यूपीएससी तैयारी - विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं - व्याख्यान - 15

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चीनी विस्तारवाद

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1.0 प्रस्तावना

पिछले कई वर्षों से अपने सैन्य खर्च में नाटकीय रूप से वृद्धि के बाद, 2010 में चीन ने इसमें केवल 7.5 प्रतिशत की वृद्धि की। लगभग 21 वर्षों में पहली बार वृद्धि की दर दोहरे अंकों से नीचे गई। जहां इसके पीछे कई कारण हैं, वहीं, चीनी सरकार ने यह रेखांकित करते हुए कि उसने अपना सैन्य खर्च हमेशा सीमित रखा है, और रक्षा खर्च एक उचित स्तर पर निर्धारित करने की कोशिश की है, इसे अपने शांतिप्रद इरादे की घोषणा के रूप में इस्तेमाल किया है। चीन के विदेश नीति विचारकों और राजनीतिक प्रतिष्ठान ने दुनिया को समझाने की कोशिश की है कि, बीजिंग का उदय एक शांतिपूर्ण रूप में है, व चीन के विस्तारवादी इरादे नहीं हैं, वह यह कि वह एक अलग तरह की महाशक्ति होगा।

2.0 चीन और जापान

दुनिया में चीन और जापान जितनी पूरक अर्थव्यवस्थाएं और समाज दुर्लभ हैं। चीनी अपेक्षाकृत युवा, गरीब और आर्थिक विकास के लिए जमकर प्रतिबद्ध हैं। जापानी अपेक्षाकृत बूढ़े और उन्नत (इसलिए तृप्त), लेकिन तकनीकी रूप से उन्नत और जीने के अपने उच्च स्तर को बनाए रखने के प्रति समर्पित हैं। निकटता दोनों देशों को एक दूसरे से लाभ के लिए आदर्श रूप से अनुकूल प्रतीत होती है।

क्योंकि चीनी अर्थव्यवस्था जापान की तुलना में कहीं अधिक गतिशील है, इसलिए जापान चीन के आर्थिक विकास से भयभीत है। चीन जापान से परेशान है, क्योंकि यह द्वीप राष्ट्र इसके तट से दूर एक न डूबने वाले अमेरिकी विमान वाहक के रूप में प्रतीत होता है!

पिछले एक साल से दोनों देशों के राष्ट्रवादी विवादित द्वीप समूह पर शाब्दिक युद्ध लड़ रहे हैं, जिन्हे जापान सेन्काकू और चीन दिआओयू कहता है। जापान के दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे ने अमेरिकी युद्ध के बाद के संविधान में निहित शांति के लिए अपनी प्रतिबद्धता की समीक्षा और स्कूल के पाठ्यक्रम अधिक देशभक्त बनाने के अपने आवहान से चीनी नेताओं को चिंतित किया है।

इतिहास की लंबी छाया दोनों देशों के बीच संबंधों को परेशान करती रहती है। एशिया में, द्वितीय विश्व युद्ध चीन-जापान युद्ध के रूप में 1937 में शुरू हुआ, जिसमें जापान के विस्तारवाद के परिणामस्वरूप लाखों चीनी मारे गए थे। इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि चीन और जापान के आज के युवा उनके पूर्वजों की तुलना में एक दूसरे के प्रति उनके विचारों में अधिक विरोधी क्यों हैं।

असली स्पष्टीकरण समय में और पीछे निहित हैं। 19 वीं सदी का जापान का उदय चीन द्वारा एक अपमान के रूप में देखा गया था, जो स्वयं को क्षेत्रीय नेतृत्व की विरासत का हकदार महसूस किया करता था। माओत्से तुंग और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अन्य संस्थापकों ने इन विचारों को अपनाया और अपने उत्तराधिकारियों को उन्हें विरासत में दिया।

इसलिए, अधिकांश चीनी आज जापान की संपत्ति, और एशिया के अमेरिका के मुख्य सहयोगी के रूप में उसकी स्थिति को, बेईमानी से मिले लाभ के परिणाम के रूप में देखते हैं। यहां तक कि जब 19 वीं सदी के अंत और 20 वीं सदी की शुरुआत में चीनी राज्य सबसे कमजोर था, इसका कुलीन वर्ग समझता था कि कन्फ्यूशियसवाद, जो चीन ने अपने नजदीकी पड़ोसियों - कोरिया, जापान और वियतनाम - को निर्यात किया था, एक आम संस्कृति की जड़ था। ‘‘कन्फ्यूशियस ज़ोन‘‘ के अन्य देशों को बस चीन के प्राकृतिक नेतृत्व को स्वीकार करना चाहिए था।

दक्षिण चीन सागर में बीजिंग की आज की नीतियां 18 वीं सदी की किंग साम्राज्य (चीन के अंतिम शासक वंश) के जैसी ही लगती हैं। तब के सम्राट क्वायान लांग, दक्षिण के ‘‘असंख्य राष्ट्रों‘‘ से एक पिता अपने बच्चों को जैसे संबोधित करता है, वैसे बात करना पसंद करते थे। वर्तमान चीनी नेता वियतनाम और लाओस जैसे देशों पर अपना प्रभाव डालने के लिए उन जैसी ही पैतृक भावना की अभिव्यक्ति करते हैं।

इसकी संभावना नहीं है कि चीन के पड़ोसी देश अब इसको स्वीकार करेंगे, एवं वे तब भी नहीं करते थे। क्वायान लांग 1780 के दशक में वियतनाम में एक युद्ध में उलझ गया था, जिसने उसके साम्राज्य को गंभीर रूप से कमजोर कर दिया था। तब से, इस क्षेत्र इस क्षेत्र के देशों में राष्ट्रवाद की अपनी लहरें आती रही हैं, अक्सर पश्चिमी उपनिवेशवाद के जवाब में। इंडोनेशिया, 248 मिलियन का एक देश, चीन जैसे एक विशाल देश के साथ तुलना में भी स्वयं को “छोटा” नहीं मानता। यह चीन की शक्ति का मुकाबला करने के लिए बाध्य होगा, जब तक कि चीनी दृष्टिकोण और नीतियों में परिवर्तन नहीं हो जाता।

अपनी ओर से, जापान चीन के साथ मिलनसारिता और प्रतिस्पर्धा के बीच झूलता है। हालांकि, जापान का साम्राज्यवाद अतीत की बात है, फिर भी इसे जन्म देने वाले कुछ दृष्टिकोण स्थाई बने रहते हैं। श्री अबे, एक पूर्व प्रधानमंत्री के पोते, जिन्हे कई चीनी एक युद्ध अपराधी के रूप में मानते हैं, इसी तरह की मानसिकता प्रदर्शित करते हैं। हालांकि, अधिकांश जापानी चीन के साथ व्यापार और वहां निवेश का महत्व समझते हैं, फिर भी इस समय उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिक महत्वपूर्ण लगती है। 

जापान की अपने अतीत के पापों से पूरी तरह से निपटने में चूक, इसकी वर्तमान विदेश नीति में बाधा उत्पन्न करती है, लेकिन वे चीन के ऐतिहासिक क्षेत्रीय वर्चस्व की पात्रता की भावना और राज्य द्वारा मंजूर उग्र जापान-विरोधी राष्ट्रवाद के साथ तुलना में फीके हैं। अफसोस की बात है, कि ये अंधराष्ट्रीवादी नजरिए 2012 में स्थापित नए कम्युनिस्ट नेतृत्व में भी बदलने की संभावना नहीं है।

यहां तक कि चीन की कूटनीतिक भाषा वर्तमान हितों के विवेक पर ज़ोर देने के बजाय पार्टी की एतिहासिक अवधारणाओं पर ही चल रही है। वह मानती है कि अंतर्राश्ट्रीय मसलों में केवल चीन का ही मत सही होता है। चीन आज जापान के साथ सहयोग के जरिए, संघर्ष की अपेक्षा कहीं अधिक हासिल कर सकता है। पिछले पापों के बारे में गाना गाने और द्वीपों पर विवाद भड़काने से कुछ भला होने वाला नहीं है। यदि चीन को इस क्षेत्र में प्रमुख शक्ति बनना है, तो यह केवल जापान के साथ संभव है, उसके विरुद्ध जाकर नहीं।

जैसे फ्रांस और जर्मनी ने दिखा दिया है, कि राष्ट्रीय हित की मांग हो, तो धारणाओं को बदला जा सकता है। परन्तु बीजिंग की पदानुक्रम की सोच को सहयोग की सोच में बदलने के लिए मजबूत नेतृत्व और राष्ट्रीय हितों की सूक्ष्म समझ की आवश्यकता होगी। चीन के हाल के नेताओं ने दोनों में से किसी में भी उम्मीद से प्रेरित नहीं किया हैं।

बेशक, सत्ता का स्वभाव काफी हद तक इसे एक दिखावा बनाता है, लेकिन अधिक आश्चर्य इस बात का है कि पश्चिमी उदारवादी इन कथनों को शब्दशः अंकित सत्य मानते हैं। पश्चिम में एक पूरा उद्योग है, जो हमें विश्वास दिलाना चाहता है कि चीन वास्तव में एक अलग तरह की महाशक्ति है, और यदि पश्चिमी देश चीन को स्थापित क्रम में हिस्सेदारी दें, तो बीजिंग का उदय किसी भी प्रकार की जटिलताएं पैदा नहीं करेगा।

