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प्लेट विवर्तनिकी और पर्वतों की रचना भाग - 1
1.0 चट्टानें
चट्टानें पृथ्वी की सतह के ठोस घटक हैं, जिनमें विभिन्न अनुपातों में खनिज उपलब्ध होते हैं। चट्टानें विभिन्न प्रक्रियाओं के फलस्वरूप निर्मित हो सकती हैं। कुछ चट्टानें पृथ्वी की सतह के नीचे बनी-बनाई होती हैं और ज्वालामुखी के कारण बाहर निकलती हैं, जबकि अन्य चट्टानें विस्फोट के दौरान स्थान पर ही निर्मित होती हैं। कुछ चट्टानों को उनका आकार और स्वरुप पृथ्वी की सतह पर होने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं से प्राप्त होता है। उत्पत्ति का स्थान, तत्वों के स्वरुप और प्रक्रियाएं अंतिम उत्पाद का निर्धारण करते हैं।
रासायनिक और खनिज रचनाः वे चट्टानों के डीएनए होते हैं। वे उनके उत्पत्ति के स्थान के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उदाहरणार्थ, सतह से अधिक गहराई से मिली चट्टानों में अन्य की तुलना में उच्च धातुएं होती हैं।
बनावट और संरचनाः बनावट का संदर्भ दानों के आकार, आति, और उन्मुखीकरण से है। सामान्य भाषा में बनावट की जानकारी हमें तब होती है जब हम चट्टान के किसी टुकडे़ को अपनी उँगलियों से स्पर्श करते हैं। व्यापक स्तर पर बनावट संरचना का निर्धारण करती है, और इसके अनुसार ही इसकी अन्य भौतिक विशेषताओं को भी निर्धारित करती है, जैसे भेद्यता, भंगुरता इत्यादि।
प्राप्त होने का माध्यमः वह प्रक्रिया जिसके परिणामस्वरूप चट्टान की रचना हुई है, वह भी इसके स्वरुप और संवेदना को निर्धारित करती है। उदाहरणार्थ, तेजी से ठंड़ा होने वाला लावा ऐसी चट्टानों की निर्मिति करता है जो धीरे-धीरे ठंडे़ होने वाले लावा से निर्मित चट्टानों की तुलना में अधिक मणिभीय होती हैं।
चट्टानों के केवल तीन वर्गीकरण होते हैं, जिनके नाम हैं, आग्नेय, तलछटी और कायांतरित। इसका अधिक जटिल भाग यह है कि इनमें से प्रत्येक के उपवर्ग होते हैं!
1.1 आग्नेय चट्टानें
आग्नेय चट्टानों की निर्मिति पृथ्वी की सतह से नीचे के ठंडे और ठोस होते मैग्मा (पृथ्वी की भूपर्पटी के नीचे के पिघले हुए खनिजों का पिंड) द्वारा होती है। वे ज्वालामुखी दरारों के माध्यम से पृथ्वी की सतह तक पहुंचती हैं। इस प्रक्रिया को मणिभीकरण (क्रिस्टलीकरण) कहा जाता है, क्योंकि अधिकांश आग्नेय चट्टानें स्वरुप में मणिभीय होती हैं। आग्नेय चट्टानों के तीन उपवर्ग होते हैंः
अम्लीय और आधारभूतः जिन चट्टानों में सिलिका का अधिक अनुपात होता है उन्हें अम्लीय चट्टानें कहा जाता है, और जिन चट्टानों में लोहे, मैग्नीशियम, एल्युमीनियम इत्यादि जैसे आधारभूत ऑक्साइड्स की मात्रा अधिक होती है उन्हें आधारभूत चट्टानें कहा जाता है।
वितलीय और ज्वालामुखी चट्टानेंः जो पिघली हुई चट्टानें ठोस होने से पहले ही सतह पर आ जाती हैं उन्हें वितलीय चट्टानें कहा जाता है। इसके विपरीत ज्वालामुखी चट्टानें वे होती हैं जो तब ठोस बनती हैं जब पिघला हुआ लावा पृथ्वी की सतह पर पहुंचता है।
दखल देने वाली और बहिर्वेधन चट्टानेंः ये क्रमशः वितलीय और ज्वालामुखी चट्टानों के अन्य नाम हैं।
1.2 तलछटी चट्टानें
इस प्रकार की चट्टानें लंबे समय के दौरान तलछट के जमा होने के कारण निर्मित होती हैं, आमतौर पर पानी और हवा की गतिविधि के कारण। इन्हें स्तरीकृत चट्टानें भी कहा जाता है, क्योंकि वे परतों में बनी हुई होती हैं। आमतौर पर इनमें विभिन्न प्रकार के जीवाश्म (जैव पदार्थों के अवशेष) विद्यमान होते हैं। वे उनकी उत्पत्ति के तंत्र के आधार पर उप-वर्गीकृत होती हैं।
