सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
जिन्ना, गोलवलकर, साम्प्रदायिकता एवं दो राष्ट्र सिद्धांत
1.0 प्रस्तावना
भारत का विभाजन वह घटना है, जिसका प्रतिघात हम आज भी महसूस करते हैं। बँटवारा उन तमाम घटनाओं व साम्प्रदायिकता की पराकाष्ठा थी, जिसमें ब्रिटिश नीति ‘बाँटो और राज करो‘ प्रमुख थी। एम.ए.जिन्ना 1906 में हिन्दू-मुस्लिम एकता के पर्याय थे, व जब मुस्लिम लीग बनी थी तो उन्होंने उससे जुड़ने से भी मना कर दिया था। परन्तु आज ज़्यादातर लोग उन्हें पाकिस्तान के जनक व भारत के दुश्मन के रूप में जानते हैं।
2.0 सांप्रदायिकता के दो पहलू
भारत में उदित सांप्रदायिकता को मुख्यतः दो भागों में बाँटा गया है - उदारवादी सांप्रदायिकता, और उग्रवादी सांप्रदायिकता।
2.1 उदारवादी सांप्रदायिकता
उदारवादी सांप्रदायिकता एक वृहद भारत राष्ट्र को स्वीकार करती है। वैसे तो उदारवादी सांप्रदायिक-अलग सांप्रदायिक अधिकार, आरक्षण, सुरक्षा पैमाने आदि की माँग करते थे परन्तु वे मानते थे कि हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई का जन-कल्याण, व राष्ट्रीय एकता ही मुख्य उद्देश्य था। फिर भी सांप्रदायिक उदारवाद का दायरा बहुत संकुचित था। राजनीति में भी वह मुख्यतः उच्च व मध्य वर्ग तक सीमित थी। भारत में सांप्रदायिकता 1937 तक इस हाल में रही।
2.2 उग्रवादी सांप्रदायिकता
उग्रवादी सांप्रदायिकता मुख्यतः नफरत, डर व तर्कहीन राजनीति पर आधारित थी। समाधान निकालने की जगह हिन्दू और मुस्लिम हितों को सदा के लिए टकरावपूर्ण बता दिया गया। उनके नेता दूसरे संप्रदाय के सदस्यों पर विद्वेषपूर्ण हमला करते थे। एक ही संप्रदाय के लोग जब राष्ट्रीयता की वकालत करते तो उन पर भी हमला होता था। राष्ट्रीय कांग्रेस व गाँधीजी भी उनके ज़हरीले शब्दबाणों से बच नहीं सके थे।
3.0 मोहम्मद अली जिन्ना - राष्ट्रवाद से सांप्रदायिकता तक
एम.ए. जिन्ना 1906 में भारत लौटने पर कांग्रेस से जुड़ गए व 1906 में कांग्रेस के कलकत्ता सेशन में दादाभाई के सचिव रहे। वह उस समय बनी मुस्लिम लीग के घोर विरोधी थे। आगा खान, जो लीग के प्रथम अध्यक्ष थे, ने बाद में लिखा था ‘1906 में जिन्ना हमारे कट्टर व कड़े विरोधी थे‘ व ‘मेरे समर्थक जो भी करते या करना चाहते थे उसके व घोर विरोधी थे‘ ‘‘जिन्ना मुस्लिमों के अलावा पृथ्क निर्वाचक व्यवस्था के भी विरोधी थे। उनका मानना था कि इस तरह का अलग निर्वाचन समूह राष्ट्र को आपस में बाँटता है। सरोजिनी नायडू उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता के राजदूत‘‘ कहती थीं।