3.0 सेन्काकू-दिआओयू द्वीप

1895, में, जब जापान ने (सेन्काकू) द्वीपों पर कब्जा कर लिया, और 1971 में, जब दावे का पहली बार उल्लेख किया गया, के बीच की अवधि के दौरान दोनों के (ताइपे और बीजिंग में दो चीनी सरकारों) नक्शों और ग्रंथों में तीन बातें समान हैंः

  1. वे हमेशा जापान को उनकी प्रभुसत्ता आवंटित करते हैं
  2. वे जापानी नाम का उपयोग कर उनका उल्लेख करते हैं, और
  3. वे द्वीपों की विवादित स्थिति का उल्लेख कभी नहीं करते। सीधे शब्दों में कहें, तो सेन्काकू पर कोई ‘‘विवाद‘‘ तब तक नहीं था, जब तक 1960 के उत्तरार्ध में वैज्ञानिकों ने इस इलाके में तेल की संभावना नहीं उठाई थी।

1970 के बाद से चीनी लोक गणतंत्र (पी.आर.सी.), ताइवान और जापान सभी, द्वीपों पर संप्रभुता का दावा कर रहे हैं, जो ताइवान और रयूक्यूस के पश्चिमी सिरे से समान दूरी पर स्थित हैं। चीनी सूत्रों के मुताबिक सेन्काकू/दिआओयू द्वीपों का पहला उल्लेख 15 वीं सदी के दस्तावेज में है, जो अब ऑक्सफोर्ड में बोड़लियन लाइब्रेरी में रखा है। प्रारंभिक स्रोत द्वीपों के स्थान का उल्लेख केवल चीन से रयूक्यूस के बीच यात्रा के दौरान आनेवाले स्थान के रूप में करते थे, लेकिन 17 वीं सदी से चीनी स्रोत सेन्काकू/दिआओयू द्वीप और रयूक्यूस के बीच समुद्री सीमा को स्पष्ट रूप से हाइषुइगु (‘‘ब्लैक वाटर ट्रेंच‘‘) के रूप में उल्लेख करते थे, उच्च अशांति का एक क्षेत्र जिसे अब हम महाद्वीपीय जलसीमा के किनारे के निशान के रूप में जानते हैं। 1720 में डिप्टी चीनी राजदूत जू बाऊगुआंग, जिसे रयूक्यूस के राजा पर शाही खिताब प्रदान करने के लिए भेजा गया था, उसने स्थानीय साहित्यकारों के साथ सहयोग करके झोंगशान चुआक्सीन लू (षूसन के मिशन के रिकार्ड) नामक यात्रा संकलन किया, जिसमें रयूक्यूस राज्य की पश्चिमी सीमा का सीमांकन हाइषुइगु-खड़ के दक्षिण में कुमे-जीमा पर होने का उल्लेख है। इसी अनुसार उप-राजदूत झोऊ हुआंग ने 1756 में हाइषुइगु की सीमा के रूप में पहचान की, और बाद में राजदूत ली डिंगयुआन ने काफिलों द्वारा खाई को पार करते समय एक जीवित बकरी या सुअर की बलि देने की प्रथा का उल्लेख किया। 19 वीं शताब्दी में सुधारक वांग ताओ, जिन्हे यूरोप में यात्रा का अनुभव था, उन्होंने रयूक्यूस पर जापानी कब्जे का, जापानी सूत्रों का हवाला देते हुए 1670 में रयूक्यूस के एक अलग देश के रूप में सूचीबद्ध होने का, जवाब दिया। उन्होंने तर्क दिया कि भले ही द्वीप समूह चीन और जापानी राज्य सात्सुमा के अधीन थे, किन्तु चीनी संबंध अधिक औपचारिक था। एक आंतरिक सहायक (रयूक्यूस) पर एक बाहरी सहायक (जापान) द्वारा विजय आक्रोश का कारण था।

इसके विपरीत जापान के तर्क ने चीनी लेखों में रखी गई ऐतिहासिक स्थिति को काफी हद तक नज़रअंदाज कर दिया। यह दावा करते हुए कि निर्जन द्वीप किसी भी सत्ता के अधीन या टेरा नलियस थे, चीन-जापान युद्ध में अपनी जीत के बाद शीघ्र ही, जापान ने 1895 में द्वीपों पर कब्जा कर लिया। जापान का दावा था कि द्वीप 1884 में फुकुओका व्यापारी कोगा तत्सुशिरो द्वारा “खोजे” गये थे, जिसने बाद में जापानी राज्य से भूमि पट्टे के लिए आवेदन किया था। उस समय, हालांकि, आंतरिक मंत्रालय ने माना कि यह अभी भी स्पष्ट नहीं था कि द्वीप समूह जापान के थे, खासकर, क्योंकि चीनी और रयूक्यूस लेखन में द्वीपों की विस्तृत जानकारी कोगा के ‘‘खोज’’ के दावे को पुष्ट करना मुश्किल बनाते हैं। फिर भी 1895 में एक कैबिनेट के फैसले ने निष्कर्ष निकाला कि द्वीप समूह को जापान का हिस्सा बन जाना चाहिए, जो 1952 की सैन फ्रांसिस्को शांति संधि के तहत जापान के प्रदेशों में उनके शामिल किए जाने के लिए आधार बना। इसी सैन फ्रांसिस्को शांति संधि के तहत एशिया में द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ, लेकिन, इसमें न तो चीन और न ही ताइवान उपस्थित थे।

चीनी दृष्टिकोण से, जापान का दावा, कि ‘‘द्वीप पर कब्जा नहीं था‘‘ खोखला पड़ जाता है, क्योंकि ‘निर्जन‘ और ‘खाली‘ के बीच अंतर मौजूद है। सूत्रों का कहना है कि द्वीप पर ताइवान के मछुआरों की कब्रें हैं। हालांकि, ओकिनावा में अमेरिकी आधिपत्य अधिकारियों ने 1945 से 1972 तक सेन्काकू/दिआओयू द्वीप को प्रशासित किया और एक प्रशिक्षण बेस के रूप में उन्हें इस्तेमाल किया, अमेरिकी सरकार ने, जापान को द्वीपों पर प्रशासन के अधिकार के हस्तांतरण को संप्रभुता के हस्तांतरण के बराबर नहीं समझा। उनका कहना था कि इस मामले को संबंधित पक्षों द्वारा हल किया जाना चाहिए। एक ऐसी अस्पष्टता के अस्तित्व को महसूस करते हुए, ओकिनावा विधानसभा, जो अभी भी अमेरिका नियंत्रण में थी, इसने अगस्त 1970 में एक प्रस्ताव पारित करके द्वीप समूह जापान का हिस्सा बनने की घोषणा की। उसके बाद विदेश मंत्री कीची द्वारा राष्ट्रीय डाइट में उनके दावे का समर्थन किया गया। इस बीच ताइवान ने एक आधिकारिक विरोध जारी किया, और वर्ष के अंत से पहले चीनी मीडिया ने भी इसी तरह की शिकायतों की आवाज उठाई।

शामिल दांव की गंभीरता को देखते हुए, द्वीप समूह पर विवाद एक ’टाइम बम’ है। जापानी दावों के बावजूद, कि द्वीप समूह में चीन और ताइवान की रुचि मुख्य रूप से वहाँ तेल भंडार की संभावना की वजह से है, इस द्वीप के स्वामित्व पर हाल के विवादों के प्रश्न में शामिल देशों के बीच बहुत कम रचनात्मक वार्ता हुई है। यह, 1937 के नानजिंग नरसंहार केन्द्र बिन्दु के साथ, चीन और जापान के बीच व्यापक तनाव के बिलकुल केन्द्र पर बनी हुई है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अत्याचार पर जापान की दुराग्रही स्थिति इसके खिलाफ चीनी जन भावनाओं के ईंधन के रूप में मदद करता है और देश को घरेलू असंतोष के लिए एक आसान बलि का बकरा बनाता है। फिर भी इन दिनों यह भूलना आसान है, कि चीन 20 वीं सदी के अधिकांश समय पिछड़ा था, यहां तक कि आज भी चीन, जापान से वैश्विक परिदृश्य पर कम मुखर है।

