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सविनय अवज्ञा आंदोलन
1.0 प्रस्तावना
कांग्रेस द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन को एक नई चेतना व नई दिशा मिली जब नवंबर 1927 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय संविधान में सुधार हेतु भारतीय वैधानिक आयोग का गठन किया, जिसे उसके अध्यक्ष साइमन के नाम पर ‘साइमन कमीशन‘ कहा गया।
2.0 साइमन कमीशन
भारत सरकार अधिनियम 1919 के अंतर्गत भारतीय प्रांतों पर शासन के लिए द्वैध शासन प्रणाली लागू की गई। इसके अनुसार इस अधिनियम के लागू होने के दस वर्षों बाद एक आयोग का गठन किया जाना था जो इस अधिनियम के अंतर्गत अब तक हुई प्रगति का आकलन करते हुए अगले सुधारों की योजना बनाएगा। मगर तय समय से पहले ही मार्च 1927 में ब्रिटिश सरकार ने इस हेतु एक संवैधानिक आयोग के गठन के निर्णय की आधिकारिक घोषणा कर दी। इस आयोग की संरचना और जनादेश नवंबर 1927 में घोषित किए गए। इस आयोग में सात सदस्य थे जो ब्रिटिश संसद के तीन प्रमुख दलों से चुने गए थे और सर जॉन साइमन इस आयोग के अध्यक्ष थे।
इस घोषणा का समूचे भारत में जबर्दस्त विरोध हुआ। भारतीयों में सबसे ज्यादा रोष इस बात को लेकर था कि आयोग में किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया था और उसके पीछे छुपी धारणा कि चंद विदेशी मिलकर यह तय करेंगे कि भारत स्वयं अपना शासन चलाने योग्य है कि नहीं। दूसरे शब्दों में, ब्रिटिश सरकार के इस कदम को आत्मनिर्णय के नियम के उल्लंघन के रूप में और भारतीयों के जानबूझकर किए गए अपमान के रूप में देखा गया। 1927 में मद्रास में हुई कांग्रेस की सभा में जो डॉ. अंसारी की अध्यक्षता में हुई, यह निर्णय लिया गया कि कांग्रेस ‘‘हर तरह से और हर कदम पर‘‘ इस कमीशन का बहिष्कार करेगी। मुस्लिम लीग में इस मुद्दे पर प्रतिक्रिया को लेकर मतभेद थे। पहला समूह जो मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में काम कर रहा था, वह कमीशन के बहिष्कार के पक्ष में था मगर मोहम्मद शफी के नेतृत्व वाला दूसरा समूह सरकार के समर्थन में था। 1927 में मुस्लिम लीग की दो सभाएं एक साथ हुईं। एक सभा कलकत्ता में हुई जिसका नेतृत्व जिन्ना ने किया और दूसरी सभा लाहौर में हुई जो शफी के नेतृत्व में हुई। हिंदू महासभा ने भी इस मुद्दे पर कांग्रेस का समर्थन करने का निर्णय लिया। दूसरे शब्दों में साइमन कमीशन के विरोध के लिए, कुछ समय के लिए ही सही, देश के सभी दल (मुस्लिम लीग के शफ़ी के अलावा) एक साथ आ खड़े हुए थे।
सभी प्रमुख नेताओं और दलों ने भी साइमन कमीशन की चुनौतियों का सामना करने के लिए एकजुट होने का निर्णय लिया और स्वयं संवैधानिक सुधार के लिए कोई दूसरी योजना बनाने का प्रयास किया। इस संबंध में अनेकों सभाएं हुईं जिसमें सभी नेताओं और दलों ने सहभाग किया। और इसके परिणाम के रूप में अगस्त 1928 में सामने आई ‘नेहरु रिपोर्ट जिसका नामकरण इसके प्रमुख निर्माता मोतीलाल नेहरू के नाम पर ही किया गया था। दुर्भाग्यवश दिसंबर 1928 में कलकत्ता में हुए सर्वदलीय सम्मेलन में कुछ साम्प्रदायिक विचारों के सदस्यों द्वारा आपत्ति दर्ज कराए जाने के कारण यह रिपोर्ट सर्वदलीय सभा में पारित न हो सकी।
2.1 जिन्ना के 14 सूत्र
1929 में दिल्ली में हुई मुस्लिम लीग की सभा में जिन्ना ने नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकृत करते हुए मुस्लिम समुदाय के हितों और सुरक्षा हेतु एक सशक्त आंदोलन की मांग की। उन्होंने इस संबंध में अपने प्रसिद्ध 14 सूत्र भी सामने रखे जिनमें अन्य मुद्दों के अलावा मुस्लिमों के लिए पृथक निर्वाचन व्यवस्था, मुस्लिमों के लिए प्रांतीय विधानसभा में स्थान आरक्षित करना, आदि मांगें भी शामिल थीं।
जिन्ना के 14 सूत्र निम्न थे :
- भारत का भविष्य का संवैधानिक ढांचा संघीय होना चाहिए।
- सभी प्रांतों में स्वायत्तता की परिभाषा समान होनी चाहिए।
- हर प्रांत में अल्पसंख्यक समुदाय का प्रभावी प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
- केन्द्रीय विधानमंडल में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व एक तिहाई से कम नहीं होना चाहिए।
- सांप्रदायिक समूहों के प्रतिनिधियों को पृथक चुनाव द्वारा चुना जाए, जैसा आज किया जाता है।
- पंजाब, बंगाल और उत्तर पश्चिम सीमांत क्षेत्र में होने वाले प्रादेशिक पुनर्गठन से किसी भी तरह से मुस्लिम प्रभावित नहीं होने चाहिए।