जिन्ना का पहला कदम अनजाने ही सांप्रदायिकता की तरफ तब बढ़ा जब उन्होनें पृथ्क निर्वाचन व्यवस्था के तहत मुस्लिम सदस्य के रूप में केंद्रीय विधान परिषद में बाम्बे से प्रवेश किया । 1913 में मस्लिम लीग से जुड़ने के बाद भी वे कांग्रेस में रहे व पृथ्क निर्वाचन व्यवस्था के घोर विरोधी रहे, क्योंकि उनका मानना था यह भारत को ‘‘दो वॉटर टाइट कम्पार्टमेंट’’ में बाँट देगा। पर वह मुस्लिम संप्रदाय के लिए अपनी वक्ता की भूमिका समझने लगे थे। लखनउ-कांग्रेस लीग समझौता-जिसके वे व तिलक संयुक्त रूप से लेखक थे-में उन्होंने दोनों ही भूमिका प्रभावशाली रूप से निभाई थीं।
मुस्लिम संप्रदाय के वक्ता के रूप में उन्होंने कांग्रेस को पृथ्क निर्वाचन व सांप्रदायिक आरक्षण के लिए मनाया था। परन्तु फिर भी वे राष्ट्रवाद के लिए समर्पित थे। रोलेट बिल के पास होने पर उसके विरूद्ध उन्होंने लेजिस्लेटिव काउंसिल से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने इस सांप्रदायिक विश्वास को अस्वीकार कर दिया था कि स्वराज्य से भारत में हिन्दू-राज्य की स्थापना हो जाएगी। उनके अनुसार असली मुद्दा था ‘होम रूल‘ एवं नौकरशाही से लोकशाही में सत्ता हस्तांतरण।
3.1 कांग्रेस से प्रस्थान
1919-20 में कांग्रेस ने आम जन राजनीति की तरफ रूख कर शांतिपूर्वक उस समय के नियमों को तोड़ना शुरू किया। जिन्ना इससे असहमत थे व अनेक नेताओं जैसे सुरेंद्रनाथ बैनर्जी, बिपिन चन्द्रपाल, तेज बहादुर सप्रू, सी. शंकरन नायर के साथ उन्होंने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। अन्य उदारवादियों की तरह न करते हुए उन्होंने सांप्रदायिक राजनीति की तरफ रूख किया। उनका राजनीतिक भविष्य उदारवादी सांप्रदायिकता में प्रवेश कर गया।
1920 के दशक के दौरान जिन्ना की राष्ट्रवादिता पूरी तरह सांप्रदायिकता में नहीं बदली थी। 1924 में अनजान मुस्लिम लीग को उन्होंने पुनर्जीवित किया व मुस्लिमों के हक व कल्याण के हिसाब से उसको निर्मित किया। उनकी राजनीति अब इस सांप्रदायिक विचार पर टिक गई थी कि ‘‘मुस्लिमों को संघठित होकर एकता के साथ तार्किक रूप से अपने संप्रदाय की सुरक्षा के लिए बढ़ना है’’।
उसी समय वह हिंदू-मुस्लिम एकता की वकालत नई लखनऊ संधि के तहत कर रहे थे ताकि ब्रिटिश से एकता के साथ लड़ सके, व स्वराजियों की सहायता करते हुए सरकारी नीतियों का केंद्रीय विधान परिषद में उन्होंने विरोध किया। 1925 के अंत में जब एक युवा मुस्लिम ने कहा कि वह मुस्लिम पहले हैं तो जिन्ना ने कहा, ‘‘मेरे बच्चे नहीं, तुम पहले भारतीय हो फिर मुस्लिम’’। 1927-28 में उन्होंने साईमन कमीशन के बहिष्कार का समर्थन किया था जबकि वह उसके प्रदर्शन में शामिल नहीं हुए थे।
3.2 14 माँगें