सेन्काकू/दिआओयू द्वीप पर चीनी रुख 1930 के दशक की स्थिति के साथ तुलनीय है, जब बड़े पैमाने पर चिंता के बावजूद, कि चीन जापानी आक्रमण का सामना करने में सक्षम नहीं होगा, राष्ट्रवादी चीन ने मंचूरिया (जापानी में मंचुकुओ) पर जापान के नियंत्रण को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। खोये हुए प्रदेशों पर जापानी नियंत्रण को स्वीकार करने से इनकार करके, चीन ने वहाँ विदेशी उपस्थिति को अस्थिर करने की कोशिश शुरू की, भले ही तब नानजिंग में स्थित चीनी राष्ट्रवादी सरकार भौतिक नियंत्रण लागू करने में असमर्थ थी। उसी समय, सरकार द्वारा जापान की अवहेलना ने, उसके चीन के एकमात्र और वैध शासक होने के दावे को मजबूत करने में मदद की। 1930 के दशक के दौरान मंचूरिया पर अपनी संप्रभुता और अब सेन्काकू/दिआओयू द्वीप पर चीन की जिद उसके लिए उसकी विदेश नीति को आगे बढ़ाने में, भौतिक नियंत्रण की तुलना में, जो पश्चिम में आम है, अत्यधिक महत्वपूर्ण है। पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना और ताइवान के बीच संघर्ष एक और ऐसा ही उदाहरण है। ताइवान के भौतिक दृष्टि से मुख्य भूमि से अलग होने के बावजूद, किसी भी बीजिंग सरकार के लिए यह सोचना, कल्पना से भी परे होगा, कि वह सांस्कृतिक या राजनीतिक रूप से अलग है। ताइवान द्वारा औपचारिक स्वतंत्रता की घोषणा का कोई भी प्रयास सशस्त्र संघर्ष में परिणित होने की संभावना है।

आज टोक्यो के नजरिये से स्थिति को देखा जाये, तो एक अधिक मुखर चीन दिखाई देता है, जो अपनी मांसपेशियां ठोके, मनमाने ढ़ंग से या गैर पश्चिमी और अपरिचित तर्क दुनिया पर थोप रहा है, और 19 वीं सदी में उस समय के प्रचलित नियमों के तहत कानूनी रूप से हासिल किए गए प्रदेशों पर जापान के नियंत्रण को उल्लंघनकारी समझता है।

4.0 वायु रक्षा पहचान क्षेत्र का निर्माण (ADIZ)

बीजिंग द्वारा एक नए वायु रक्षा पहचान क्षेत्र (ADIZ) का निर्माण, सेन्काकू (दिआओयू) द्वीप के जापानी नियंत्रण के लिए नवीनतम चुनौती बन गई। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि, यह पश्चिमी प्रशांत में अमेरिकी सैन्य प्रभुत्व के खिलाफ ‘रोलबैक रणनीति‘ में फिट बैठता है।

ADIZ चाल, सेन्काकू जल क्षेत्र में चीनी सरकार के जहाजों की घुसपैठ की तुलना में टकराव नहीं है, हालांकि, यदि पीएलए वायु सेना अंतरराष्ट्रीय हवाई क्षेत्र में विदेशी विमान के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण कदम उठाता है, तो परिणाम और अधिक गंभीर हो जायेंगे। अब तक, यह नहीं हुआ है।

जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका कई तरह से प्रतिक्रिया कर सकते हैं। वे एक न्यूनतमवादी दृष्टिकोण ले सकते हैं। यह सैन्य और सरकारी विमान (जैसे तटरक्षक) के लिए ADIZ का अनुपालन करने से इनकार की जरूरत, अन्यथा कार्रवाई से परहेज पर जोर देता है। एक अधिकतमवादी दृष्टिकोण जापान और अमेरिका में चीनी एयरलाइंस के लिए जीवन कठिन बना सकता है। ऐसा करने के तरीके होंगे - निरीक्षण, आप्रवास में देरी, कर्मचारियों के लिए थकाऊ सुरक्षा जांच चीनी बोइंग और एयरबस वायुयानों के लिए महत्वपूर्ण अमेरिका-निर्मित स्पेयर पार्ट्स पर व्यापार प्रतिषेध, इत्यादि।

यदि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी अमेरिकी साम्राज्य को एक पतनोन्मुख गिरावट के रूप में देखता है, और उसके विरुद्ध संघर्श के रास्ते पर है, तो कठोर जवाबी उपायों की जरूरत है, ताकि यह स्पष्ट संदेश जाये कि अमेरिका और उसके साथी शांत नहीं रहेंगे। यदि चीन लड़ाई शुरू करने के बारे में नहीं सोच रहा है, तो आग में ईंधन डालने की कोई जरूरत नहीं है। दुर्भाग्य से, क्लाउज़विट्ज की अंर्तदृष्टि कि ‘‘तीन चौथाई कारक जिन पर युद्ध में कार्रवाई आधारित होती है, अधिक या कम अनिश्चितता के एक कोहरे में लिपटे होते हैं”, कूटनीति पर भी लागू होती है। प्रुशियाई विचारक ने ‘‘सच्चाई का पता लगाने के लिए एक संवेदनशील और भेदमूलक निर्णय’’ की आवश्यकता पर बल देना जारी रखा था।

अमेरिकी और जापानी प्रतिक्रिया जांचने में कोरियाई दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। चीनी ADIZ कोरियाई समुद्री दावों के लिए खतरा है। परन्तु कोरिया गणराज्य (RoK) राजनीतिक रूप से उत्तर कोरिया के साथ चीन के संबंधों के कारण, और आर्थिक रूप से, चीनी दबाव की चपेट में है। हालांकि यह सियोल (सोल) के लिए एक कड़ा रुख लेना मुश्किल बनाता है, उसने ADIZ का अपना विरोध छुपाया नहीं था। यदि अमेरिका और जापान चीन की दिशा में एक मजबूत लेकिन सौम्य रवैया अपनाते हैं, तो कोरिया गणराज्य के साथ एक ‘‘सामान्य मोर्चा” बनाना उनके लिए आसान है। साथ ही, चीन पर कोरियाई नाराजगी, कोरिया और जापान के संबंधों में सुधार के दरवाजे खोल सकता है। इस रिश्ते की ज़हरीली भावनात्मक राजनीति के चलते यह शीघ्रता से नहीं होगा, लेकिन यह अमेरिका और जापानी कलन को प्रभावित करेगा।

ADIZ प्रकरण पर एक ‘‘सॉफ्ट‘‘ प्रतिक्रिया अमेरिका और जापानी सेनाओं के बढ़ने में बाधा नहीं है। चीन की चालें भी अमेरिका और जापान के लिए एक व्यापक पीआरसी विरोधी गठबंधन के विकास में आगे सहायता प्रदान करती हैं। चीन के पड़ोस में, शायद रूस समेत, कई देश बीजिंग के बारे में चिंतित हैं। हालांकि, वे सभी यदि संभव हो, तो भिड़ने से बचने की कामना करते हैं। हालांकि, यदि उन्हें लगता है कि अमेरिका और जापान तुष्टीकरण की ओर तैयारी कर रहे हैं, तो वे बीजिंग को सलाम करेंगे। इसलिए अमेरिका और जापान के लिए महत्वपूर्ण उनके सशस्त्र बलों में निवेश करना है, परन्तु ऐसा उन्हें शांति से करना होगा।

‘‘मिडिल किंगडम‘‘ (चीन) एक अधूरे कायापलट के दौर से गुजर रहा है, जो एक सदी से अधिक पहले शुरू हुआ था। सबके लिए इसका एक दुखद अंत हो सकता है, लेकिन यह निश्चितता से कुछ दूर है। अमेरिका और जापान के लिए सौभाग्य से, चीन पश्चिम की तुलना में कहीं कमजोर है। विकास ने पीआरसी को अत्यधिक संवेदनशील बना दिया है। पीपुल्स रिपब्लिक उन व्यापार मार्गों में समाविष्ट है, जो अमेरिकी नौसेना और वायु सेना और उनके सहयोगियों की दया पर निर्भर हैं। चीनियों को कच्चे माल और प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है, जो अमेरिकी सहयोगियों से या अमेरिका नियंत्रित क्षेत्रों से आयातित होता है। अमेरिका और उसके साथी चीन की कई विदेशी प्रतिभूतियों और संपत्ति को जब्त कर सकते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी सत्तारूढ़ तबके के बच्चे (और साथ ही कई पत्नियां) उत्तरी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, और ब्रिटेन में विलासिता में जी रहे हैं। दुश्मन के रूप में ये विदेशी नजरबंद हो सकते हैं।

1914 पूर्व जर्मनी के साथ चीन की तुलना गलत है। उस युद्ध के पूर्व जर्मनी जितना स्थिर था, चीन आज उतना नहीं है। सम्राट कैसर का क्षेत्र तब पृथ्वी पर सबसे अधिक वैज्ञानिक रूप से उन्नत देश था, जो चीन आज नहीं है। अंत में, जर्मन अभिजात्य वर्ग सम्राट और देश की सेवा को गंभीरता से अपने कर्तव्य के रूप में लेते थे। ऐसे कोई संकेत नहीं है कि चीन में समृद्ध और शक्तिशाली व्यक्तियों के बच्चे पीएलए वर्दी पहनने के सम्मान के लिए पश्चिमी परिसरों के सुख और वैश्विक वित्त के पुरस्कार छोड़ देना चाहते हैं।

इसके अलावा, चीन भूत पूर्व सोवियत संघ की तुलना में कम खतरनाक है। मॉस्को पहलवान शक्ति संतुलन से और कभी कभी एकमात्र विकल्प-आक्रामक कार्रवाई-से इस ग्रह से पूंजीवाद का विनाश करना चाहता था। इसकी सैन्य अर्थव्यवस्था ने सापेक्ष दरिद्रता के बावजूद एक दुर्जेय यूरेशियाई शक्ति बनाई। इसकी प्रणाली खुद अपेक्षाकृत अभेद्य थी। चीन के साथ खेल - जो अल्प-अवधि का नहीं है - ऐसा है जहां अमेरिका के नेतृत्व में गठबंधन मजबूत है, लेकिन उन्हें प्रबल बने रहने के लिए अच्छी तरह से खेलने की जरूरत होगी।

