्पेनी उपनिवेशों में स्पेनी संस्कृति आज भी देखी जा सकती है। अमेरिका और कनाड़ा में आज भी ब्रिटिश और फ्रांसीसी संस्कृति देखी का सकती है। मातृ देशों की अर्थव्यवस्थाएं स्थानीय लोगों की संस्कृति, परंपराओं, और अर्थव्यवस्थाओं के मूल्य चुका कर सुदृढ़ हुई। स्पेनी, ब्रिटिश और फ्रांसीसी उपनिवेशवाद ने अनेक ऐसे क्षेत्रों में ईसाई धर्म के प्रसार की अनुमति दी जिन्होंने उससे पूर्व कभी ईसा मसीह का नाम भी नहीं सुना था। वास्तव में इनके अनेक उपनिवेशों को अब ईसाई देशों के रूप में माना जाता है। 1791 की सर्दियों में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के एक भाग के रूप में जॉर्ज वैंकूवर ने पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के अल्बेनी क्षेत्र पर सम्राट जॉर्ज तृतीय के नाम पर अधिकार कर लिया। 

प्रारंभ में यूरोपीय अन्वेषकों के ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों के साथ काफी हद तक सौहार्दपूर्ण संबंध थे। हालांकि ये संबंध तब शत्रुतापूर्ण बन गए जब ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों को यह समझ आया कि उपनिवेशवादी उनके जीवन को गंभीर क्षति पहुंचाएंगे। उपनिवेशियों ने ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों से जमीनें हथिया लीं, प्राकृतिक खाद्य संसाधन हथिया लिए और उनसे उनका खानाबदोशी जीवन भी छीन लिया। धीरे-धीरे यूरोपीय शक्तियों के बीच यह धारणा बनती चली गई कि ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों से निपटने का और किसी भी खतरे को नष्ट करने का सबसे अच्छा तरीका था उन्हें सुधारना या ‘‘सभ्य‘‘ बनाना। इसका अर्थ यह था कि ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों की पारंपरिक जीवन शैली को यूरोपीय पद्धतियों और तरीकों से प्रतिस्थापित करना। 

अल्बेनी के ब्रिटिश गवर्नर मैक्वारी ने ऑस्ट्रेलियाई आदिवासी बच्चों को स्कूल भेजने का प्रयास किया, परंतु उनमे से अनेक बच्चे थोडे़ ही समय बाद स्कूल छोड़ कर अपने कबीलों में वापस लौट गए। मैक्वारी ने ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों को खेती और निर्माण की तकनीकें सिखा कर उनके लिए के लिए बस्ती बनाने का प्रयास किया। उसके सारे प्रयास विफल हो गए और आदिवासियों को नियंत्रित करने के लिए बल का उपयोग किया गया। अपनी सभी विफलताओं के बाद फिर मैक्वारी ने ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों को ब्रिटिश नियंत्रण में रखने के लिए कानून बनाये। इन कानूनों तहत, विरोध करने वाले ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों को गोली मारने की अनुमति थी।

3.1 उपनिवेशण का ऑस्ट्रेलियाई आदिवासी लोगों पर प्रभाव 

1788 और 1900 के मध्य-ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों की जनसंख्या 90 प्रतिशत से कम हो गई। इसके तीन मुख्य कारण थे नए रोगों की शुरुआत, भूमि की हानि और उपनिवेशवादियों के साथ प्रत्यक्ष संघर्ष के कारण जनसंख्या की हानि। 

रोगः यूरोपीय उपनिवेशन का सबसे घातक प्रभाव था बीमारियों का प्रकोप। इनमें से अधिकांश बीमारियां महामारियों के रूप में थीं जैसे चेचक, छोटी चेचक, इंफ्लुएंज़ा और खसरा। चूंकि ये सभी बीमारियां संक्रामक थीं अतः उनका प्रसार अत्यंत तीव्र गति से हुआ, और उनके कारण अनेक लोगों की मृत्यु हुई। बडे़ आदिवासी समुदायों में बीमारियां और अधिक तेजी से फैलीं। इन बीमारियों ने संपर्क के तीन दशकों के अंदर स्थानीय जनजातियों की लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या को नष्ट कर दिया, और यूरोपीय साम्राज्यों के लिए उपनिवेश बनाना और अधिक आसान कर दिया। क्रिस्टोफर कोलंबस का जिस पहले स्थानीय अमेरिकी समूह से सामना हुआ वे थे हैती के 2,50,000 अरावाक जिन्हें गुलाम बना दिया गया। वर्ष 1550 तक उनकी संख्या घट कर 500 रह गई थी, और 1650 से पहले यह समूह लुप्त हो गया। इसका कारण सीधा थाः आदिवासियों ने कभी इन ‘‘नए विश्व‘‘ की बीमारियों का सामना नहीं किया था, और शीघ्र ही वे उनके शिकार हो गए, क्योंकि उनकी रोग प्रतिरोधी क्षमता को बीमारियों पर प्रतिक्रिया देने के लिए पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाया। इतिहासकारों का आरोप है कि यूरोपियनों ने अमेरिका में काले प्लेग की शुरुआत की। कुछ अन्य बीमारियां थीं इन्लुएंजा, छोटी चेचक, खसरा और सन्निपात। ये बीमारियां यूरोपीय लोगों द्वारा लाइ गईं थीं, और इन्होने स्थानीय इंडियंस की संख्या को खतरनाक रूप से कम कर दिया।

भूमि-हानिः ऑस्ट्रेलिया में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का एक अन्य परिणाम था भूमि और जल संसाधनों तक अभिगम्यता में कमी। उपनिवेशवादियों ने यह दृष्टिकोण अपनाया कि खानाबदोश जीवन शैली वाले ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों को उनकी भूमियों से आसानी से खदेड़ा जा सकता है। 1870 के दशक तक सभी उपजाऊ क्षेत्र ऑस्ट्रेलियाई आदिवासी लोगों से लेकर गोरे उपनिवेशवादियों को दे दिए गए थे। भारत में दबाव के तहत किसानों को नकद फसलें उगाने के लिए मजबूर किया गया, जो ब्रिटिशों को सस्ता कच्चा माल प्रदान करेंगी। भूमि और भोजन और पानी जैसे अन्य आवश्यक संसाधनों की हानि ने आदिवासियों के सामने गंभीर खतरा पैदा कर दिया जिनके पास न तो रहने के लिए जगह थी और न ही भोजन के लिए शिकार करने की कोई जगह। नए उपनिवेशवादियों द्वारा फैलाई गई बीमारियों के कारण पहले से ही कमजोर हुए आदिवासियों के जीवित बचने के अवसर नाटकीय रूप से कम होने लगे। 

मदिरा और पशुपालन पद्धतियों की शुरुआतः ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने आदिवासी लोगों के बीच शराब की भी शुरुआत की जिसने उन्हें बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया। भारत में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने शराब के विरूद्ध आंदोलन शुरू किया तो इसकी बिक्री इस कदर कम हो गई कि ब्रिटिश प्रशासन को सीमित मात्रा में शराब के सेवन के स्वास्थ्य लाभों के बारे में बताने के लिए विज्ञापन देने पडे़। ऑस्ट्रेलिया में जब यूरोपीय लोगों ने बडे़ खेतों में भंडार बढ़ाना शुरू किया, तो अनेक परिवर्तन हुए। अनेक आदिवासी लोगों को अपनी जमीन से हाथ धोना पड़ा। विशाल क्षेत्रों पर यूरोपीय पशुधन के प्रसार ने आदिवासियों की खानाबदोश जीवन शैली को भी सीमित कर दिया। इन बडे़ खेतों से अड़वासियों को ताजे मांस की नई आपूर्ति की जाने लगी जिसने उनके पोषण, उनकी आहार आदतों और भोजन खोजने के उनके तरीकों को परिवर्तित कर दिया। इसके परिणामस्वरूप आदिवासियों को उनके भोजन और जीवन निर्वाह के लिए यूरोपीय उपनिवेशवादियों पर निर्भर रहना पडता था। 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में नए उपनिवेशवादियों ने उत्तर के महत्वपूर्ण भूक्षेत्रों को अपने उपयोग के लिए अपने कब्जे में ले लिया जैसे जल विवर या गीले क्षेत्र इत्यादि। उन्होंने भेड़ों, खरगोशों और गाय-बैलों की भी शुरुआत की। इन पशुओं ने उपजाऊ क्षेत्रों को अपने अधिकार में ले लिया और उन्हें क्षतिग्रस्त कर दिया। इसके परिणामस्वरूप स्थानीय पशु, जिनके शिकार पर स्थानीय आदिवासी लोग निर्भर रहते थे, धीरे-धीरे लुप्त होने लगे। स्थानीय आदिवासियों को चूंकि अब शिकार के लिए स्थानीय पशु मिलना कम हो गए तो उन्होंने भेड़ों और गाय-बैलों का शिकार करना शुरू कर दिया। 