यंत्रवत् निर्मित चट्टानेंः ये चट्टानें अन्य चट्टानों से उत्पन्न पदार्थों के जुड़ने से निर्मित होती हैं। इनका उपयोग आमतौर पर बलुआ पत्थर, मिट्टी, रेती और कंकड़ों के रूप में भवन निर्माण सामग्री में किया जाता है। बिल्लौर की निर्मिति भी इसी प्रक्रिया के द्वारा होती है।
बवाल से निर्मित तलछटः ये खोल मछलियों और प्रवाल जैसे जीवों के अवशेषों से निर्मित होते हैं। ऑस्ट्रेलिया का द ग्रेट बैरियर रीफ इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। चूनापत्थर, कोयला और खड़िया भी इसी प्रकार की चट्टानों के उदाहरण हैं। इनका उप-वर्गीकरण निम्नानुसार हैः
चूनेदारः जीवों के अवशेषों से बना होता है। इसके कुछ उदाहरण हैं चूनापत्थर और खड़िया।
कार्बनयुक्तः वनस्पतीय पदार्थों के अवशेषों द्वारा दलदलों और वनों में निर्मित चट्टानें। इसके उदाहरण हैं दलदल का कोयला और लिग्नाइट।
रासायनिक ढंग से निर्मित तलछटेंः इस प्रकार की चट्टानें रसायन होते हैं, जो किसी न किसी प्रकार के घोल से अवक्षेपित होते हैं। जिप्सम इसका एक प्रकार है, जो नमक झीलों के वाष्पीकरण के कारण निर्मित होता है, जिनमें उच्च मात्रा में खारापन होता है। इसी प्रकार से, पोटाश, सेंधा नमक और नाइट्रेट्स की निर्मिति होती है।
1.3 कायांतरित चट्टानें
कायांतरित चट्टानों को परिभाषित करना आसान है। परंतु इसकी परिभाषा चट्टानों की परिवर्तनीयता परिभाषा के भानुमति के पिटारे को खोल देता है। एक प्रकार की चट्टान की दूसरे प्रकार की चट्टान के रूप में परिवर्तित होने की प्रक्रिया निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया है, और इसे चट्टान चक्र कहते हैं। चट्टान चक्र एक प्रकार की चट्टान के दूसरी प्रकार की चट्टान में आवर्ती अनुक्रम में परिवर्तित होने का मार्ग है। पहली बार इसका सुझाव आधुनिक भूविज्ञान के संस्थापक जेम्स हटन द्वारा दिया गया था। हम चट्टान चक्र का परीक्षण करते हैं।
अपक्षय और कटावः इसका संदर्भ हवा और पानी की गतिविधि से है। इसके कारण अन्य प्रकार की चट्टानों का विखंडन और तहीकरण में होता है। निक्षेप और द्विस्रोतः अपक्षय और कटाव के बाद चट्टानें दबी हुई रहती हैं। इनमें द्विस्रोत नामक रासायनिक, यांत्रिक और जैविक परिवर्तन होते हैं, जिनसे तलछट चट्टानों की निर्मिति होती है।
दबाव और ऊष्माः इसका संबंध भूमिगत चट्टानों की स्थिति से है, जो उच्च दाब और तापमानों से गुजरती हैं, और कायांतरित चट्टानों में परिवर्तित हो जाती हैं।
चट्टानों का पुनः मैग्मा में परिवर्तित होनाः यह भूकंप सूचक क्षेत्रों के आसपास दिखाई देता है। जब दो विवर्तनिक प्लेटें एक दूसरे से टकराती हैं, तो ऐसी संभावना होती है कि उनमें से एक नीचे की ओर लुढ़क जाएगी। यह परत फिर मैग्मा में परिवर्तित हो जाती है, और इसका पृथ्वी के किसी अन्य भाग में पुनर्नवीनीकरण होता है।
2.0 महाद्वीपीय विस्थापन
महाद्वीपीय विस्थापन का सिद्धांत कहता है कि सभी महाद्वीप एक बडे़ स्थलभाग के रूप में एक दूसरे से जुडे़ हुए थे जिसे पैंजिया कहा जाता था। अति विशाल समय के दौरान ये महाद्वीप एक दूसरे से विस्थापित हो कर अपने वर्तमान स्थानों पर आ गए। महाद्वीपीय विस्थापन के विचार का सबसे पहले अल्फ्रेड़ वेगनर ने समर्थन किया था।
