सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
भारतीय परमाणु अनुसंधान कार्यक्रम
1.0 प्रस्तावना
भारत का परमाणु अनुसंधान कार्यक्रम विश्व के सबसे सफल परमाणु कार्यक्रमों में से एक है। इसमें विद्युत उत्पादन, कृषि अनुप्रयोग, चिकित्सकीय विज्ञान, उद्योग और अन्य क्षेत्र शामिल हैं। भारतीय परमाणु अनुसंधान कार्यक्रम शांतिपूर्ण प्रयोजनों पर केंद्रित है। परमाणु प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सबसे उन्नत देशों में से एक के रूप में मान्यता प्राप्त भारत इस विशेषज्ञता में आत्मनिर्भर और श्रेष्ठ है, जो खोज़ और उत्खनन से लेकर विद्युत उत्पादन तक और परमाणु प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोगों से लेकर अपशिष्ट प्रबंधन और अन्य सुरक्षा मुद्दों तक संपूर्ण परमाणु चक्र को समाविष्ट करता है।
हालांकि परमाणु शस्त्रीकरण भारतीय परमाणु कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र नहीं है, फिर भी भारत ने सुरक्षा के व्यापक दृष्टिकोण को अपनाने की आवश्यकता को समझा है, जिसमें आर्थिक शक्ति, आतंरिक संसक्ति और प्रौद्योगिकीय उन्नयन शामिल हैं। उभरते वैश्विक परिदृश्य में भारत सामान्य और संपूर्ण वैश्विक परमाणु निरस्त्रीकरण का एक मजबूत और निरंतर समर्थक, साथ ही इस संदर्भ में किसी भी भेदभावपूर्ण सिद्धांत/संधि का विरोधक बना हुआ है।
यहां तक की भारत की परमाणु हथियारों की क्षमता भी केवल आत्म-रक्षा के उद्देश्य से है, और इसका प्रयास केवल भारत की सुरक्षा, स्वतंत्रता और एकात्मता को भविष्य में किसी प्रकार का खतरा पैदा नहीं हो, यह सुनिश्चित करना है। भारत जैसे शांतिप्रिय देश के लिए यह स्वाभाविक है कि वह ऐसे उपाय करे जिनका उद्देश्य परमाणु भड़कने के खतरों को कम करें, साथ ही ऐसी पहलें करे जो परमाणु प्रौद्योगिकी के शांतिपूर्ण और अधिक सार्थक अनुप्रयोगों को प्रोत्साहित करें।
2.0 भारत में संगठनात्मक रूपरचना
2.1 परमाणु ऊर्जा आयोग (एईसी) (Atomic Energy Commission)
भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग का पहली बार गठन अगस्त 1948 में तत्कालीन वैज्ञानिक अनुसंधान विभाग में किया गया था, जिसका निर्माण कुछ महीने पहले ही जून 1948 में किया गया था। परमाणु ऊर्जा विभाग (डीएई) का गठन 3 अगस्त 1954 को राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से प्रधानमंत्री के सीधे प्रभार के तहत किया गया था। बाद में दिनांक 1 मार्च 1958 के सरकारी प्रस्ताव के अनुसार परमाणु ऊर्जा विभाग में परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की गई।
2.2 परमाणु ऊर्जा विनियामक बोर्ड़ (एईआरबी) (Atomic Energy Regulatory Board)
एईआरबी भारत का परमाणु सुरक्षा संगठन है, जिसका निर्माण 1983 में यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया था कि भारत में आयनीकृत विकिरण और परमाणु ऊर्जा का उपयोग पर्यावरण या स्वास्थ्य के लिए अनावश्यक हानि निर्मित नहीं करे। परमाणु ऊर्जा विभाग के तहत आने वाले सभी परमाणु संबंधी मामलों की निगरानी करने की जिम्मेदारी एईआरबी की है। एईआरबी परमाणु ऊर्जा आयोग को रिपोर्ट करता है। वर्तमान में इसके पास पांच निर्माणाधीन प्रतिघातकों की रचना एवं निर्माण की देखरेख जिम्मेदारी के साथ ही पूर्व में स्थापित बीस प्रतिघातकों के सुरक्षित परिचालन की देखरेख की जिम्मेदारी, और देश की सभी परमाणु सुविधाओं में विनियमन की जिम्मेदारी भी है।
2.3 परमाणु ऊर्जा विभाग (डीएई) (Department of Atomic Energy)
परमाणु ऊर्जा विभाग की स्थापना 1954 में निम्नलिखित अधिदेश के साथ की गई थीः
- परमाणु ऊर्जा से सुरक्षित और किफायती विद्युत शक्ति का उत्पादन करना।
- अनुसंधान प्रतिघातकों (Reactors) का निर्माण करना और इन प्रतिघातकों में उत्पादित विकिरण समस्थानिकों का उपयोग कृषि और चिकित्सा के क्षेत्र में करना।
- उत्प्रेरकों, लेसर, जैवरसायन, सूचना प्रौद्योगिकी और टाइटेनियम जैसे गैर परमाणु और सामरिक पदार्थों के विकास सहित अन्य पदार्थों के विकास के क्षेत्र में उन्नत प्रौद्योगिकी विकसित करना।
- औद्योगिक और सामाजिक विकास के लिए प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और उद्योगों साथ पारस्परिक क्रिया को प्रोत्साहित करना।
- परमाणु ऊर्जा और संबंधित विज्ञान के क्षेत्रों में प्राथमिक अनुसंधान को आवश्यक सहायता प्रदान करना।
- अनुसंधान के उन्नत क्षेत्र और विशाल वैज्ञानिक परियोजनाओं में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित करना ताकि विश्व स्तरीय वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीय लाभ प्राप्त किये जा सकें।
3.0 भारत का त्रिस्तरीय परमाणु विद्युत कार्यक्रम
भारत की दीर्घकालीन ऊर्जा स्वतंत्रता को सुरक्षित करने के लिए डॉ. होमी जे भाभा ने भारत के त्रिस्तरीय परमाणु कार्यक्रम का निर्माण किया। इसे दक्षिण भारत के तटीय क्षेत्रों की मोनाजाईट रेत में उपलब्ध यूरेनियम और थोरियम भंड़ारों के उपयोग के माध्यम से प्राप्त किया गया था। इस कार्यक्रम का अंतिम उद्देश्य है देश की ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारत के थोरियम भंडारों के उपयोग को सक्षम बनाया जाए। चूंकि भारत में विश्व के यूरेनियम भंडारों का केवल 1 से 2 प्रतिशत उपलब्ध है, अतः भारत के लिए थोरियम विशेष रूप से आकर्षक है क्योंकि हमारे पास विश्व के थोरियम भंड़ारों का सबसे बड़ा भाग उपलब्ध है, जो वैश्विक थोरियम भंडारों का लगभग 30 प्रतिशत है।
कार्यक्रम की शुरुआत से ही भारत ने परमाणु अनुसंधान की दिशा में अपनी क्षमताओं को इस हद तक निर्मित किया है, कि अब आमतौर पर इसे थोरियम आधारित अनुसंधान के क्षेत्र में विश्व का सबसे अग्रणी माना जाता है। 2012 तक पीएचडब्लूआर के समावेश वाला पहला चरण अपने नियोजित लक्ष्यों के अनुरूप लगभग पूरा हो चुका था, जभी फास्ट ब्रीडर प्रतिघातकों के समावेश वाला दूसरा चरण अगले एक वर्ष के अंदर परिचालनात्मक होने की तैयारी में है, और एएचडब्लूआर के समावेश वाले तीसरे चरण का निर्माण कार्य शुरू हो जायेगा ताकि 2020 तक इसकी भी शुरुआत की जा सके। त्रिस्तरीय परमाणु कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य है भारत के सीमित यूरेनियम भंड़ारों के साथ काम करके परमाणु ऊर्जा का विकास किया जा सके। इसके चरण निम्नानुसार हैंः