धर्मोपदेशक गतिविधियांः ईसाई धर्म प्रचारक अक्सर स्थानीय आदिवासी लोगों को भोजन और कपडे़ उपलब्ध कराते थे, और उन्होंने स्थानीय आदिवासी बच्चों के लिए विद्यालय और अनाथाश्रम खोले। कुछ स्थानों पर उपनिवेशवादी सरकारें भी कुछ संसाधन उपलब्ध कराती थीं। जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, यह भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में देखा जा सकता है जहां प्रमुख धर्म ईसाई धर्म है। स्थानीय धर्मग्रंथों की त्रुटियों के बारे में दुष्प्रचार करके धर्मोपदेशक स्थानीय लोगों में एक भिन्न आधुनिक जीवन शैली बेचने में सफल हुए, जिसका परिणाम बीती सदियों के दौरान बडे़ पैमाने पर धर्मपरिवर्तनों में हुआ।

सामान्यतया प्रारंभ में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का स्वागत हुआ, या कम से कम स्थानीय आदिवासी लोगों ने उनका विरोध नहीं किया। हालांकि समय के साथ जब ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का प्रभाव बढ़ने लगा, तो गोरे उपनिवेशवादियों और स्थानीय आदिवासियों के बीच अधिकाधिक संघर्ष होते चले गए, जिनका परिणाम अक्सर हिंसक कत्लेआम और स्वतंत्रता संग्रामों में हुआ। 

3.2 कार्यप्रणालियों का विवरण 

अप्रैल 1500 में पेड्रो अल्वारेस काबरल के निर्देशन के तहत पुर्तगालियों का रिओ बुरानहेम (तटीय ब्राजील) के बहियन तट पर आगमन हुआ। तट पर उतरने पर इन लोगों ने स्थानीय निवासियों के देखे जाने को दर्ज किया है, जिन्होंने उनका तोते के पंखों से निर्मित साफों के साथ शांति प्रस्तावों से स्वागत किया। पुर्तगालियों ने हिंसक वर्चस्व कीप्रबंधन संस्कृति स्थापित की थी जो स्थानीय ब्राजील वासियों को पसंद नहीं आई, जिन्होंने जटिल रस्मों के दौरान अपने पुर्तगाली ‘‘स्वामियों‘‘ को बंदी बनाया और उन्हें खा गए। इसने पुर्तगाली राजा को स्थानीय लोगों की चेतावनियों को सुनने और प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करने के लिए मजबूर कर दिया। 

1562 और 1563 में स्थानीय लोगों पर छोटी चेचक, खसरे और बुखार का आघात हुआ, जिनके कारण उनकी जनसंख्या अनुपातों की विशाल संख्या जड़ से समाप्त हो गई। इसके बाद अकाल पड़ा। इसके कारण स्थानीय लोग भोजन और किसी भी प्रकार की आय के लिए मायूस हो गए, इसके परिणामस्वरूप उन्होंने भुखमरी से मरने के बजाय स्वयं को गुलामों के रूप में बेचना शुरू कर दिया। 

16 वीं सदी के अंत तक उपनिवेशवादी तत्वों से बचने के लिए स्थानीय लोग ब्राजील के आतंरिक भागों की ओर भाग गए अतः यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने अफ्रीका से गुलामों का आयात किया। अफ्रीकी पुरुषों और महिलाओं की इस विशाल शुरुआत के कारण ही ब्राजील अफ्रीका में पाई जाने वाली संस्कृति और विरासत पर गौरव करता है। 

1800 के दशक के उत्तरार्द्ध के दौरान अनेक यूरोपीय शक्तियों ने अफ्रीका पर नियंत्रण के लिए संघर्ष किया। धर्मोपदेशक डेविड लिविंगस्टोन पहला यूरोपीय था जिसने आतंरिक क्षेत्रों की खोज की और अनेक जनजातियों को ईसाई धर्म का परिचय कराया। एक अंतिम उदाहरण अमेरिका के प्रारंभिक उपनिवेशवादियों में देखा जा सकता है। उत्तरी अमेरिका के उपनिवेशन में धर्म ने बड़ी भूमिका निभाई है क्योंकि अनेक अति-धर्मनिष्ठ जो नए विश्व में बसने आये थे वे केवल धार्मिक उद्देश्य से ही आये थे। ‘‘अंग्रेज ईसाई मत प्रचारवाद उपनिवेशन और विस्तारवाद के माध्यम से आया। विभिन्न धार्मिक समूहों का भिन्न-भिन्न समय पर आगमन हुआ जो अलग-अलग क्षेत्रों में जाकर बस गए। एक बार बस्ने के बाद ये उपनिवेशवादी उन क्षेत्रों में फैलते चले गए’’।

4.0 एशियाई और अफ्रीकी उपनिवेशण 

19 वीं सदी में अधिकांश एशिया और अफ्रीका का उपनिवेशण करने को लेकर यूरोपीय सत्ताओं के बीच सघन प्रतिस्पर्धा थी। ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, जर्मनी और बेल्जियम अधिकांश अफ्रीकी महाद्वीप को नियंत्रित करने में सफल हुए, जबकि एशिया में डच, ब्रिटिश, फ्रेंच और अन्य प्रदेशों और संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। मध्य एशिया में ‘‘महान खेल‘‘ ने ग्रेट ब्रिटेन को रूस के सामने खडा कर दिया। 

बिस्मार्क की पहल पर हुआ बर्लिन सम्मेलन 1885 में आयोजित किया गया था। इसने अफ्रीकी प्रदेशों के अधिग्रहण के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिशानिर्देश स्थापित किया, और इस प्रकार इसने ‘‘नव साम्राज्यवाद‘‘ को औपचारिक रूप प्रदान किया। फ्रेंको प्रशियाई युद्ध (19 जुलाई 1870-10 मई 1871) और महान युद्ध (शुरुआत जुलाई 1914) के बीच यूरोप ने लगभग 2,30,00,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र - पृथ्वी के भूक्षेत्र का पांचवां भाग-को अपनी विदेशी उपनिवेशवादी संपत्ति में जोड़ लिया। फ्रेंच बेल्जियन, जर्मन और पुर्तगालियों ने अत्यधिक केंद्रीकृत शासन को अपनाया। 

अफ्रीकी क्षेत्र की नियुक्तियां उनकी स्वामिभक्ति पर आधारित थी। हालांकि ब्रिटिशों द्वारा एक अलग दृष्टिकोण अपनाया गया। उनका प्रयास स्थानीय सत्ताधारियों को चिन्हित करके उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य के लिए प्रशासन करने के लिए प्रोत्साहित करके या मजबूर करके अप्रत्यक्ष रूप से शासन करने का था। एशिया ब्रिटिशों और फ्रेंच के बीच कड़वे संघर्ष के लिए युद्ध भूमि बन गया था। पुर्तगालियों ने अपने आपको कुछ उपनिवेशों तक ही सीमित रखा था। 