सदियों पहले जब अटलांटिक महासागर के पहले मानचित्र बनाये गए थे, उस समय भूगोलविद् अब्राहम ऑर्टलस ने 1596 में प्रकाशित अपनी थिसॉरस जियोग्राफीकस् के तीसरे संस्करण में अफ्रीका, यूरोप और अमेरिकाओं की तटीयरेखाओं के बीच समानताओं की ओर ध्यान दिया। प्लेटो के अटलांटिस का निधन सिद्धांत का अनुकूलन करते हुए ऑर्टलस ने तर्क दिया कि अमेरिका यूरोप और अफ्रीका से ‘‘फाड़कर‘‘ अलग हो गया था, और यह भी कहा कि ‘‘यूरोप और अफ्रीका के उभरे हुए भाग‘‘ अमेरिका की ‘‘खाड़ियों‘‘ में सुगमता से स्थापित हो जायेंगे।
इस प्रकार के पर्यवेक्षण तब तक केवल कोरी कल्पनायें थीं, जब तक ऑस्ट्रियाई जलवायु विज्ञानी अल्फ्रेड़ वेगनर ने विपरीत तटरेखाओं के स्थापन को अपनी महाद्वीपीय विस्थापन की परिकल्पना के समर्थन के लिए साक्ष्य के टुकड़ों के रूप में इस्तेमाल नहीं किया। महाद्वीपीय विस्थापन तर्क देता है कि किसी समय सभी महाद्वीप केवल एक ही विशाल महाद्वीप भूस्थल के रूप में थे। वेगनर पृथ्वी की सतह पर महाद्वीपों की गतिशीलता को समझाने के लिए कोई उचित तंत्र प्रस्तुत नहीं कर पाया, अतः उसकी परिकल्पना को उस समय तक बहुत ही कम समर्थन मिल पाया, जब तक कि प्रौद्योगिकी ने महासागरीय तल के रहस्यों को उजागर नहीं कर दिया।
1912 में वेगनर द्वारा महाद्वीपीय विस्थापन के लिए दिया गया स्पष्टीकरण यह था कि पृथ्वी के घूर्णन के कारण विस्थापन होता है। उनका यह स्पष्टीकरण और उनका सिद्धांत व्यापक रूप से स्वीकृत नहीं हो पाया। हालांकि वेगनर के पूर्व भी अनेकों के यह नोट किया था कि महाद्वीपों के आकार एकसाथ स्थापित होते प्रतीत होते थे, जो किसी प्राचीन फूट की ओर इशारा करते थे।
2.1 सिद्धांत का समर्थन करने वाले कारक
1950 के दशक से पहले, अधिकांश भाग में महाद्वीपीय विस्थापन की संकल्पना को सत्याभासी भी नहीं माना जाता था। हालांकि 1950 के दशक में, और उसके बाद भूवैज्ञानिकों ने इस सिद्धांत पर विचार करना शुरू किया, और 1960 के दशक में अधिकांश भूवैज्ञानिकों ने यह स्वीकार करना शुरू किया कि यह सिद्धांत संभव हो सकता था। विस्थापन को स्वीकारने के पीछे अनेक कारक हैं।
अलग-अलग महाद्वीपों से प्राप्त जीवाश्म दस्तावेज, विशेष रूप से महाद्वीपों के बाहरी भाग के दस्तावेज समान प्रजातियों को दर्शाते हैं। यहां तक कि महाद्वीपों की कल्पित टूट रेखाओं के निकट के खनिजों के नमूने भी लगभग समान हैं। कुछ समान प्रजातियां कुछ विशिष्ट महाद्वीपों में पायी जाती हैं, जैसे कि एक केंचुआ अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में समान पाया जाता है, जो इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि एक सी प्रजातियां दोनों महाद्वीपों में उत्स्फूर्त पैदा नहीं हो सकतीं, जब तक कि उनमें कुछ भिन्नताएं ना हों।
उनका मानना था कि घूमती हुई पृथ्वी पर एक केंद्रत्यागी प्रभाव के द्वारा महाद्वीप भूमध्यरेखा की ओर लटके हुए थे, जबकि महाद्वीपों की पश्चिम की ओर की गतिमानता चंद्रमा और सूर्य के ज्वारीय बल के कारण थी। प्रारम्भ में अधिकांश भूवैज्ञानिकों और भू-भौतिकविदों ने इस सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया था, व्यापक रूप से इसलिए क्योंकि कोई व्यवहार्य तंत्र उपलब्ध नहीं था। वेगनर को सनकी समझ कर खारिज कर दिया गया था। कुछ औचित्य के साथ उसके आलोचकों का दावा था कि उसने सावधानीपूर्वक उन साक्ष्यों का चयन किया था जो उसकी परिकल्पना का समर्थन करते थे, जबकि उसने विरोधाभासी साक्ष्यों को नज़रअंदाज किया था। उदाहरणार्थ प्राचीन समुद्र तलों में वे ‘‘निशान‘‘ या ‘‘पथमार्ग‘‘ कहां थे जो प्रवर्जक महाद्वीपों ने छोडे़ होंगे? परंतु कुछ भूवैज्ञानिकों ने वेगनर का पक्ष लिया। वेगनर के सिद्धांत के समर्थन में मुख्य अवलोकन निम्नानुसार थेः
