यूपीएससी तैयारी - विश्व एवं भारतीय भूगोल - व्याख्यान - 5

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प्लेट विवर्तनिकी और पर्वतों की रचना भाग - 2

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4.0 प्लेट सीमायें

प्लेट सीमायें तीन प्रकार की होती हैं, अपसारी सीमायें, अभिसरण सीमायें और रूपांतर सीमायें। 

4.1 अपसारी सीमायें 

जब दो प्लेटों की गति एक दूसरे के विरुद्ध दिशा में होती है, और ये एक दूसरे से दूर जाती हैं, तो ये अपसारी सीमाओं की निर्मिति करती हैं। वे दरार घाटियों के निकट की महाद्वीपीय पर्पटी के कुछ भागों को तोड़ देती हैं। संकरे महासागर युवा अपसारी सीमाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि विस्तृत महासागर यह दर्शाते हैं कि महासागर घाटी लंबे समय से विद्यमान है। 

महासागरीय कटक और प्रतिष्ठन क्षेत्र स्थलमंडल की प्लेटों के बीच की सीमायें होती हैं। जब महासागरीय स्थलमंडल महासागरीय कटकों के निकट विभक्त होता है तो एक खाई निर्मित हो जाती है। यह खाई दुर्बलतामंड़ल से उठने वाले मैग्मा से भर जाती है। यह मैग्मा ठंडा होकर ठोस बन जाता है, जिसके कारण नया महासागरीय स्थलमंड़ल निर्मित हो जाता है। 

अपसारी प्लेट सीमा का विकास तीन चरणों से होकर गुजरता है। अपसारी सीमा के जन्म के लिए आवश्यक है कि एक विद्यमान प्लेट के विभाजन की शुरुआत हो। आज यह पूर्वी अफ्रीका में हो रहा है, एक ऐसा क्षेत्र जिसे पूर्वी अफ्रीकी दरार क्षेत्र कहा जाता है। धीरे-धीरे अफ्रीकी महाद्वीप दो भागों में विभक्त हो रहा है। जैसे ही महाद्वीपीय पर्पटी विभक्त होती है, दुर्बलतामंडल का मैग्मा उस खाई में भर जाता है। दरार क्षेत्र में अनिल ज्वालामुखी विद्यमान हैं।

स्थलमंड़ल की प्लेटें महासागरीय या महाद्वीपीय पर्पटी की तुलना में कहीं अधिक मोटी होती हैं। उनकी सीमायें आमतौर पर महासागरों और महाद्वीपों के बीच की सीमाओं के सम्पाती नहीं होती, और उनका व्यवहार इस तथ्य से बहुत कम प्रभावित रहता है कि वे अपने साथ महासागरों को ले जा रही हैं, या महाद्वीप को ले जा रही हैं, या दोनों को ले जा रही हैं। उदाहरणार्थ, प्रशांत प्लेट पूरी तरह से महासागरीय है, जबकि उत्तरी अमेरिकी प्लेट पश्चिम में (उत्तरी अमेरिका महाद्वीप) महाद्वीपीय पर्पटी से आच्छादित है, और पूर्व में महासागरी पर्पटी से आच्छादित है। अटलांटिक महासागर के नीचे यह मध्य एटलांटिक कटक तक विस्तारित है। 

अपसारी प्लेट सीमा पर जब प्लेटें दूर जाती हैं, तो उससे निकले दबाव के कारण उनके नीचे स्थित मेंटल में आंशिक गलन निर्मित होती है। या पिघला हुआ पदार्थ, जिसे मैग्मा कहते हैं, इसकी रचना बाज़ालतिक (basaltic)  होती है और यह उत्प्लावक होता है। इसके परिणामस्वरूप यह नीचे से ऊपर की ओर उठता है, और सतह के निकट आते-आते ठंडा हो जाता है, और एक नई पर्पटी की निर्मिति करता है। क्योंकि एक नई पर्पटी निर्मित होती है, अतः अपसारी सीमांतों को निर्माणकारी सीमांत भी कहा जाता है। 

मैग्मा के एकत्रित रूप से ऊपर उठने के कारण ऊपर स्थित स्थलमंड़ल भी ऊपर उठता है और खिंचता है। यदि अपसारी प्लेटें महाद्वीपीय पर्पटी से आच्छादित हैं, तो दरारें पैदा होती हैं, जिनपर ऊपर उठने वाले मैग्मा का आक्रमण होता है, जो महाद्वीप को और अधिक अलग करता है। जब महाद्वीपीय पिंड़ स्थिर होते हैं तो एक दरार घाटी निर्मित हो जाती है, जैसी वर्तमान में पूर्वी अफ्रीकी दरार घाटी बनी हुई है। जैसे-जैसे दरार निरंतर चौड़ी होती जाती है, वैसे-वैसे महाद्वीपीय पर्पटी उत्तरोत्तर पतली होती जाती है, जब तक कि प्लेट्स का अलगाव प्राप्त नहीं हो जाता है, और एक नया महासागर नहीं बन जाता है। ऊपर उठती हुई आंशिक गलन ठंडी होती है और ठोस बनकर एक नई पर्पटी की निर्मिति करती है। चूंकि आंशिक गलन की रचना बाजालतिक होती है, अतः नई पर्पटी महासागरीय होती है, और पुरानी महाद्वीपीय दरार के स्थान पर एक महासागरीय कटक विकसित होता है। परिणामस्वरूप, चाहे अपसारी प्लेट सीमाओं की उत्पत्ति महाद्वीप के अंदर ही क्यों न हुई हो, परंतु अंततः वे महासागर घाटी में जाकर स्थित हो जाती हैं। 