- सभी समुदायों को पूर्ण धार्मिक और राजनीतिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए।
- ऐसा कोई भी अधिनियम पारित नहीं होना चाहिए जिससे अल्पसंख्यक समुदाय के हितों को खतरा पहुंचे।
- सिंध का क्षेत्र बॉम्बे प्रेसिडेन्सी से अलग किया जाना चाहिए।
- सुधारों की योजना को उत्तर पूर्वी सीमा के प्रांतों से लेकर बलूचिस्तान तक हर प्रांत में एक समान लागू किया जाना चाहिए।
- मुस्लिमों को सरकारी सेवाओं में और स्वयंशासी निकायों में पर्याप्त हिस्सा मिलना चाहिए।
- संविधान में ऐसे प्रावधानों को शामिल किया जाना चाहिए जिनसे मुस्लिम संस्कृति और शिक्षा की सुरक्षा हो सके।
- सभी प्रांतीय और केन्द्रीय विधान मंडल में मुस्लिम व्यक्तियों की कम से कम एक तिहाई भागीदारी होनी चाहिए।
- संविधान में कोई भी परिवर्तन प्रांतीय विधान मंडल की रजामंदी से ही किया जाना चाहिए।
यहां ध्यान देना चाहिए कि राष्ट्रवादियों की राजनीति और साम्प्रदायिक दलों की राजनीति में आधारभूत अंतर था। राष्ट्रवादी जहां मिली-जुली सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करके देश के लिए स्वतंत्रता और राजनीतिक अधिकारों की मांग कर रहे थे वहीं साम्प्रदायिक दल-चाहे हिंदू हो या मुस्लिम-एक ओर तो अपनी राय को राष्ट्रवादियों पर थोपना चाहते थे और दूसरी ओर वे विदेशी सरकार से अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए सहयोग चाहते थे। वे लगातार कांग्रेस के विरुद्ध संघर्ष करते रहे और सरकार का सहयोग करते रहे।
2.2 विरोध प्रदर्शन
सर्वदलीय सभा से भी खास और महत्वपूर्ण वह आंदोलन था जो साइमन कमीशन के विरोध में उठ खडा हुआ था। साइमन कमीशन के भारत में आते ही उसे कड़े विरोध का सामना करना पडा और इस विरोध के लिए राष्ट्रवादी दलों की एकजुटता को एक नया आयाम मिला।
3 फरवरी को साइमन कमीशन बंबई पहुंचा। उस दिन एक देशव्यापी हड़ताल की घोषणा की गई। यह कमीशन जहां कहीं गया उसका हड़ताल और काले झंडों से स्वागत हुआ और ‘साइमन वापस जाओ’ के नारे लगाए गए। इस विरोध को कुचलने के लिए सरकार ने क्रूरतापूर्ण कदम उठाते हुए पुलिस आक्रमण द्वारा विरोधियों को काबू में करने का प्रयास किया।
साइमन कमीशन की खिलाफत में किया गया विरोध उस समय किसी बडे राजनैतिक आंदोलन का रूप न ले सका क्योंकि गांधी जो इस राष्ट्रीय आंदोलन के अघोषित मगर निर्विवाद नेता थे वे इस बात से सहमत नहीं थे कि वास्तविक संघर्ष का समय आ गया है। मगर सारा देश संघर्ष के लिए तैयार हो चुका था और अब इस उत्साह को अधिक समय तक रोक पाना संभव नहीं था।
2.3 पूर्ण स्वराज्य
राष्ट्रीय कांग्रेस ने जल्दी ही एक नया रुख ले लिया। गांधी सक्रिय राजनीति में लौट आए और उन्होंने दिसंबर 1928 में कलकत्ता अधिवेशन में हिस्सा लिया। उन्होंने अब राष्ट्रवादियों की एकजुटता की ओर ध्यान दिया। पहला कदम था कांग्रेस के चरमपंथियों से संधि करना। 1929 में लाहौर अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। इस निर्णय का एक रुमानी पक्ष भी था। पुत्र ने पिता की गद्दी हासिल की थी (मोतीलाल नेहरु 1928 तक कांग्रेस के अध्यक्ष थे) और राष्ट्रवादी आंदोलन का आधिकारिक नेता बना था, जिसने आधुनिक इतिहास में पारिवारिक विजय की शुरूआत की।
लाहौर अधिवेशन ने कांग्रेस की उग्रवादी भावना को नई आवाज़ दी। इस सभा में यह संकल्प लिया गया कि अब पूर्ण स्वराज्य ही कांग्रेस का एकमात्र ध्येय होगा। 31 दिसंबर 1928 को स्वतंत्र भारत के ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया तिरंगा लहराकर स्वराज्य की घोषणा की गई! 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाना तय किया गया जिसे हर वर्ष मनाना प्रस्तावित था और जिसमें सब व्यक्ति यह शपथ लेंगे कि अब और अधिक समय तक ब्रिटिश शासन के नियम-कानून को मानना मानवता और ईश्वर के प्रति अपराध होगा। कांग्रेस के इस अधिवेशन में सविनय अवज्ञा आंदोलन को प्रारंभ करने की घोषणा भी की गई मगर इसके मार्गनिर्धारण का निर्णय गांधी पर छोड दिया गया था और कांग्रेस ने उनके दिखाए गए मार्ग पर चलने का निर्णय लिया। एक बार फिर सरकार के विरोध में राष्ट्रव्यापी आंदोलन गांधी के नेतृत्व में शुरु हुआ। सारे देश में पुनः उत्साह की, स्वतंत्र होने की अभिलाषा जाग उठी।
3.0 सविनय अवज्ञा आंदोलन और नमक सत्याग्रह