3.1 प्रथम चरण - दाबानुकूलित भारी जल प्रतिघातक (पीएचडब्लूआर) (Pressurised Heavy Water Reactor)
कार्यक्रम के प्रथम चरण में प्राकृतिक यूरेनियम के ईंधन से प्रज्वलित पीएचडब्लूआर विद्युत उत्पादन करता है जबकि इस प्रक्रिया के दौरान प्लूटोनियम - 239 उपोत्पाद के रूप में उत्पादित होता है। भारी पानी का उपयोग मध्यस्थ और शीतलक के रूप में किया जाता है। प्रथम चरण के क्रियान्वयन में पीएचडब्लूआर एक स्वाभाविक विकल्प था, क्योंकि यूरेनियम के उपयोग की दृष्टि से इसकी प्रतिघातक रचना सबसे प्रभावशाली थी और 1960 के दशक की विद्यमान भारतीय अधोसंरचना पीएचडब्लूआर प्रौद्योगिकी के शीघ्र अंगीकरण को सुविधाजनक बनाती थी। भारत ने सही गणना की थी कि यूरेनियम समृद्धीकरण सुविधाओं (एलडब्लूआर के लिए आवश्यक) के निर्माण की तुलना में भारी जल उत्पादन सुविधाओं (पीएचडब्लूआरके लिए आवश्यक) का निर्माण करना आसान होगा। इन प्रतिघातकों की रचना, निर्माण और परिचालन सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम एनपीसीआईएल (भारतीय परमाणु विद्युत निगम लिमिटेड) द्वारा किया जाता है।
भारत की परमाणु विद्युत का लगभग संपूर्ण आधार (4780 मेगावाट) प्रथम चरण के पीएचडब्लूआर से बना हुआ है, जिसमें केवल तारापुर स्थित दो उबलते पानी के प्रतिघातक (बीडब्लूआर) (Boiling Water Reactor) अपवाद हैं।
3.2 द्वितीय चरण - फास्ट ब्रीडर प्रतिघातक (एफबीआर)
दूसरे चरण में एफबीआर प्रथम चरण के खर्च किये गए ईंधन के पुनर्प्रक्रियाकरण से निर्मित प्लूटोनियम - 239 और प्राकृतिक यूरेनियम के मिश्रित ऑक्साइड (एमओएक्स) ईंधन का उपयोग करेंगे। एफबीआर में ऊर्जा के उत्पादन के लिए प्लूटोनियम-239 विभंजन की प्रक्रिया से गुजरता है, जबकि मिश्रित ऑक्साइड ईंधन में विद्यमान यूरेनियम-238 अतिरिक्त प्लूटोनियम-239 में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार द्वितीय चरण के एफबीआर की रचना इस प्रकार से की गई है जिससे वे उपभोग किये गए ईंधन की तुलना में अधिक ईंधन ‘‘प्रजनित‘‘ करें। एक बार जब प्लूटोनियम-239 की इन्वेंट्री निर्मित हो जाती है तो प्रतिघातक में थोरियम को एक ब्लैंकेट सामग्री के रूप में प्रविष्ट किया जा सकता है, ताकि वह तृतीय चरण में उपयोग किये जाने वाले यूरेनियम-233 में परिवर्तित हो जाये।
देश के पहले फास्ट ब्रीडर की रचना, जिसे प्रतिकृति फास्ट ब्रीडर प्रतिघातक (पीएफबीआर) कहा जाता है, इंदिरा गांधी परमाणु अनुसंधान केंद्र (आईजीसीएआर) द्वारा बनाई गई थी। भारतीय नाभिकीय विद्युत निगम लिमिटेड (भाविनी), जो परमाणु ऊर्जा विभाग (डीएई) के तहत एक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी है, को भारत में फास्ट ब्रीडर प्रतिघातकों के निर्माण की जिम्मेदारी दी गई है। कलपक्कम स्थित इस पीएफबीआर का निर्माण 2012 तक पूरा किया जाना था।
इसके अतिरिक्त भारत 2012 से 2017 की अवधि तक चलने वाली 12 वीं पंचवर्षीय योजना के भाग के रूप में चार और एफबीआर के निर्माण की योजना प्रस्तावित कर रहा है, जिससे वह इन पांच प्रतिघातकों के माध्यम से 2500 मेगावाट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य प्राप्त करने की योजना बना रहा है। इनमें से एक प्रतिघातक को ऑक्साइड ईंधन के बजाय धात्विक ईंधन से परिचालित करने की योजना प्रस्तावित है, क्योंकि इसकी रचना में धात्विक ईंधन को स्वीकार करने का लचीलापन उपलब्ध होगा, हालांकि इसकी संदर्भ रचना ऑक्साइड ईंधन की ही है। भारत सरकार ने पहले ही 500 मेगावाट क्षमता वाली दो और इकाइयों की परियोजना पूर्व गतिविधियों के लिए 250 करोड रुपये की राशि आवंटित कर दी है, हालांकि इनके स्थान का निर्णय होना अभी बाकी है।
3.3 तृतीय चरण - थोरियम आधारित प्रतिघातक
एक तृतीय चरण के प्रतिघातक या उन्नत परमाणु विद्युत प्रणाली में स्वयं को बनाये रखने वाले थोरियम-232 व यूरेनियम-233 के ईंधन से प्रज्वलित प्रतिघातक होते हैं। यह एक ताप प्रजनक प्रतिघातक होगा, जिसे सैद्धांतिक रूप से पुनः इंधनित किया जा सकता है - इसके प्रारंभिक ईंधन प्रभार के बाद- जिसमें केवल प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला थोरियम उपयोग किया जाता है। 300 एमडब्लूई उन्नत भारी जल प्रतिघातक, जिसका विकास बीएआरसी में निरंतर जारी है, थोरियम के उपयोग और इसके प्रदर्शन से संबंधित है।
त्रिस्तरीय कार्यक्रम के अनुसार घरेलू यूरेनियम से इंधनीकृत पीएचडब्लूआर के माध्यम से भारतीय परमाणु ऊर्जा लगभग 10 जीडब्लू तक बढ़ सकती है, और उससे आगे की लगभग 50 जीडब्लू तक की वृद्धि एफबीआर से ही प्राप्त की जा सकती है। तृतीय चरण तभी लागू किया जायेगा जब यह क्षमता प्राप्त हो जायेगी।
4.0 थोरियम ईंधन चक्र (Thorium Fuel Cycle)
थोरियम एक प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला, हल्का रेडियोधर्मी धातु होता है जिसकी खोज़ 1828 में स्वीडिश रसायनशास्त्री जोंस बर्जेलियस द्वारा की गई थी, जिन्होंने उसे मेघगर्जन के नार्वेजियन ईश्वर ‘‘थोर’’ के नाम पर नामित किया। यह थोड़ी मात्रा में सभी चट्टानों और मिट्टियों में पाया जाता है, जहां यह यूरेनियम की तुलना में तीन गुना से अधिक होता है। मिट्टी में आमतौर पर औसत 6 भाग प्रति मिलियन थोरियम होता है। प्रकृति में थोरियम एकल समस्थानिक स्वरुप - टीएच 232 - के रूप में पाया जाता है, जो बहुत धीमे-धीमे नष्ट होता है (इसकी आधी जीवन अवधि पृथ्वी की आयु के लगभग तीन गुना होती है)। प्राकृतिक थोरियम और यूरेनियम की सड़न श्रृंखला (decay chain) टीएच-228, टीएच-230 और टीएच-234 के हलके अवशेषों को जन्म देती है, परंतु मात्रा की दृष्टि से इनकी उपस्थिति अत्यंत नगण्य होती है।