5.0 मोतियों की माला सिद्धांत (The String of Pearls theory)

ठिकानों और राजनयिक संबंधों की रणनीति ‘‘मोतियों के तार‘‘ में पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह, बर्मा में नौसैनिक अड्डे, बंगाल की खाड़ी में द्वीपों पर इलेक्ट्रॉनिक खुफिया जानकारी जुटाने की सुविधाएं, थाईलैंड में क्रा स्थलड़मरूमध्य पार एक नहर के निर्माण का वित्त पोषण, कंबोडिया के साथ सैन्य समझौता और दक्षिण चीन सागर में सेना जुटाना, शामिल हैं। ये ‘‘मोती‘‘ चीन के ऊर्जा हितों और सुरक्षा उद्देश्यों की रक्षा के लिए दक्षिण चीन सागर के मध्य पूर्व से समुद्र गलियों के साथ कई देशों के साथ सामरिक संबंधों के निर्माण में मदद कर रहे हैं। दावों में से कुछ अतिरंजित हैं, जैसा कि, बर्मा में कथित चीनी नौसेना की उपस्थिति के मामले में किया गया है। उदाहरण के लिए, भारत सरकार ने 2005 में स्वीकार किया कि, चीन, बर्मा में कोको द्वीपसमूह को एक नौसैनिक अड्डे में बदल रहा था, ये खबरें गलत थीं, और वास्तव में बर्मा में वहाँ कोई नौसैनिक अड्डे नहीं थे।

फिर भी, हिंद महासागर में चीनी ज़ोर धीरे-धीरे और अधिक स्पष्ट होता जा रहा है। हालांकि, बर्मा में चीन का नौसैनिक अड्डा नहीं है, लेकिन वे कोको द्वीपसमूह में बुनियादी ढांचे के उन्नयन में शामिल हैं, और बर्मा को कुछ सीमित तकनीकी सहायता प्रदान कर रहे हो सकते हैं।

चीन के तेल का लगभग 80 प्रतिशत मलक्का के जलडमरूमध्य के माध्यम से गुजरने के कारण, और उसके ऊर्जा की निर्बाध पहुँच के लिए अमेरिकी नौसैनिक सत्ता पर भरोसा करने की अनिच्छा के चलते, उसने फारस की खाड़ी से समुद्री मार्गों के किनारे दक्षिण चीन सागर तक ‘चोक बिंदुओं’ पर अपनी नौसेना शक्ति का निर्माण शुरू कर दिया है। 

चीन बांग्लादेश में चटगांव में और श्रीलंका में हंबनटोटा में कंटेनर बंदरगाहों के निर्माण से दक्षिण एशिया के अन्य राज्यों से प्रणय निवेदन कर रहा है। हिंद महासागर तक अपनी पहुंच को मजबूत बनाने के लिए चीन ने श्रीलंका के साथ श्रीलंका के दक्षिणी सिरे पर हम्बनटोटा विकास क्षेत्र के विकास के वित्तपोषण के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें एक कंटेनर बंदरगाह, एक बंकर प्रणाली और एक तेल रिफाइनरी शामिल हैं। मालदीव के मराओ में चीन की गतिविधियों ने भी नई दिल्ली में आशंका उत्पन्न की है।

पाकिस्तान के दक्षिण-पश्चिम तट पर ग्वादर के गहरे समुद्र में बंदरगाह के निर्माण में चीन की भागीदारी ने इसकी सामरिक स्थिति, ईरानी सीमा से लगभग 70 किलोमीटर और एक प्रमुख तेल आपूर्ति मार्ग होर्मुज के जलड़मरूमध्य से 400 किलोमीटर पूर्व की ओर, की वजह से बहुत ध्यान आकर्षित किया है। कहा जा रहा है कि, यह चीन को एक ‘‘सुनने का ठिकाना‘‘ प्रदान करेगा, जहाँ से वह “फारस की खाड़ी में अमेरिकी नौसैनिक गतिविधि पर, अरब सागर में भारतीय गतिविधि पर और हिंद महासागर में भविष्य के अमेरिकी भारतीय समुद्री सहयोग पर नजर रख सकेगा”। हालांकि, अकेले पाकिस्तान की नौसेना की क्षमता भारत के लिए कोई चुनौती पेश नहीं करेगी, परन्तु चीनी और पाकिस्तानी नौसेना बलों का संयोजन वास्तव में भारत के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है।

बीजिंग से उत्पन्न हाल ही के सुझावों, कि चीन अमेरिकी प्रभाव का मुकाबला और भारत पर दबाव डालने के लिए विदेशी सैन्य ठिकानों को स्थापित करने पर विचार कर रहा है के संदर्भ में, नई दिल्ली में कुछ वर्गों में इसकी व्याख्या चीन के पाकिस्तान में एक स्थायी सैन्य उपस्थिति हासिल करने की रुचि के रूप में की गई है। हालांकि, खुले तौर पर चीन को सैन्य अड्डा स्थापित करने की अनुमति देना पाकिस्तानी सरकार के लिए राजनीतिक रूप से संभव नहीं हो सकता, फिर भी नई दिल्ली को आशंका है कि इस्लामाबाद किसी भी सार्वजनिक घोषणा के बिना बीजिंग को अपनी सैन्य सुविधाओं के उपयोग की अनुमति दे सकता है।

यह समझाना संभव है, कि चीन ने इन बंदरगाहों और सुविधाओं का निर्माण विशुद्ध रूप से आर्थिक और वाणिज्यिक आधार पर किया हो सकता है, लेकिन अमेरिका, जापान और भारत जैसी क्षेत्रीय और वैश्विक शक्तियां अनिवार्य रूप से हिंद महासागर में चीन के राजनयिक और सैन्य प्रयासों को, अपनी शक्ति का प्रदर्शन और प्रतिद्वंद्वियों से प्रतिस्पर्धा के रूप में देखते हैं। इसके अलावा, हिंद महासागर में चीनी नौसेना की सुविधायें दोहरे उपयोग वाली हैं और कोई भी गंभीर रणनीति इसे भविष्य के सैन्य उपयोग से छूट नहीं दे सकती।

चीन की दूरदृष्टि चाहे जो हो, अपने विशाल सैन्य बजट और ऊर्जा और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के लिए त्वरित वैश्विक खोज के साथ, उसने अपनी समुद्री अर्थव्यवस्था के सभी पहलुओं का निर्माण किया है, और एक बंदरगाह, परिवहन, और जहाज निर्माण के बुनियादी ढांचे से प्रतिस्पर्धा के लिए दुनिया के सबसे बड़े व्यापारी बेड़े में से एक बनाया है। निश्चित रूप से, क्षेत्र में एक प्रमुख समुद्री शक्ति के रूप में स्थापित होने के चीन के प्रयासों में हिंद महासागर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और जिसके परिणामस्वरूप हिंद महासागर में और उस से भी आगे प्रभुत्व के लिए चीन और भारत प्रतिस्पर्धा में हैं। 1990 के दशक के बाद से चीन भारत संबंधों में महत्वपूर्ण सुधार के बावजूद, रिश्ते प्रतिस्पर्धी बने हुए हैं, और चीन ने भारत के मुख्य पड़ोसी देशों, विशेष रूप से पाकिस्तान के साथ, घनिष्ठ संबंध स्थापित करके भारत को सफलतापूर्वक एशिया के दायरे में नियंत्रित कर दिया है।

अपनी ओर से, चीन केवल अन्य प्रमुख वैश्विक शक्तियों के नक्शे कदम पर चल रहा है, जिन्होंने अपने हितों को सुरक्षित करने के लिए विदेश में सैन्य अड्डों की स्थापना की है। महान शक्ति का एक ही प्रकार है, और महान शक्ति परंपरा का भी एक ही प्रकार है। चीन भी किसी से अलग नहीं होगा। सत्ता आवश्यक रूप से विस्तारवादी होती है।


6.0 भारत - आसियान


सरकार की ‘‘पूर्वोन्मुख नीति‘‘ के एक भाग के रूप में भारत और आसियान के बीच सहयोग में वृद्धि के बाद, भारत अब भारत मेकांग आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने की पहल कर रहा है। दोनों पक्ष एक मेकांग-भारत आर्थिक कॉरिडोर की योजना बना रहे हैं, जो भारत और आसियान जुड़ाव का एक अभिन्न हिस्सा बनेगी। 

भारत बहुत लंबे समय से मेकांग गंगा सहयोग को बढ़ावा देने के विचार पर काम कर रहा था, जिसमें भारत, कंबोडिया, लाओस, म्यांमार, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं। यह फैसला मूल रूप से 2004 में बहुक्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग (बिम्सटेक) के बंगाल की खाड़ी पहल के हिस्से के रूप में पहल थी।