भारत को अंग्रेज़ों की दासता से मुक्त करवाने के लिए महात्मा गांधी ने 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन को आगे बढाते हुए अंग्रेजों द्वारा नमक बनाने पर लागू किए गए प्रतिबंध के विरोध में एक शांति यात्रा निकालने का प्रस्ताव रखा। नमक कानून के अनुसार अंग्रेजों के अलावा कोई भी नमक बना या बेच नहीं सकता था। चूंकि नमक सब के आहार का आवश्यक अंग था अतः इसका प्रभाव सभी पर पड़ा। नमक कानून के अनुसार समुद्र के किनारे से नमक एकत्रित करने और बेचने पर भी प्रतिबंध लगाया गया। सामान्य लोगों के लिए नमक खरीदना कठिन था।
साबरमती से दांडी तक की 240 मील की पदयात्र से पहले गांधी ने वाइसराय को सविनय अवज्ञा आंदोलन की अपनी योजना की जानकारी देते हुए एक चेतावनी पत्र लिखाः
‘‘यदि मेरे इस पत्र से आपका हृदय आंदोलित नहीं होता है, आपके विचार नहीं बदलते हैं तो मैं इस माह की ग्यारह तारीख को आश्रम के जितने कार्यकर्ताओं को साथ ले सकूं, उन्हें लेकर नमक कानून तोड़ने के लिए चल पडूंगा। मेरे विचार से नमक पर लिया जा रहा यह कर गरीबों के लिए सबसे बडा अन्याय है। जैसे कि स्पष्ट है कि स्वतंत्रता आंदोलन मुख्यतः देश के गरीबों के लिए ही छेड़ा जा रहा है तो इस आंदोलन की शुरुआत ‘नमक कर’ नामक इस बुराई के विरोध से ही की जाएगी।’’
12 मार्च 1930 को प्रसिद्ध दांड़ी यात्रा के साथ गांधी का सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ हुआ। 78 चुने हुए अनुयायियों के साथ गांधीजी ने साबरमती आश्रम से गुजरात के तटीय गांव दांड़ी तक 375 कि.मी. की यात्रा आरंभ की। दिनोंदिन समाचार पत्रों में इस यात्रा की प्रगति, इसमें दिए जा रहे उद्बोधन और लोगों पर इसके प्रभाव की खबरें छपने लगीं। इस मार्ग के गांवों में रहने वाले हजारों लोगों ने अपने सरकारी पदों से इस्तीफा दे दिया।
5 अप्रैल 1930 को गांधी और उनके सत्याग्रही दांड़ी के तट पर पहुंचे। वहां प्रार्थना के बाद गांधी ने उपस्थित जनता को संबोधित किया। उन्होंने चुटकी भर नमक उठाकर नमक कानून को तोडा। उनकी देखादेखी हजारों व्यक्तियों ने समूचे तट पर नमक की डलियों को उठाकर सामूहिक रूप से नमक कानून को तोड़ा। इसके एक महीने बाद गांधी को गिरफ्तार कर लिया गया और उस जेल में ठूंस दिया गया जो पहले से ही उनके अनुयायियों से भरी हुई थी।
नमक सत्याग्रह देश भर में एक बडे आंदोलन के रूप में बदल गया और इसके परिणामस्वरूप अंग्रेजों की कई दुकाने और मिलें बंद हो गईं। धरशना तक निकाली गई पदयात्रा में भारी हिंसा हुई। अहिंसक रूप से आंदोलन करने की मंशा लिए ये सत्याग्रही स्वयं को पुलिस सिपाहियों से बचा न सके और बहुत से लोग मारे गए। गांधी ने घोषणा की :
‘‘अंग्रेजी शासन ने इस देश को आर्थिक, नैतिक, भौतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पतन की खाई में धकेल दिया है। मैं इस शासन को देश के लिए अभिशाप मानता हूं। मैं इस शासन को नष्ट करने के लिए कटिबद्ध हूं। राजद्रोह ही मेरा धर्म है। हमारा आंदोलन अहिंसक आंदोलन है और हम किसी को नुकसान पहुंचाए बिना इस शासन रूपी अभिशाप को जड़ से उखाडे़ंगे, यही हमारा धर्म है।’’
यह आंदोलन तेजी से देश भर में फैलता गया। नमक कानून के बाद महाराष्ट्र, कर्नाटक और केन्द्रीय प्रांतों में जंगल कानून तोडने के रूप में और पूर्वी प्रदेशों में ग्रामीण क्षेत्रों में चौकीदारी कर के विरोध के रूप जगह-जगह यह आंदोलन प्रसारित होता गया। देश में हरेक स्थान पर लोगों ने हडताल, प्रदर्शन, विभिन्न करों के विरोध और विदेशी सामान के बहिष्कार के रूप में इस आंदोलन में हिस्सा लिया। लाखों लोगों ने सत्याग्रह में भाग लिया, अनेक स्थानों पर किसानों ने जमीन पर लगाया हुआ कर देने से इन्कार कर दिया और अपनी ज़मीनों पर कब्जा कर लिया। इस आंदोलन की उल्लेखनीय बात थी इसमें महिलाओं की भागीदारी। महिलाओं ने अपने घर की दहलीज को छोडकर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सत्याग्रह में भाग लिया। हजारों की संख्या में स्त्रियां सडकों पर उतरीं और उन्होंने विदेशी शराब और सामान की दुकानों पर धरना देने का काम सक्रियता से किया।