थोरियम जब अपनी शुद्ध अवस्था में होता है तो यह एक चांदी जैसा सफेद धातु होता है जिसकी चमक अनेक महीनों तक कायम रहती है। हालांकि थोरियम हवा में धीरे-धीरे धुंधला होता जाता है और भूरा रंग ग्रहण कर लेता है, और अंततः यह काले रंग में परिवर्तित हो जाता है। थोरियम ऑक्साइड (ThO2), जिसे थोरिया भी कहते हैं, का गलनांक सभी ऑक्साइड में सर्वोच्च होता है (3300 अंश सेल्सियस)। जब इसे हवा में गर्म किया जाता है, तो थोरियम के छिलके ज्वलनशील बन जाते हैं और सफेद प्रकाश के साथ प्रज्वलित होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण थोरियम का उपयोग विद्युत बल्ब के भीतर की तारों, गैस लैंटर्न के मेंटल, चाप प्रकाश लैंप, वेल्डिंग इलेक्ट्रोड और गर्मी रोधी मृत्तिका शिल्प में किया जाता है। थोरियम के समावेश वाले कांच का अपवर्तक सूचकांक और प्रकीर्णन उच्च होता है और इसका उपयोग कैमरा और वैज्ञानिक उपकरणों के उच्च गुणवत्ता वाले लेन्सेस में किया जाता है।
आने वाले दशकों और आने वाली पीढ़ियों के लिए थोरियम एक सक्षम विद्युत स्रोत है। प्रकृति में इसकी उपलब्धता यूरेनियम की तुलना में कहीं अधिक है। एक ऐसे ग्रह पर जिसकी जनसंख्या 2050 तक 900 करोड़ होने का अनुमान है, वहां थोरियम के उपयोग से हजारों वर्षों तक एक धारणीय ईंधन चक्र सुनिश्चित किया जा सकता है। यह उपजाऊ है परंतु विखण्ड़नीय नहीं है, और परमाणु ईंधन के रूप में इसका उपयोग केवल विखण्ड़नीय पदार्थों के संयोजन में ही किया जा सकता है। यूरेनियम की ही तरह इसके ऊर्जा घनत्व के कारण यह हाइड्रो कार्बन और तथाकथित ‘‘अक्षय‘‘ की तुलना में कहीं अधिक लागत प्रभावी होता है।
हालांकि वाणिज्यिक थोरियम आधारित प्रतिघातकों की उपलब्धता के लिए पहले काफी अधिक भौतिकशास्त्रीय और आर्थिक विश्लेषण की आवश्यकता है। इस क्षेत्र में वर्तमान में नेतृत्व भारत, चीन और जापान के हाथ में है, हालांकि अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड़ और जर्मनी जैसे देशों ने पिछले पचास वर्षों के दौरान थोरियम ईंधन के साथ काफी प्रयोग किये हैं।
थोरियम (टीएच-232) अपने आप विखण्ड़नीय नहीं है, अतः इसका सीधा उपयोग तापीय न्यूट्रॉन प्रतिघातकों में नहीं किया जा सकता - इस दृष्टि से वह यूरेनियम-238 के काफी समान है। हालांकि वह ‘‘उपजाऊ‘‘ होता है और एक न्यूट्रॉन के अवशोषण के बाद यह यूरेनियम-233 (यू-233) में परिवर्तित हो जाता है, जो एक उत्कृष्ट खण्डनीय ईंधन सामग्री है। इसीलिए थोरियम ईंधन की अवधारणा के लिए आवश्यक है कि टीएच -232 को पहले एक प्रतिघातक में विकिरणित किया जाए ताकि इससे आवश्यक न्यूट्रॉन खुराक प्रदान की जा सके। इस प्रक्रिया से उत्पादित यू-233 को या तो रासायनिक प्रक्रिया के माध्यम से मूल जनक थोरियम ईंधन से अलग किया जा सकता है, या यू-233 को स्वस्थानी में ही उसी ईंधन अवस्था में उपयोग किया जा सकता है।
थोरियम का सबसे आम स्रोत है रेयर अर्थ फॉस्फेट खनिज मोनाज़ाईट जिसमें 12 प्रतिशत तक थोरियम फॉस्फेट हो सकता है, परंतु आमतौर पर यह औसत 6 से 7 प्रतिशत तक होता है। मोनाज़ाईट आग्नेय चट्टानों और अन्य चट्टानों में पाया जाता है, परंतु इसके सबसे समृद्ध संकेंद्रण भूभाग भंड़ारों में पाये जाते हैं, जो लहरों और धाराओं की अन्य भारी खनिजों के साथ क्रियाओं से संकेंद्रित होते हैं। विश्व के थोरियम के भंड़ारों का अनुमान लगभग 12 मिलियन टन है, जिनमें से दो तिहाई भारत के दक्षिणी और पूर्वी तटों के भारी खनिज रेत भंड़ारों में उपलब्ध हैं। कई अन्य देशों में भी इसके पर्याप्त भंडार मौजूद हैं। मोनाजाईट से थोरियम की पुनर्प्राप्ति में आमतौर पर सोडियम हाइड्रोऑक्साइड के साथ 140 अंश सेल्सियस पर निक्षालन शामिल होता है, जिसके बाद एक जटिल प्रक्रिया के माध्यम से शुद्ध टीएचओ 2 को अवक्षेपित किया जाता है।
थोराइट (ThSiO4) एक अन्य सामान्य खनिज है। थोरियम और रेयर अर्थ धातुओं के बडे़ भंड़ार इडाहो में भी पाये जाते हैं। ऑस्ट्रेलियाई रेयर अर्थ खनिकों के लिए वर्तमान समय में थोरियम मुख्य रूप से एक रूकावट बना हुआ है। रेयर अर्थ के साथ इसके अंतरंग संयोजन के कारण और इसकी हलकी रेडियोधर्मिता के कारण रेयर अर्थ का उत्खनन और परिवहन भी हरित छद्म विज्ञान के लिए एक केंद्रीय बिंदु और मुद्दा बन सकता है और विशेष हित गुटों के लिए राजनीतिक सक्रियता बन सकता है।
थोरियम ईंधन के वाणिज्यिक उपयोग के लिए कम से कम सात प्रतिघातक प्रकारों का विकास किया जा रहा है। दो सबसे उन्नत अवधारणाएं हैं दाबानुकूलित भारी जल प्रतिघातक (पीएचडब्लूआर) और उच्च तापमान गैस शीतलित प्रतिघातक (एचटीजीसीआर) [Pressurised Heavy Water Reactor and High Temp. Gas Cooled Reactor]
भारी जल प्रतिघातक (पीएचडब्लूआर) उनकी भौतिक और यांत्रिक विशेषताओं के कारण थोरियम ईंधन की दृष्टि से सर्वाधिक अनुकूल हैं। इनकी न्यूट्रॉन मितव्ययिता काफी अच्छी होती है। (उनकी न्यून पारजैविक न्यूट्रॉन अवशोषण का अर्थ है उपयोगी यू-233 के निर्माण के लिए थोरियम द्वारा अधिक न्यूट्रॉन का अवशोषण किया जायेगा) उनकी औसत विखंड़न न्यूट्रॉन ऊर्जा थोड़ी अधिक तेज होती है जो यू-233 के परिवर्तन की दृष्टि से अधिक अनुकूल है। अंत में, उनमें एक लचीली ऑनलाइन ईंधन पुनर्भरण क्षमता भी होती है। इसके अतिरिक्त भारी जल प्रतिघातक (विशेष रूप से Canadian Candu) व्यवस्थित रूप से प्रतिष्ठित हैं, और इन्होनें वाणिज्यिक प्रौद्योगिकी का व्यापक उपयोग किया है जिसके लिए उनके पास व्यापक अनुज्ञप्ति अनुभव है।
उच्च तापमान गैस द्वारा शीतलन किये गए प्रतिघातक (एच.टी.जी.सी.) थोरियम आधारित ईंधनों की दृष्टि से अत्यंत अनुकूल हैं जिनमें प्लूटोनियम या समृद्ध यूरेनियम के साथ मिश्रित थोरियम के मजबूत आवरण वाले कण होते हैं जो पायरोलीटिक कार्बन और सिलिकॉन कार्बाइड परतों से आवरणित होते हैं जो विखंड़न गैसों को बनाये रखते हैं। ईंधन के कण एक ग्रेफाइट आव्यूह में अंतःस्थापित होते हैं जो उच्च तापमानों पर बहुत अधिक स्थिर रहता है। इस प्रकार के ईंधनों को काफी लंबी अवधियों के लिए प्रकाशित किया जा सकता है, और इस प्रकार वे अपने मूल विखंड़न प्रभार का दोहन करने के लिए गहराई तक ज्वलनशील होते हैं। थोरियम ईंधनों की रचना ‘‘कंकड़ तल‘‘ और ‘‘प्रिज्मीय‘‘, दोनों प्रकार के एचटीआर ईंधन प्रकारों के लिए की जा सकती है।एक अन्य प्रतिघातक प्रकार जो किसी दिन थोरियम का ईंधन के रूप में उपयोग कर सकते हैं, अंततः महंगे साबित हो सकते हैं और अभी तक काल्पनिक अवस्था में हैं। इनमें तरल नमक प्रणाली, फास्ट ब्रीडर प्रतिघातक और उत्प्रेरक चलित प्रतिघातक शामिल हैं। हम इस समीक्षा का अंत थोरियम के एक अप्रयुक्त ऊर्जा स्रोत के रूप के प्रति दो देशों की प्रतिक्रिया के अध्ययन के साथ करते हैं।