1906 में तिलक की तरह ही, उन्होंने शेर की सवारी जैसा दुष्कर कार्य किया। उनका समस्त सामाजिक दायरा सांप्रदायिक मानसिकता वाले लोगां का हो गया। सांप्रदायिकता में रहते हुए भी उनका राजनीतिक प्रभाव था। 1928-29 में नेहरू रिपोर्ट पर बहस के दौरान उन्होंने धीरे-धीरे अपने आप को सांप्रदायिक प्रतिक्रियावाद को समर्पित कर दिया, जिसका नेतृत्व आगा खान व मो. शफी ने किया था और अंत में वे पूरी तरह से मुस्लिम सांप्रदायिकता के नेता बने व उनका व राष्ट्रवादी नेताओं का साथ छूट गया। नेहरू रिपोर्ट के विरूद्ध जिन्ना की 14 माँगें इसी तीव्र गिरावट का नतीजा थीं।
1930 में जब कांग्रेस ने विशाल जन आंदोलन का आयोजन किया, तब मुस्लिम समुदाय विशेषकर युवा वर्ग अधिक संख्या में राष्ट्रीय एवं साम्यवादी क्रांतिकारी राजनीति एवं विचार धारा के प्रति आकर्षित हुआ एवं भाग लिया। जिन्ना एक दुविधा में पड़े। उन्हें कम आशा दिखाई दी और उन्होंने ब्रिटेन में निवास करना पसंद किया।
किन्तु 1936 में जिन्ना भारत वापस आए व मुस्लिम लीग का पुनर्निर्माण करने लगे। 1936 में उन्होंने राष्ट्रवादिता पर ज़ोर दिया व स्वतंत्रता के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रचार किया। उदाहरण के तौर पर मार्च 1936 में लाहौर में उन्होंने कहा- ‘‘मैं आप लोगों को विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मैं जब राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ा था तब से लेकर अब तक मुझमें कोई बदलाव नहीं हुआ। मैं कुछ जगह गलत था, पर मैंने बँटवारे की भावना से कुछ नही किया था। मेरा मुख्य उद्देश्य मेरे देश की भलाई है, मैं विश्वास दिलाता हूँ कि भारत का कल्याण ही मेरे लिए सर्वोपरि है’’।
1937 में जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने चुनाव लड़े मुस्लिम माँगें थीं- उर्दू भाषा की सुरक्षा व प्रगति व सामान्य मुस्लिम जन की उन्नति के लिए नए आयाम अपनाना।1932 के सांप्रदायिक अवार्ड द्वारा सभी माँगे स्वीकार्य हो गई थीं।
परन्तु चुनाव में मुस्लिम लीग उचित मात्रा में सीटें नहीं जीत सकी। कांग्रेस व मुस्लिम के बीच अधिकारिक बँटवारे से भी बात नहीं बनी अतः जिन्ना ने जन-राजनीति का रूख किया, जो कि मुस्लिम लीग के अर्ध-सामंती जनाधार एवं उनके स्वयं के रूढ़िवादी सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक विचारों के चलते केवल ‘इस्लाम खतरे में है‘ के क्रंदन पर आधारित हो सकता था। अपना निर्णय लेते हुए वे पूरी तरह सांप्रदायिक हो गए एवं ‘‘नफरत व डर’’ की राजनीति पूरी ताकत के साथ अपना ली।
3.3 पतन की ओर