यह आंदोलन बढ़ते-बढ़ते उत्तरी-पश्चिम क्षेत्र तक पहुंच गया और वहां रहने वाले पठानों के मन भी देशप्रेम से उद्वेलित हो गए। खान अब्दुल गफार खान, जिन्हें फ्रंट्रियर गांधी कहा जाता था, के नेतृत्व में पठानों ने खुदाई खिदमतगार नामक एक संस्था का गठन किया जिसे लाल कमीज (रेड शर्ट) के रूप में जाना गया। इन्होंने अहिंसक रहकर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने की शपथ ली। इसी तरह का दूसरा उल्लेखनीय आंदोलन पेशावर में शुरु हुआ जब सेना की एक टुकडी ने सत्याग्रहियों को कुचलने के लिए हथियारों का प्रयोग करने से मना कर दिया जबकि वे जानते थे कि इसके परिणामस्वरूप उन्हें अदालत का सामना करना पड सकता है और लंबे कारावास की सजा भी भुगतनी पड़ सकती है। इस घटना ने यह सिद्ध कर दिया कि ब्रिटिश शासन के प्रमुख औजार अर्थात भारतीय सेना में भी राष्ट्रीयता की भावना जन्म ले चुकी थी।
इस आंदोलन की गूंज भारत के पूर्वी हिस्से में भी सुनाई देने लगी। मणिपुरियों ने इसमें बहादुरी से हिस्सा लिया और नागालैंड में रानी गाइड़िल्यु ने 13 वर्ष की आयु में ही गांधी और कांग्रेस के आह्वान पर अंग्रेजी शासन के खिलाफ बगावत का झंडा लहरा दिया। 1932 में युवा रानी को उम्र कैद की सजा दी गई। उसने अपने जीवन के सुंदर वर्ष आसाम की जेलों में बिताए और 1947 में भारत स्वतंत्र होने के बाद ही उन्हें जेल से बाहर निकाला गया।
जवाहर लाल नेहरू ने 1937 में लिखा थाः ‘‘एक दिन आएगा जब भारत उसके बलिदान के लिए उसे याद रखेगा और संजोएगा।’’
3.1 ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया
इस आंदोलन के प्रति सरकार की प्रतिक्रिया पहले के समान ही थी- किसी भी तरह से इस आंदोलन को कुचला जाए चाहे इसके लिए निरपराध निहत्थे लोगों पर लाठियां चलानी पडे़, या गोलियां चलानी पडे़। लगभग 90,000 सत्याग्रहियों को जिनमें गांधी और कांग्रेस के कई अन्य नेता भी शामिल थे, जेल में ठूंस दिया गया। कांग्रेस के गठन को अवैध घोषित करते हुए राष्ट्रवादी प्रेस को पूर्णतः शासन के नियंत्रण में ले लिया गया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार पुलिस की फायरिंग में 110 लोग मारे गए थे और 300 लोग घायल हुए मगर वास्तविक संख्या इन आंकड़ों से बहुत ऊपर थी। इसके अलावा पुलिस द्वारा लिए गए लाठी चार्ज में हजारों लोग अपनी हड्ड़ियां तुड़वा चुके थे, व हजारों के सिर फूट चुके थे। भारत के दक्षिणी प्रदेश में अंग्रेज़ों का दमन विकराल रूप ले चुका था। यहां किसी व्यक्ति को खादी पहनने या गांधी टोपी सिर पर लगाने पर भी पुलिसवाले बेरहमी से पीटते थे।
3.2 गोलमेज सम्मेलन
उसी समय अंग्रेज सरकार ने साइमन कमीशन की रिपोर्ट पर चर्चा करने के लिए भारत के नेताओं और शासन के प्रवक्ताओं की एक सभा 1930 में लंदन में, पहली गोलमेज सभा, आयोजित की। मगर कांग्रेस ने इसका पूर्ण बहिष्कार किया और यह सभा विफल हुई।
सरकार अब इस प्रयास में लग गई कि किसी तरह से बातचीत द्वारा कांग्रेस को मनाया जाए ताकि वे इस सभा में भाग लेने के लिए राजी हो जाए। आखिरकार, लॉर्ड इरविन और गांधी के मध्य मार्च 1931 में एक समझौता हुआ जिसके अनुसार शासन नमक आंदोलन और विदेशी वस्त्र और मदिरा के बहिष्कार आंदोलन में पकड़े गए सभी अहिंसक सत्याग्रहियों को जेल से रिहा करेगी और इसके बदले में कांग्रेस अपना आंदोलन स्थगित करके गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी। कांग्रेस के अधिकतर युवा कार्यकर्ता, विशेषकर वाम पंथी सोच वाले युवा गांधी-इरविन समझौते से खुश नहीं थे। उनके अनुसार सरकार ने उनकी प्रमुख मांगों को नहीं माना था जिनमें भगत सिंह की फांसी को रोकना और उनके दो साथियों की उम्रकैद की सजा वापस लेना भी शामिल था। आज तक गांधी द्वारा किया गया यह समझौता और सविनय अवज्ञा आंदोलन अचानक रोक देने का यह निर्णय विवाद का विषय है।
मगर गांधी ब्रिटिश शासन और लॉर्ड इरविन की नीयत के प्रति आश्वस्त थे और उनका यह भी मानना था कि सत्याग्रह का एक अर्थ विरोधी को हृदय परिवर्तन का हर अवसर देना भी है। वे यह भी मानते थे कि कोई भी जन आंदोलन अधिक समय तक नहीं खिंचना चाहिए, क्योंकि लोगों की सहयोग करने, और सब कुछ अर्पण करने की क्षमता अधिक समय तक कायम नहीं रखी जा सकती। इसके अलावा वे यह भी सोचते थे कि जन समूह के साथ कानून के खिलाफ जाकर किया गया आंदोलन थोडे समय का ही होना चाहिए और उसके बाद शांति का काल आवश्यक है जबकि राजनैतिक आंदोलन नियमों की चारदीवारी में कितने ही समय तक चलाया जा सकता है। यूं भी गांधी सरकार के साथ बराबरी की शर्तों पर समझौता कर चुके थे और उनके इस एक कदम ने कांग्रेस को शासन के बराबर ला खड़ा किया था। अतः उन्होंने कांग्रेस के कराची सभा में इस अनुबंध को स्वीकृत करने पर राजी कर लिया।