आसानी से उपलब्ध थोरियम के विशाल संसाधनों के साथ और अपेक्षाकृत कम मात्रा में यूरेनियम के साथ भारत ने एक त्रिस्तरीय संकल्पना का उपयोग करते हुए बडे़ पैमाने पर ऊर्जा उत्पादन के लिए थोरियम के उपयोग को अपने परमाणु विद्युत कार्यक्रम का मुख्य लक्ष्य बनाया हैः
- दाबानुकूलित भारी जल प्रतिघातक (पीएचडब्लूआर) जिनमें प्रा.तिक यूरेनियम का ईंधन के रूप में उपयोग किया गया है, साथ ही हलके जल के प्रतिघातक, जो प्लूटोनियम का उत्पादन करते हैं।
- फास्ट ब्रीडर प्रतिघातक (एफबीआर), जो थोरियम से यू-233 को प्रजनित करने के लिए प्लूटोनियम आधारित ईंधन का उपयोग करते हैं। केंद्र के चारों ओर के आवरण में यूरेनियम थोरियम, दोनों होंगे, जिससे आगे प्लूटोनियम (विशेष रूप से पीयू-239) और साथ ही यू-233 का उत्पादन किया जा सके।
- उन्नत भारी जल प्रतिघातक (एएचडब्लूआर) यू-233 और इस प्लूटोनियम के साथ थोरियम को जला देते हैं, और इस प्रकार अपनी शक्ति का लगभग 75 प्रतिशत भाग थोरियम से प्राप्त करते हैं। इस उपयोग किये गए ईंधन के पुनर्प्रक्रियाकरण के माध्यम से पुनः चक्रीकरण के लिए विखंड़न सामग्री को पुनः प्राप्त किया जायेगा।
यह भारतीय कार्यक्रम केवल थोरियम के साथ धारणीय बनाने के लक्ष्य से आगे बढ़ गया है, और अब यह एक ऐसा कार्यक्रम बन गया है जो और एफबीआर समूह से अधिक विखंड़ित प्लूटोनियम के योग के साथ ‘‘चलित‘‘ बन गया है ताकि अधिक क्षमता प्राप्त की जा सके। यूरेनियम पर व्यापार प्रतिबंधों के शिथिलीकरण के बावजूद 2009 में भारत ने थोरियम चक्र के विकास की अपनी इच्छा की प्रतिपुष्टि की है। एक 500 एमडब्लूई प्रतिकृति एफबीआर, जो कलपक्कम में निर्माणाधीन है, की रचना इस प्रकार से की गई है जिससे प्लूटोनियम का उत्पादन किया जा सके जो थोरियम से यू-233 को प्रजनित करने के लिए एएचडब्लूआर को सक्षम बनाएगा। भारत अपने सोडियम द्वारा शीतलन किये गए फास्ट प्रतिघातक बेडे़ के निर्माण और शुरुआत पर ध्यान केंद्रित कर रहा है और इसे प्राथमिकता प्रदान कर रहा है, जिसके माध्यम से वह आवश्यक प्लूटोनियम का प्रजनन कर सके। इसके लिए अभी और 15 से 20 वर्षों का समय लगेगा, अथाह अभी इस बात के लिए कुछ समय है जब भारत बड़ी क्षमता के साथ थोरियम ऊर्जा का उपयोग कर पायेगा। जिन देशों में व्यवस्थित रूप से स्थापित परमाणु विद्युत कार्यक्रम चल रहे हैं उनमें एक अलग प्रकार का दृष्टिकोण उभर रहा है। चूंकि समाज अपनी निहित सुरक्षा के प्रति अधिक जागरूक है अतः ऊर्जा सुरक्षा और ग्रीनहाउस गैस उत्पादन का शमन करने की क्षमता की लागत प्रभावी व्यवस्था आवश्यक है। ये थोरियम प्रणालियों के विकास की ओर सावधानी से आगे बढ़ेंगे। 2010 में प्रकाशित यूनाइटेड किंगडम की राष्ट्रीय परमाणु प्रयोगशाला (एनएनएल) की सलाह पर ध्यान दें।
‘‘एनएनएल का मानना है कि यूके के संदर्भ में केवल मध्यम और दीर्घ अवधि में प्लूटोनियम प्रबंधन में इसके संभावित अनुप्रयोग के अलावा वर्तमान में थोरियम ईंधन चक्र की कोई भूमिका नहीं है। स्वदेशी थोरियम भंड़ारों पैर निर्भर रहते हुए अगले कुछ वर्षों तक अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में थोरियम ईंधन की भूमिका काफी सीमित रहने वाली है। हालांकि यह प्रौद्योगिकी नवप्रवर्तनीय है फिर भी अभी यह प्रौद्योगिकी तकनीकी रूप से अपरिपक्व है, और उपयोगिताओं के लिए इसमें वर्तमान में कोई रूचि नहीं है। यह व्यापक वित्तीय निवेश और जोखिम का प्रतिनिधित्व करती है, जबकि इसके कोई विशेष उल्लेखनीय लाभ दिखाई नहीं देते। कई मामलों में थोरियम ईंधन चक्र के लाभों को बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया है।‘‘
5.0 बीएआरसी (भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र) के परमाणु प्रतिघातक
- अप्सराः भारत का पहला परमाणु प्रतिघातक 1957 में शुरू किया गया था। एक मेगावाट क्षमता वाला तरण तालाब के आकार वाला प्रतिघातक रेडियो समस्थानिकों का उत्पादन करता है। यह प्रतिघातक एशिया का भी पहला परमाणु प्रतिघातक है।
- साइरसः (कनाडा-भारत-प्रतिघातक) 1960 में निर्मित यह प्रतिघातक एक 40 मेगावाट क्षमता वाला प्रतिघातक था। यह भारत का रेडियो समस्थानिक उत्पादन करने वाला दूसरा सबसे बड़ा सुविधा केंद्र था। 31 दिसंबर 2010 को इसे बंद कर दिया गया।
- जेरलिनाः (जालक अन्वेषण और नए संयोजनों के लिए शून्य ऊर्जा प्रतिघातक) इसकी स्थापना 4 जनवरी 1961 को की गई थी, और इसका उपयोग यूरेनियम भारी जल जालकों के अध्ययन के लिए किया जाता था।
- ध्रुवः 15 अगस्त 1984 को शुरू किया गया यह 100 मेगावाट क्षमता वाला प्रतिघातक पूर्णतः स्वदेशी परमाणु प्रतिघातक है, और इसमें विश्व की सबसे उन्नत प्रयोगशालाएं हैं। यह भारत में रेडियो समस्थानिकों का सबसे बड़ा स्रोत है।
- पूर्णिमा-प्रथमः (गुणित संयोजनों में नूट्रॉनिक अन्वेषण के लिए प्लूटोनियम प्रतिघातक) 22 मई 1972 को स्थापित इस प्लूटोनियम ईंधन वाले प्रतिघातक को पूर्णिमा - द्वितीय के रूप में संशोधित किया गया जिसमें यूरेनियम का ईंधन के रूप में उपयोग किया गया था, अब इसे पूर्णिमा तृतीय के रूप में आगे संशोधित किया जा रहा है।
- कामिनीः भारत का पहला फास्ट ब्रीडर न्यूट्रॉन प्रतिघातक, जिसकी स्थापना कलपक्कम में की गई है। आज भारत विश्व का सातवां, और विकासशील देशों में पहला, ऐसा देश है जिसने फास्ट ब्रीडर प्रतिघातक प्रौद्योगिकी में विशेषज्ञता प्राप्त की है।
6.0 भारत में परमाणु विद्युत
विद्युत के तापीय विद्युत, जलविद्युत और अक्षय स्रोतों के बाद परमाणु विद्युत भारत का चौथा सबसे बड़ा विद्युत स्रोत है। 2015 की स्थिति के अनुसार भारत के छह राज्यों में 21 परमाणु प्रतिघातक परिचालित किये जा रहे हैं, जो 5,780 मेगावाट बिज़ली का उत्पादन करते हैं, जबकि पांच अन्य प्रतिघातक निर्माणाधीन हैं, और ऐसी उम्मीद है कि इनसे 3,800 मेगावाट अतिरिक्त विद्युत उत्पादन किया जा सकेगा।