महाद्वीपों का स्थापनः महाद्वीपों की विपरीत तटरेखाएं अक्सर आपस में स्थापित हो जाती हैं। यदि महाद्वीपीय जलसीमा का उपयोग, तट से थोड़ा दूर किया जाए तो यह स्थापन और भी अधिक बेहतर दिखाई देगा। महाद्वीपीय तटरेखाओं के बीच समानता पर गौर करने वाला वेगनर अकेला नहीं था। अनेक सदियों पहले भी मानचित्र बनाने वालों ने इसी प्रकार का पर्यवेक्षण किया था।
पर्वतीय पट्टियों, चट्टान प्रकारों की समानताः यदि महाद्वीपों को पैंजिया के रूप में पुनर्गठित किया जाए तो पश्चिमी अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका, ग्रीनलैंड़ और पश्चिमी यूरोप के पर्वत एकसमान दिखाई देते हैं।
जीवाश्मों का वितरणः यदि महाद्वीपों को पुनर्गठित किया जाए तो अलग-अलग महाद्वीपों पर वनस्पति और पशुओं के जीवाश्मों के वितरण निश्चित रूप से जुडे़ हुए स्वरुप बनाते हैं। उदाहरणार्थ, सरीसृप मेसोसॉरस के जीवाश्म दक्षिणी अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका, दोनों स्थानों में पाये गए हैं। जीवाश्म नदियों में जमा चट्टानों में संरक्षित हैं, अतः यह निष्कर्ष निकलता है कि ये सरीसृप मीठे पानी के पर्यावरण में रहते थे। निश्चित रूप से मेसोसॉरस ने दो महाद्वीपों के बीच के महासागर को तो पार नहीं किया होगा। या तो ये महाद्वीप एक दूसरे के अगल-बगल रहे होंगे, या एक ही समय के दौरान मेसोसॉरस दोनों महाद्वीपों पर विकसित हुए होंगे, जो एक असंभव सा प्रतीत होता स्पष्टीकरण है। आज भी ग्लोसॉप्टेरिस नामक जीवाश्म पर्णांग विभिन्न जलवायुओं वाले अलग-अलग महाद्वीपों में पाया जाता है। वेगनर का मानना था कि ग्लोसॉप्टेरिस का वितरण प्रारंभ में सुपर महाद्वीप के टूटने से पहले पैंजिया के पार फैला होगा।
पुरातन जलवायुः वेगनर ने ऐसे भूगर्भिक साक्ष्य एकत्रित किये जो दर्शाते थे कि 200 मिलियन वर्ष पूर्व भारत, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका में निर्मित चट्टानें महाद्वीपीय हिमाच्छादन के साक्ष्य प्रदर्शित करती हैं। यदि सभी महाद्वीप अपने वर्तमान स्थानों पर ही होते तो इस प्रकार के हिमाच्छादन के लिए एक ब्रह्मांडीय हिमयुग की आवश्यकता होती। हालांकि उसी दौरान दक्षिणी ओहिओ और अधिकांश पूर्वी अमेरिका में उष्णकटिबंधीय दलदलें भी मौजूद थीं। इससे यह स्पष्ट होता है कि बाकी का विश्व हिमीकरण की अवस्था में नहीं था। इस प्रकार के प्रतीत होते व्यापक हिमाच्छादन का स्पष्टीकरण तब दिया जा सकता था, जब महाद्वीप दक्षिणी ध्रुव के निकट स्थित होते।
महाद्वीपीय विस्थापन के साक्ष्य का अनेक वैज्ञानिकों ने अंगीकार किया तो अनेक वैज्ञानिकों ने इसे अस्वीकृत कर दिया था, मुख्य रूप से इसलिए क्योंकि वेगनर महाद्वीपों की गतिमानता के कारणों के लिए एक स्वीकार्य तंत्र प्रदान करने में सफल नहीं हो पाया था। उन्होंने तर्क दिया था कि ज्वारीय बल के कारण महाद्वीपों ने समुद्र तल की चट्टानों के बीच से स्वयं को धकेला था यह ठीक उसी प्रकार था जिस प्रकार हल जमीन को काट कर आगे बढ़ता है। वेगनर के दुर्भाग्य से इस विचार को भौतिक दृष्टि से असंभव के रूप में दर्शाया गया था। इसके परिणामस्वरूप हालांकि महाद्वीपीय विस्थापन का सिद्धांत भिन्न-भिन्न महाद्वीपों में समान विशेषताओं के वितरण का बाध्यकारी स्पष्टीकरण प्रदान करता था, फिर भी उसे विजयी वापसी के लिए अगले 50 वर्षों तक इंतजार करना पडा।
3.0 प्लेट विवर्तनिकी