दूसरा गोलमेज सम्मेलन लंदन में सितंबर 1931 में हुआ। गांधी सरोजिनी नायडू, मदन मोहन मालवीय, महादेव देसाई और जी.डी.बिरला के साथ लंदन गए। वहां उन्होंने भारत को तत्काल औपनिवेशिक राष्ट्र घोषित करने के लिए तत्काल स्वीकृति की मांग की जिसे अस्वीकृत कर दिया गया और इस तरह यह गोलमेज सम्मेलन असफल हो गया। इस सम्मेलन के बाद गांधी ने अनुभव किया कि अंग्रेज अपनी नीति ‘फूट डालो और शासन करो’ के तहत ही नया संविधान लाना चाहते हैं। वहां से लौटकर 1932 में उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन पुनः जारी रखने का निर्णय लिया।
सविनय अवज्ञा आंदोलन के पुनः प्रारंभ होते ही शासन ने इसके दमन हेतु कठोर से कठोर कदम उठाने का निर्णय लिया। नए वायसराय लॉर्ड विलिंगडन ने इसके दमन हेतु कमर कस ली। कांग्रेस को पूरी तरह से अवैध संस्था घोषित किया गया और सत्याग्रहियों को गिरफ्तार करने के लिए विशेष सैन्य बलों की नियुक्ति की गई। 1932 में गांधी और अन्य कांग्रेस के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और लगभग 1 लाख सत्याग्रहियों को जेल में डाला गया। कई लोगों की संपत्ति को सरकार ने जब्त कर लिया।
3.3 सांप्रदायिक अवॉर्ड और पूना समझौता
अगस्त 1932 में ब्रिटिश शासन ने सांप्रदायिक अवॉर्ड की घोषणा की जिसके अनुसार मुस्लिम, सिख और अन्य पिछडी जाति के लोगों के लिए पृथक निर्वाचन व्यवस्था का प्रावधान रखा गया। रामसे मैकडोनाल्ड द्वारा सुझाए गए इस अवॉर्ड को गांधी ने हिंदुत्व की हत्या के लिए सोच समझकर लाया गया ‘‘जहर भरा इंजेक्शन कहते हुए स्पष्ट रूप से कहा कि इससे देश का भला नहीं होने वाला है।’’
गांधी ने यह कहते हुए इस अवॉर्ड की खिलाफत की कि इससे हिंदु समाज खंडित हो जाएगा। उन्होंने इसके विरोध में 20 सितंबर 1931 को अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल प्रारंभ कर दी। इस भूख हड़ताल के प्रभावस्वरूप बड़े जन समूह के उठ खडे होने, गांधी का जीवन बचाने और कई हिंदू पुरातनपंथी सोच वाले नेताओं और कांग्रेस के बड़े नेताओं के दबाव के चलते डॉ. अंबेडकर (जो दलितों के नेता थे और गोलमेज सम्मेलन के प्रतिभागी भी रह चुके थे), उन्हें अपना रुख नरम करने पर बाध्य होना पड़ा। इसके परिणामस्वरूप उच्च वर्ग के हिंदू और दलित नेताओं के बीच 24 सितंबर 1932 को एक समझौता हुआ जिसे पूना समझौते के नाम से जाना जाता है। यह समझौता पूना की यरवडा जेल में हुआ जहां महात्मा गांधी भूख हड़ताल पर थे। इस समझौते का मसौदा जनता के सामने 25 सितंबर को लाया गया ‘‘जिसके अनुसार आज के बाद हिंदूओं में किसी को भी किसी जाति विशेष में जन्म लेने के कारण अछूत नहीं कहा जाएगा। हर हिंदू को एक समान अधिकार दिए जाएंगे।’’
इसी समय किसानों में असंतोष व्याप्त होना शुरु हुआ। वे यह महसूस कर रहे थे कि सारी दुनिया में छाई मंदी के कारण कृषि उत्पादों के दाम लगातार घटते जा रहे हैं जबकि उनसे वसूले जा रहे कर में कोई कमी नहीं की जा रही है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस इसके विरोध में खडी हुई और दिसंबर 1931 को कांग्रेस ने ‘ना कर देंगे, ना किराया देंगे’ नामक अभियान शुरु किया। सरकार ने इसका दमन करने के लिए 26 दिसंबर को जवाहरलाल नेहरू को कैद कर लिया। पूर्वी मोर्चे पर खुदाई खिदमतगार पार्टी इस अभियान को संचालित कर रही थी। सरकार ने 24 दिसंबर को उनके नेता अब्दुल गफार खान को गिरफ्तार कर लिया। किसानों का संघर्ष बिहार, आंध्र, यू.पी, बंगाल और पंजाब में भी प्रारंभ हो चुका था, अतः भारत वापस लौटने के बाद गांधी को सविनय अवज्ञा आंदोलन गतिमान रखना ही पड़ा।
3.4 सविनय अवज्ञा आंदोलन का अंत
अंग्रेज़ सरकार के नए वायसराय लॉर्ड विलिंगडन का यह मानना था कि काँग्रेस के साथ युद्धविराम संधि करना सरकार की सबसे बडी भूल थी और इस बार सरकार कोई भी गलती करना नहीं चाहती थी। इस बार वे कांग्रेस का दमन करने के लिए पूर्णतः कटिबद्ध थे। वास्तव में भारत में सरकार ने कभी भी समझौते का या नरम रुख अपनाया ही नहीं। गांधी-इरविन के बीच समझौता होने के तुरंत बाद आंध्र में गोदावरी के तट पर बडा नर संहार हुआ और वह केवल इसलिए कि लोग गांधी का चित्र लहरा रहे थे।