जब जिन्ना जैसे नेता राजनीति ओर आंदोलन को नीचे स्तर पर ले आते हैं तो उनके अनुयायी तो और भी विकट थे। जेड.ए. सुलेरी और एफ.एम. दुर्रानी जैसे लोग बहुत बढ़-चढ़कर अपनी जनोत्जेक लोकप्रियता में उलझे थे। फज़्ल-उल-हक जैसे लोग भी जो बंगाल में प्रीमियर के महत्वपूर्ण पद पर थे, ने 1938 में एक अधिवेशन में कहा था- ‘‘कांग्रेस के राज में दंगों ने प्रांत का नाश किया है। मुस्लिमों की जिंदगी, जान-माल सब लुट गया व चारों ओर खून बहा। मुस्लिम निरंतर डर व हिन्दूओं के अत्याचार सहते हुए जिदंगी जी रहे हैं, मस्जिदों से छेड़खानी करने वाला अपराधी कभी पकड़ा नहीं गया’’। सिंध के एक महत्वपूर्ण नेता एम.एच.गजदार ने 1941 में कराची की एक सभा में कहा था ‘‘अगर हिन्दू ठीक व्यवहार नहीं करते हैं तो जैसे जर्मनी में यहूदी को खत्म कर दिया गया था वैसे ही िहंदुओं को खत्म करो’’। जिन्ना ऐसे लोगों को रोक नहीं पाए क्योंकि उनके भाषण भी इसी तरह हो गए थे।
मुस्लिम सांप्रदायिकतावादियों ने राष्ट्रवादी मुस्लिमों के विरूद्ध आंदोलन शुरू किया। मौलाना आज़ाद व अन्य राष्ट्रवादी मुस्लिमों को इस्लाम के गद्दार, हिंदुओं के दलाल व कांग्रेस का आडंबर बोला गया। 1945-47 के दौरान उन्हें कट्टरपंथियों की धमकी व शारीरिक हमले सहने पड़े थे। जिन्ना ने अप्रैल 1943 में अपने अध्यक्षीय भाषण में खान अब्दुल गफ्फार खान को हिंदू प्रभावों का ठेकेदार व लड़ाकू पठानों को कमजोर बनाने वाला बताया था।
[गाँधी समर्थक (खान अब्दुल गफ्फार खान, या बादशाह खान, या बाशा खान) को स्वतंत्र पाकिस्तान के शासकां ने दशकों तक यातना दी। बाशा खान ने पाकिस्तान के शासकों से स्वायत शासन ‘‘पश्तूनिस्तान’’ की देश में माँग की थी। परंतु वे सरकार द्वारा 1948 से 1954 के बीच कई बार कैद किए गए। 1960 से 1970 तक उनका ज्यादातर समय जेल या निष्कासन में बीता, पेशावर में कैद में ही उनकी मृत्यु 1988 में हुई और उन्हें जलालाबाद, अफगानिस्तान में दफनाया गया।]
प्रचार व्यवस्था में अब धर्म को भी अग्रज रखा गया। 1946 में मुस्लिमों को लीग को वोट देने के लिए कहा गया क्योकि ‘‘लीग और पाकिस्तान के लिए वोट, इस्लाम के लिए वोट है’’। लीग की सभा शुक्रवार को नमाज के बाद मस्जिद में होने लगी। यह निश्चित था कि पाकिस्तान शरीया कानून के तहत कार्य करेगा। मुस्लिमों को मंदिर व मस्जिद के बीच चुनने को कहा गया। कुरान को लीग के चिन्ह के तहत लिया गया व कांग्रेस के साथ लीग की लड़ाई को इस्लाम व कुफ्र की लड़ाई की तरह दर्शाया गया।
4.0 हिन्दू सांप्रदायिकता
घटनाओं के इस भँवर में यह साबित हो गया था कि हिंदू सांप्रदायिकता भी पीछे नहीं है। यकीनन उनकी राजनीतिक घातें अलग थीं। 1920 के दौरान उदारवादी सांप्रदायिकता के दो प्रमुख नेता थे - लाला लाजपतराय और मदन मोहन मालवीय। 1928 में लाजपत राय की मृत्यु साईमन कमीशन का विरोध करने में ब्रिटिश पिटाई से हुई थी और 1937 में मालवीय जी अपने आप को जिन्ना की स्थिति में पा रहे थे, जब स्वयं जिन्ना भी उन्ही परिस्थितियों से गुजर रहे थे। अपनी सेहत की वजह से उसी साल उन्होंने सक्रिय राजनीति को त्यागने की सोची।