हालांकि, लगता है यह विचार अब कुछ कर्षण प्राप्त कर रहा है, जैसा कि भारत दिसंबर में आसियान के साथ सेवा और निवेश पर बहुप्रतीक्षित मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करने की तैयारी में है, जो बाद में भारत आसियान व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौता (सीईपीए) बन जाएगा।

मेकांग भारत आर्थिक कॉरिडोर (MIEC) भूमि और समुद्र बुनियादी ढांचे का एक नेटवर्क होगा, और वर्तमान में विदेश मंत्रालय द्वारा प्रस्ताव का अध्ययन किया जा रहा है। इस कॉरिडोर का आधार अधिक बड़ी भारत आसियान कनेक्टिविटी योजना होगी। यह भारत के साथ आसियान क्षेत्र की सक्रिय उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को जोड़ने की परिकल्पना है।

मेकांग गंगा सहयोग (एमजीसी) में व्यापार, पर्यटन, संस्कृति, शिक्षा, साथ ही परिवहन और संचार के क्षेत्र में सहयोग के लिए, भारत, कंबोडिया, लाओ पीडीआर, म्यांमार, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं।

एक क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) पर 2013 में बातचीत शुरू करने के लिए आसियान और भारत सहित प्रमुख क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं के बीच आगे उदारीकरण की संभावना को 2012 के समझौते के द्वारा बल मिला। सीआईआई द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार, म्यांमार, जो क्षेत्रों बीच एक महत्वपूर्ण पुल है, में हाल की राजनीतिक सुधार प्रक्रिया अब दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच भूमि कनेक्टिविटी संभव बना रही है, जो कुछ साल पहले संभव नहीं था।

भारत और आसियान के बीच व्यापार पिछले 11 साल में लगभग 10 गुना बढ़ा है, और 2012-2013 में 76 बिलियन डॉलर हुआ, जो 70 बिलियन डॉलर के निर्धारित लक्ष्य से अधिक था। भारत और आसियान की संयुक्त जनसंख्या 1.8 अरब है। जुलाई 2015 में भारत आसियान सीईपीए के क्रियान्वयन के साथ 2015 तक द्विपक्षीय व्यापार 100 अरब डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है।

मेकांग-भारत जुड़ाव वर्तमान में एशियाई राजमार्ग नेटवर्क के हिस्से के रूप में संबोधित किया जा रहा है, और ट्रांस एशियाई रेलवे एशिया और प्रशांत (UNESCAP) के लिए संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक आयोग द्वारा प्रोत्साहित किया जा रहा है।

7.0 अफ्रीका में प्रतिस्पर्धा

अपने स्वयं के महाद्वीप के दक्षिणी सिरे से और लैटिन अमेरिका के पार, एशिया की दो बढ़ती हुई और महत्वाकांक्षी शक्तियां सर्वोच्चता और महाशक्ति के दर्जे की दावेदारी के लिए प्रतिस्पर्धा करने के लिए तैयारी कर रही हैं। लेकिन यह इन दो बिंदुओं के बीच में है कि चीन और भारत के बीच सबसे बड़ी प्रतियोगिता प्रकट होने वाली है। मध्य एशिया को भूल जाइए, अगले ‘महान खेल’ का स्थान है अफ्रीका।

दोनों अफ्रीका पर लक्ष्य केंद्रित क्यों करेंगे इसका कारण सरल है - दोनों बढ़ती हुई, संसाधनों की भूखी आबादी और तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाएं हैं। यदि उन्हें विकसित पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं के साथ निरंतर प्रतिस्पर्धा का कोई भी मौका है, तो उन्हें धनी प्राकृतिक संसाधनों तक पहुँच की आवश्यकता होगी, जो अफ्रीका उपलब्ध करा सकता है।

चीन इस वर्ष 100 अरब डॉलर से अधिक के द्विपक्षीय व्यापार के साथ पहले से ही अपने प्रतिद्वंद्वी पर एक महत्वपूर्ण बढ़त हासिल करता हुआ दिख रहा है, इसकी तुलना में भारत और अफ्रीका के बीच पिछले साल इसका एक तिहाई व्यापार दर्ज किया गया था।

बीजिंग, सक्रिय रूप से चीन अफ्रीका सहयोग पर फोरम के माध्यम से सहयोगी देशों को रिझा रहा है, जिसकी अक्टूबर 2000 के बाद से नियमित शिखर बैठकें हो रही हैं, जिनमे चीनी प्रधानमंत्री और दर्जनों अफ्रीकी राष्ट्र प्रमुख भाग लेते रहे हैं।

और भारत की प्रतिक्रिया अपेक्षाकृत असफल रही। चीन के नक्शे कदम पर चलने की कोशिश में, भारत ने भी भारत अफ्रीका मंच शिखर सम्मेलन की शुरूआत की। हालांकि, अप्रैल 2008 में अभी तक के इसके पहले और एकमात्र शिखर सम्मेलन में, सम्भावित 53 अफ्रीकी देशों में से केवल 14 अफ्रीकी देशों ने इसमें भाग लिया।

समस्या का एक हिस्सा यह है कि, भारत का विदेश मंत्रालय अब भी, राजनयिक हलकों में जिसे “पाकिस्तानी सिंड्रोम” कहा जाता है, उससे ग्रसित है - राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सहित सरकार के उच्चतम पदों पर बैठे भारतीय राजनयिकों के बीच, भारत के पश्चिमी पड़ोसी पर एक अस्वास्थ्यकर लक्ष्य।

इसके विपरीत, चीन की अफ्रीकी महत्वाकांक्षाएं क्षेत्रीय चिंताओं से पंगु नहीं हैं। हालांकि चीनी ड्रैगन भारत, जापान, रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका से घिरा हुआ है, जिन्हें वह पूर्वी एशिया और प्रशांत में इसके प्रभाव को घटाने के लिए इच्छुक शार्क के रूप में देखता है, उसके पास अफ्रीका के बहुमूल्य विकास पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक काफी व्यापक वैश्विक नजरिया और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की समझ है।

चीन के लिए एक अन्य लाभ यह भी है कि अंगोला, इथोपिया, मोजाम्बिक, नामीबिया और सूडान सहित अफ्रीका के कई देशों को चीन की ओर दायित्व का एहसास रहा है। सोवियत संघ के पतन के बाद, जब वे युद्ध की काली छाया के साथ सामना कर रहे थे, तब चीन ने उनकी मदद की थी।

शीत युद्ध के दौरान इस महाद्वीप पर भारी ध्यान देने के बाद, अमेरिका और रूस ने अफ्रीका में पैसा खर्च करने में दिलचस्पी खो दी - जिससे अस्थिरता की स्थिति, और चीन को अंदर कदम रखने के लिए जगह बनी। दोनों बड़ी शक्तियों ने, चीन को भरने के लिए जो खाई छोड़ी थी, वह पर्याप्त बड़ी थी, क्योंकि कई अफ्रीकी देशों को अपने औपनिवेशिक स्वामी से आजादी हासिल करने के बाद राज्य के निर्माण में सहायता के लिए 1960 के दशक और 1970 के दशक में उनके शीत युद्ध के प्रायोजकों पर भारी निर्भरता विरासत में मिली थी। वापसी ने स्थिरता की संभावनाओं को खत्म किया था।

परंतु चीन ने सिर्फ सद्भावना हासिल करने के लिए वित्तीय सहायता ही नहीं दी, बल्कि 1990 के दशक में गृह युद्ध से अफ्रीका के कुछ हिस्से बर्बाद हो गए थे, तो चीन ने प्रभावित देशों में धन प्राप्ति और शांति स्थापना सहायता सुनिश्चित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में अपने लाभ उठाने का इस्तेमाल किया।

सहायता आंशिक रूप से महाद्वीप के उन देशों के बकाया ऋण को चुकाने के सद्भाव के रूप में थी, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र में मान्यता प्राप्ति में चीनी गणराज्य (ताइवान) की बजाय चीनी पीपुल्स रिपब्लिक के प्रयासों को समर्थन दिया था। अंत में यह बदलाव 1971 में हुआ, चीन ने उन अफ्रीकी देशों से महत्वपूर्ण समर्थन प्राप्त किया, जो महसूस करते थे कि, 1960 के दशक में माओ ने जिन करीबी और क्रांतिकारी संबंधों की शुरुआत की थी, उनसे वे लाभान्वित हुए थे। कई अफ्रीकी देशों की नज़रों में, चीन ने अफ्रीकी देशों में, सोवियत संघ या अमेरिका का समर्थन, मामले के गुणदोष के आधार पर करके, एक निष्पक्ष भूमिका निभाई थी।

भारत की अफ्रीकी देशों से निकटता के बावजूद, इस तरह के संबंधों ने, चीन को भारत की तुलना में, अफ्रीकी मामलों की बेहतर समझ और ज्ञान दिया है।

परंतु भारत को एक महत्वपूर्ण लाभ यह है कि इसकी राजनीतिक प्रणाली चीन की तुलना में बहुत अधिक आकर्षक है। चीन निवेश करने के लिए नकदी से अटा पड़ा हो सकता है, परंतु अफ्रीका में चीन के निवेश के प्रभाव के बारे में कई सवाल पहले से ही उठाए गए हैं। कुछ लोग यह भी पूछ रहे हैं कि प्रमोदकाल खत्म तो नहीं हो गया है?