4 जनवरी 1932 को गांधी और कांग्रेस के अन्य नेताओं को कैद कर लिया गया। सामान्य कानून व्यवस्था स्थगित कर दी गई और नियम-कायदे विशेष अध्यादेश के तहत संचालित किए जाने लगे। पुलिस क्रूरता की हद पार करते हुए दमन पर उतर आई और सत्याग्रहियों को जान से मारने लगी। एक लाख से अधिक सत्याग्रही पकडे गए, उनके घर, जमीन और अन्य संपत्तियां जब्त कर ली गईं । राष्ट्रवादी साहित्य लिखना प्रतिबंधित कर दिया गया और राष्ट्रवादी समाचारपत्रों का अभिवेचन (सेंसर) किया जाने लगा।
लोगों की अन्याय सहने की क्षमता असीमित नहीं थी। अखिर में सरकार को सफलता मिली। सांप्रदायिक नेताओं और अन्य नेताओं के आपसी मतभेद और ‘फूट डालो, राज्य करो’ की सरकारी नीति के चलते सविनय अवज्ञा आंदोलन का पूरी तरह दमन कर दिया गया।
काँग्रेस ने अधिकारिक रूप से मई 1933 में इस आंदोलन के निलंबन की घोषणा की और मई 1934 में इसे पूरी तरह वापस ले लिया गया। महात्मा गांधी पुनः सक्रिय राजनीति से पूरी तरह से पृथक हो गए और कई राजनैतिक गतिविधियां अधर में लटक गई। 1933 में सुभाष बोस और विटठ्ल भाई पटेल ने घोषणा की कि ‘‘महात्मा एक राजनेता के रूप में असफल रहे हैं।’’
लॉर्ड विलिंगडन ने भी घोषणा की कि ‘‘कांग्रेस ने 1930 की तुलना में 1932 में जनता का विश्वास खो दिया है और इसकी लोकप्रियता कम हुई है।’’ मगर वास्तव में यह सच नहीं था। यह अभियान सफ़ल भले ही नहीं हो सका मगर इस आंदोलन ने लोगों के मन में राजनैतिक चेतना जगाने और स्वतंत्रता आंदोलन की जड़ें मजबूत करने में खासी भूमिका निभाई थी। ब्रिटिश पत्रकार आर.एस.ब्रेलस्फोर्ड़ के अनुसार ‘‘इस आंदोलन का सबसे बड़ा प्रभाव यह हुआ कि उनके मन स्वतंत्र हुए हैं, उनकी सोच स्वतंत्र हुई है, वे अपने मन में स्वतंत्रता को प्राप्त कर चुके हैं।’’ और इसका सच्चा प्रमाण था इस आंदोलन के कैदियों के 1934 में जेल से रिहा होने पर जनता द्वारा किया गया उनका अभूतपूर्व स्वागत।
- Perhaps the great proponent of non-violence, Khan Abdul Ghaffar Khan (1890–1988) is needed today by the Pakhtuns, who have been victims of extreme violence for the last thirty seven years. He started a secular non-violent movement in 1929 by establishing a movement called 'Khudai Khidmatgaar' (Servants of God). That earned him the title of the 'Frontier Gandhi'. This was a progressive and non-violent movement in a very conservative Islamic and violent Pakhtun society.
- Lovingly called 'Bacha Khan' by his followers, he was close to Mahatma Gandhi and was part of the All India Congress. He did not believe in the communal slogan of having a separate homeland for Indian Muslims. But once Partition became inevitable, he opposed the referendum, which gave the people of North West Frontier Province (NWFP, now known as Khyber Pakhtunkhwa) two options: they could either join India or they could join Pakistan.
- Ghaffar Khan and his brother Khan Sahib, then Chief Minister of NWFP, wanted the referendum to include a third option of an autonomous Pakhtunistan after the withdrawal of the British. But their demands were not agreed upon — they encouraged the big Khans to join hands with the mullahs of NWFP and support All-India Muslim League. A Cunningham policy note of 23 September, 1942 reads: “Continuously preach the danger to Muslims of connivance with the revolutionary Hindu body. Most tribesmen seem to respond to this.” In another paper, referring to the period 1939–43, he says: “Our propaganda since the beginning of the war had been most successful. It had played throughout on the Islamic theme.” (Adeel Khan 2005)
- But once Pakistan came into existence, Ghaffar Khan expressed allegiance to the new country by taking oath in the Assembly in 1948. He tried to reconcile with Muhammad Ali Jinnah and, during a meeting in Karachi, invited him to visit the Khudai Khidmatgar office in Peshawar. But the meeting never happened as the new Chief Minister Khan Abdul Qayyum Khan sabotaged it with Ghaffar Khan — he told Jinnah that he would be assassinated if he came to NWFP for the meeting.