प्लेट विवर्तनिकी एक वैज्ञानिक सिद्धांत है जो पृथ्वी के स्थलमंड़ल के संचलन को समझाने का प्रयास करता है, जिसने वह परिदृश्य निर्मित किया है जो हम विश्व में सभी जगह देखते हैं। परिभाषा के अनुसार ‘‘प्लेट‘‘ शब्द का भूगर्भिक अर्थ है ठोस चट्टान का एक बड़ा पटिया। ‘‘टेक्टोनिक‘‘ (विवर्तनिकी) ग्रीक शब्द का एक भाग है जिसका अर्थ है ‘‘निर्माण करना‘‘, और ये दोनों शब्द मिलकर इस बात को परिभाषित करते हैं कि पृथ्वी की सतह किस प्रकार गतिमान प्लेटों से बनी हुई है।
प्लेट विवर्तनिकी का सिद्धांत कहता है कि पृथ्वी का स्थलमंड़ल व्यक्तिगत प्लेटों से बना हुआ है, जो ठोस चट्टान के एक दर्जन से अधिक छोटे टुकडों में टूटे हुए हैं। ये बिखरी हुई प्लेटें पृथ्वी के अधिक तरल निचले मेंटल के ऊपर एक दूसरे के निकट गतिमान हैं, जो विभिन्न प्रकार की प्लेट सीमाओं का निर्माण करती हैं, जिन्होंने कई मिलियन वर्षों के दौरान पृथ्वी के परिदृश्य को आकार दिया है।
1929 में एक ब्रिटिश भूवैज्ञानिक आर्थर होम्स ने पृथ्वी के महाद्वीपों की गतिमानता के स्पष्टीकरण के लिए तापीय संवहन का एक सिद्धांत दिया। उन्होंने कहा कि जैसे ही किसी पदार्थ को गर्म किया जाता है, तो उसका घनत्व कम हो जाता है, और वह तब तक उठता है जब तक कि वह वापस नीचे आने के लिए पर्याप्त रूप से ठंड़ा नहीं हो जाता। होम्स के अनुसार पृथ्वी के इसी गर्म होने और ठंडा होने के चक्र के कारण महाद्वीप निरंतर संचलित होते रहते हैं। इस विचार पर उस समय बहुत ही कम ध्यान दिया गया था।
3.1 समुद्र तल का विस्तारण
प्लेट विवर्तनिकी के विकास की दृष्टि से 1960 का दशक सबसे मुख्य चरण था। 1960 के दशक तक होम्स के विचार को अधिक विश्वसनीयता प्राप्त होना शुरू हुई, क्योंकि उस समय तक वैज्ञानिकों ने मानचित्रीकरण के माध्यम से समुद्र के तल के बारे में अपनी समझदारी में वृद्धि की थी, उसकी समुद्र मध्य की कटक की खोज कर ली थी, और उसकी आयु के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कर ली थी। 1961 और 1962 में वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के महाद्वीपों के संचलन और प्लेट विवर्तनिकी को समझाने के लिए मेंटल संवहन के कारण होने वाली समुद्र तल के विस्तारण की प्रक्रिया को बताया। समुद्र तल की गहन खोज और समुद्र सतह के मानचित्रीकरण में तेजी आई। ग्लोमर (GLOMAR) अभियान के पर्यवेक्षणों ने इस विचार पर विवाद किया कि समुद्र का तल एक सपाट नीरस घाटी था। समुद्र तल के अनेक पर्यवेक्षणों को तब तक समझाया नहीं जा सका था जब तक हैरी हेस और डिएट्ज़ ने समुद्र तल के विस्तारण का विचार नहीं दे दिया था।
जैसे ही पृथ्वी की भूपर्पटी के बडे़-बडे़ पटिये एक दूसरे से विभक्त होते हैं और उस अंतर को पाटने के लिए मैग्मा (शैलभूत) उनमें भर जाता है, वैसे ही एक नई महासागरीय भूपर्पटी निर्मित हो जाती है। जैसे ही वे समुद्र तल के नीचे धीरे-धीरे एक दूसरे से दूर होते जाते हैं, पृथ्वी के मेंटल (आच्छादन) से गर्म मैग्मा बुलबुलों के रूप में सतह की ओर उठता है।
फिर यह मैग्मा समुद्र के पानी से ठंडा हो जाता है। यह नई बनी चट्टान पृथ्वी की भूपर्पटी के एक नए भाग का निर्माण करती है। समुद्र तल का विस्तारण समुद्र मध्य कटक के निकट समुद्र तल से उभरती हुई विशाल पर्वत श्रृंखलाओं के रूप में प्रकट होता है। जैसे ही यह कटक से दूर होती है, भूपर्पटी की आयु बढ़ती है। नवीनतम भूपर्पटी कटक से सबसे निकट होती है। मध्य अटलांटिक कटक, जो उत्तरी अमेरिकी प्लेट को यूरेशियन प्लेट से अलग करती है, और दक्षिण अमेरिकी प्लेट को अफ्रीकी प्लेट से अलग करती है, यही अटलांटिक महासागर के बीच की नई सामुद्रिक भूपर्पटी का स्थान है।