4.1 वास्को का भारत आगमन, फ्रेंच बनाम ब्रिटिश 

पुर्तगाली अन्वेषक वास्को द गामा 1498 में भारत में आगमन करने वाला प्रथम यूरोपीय था। हालांकि अंग्रेज पुर्तगालियों की कीमत पर भारत में अपना दावा जताने का प्रयास कर रहे थे जो एलिजाबेथन युग तक पीछे जाता था। 1600 में महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी को निगमित किया था (जिसे बाद में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में परिवर्तित किया गया), और उसे केप ऑफ गुड होप से पूर्व की ओर मैगेलन जलडमरूमध्य तक व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया था। 1639 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत के पूर्वी तट पर मद्रास को अधिग्रहित किया, जहां उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप पर प्रमुख यूरोपीय व्यापारी केंद्र के रूप में शीघ्र ही गोवा को मात दे दी, जो पुर्तगालियों का व्यापार केंद्र था। कमजोर स्थानीय शासकों के साथ रिश्वतों, कूटनीति और हेराफेरी के माध्यम से कंपनी भारत में फली-फूली, जहां वह सबसे शक्तिशाली राजनीतिक शक्ति बन गई, और वह अपने पुर्तगाली और फ्रेंच प्रतिस्पर्धियों से काफी आगे बढ़ गई। एक सौ वर्षों से भी अधिक समय तक इंग्लिश और फ्रेंच व्यापारी कंपनियां वर्चस्व के लिए एक दूसरे से लड़ती रही थीं, और 18 वीं सदी के मध्य तक ब्रिटिशों और फ्रेंच के बीच की प्रतिस्पर्धा और भी अधिक तीव्र हो गई। सात वर्षों के युद्ध के दौरान (1756-1763) रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिशों द्वारा फ्रेंच की पराजय और प्लासी के युद्ध में फ्रेंच समर्थित नवाब सिराज उद दौला की पराजय ने फ्रेंच के भारत पर दावे का अंत कर दिया।

4.2 फ्रेंच साम्राज्यवाद 

1850 के दशक के बाद फ्रेंच साम्राज्यवाद को यूनाइटेड किंगडम का विरोध करने की राष्ट्रवादी आवश्यकता से एक प्रारंभिक आवेग प्राप्त हुआ, और बौद्धिक रूप से इसका समर्थन इस अवधारणा से किया गया की फ्रेंच संस्कृति अन्नाम के लोगों की संस्कृति की तुलना में श्रेष्ठ थी, और उसका अन्नामियों के लक्ष्य सिविलीसेट्रिस -या उनके फ्रेंच संस्कृति और ईसाई संप्रदाय में समावेश के माध्यम से उनको ‘‘सभ्य बनाने का लक्ष्य‘‘ था। फ्रेंच ने 17 वीं सदी जितने पहले ही इंडोचीन में धार्मिक और वाणिज्यिक हित स्थापित कर लिया था। 19 वीं सदी के मध्य में द्वितीय साम्राज्य के तहत एक धार्मिक पुनर्जागरण ने ऐसा वातावरण प्रदान किया जिसके तहत इंडोचीन में उनकी रूचि बढ़ गई। सुदूर पूर्व में ईसाई विरोधी अत्याचारों ने 1847 में तौराने (डा नांग) पर बमबारी करने और 1857 में डा नांग पर कब्जा करने और 1858 में सैगोन पर कब्जा करने का बहाना प्रदान कर दिया।  नेपोलियन तृतीय के नेतृत्व में फ्रेंच ने निर्णय लिया चीन के साथ फ्रेंच के व्यापार को ब्रिटिशों द्वारा पर कर लिया जायेगा, और तदनुसार 1857 से 1860 तक अफीम युद्ध के दौरान फ्रेंच चीन के विरुद्ध ब्रिटिश के साथ मिल गए, और चीन में अपने प्रवेशद्वार के रूप में उन्होंने वियतनाम के कुछ भागों पर कब्जा कर लिया। 

1862 में सैगोन की संधि द्वारा 5 जून को वियतनामी सम्राट ने फ्रांस को कोचिंचिना का फ्रेंच उपनिवेश बनाने के लिए दक्षिणी वियतनाम के तीन प्रांत हस्तांतरित कर दिए; फ्रांस ने बाकी वियतनाम में भी व्यापार और धार्मिक विशेषाधिकार सुरक्षित कर लिए, साथ ही वियतनाम के विदेशी संबंधों पर एक संरक्षित राज्य भी हासिल कर लिया। धीरे-धीरे फ्रेंच की शक्ति अन्वेषण, संरक्षित राज्यों की स्थापन और प्रत्यक्ष कब्जे करने के माध्यम से विस्तृत होती गई। 

4.3 सकारात्मक और नकारात्मक 

एशिया और अफ्रीका के उपनिवेशन के सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों प्रकार के प्रभाव हुए। पश्चिमी उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद एशिया और अफ्रीका में राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, संविधानवाद इत्यादि जैसे पश्चिमी विचारों की शुरुआत के लिए जिम्मेदार था। विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियों ने अपने-अपने उपनिवेशों में अपने विचारों और संस्थाओं को स्थापित करने के प्रयास किये और इस प्रकार अनजाने में एशिया और अफ्रीका के देशों में उदारवादी शक्तियों को खुला छोड़ दिया। 

आर्थिक परिपेक्ष्य में पश्चिमी साम्राज्यवाद का मिश्रित प्रभाव हुआ। एक ओर उसका परिणाम एशिया और अफ्रीका में उद्योगों के विकास में हुआ। विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियों ने अपने उपनिवेशों में लाभ अर्जित करने के लिए उद्योगों की स्थापना की और इस प्रकार इन उपनिवेशों के औद्योगीकरण का मार्ग प्रशस्त किया। उपनिवेशवादी शक्तियों ने इन उपनिवेशों के संसाधनों के संपूर्ण शोषण के लिए वहां लंबी रेलवे लाइनें स्थापित कीं बैंकिंग गृहों इत्यादि का निर्माण किया। उन्होंने इन उपनिवेशों में शीघ्र लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से कुछ उद्योगों की भी स्थापना की और इस प्रकार उपलब्ध संसाधनों का संपूर्ण शोषण किया। हालांकि दूसरी ओर, उन्होंने आवश्यक औद्योगिक और कराधान के कानूनों के अधिनियमन के माध्यम से स्थानीय उद्योगों वाणिज्य और व्यापार को पंगु बनाने का भी प्रयास किया। व्यवस्थित शोषण की इस नीति का परिणाम संपत्ति के अपवाह में हुआ और इसने उपनिवेशों की गरीबी, भुखमरी और पिछडे़पन में भी भरसक योगदान दिया। 

अउरोपीय शासक अपनी संस्कृति को एशिया और अफ्रीका की संस्कृतियों से श्रेष्ठ मानते थे और उन्होंने उसे उनपर थोपने का प्रयास भी किया। साथ ही वे यह भी मानते थे कि गोरी जातियां काली या भूरी जातियों से श्रेष्ठ थीं और उन्होंने उनसे दूर रहने का प्रयास किया। वे अक्सर स्थानीय लोगों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण कानून अधिनियमित करते थे। उदाहरणार्थ, भारत में स्थानीय लोग रेल के उस डिब्बे में यात्रा नहीं कर सकते थे जिस डिब्बे में यूरोपीय लोग यात्रा कर रहे होते थे। यूरोपीय क्लबों के बाहर ‘‘कुत्ते और भारतीय प्रतिबंधित‘‘ चिन्ह काफी आम था। जातीय अलगाव की इस नीति ने स्थानीय जनसंख्या को उनसे दूर कर दिया। यूरोपीय अभ्युक्ति अक्सर उन सिद्धांतों से अलग होती थी जिनका वे उपदेश देते थे।

5.0 वैश्विक गुलाम व्यापार 

ऐसी कहावत है कि गुलाम भी उतने ही प्राचीन हैं जितनी प्राचीन पहाडियां हैं। विश्व में गुलामी के साक्ष्य लिखित दस्तावेजों के युग से भी अधिक पुराने हैं। प्रत्येक प्राचीन सभ्यता में गुलामी के साक्ष्य उपलब्ध हैं। मध्य युग में मुस्लिम और ईसाई साम्राज्य और चंगेज खान के साम्राज्य ने एक दूसरे के विरुद्ध अनेक युद्ध लडे़। मध्य एशिया के अरबों द्वारा भारत पर आक्रमण काफी आम थे। इन सभी मामलों में विजेता हमेशा अपने साथ युद्ध की लूट के रूप में हजारों गुलामों को ले जाया करते थे। औद्योगिक क्रांति द्वारा उन्मुक्त की गई शक्तियों के कारण 18 वीं और 19 वीं सदी में गुलामों के व्यापार ने व्याकुल करने वाले अनुपात प्राप्त कर लिए थे। एटलांटिक गुलाम व्यापार में ब्रिटेन ने पहत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, विशेष रूप से 1600 के बाद। अमेरिका के सभी 13 उपनिवेशों में और कनाडा (ब्रिटेन द्वारा 1763 में अधिग्रहित किया गया था) में गुलामी एक वैध संस्था थी। औद्योगिक क्रांति के समय गुलाम व्यापार और पश्चिम भारतीय बागानों के लाभ ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के 5 प्रतिशत थे। 