- At the same time Jinnah removed the government of Ghaffar Khan’s brother Khan Sahib soon after the inception of Pakistan. This political move also pulled Ghaffar Khan away from Jinnah. To top it all, Ghaffar Khan was arrested in 1948 without any charges and imprisoned until 1954.
- After his short-lived freedom, he was arrested for protesting against the establishment of One Unit in West Pakistan in 1956. One Unit was made to undermine the majority of East Pakistan by creating an artificial parity between the East and West wing of the country. It also merged the NWFP, Sindh and Punjab provinces.
- General Ayub's government offered ministry to Ghaffar Khan which was declined by him. He was kept in prison by the Ayub regime until 1964 when he was released due to deteriorating health conditions.
- After his treatment in Britain, he went into exile in Afghanistan. He came back to Pakistan in 1972 when the National Awami Party, led by his son Khan Abdul Wali Khan, established the government in NWFP and Balochistan. But again the freedom was short lived and he was arrested by Zulfiqar Ali Bhutto’s government in 1973 in Multan. On his release he lamented: "I had to go to prison many a time in the days of the British. Although we were at loggerheads with them, yet their treatment was to some extent tolerant and polite. But the treatment which was meted out to me in this Islamic state of ours was such that I would not even like to mention it to you."
- His last political activity was a movement against building of Kala Bagh Dam, which he considered would damage vast areas of NWFP.
- He died in Lady Reading Hospital in Peshawar in 1988. And according to his wish he was buried in Jalalabad. This is still held against him by his critics who consider him a traitor to Pakistan. This is in spite of him coming to terms with the creation of Pakistan and taking oath in the Assembly. Pakhtun nationalists have reconciled with the idea because over the last seventy years of Pakistan their businessmen, middle class and working class have developed strong economic interests in other provinces of the country. Ghaffar Khan throughout his life continued to struggle for the maximum autonomy of his province within the framework of Pakistan — a political position that was not acceptable to the strong centre advocates in the establishment.
- Sarojini Naidu was born on 13 February, 1879 in Hyderabad to a philosopher and scientist Aghor Nath Chattopadhyay and Barada Sundari Devi. She was also known as "Nightingale of India" or “Bharatiya Kokila” and was an Indian Independence activist, poet and politician. Do you know at the childhood stage she wrote a play "Maher Muneer" and due to it she earned a scholarship and went to abroad for further studies. At the age of 12, she started a career in literature. She went for higher education in London and Cambridge at the early age. This play also impressed the Nawab of Hyderabad and gained popularity.
- She received scholarship at the age of 16 from the Nizam of Hyderabad and went to London King's College. There, Nobel Laureates Arthur Simon and Edmond Gausse advised her to focus on Indian themes for writing. To depict her poetry, she covered Indian Contemporary life and events. No doubt she became an incredible poet of the 20th century by expressing her feelings, emotions and her experiences through poems.
- In London, during her college days she fell in love with Padipati Govindarajulu Naidu a non-Brahmin and a physician. She was brave enough and showed honesty for her love and got married at the age of 19 in 1898. She had four children namely Jayasurya, Padmaja, Randheer and Leilaman.
- Her political career started in 1905 when she became the part of Indian National Movement. In India in 1915-18, she travelled different regions, places and deliver lectures on social welfare, women's empowerment and nationalism. In 1917, she established Women's Indian Association (WIA).
- In 1925, she became the president of Indian National Congress. She participated in Salt Satyagraha in 1930 and in South Africa she also presided the East African Indian Congress.
- Do you know that British government also awarded her the Kaisar-i-Hind Medal for her work during the plague epidemic in India. She played an important role in Quit India Movement. During this period, British government arrested and put her in jail.
- In 1905, her first collection of poems was published named 'The Golden Threshold'. Also, in 1961, Padmaja Naidu the daughter of Sarojini Naidu, published her second collection of poems named 'The Feather of the Dawn' which was written in 1927.
- Sarojini Naidu became the first women governor of India and served as the governor of United Provinces of Agra and Awadh from 1947 to 1949.
- Several institutions like Sarojini Naidu Medical College, Sarojini Naidu College for Women, Sarojini Naidu School of Arts and Communication, Sarojini Devi Eye hospital have been attributed to the most influential personality of India i.e. Sarojini Naidu.
- She died on 2 March, 1949 due to cardiac arrest at the Government House in Lucknow. She had been the strongest advocate of the Father of the Nation "Gandhiji" and had supported him in every ideology to make India free form the British rule. She was nick named as Mahatma Gandhi’s “Mickey Mouse”.
- Early life : Mahadev Desai was born on 1 January 1892 in the village of Saras in Surat District of Gujarat to Haribhai Desai a school teacher and his wife Jamnabehn. Jamnabehn died when Desai was only seven years of age. In 1905, aged 13, Mahadev was married to Durgabehn. He was educated at the Surat High School and the Elphinstone College, Mumbai. Graduated with a BA Degree, he passed his L.L.B in 1913 and took job as inspector in central co-operative bank in Bombay.