अक्टूबर 2010 में भारत ने ‘‘2032 में 63,000 मेगावाट परमाणु विद्युत उत्पादन क्षमता तक पहुंचने की एक महत्वाकांक्षी योजना‘‘ बनाई है, परंतु ‘‘भारत के प्रस्तावित परमाणु विद्युत संयंत्रों के निकट रहने वाले लोगों ने विरोध प्रदर्शनों की शुरुआत कर दी है, जो परमाणु ऊर्जा के स्वच्छ, सुरक्षित और जीवाश्म ईंधनों के वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत होने पर प्रश्न उठा रहे हैं।‘‘ फ्रांस की सहायता से निर्मित होने वाले 9,900 मेगावाट क्षमता वाले महाराष्ट्र के जैतापुर परमाणु विद्युत संयंत्र और तमिलनाडु के 2,000 मेगावाट क्षमता वाले कूडनकुलम परमाणु विद्युत संयंत्र के विरुद्ध विशाल जन प्रदर्शन हुए हैं। पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार ने भी 6000 मेगावाट क्षमता वाली प्रस्तावित सुविधा को हरिपुर शहर ने निकट स्थापित करने की मंजूरी प्रदान करने से इंकार कर दिया है, जिसमें छह रूसी प्रतिघातक स्थापित किये जाने का प्रस्ताव था। सर्वोच्च न्यायालय में सरकार के नागरिक परमाणु कार्यक्रम के विरुद्ध एक जनहित याचिका भी दायर की गई है।
इन बाधाओं के बावजूद भारतीय प्रतिघातकों का क्षमता गुणक 2010-11 के 71 प्रतिशत की तुलना में 2011-12 में 79 प्रतिशत था। 2011-12 के दौरान भारत के 20 में से 9 प्रतिघातकों ने 97 प्रतिशत का अभूतपूर्व क्षमता गुणक प्राप्त किया। फ्रांस से आयात किये गए यूरेनियम के साथ 220 मेगावाट क्षमता वाले काकरापार 2 पीएचडब्लूआर प्रतिघातकों ने 2011-12 के दौरान 99 प्रतिशत क्षमता गुणक दर्ज किया। 2011-12 के लिए उपलब्धता का गुणक 89 प्रतिशत था।
भारत थोरियम आधारित ईंधनों के क्षेत्र में प्रगति करता रहा है। थोरियम और न्यून समृद्ध यूरेनियम का उपयोग करके परमाणु प्रतिघातक के लिए एक प्रक्तिकृति की रचना और विकास करने पर कार्य किया जा रहा है, जो भारत के त्रिस्तरीय परमाणु विद्युत कार्यक्रम का प्रमुख भाग है।
6.1 भारत के परमाणु क्षेत्र में विदेशी निवेश
भारत का नागरिक परमाणु कार्यक्रम, जो अनेक वर्षों तक अधिकांशतः स्वदेशी था, अब विदेशी निवेश की ओर रुख कर रहा है। इसका उद्देश्य है विदेशी कंपनियों द्वारा आपूर्ति किये गए ‘‘परमाणु उद्यान‘‘ स्थापित करना, जिनका परिचालन - हाल समय के लिए - भारतीय परमाणु विद्युत निगम लिमिटेड (एनपीसीआईएल) द्वारा किया जायेगा, जो सरकार के स्वामित्व वाली कंपनी है। इन उद्यानों की स्थापित उत्पादन क्षमता प्रत्येक स्थान पर 8,000 से 10,000 मेगावाट नियोजित की गई है। क्योंकि वर्तमान में एक स्थान पर सर्वोच्च स्थापित क्षमता केवल 1,400 मेगावाट है (महाराष्ट्र में स्थित तारापुर परमाणु विद्युत केंद्र, जिसमें चार प्रतिघातक हैं)।
रूसी कंपनी एटमस्ट्रॉयएक्सपोर्ट, जो एक सरकारी सहायक कंपनी है, ने भारत में सोलह परमाणु प्रतिघातक निर्माण करने के सौदे को अंतिम रूप दिया है। इनमें से प्रत्येक 1,000 मेगावाट क्षमता वाली एक इकाई वर्तमान में तमिलनाडु के कुडनकुलम में निर्माणाधीन है।
फ्रांसीसी कंपनी अरेवा एनपी (यह अरेवा और सीमेंस के बीच एक संयुक्त उपक्रम है) महाराष्ट्र के जैतापुर में 1,650 मेगावाट क्षमता वाले छह प्रतिघातकों के निर्माण के लिए सहमति प्रदान कर चुकी है। यूरोपीय दाबानुकूलित प्रतिघातक, जो अभी तक अपरीक्षित प्रकार के प्रतिघातक हैं, इनकी संयुक्त क्षमता 9,900 मेगावाट होगी, जिसके कारण जैतापुर का परमाणु विद्युत संयंत्र विश्व का सबसे बड़ा परमाणु विद्युत संयंत्र बन जायेगा।
निजी अमेरिकी कंपनियों जीई - हिताची परमाणु ऊर्जा और वेस्टिंगहाउस इलेक्ट्रिक को क्रमशः आंध्र प्रदेश के कोवाडा और गुजरात के मिथिवीरदी में छह कार्यस्थल दिए गए हैं।
7.0 परमाणु अस्त्रों के लिए समादेश और नियंत्रण व्यवस्था
7.1 परमाणु समादेश प्राधिकरण (एनसीए) (Nuclear Command Authority)
भारत सरकार ने जनवरी 2003 में एनसीए के गठन की घोषणा की, जो परमाणु हमलों के आदेश देने के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार होगा। एनसीए में दो निकाय होंगे, राजनीतिक परिषद और कार्यकारी परिषद।
राजनीतिक परिषद ऐसा इकलौता निकाय है जो परमाणु अस्त्रों के उपयोग को अधिकृत कर सकता है। यह नागरिक नेतृत्व का प्रतिनिधित्व करता है। बराबर के बीच प्रथम के रूप में प्रधानमंत्री की परमाणु बटन पर सांकेतिक ऊँगली होगी। अध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री के अतिरिक्त राजनीतिक परिषद का प्रतिनिधित्व गृह मंत्री, रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री और वित्त मंत्री भी करेंगे।
प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की अध्यक्षता में कार्यकारी परिषद राष्ट्रीय समादेश प्राधिकरण द्वारा निर्णय लेने के लिए निविष्टियां प्रदान करेगी और राजनीतिक परिषद द्वारा दिए गए निर्देशों का क्रियान्वयन करेगी।
मंत्रिमंड़लीय समिति ने एक ‘‘प्रधानसेनापति, सामरिक बल कमान‘‘ की नियुक्ति का भी अनुमोदन किया, जो परमाणु बलों के प्रशासन के लिए जिम्मेदार होगा। यह समस्त परमाणु अस्त्रों और वितरण व्यवस्था का अभिरक्षक होगा। यह प्राप्ति के लिए रणनीति भी बनाएगा और चीफ ऑफ स्टाफ समिति को सलाह देगा, और वास्तव में परमाणु अस्त्रों को दागेगा। इसका अंतिम निर्णय नेता (प्रधानमंत्री) को सैन्य सलाह के आधार पर अपनी व्यक्तिगत क्षमता में करना है, विशेष रूप से तब जब हम केवल जवाबी कार्रवाई करने वाले हैं।
7.2 सामरिक बल कमान (एसएफसी) (Strategic Force Command)
यह कार्यकारी परिषद के नीचे रह कर कार्य करती है। यह परमाणु बलों पर समग्र परिचालन नियंत्रण का कार्य करती है। यह कमान तीनों सेनाओं के बीच चक्रीय होती है- वायुसेना, थलसेना और नौसेना। इसका नेतृत्व मंत्रिमंड़ल द्वारा अनुमोदित प्रधान सेनापति द्वारा किया जाता है, जो चीफ ऑफ स्टाफ समिति को रिपोर्ट करेगा। एयर मार्शल टी.एम. अस्थाना एसएफसी के पहले प्रधान सेनापति थे।