5.1 एटलांटिक पार गुलाम व्यापार के चरण 

प्रथम चरणः आधुनिक युग में ग्रेट ब्रिटेन एटलांटिक पार के गुलाम व्यापार का जनक था। ब्रिटेन से गुलाम जहाज लंदन, लिवरपूल और ब्रिस्टल जैसे बंदरगाहों को पश्चिम अफ्रीका के लिए छोड़ते थे जिनमें ब्रिटेन में निर्मित कपड़ा, बंदूकें, लोहे के बर्तन और पेय जैसी वस्तुएं ले जाई जाती थीं। पश्चिम अफ्रीकी तट पर इन वस्तुओं का पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के ऐवज में व्यापार किया जाता था, जिन्हें या तो गुलाम व्यापारियों द्वारा बंदी बनाया गया होता था या अफ्रीकी कबीलों के मुखियाओं से खरीदा गया होता था। 

द्वितीय चरणः अफ्रीकी गुलाम व्यापारी (जिन्हें दास बेचने वाले भी कहा जाता था) ऐसे गांवों से लोगों का अपहरण किया करते थे जो तटों से सैकड़ों मील दूर होते थे, और उन्हें पैदल ही तटों तक लाते थे जहाँ वस्तुओं के लिए उनका व्यापार किया जाता था। बंदियों को हाथ पीठ के पीछे बांध कर और गले में जूए डालकर तटों तक पैदल चलने के लिए मजबूर किया जाता था। अफ्रीकी तटों पर यूरोपीय व्यापारी यात्रा करने वाले अफ्रीकी व्यापारियों से या नजदीक के अफ्रीकी प्रधानों से गुलाम बनाये गए लोगों को खरीदते थे। परिवार अलग हो जाते थे। व्यापारी अफ्रीकियों को तब तक बंदी बना कर रखते थे जब तक कोई जहाज दिखाई नहीं देता था, और फिर वे उन्हें किसी यूरोपीय या अफ्रीकी कप्तान को बेच देते थे। कप्तान को जहाज भरने में अक्सर काफी लंबा समय लगता था। वह अपना जहाज एक ही स्थान पर बहुत कम ही भरता था। इसके बजाय वह अपने जहाज को लेकर तीन से चार महीने तट के निकट ही घूमता रहता था, और सबसे सस्ते और सबसे तंदुरुस्त गुलामों की खोज करता रहता था। जहाज तट से आगे पीछे अफ्रीकी गुलाम भरते हुए घूमता रहता था। पाशविक ‘‘मध्य मार्ग‘‘ पर गुलाम अफ्रीकियों को जहाज पर ठसाठस भरा जाता था जो उन्हें लेकर वेस्ट इंडीज़़ जाता था। यात्रा के दौरान गुलाम जहाजों और उनके चालक दल के सदस्यों के साथ अफ्रीकी गुलामों की अनेक हिंसक घटनाएं होती थीं। इन घटनाओं में वे घटनाएं भी शामिल थीं जहां तट पर मौजूद मुक्त अफ्रीकियों द्वारा गुलाम जहाजों पर हमले किये जाते थे, साथ ही जहाज पर मौजूद बंदी अफ्रीकियों द्वारा विद्रोह की घटनाएं भी सामान्य थीं। 

तृतीय चरणः वेस्ट इंडीज़ में बंदी बनाये गए अफ्रीकी गुलामों को यूरोपीय व्यापारियों द्वारा गुलामों की नीलामी में सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेचा जाता था। गुलाम बनाये गए अफ्रीकियों को बेचने से जो पैसा मिलता था उससे शक्कर, कॉफी और तंबाखू जैसी वस्तुएं खरीदी जाती थीं जिन्हे ब्रिटेन में बेचने के लिए ले जाया जाता था। जहाजों को बागानों से प्राप्त उत्पादों से घर की वापसी की यात्रा के लिए लादा जाता था। एक बार खरीद लिए जाने के बाद ये अफ्रीकी गुलाम बिना किसी मुआवजे के बागानों में काम करते थे। वे बागान मालिक की संपत्ति हो जाते थे और उन्हें किसी प्रकार के कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे। गुलाम बनाये गए अफ्रीकियों को अक्सर कड़ी सजाएं दी जाती थीं। बागानों में अनेक गुलाम बीमारी का बहाना बना कर या आग लगा कर या ‘‘दुर्घटनावश‘‘ उपकरणों को तोडकर काम की गति को धीमा करने का प्रयास करते थे। जब भी मौका मिलता था तो ये गुलाम बनाये गए अफ्रीकी भाग जाते थे। इनमें से कुछ भाग कर दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड या उत्तरी अमेरिका पहुंच जाते थे। साथ ही सैकडों की तादाद में गुलामों के विद्रोह भी होते थे। गुलाम बनाकर अमेरिका ले जाये गए अफ्रीकियों में से दो तिहाई गन्ना बागानों में व्यस्त हो जाते थे। वेस्ट इंडीज में गुलामों का उपयोग कॉफी बागानों में किया जाता था।

5.2 गुलाम व्यापार की नैतिकता 

निश्चित ही गुलाम व्यापार एक घृणित अपराध था। परंतु गुलाम यूरोपीय बागान मालिकों की उत्पादन लागत को कम करते थे, जिसके कारण उन्हें भरपूर लाभ प्राप्त होते थे। ये लाभ उनके विश्वव्यापी विस्तार का आधार बनते थे और इन्हीं लाभों ने भारी मात्रा में उनकी उस समृद्धि में योगदान प्रदान किया है जो आज देखी जाती है! अनेक देशों द्वारा गुलामी को अवैध बनाने के बावजूद मानव तस्करी आज भी एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या बनी हुई है, और अनुमानित 29.8 मिलियन व्यक्ति आज भी गैर कानूनी गुलामी में रह रहे हैं। बच्चों के व्यापार आधुनिक नाइजीरिया और बेनिन से आई हैं। द्वितीय सूडानी गृह युद्ध के दौरान लोग गुलाम बनाये गए थे। मॉरिटानिया में ऐसा अनुमान है कि लगभग 6,00,000 पुरुष, महिलाऐं और बच्चे, या देश की 20 प्रतिशत जनसंख्या वर्तमान में गुलाम बनाई गई है, जिनमें से अनेक का उपयोग बंधुआ मजदूरों के रूप में किया जा रहा है। मॉरिटानिया में गुलामी को अगस्त 2007 से अपराध माना जाता है। 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में पश्चिम अफ्रीका के कोको बागानों में व्यवस्थित गुलामी के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। परेशान करने वाली खबरें दर्शाती हैं कि 1.5 करोड़ से अधिक भारतीय उनके अपने देश में ही परोक्ष गुलाम हैं।