अंततः खाई एक संकरे महासागर (युवा) की निर्मिति करेगी, जैसी कि पूर्वी अफ्रीकी दरार क्षेत्र के उत्तर में लाल सागर है। लाल सागर सऊदी अरब को अफ्रीका से अलग करता है। कैलिफोर्निया की खाड़ी भी इसी प्रकार का संकरा समुद्र है, जो अधिकांश मेक्सिको और बाजा कैलिफोर्निया के बीच स्थित है। 

एक परिपक्व महासागर बनने के लिए करोड़ों वर्ष लग जाते हैं, क्योंकि प्लेटों की गति की दर धीमी होती है (10 से 100 मिलीमीटर प्रति वर्ष)। एटलांटिक महासागर और प्रशांत महासागर की सबसे प्राचीन महासागरीय पर्पटी लगभग समान आयु की हैं (18 करोड़ वर्ष) परंतु प्रशांत महासागर एटलांटिक महासागर की तुलना में कहीं अधिक विस्तीर्ण है, क्योंकि इसका विस्तार 2 से 3 गुना अधिक तेजी से हो रहा है।


4.2 अभिसरण प्लेट सीमायें 

अभिसरण प्लेट सीमाओं के आसपास के स्थलमंड़ल के आमने-सामने होने के प्रकार के अनुसार अभिसरण प्लेट सीमाओं के तीन प्रकार होते हैं। 

महासागरीय प्लेट बनाम महासागरीय प्लेट अभिसरणः जब महासागरीय स्थलमंड़ल की प्लेटें टकराती हैं, तो इनमें से पुरानी प्लेट खाई के निकट के प्रविष्ठन  क्षेत्र में गिर जाती है। गिरती हुई प्लेट अपने साथ महासागर तल से पानी से भरी तलछट लेकर नीचे मेंटल में जाती है। पानी की उपस्थिति पिघलने के लिए आवश्यक भौतिक और रासनायिक स्थितियों का परिवर्तन करती है, जिनके कारण मैग्मा निर्माण होता है। यह मैग्मा अध्यारोही महासागरीय प्लेट के माध्यम से ऊपर उठता है, और सतह पर एक ज्वालामुखी के रूप में पहुंचता है। जैसे-जैसे ज्वालामुखी बड़ा होता है, तो यह उठकर समुद्र सतह से ऊपर उठकर एक द्वीप का स्वरुप प्राप्त कर लेता है। 

खाईयां आमतौर पर प्रविष्ठन प्लेटों द्वारा निर्मित द्वीपों की श्रृंखला (द्वीप वृत्त-चाप) के आसपास स्थित होती हैं। 

महासागरीय प्लेट बनाम महाद्वीपीय प्लेट अभिसरणः जब महासागरीय स्थलमंडल महाद्वीपीय स्थलमंड़ल से टकराता है, तो महासागरीय प्लेट प्रविष्ठन क्षेत्र में उतर जाती है महासागरीय स्थलमंडल महाद्वीपीय स्थलमंडल की तुलना में अधिक घना है, अतः इसका उपभोग प्राथमिकता से होता है। प्रविष्ठन क्षेत्रों में महाद्वीपीय स्थलमंडल लगभग कभी भी नष्ट नहीं होता। नाज़का प्लेट दक्षिण अमेरिका के नीचे उस प्रविष्ठन क्षेत्र के नीचे गोता लगाती है जो महाद्वीप के पश्चिमी सीमांत के निकट स्थित है। इन प्लेटों के अभिसरण के परिणामस्वरूप एंडीज़ पर्वत (पृथ्वी की दूसरी सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला), व्यापक ज्वालामुखी और विस्तृत भूकंप गतिविधि की निर्मिति हुई है। सबसे बडे़ भूकंप प्रविष्ठन क्षेत्रों के निकट संकेंद्रित हैं। 

महाद्वीपीय प्लेट बनाम महाद्वीपीय प्लेट अभिसरणः हिमालय पर्वत की निर्मिति भारतीय और यूरेशियाई प्लेटों के टकराव के कारण हुई थी, जिसकी शुरुआत 4 करोड़ से भी अधिक वर्ष पहले हुई थी।

4.3 रूपांतर सीमा

रूपांतर प्लेट सीमायें वे स्थान होते हैं जहां दो प्लेटें एक दूसरे के निकट से गुजरती हैं। टूटा हुआ क्षेत्र जो रूपांतर पलटे सीमा का निर्माण करता है ऊसर रूपांतर भ्रंश कहते हैं। अधिकांश रूपांतर भ्रंश महासागरीय घाटी में पाये जाते हैं और मध्य महासागर कटकों में अन्तर्लम्बों को जोडते हैं। इनमें से छोटी संख्या मध्य महासागर कटकों और प्रविष्ठन क्षेत्रों को भी जोड़ती है। 