समय के साथ, नई सामुद्रिक भूपर्पटी पुरानी भूपर्पटी को दूर धकेल देती है। समुद्र तल विस्तारण के माध्यम से नए जल निकाय, और यहां तक कि महाद्वीप भी निर्मित किये जा सकते हैं। उदाहरणार्थ, लाल सागर की निर्मिति समुद्र तल विस्तारण के कारण ही हुई थी, जब अफ्रीकी प्लेट और अरबी प्लेट टूट कर एक दूसरे से अलग हो गई थीं। आज उत्तरी सिनाई प्रायद्वीप मध्य पूर्व (एशिया) को उत्तरी अफ्रीका से जोड़ता है। भूवैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि अंततः, समुद्र तल विस्तारण लाल सागर को विस्तारित कर देगा, जो इन दोनों महाद्वीपों को एक दूसरे से पूरी तरह से अलग कर देगा।
दरार घाटियां, जो महाद्वीपीय भूपर्पटी और महासागरीय भूपर्पटी दोनों पर स्थित हैं, वे भी समुद्र तल विस्तारण के द्वारा निर्मित की जा सकती हैं। विश्व की दो सबसे बड़ी दरार घाटियां, मध्य अटलांटिक कटक और पूर्वी प्रशांत उभार, समुद्र तल विस्तारण के ही परिणाम हैं। प्रविष्ठन समुद्र तल विस्तारण का विपरीत होता है। समुद्र तल विस्तारण से नई पर्पटी निर्मित होती है। प्रविष्ठन पुरानी पर्पटी को नष्ट कर देता है। ये दोनों बल एल दूसरे को लगभग संतुलित करते हैं, जिसके कारण पृथ्वी का आकार और व्यास स्थिर रहता है।
3.2 आज के प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत
आज वैज्ञानिकों के पास पृथ्वी की विवर्तनिकी प्लेटों की रचना, उनके भ्रमण के पीछे का चालन बल, और उन द्वारा वे एक दूसरे से कैसे संपर्क करती हैं इन सभी की बेहतर समझ है। स्वयं विवर्तनिकी प्लेट की परिभाषा यह है कि वह पृथ्वी के स्थलमंड़ल का एक कठोर भाग है जो इसके आसपास रहने वाले भागों से अलग भ्रमण करता है। सात मुख्य प्लेटें हैं (उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, यूरेशिया, अफ्रीका, इंड़ो-ऑस्ट्रेलियाई, प्रशांत और अंटार्टिका) व साथ ही अनेक छोटी, सूक्ष्म प्लेटें हैं जैसे अमेरिका के वाशिंगटन राज्य के पास जुआन दे फुका प्लेट।
पृथ्वी की विवर्तनिकी प्लेटों के भ्रमण के लिए तीन मुख्य चालन बल हैं। ये हैं मेंटल संवहन, गुरुत्वाकर्षण और पृथ्वी का आवर्तन या घूर्णण। विवर्तनिकी प्लेटों के भ्रमण के सबसे व्यापक अध्ययन किये गए मार्गों में मेंटल संवहन है और यह 1929 में होम्स द्वारा विकसित किये गए सिद्धांत के समान ही है। पृथ्वी के ऊपरी मेंटल में पिघले हुए पदार्थ की विशाल संवहन धाराएं हैं। चूंकि ये धाराएं पृथ्वी के दुर्बलतामंडल (पृथ्वी के स्थलमंडल के नीचे पृथ्वी के निचले मेंटल का तरल भाग) को ऊर्जा संचारित करती हैं, नई स्थलमण्डलीय सामग्री पृथ्वी की भूपर्पटी की ओर धकेली जाती है। इसका साक्ष्य मध्य सागरी कटकों पर दिखता है, जहां कटक के बीच से अधिक युवा भूमि ऊपर धकेली गई है, जिसके कारण पुरानी भूमि बाहर और कटक से दूर हट जाती है, जो इस प्रकार से विवर्तनिकी प्लेटों को संचरित करती है।
पृथ्वी की विवर्तनिकी प्लेटों के भ्रमण के लिए गुरुत्वाकर्षण द्वितीयक चालन बल है। मध्य-महासागरी कटकों पर उन्नयन आसपास के महासागरी तल की तुलना में उच्च होता है। जब पृथ्वी के अंदर की संवहन धाराएं नई स्थलमण्ड़लीय सामग्री को ऊपर उठने और कटक से दूर विस्तारित होने की अनुमति देती हैं, गुरुत्वाकर्षण पुरानी सामग्री की सागर तल की और डूबने के लिए प्रेरित करता है, जो प्लेट्स के भ्रमण में सहायता प्रदान करता है। पृथ्वी का पूर्णतः चक्रानुक्रम पृथ्वी की प्लेटों के भ्रमण के लिए अंतिम तंत्र है, परंतु मेंटल संवहन और गुरुत्वाकर्षण की तुलना में यह नगण्य है।