एसएफसी को जवाबी परमाणु हमले की रणनीति बनाने का कार्य भी सौंपा गया है, साथ ही यह चीफ ऑफ स्टाफ समिति को सलाह भी देगी। एसएफसी कुछ रणनीतिक स्क्वाड्रनों के हस्तांतरण की भी मांग करता है, जिनमें मिराज 2000, गहरी पैठ करने वाले लडाकू विमान जगुआर और एसयू-30 एमकेआई शामिल हैं। ये परमाणु हमले करने में सक्षम विमान देश की प्रस्तावित थल, जल और वायु परमाणु त्रयी के हवाई अंग हैं।
8.0 परमाणु प्रचालकों का विश्व संगठन (डब्लूएएनओ)
यह चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना बाद 1989 में लंदन में स्थापित किया गया एक गैर-सरकारी संगठन है। इसमें 33 देशों के परमाणु वैज्ञानिक प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें भारत भी शामिल है। डब्लूएएनओ का प्रमुख कार्य है प्रतिघातकों के परिचालन में सुरक्षा का क्षेत्र। यह उन परमाणु प्रतिघातकों के सुरक्षा पहलुओं को प्रमाणित करता है जो इसके निरीक्षण के लिए खुले हैं।
8.1 विशाल हैड्रन कोलाइडर - एलएचसी
विशाल हैड्रन कोलाइडर (एलएचसी) विश्व का सबसे बड़ा और सबसे शक्तिशाली कण उत्प्रेरक है। पहली बार इसकी शुरुआत 10 सितंबर 2008 को की गई, और यह आज तक सीईआरएन के उत्प्रेरक संकुल का नवीनतम परिशिष्ट बना हुआ है। एलएचसी में अनेक उत्प्रेरण संरचनाओं के साथ अतिचालक चुंबकों का 27 किलोमीटर का चक्र है ताकि रास्ते में कणों की ऊर्जा में वृद्धि की जा सके।
उत्प्रेरक के अंदर टकराने देने से पहले दो उच्च ऊर्जा कण किरणें लगभग प्रकाश की गति से यात्रा करती हैं। ये किरणें स्वतंत्र किरण पाइपों में विरुद्ध दिशा में यात्रा करती हैं - अत्यधिक उच्च निर्वात पर रखी हुई दो नलियां। उन्हें अतिचालक विद्युतचुंबकों द्वारा बनाये रखे गए एक उच्च चुंबकीय क्षेत्र द्वारा उत्प्रेरक के इर्द-गिर्द निर्देशित किया जाता है। विद्युतचुंबकों का निर्माण विशेष विद्युत तारों के वेष्ठन से किया जाता है जो अतिचालक स्थिति में परिचालित होता है, और वह प्रतिरोध या ऊर्जा हानि के बिना अत्यंत कार्यकुशलता से विद्युत प्रवाह करता है। इसके लिए चुंबकों का 271.3 अंश सेल्सियस तापमान पर शीतलन किया जाना आवश्यक है, एक ऐसा तापमान जो बाहरी अंतरिक्ष से भी अधिक ठंडा है। इसी कारण से उत्प्रेरक का अधिकांश भाग द्रव्य हीलियम की एक वितरण व्यवस्था से जुड़ा होता है जो चुंबकों और अन्य आपूर्ति सेवाओं को ठंड़ा करती है।
उत्प्रेरक के अंदर किरणों को निर्देशित करने के लिए विभिन्न प्रकार और विभिन्न आकारों के हजारों चुंबकों का उपयोग किया जाता है। इनमें 15 मीटर लंबे 1232 द्विध्रुवीय चुंबक शामिल हैं, जो किरणों को मोड़ते हैं, साथ ही इसमें 5 से 7 मीटर लंबे 392 चतुध्रुवीय चुंबक लगे होते हैं जो किरणों को केंद्रित करते हैं। टकराने से ठीक पहले कणों को एक साथ निकट ‘‘निचोडने‘‘ के लिए एक अन्य प्रकार के चुंबक का उपयोग किया जाता है, ताकि टकराने की संभावनाएं अधिक हों। कण इतने सूक्ष्म होते हैं कि उनको टकराने के लिए प्रेरित करने का काम उतना ही कठिन है जितना दो सुइयों को 10 किलोमीटर के अंतर से इस सटीकता से दागना ताकि वे ठीक बीचों बीच एक दूसरे से मिलें।
उत्प्रेरक के लिए सभी नियंत्रण, उसकी सेवाएं, और तकनीकी अधोसंरचना सीईआरएन के नियंत्रण केंद्र में एक ही छत के नीचे रखी जाती हैं। यहां से एलएचसी के अंदर की किरणों को उत्प्रेरक चक्र के इर्द-गिर्द चार स्थानों पर टकराया जाता है जो चार कण संसूचकों की स्थितियों के समरूपी होते हैं -एटलस, सीएमएस, एएलआईसीई और एलएचसीबी।
9.0 भारत में परमाणु शक्ति का भविष्य
भारत में परमाणु शक्ति का विकास कल्पना और रोमांस से उतना ही चलित है जितना वह वैज्ञानिक और रणनीतिक गणनाओं से। इसकी विदेश नीति, नियोजन और वैज्ञानिक स्वभाव के ही समान पंडित नेहरू ने भारत में परमाणु नीति का उत्तरदान किया, जिसपर हमेशा ही एक राष्ट्रीय आमसहमति रही है। होमी भाभा एक राष्ट्रीय नायक हैं और एक विमान दुर्घटना में उनके दुःखद निधन को भारत के विरुद्ध एक संभावित षड्यंत्र का भाग माना जाता है। देश में परमाणु नीति और परमाणु कार्यक्रमों के संबंध में चरम गोपनीयता का पालन किया जाता है, जो राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य मुद्दों के संबंध में पूर्ण ढ़ंग से खुली है। यहां तक कि जब भविष्यवाणियां और अनुमान गलत साबित हो जाते हैं और सरकारी कार्रवाई का कोई स्पष्टीकरण देना संभव नहीं होता, ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो अनपेक्षित घटनाओं का स्पष्टीकरण दे पाये जिन्होंने शायद यह मार्ग परिवर्तित कर दिया होता। अनेक वर्षों पहले बनाई गई नीतियों और शुरू की गई परियोजनाओं को शुचिता प्रदान की जाती है, और बीच में कोई सुधार किया गया, यदि किया गया तो, उसे सामान्य कार्य के भाग के रूप में दर्शाया जाता है। परमाणु अखाडे़ में काफी कुछ हो रहा है, परंतु कुल मिला कर भारत अपने परमाणु भविष्य के प्रति समर्पित है।
हर सरकार जो सत्ता में आई, उसकी नीतियां, और भारतीयों की जनभावना हमेषा से भविश्य के भारत की उर्जा आवष्यकताओं में परमाणु उर्जा को महत्वपूर्ण स्थान देती आई है। वास्तव में परमाणु शक्ति के विरुद्ध वैश्विक प्रवृत्ति ने भारत को परमाणु संयंत्रों और परमाणु सामग्री के मूल्यों की दृष्टि से अवसर प्रदान किये हैं। परन्तु भारत का परमाणु शक्ति परिदृश्य परमाणु हो रहे नए वैज्ञानिक अनुसंधानों से प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकता, जिसमें इसकी लागतें और इससे होने वाले खतरे भी शामिल हैं, और साथ ही शामिल है सुरक्षित और कुशल और सक्षम विकल्पों की उपलब्धता। अंत में यही कहा जा सकता है कि भारत को वही मार्ग अपनाना चाहिए जो उसके दूरगामी हित में हो, फिर चाहे विश्व की कोई भी शक्ति इसके विषय में कुछ भी सोचती हो।
10.0 भारत-अमेरिकी परमाणु समझौता
जनवरी 2015 में भारत और अमेरिका के बीच नागरिक परमाणु संधि को परिचालनात्मक बनाने संबंधी हुए समझौते के बाद भारत की परमाणु विद्युत क्षमता वृद्धि को काफी बढ़ावा मिलने की उम्मीद है।