पर हिंदू सांप्रदायिकता खुद को खत्म नहीं कर रही थी। उल्टे वह उग्रवाद की ओर बढ़ रही थी। सांप्रदायिकता का तर्क था अन्य सांप्रदायिक नेताओं को आगे लाना। वी.डी. सावरकर की अध्यक्षता में हिंदू महासभा ने उग्रवाद की तरफ आश्चर्य-जनक मोड़ ले लिया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर. एस. एस.) का गठन उग्रवाद की तर्ज़ पर हुआ और वह महाराष्ट्र के बाहर भी कार्यक्षेत्र बढ़ाने लगी।
4.1 वीर सावरकर
साल-दर-साल सावरकर हिंदुओं को मुस्लिमों के दबाव के बारे में सावधान करते रहे। 1937 में उन्होंने कहा ‘‘मुस्लिम हिन्दू और गैर-मुस्लिमों का हिंदुस्तान में अपमान करते रहे हैं’’ और ‘‘हिंदुओं को अपनी ही भूमि पर नाम मात्र का रहने दिया जाएगा‘‘। 1938 में उन्होंने कहा ‘‘हम हिंदू यर्थाथ में अपनी भूमि पर ही दासों की तरह होते जा रहे हैं’’।
4.2 माधव सदाशिव गोलवलकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) को 1925 में श्री केशव बलीराम हेड़गेवार ने स्थापित किया था। 1940 में बने आर. एस. एस. के अध्यक्ष श्री एम.एस.गोलवलकर ने आर. एस. एस. के सिद्धांत ’’हम और हमारी राष्ट्रीयता परिभाषित‘‘ में लिखे। 1939 में उन्होंने घोषणा कि अगर अल्पसंख्यकों की माँगे मानी गइंर् तो ‘‘राष्ट्र में हिंदुओं की जिंदगी चकनाचूर हो जाएगी’’।
सर्वोपरि, आर. एस. एस. ने मुस्लिम व कांग्रेस नेताओं पर आक्रमण किया। गोलवलकर ने राष्ट्रवादियों पर इसलिये आक्रमण किए क्योंकि उनका मानना था ’‘अपने पुराने शत्रु (मुस्लिम) को गले लगाना अपने अस्तित्व को खतरे में डालने जैसा है’’। उन्होंने राष्ट्रवादी नजरिए को जिसमें हिंदू, अपने शत्रु के साथ, भारतीय जाना जाए, वाली मानसिकता को आपराधिक माना। उन्होंने लिखा था ‘‘अपने दुश्मन को दोस्त मान हम अपने-आप से छलावा कर रहे हैं; आज यही सबसे बड़ा खतरा है कि हम पुराने को भुलाकर उसे मित्र मान रहे हैं’’।
मुस्लिम व अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को गोलवलकर ने सलाह दी थीं-’’गैर हिंदू लोगों को हिंदुस्तान में हिंदू रीति-रिवाज़, भाषा सबको सीखना चाहिए व आदर करना चाहिए। इस भूमि के लिए अपने असहनीय व अविवेकशील नजरिए को त्याग इसकी प्राचीन परंपरा को प्रेम व समर्पण के साथ सकारात्मक ढंग से अपनाएं। एक शब्द में कहें तो अपने आप को विदेशी कहना बंद करें व बिना किसी दावे से हिंदू राष्ट्र में रहें एवं उनके लिए ना कोई सुविधा हो, ना नागरिकता हो, ना ही नागरिक अधिकार हों।‘‘