रूपांतर सीमायें अपसारी और/या अभिसरण सीमाओं के भागों को जोड़ती हैं। अधिकांश रूपांतर सीमायें महासागरीय घाटियों में पायी जाती हैं, जहां वे महासागरीय कटकों को अन्तर्लम्ब करती हैं। रूपांतर सीमा के दोनों ओर की प्लेटें उनकी प्लेटों के उपभोग के बिना, और प्लेटों के बीच अंतर विवर के बिना एक दूसरे के निकट से प्रवाहित होती हैं। 

कैलिफोर्निया के सान एंड्रेअस भ्रंश या तुर्की के उत्तरी अंटोलिअन भ्रंश जैसी कुछ रूपांतर सीमायें भूमि पर भी विद्यमान हैं। सान एंड्रेअस भ्रंश दो महासागरीय कटकों को जोड़ता है। भ्रंश का दक्षिणी छोर कैलिफोर्निया की खाड़ी में युवा महासागर के उत्तरी छोर पर शुरू होता है। भ्रंश का उत्तरी छोर मेंडोसीनो खंडित क्षेत्र बनता है, जो उस महासागरीय कटक के एक भाग को अन्तर्लम्ब करता है, जो वाशिंगटन और ऑरेगोन से जुआन दे फुका प्लेट अपतटीय के एक भाग को परिभाषित करता है। 

सान एंड्रेअस भ्रंश के पश्चिमी भाग की भूमि, जिसमें लॉस एंजेल्स और सेन डिएगो भी शामिल है, प्रशांत प्लेट का भाग है। सान फ्रांसिस्को भ्रंश के पूर्व में स्थित है, और यह उत्तरी अमेरिकी प्लेट पर स्थित है।  राज्य के बाकी भाग की तुलना में पश्चिमी कैलिफोर्निया धीरे-धीरे उत्तर पश्चिम की ओर प्रतिस्थापित हो रहा है। यह महासागर में गिरने वाला नहीं है परंतु अंततः यह उत्तरी अमेरिका प्लेट की पश्चिमी सीमा के आसपास विस्थापित हो जायेगा, और अब से कई करोड़ वर्षों के बाद अंततः अलास्का से टकराएगा।

5.0 भ्रंश 

भ्रंश वे सतहें होती हैं जिनके पार पृथ्वी के पदार्थों की संशक्ति समाप्त हो गई है, और जिनके पार प्रत्याक्ष विस्थापन हुआ है। यह पृथ्वी की पर्पटी में एक अंतराल होता है जिसके निकट भ्रमण हो सकता है जिसके कारण भूकंप हो सकते हैं। भ्रंश का केंद्र सबसे अधिक विकृत होता है, और यही वह स्थान होता है जहां आसपास की चट्टानों के बीच अधिकांश अन्तर्लम्ब या सरक होते हैं। यह क्षेत्र काफी छोटा हो सकता है, और यह इतना चौडा हो सकता है जितनी एक पेंसिल की लंबाई होती है, और इसकी पहचान महीन पिसी चट्टानों से होती है जिन्हें कॅटाक्लासाइट कहते हैं (सतह के पास मिली पिसी सामग्री को हम गूज कहते हैं)। सभी प्रकार की फिसलन और पिसाई के कारण गूज अच्छी तरह से पिसे पदार्थों से बना होता है, जो मिट्टी जैसा दिखता है। केंद्र क्षेत्र को घेरे हुए एक क्षेत्र होता है जिसके कुछ मीटर अंतर पर बड़ी संख्या में दरारें होती हैं। इस क्षेत्र के बाहर एक और क्षेत्र होता है जिसमें पहचानी जा सकने वाली दरारें होती हैं, परंतु इनकी गहनता पहले वाले क्षेत्र से काफी कम होती है। अंतिम होती है सक्षम ‘‘मेजबान’’ चट्टान, जहां भ्रंश क्षेत्र समाप्त होता है। 

नतिलम्बी और नमन का संदर्भ एक भूवैज्ञानिक विशेषता के अभिविन्यास से है। भ्रंश नतिलम्बी भ्रंश तल के प्रतिच्छेदन और उत्तर के सापेक्ष शून्य अंश से 360 अंश की एक क्षैतिज सतह द्वारा निर्मित दिशा होती है। नतिलम्बी को हमेशा इस प्रकार से परिभाषित जाता है, कि जब भ्रंश नतिलम्बी की दिशा में निशान के साथ प्रवाहित होते हुए निशान की दायीं ओर लुढ़कता है। भ्रंश नमन भ्रंश और शून्य अंश से 90 अंश के क्षैतिज समतल के बीच का कोण होता है। रेक, विखंडन के समय एक लटकती भित्ति खंड़ की दिशा होती है, इसकी गणना भ्रंश के समतल पर की जाती है। इसकी गणना भ्रंश नतिलम्बी के सापेक्ष र्ं180 अंश की जाती है। भ्रंश पर खडे नतिलम्बी की दिशा में देखने वाले एक पर्यवेक्षक के लिए शून्य अंश के रेक का अर्थ होता है लटकती भित्ति, या एक ऊर्ध्वाधर भ्रंश का दाहिना भाग, जो नतिलम्बी की दिशा में पर्यवेक्षक से दूर चला गया है। र्ं180 अंश रेक का अर्थ है लटकती भित्ति पर्यवेक्षक की ओर आ गई है। शून्य से बडे़ किसी भी रेक के लिए लटकती भित्ति ऊपर की ओर उठी थी, जो इस भ्रंश पर संवेगी या उत्क्रम गति को इंगित करती है। उसी प्रकार शून्य से कम किसी भी रेक के लिए लटकती भित्ति नीचे की ओर गई, जो भ्रंश पर सामान्य गति को इंगित करती है।