भारत-अमेरिकी नागरिक परमाणु समझौता या भारत-अमेरिकी परमाणु समझौता, जिसे 123 समझौता भी कहा जाता है, भारत और अमेरिका के बीच 2008 में हुआ था। इस समझौते की रूपरेखा 2005 में निर्धारित की गई थी। समझौता होने में का समय लगा, क्योंकि इसे अनेक जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना आवश्यक था, जिनमें अमेरिकी घरेलू कानून में संशोधन, विशेष रूप से 1954 का परमाणु ऊर्जा अधिनियम, भारत में एक नागरिक-सैन्य पृथक्करण योजना, भारत-आईएईए सुरक्षा उपाय (निरीक्षण) समझौता और परमाणु आपूर्ति समूह द्वारा भारत को छूट प्रदान करना, और मुख्य रूप से 1974 में भारत के पहले परमाणु परीक्षण के प्रतिक्रियास्वरूप निर्मित निर्यात नियंत्रण उत्पादक संघ शामिल थे। हालांकि दुर्घटना की स्थिति में आपूर्तिकर्ताओं के दायित्व और इसके प्रस्तावित संयंत्रों के लिए अमेरिका और अन्य देशों द्वारा की गई ईंधन की आपूर्ति की निगरानी जैसे विषयों पर शीघ्र ही विवाद उत्पन्न हुआ। 2015 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान गतिरोध दूर किया गया। हालांकि असहमति के बिंदुओं को किस प्रकार सुलझाया गया है इसका विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है। कई प्रमुख भारतीय आपूर्तिकर्ताओं को परमाणु क्षति के लिए नागरिक दायित्व अधिनियम के अनुच्छेद 17 (बी) के उनके निर्वचन के आधार पर इस बात को लेकर भय था कि उनमें से प्रत्येक आपूर्तिकर्ता को, फिर चाहे उनके द्वारा की गई आपूर्ति का मूल्य और अनुबंधित उत्पाद दायित्व अवधि कुछ भी हो, दायित्व की अधिकतम राशि (प्रत्येक द्वारा 1500 करोड़ रुपये) के बराबर की राशि परमाणु संयंत्र की जीवन अवधि (जिस संयंत्र के लिए उन्होंने आपूर्ति की है) के अंत तक अलग निकालकर रखनी होगी, और शायद इससे भी दो दशक अधिक अवधि के लिए यह राशि रखनी होगी। ऐसा माना जाता है कि अमेरिका भी उन प्रतिघातकों को, जो उनके आपूर्तिकर्ता भारत में निर्मित करने वाले हैं, ईंधन आपूर्ति की निगरानी पर जोर दे रहा था, यहां तक कि तृतीय विश्व देशों द्वारा की गई ईंधन आपूर्ति की निगरानी पर भी। कहा जाता है कि नई दिल्ली इन शर्तों का हस्तक्षेप करने वाली शर्तों में विरोध कर रही थी, और उसका कहना था कि वह केवल अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अभिकरण के सुरक्षा उपायों के ही अधीनस्थ रहेगी। बीमा देयता परिच्छेद पर भारत अमेरिका को बताता रहा है कि वह एक सामूहिक लाभ कोष का निर्माण करेगा जो दुर्घटना की स्थिति में अमेरिकी प्रतिघातक निर्माताओं को देयता से सुरक्षित कर देगा।
भारत की बढ़ती ऊर्जा मांगों की पूर्ति के लिए परमाणु विद्युत एक बेहतर विकल्प है, परंतु चूँकि भारत में यूरेनियम पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है, अतः दूसरे देशों से आयात अनिवार्य हो जाते हैं। इसीलिए उसके आयातों पर लगे प्रतिबंधों को हटाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संधियों की आवश्यकता है। नागरिक परमाणु संधि देश के हित में है क्योंकि यह देश की परमाणु ऊर्जा क्षमताओं में वृद्धि करेगी, और देश की बढ़ती ऊर्जा मांगों की पूर्ति करेगी। परमाणु ऊर्जा विभाग ने 2032 तक 63,000 एमडब्लूई की स्थापित परमाणु क्षमता तक पहुंचने का लक्ष्य स्वयं के लिए निर्धारित किया है। और इसे 2040 तक शायद 68,000 एमडब्लूई तक बढाया भी जा सकता है। हमें उम्मीद है कि तब तक अंतर्राष्ट्रीय नागरिक परमाणु सहयोग के साथ लगभग 40000 एमडब्लूई स्थापित क्षमता वाले प्रतिघातक शुरू किये जा सकेंगे। हम यह भी उम्मीद करते हैं कि स्वदेशी प्रतिघातकों के अतिरिक्त निर्माण के साथ इन योगदानों के माध्यम से हम लक्ष्य का एक प्रमुख भाग प्रदान करने में सक्षम हो जायेंगे, जिसमें भारत में रचित हलके जल प्रतिघातक भी शामिल हैं।
11.0 भारत-श्रीलंका नागरिक परमाणु समझौता
श्रीलंकाई राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना की भारत यात्रा के दौरान फरवरी 2015 में भारत और श्रीलंका ने एक नागरिक परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं। ष्परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग में सहयोग पर हुआ यह समझौता ज्ञान और विशेषज्ञता के हस्तांतरण और विनिमय, संसाधनों को साझा करने, क्षमता निर्माण, और परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग में कर्मियों के प्रशिक्षण को सुविधाजनक बनाएगा, जिसमें रेडियो समस्थानिकों का उपयोग, परमाणु भयमुक्ति, विकिरण सुरक्षा, परमाणु सुरक्षा, रेडियोधर्मी अपशिष्ट प्रबंधन, और परमाणु और क्षरश्मिकी आपदा शमन और पर्यावरणीय संरक्षण भी शामिल है। परमाणु ऊर्जा विभाग के सचिव श्री रतन कुमार सिन्हा और श्रीलंका के बिजली एवं ऊर्जा मंत्री पाताली चंपिका रणवाका ने क्रमशः भारत और श्रीलंका की ओर से हस्ताक्षर किये। इस समझौते के तहत भारत श्रीलंका को उसकी परमाणु ऊर्जा अधोसंरचना के निर्माण में सहायता करेगा, जिसमें कर्मियों का प्रशिक्षण भी शामिल है। बाद में इस प्रक्रिया को विस्तारित किया जायेगा, जब भारत हलके लघु परमाणु श्रीलंका बेच सकेगा। यह समझौता प्रारंभिक है, और इसके कारण तत्काल परमाणु ऊर्जा प्रतिघातकों का निर्माण नहीं किया जायेगा।
इस समझौते के भारतीय उपमहाद्वीप में उल्लेखनीय भू-राजनीतिक प्रभाव हैं। यह चीन के लिए एक बडे़ आघात के रूप में देखा जा रहा है, जिसने पिछली राजपक्षे सरकार के साथ कोलंबो के वाणिज्यिक बंदरगाह के निकट एक समुद्री बंदरगाह विकसित करने के लिए 1.5 बिलियन डॉलर का समझौता किया था। सिरिसेना सरकार ने इस परियोजना को सीधे बंद नहीं किया है परंतु पर्यावरणीय मंजूरी के लिए प्रेषित करके इसे नौकरशाही में उलझाकर रखा है। चीन, रूस, और यहां तक कि पाकिस्तान जैसे विकल्पों के होते हुए, जिनके काफी प्रतिष्ठान श्रीलंका में मौजूद है, श्रीलंकाई सरकार ने भारत को चुना। भारत ने सफलतापूर्वक इन सभी विकल्पों को दरकिनार कर दिया। इस समझौते को भारत की एक प्रमुख कूटनीतिक विजय के रूप में देखा जा रहा है, और इसके लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ने भी भारत की प्रशंसा की है। श्री सिरिसेना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कृषि सहयोग, नालंदा विश्वविद्यालय पर एक समझौता ज्ञापन और सांस्कृतिक सहयोग पर समझौते सहित तीन समझौतों के साक्षी बने।
नवीनतम 2020 अद्यतन