अफ्रीका में शांति सेना को मजबूती के साथ योगदान देकर भारत इस तरह की आशंकाओं का फायदा उठा सकता है, एक ऐसा कदम, जो अफ्रीकी संघ को खुश कर देगा। दरअसल, आर्थिक समुदाय को लुभाने के लिए भारत द्वारा केवल अफ्रीकी संघ को ही एकमात्र सार्थक मंच के रूप में नहीं देखना चाहिए, क्योंकि पश्चिम अफ्रीकी राज्यों में अपार सुरक्षा क्षमताएँ भी हैं, जिनका भारत समर्थन कर सकता है।

इसके अलावा, चीन के पूर्व पुर्तगाली कॉलोनी मकाओ के उपयोग का मुकाबला करने के लिए भारत रचनात्मक काम कर सकता है। लुसोफोन देशों को व्यापार के लिए आकर्षित करने के लिए अपने स्वयं के क्षेत्रों में ध्यान दे सकता है, जैसे गोवा (एक और पूर्व पुर्तगाली कॉलोनी) और पांडिचेरी (एक पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेश), जो अफ्रीका के फ्रैंकोफोन देशों के साथ संबंधों का पोषण करने में उपयोगी हो सकते हैं।

एक सदी और अधिक पहले, अफ्रीका के पश्चिमी उपनिवेशवादी भारतीय और चीनी हितों को भी दबा बैठे थे। 21 वीं सदी में इन दोनों देशों को एक स्वतंत्र अफ्रीका के माध्यम से अपनी ताकत परिलक्षित करने का अवसर है।

8.0 मिसाइल प्रौद्योगिकी

अग्नि-पाँच, बदलती सीमाओं और क्षमताओं की भारत द्वारा विकसित मिसाइलों की श्रृंखला में, नवीनतम है। 5000 किमी (3100 मील) दूरी की मारक-क्षमता के साथ यह चीन की राजधानी बीजिंग तक परमाणु हथियारों की मार देने में सक्षम है। यह लगभग 2015 तक, परिचालन में आएगी व भारत की परमाणु शक्ति में काफी वृद्धि करेगी। उसके बाद आयेगी अग्नि-छः जिसकी मारक क्षमता व दूरी क्षमता दोनों ही अधिक होगी।

दरअसल, यह देखते हुए कि, क्षेत्र की परमाणु गतिशीलता जटिल हैं और इसमें भारत और चीन ही नहीं, अन्य देश भी शामिल हैं, पश्चिमी विशेषज्ञ भारतीय मिसाइल परीक्षण की बढ़ती क्षमता को अधिक महत्व नहीं देना चाहते।

मोंटेरी, कैलिफोर्निया में अप्रसार अध्ययन केंद्र में पूर्वी एशिया अप्रसार कार्यक्रम के प्रमुख जेफरी लुईस, इसे इस तरह कहते हैंः ‘‘बीजिंग, भारत की अपेक्षा, संयुक्त राज्य अमेरिका पर अधिक ध्यान केंद्रित करने की संवेदनशीलता दिखाता है। भारतीय अधिकारी चीन के बारे में अधिक बात करते हैं, इसकी तुलना में उनके चीनी समकक्ष भारत के बारे में कम बात करते हैं.”

दरअसल, उन्हें संदेह है कि, ‘‘नई दिल्ली का चीन पर ज़ोर, चीन के साथ प्रतिस्पर्धा करने की तुलना में पाकिस्तान को हल्का करने के बारे में अधिक है।‘

चीन पहले ही अपनी परमाणु हथियारों से लैस मध्यम और मध्यवर्ती दूरी की मिसाइल प्रणाली का आधुनिकीकरण कर रहा है, जिनका इस्तेमाल भारत को लक्ष्य करने के लिए किया जा सकता है। किन्तु टेलर फ्रेवेल के अनुसार “भारत और चीन के परमाणु सिद्धांत समान हैं, चूँकि दोनों पहले प्रयोग न करने पर जोर देते हैं और एक सुरक्षित दूसरे प्रहार के विकास के माध्यम से निवारण को कायम करने का प्रयास करते हैं”।

यह याद रखना चाहिए कि रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में, चीन और भारत के पास छोटे परमाणु हथियार हैं। माना जाता है कि, चीन के पास लगभग 240 हथियारों का भंडार है, जिनमे से शायद 175 सक्रिय हैं। हाल के वर्षों में उसने संयुक्त राज्य अमेरिका को चुनौती देने में सक्षम एक सच्ची अंतर-महाद्वीपीय श्रृंखला - दो चरणों वाली DF-5 ए जैसे अधिक आधुनिक ठोस ईंधन मिसाइलों-की तैनाती की है। उसने DF-21 जैसे कम दूरी के कई सिस्टम तैनात किये हैं, जो भारत के लिए संभावित खतरा हैं।

चीन के परमाणु प्रतिरोधक क्षमता के आधुनिकीकरण में बैलिस्टिक मिसाइलों को ले जाने में सक्षम पनडुब्बियों की एक छोटी संख्या का विकास भी शामिल है, लेकिन अभी तक उसने एक कार्यरत समुद्री पनडुब्बी प्रक्षेपण क्षमता हासिल की है या नहीं, यह स्पष्ट नहीं हुआ है।

इसके विपरीत, भारत के पास करीब 100 परमाणु हथियार हैं, ऐसा माना जाता है। इनमे से कुछ विमान से गिराए जा सकने में सक्षम हैं। परंतु भारत की अधिकांश परमाणु शक्ति कम दूरी की पृथ्वी मिसाइलों और मध्यम दूरी की अग्नि मिसाइल की विभिन्न किस्मों पर टिकी हुई है।

भारत भी अपनी परमाणु प्रतिरोधक क्षमता को समुद्र में ले जाने के लिए प्रयासरत है। यह बैलिस्टिक मिसाइल ले जाने में सक्षम परमाणु शक्ति-चालित पनडुब्बियों की एक नई श्रेणी का निर्माण कर रहा है। इन अरिहंत श्रेणी की नौकाओं में से पहली शुरू की जा चुकी है, और अगले वर्ष सेवा में प्रविष्ट होने की उम्मीद है। ऐसी और पांच की योजना है।

हालांकि, जेफरी लुईस के अनुसार, बीजिंग और दिल्ली के बीच गतिशीलता को अमेरिका और सोवियत संघ के संघ के बीच शीत युद्ध के दौरान हथियारों की दौड़ की नजर से देखना गलत है।

वे तर्क देते हैं, कि ‘‘दोनों देश उन्ही विशिष्ट क्षमताओं को आगे ले जाते हैं लेकिन कोई भी परमाणु हथियार या परमाणु सक्षम मिसाइलों की बड़ी संख्या का उत्पादन नहीं करता।”

उनके अनुसार चीन और भारत दोनों, परमाणु आधुनिकीकरण के लिए एक ‘‘अधिकार’’ उन्मुख दृष्टिकोण का पालन करते हैं: “बदले में वे अन्य शक्तियों द्वारा रखी अधिक उन्नत क्षमताओं की कम संख्या विकसित कर रहे हैं।”

टेलर फ्रेवेल के मुताबिक, ‘‘चीन के परमाणु आधुनिकीकरण के पीछे मुख्य रणनीतिक गतिशील एक सुरक्षित सेकंड स्ट्राइक की क्षमता बनाए रखने की आवश्यकता है’’। दूसरे शब्दों में, यदि चीन पर परमाणु हथियारों के साथ हमला होता है, तो जवाबी हमला करने की क्षमता।

वे कहते हैं, ‘‘चीन के दृष्टिकोण से, इस क्षमता के लिए मुख्य खतरा संयुक्त राज्य अमेरिका से है, जो बैलिस्टिक मिसाइल सुरक्षा, जो चीन को जवाबी हमले से रोकने के लिए, और लंबी दूरी तक सटीक मारक क्षमताएँ, जो चीन के परमाणु बल पर (या कमान और नियंत्रण प्रणाली) पारंपरिक और परमाणु हथियारों के साथ, हमला करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, दोनों विकसित करता रहा है।”

दरअसल, चीन के परमाणु आधुनिकीकरण के महत्व या अन्यथा पर सबसे अधिक सक्रिय बहस संयुक्त राज्य अमेरिका में चल रही है।

अंत में, यह अमेरिकी सेना के शस्त्रागार को आगे कम करने के बारे में चर्चा की पृष्ठभूमि में आता है - मास्को के साथ सबसे हाल ही में हथियारों की कमी समझौते द्वारा निर्धारित 1,550 तैनात हथियारों से नीचे. ध्यान दिया जाना चाहिए कि सम्मानित पत्रिका, परमाणु वैज्ञानिकों के बुलेटिन के अनुसार 2010 में अमेरिका शस्त्रागार में लगभग 2468 क्रियाशील हथियार थे। अमेरिका में कुछ लोग चीन की आधुनिकीकरण की योजना को - विशेष रूप से उसकी प्रतिरोधक क्षमता के समुद्री घटक को विकसित करने की योजना - महाद्वीपीय संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए एक बढ़ते खतरे के संकेत के रूप में देखते हैं।