5.1 सक्रिय, निष्क्रिय और पुनः सक्रिय भ्रंश 

सक्रिय भ्रंश वे संरचनाएं हैं जिनके निकट हम विस्थापन होने की उम्मीद कर सकते हैं। परिभाषा की दृष्टि से एक उथला भूकंप वह प्रक्रिया है जो एक भ्रंश के पार विस्थापन निर्माण करती है, सभी उथले भूकंप सक्रिय भ्रंशों पर ही होते हैं। 

निष्क्रिय भ्रंश वे संरचनाएँ होती हैं, जिन्हें हम पहचान तो सकते हैं, पर जिनमें भूकंप नहीं होते। जैसे कि आप कल्पना कर सकते हैं, भूकंप गतिविधि की जटिलता के कारण एक निष्क्रिय भ्रंश के बारे में अनुमान लगाना पेचीदा हो सकता है, परन्तु, परंतु हम उस समय की गणना कर सकते हैं जब पिछली बार भ्रंश के पार पर्याप्त अन्तर्लम्ब हुआ था। यदि एक भ्रंश करोड़ों वर्षों तक निष्क्रिय रहा है, तो उसे निष्क्रिय भ्रंश कहना सुरक्षित हो सकता है। हालांकि कुछ भ्रंशों पर हजारों वर्षों में 

एकाध बार बड़ा भूकंप हो सकता है, और हमें खतरे की इस संभावना का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करना आवश्यक है। 

पुनः सक्रिय भ्रंश तब निर्मित होते हैं जब पूर्व के निष्क्रिय भ्रंश के आसपास होती गतिविधि पर्पटी या ऊपरी मेंटल के अंदर के तनाव को ऊपर उठाने में सहायता प्रदान कर सकती है। मध्य अमेरिका के न्यू मैड्रिड भूकंप सूचक क्षेत्र में हुई विकृति भ्रंश की पुनः सक्रियता का एक अच्छा उदाहरण है। लगभग 500 मिलियन वर्ष पूर्व निर्मित संरचनाएँ नए बलों को प्रतिसाद दे रही हैं और मध्य महाद्वीप में तनाव को राहत प्रदान कर रही हैं।  

5.2 नति सर्पण भ्रंश 

एक सामान्य भ्रंश में भ्रंश के ऊपर का भू-खंड़ भ्रंश के नीचे के भू-खंड़ के सापेक्ष नीचे की ओर खिसकता है। इस प्रकार की भ्रंश गति तनाव बलों के कारण निर्मित होती है, और इसका परिणाम विस्तारण में होता है। 

एक उत्क्रम भ्रंश में भ्रंश के ऊपर का भू-खंड़ भ्रंश के नीचे के भू-खंड़ के सापेक्ष ऊपर की ओर खिसकता है। यह भ्रंश गति संपीड़न बलों के कारण निर्मित होती है, और इसका परिणाम संकुचन में होता है। यदि भ्रंश समतल का नमन छोटा होता है तो उत्क्रम भ्रंश को क्षेप भ्रंश कहते हैं। 

5.3 नतिलम्बी सर्पण भ्रंश 

एक नतिलम्बी सर्पण भ्रंश में गति मुख्य रूप से क्षैतिज दिशा में होती है। यदि भ्रंश के दूर वाला भू-खंड बायीं ओर खिसकता है, तो उस भ्रंश को वाम पार्श्विक भ्रंश कहते हैं। यदि बाहरी ओर का भू-खंड दायीं ओर खिसकता है, तो उस भ्रंश को दायां पार्श्विक भ्रंश कहते हैं। नतिलम्बी सर्पण भ्रंशों की भ्रंश गति कर्तन बलों के कारण होती है। एक रूपांतर भ्रंश एक प्रकार का नतिलम्बी सर्पण भ्रंश होता है जहां सापेक्ष क्षैतिज सर्पण दो महासागरीय कटकों के बीच या अन्य विवर्तनिकी सीमाओं के बीच गति को स्थान देता है।