जब पृथ्वी की विवर्तनिकी प्लेटें भ्रमण करती हैं वे अनेक प्रकार से एक दूसरे पर प्रभाव डालती हैं, और वे विभिन्न प्रकार की प्लेट सीमायें बनाती हैं। भिन्न सीमायें वे होती हैं जहां प्लेटें एक दूसरे से दूर की ओर भ्रमण करती हैं और नई पर्पटी निर्मित होती है। मध्य समुद्री कटक भिन्न सीमाओं के उदाहरण हैं। अभिसारी सीमायें वहां होती हैं जहां प्लेटें एक दूसरे से टकराती हैं जहां एक प्लेट का दूसरी प्लेट के नीचे प्रविष्ठन होता है। परिणत सीमायें प्लेट सीमाओं का अंतिम प्रकार होती हैं और इन स्थानों पर कोई नई पर्पटी निर्मित नहीं होती, न ही कोई पर्पटी नष्ट होती है। इसके बजाय प्लेटें क्षैतिज रूप से एक दूसरे के पार फिसलती हैं। सीमा किसी भी प्रकार की हो, फिर भी विश्व के सभी ओर हम जिस प्रकार की परिदृश्य विशेषतायें देखते हैं उसकी निर्मिति में पृथ्वी की विवर्तनिकी प्लेटों का भ्रमण आवश्यक है।
आमतौर पर प्लेटें महाद्वीपीय और महासागरी, दोनों प्रकार के स्थलमंडल से निर्मित होती हैं। उदाहरणार्थ दक्षिण अमेरिकन प्लेट में दक्षिण अमेरिका महाद्वीप और दक्षिण पश्चिमी अटलांटिक महासागर दोनों स्थित हैं। प्लेट सीमायें महाद्वीपीय सीमांतों के निकट स्थित हो सकती हैं (सक्रिय सीमान्त), जिनकी विशेषता ज्वालामुखीय और भूकंपीय होती है। उत्तर दक्षिण अमेरिका की एटलांटिक तटरेखाएं निष्क्रिय सीमांतों के उदाहरण हैं।
प्रमुख प्लेटें : अफ्रीका प्लेट, अंटार्कटिक प्लेट, इंड़ो-ऑस्ट्रेलियाई प्लेट, ऑस्ट्रेलियाई प्लेट, यूरेशियन प्लेट, उत्तरी अमेरिकी प्लेट, दक्षिणी अमेरिकी प्लेट, प्रशांत प्लेट
गौण प्लेटें : कई दर्जन छोटी प्लेटें हैं, इनमें से सबसे बड़ी सात प्लेटें निम्नानुसार हैंः
अरबी प्लेट, कैरेबियाई प्लेट, जुआन दे फुका प्लेट, कोकोस प्लेट, नाज़का प्लेट, फिलिपीनी समुद्र प्लेट, स्कॉटिआ प्लेट
3.3 भूकंप और ज्वालामुखी
वैज्ञानिकों ने बहुत पहले ही यह पहचान लिया था कि ज्वालामुखी और भूकंप सबसे अधिक संकेंद्रण से प्रशांत महासागर के किनारे के चारों ओर विद्यमान हैं, जिसे आज अग्नि वलय कहा जाता है। प्रशांत अग्नि वलय (या रिंग ऑफ फायर) एक ऐसा क्षेत्र है जहां प्रशांत महासागर की घाटी में बड़ी संख्या में भूकंप और ज्वालामुखी विस्फोट होते हैं। 40,000 किलोमीटर (25,000 मील) के घोडे़ के नाल के आकार में, इसका संबंध लगभग निरंतर महासागरी खाइयों, ज्वालामुखी वृत्त चाप और ज्वालामुखी पट्टियों और/या प्लेटों के भ्रमण से है। अग्नि वलय में 452 ज्वालामुखी हैं, और यह स्थान विश्व के लगभग 75 प्रतिशत सक्रिय और निष्क्रिय ज्वालामुखियों का घर है। कभी-कभी इसे परि-प्रशांत भूकंपीय पट्टी कहा जाता है।
भूकंपवैज्ञानिक कियू वादाती और ह्यूगो बेनिओफ ने पाया कि महासागरी खाइयों में अन्तर्निहित भूकंपों की केंद्रीय गहराई उत्तरोत्तर गहरी होती जाती हैं। समुद्र तल विस्तारण परिकल्पना से पहले इन वादाती-बेनिओफ क्षेत्रों की उपस्थिति के लिए कोई प्रत्यक्ष स्पष्टीकरण नहीं था। अब यह व्यापक रूप से स्वीकार कर लिया गया है कि भूकंप तब होता है जब एक प्लेट मुड़ जाती है और भंग हो जाती है, और यह दुर्बलतामंडल के अंदर दूसरी प्लेट के नीचे चली जाती है।