चीन के आलोचक भूमिगत सुरंगों के एक विशाल नेटवर्क की ओर इशारा करते हैं, कुछ लोग मानते हैं कि इनमे उसके परमाणु शस्त्रागार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा छिपा हो सकता है. अन्य विश्लेषक कम नाटकीय दृष्टिकोण अपनाते हैं। उनके अनुसार, चीनी प्रतिरोधक क्षमता के बारे में हमें जितना पता है, वह आधुनिकीकरण का एक अधिक उद्देश्यपूर्ण और धीमी गति से चलने वाली प्रक्रिया का संकेत देता है। जब पिछले वर्ष अक्टूबर में सदन की सशस्त्र सेवा समिति ने विभिन्न विशेषज्ञों से सबूत जुटाये, तो ये मतभेद सामने आये।

हर कोई एक बात पर सहमत था, वह यह कि बीजिंग की ओर से पारदर्शिता की कमी चीन के परमाणु प्रक्षेपवक्र के किसी भी सटीक आकलन करने में एक गंभीर समस्या बनी हुई थी।

9.0 चीन की महान सुरक्षा दीवार (The Great Firewall of China)

स्वर्ण शील्ड परियोजना चीनी सरकार के सार्वजनिक सुरक्षा मंत्रालय द्वारा शुरू की गई एक इंटरनेट नियंत्रण और आवेक्षण परियोजना है। इसकी शुरुआत 1998 में की गई थी और इसका परिचालन नवंबर 2003 से शुरू हुआ। इस परियोजना को चीन की महान सुरक्षा दीवार कहा जाता है। चीन के इंटरनेट को नियंत्रित करने के लिए और विभिन्न विदेशी वेबसाइट्स तक प्रवेश को रोकने के लिए अनेक प्रकार की तरकीबें अपनाई गई हैं। इस परियोजना को विश्व का सबसे बडा, सबसे विस्तृत और सबसे उन्नत इंटरनेट नियंत्रण शासन माना जाता है। जो विभिन्न तकनीकें उपयोग की गई हैं वे निम्नानुसार हैंः

डीएनएस का विषाक्तनः जब कोई व्यक्ति ट्विटर डॉट कॉम जैसी वेबसाइट से जुडने का प्रयास करता है तो उसका कंप्यूटर उसके डीएनएस सर्वर से संपर्क करता है, और वेबसाइट से संबंधित आईपी पते के बारे में पूछता है। यदि उपयोगकर्ता द्वारा एक अवैध अनुक्रिया प्राप्त की जाती है, तो वह गलत स्थान पर संबंधित वेबसाइट को खोजता रह जाता है, और वह संबंधित वेबसाइट से जुड़ने में असफल हो जाता है। चीन जानबूझ कर ट्विटर जैसी वेबसाइटों के लिए अपने डीएनएस ध्यानाकर्षी शब्दों को गलत पतों के साथ विषाक्त करके रखता है, ताकि वे अप्राप्य रहें। 

आईपी के प्रवेश को रोकनाः चीन की महान सुरक्षा दीवार कुछ विशिष्ट आईपी पतों में प्रवेश को अवरुद्ध भी कर सकती है। उदाहरणार्थ लोगों को ट्विटर के सर्वर में प्रवेश करने से प्रतिबंधित करने के लिए, एक निश्चित आईपी पर उसमें सीधे प्रवेश के द्वारा या ऐसे अनधिकृत डीएनएस का उपयोग करके भी, जिन्हें विषाक्त नहीं किया गया है, चीन ट्विटर के सर्वर के आईपी पते को अवरुद्ध कर सकता है। यह तकनीक उसी पते पर स्थित अन्य वेबसाइटों को भी अवरुद्ध कर देगी, यदि वे साझा मेजबानी का उपयोग कर रहे हैं। 

यूआरएल का विश्लेषण और निस्पंदनः सुरक्षा दीवार यूआरएल को स्कैन कर सकती है और यदि उनमें संवेदनशील संकेतशब्द शामिल हैं तो कनेक्शंस को अवरुद्ध कर सकती है। उदाहरणार्थ, अनुसंधान हमें यह दर्शाता है कि एचटीटीपीः http://en.wikipedia.org  चीन के अंदर अभिगम्य है, परंतु http://en.wikipedia.org/wiki/Internet_censorship_in_the_People's_Republic_of_China अभिगम्य नहीं है - सुरक्षा दीवार यूआरएल की ओर देख रही है और उन वेब पेजेस को अवरुद्ध करने का निर्णय ले रही है जो इंटरनेट सेंसर व्यवस्था से संबंधित प्रतीत होते हैं। 

पैकेट्स का परीक्षण और निस्पंदनः ‘‘गहन पैकेट परीक्षण‘‘ का उपयोग संवेदनशील सामग्री की खोज के लिए गैर कूटलिखित पैकेट्स के परीक्षण के लिए किया जा सकता है। एक सर्च इंजन पर निष्पादित की गई खोज विफल हो जाएगी यदि खोज की जा रही सामग्री में राजनीतिक दृष्टि से विवादित संकेतशब्द शामिल हैं जैसे ‘‘तिएनमैन चौक’’ क्योंकि खोज से संबंधित पैकेट्स की जांच की जा रही है और उन्हें अवरुद्ध किया जा रहा है। 

कनेक्शंस को पुनः जोड़नाः साक्ष्य दर्शाते हैं कि जब महान सुरक्षा दीवार ऐसे पैकेट्स को अवरुद्ध कर देती है तो एक निश्चित समय के लिए वह दोनों कम्प्यूटर्स के बीच की संचार व्यवस्था को अवरुद्ध कर देगी। यह कार्य सुरक्षा दीवार एक ‘‘पुनः जोड़ने का पैकेट’’ भेजने के  करती है, जो अनिवार्य रूप से दोनों कम्प्यूटर्स में स्थापित है, और उन्हें यह भी बताया जाता है कि कनेक्शन को पुनः जोडा गया था ताकि वे एक दूसरे के साथ बात नहीं कर सकें। 

वीपीएन का अवरोधनः 2012 के अंत में महान सुरक्षा दीवार ने वीपीएन को अवरुद्ध करने का प्रयास शुरू किया। पूर्व में वीपीएन का उपयोग महान सुरक्षा दीवार से बचने के लिए किया जाता था। अनेक व्यापारी उपयोगकर्ताओं के लिए वे बहुत महत्वपूर्ण भी थे, अतः यह एक आश्चर्यजनक पहल थी। सुरक्षा दीवार वीपीएन यातायात कैसा दिखाई देता है यह जानना सीखती है और फिर वीपीएन कनेक्शंस को नष्ट कर देती है। 

दिसंबर 2014 में, सेंसर व्यवस्था के एक और चरण के रूप में देखे जा रहे अभियान में चीन ने गूगल की ईमेल सेवा में प्रवेश पर शिकंजा कस दिया। चीन की सरकार ने एक अधिक स्मार्ट और अधिक कठोर इंटरनेट निस्यंदक अनावरण किया, जिसके माध्यम से वेब उपयोगकर्ताओं को अधिक परेशान किया जाता है, और जिसके माध्यम से चीन के इंटरनेट और विश्व व्यापी वेब के बीच के विभाजन को और अधिक चौडा कर दिया गया। 

जनवरी 2015 में चीन के वेब निस्यंदकों में किये गए एक उन्नयन के कारण वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क नामक सेवाओं के उपयोग को और भी अधिक कठिन बना दिया गया है ताकि गूगल और फेसबुक जैसी अमेरिकी सेवाओं के देश के अवरोध में और अधिक गतिरोध पैदा किया जा सके। चीनी अधिकारियों के अनुसार जैसे-जैसे इंटरनेट विकसित होता जा रहा है, वैसे-वैसे नए उपायों की आवश्यकता बढती जा रही है। चीन के इस रुख को इस रूप में देखा जा रहा है कि वह एक सामानांतर इंटरनेट वातावरण का निर्माण करने की इच्छा रखता है जिसे वह आसानी से नियंत्रित रख सके। वेब निस्यंदक दोहरे प्रयोजन का कार्य करते हैं, वे उस सामग्री की छंटनी करते हैं जो चीनी सरकार के प्रति आलोचनात्मक है, साथ ही वे अधिक शक्तिशाली विदेशी इंटरनेट फर्मों के विरुद्ध चीन की वेब फर्मों को संरक्षण भी प्रदान करते हैं। अमेरिकी व्यापार समूहों के अनुसार चीनी सरकार अमेरिकी प्रौद्योगिकी कंपनियों को हस्तक्षेप करने वाले सुरक्षा परीक्षणों को समर्पित होने के लिए भी आग्रह कर रही है। 

10.0 चीन में सामाजिक माध्यम (सोशल मीडिया)