5.4 तिर्यक भ्रंश 

तिर्यक सर्पण भ्रंशण में नति सर्पण भ्रंशण और नतिलम्बी सर्पण भ्रंशण, दोनों होते हैं। यह कर्तन और तनाव या संपीडन दोनों बलों के संयोजन के कारण होता है। लगभग सभी भ्रंशों में नति सर्पण भ्रंश (सामान्य या उत्क्रम) और नतिलंबी सर्पण भ्रंश के घटक होते हैं, अतः किसी भ्रंश को तिर्यक भ्रंश के रूप में परिभाषित करने के लिए नति और नतिलंबी घटक दोनों गणना योग्य और सार्थक होना आवश्यक है।

6.0 पर्वतों की रचना 

पर्वत निर्मिति की प्रक्रिया एक अत्यंत विलक्षण भूगर्भीय प्रक्रियाओं में से एक है। ये प्रक्रियाएं पृथ्वी की भूपर्पटी (प्लेट विवर्तनिकी) की बडे़ पैमाने पर होने वाली गतिशीलता का परिणाम होती हैं। पर्वत निर्माण की जैविक प्रक्रिया में बलन, भ्रंशण, ज्वालामुखी गतिविधि, आग्नेय अतिक्रमण और रूपांतरण शामिल है। निहित विवर्तनिकी प्रक्रियाओं की दृष्टि से विशिष्ट भू-दृश्य की विशेषताओं के अध्ययन को विवर्तनिकी भू-आकृतिक विज्ञान कहते हैं, और भूगर्भीय युवा या निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रियाओं के अध्ययन को नवविवर्तनिकी कहते हैं। 

पर्वत उन सीमाओं के निकट निर्मित होते हैं जहां विवर्तिनीकी प्लेटें एक दूसरे की दिशा में (अभिसरण सीमायें) गतिशील होती हैं। विवर्तनिकी प्लेटें एक दूसरे से टकराती हैं जिसके कारण विकृति निर्मित होती है, और पर्पटी गाढी हो जाती है। इसका परिणाम पर्पटी के उत्थान और पर्वतों की निर्मिति में होता है। यह प्रक्रिया एक क्षैतिज संपीडन होती है जिसका परिणाम अभिसरण प्लेट सीमाओं के निकट परतों के बलन और भ्रंशण में होता है। यह पर्पटी उत्थान एक पहाड़ी या पर्वत हो सकता है, जो निर्मिति की ढलान और ऊँचाई पर निर्भर होता है। परंतु पृथ्वी की सतह के वजन को संतुलित करने के लिए भी संपीड़ित चट्टान का काफी बड़ा भाग नीचे की ओर भी धकेला जाता है, जिसके कारण गहरी पर्वतीय जडें़ बन जाती हैं, जिससे ऊपरी और निचले, दोनों भागों के लिए पर्वतों की निर्मिति हो जाती है। 

लगभग 5.5 करोड़ वर्ष पूर्व ऐसे ही एक विशाल टकराव से बना एशिया का हिमालय पर्वत। विश्व के सबसे ऊंचे पर्वतों में से तीस हिमालय में हैं। 29,035 फुट (8850 मीटर) ऊंचा माउंट एवेरेस्ट का शिखर पृथ्वी का सबसे ऊंचा बिंदु है। 

ऊपर से नीचे तक मापा गया सबसे लंबा पर्वत है मॉना किआ, जो प्रशांत महासागर में हवाई द्वीप पर स्थित एक निष्क्रिय ज्वालामुखी है। आधार से मापते हुए मौना किआ की लंबाई 33474 फुट (10,203 मीटर) है, हालांकि समुद्र से ऊपर यह केवल 13,796 फुट (4,205 मीटर) उभरा हुआ है।   

पर्वत भ्रंश रेखाओं के आसपास भी निर्मित हो सकते हैं। जब दो प्लेटें आपस में रगड़ती हैं तो पृथ्वी के भू खण्डों का उत्थान होता है, जो झुके हुए होते हैं। कैलिफोर्निया में स्थित सिएरा नेवाड़ा पर्वत श्रृंखला इसका एक उदाहरण है। 

पर्वतों की निर्मिति की एक और प्रक्रिया यह है जब पृथ्वी की सतह के नीचे से मैग्मा को ऊपर की ओर धकेला जाता है, परंतु यह सतह फोड़ नहीं पाता। मैग्मा का यह उभार अंततः ठंडा हो जाता है और एक कठोर चट्टान के रूप में ठोस हो जाता है, जैसे ग्रेनाइट। मैग्मा के ऊपर के ऊपर की अपेक्षाकृत नरम परतें नष्ट हो जाती हैं और हमें दिखाई देता है एक गुंबद के आकार का पर्वत। यदि मैग्मा वास्तव में पृथ्वी की सतह से फट कर बाहर आता है, तो एक ज्वालामुखी निर्मित हो जाता है। लावा, राख और चट्टानों का नियमित विस्फोट एक ज्वालामुखी को बड़ी ऊँचाई तक निर्मित कर सकता है। वास्तव में विश्व के कुछ विशाल और ऊंचे पर्वत ज्वालामुखी ही हैं। उदाहरणार्थ मॉना लोआ और मॉना किआ ज्वालामुखी के उदाहरण हैं। समुद्र ताल के नीचे से मापे जाने पर, वास्तव में वे माउंट एवेरेस्ट से ऊंचे हैं। पर्वतों की निर्मिति का अंतिम प्रकार है अपक्षरण के माध्यम से। यदि एक ऊंचा पठार है, तो नदियां इसमें गहरी नालियां निर्मित करेंगी। अंततः नदी घाटियों में पर्वत हो सकते हैं।