महासागरीय तल को मेंटल के अंदर खींचा जा रहा था या धकेला जा रहा था, जहां यह ताप से मैग्मा में परिवर्तित हो रहा था जिसके कारण ज्वालामुखी बन रहे थे। महासागरीय स्थलमंड़ल के इस विनाश के कारण 700 से 800 किलोमीटर (440 से 500 मील) की गहराई तक भूकंप हो रहे थे जो महासागरीय खाइयों के समीप होने वाले सबसे गहरे भूकंपों की उपस्थिति का स्पष्टीकरण देते हैं। प्रविष्ठन क्षेत्र शब्द का गठन उन स्थानों को संदर्भित करने के लिए किया गया था जो वादाती-बेनीऑफ क्षेत्रों द्वारा चिन्हित थे जहां महासागरीय स्थलमंड़ल को किसी खाई के निकट उपभोग कर लिया गया है।
प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत ने महाद्वीपीय विस्थापन को महासागरीय तल विस्तारण के साथ निम्न बातें दर्शाने के लिए जोड़ाः
- प्लेट की सीमायें मुख्य रूप से महासागरीय कटकों और खाइयों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
- प्लेट सीमाओं पर परस्पर प्रभाव के कारण ज्वालामुखी गतिविधि और भूकंप होते हैं।
- प्लेट्स भ्रमण करती रहती हैं, जो कटकों से दूर और खाइयों की ओर जाती हैं।
- प्लेट्स मेंटल के नीचे प्रतिष्ठन क्षेत्र में खाइयों के नीचे खिसकती हैं।
- आमतौर पर प्लेटों में महासागरीय और महाद्वीपीय, दोनों स्थलमंडल विद्यमान होते हैं।
- महासागरीय स्थलमंडल निरंतर बनता और नष्ट होता रहता है।
- महाद्वीपीय स्थलमंडल को नष्ट नहीं किया जा सकता, परंतु महाद्वीपों को विभक्त किया जा सकता है और सुपर महाद्वीपों में गठित किया जा सकता है।
3.4 प्लेट संचलन
प्रारंभ में प्लेट संचलन की दरों और दिशाओं का निर्धारण एक ज्ञात आयु के महासागरीय तल की महासागरीय कटक तंत्र से दूरी की गणना द्वारा किया जाता था। दरों की गणना आयु (वर्षों) को दूरी (सेंटीमीटर) से भाग करके की जाती थी। ऐसी आसान परंतु प्रभावी गणना की तुलना उन गति दरों से की गई जिनका निर्धारण मेंटल हॉट स्पॉट के ऊपर बने ज्वालामुखी द्वीपों की आयु का उपयोग करके किया गया था। प्लेटों के अन्तर्भाग में कुछ ज्वालामुखी द्वीप मेंटल से उठने वाले मैग्मा के निश्चित चिन्ह के ऊपर बनते हैं। इन मेंटल चिन्हों की स्थिति को हॉट स्पॉट कहते हैं। प्लेट जब मैग्मा स्रोत से ऊपर भ्रमण करता है तो इससे द्वीप बनते हैं, यह उसी प्रकार होता है जैसे विवर्तनिकी वाहक पट्टी। हॉट स्पॉट से बढ़ती दूरी के साथ द्वीप उत्तरोत्तर पुराने होते हैं। आयु और दूरी के बीच का संबंध प्लेट की गति की दर दर्शाती है।
आज प्लेट संचलन की वर्तमान दर को निर्धारित करने के लिए उपग्रह प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाता है। अंतरिक्ष में स्थित उपग्रह स्थिर स्थानों की छोटी से छोटी गति को दर्ज करने में सक्षम होते हैं। इस प्रकार वे प्लेट्स की गति को दर्ज करते हैं। महासागरीय तल के विस्तारण की दर उत्तरी अटलांटिक महासागर क्षेत्र के महासागरीय कटक के आसपास की 1 से 2 सेंटीमीटर प्रति वर्ष से लेकर पूर्वी प्रशांत उभर विस्तारण केंद्र के आसपास के 15 सेंटीमीटर प्रति वर्ष तक हो सकती है। वर्तमान महासागरी तल विस्तारण की दर मध्य-अटलांटिक कटक की तुलना में पूर्वी प्रशांत उभर में लगभग पांच गुना अधिक है। समय के साथ विस्तारण दरें परिवर्तित हुई हैं, परंतु प्रशांत महासागर घाटी की निरंतर उच्च दरें अटलांटिक और प्रशांत महासागर के आकार के विरोधाभास का स्पष्टीकरण प्रदान कर सकती हैं। यदि प्रविष्ठन क्षेत्रों की अधिकांश सीमांत पर महासागरीय पर्पटी का उपभोग नहीं होता तो प्रशांत महासागर का तल इससे भी अधिक विस्तारित होता।
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