क्यू क्यूः स्काइप के समान एक सन्देशन मंच के रूप में क्यू क्यू विस्तृत वेब संचार मनोरंजन वीडियो चौट, वॉइस चौट, ऑनलाइन और अन्य विशेषताएं प्रदान करता है जो उपयोगकर्ताओं को ऑनलाइन और ऑफलाइन फाइलें भेजने की सुविधा प्रदान करता है जू उपयोगकर्ता पर (एमएयू) 829 उपयोगकर्ता लाभ प्राप्त करते हैं। 

1999 में टेंसेंट द्वारा इसकी शुरुआत के समय से क्यू क्यू में विस्तार करके इसमें सामाजिक सूक्ष्म ब्लॉगिंग जैसी सेवाओं को भी शामिल किया गया है। अप्रैल 2014 में इस सेवा ने एक ही समय में 200 मिलियन ऑनलाइन उपयोगकर्ता दर्ज किये थे। चूंकि प्रासंगिक रहने के लिए यह अतिरिक्त विशेषताएं प्रदान करना चाहता है - और इसने अपनी त्वरित संदेशन, इस वर्ष जुलाई में शुरू किये गए क्यू क्यू वॉलेट के साथ मोबाइल भुगतान स्थान, हाल ही में एकी.त शॉपिंग, रेस्तरां सौदे, और यहां तक कि स्वास्थ्य निगरानी जैसी सेवाएं प्रदान करके ऐसा किया भी है। 

इसके विस्तार और नई विशेषताओं के बावजूद, विपणन के लिए क्यू क्यू का उपयोग अभाव से ही किया जाता है क्योंकि इसके उपयोगकर्ता मुख्य रूप से ऐसे क्षेत्रों से हैं जिनकी क्रय क्षमता बहुत अधिक नहीं है। 

क्यू क्षेत्रः क्यू क्षेत्र 2005 में शुरू की गई एक सामाजिक नेटवर्किंग वेबसाइट है जो क्यू क्यू के समान ही सेवाएं प्रदान करती है जैसे ब्लॉगिंग, चित्र भेजना, संगीत, और वीडियो। टेंसेंट 2014 के प्रथम तिमाही के आंकडे़ं क्यू क्षेत्र के मासिक सक्रिय उपयोगकर्ताओं की संख्या को 644 मिलियन तक रखते हैं। 

हालाँकि क्यू क्षेत्र मूल रूप से एक ब्लॉगिंग मंच है, फिर भी इसमें फेसबुक जैसी समानताएं हैं, क्योंकि विभिन्न ब्रांड अपने उत्पादों का प्रायोजन फैन पन्नों के माध्यम से कर सकते हैं। उदाहरणार्थ नानजिंग विपणन समूह के अनुसार, चीनी स्मार्टफोन कंपनी जिओ मी  अपने अपने रेडमी उपकरण का विक्रय क्यू क्षेत्र के माध्यम से इस वर्ष मार्च में किया और उसकी बिक्री केवल एक हते में 15.18 पूर्व ऑर्डर्स तक पहुंच गई।


वी चैटः
वी चैट टेंसेंट के सामाजिक माध्यम की त्रिमूर्ति को पूर्ण करती है। इसकी अंतहीन प्रतीत होती विशेषताओं के साथ, जिनमें वॉइस और समूह चैट, वीडियो कॉल, वॉकी टॉकी, और आसपास के लोग शामिल हैं, वी चैट चीनी सामाजिक नेटवर्किंग परिदृश्य में एक दुर्जेय शक्ति बन गया है। 

जून 2014 तक वी चौट के 438 मिलियन सक्रिय मासिक उपयोगकर्ता थे। 

इसके संदेशन प्रतिस्पर्थी व्हाट्सएप्प की तुलना में वी चैट सामाजिक और मोबाइल क्षेत्र में अपने इन-एप्प ई-वाणिज्य और सेवाओं के साथ अपने मंच के मौद्रीकरण की दिशा में अधिक केंद्रित रहा है। चीनी नव वर्ष के दौरान मित्रों और पारिवारिक सदस्यों को रेड पॉकेट उपहार स्वरुप प्रदान करने के अतिरिक्त, वी चैट उपयोगकर्ता खेलते समय उन्नयन कर सकते हैं, जूते खरीद सकते हैं और यहां तक कि किराये पर टैक्सी भी ले सकते हैं। 

उपयोगकर्ताओं तक समूहों में पहुंचने के अतिरिक्त, जिसके तहत 500 तक लोगों के साथ चौट किया जा सकता है, ब्रांड्स भी अनेक प्रकार से अपने उत्पादों के विज्ञापन के लिए वी चौट का उपयोग कर सकते हैं ब्रांड्स एक वी चैट सेवा खाता स्थापित कर सकते हैं, जो उन्हें अपने ग्राहकों के साथ लक्षित सामग्री भेजने के माध्यम से संपर्क स्थापित करने में सहायक होता है, और वे सहयोगी विक्रय चौनल वैदियन का उपयोग करके अपने ग्राहकों की खरीद आदतों और पसंदों की जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं। व्यापारी उच्च यातायात क्षेत्रों में उपयोगकर्ताओं के लिए क्यूआर कूट भी स्थापित कर सकते हैं ताकि उपयोगकर्ता उनके ब्रांड्स का पीछा कर सकें, स्थान आधारित सेवा प्रकार्य का उपयोग करके प्रस्तावों को लक्षित कर सकें, और आसपास के उपयोगकर्ताओं के लिए विज्ञापन भी प्रस्तुत कर सकें, और ‘‘एक बोतल फेंको‘‘ विशेषता का उपयोग धर्मदान या छूट के बारे जागरूकता प्रसारित करने के लिए कर सकें। 

वाईबांः जो चीन के ट्विटर के नाम से लोकप्रिय है, सितंबर 2014 में साइना वाइबो के 167 मिलियन मासिक सक्रिय उपयोगकर्ता थे। नए खिलाड़ी वी चैट से मिल रही अत्यधिक प्रतिस्पर्धा के बावजूद नवंबर में जारी वित्तीय परिणाम दर्शाते हैं कि वाइबो के तीसरी तिमाही के वर्ष-दर-वर्ष के राजस्व में 58 प्रतिशत की वृद्धि हुई और यह 84.1 मिलियन डॉलर तक पहुंच गया। 

वाइबो की मुख्यभूमि बाजार में सक्रिय उपस्थिति है - विशेष रूप से युवा जनसंख्या के बीच। प्रभावशाली उपयोगकर्ता खातों के कारण वीबो का प्रभाव काफी अधिक है, जिनमें दिग्गज व्यापारी, एशियाई ख्याति प्राप्त व्यक्ति, और मीडिया क्षेत्र के प्रतिष्ठित शामिल हैं। प्रारंभ में इसकी शुरुआत ‘‘सिना वीबो‘‘ के रूप में की गई थी, परन्तु मार्च से ही उसने ‘‘सिना‘‘ उपसर्ग को त्याग दिया। 

कोच वाइबो का एक शीर्ष ब्रांड है क्योंकि यह प्रशंसकों के साथ संपर्क स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित करता है, और छोटे अभियान भी चलाता है। उदाहरणार्थ, उनके 2013 के ‘‘न्यूयॉर्क शैली’’ के अभियान में पांच चीनी फैशन ब्लॉगर्स ने एक वीडियो में भाग किया था, उसके बाद उन्होंने प्रशंसकों को पसंदीदा सडक शैली पर मतदान करने के लिए प्रेरित किया था ताकि उन्हें कोच ब्रांड की वस्तु उपहार स्वरुप प्राप्त करने का अवसर मिल सके। 6,40,000 प्रशंसकों और 3,200 पोस्ट्स के साथ 2013 में डिजिटल आईक्यू सूचकांक द्वारा कोच को ‘‘चीन का सबसे डिजिटल दृष्टि से सक्षम अमेरिकी फैशन ब्रांड’’ के रूप में नामित किया गया था। 

रेन रेनः इसे ‘‘चीन का फेसबुक प्रतिरूप‘‘ कहा जाता है। रेन रेन न केवल समान अभिन्यास और रंग प्रदर्शित करता है, बल्कि इसमें फेसबुक के समान ही अन्य  अनेक विशेषताएं भी हैं - जैसे प्रोफाइल का निर्माण, मित्र सूची, प्रशंसक पन्ना, और एक संदेशन अनुप्रयोग। 

इसकी उत्पत्ति भी फेसबुक के समान ही है, क्योंकि यह भी अनन्य रूप से महाविद्यालयीन विद्यार्थियों के लिए ही शुरू किया गया था। 30 जून 2014 तक रेन रेन के सामाजिक नेटवर्क में लगभग 214 मिलियन  सक्रियित उपयोगकर्ता थे। इसके विशाल उपयोगकर्ता आधार, मुख्यभूमि बाजार तक पहुंच और फेसबुक के साथ समताओं  के साथ - विदेशी ब्रांड चीनी उपभोक्ताओं के साथ संपर्क करने के लिए आसानी से रेन रेन का उपयोग कर सकते हैं। 

हालांकि हाल के वर्षों ने रेन रेन ने कुछ गलत कदम उठाए हैं, जैसे इसने मोबाइल क्रांति को लगभग पूरी तरह से छोड दिया है, और इसके परिणामस्वरूप इसका उपयोगकर्ताओं का आधार धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।


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