6.1 पर्वतों के प्रकार 

वलित पर्वतः विश्व में पाये जाने वाले सबसे आम पर्वतों को वलित पर्वत कहते हैं। वलित पर्वत अभिसरण या संपीड़न प्लेट सीमाओं के निकट पाये जाते हैं। जहां समुद्र का एक क्षेत्र दो प्लेटों को विभाजित करता है, तलछट समुद्र के तल में भू-अभिनति नामक अवसादों में जमा हो जाता है। धीरे-धीरे ये तलछट संपीड़ित होकर तलछट चट्टानें बन जाती है। एक बार फिर से जब दोनों प्लेटें एक दूसरे की ओर चलती हैं, तो समुद्र तल पर पड़ी तलछट मुड़ जाती है, और वलित हो जाती है। 

अंततः तलछट चट्टान समुद्र सतह से ऊपर वलित पर्वतों की श्रृंखला के रूप में निकल आती है। जहां चट्टानें ऊपर की ओर वलित होती हैं, उन्हें अपनति कहा जाता है। जहां चट्टानें नीचे की ओर वलित होती हैं उन्हें अभिनति कहा जाता है। गंभीर रूप से भृंश और वलित हुई चट्टानों को आवरण कहा जाता है।  

वलित पर्वत श्रृंखलाओं के कुछ उदाहरण हैं उत्तरी अमेरिका के रॉकी पर्वत और एशिया के हिमालय पर्वत। 

भ्रंश खंड़ पर्वतः भ्रंश खंड़ पर्वत युवा भ्रंश रेखाओं से टूटी वलित चट्टान परतों से निर्मित होते है, जब वे खण्ड़ों के रूप में बन कर विभिन्न ऊंचाइयों पर ऊपर उठती हैं। आमतौर पर वे वलित क्षेत्रों के रूप में उठती हैं, जहां कभी पर्वत उभार हुए थे, जिन्होंने अपनी नमनीयता खो दी थी और जो अनाच्छादन के कारण सपाट हो गए थे। लगातार होने वाली विवर्तनिकी गतिविधियों के कारण पृथ्वी के केंद्र कुछ भाग वालन नहीं बनाते परंतु स्वतंत्र खण्ड़ों में टूट जाते हैं, जिनमें से कुछ होर्स्ट के रूप में उठते हैं और श्रृंखलाएँ बनाना शुरू कर देते हैं (‘‘पुनर्जीवित पर्वत‘‘), और कुछ अन्य ग्रबेंस के रूप में डूब जाते हैं, जो अवसादों की निर्मिति करते हैं। कई बार निरंतर होने वाली ओरोजेनी के कारण, पृथ्वी का चिकना हुआ भाग तहयुक्त विकृतियों के प्रभाव में आ जाता है, जिसके कारण विस्तृत और नरमी से ढ़लवां वलन बन जाते हैं, जिनके साथ भ्रंश भी होते हैं। वलित होने के बजाय, जैसे हमें वालन पर्वतों के साथ प्राप्त होते हैं, खंड़ पर्वत पुंजों में टूट जाते हैं और ऊपर या नीचे की ओर खिसकते हैं। भ्रंश खंड पर्वतों का आमतौर पर खडा अग्रभाग होता है, और पीछे की बाजू ढलवां होती है। 

भ्रंश खंड पर्वतों के उदाहरणों में सिएरा नेवाड़ा पर्वत शामिल हैं।

गुंबद पर्वतः गुंबद पर्वतों की निर्मिति ज्वालामुखी के कारण होती है। पृथ्वी के अंतर्भाग में जमीन के नीचे पिघली हुई चट्टानें मैग्मा के एक बडे़ तालाब में आपस में सिकुड़ती हैं। चूंकि यह आसपास की चट्टानों की तुलना में कम घनी होती हैं अतः ये सतह तक अपना रास्ता बना लेती हैं। यदि यह मैग्मा सतह के साथ टकराता है तो उसका परिणाम एक ज्वालामुखी में होता है। परंतु यदि यह मैग्मा वास्तव में सतह के माध्यम से फटकर बाहर नहीं निकलता तो गुंबद पर्वतों की निर्मिति होती है। 

गुंबद पर्वत आमतौर पर उतने ऊंचे नहीं होते जितने वलित पर्वत होते हैं, क्योंकि अंदर का मैग्मा पर्याप्त बल के साथ नहीं धकेला जाता। लंबे समय के दौरान ठंड़ा हो जाता है और ठंड़ी, कठोर चट्टान बन जाता है। इसका परिणाम एक गुंबद के आकार के पर्वत में होता है। 