- भारत में आणविक उर्जा आयोग के अध्यक्ष एवं परमाणु ऊर्जा विभाग के सचिव के.एन. व्यास के अनुसार, बिजली की स्थिति में सुधार तथा उद्योगों एवं आवासीय उपयोग के लिए निर्बाध बिजली की आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए शीघ्र ही 12 और परमाणु ऊर्जा स्टेशन स्थापित किए जाएंगे। अप्रैल, 2019 में रूस के सोची में इंटरनेशनल एटमएक्सपो में ये अवलोकन किए गए थे।
- परमाणु प्रौद्योगिकी विविध माध्यमों से जीवन की बेहतरी में मदद करती है तथा स्वच्छ, प्रदूषण मुक्त ऊर्जा का एक बढ़िया स्रोत है। भारतीय परमाणु कार्यक्रम के संस्थापक, होमी जे. भाभा ने परिकल्पना की थी कि परमाणु प्रौद्योगिकी केवल बिजली क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि जीवन की बेहतरी के लिए अन्य सामाजिक उपयोगों के लिए भी अत्यंत आवश्यक है।
- भारत का मानना है कि जब स्वच्छ ऊर्जा की बात होती है, तो निश्चित रूप से, परमाणु ऊर्जा का कोई विकल्प नहीं है क्योंकि यह स्थायी है, तथा इसे बिना किसी रुकावट के निरंतर पाया जा सकता है। हाल ही में कैगा परमाणु ऊर्जा स्टेशन, जो स्वदेशी रूप से विकसित, 220-250 एमडब्ल्यू रिएक्टर की एक छोटी इकाई है, द्वारा 962 दिनों तक लगातार, 99.3 फीसदी की दर से विद्युत आपूर्ति करने का रिकॉर्ड उल्लेखनीय है।
- भारत का स्वदेशी परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का पहला चरण अब 18 दबाव वाले भारी-जल रिएक्टरों (पीएचडब्ल्यूआरएस) के सफलतापूर्वक संचालन के साथ अपनी परिपक्वता प्राप्त कर चुका है।
- ग्यारहवें अंतर्राष्ट्रीय फोरम एटोमक्सपो 2019 को आधिकारिक तौर पर वर्ष के आदर्श वाक्य ‘बेहतर जीवन के लिए परमाणु’ के साथ सोची में शुरू किया गया। इस एक्सपो में 74 देशों के 3,600 से अधिक प्रतिभागियों ने भाग लिया। इस वर्ष प्रतिनिधित्व करने वाले नए देशों में कतर, बहरीन और निकारागुआ थे।
- ‘पीसफुल एटम’ संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास कार्यक्रम के सभी लक्ष्यों जुड़ा हुआ है।
- रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने परमाणु तकनीक के क्षेत्र में रूस के कद को बढ़ाने के लिए एटमएक्सपो की सराहना की है।
- भारतीय परमाणु उद्योग को अपने बेड़े में 10 पीएचडब्ल्यूआरएस के निर्माण के लिए केंद्र की मंजूरी के बाद जीवनपर्यंत लीज़ मिली है। इसके साथ ही, दो हल्के जल रिएक्टरों के निर्माण के लिए योजनाएं शुरू की गई हैं।
- भारतीय उद्योगों ने भी इस प्रक्रिया से बहुत कुछ हासिल किया है। परमाणु ऊर्जा और उपकरणों के विनिर्माण में एक निर्देशित और व्यवस्थित तरीके तथा गुणवत्ता के आश्वासन की आवश्यकता होती है। इससे उपकरणों के निर्माण में भाग लेने वाले उद्योगों का मानक बढ़ा है।
- परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से न केवल भारत में विनिर्माण को लाभ मिलता है, बल्कि उन क्षेत्रों के आसपास की स्थानीय अर्थव्यवस्था में भी सुधार होता है जहां ये रिएक्टर होते हैं।
भारत द्वारा पोखरण-2 परमाणु परीक्षण 1998
- भारत द्वारा पोखरण-2 परमाणु परीक्षण, 1998 : यह मई 1998 में भारतीय सेना के पोखरण टेस्ट रेंज में भारत द्वारा किए गए पांच परमाणु बम परीक्षण विस्फोटों की एक श्रृंखला थी। पहला परीक्षण (कोड नाम स्माइलिंग बुद्धा) मई 1974 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा किया गया था।
- विवरण : पोखरण-2 में पांच विस्फोट शामिल थे, जिनमें से पहला यूजन बम था और शेष चार विखंडन बम थे। इन परीक्षणों के परिणामस्वरूप जापान, अमेरिका आदि द्वारा भारत के खिलाफ कई तरह के निषेध प्रतिबंध लगाए गए थे।
- ऑपरेशन शक्ति : 11 मई 1998 को, ऑपरेशन शक्ति (पोखरण -2) को एक संलयन और दो विखंडन बमों के विस्फोट के साथ शुरू किया गया था - ‘शक्ति’ जिसका अर्थ अंग्रेजी में ‘पॉवर’ है। बाद में, 13 मई 1998 को, दो अतिरिक्त विखंडन उपकरणों को विस्फोटित किया गया, और भारत सरकार (पीएम अटल बिहारी वाजपेयी) ने भारत को पूर्ण परमाणु राज्य घोषित किया।
- 1974 के बाद के एक्शन : ‘स्माइलिंग बुद्धा’ के जवाब में, न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह-एन.एस.जी.) ने भारत के परमाणु कार्यक्रम को प्रभावित किया, क्योंकि दुनिया की प्रमुख परमाणु शक्तियों ने भारत और पाकिस्तान दोनों पर तकनीकी प्रतिबंध लगाया। भारत का परमाणु कार्यक्रम कर्षण हासिल करने के लिए वर्षों तक संघर्ष करता रहा। भारत के पास स्वदेशी संसाधनों की कमी थी और वह आयातित प्रौद्योगिकी पर निर्भर था। बाद की सरकारों ने अंतरराष्ट्रीय आलोचना के डर से इसे अस्थायी रूप से स्थगित रखने के निर्णय लिए।
- पीवीएन राव और अटल : भारतीय जनता परमाणु परीक्षण चाहती थी, जिस कारण अंततः प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने 1995 में और परीक्षण करने का निर्णय लिया। लेकिन अमेरिकी जासूसों द्वारा पोखरण टेस्ट रेंज (राजस्थान) में परमाणु परीक्षण के संकेत पकड़ लिए जाने एवं तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन द्वारा इसे रोकने के लिए प्रधानमंत्री पर दबाव डाले जाने के बाद योजनाएं रोक दी गई।
- पोखरण 2 : गोपनीयता सुनिश्चित करने के लिए वैज्ञानिकों, वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों और वरिष्ठ राजनेताओं के एक बहुत छोटे समूह द्वारा व्यापक योजना बनाई गई थी। मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार और रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) के निदेशक, डॉ. अब्दुल कलाम, एवं परमाणु ऊर्जा विभाग (डीएई) के निदेशक डॉ. आऱ. चिदंबरम समन्वयक थे।
- राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस : भारत सरकार द्वारा 11 मई 1998 को किए गए पांच परमाणु परीक्षणों को मनाने के लिए आधिकारिक तौर पर भारत में 11 मई राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस के रूप में घोषित किया गया। इस पर 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने आधिकारिक रूप से हस्ताक्षर किए थे एवं इसे विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विभिन्न व्यक्तियों और उद्योगों को पुरस्कार देकर मनाया जाता है।
COMMENTS