6.0 उपनिवेशण का अंत किस प्रकार हुआ  

द्वितीय विश्व युद्ध (1945) के अंत के बाद विश्व के राजनीतिक समीकरणों में नाटकीय परिवर्तन हुए। अमेरिका एक प्रमुख महाशक्ति के रूप में उभरा। हालांकि मित्र राष्ट्रों की युद्ध में विजय हुई थी, परन्तु इस विजय की उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। ब्रिटिशों को एटलांटिक के अपने ठिकानों का अमेरिका को समर्पण करना पड़ा जिसने उनकी शक्तियों में उल्लेखनीय कटौती कर दी। साथ ही हिटलर की आक्रामकता ने ब्रिटिशों और फ्रेंच के विश्वास को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया था। भारत जैसे अनेक उपनिवेशों में जारी स्वतंत्रता आंदोलन उपनिवेशों की स्थिरता को और भी कम कर रहे थे। संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्माण ने भी वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य को परिवर्तित कर दिया था।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान ने यूरोपीय शक्तियों को सफलतापूर्वक एशिया से बहार खदेड़ दिया था और वह लगभग भारत की चौखट तक पहुंच गया था। 1945 के जापानियों के आत्मसमर्पण के बाद स्थानीय भूतपूर्व एशियाई उपनिवेशों के राष्ट्रवादी और स्वतंत्रता आंदोलनों ने वापस यूरोपीय उपनिवेशी सत्ता की बजाय स्वतंत्रता को तरजीह दी। कई मामलों में, जैसे इंडोनेशिया और इंडोचीन में, ये राष्ट्रवादी यूरोपीय आत्मसमर्पण के बाद जापानियों के साथ गुरिल्ला युद्ध कर रहे थे, या वे पुराने उपनिवेशी सैन्य प्रतिष्ठानों के सदस्य थे। ये स्वतंत्रता आंदोलन अक्सर अमेरिका से समर्थन की गुहार लगाते थे। हालांकि राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए अमेरिकी समर्थन शीत युद्ध युग पर अमेरिकी चिंताओं के कारण समायोजित हो गया था। नाटो के अनेक मित्र राष्ट्रों ने इस बात का दावा किया कि उनकी औपनिवेशिक संपत्तियां उन्हें आर्थिक और सैन्य सामर्थ्य प्रदान करती थीं, जो अन्यथा गठबंधन में समाप्त हो जायेगा। अमेरिका के लगभग सभी यूरोपीय मित्र राष्ट्रों का मानना था कि द्वितीय विश्व युद्ध से उनकी वापसी के बाद उनके उपनिवेश अंततः उन्हें कच्चे माल और तैयार माल के लिए संरक्षित बाजारों का संयोजन प्रदान करेंगे जो उपनिवेशों को यूरोप के साथ मजबूती से जोड़ देंगे। 

6.1 राजनैतिक स्वतंत्रता पर संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव 

जबकि आमतौर पर अमेरिका राष्ट्रीय आत्मनिर्धारण की अवधारणा का समर्थन करता था, फिर भी उसके अपने यूरोपीय मित्र राष्ट्रों के साथ भी मजबूत संबंध थे, जिनका उनके पूर्व उपनिवेशों पर साम्राज्यवादी दावा था। संयुक्त राष्ट्र महासभा के 14 दिसंबर 1960 के प्रस्ताव 1514 (15) ने घोषित किया था कि ‘‘उपनिवेशवाद का निरंतर जारी अस्तित्व अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग को प्रतिबंधित करता है, पराधीन देशों के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास को अवरुद्ध करता है और संयुक्त राष्ट्र के विश्व शांति के आदर्शों के विरुद्ध प्रभावी होता है।‘‘ 1945 और 1960 के बीच एशिया और अफ्रीका के तीन दर्जन राज्यों ने अपने यूरोपीय उपनिवेशवादी शासकों से या तो स्वायत्तता प्राप्त कर ली थी या पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त कर ली थी। 

7.0 प्रथम विश्व युद्ध के बाद का परिदृश्य 

7.1 यूरोप 

युद्ध का अंतिम वर्ष दुनियाभर में महत्वपूर्ण रूपांतरण की अवधि में प्रवेश का समय था। सन् 1917 में, रूस के युद्ध प्रयास ढ़ह गए तथा सम्राट निकोलस II को पदत्याग के लिए बाध्य किया गया (तथा बाद में उसे मार दिया गया)। क्रांतिकारी शक्तियों ने लड़ाई जारी रखने का प्रयास किया, किन्तु आर्थिक स्थितियां व सैन्य-क्षमता लगातार तेजी से बिगड़ती चली गईं। अक्टूबर 1917 में, लेनिन की बोल्शेविक पार्टी, जो कि रूस के क्रांतिकारी आंदोलन का सर्वाधिक स्वाभाविक व मूल स्तंभ था, उसने पेट्रोग्राड (सेंट पीर्ट्सबर्ग) में सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया और कम्युनिस्ट शासन घोषित कर दिया।

बोल्शेविक नेताओं को यह उम्मीद थी कि उनका विद्रोह दुनिया भर के श्रमिकों की क्रांति के उदय का उद्घोषक होगा। तीन वर्षों के कठिन नागरिक युद्ध के पश्चात् बोल्शेविक शासन सन् 1921 तक सुरक्षित हो गया था लेकिन काफी जोश से भविष्यवाणी की गई विश्व क्रांति नहीं आई। सन् 1919 में हंगरी व जर्मनी में छोटी-छोटी कम्युनिस्ट क्रांतियों का उदय हुआ, तथा युद्ध के पश्चात् के तुरंत के वर्षों में इटली व स्पेन के राज्य एवं श्रमिकों के मध्य हिंसक झड़पें हुईं, किन्तु अन्य कोई भी यूरोपीय समाज इतने बड़े कम्युनिस्ट तख्तापलट का साक्षी नहीं बना। शायद इसलिए क्योंकि वहाँ कोई दूसरा लेनिन नहीं था! रूस के बाहर कम्युनिस्ट आंदोलन का हिसंक रूप से दमन कर दिया गया तथा इसके अनेक नेताओं की या तो हत्या कर दी गई अथवा उन्हें जेल में डाल दिया गया। 

युद्ध के अंत तक, यूरोप व मध्य-पूर्व के राजनैतिक भूगोल का रूपांतरण हो गया। रूस के साम्राज्य के पतन के बाद, जर्मन, ऑस्ट्रियाई एवं तुर्की के साम्राज्य भी गायब हो गए। उनका स्थान बाल्टिक सागर से सुएज़़ नहर तक के छोटे-छोटे राज्यों ने ले लिया। ईराक, सीरिया, लेबनान एवं फिलीस्तीन के प्राचीन तुर्क-राज्यों को भी ब्रिटेन व फ्रांस को सौंप दिया गया। 

ऑस्ट्रिया-हंगरी को अनेक उत्तरोत्तर राज्यों में बाँट दिया गया, जिनमें ऑस्ट्रिया, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया एवं यूगोस्लाविया शामिल थे, व ये सब जातीय रेखाओं (Ethnic Lines) के माध्यम से होता दिखा। ट्राँसिल्वेनिया को हंगरी से ग्रेटर रोमानिया में शामिल कर दिया गया। विवरण को सेंट-जर्मेन की संधि एवं ट्रायनॉन की संधि में शामिल कर दिया गया। ट्रायनॉन की संधि के परिणामस्वरूप हंगरी के 3.3 मिलियन लोग विदेशी शासन के अंतर्गत आ गए। हांलाकि हंगरी के लोगों की यूद्ध-पूर्व के हंगरी राज्य में 54 प्रतिशत जनसंख्या थी, किन्तु हंगरी के लिए इसके मात्र 32 प्रतिशत क्षेत्र को ही छोड़ा गया। सन् 1920 एवं 1924 के मध्य, 3,54,000 हंगेरीयन लोगों ने रोमानिया, चेकोस्लोवाकिया, एवं यूगोस्लाविया से लगे हुए क्षेत्रों से पलायन किया। 

रूसी साम्राज्य, जिसने अक्टूबर क्रांति के बाद सन 1917 में विश्व युद्ध से वापसी का रूख किया था, उसने एस्टोनिया, फिनलैण्ड, लाटविया, लिथुआनिया, एवं पौलेण्ड जैसे उदित होने वाले नए देशों के कारण अपने काफी पश्चिमी सीमांत प्रदेशों को गवाया। रोमानिया ने अप्रैल 1918 में बेस्सार्बिया पर नियंत्रण हासिल किया।

7.2 तुर्क सल्तनत (यूरोप का बीमार आदमी)

तुर्क की सल्तनत टूटी हुई एवं इसके अधिकांश गैर-एनाटोलियन क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र के रूप में विभिन्न मित्र शक्तियों को दे दिया गया था। नाटोलिया में तुर्क हृदय को तुर्क गणराज्य के रूप में पुनः संगठित किया गया। तुर्क सल्तनत को 1920 की सेव्रे संधि के द्वारा काटा होना था। इस संधि को कभी भी सुल्तान के द्वारा पुष्ट नहीं किया गया तथा तुर्की गणराज्य आंदोलन के द्वारा इसे नकार दिया गया, जिसने तुर्की स्वतंत्रता के युद्ध को अन्जाम दिया तथा अन्ततः 1923 की लौसेन संधि हुई।