1946-47 में आर. एस. एस. ने कांग्रेस नेताओं पर और आक्रामक आंदोलन शुरू किए। उत्तेजित तरीके से कांग्रेस नेताओं को दोषी ठहराया गया जब उन्होंने हिंदूओं से कहा ‘‘विनम्रता से अपने आप को मुस्लिमों के हवाले करो’’ व हिंदूओं से ऐसा कहना कि ‘‘वे अल्पमति हैं, उनमें कोई जान व ताकत नहीं है कि वे अपनी मातृभूमि के लिए लड़ें, व उनमें मुस्लिमों का खून चढ़ाना पडे़गा। ‘‘1947 में गाँधीजी की तरफ इशारा कर के कहा कि जो घोषणा करते हैं ‘हिंदू-मुस्लिम एकता के बिना स्वराज नहीं है, वे हमारे समाज के सबसे बडे़ं अपराधी व देशद्रोही हैं, हमारे महान पूर्वजों की भावनाओं को ठेस पहुँचाकर उन्होंने घृणित पाप किया है।‘‘
‘‘हिंदू-मुस्लिम एकता के बिना स्वराज नहीं ‘‘की गाँधीजी की घोषणा पर दोष लगाते हुए उन्होंने कहा कि सीधे तरीके से कहा जा रहा है कि एकता तब ही है जब हिंदू भी मुस्लिम बन जाएं‘‘। हिंदू सांप्रदायिकता ने भी ‘हिंदुत्व खतरे में‘ की घोषणा की।
19 वीं सदी के अंत से हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता द्वारा डर व नफरत की कड़वाहट फैलायी गई। इसका दुःखद परिणाम तब आया जब अगस्त 1946 में कलकत्ता में हत्याएँ हुईं जिसमे मात्र पांच दिन में 5000 लोगों की जान चली गई, नो आखली, बंगाल में हिंदुओं व बिहार में मुस्लिमों का नरसंहार, गाँधीजी की हत्या व बँटवारे के दंगे हुए।
4.3 स्वतंत्र पाकिस्तान में मुस्लिम
1947 के बाद सबसे ज्यादा कीमत मुस्लिमों को चुकानी पड़ी जो या तो पाकिस्तान चले गए थे या वहीं रहे थे। एक बार पाकिस्तान बन गया तो जिन्ना को आशा था कि वे उदारवाद सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता की तरफ मुड़ जाएंगे। पाकिस्तान के लोगों को संबोधित करते हुए जिन्ना ने पाकिस्तान की संविधान सभा में 11 अगस्त 1947 को अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा ‘‘आप किसी भी धर्म या जाति के हों उससे राष्ट्र को कोई लेना देना नहीं हैं; आधारभूत सिद्धांत से शुरू करते हुए हम सभी रहवासी एक राष्ट्र के लिए एक समान हैं अब मुझे लगता है कि हमें अपने मुख्य उद्देश्य को आगे रखना चाहिए जिसमें राजनीतिक रूप में कोई हिंदू-मुस्लिम नहीं हैं, अपना अपना धर्म सबके लिए है पर राष्ट्र में, राजनीति में वह केवल नागरिक हैं।’’
परंतु बहुत देर हो चुकी थी। जिन्ना के बनाए दानव ने ना सिर्फ भारत का बँटवारा किया बल्कि समय के साथ उनके ही पाकिस्तान के विचार को खा गया, व सबसे धर्मनिरपेक्ष आदमी ने जैसा कभी सोचा भी ना होगा इस तरह पाकिस्तान के मुस्लिम परेशान हुए। दूसरी तरफ 1947 के खूनी दगों के बाद भी राष्ट्रवादी भारत धर्मनिरपेक्ष संविधान का निर्माण करने में सफल रहा, चाहे उसकी जो भी कमजोरियाँ इस मायने में रहीं।
दूसरे शब्दों में विचारधाराओं के नतीजे होते हैं।
5.0 पाकिस्तान के निर्माण संबंधी प्रश्न
क्या सांप्रदायिक समस्या खत्म हो जाती या सुलझ पाती अगर 1937-39 के दौरान जिन्ना सहयोगात्मक रूख अपनाते, या खासतौर पर 1937 में यू.पी. में सरकार मुस्लिम लीग के साथ गठजोड़ करती?