ज्वालामुखी पर्वतः ये पर्वत पृथ्वी के गहरे आतंरिक भाग की सामग्री के विशाल मात्रा में लावा या राख के रूप में निष्कासन के कारण निर्मित होते हैं। यह सामग्री ज्वालामुखी के छिद्र के आसपास जमा होती है और एकत्रित होकर पर्वतों का निर्माण करती है। विश्व के कुछ सबसे बडे़ पर्वत इसी प्रकार बने हुए हैं, जिनमें हवाई के बडे़ द्वीप पर बने मॉना लोआ और मॉना किआ पर्वत शामिल हैं। अन्य परिचित ज्वालामुखी हैं जापान का माउंट फूजी और अमेरिका का माउंट रेनियर। ज्वालामुखी पर्वत की निर्मिति का एक हाल का उदाहरण है 20 फरवरी 1943 का जब मेक्सिको के एक किसान के मक्के के खेत में अचानक विस्फोट होने लगे। दूसरे दिन तक शंकु 100 फुट (30.5 मीटर) की ऊँचाई तक बन गया था। दो हतों में यह 450 फुट (137 मीटर) ऊंचा हो गया था, और 1952 में जब अंततः विस्फोट समाप्त हुए तब तक शंकु 1, 350 फुट (411 मीटर) ऊंचा बन गया था।  आसपास के परिक्युटिन और परनगरीकुतिरो के गांव नए ज्वालामुखी से निकले मलबे के नीचे पूरी तरह से दब गए थे। लावा के प्रवाह छह मील तक फैले हुए थे और आसपास की मीलों दूर की संपूर्ण वनस्पति धूल और चट्टानों के कारण पूरी तरह से जलकर नष्ट हो गई थी। इस ज्वालामुखी को इसके द्वारा नष्ट हुए एक गांव पेरिक्यूटिन का नाम दिया गया था।

प्रायद्वीपीय पर्वतः प्रायद्वीपीय पर्वत आतंरिक गतिविधि के कारण निर्मित नहीं होते। इसके बजाय ये पर्वत अपक्षरण के कारण निर्मित होते हैं। प्रायद्वीप विशाल समतल क्षेत्र होते हैं जो पृथ्वी के भीतर से बलपूर्वक ऊपर की ओर धकेले गए हैं, या ये लावा की परतों के कारण बनते हैं। प्रायद्वीपीय पर्वत तब बनते हैं जब बहता हुआ पानी क्षेत्र में गहरी नालियां निर्मित करता है, जिनके कारण पर्वत निर्मित होते हैं। आमतौर पर प्रायद्वीपीय पर्वत वलित पर्वतों के निकट पाये जाते हैं                

7.0 भू-संतुलन (आयसोस्टसी)

1705 में पियरे बुज़ुए ने पाया कि एंडीज़ और हिमालय जैसे विशाल पर्वत उस प्रकार का गुरुत्वाकर्षण बल नहीं लगाते जैसी कि उनके आकार और ऊँचाई से उम्मीद की जाती है। इन पर्यवेक्षणों की बाद में सर जॉर्ज एवरेस्ट ने भी पुष्टि की, जिन्होंने दर्शाया गया कि इन दृश्य पर्वतों के नीचे उसी संतुलन के पिंड़ का अभाव था। इन्हें गुरुत्वाकर्षण विसंगतियां कहा गया, जिसने भू-संतुलन के सिद्धांत का मार्ग प्रशस्त किया। 

भू-संतुलन एक प्राकृतिक संयोजन या संतुलन है जो भिन्न मोटाई की पर्पटी के खण्ड़ों द्वारा बनाये रखा जाता है, जो गुरुत्वाकर्षण को बनाये रखने के लिए भी आवश्यक है। भू-संतुलन पिंड़ को संतुलित करने के लिए ऊर्जा का उपयोग करता है। यह ऊर्जा जलीय चक्र से प्राप्त होती है, जो महासागर में निर्मित पानी की बूंदों का मार्ग है, जो वाष्पीकृत होकर बादल के रूप में परिवर्तित होता है, और फिर वर्षा की बूंदों के रूप में पृथ्वी पर गिरता है, और वापस समुद्र में बह जाता है, जहां वह अपने साथ मृदा और चट्टानों के कणों को भी ले जाता है। जलीय चक्र अपनी ऊर्जा गुरुत्वाकर्षण और सौर विकिरण से प्राप्त करता है। जैसे पानी प्रवाहित होता है, या हिमखंड़ जमीन के ऊपर रगड़ता है, ऊर्जा वहां खोती है जो अब एक अलग प्रणाली है। 

भू-संतुलन के सिद्धांत में समुद्र सतह से ऊपर एक पिंड़ समुद्र तल के नीचे से समर्थित होता है, और इस प्रकार एक निश्चित गहराई होती है जिसपर प्रति इकाई क्षेत्रफल का कुल भार पृथ्वी के सभी भागों में एकसमान होता है। इसे क्षतिपूर्ति की गहराई कहते हैं। अमेरिकी भूवैज्ञानिकों जॉन फिल्मोर हैफोर्ड़ और विलियम बोवी के नाम पर रखे गए हैफोर्ड़-बोवी संकल्पना के अनुसार क्षतिपूर्ति की गहराई को 113 किलोमीटर (70 मील) माना गया था। हालांकि बदलते विवर्तनिकी पर्यावरण के कारण सटीक भू-संतुलन तक पहुँचने का प्रयास तो होता है, परंतु इसे दुर्लभता से ही प्राप्त किया जा सकता है, साथ ही कुछ क्षेत्रों जैसे महासागरीय खाइयों और ऊंचे प्रायद्वीपों में भू-संतुलन क्षतिपूर्ति नहीं होती। 