सेव्रे की संधिः सेव्रे की संधि पर 10 अगस्त सन् 1920 में, इसके तैयार करने पर बिताए गये 15 से अधिक महीनों के पश्चात्, हस्ताक्षर किये गये। ग्रेट ब्रिटेन, इटली एवं फ्रांस ने विजयी सहयोगियों के लिए इस पर हस्ताक्षर किये। रूस इस प्रक्रिया से बाहर था तथा 1920 में अमेरिका ने अलगाव की नीति अपना ली थी। 

सेव्रे की संधि ने क्षेत्रीय रूप से ‘यूरोप के बीमार आदमी’ को काट दिया थाः ब्रिटेन एवं फ्रांस ने ’मध्य पूर्व’’ रूप में जाने वाले क्षेत्र के भविष्य के बारे में निर्णय ले लिया था। ब्रिटेन ने फिलिस्तीन पर प्रभावी रूप से अधिकार एवं नियंत्रण कर लिया जबकि फ्रांस ने सीरिया, लेबनान एवं दक्षिण एनाटेलिया की कुछ भूमि पर कब्जा कर लिया। पूर्व एवं पश्चिम एनाटोलिया को फ्रांस के अधिकार वाले क्षेत्र के रूप में घोषित कर दिया गया। ऐसा करने का निर्णय 1917 के सायक्स - पिकॉट के गुप्त समझौते में सेव्रे की संधि के कुछ तीन वर्षों पूर्व ही ले लिया गया था। ब्रिटेन ने ईराक का भी अधिग्रहण कर लिया था तथा ब्रिटिश नियंत्रण वाली तुर्की पेट्रोलियम कंपनी जिसे बाद में ईराक पेट्रोलियम कंपनी के नाम से जाना गया, के माध्यम से उसे मुक्तहस्त से रियायतें प्रदान की गईं। 

हेज़ाज़ की सल्तनत को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में औपचारिक अंतर्राष्ट्रीय पहचान दी गई। मक्का एवं मदीना के इसके सर्वाधिक महत्वपूर्ण शहरों के साथ, हेज़ाज़ की सल्तनत का आकार 100,000 वर्ग मील था तथा इसकी कुल जनसंख्या 7,50,000 थी। 

आर्मीनिया को एक पृथक सम्प्रभु राष्ट्र की पहचान मिली। 

स्मीर्ना को यूनान के प्रभावी नियंत्रण के अंतर्गत रखा गया जबकि वह तकनीकी रूप से तुर्क साम्राज्य (ऑटोमन साम्राज्य) के अंदर ही बना रहा। सेव्रे की संधि ने स्मीर्ना के लोगों को तुर्क साम्राज्य या यूनान में शामिल होने के लिए जनमत संग्रह का अवसर प्रदान किया। इस स्वेच्छा के अधिकार (Plebiscite)  को लीग ऑफ नेंशस द्वारा करवाया जाना था। यूनान को थ्रेस भी दिया गया। 

डोडीकैनीज द्वीपों (Dodecanese islands) को औपचारिक रूप से इटली को सौंप दिया गया, व इसे एनाटोलिया के तटीय क्षेत्रों में भी प्रभाव दिया गया। 

डार्डेनेलीज़ जलडमरूमध्य को, इस पर तुर्क साम्राज्य के बिना नियंत्रण वाला एक अंतराष्ट्रीय जलमार्ग बनाया गया। कॉन्स्टैंटीनोपल (इस्तांबुल) के निकट कुछ बंदरगाहों को ’’स्वतंत्र क्षेत्र’’ के रूप में घोषित किया गया क्योंकि उन्हें अंतर्राष्ट्रीय महत्व के स्थानों के रूप में चिन्हित किया गया था। 

सेव्रे की संधि कुर्दिस्तान के मुद्दे पर असफल हो गई। कुर्दिस्तान की सीमाओं पर शुरूआती समझौता हुआ था किन्तु राष्ट्रवादी कुर्दों ने इसका बहिष्कार कर दिया क्यों कि यह वान कहलाने वाले क्षेत्र को शामिल करने में असफल हो गई थी। यह मुद्दा उस समय समाप्त हो गया जब कुछ कुर्द तुर्की में बने रहे जहाँ उन्हें सरकार ने तुर्क के रूप में मान्यता दी, तथा कुछ को उत्तर पश्चिमी ईराक में उनके ईराकी होने के रूप में मान्यता दी गई। 

अन्य पराजित केन्द्रीय शक्तियों की तरह, तुर्क साम्राज्य पर भी सैन्य प्रतिबन्ध लागू किये गये थे। तुर्क की सेना 50,000 लोगों तक सीमित कर दी गई थी। वायुसेना को खत्म तथा जल सेना को तेरह नावों, छः स्कूनर्स एवं सात टॉरपीडो नावों तक सीमित कर दिया गया था। सेव्रे की संधि में यह भी शामिल किया गया था कि सहयोगियों को इन सैन्य शर्तों की निगरानी करने की अनुमति थी।

सेव्रे की संधि के वित्तीय दुष्परिणाम वर्सेल्स की संधि के बराबर ही गंभीर थे; हालाँकि, नये वाईमर जर्मनी को अपनी स्वयं की अर्थव्यवस्था चलाने की अनुमति प्रदान की गई-यद्यपि वर्साय की शर्तों ने निश्चित रूप से इसे प्रभावित किया। तुर्क साम्राज्य से इसकी वित्तीय एवं अर्थव्यवस्था के नियंत्रण को सहयागी देशों को सौंप दिया गया। इसमें तुर्क बैंक का नियंत्रण, आयात एवं निर्यातों पर नियंत्रण, राष्ट्रीय बजट का नियंत्रण, वित्तीय नियामकों पर नियंत्रण, ऋण के लिए अनुरोध एवं कर व्यवस्था के सुधार शामिल थे। मित्र देशों ने कर्जों के पुनर्भुगतान पर भी नियंत्रण कर लिया। इसकी शर्तों में से एक यह थी कि केवल फ्रांस, इटली एवं ग्रेट कर्जे के Debt Bondholders हो सकते थे। तुर्क साम्राज्य को जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी एवं बुल्गारिया से किसी भी प्रकार के आर्थिक गठबन्धन बनाने के लिए रोका गया था तथा इन चारों राज्यों की सारी आर्थिक सम्पत्तियों को तुर्क साम्राज्य में विलय कर दिया गया। 

सेव्रे की संधि ने सहयोगियों को तुर्क साम्राज्य की निर्वाचन व्यवस्था को सुधारने का भी अधिकार दिया। ’’बर्बरतापूर्ण युद्ध’’ में लिप्त होने वालों को सहयोगियों को सौंपना आवश्यक था। 

साम्राज्य के ग्राण्ड वज़ीर, अहमद पाशा ने सेव्रे की संधि को पुष्ट करने की योजना बनाई लेकिन उन्हें तुर्क राष्ट्रवादी नेता मुस्तफा कमाल के विद्रोह का सामना करना पड़ा। पाशा की हार के परिणामस्वरूप कमाल ने सेव्रे की संधि पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। उसने उसकी शर्तों को अस्वीकार्य रूप से इसलिए देखा क्योंकि उनका तुर्की पर सीधा प्रभाव पड़ता था। कमाल डार्डेनेलीज़ जलडमरूमध्य को तुर्क के अलावा अन्य किसी भी रूप में नहीं देखता था तथा उसने इसका कोई भी कारण नहीं पाया कि स्वयं तुर्की के ही बंदरगाहों को ’’स्वतंत्र क्षेत्रों’’ के रूप में मान्य क्यों किया जाना चाहिए। कमाल का यह मानना था कि तुर्क सामा्रज्य के नेता ही तुर्की के लोगों को प्रथम विश्व युद्ध में ले गए थे तथा यह भी कि तुर्क के लोगों को उनके पूर्व के नेताओं के कृत्यों के लिए दण्डित नहीं किया जाना चाहिए। उसके रवैये का आशय यह था कि विजयी सहयोगियों तथा नवोदित तुर्की को संधि पर सौदेबाजियों (Negotiations) को नये सिरे से शुरू करना चाहिए। 