जिन्ना की राजनीतिक आकांक्षा की उपेक्षा ने उन्हें दुखी व अलगाववादी बना दिया था। सबसे पहले इस तर्क को देखा जाए कि उपेक्षित होने से पहले से ही जिन्ना पूर्णतः उदारवादी सांप्रदायिक थे। दूसरा, 1937 से 1939 तक कांग्रेस नेताओं ने जिन्ना को मनाने व समझौता करने की बहुत कोशिश की परंतु जिन्ना सांप्रदायिकता के तर्कों में फंस चुके थे। उनके पास कोई बातचीत करने योग्य माँग या तर्कसंगत विचार नहीं बचा था। एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य यह है कि उन्होंने कांग्रेस नेताओं को अपनी वो माँगें बताने से इंकार कर दिया था जिसकी पूर्ति होने पर वह कांग्रेस का साथ दे सकते थे। समझौता वार्ता शुरू करने के लिए भी उन्होंने एक असाधारण शर्त रखी कि कांग्रेस नेतृत्व धर्मनिरपेक्षता छोड़ हिंदू सांप्रदायिकता को अपनाए और मुस्लिम लीग को मुस्लिम नेतृत्व के एकमात्र चिन्ह़ तहत् लिया जाए। कांग्रेस ने उनकी यह माँग नहीं मानी। राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कांग्रेस द्वारा हिंदुत्व अपनाना ‘‘अपने भूत को भूलाना, इतिहास को गलत साबित करना और भविष्य के साथ विश्वासघात करना होगा’’।
इन्हीं सबमें जिन्ना अपने विचारों व राजनीतिक तर्कों का अनुसरण कर रहे थे, परंतु यह अवधारणा लंबे समय तक नहीं टिक सकी। सांप्रदायिक विचारों के पूर्ण मूर्त रूप ले लेने के बाद अलगाव वाद ही निश्चित तौर पर पाकिस्तान के लिए प्रेरणा था। इसका विकल्प सांप्रदायिक राजनीति को समाप्त करना होता इसलिए जिन्ना और मुस्लिम लीग ने 1940 के आरंभ में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया और हिंदू मुस्लिम अलग-अलग राष्ट्र के सिद्धांत पर ‘पाकिस्तान’ की माँग आगे बढ़ाई। हिंदू सांप्रदायिकता भी इसी राह पर आगे बढ़ रही थी।
इनका अलगाववाद भारत को हिंदुस्तान के तौर पर माँग नहीं कर रहा था- क्योंकि यह मुस्लिम संप्रदाय का तर्क था, इसलिए वे जोर शोर से यही दृढ़तापूर्वक कह रहे थे कि भारत हिंदूओं का राष्ट्र है, इसलिए मुस्लिम या तो भारत से चले जाएं या द्वितीय श्रेणी नागरिक की तरह रहें।
1937 में कुछ इस तरह का मामला यू.पी. में उठा। जिन्ना और लीग जन राजनीति के घोर विरोधी थे। उनसे हाथ मिलाने का अर्थ था संवैधानिक राजनीति में जुड़ता जिसमें जनता का महत्व तुच्छ हो। मंत्रियों के समझौतों से बहुत पहले ही जिन्ना ने घोषणा की थी कि भारत में मुस्लिम तृतीय पार्टी के रूप में होगी जो ब्रिटिश व भारतीय राष्ट्रवाद जिसका प्रतिनिधित्व कांग्रेस कर रही थी से अलग होगी। एस.गोपाल ने कहा था, ‘‘लीग के साथ कोई भी गठबंधन यह दर्शाता कि कांग्रेस का एक हिंदू मानस है, व कांग्रेस सभी भारतीयों के लिए बोल सकने का अधिकार खो देती।‘‘
राष्ट्रवादी मुस्लिम, जो धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए दृढ़ थे व उग्रवादी सांप्रदायिकता में सांप्रदायिक तर्क पर विश्वासघात झेल रहे थे। उनके लिए इसका अर्थ होता गद्दारी। और तो और, इसका अर्थ ये भी होता कि 1936 में फैज़पुर में कांग्रेस द्वारा अपनाये गये क्रांतिकारी कृषि कार्यक्रम को त्यागना जिसे कांग्रेस मंत्रालय समर्थन देता था। ऐसा इसलिए होता क्योंकि मुस्लिम लीग ज़मीदारों के हित के प्रति दृढ़संकल्प रखता था। उस समय यू.पी. कांग्रेस में कांग्रेस समाजवादी व साम्यवादी बहुत महत्वपूर्ण थे जिन्होंने नेहरू पर लीग के साथ कोई भी गठबंधन नहीं करने का दबाव डाला और धमकी दी की नहीं तो जन आंदोलन करेंगे। मई 1937 में यूपी में चुनाव के दौरान कांग्रेस प्रत्याशियों के खिलाफ लीग ने ‘इस्लाम खतरे में’ आंदोलन शुरू किया। जिन्ना ने खुद अल्लाह व कुरान के नाम पर वोट माँगे।