- Gandhi's associate : Mahadev Desai first met Gandhi in 1915 when he went to meet him to seek his advice on how best to publish his book (a Gujrati translation of John Morley's English book On Compromise).Desai joined Gandhi's Ashram in 1917 and with Durgabehn accompanied him to Champaran that year. He maintained a diary from 13 November 1917 to 14 August 1942, the day before his death, chronicling his life with Gandhi. In 1919 when the colonial government arrested Gandhi in Punjab, he named Desai his heir. Desai was for the first time arrested and sentenced to a year in prison in 1921. He was Gandhi's personal secretary for 25 years, but as Verrier Elwin wrote of him, "he was much more than that. He was in fact Home and Foreign Secretary combined. He managed everything. He made all the arrangements. He was equally at home in the office, the guest-house and the kitchen. He looked after many guests and must have saved 10 years of Gandhi's life by diverting from him unwanted visitors". Rajmohan Gandhi writes of Mahadev Desai thus: "Waking up before Gandhi in pre-dawn darkness, and going to sleep long after his Master, Desai lived Gandhi's day thrice over — first in an attempt to anticipate it, next in spending it alongside Gandhi, and finally in recording it into his diary".
- Political activism : In 1920, Motilal Nehru requisitioned the services of Mahadev Desai from Gandhi to run his newspaper, the Independent, from Allahabad. Desai created a sensation by bringing out a hand-written cyclostyled newspaper after the Independent's printing press was confiscated by the British government. Desai was sentenced to a year's rigorous imprisonment for his writings in 1921 – his first stint in prison. In prison, Desai saw that the jail authorities mistreated prisoners, frequently flogging them. His report describing the life inside an Indian jail, published in Young India and Navajivan, compelled the British authorities to bring about some drastic jail reform measures. Desai took over as editor of Navajivan in 1924 and from 1925 he began the translation into English of Gandhi's autobiography and its serial publication in the Young India. The following year he became chairman of the executive committee of the Satyagraha Ashram and won a prize from the Gujarati Sahitya Parishad for his article in Navajivan. He took part in the Bardoli Satyagraha along with Sardar Patel and wrote a history of the Satyagraha in Gujarati which he translated into English as The Story of Bardoli.[4] For his participation in the Salt Satyagraha, he was arrested and imprisoned but following the Gandhi- Irwin Pact, he was released from jail and accompanied Gandhi to the Second round Table Conference along with Mirabehn, Devdas Gandhi and Pyarelal. He was the only person to accompany Gandhi when the latter met with King George V. Following the collapse of the Gandhi-Irwin Pact and the deadlock at the Round Table Conference, Gandhi restarted the Civil Disobedience Movement. The colonial government, under the new Viceroy, Lord Willingdon, was determined to crush the movement and ordered a clampdown on the Indian National Congress and its activists. In 1932, Desai was arrested again and sent to prison with Gandhi and Sardar Patel. Following his release in 1933, he was re-arrested and detained in the Belgaum Jail. It was during this time in prison that he wrote Gita According to Gandhi which was posthumously published in 1946. He also played a role in organising people's movements in the princely states of Rajkot and Mysore in 1939 and was put in charge of selecting satyagrahis during the Individual Satyagraha of 1940. Desai's final prison term followed the Quit India Declaration of 8 August 1942. He was arrested on the morning of 9 August 1942 and, till his death of a massive heart-attack six days later, was interred with Gandhi at the Aga Khan Palace. Desai was 51 at the time of his death.
- Death and legacy : Mahadev Desai died of a heart attack on the morning of 15 August 1942 at the Aga Khan Palace where he was interned with Gandhi. When Desai stopped breathing, Gandhi called out to him in agitation: "Mahadev! Mahadev!" When he was later asked why he had done so, Gandhi answered: "I felt that if Mahadev opened his eyes and looked at me, I would tell him to get up. He had never disobeyed me in his life. I was confident that if had he heard those words, he would have defied even death and got up". Gandhi himself washed Desai's body and he was cremated on the Palace's grounds, where his samadhi lies today.
- Ambedkar was born on 14th of April 1891 in Madhya Pradesh. He extensively campaigned against social discrimination of Untouchables (Dalits). He was the architect of the Constitution of India which came into effect on 26th January 1950. Ambedkar was very good at studies and earned various doctorates. His full name is Bhimrao Ramji Ambedkar & his famously known as Babasaheb.
- He was a social reformer, politician, economist, professor & lawyer. He was the 14th child of his parents & was born in low-caste (Mahar - Dalit). His father was a ranked army officer in British East India army & his ancestors have worked for long in British East India Company's army.
- His Brahmin teacher, Mahadev Ambedkar, who was fond of him changed his surname from Ambavadekar to Ambedkar. His alma mater includes University of Mumbai, Columbia University, University of London & London School of Commerce. Ambedkar was India's first Law Minister. He was also the first Indian to pursue a doctorate in Economics abroad.
- Ambedkar married twice, first to Ramabai and next to Dr. Sharada Kabir. His son from the second wife was Yashwanth. Ambedkar's grandson, Ambedkar Prakash Yashwanth is the chief advisor of Buddhist Society of India.
- He was the person responsible for reducing the Factory working hours from 14 hours to 8 hours.
- He framed many laws for Woman Labors of India which includes Mines Maternity Benefit, Woman Labor welfare fund, Woman & Child, Labor Protection Act.
- He resigned from the cabinet when the Parliament was unable to pass his bill to support Women & gender equality.
- Reserve Bank of India has been adopted based on Ambedkar's instructions only.
- It took 2 years & 11 months time for Ambedkar to prepare the Constitution of World's Largest Democracy. He is also known Father of Indian Constitution. Ambedkar has made research on various constitutions which were available at that time. But preparing a Constitution in just under 3 years is a great achievement.
- Since 1948, Ambedkar suffered from Diabetes and was bed ridden from 1954. He died in his sleep on 6th December 1956. In 1990, he was posthumously conferred with India's highest honor Bharat Ratna
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