पतन के बादः तुर्क शासन के पतन के साथ ही, शक्ति का निर्वात विकसित हुआ तथा भूमि के लिए विरोधाभासी दावों एवं राष्ट्रवादिता का दौर शुरू हुआ। प्रथम विश्व युद्ध के विजेताओं के द्वारा खींची गई राजनैतिक सीमाओं को शीघ्रता से लागू किया गया, कभी-कभी तो स्थानीय लोगों के साथ मात्र सरसरी तौर पर सुझाव लेने के पश्चात् ही। अनेक प्रकरणों में, राष्ट्रीय पहचान के लिए 21 वीं सदी के संघर्षों से यह स्थितियां लगातार समस्याप्रद बनती चली गईं। प्रथम विश्व युद्ध के अंत में, तुर्क साम्राज्य का टूटना मध्य-पूर्व की आधुनिक स्थिति में योगदान के लिए धुरी था, अरब-इजराइल मतभेद को मिलाकर।

तुर्क साम्राज्य के पतन के कारण, मध्यपूर्व विदेशी शक्तियों की दया पर इतना अधिक निर्भर था जितना पहले कभी नहीं। साइकस पिकोह समझौते ने आवश्यक रूप से ब्रिटेन एवं फ्रांस की शक्तियों के मध्य, मध्य-पूर्व क्षेत्रों को बांट दिया, जबकि कॉन्सटेन्टीनोपल एवं डार्डेनेलीज रूस को दे दिये। जहाँ एक ओर तुर्क विजय ने ब्रिटेन एवं फ्रांस को अपराजेयता की कुछ अनुभूति प्रदान की, जैसा एक कथन में यह बताया गया ’’तुर्क साम्राज्य के संपूर्ण पतन ने एक संक्षिप्त अवधि के लिए ब्रिटेन एवं फ्रांस ने यह महसूस किया कि वे कुछ भी कर सकते हैं’’, किंतु तुर्क साम्राज्य के पश्चात् इस प्रकार की विदेशी शक्तियों के बढ़ते हुए हस्तक्षेप ने अनेकों राष्ट्रवादी क्रांतियों को जन्म दिया। ऐसा मिस्त्र व सीरिया में खासतौर पर हुआ। तुर्क लोग ब्रिटेन एवं फ्रांस के मध्य, मध्य-पूर्व पर सीधे विदेशी नियंत्रण के मध्य अधिक समय तक उस सेतु को बनाने में समर्थ नहीं थे जबकि मुख्य क्षेत्रों में वे अप्रत्यक्ष नियंत्रण बनाए रखते थे। मिस्त्र में झागौल नामक व्यक्ति के नेतृत्व में हुए पश्चिम-विरोधी विद्रोह से इतना हुआ कि ब्रिटेन ने मिस्त्र को 1922 में स्वतंत्रता दे दी, किंतु सुएज़ नहर क्षेत्र पर कब्ज़ा बनाए रखा, एवं संचार, एवं सूड़ान पर भी। 

सन् 1919 में वेफ्टिस्ट पार्टी का गठन स्वतंत्रता प्राप्त करने में एक महत्वपूर्ण कदम था तथा इसने सशर्त स्वतंत्रता का बहिष्कार किया, अपने अथाह संसाधनों एवं माध्यमों पर ब्रिटिश नियंत्रण का कोई भी कारण न देखते हुए। जहाँ एक ओर मिस्त्र ने अपने पतन के पूर्व तुर्क साम्राज्य के तले ब्रिटिश शासन को 40 वर्षों तक झेला, अब वह तुर्क शासन से मुक्त हो गया था तथा स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में इसका सशक्त दावा उदित हुआ। सुधारवादी लोग इसे सुधार की दिशा में ले जाना चाहते थे, अर्थव्यवस्था, शिक्षा एवं राजनीति तथा एक राष्ट्रीय राज्य का निर्माण करके। इस प्रकार से, अरब लोग तुर्की शासन से मुक्त हो गए, उनकी स्वतंत्रता की आकांक्षाओं को बाधा पहुँचाते हुए एवं विदेशी शक्तियों में यह मानसिकता बनाते हुए कि उन्हें तुर्कों पर प्रोत्साहित किया जाना था। इस्लाम को अल बन्ना एवं मुस्लिम भाईचारे के द्वारा बिखरे हुए लोगों को एक वर्ग के रूप में जोड़ने के लिए वेफटिस्ट शासन के अंतर्गत उपयोग किया गया तथा इजिप्ट को किसी भी प्रकार के औपनिवेशिक शक्तियों के अवशेष से पूर्णतया मुक्त एवं इस्लामी राज्य के रूप में फिर से तैयार किया गया। इसी प्रकार से, सीरिया राज्य, सीरिया से पृथक तथा फिर से 1925 में फ्रांस के द्वारा पृथक किया गया। अधिक राष्ट्रवादी भावनाओं के साथ अरब राष्ट्रों एवं लोगों के मध्य पहचान, विदेशी शक्तियों से प्रत्यक्ष रूप से आने वाले बढ़ते हुए दवाब एवं जोड-तोड़ के कारण अधिक तीव्र था। 

मध्यपूर्वी राजनीति को आकार देने में तुर्क साम्राज्य के पतन के प्रभाव काफी गहन थे तथा वे आज तक महत्वपूर्ण हैं। अनेक रूपों में इसने पश्चिमी शक्तियों के साथ अरब एवं अन्य मध्यपूर्वी राज्यों के मध्य प्रत्यक्ष मतभेद को जन्म दिया जो आज भी किसी न किसी रूप में क्षेत्रीय राजनीति पर प्रभावी है। हम अरब राष्ट्रवाद एवं इस्लाम दोनों के ही साक्षी बने, दोनों ही पश्चिमी हस्तक्षेप को बहिष्कृत करने के लिए, जो तुर्क साम्राज्य के धीमे-धीमे पतन एवं उसके ध्वस्त होने की एकता के पश्चात् उभरे। तुर्क (ऑटोमन) क्षेत्र पर राज्य करने वाले अंतिम महान इस्लामी शासक थे जिन्होंने पृथकवादी पश्चिमी शासन एवं राष्ट्रवादी राज्यों के मध्य सेतु के रूप में कार्य किया तथा अनेक रूपों में आधुनिक दिनों के ईरान एवं सउदी अरब द्वारा क्षेत्रीय प्रभाव को प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। 