यदि नेता उग्रवादी सांप्रदायिक या अलगाववादी बन जाता है क्योंकि पार्टी मंत्रालय में उसे दो सीट नहीं दी जाती, तो एक नयी मांगों का दौर शुरू हो जाता है। सांप्रदायिकता जैसी विचारधारा को संतुष्ट नहीं किया जा सकता। उसका केवल विरोध हो सकता है। कांग्रेस व राष्ट्रवादी आंदोलनों की यह सबसे बड़ी विफलता थी। दिलचस्प यह था कि 1942 से 1946 तक साम्यवादी मुस्लिम लीग का समर्थन इस आशा में कर रहे थे कि ऐसे में उसके अच्छे लोग दूर हो जाएं। वे सिर्फ विफल ही नहीं हुए बल्कि अपने कुछ अच्छे नेताओं को मुस्लिम सांप्रदायिक में शामिल होते देखा। यह गठबंधन का प्रयास एकतरफा हो गया था जिसे साम्यवादियों के विवेक ने 1946 में दूर किया। कांग्रेस नेताओं कि गलत धारणा थी कि उदारवादी सांप्रदायिक मान जाएंगे व उग्रवादी सांप्रदायिक के खिलाफ लड़ेंगे, जो राष्ट्र के खिलाफ था। 1937 के बाद राष्ट्रवादी हिन्दू और मुस्लिम दोनों, सांप्रदायिकता के घोर विरोधी थे। उदारवादी सांप्रदायिक जैसे मालवीय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और एन.सी. चटर्जी सावरकर या आर. एस. एस. का विरोध करने में विफल थे। इसी तरह उदारवादी इकबाल या अन्य जिन्ना, सुलेरी, फज़्ल उलहक के नफरत आंदोलन के खिलाफ साहस नहीं कर सके। वे उनसे जुड़े भी नहीं पर शांत रहे।
क्या कांग्रेस द्वारा स्वतंत्र पाकिस्तान को स्वीकार करना सांप्रदायिकता के पक्ष में बड़ी विफलता थी? क्या कोई और विकल्प था?
यह सही नहीं है कि 1947 में देश के बँटवारे को सांप्रदायिकता के पैमाने में कांग्रेस की विफलता माना जाए। उस समय और कोई विकल्प नहीं था। सांप्रदायिकता बहुत फैल चुकी थी। सांप्रदायिक समस्या का कोई हल नहीं बचा था। या तो राष्ट्रीय नेतृत्व राष्ट्र को गृह युद्ध में डूबते हुए देखता जब सैन्य बल विदेशी शासक के हाथ में था और वह खुद गृह युद्ध में शामिल होना चाहते थे।
तथ्य यह है कि किसी भी ऐतिहासिक समस्या का हल तुरंत नहीं निकलता। निश्चित ही 1947 में कोई और उपाय नहीं था। सांप्रदायिकता जैसी सामाजिक राजनीतिक समस्या का तुरंत हल नहीं होता। दशकों तक नियमों व बलों के हिसाब से हल निकाला जाता है। यही वह कुछ था जो कांग्रेस व राष्ट्रवादी आंदोलन करने में असफल रहे थे। धर्मरिपेक्षता के बावजूद, गाँधीजी द्वारा हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर दिये जाने के बावजूद, नेहरूजी के सांप्रदायिकता पर सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण के बावजूद, भारतीय राष्ट्रवादियों के विचार सांप्रदायिता को कुचलने में असफल रहे। कांग्रेस सांप्रदायिक नेताओं के साथ समझौतों में इतनी उलझी हुई थी कि सांप्रदायिक लड़ाई को रोकने के लिए कोई लंबी योजना राजनीतिक, वैचारिक व सांस्कृतिक रूप से नहीं बना पाई। कांग्रेस और उसका नेतृत्व इस हिसाब से दोषी कहा जा सकता था।
COMMENTS