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01-01-2020,1,04-08-2021,1,05-08-2021,1,06-08-2021,1,28-06-2021,1,Abrahamic religions,6,Afganistan,1,Afghanistan,35,Afghanitan,1,Afghansitan,1,Africa,2,Agri tech,2,Agriculture,150,Ancient and Medieval History,51,Ancient History,4,Ancient sciences,1,April 2020,25,April 2021,22,Architecture and Literature of India,11,Armed forces,1,Art Culture and Literature,1,Art Culture Entertainment,2,Art Culture Languages,3,Art Culture Literature,10,Art Literature Entertainment,1,Artforms and Artists,1,Article 370,1,Arts,11,Athletes and Sportspersons,2,August 2020,24,August 2021,239,August-2021,3,Authorities and Commissions,4,Aviation,3,Awards and Honours,26,Awards and HonoursHuman Rights,1,Banking,1,Banking credit finance,13,Banking-credit-finance,19,Basic of Comprehension,2,Best Editorials,4,Biodiversity,46,Biotechnology,47,Biotechology,1,Centre State relations,19,CentreState relations,1,China,81,Citizenship and immigration,24,Civils Tapasya - English,92,Climage Change,3,Climate and 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Inventions,1,Eastern religions,2,Economic & Social Development,2,Economic Bodies,1,Economic treaties,5,Ecosystems,3,Education,119,Education and employment,5,Educational institutions,3,Elections,37,Elections in India,16,Energy,134,Energy laws,3,English Comprehension,3,Entertainment Games and Sport,1,Entertainment Games and Sports,33,Entertainment Games and Sports – Athletes and sportspersons,1,Entrepreneurship and startups,1,Entrepreneurships and startups,1,Enviroment and Ecology,2,Environment and Ecology,228,Environment destruction,1,Environment Ecology and Climage Change,1,Environment Ecology and Climate Change,458,Environment Ecology Climate Change,5,Environment protection,12,Environmental protection,1,Essay paper,643,Ethics and Values,26,EU,27,Europe,1,Europeans in India and important personalities,6,Evolution,4,Facts and Charts,4,Facts and numbers,1,Features of Indian economy,31,February 2020,25,February 2021,23,Federalism,2,Flora and fauna,6,Foreign affairs,507,Foreign exchange,9,Formal and informal economy,13,Fossil fuels,14,Fundamentals of the Indian Economy,10,Games SportsEntertainment,1,GDP GNP PPP etc,12,GDP-GNP PPP etc,1,GDP-GNP-PPP etc,20,Gender inequality,9,Geography,10,Geography and Geology,2,Global trade,22,Global treaties,2,Global warming,146,Goverment decisions,4,Governance and Institution,2,Governance and Institutions,773,Governance and Schemes,221,Governane and Institutions,1,Government decisions,226,Government Finances,2,Government Politics,1,Government schemes,358,GS I,93,GS II,66,GS III,38,GS IV,23,GST,8,Habitat destruction,5,Headlines,22,Health and medicine,1,Health and medicine,56,Healtha and Medicine,1,Healthcare,1,Healthcare and Medicine,98,Higher education,12,Hindu individual editorials,54,Hinduism,9,History,216,Honours and Awards,1,Human rights,249,IMF-WB-WTO-WHO-UNSC etc,2,Immigration,6,Immigration and citizenship,1,Important Concepts,68,Important Concepts.UPSC Mains GS III,3,Important Dates,1,Important Days,35,Important exam concepts,11,Inda,1,India,29,India Agriculture and related issues,1,India Economy,1,India's Constitution,14,India's independence struggle,19,India's international relations,4,India’s international relations,7,Indian Agriculture and related issues,9,Indian and world media,5,Indian Economy,1248,Indian Economy – Banking credit finance,1,Indian Economy – Corporates,1,Indian Economy.GDP-GNP-PPP etc,1,Indian Geography,1,Indian history,33,Indian judiciary,119,Indian Politcs,1,Indian Politics,637,Indian Politics – Post-independence India,1,Indian Polity,1,Indian Polity and Governance,2,Indian Society,1,Indias,1,Indias international affairs,1,Indias international relations,30,Indices and Statistics,98,Indices and Statstics,1,Industries and services,32,Industry and services,1,Inequalities,2,Inequality,103,Inflation,33,Infra projects and financing,6,Infrastructure,252,Infrastruture,1,Institutions,1,Institutions and bodies,267,Institutions and bodies Panchayati Raj,1,Institutionsandbodies,1,Instiutions and Bodies,1,Intelligence and security,1,International Institutions,10,international relations,2,Internet,11,Inventions and discoveries,10,Irrigation Agriculture Crops,1,Issues on Environmental Ecology,3,IT and Computers,23,Italy,1,January 2020,26,January 2021,25,July 2020,5,July 2021,207,June,1,June 2020,45,June 2021,369,June-2021,1,Juridprudence,2,Jurisprudence,91,Jurisprudence Governance and Institutions,1,Land reforms and productivity,15,Latest Current Affairs,1136,Law and order,45,Legislature,1,Logical Reasoning,9,Major events in World History,16,March 2020,24,March 2021,23,Markets,182,Maths Theory Booklet,14,May 2020,24,May 2021,25,Meetings and Summits,27,Mercantilism,1,Military and defence alliances,5,Military technology,8,Miscellaneous,454,Modern History,15,Modern historym,1,Modern technologies,42,Monetary and financial policies,20,monsoon and climate change,1,Myanmar,1,Nanotechnology,2,Nationalism and protectionism,17,Natural disasters,13,New Laws and amendments,57,News media,3,November 2020,22,Nuclear technology,11,Nuclear techology,1,Nuclear weapons,10,October 2020,24,Oil economies,1,Organisations and treaties,1,Organizations and treaties,2,Pakistan,2,Panchayati Raj,1,Pandemic,137,Parks reserves sanctuaries,1,Parliament and Assemblies,18,People and Persoalities,1,People and Persoanalities,2,People and Personalites,1,People and Personalities,189,Personalities,46,Persons and achievements,1,Pillars of science,1,Planning and management,1,Political bodies,2,Political parties and leaders,26,Political philosophies,23,Political treaties,3,Polity,485,Pollution,62,Post independence India,21,Post-Governance in India,17,post-Independence India,46,Post-independent India,1,Poverty,46,Poverty and hunger,1,Prelims,2054,Prelims CSAT,30,Prelims GS I,7,Prelims Paper I,189,Primary and middle education,10,Private bodies,1,Products and innovations,7,Professional sports,1,Protectionism and Nationalism,26,Racism,1,Rainfall,1,Rainfall and Monsoon,5,RBI,73,Reformers,3,Regional conflicts,1,Regional Conflicts,79,Regional Economy,16,Regional leaders,43,Regional leaders.UPSC Mains GS II,1,Regional Politics,149,Regional Politics – Regional leaders,1,Regionalism and nationalism,1,Regulator bodies,1,Regulatory bodies,63,Religion,44,Religion – Hinduism,1,Renewable energy,4,Reports,102,Reports and Rankings,119,Reservations and affirmative,1,Reservations and affirmative action,42,Revolutionaries,1,Rights and duties,12,Roads and Railways,5,Russia,3,schemes,1,Science and Techmology,1,Science and Technlogy,1,Science and Technology,819,Science and Tehcnology,1,Sciene and Technology,1,Scientists and thinkers,1,Separatism and insurgencies,2,September 2020,26,September 2021,444,SociaI Issues,1,Social Issue,2,Social issues,1308,Social media,3,South Asia,10,Space technology,70,Startups and entrepreneurship,1,Statistics,7,Study material,280,Super powers,7,Super-powers,24,TAP 2020-21 Sessions,3,Taxation,39,Taxation and revenues,23,Technology and environmental issues in India,16,Telecom,3,Terroris,1,Terrorism,103,Terrorist organisations and leaders,1,Terrorist acts,10,Terrorist acts and leaders,1,Terrorist organisations and leaders,14,Terrorist organizations and leaders,1,The Hindu editorials analysis,58,Tournaments,1,Tournaments and competitions,5,Trade barriers,3,Trade blocs,2,Treaties and Alliances,1,Treaties and Protocols,43,Trivia and Miscalleneous,1,Trivia and miscellaneous,43,UK,1,UN,114,Union budget,20,United Nations,6,UPSC Mains GS I,584,UPSC Mains GS II,3969,UPSC Mains GS III,3071,UPSC Mains GS IV,191,US,63,USA,3,Warfare,20,World and Indian Geography,24,World Economy,404,World figures,39,World Geography,23,World History,21,World Poilitics,1,World Politics,612,World Politics.UPSC Mains GS II,1,WTO,1,WTO and regional pacts,4,अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं,10,गणित सिद्धान्त पुस्तिका,13,तार्किक कौशल,10,निर्णय क्षमता,2,नैतिकता और मौलिकता,24,प्रौद्योगिकी पर्यावरण मुद्दे,15,बोधगम्यता के मूल तत्व,2,भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास,47,भारत का स्वतंत्रता संघर्ष,19,भारत में कला वास्तुकला एवं साहित्य,11,भारत में शासन,18,भारतीय कृषि एवं संबंधित मुद्दें,10,भारतीय संविधान,14,महत्वपूर्ण हस्तियां,6,यूपीएससी मुख्य परीक्षा,91,यूपीएससी मुख्य परीक्षा जीएस,117,यूरोपीय,6,विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं,16,विश्व एवं भारतीय भूगोल,24,स्टडी मटेरियल,266,स्वतंत्रता-पश्चात् भारत,15,
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PT's IAS Academy: यूपीएससी तैयारी - विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं - व्याख्यान - 13
यूपीएससी तैयारी - विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं - व्याख्यान - 13
सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
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