एयरी की परिकल्पना कहती है कि पृथ्वी की पर्पटी एक अधिक कठोर खोल है जो एक अधिक तरल और अधिक घनत्व वाले आधार पर तैर रहा है। एक अंग्रेज गणितज्ञ और खगोलशास्त्री सर जॉर्ज बिड़ल एयरी ने माना कि पर्पटी का घनत्व सभी स्थानों पर एकसमान है। हालांकि पर्पटी परत की मोटाई समान नहीं है, अतः यह सिद्धांत यह मान्य कर चलता है कि पर्पटी का अधिक मोटा भाग आधार के अधिक नीचे तक डूबा हुआ है, जबकि पतला भाग उसके द्वारा ऊपर की ओर धकेला जा रहा है। इस परिकल्पना के अनुसार पर्वतों की आतंरिक गहराई सतह के नीचे उनकी ऊपरी ऊँचाई से कहीं अधिक बड़ी है। यह पानी पर तैरते हिमशैल के अनुरूप है, जहां हिमशैल का बड़ा भाग पानी के अंदर होता है।

जॉन हेनरी प्रैट द्वारा विकसित प्रैट परिकल्पना मानती है कि समुद्र सतह के नीचे की भूपर्पटी की मोटाई समान है, और उसका आधार क्षतिपूर्ति की गहराई पर प्रति इकाई क्षेत्रफल के समान भार का समर्थन करता है। निष्कर्ष में, यह कहता है कि कम घनत्व वाले पृथ्वी के क्षेत्र, जैसे पर्वत श्रृंखलाएँ, अधिक घनत्व वाले क्षेत्रों की तुलना में समुद्र तल से अधिक बाहर की ओर निकले हुए होते हैं। इसका स्पष्टीकरण यह था कि स्थानीय गर्म पर्पटी सामग्री के ऊपरी विस्तारण के कारण पर्वतों का निर्माण हुआ था, जिनका आयतन तो अधिक था परंतु ठंड़ा होने के बाद इनका घनत्व कम हो गया था। 

फिनलैंड़ के भूवैज्ञानिक वैको अलेक्सांतेरी द्वारा विकसित हाइसकानेन परिकल्पना एयरी की परिकल्पना और प्रैट की परिकल्पना के बीच की परिकल्पना है। यह परिकल्पना कहती है कि लगभग दो-तिहाई स्थलाकृति की क्षतिपूर्ति जड़ गठन (एयरी मॉडल) द्वारा की जाती है और एक-तिहाई की पर्पटी और आधार के बीच की पृथ्वी की भूपर्पटी द्वारा (प्रैट मॉडल)।

7.1 समस्थिति संतुलन 

समस्थिति संतुलन के लिए बलों के संतुलन (विभिन्न क्षेत्रों के भिन्न भार) की आवश्यकता होती है जो एक तरल माध्यम से एक दूसरे की विपरीत दिशा में कार्य करते हैं। मोटर वाहन को उठाने वाला जैक इसका एक उदाहरण है। पृथ्वी की गति के मामले में समस्थिति संतुलन का संबंध अधिक निकट के भूखंड़ों के भिन्न भार के कारण बलों के संतुलन से है। इस सिद्धांत के अनुसार हलकी प्रशांत प्लेट का समर्थन करने वाला ‘‘स्तंभ‘‘ इसके विपरीत भारी अफ्रीकी प्लेट का समर्थन करने वाले स्तंभ से लंबा होना आवश्यक है। सामान्य भाषा में यह स्थिति एक पतले दस्ते के संतुलन बिंदुओं को उनके मध्य या केंद्र से दूर रखने के बजाय एक निकट और भारी अंग के निकट स्थित रखने के अनुरूप है। 

जैसे ही एक पर्वत श्रृंखला खंड़ नष्ट होता है, यह खंड़ ऊपर उठता है, क्योंकि सामग्री के अपक्षरण के कारण यह भारी नहीं है और इसे मेंटल में नीचे सवार होने की आवश्यकता नहीं है। अपक्षरित सामग्री तलछट के रूप में आसपास के पतले महाद्वीपीय खण्ड़ों पर जमा हो जाती है, जो उनके भार को बढ़ा देती है, और वे दुर्बलतामंड़ल में और अधिक गहरे डूब जाते हैं। जो क्षेत्र विवर्तनिकी दृष्टि से स्थिर हैं वे समस्थिति की दृष्टि से संतुलित हो जाते हैं। मेंटल के चिपचिपापन की गणना ठोस खण्ड़ों की समस्थिति समायोजन की दर के आधार पर की जा सकती है। 

कुछ भूवैज्ञानिकों का मानना है कि प्लेट प्रविष्ठन मैग्मा के विशाल निकाय निर्मित करता है, जो महाद्वीपीय पिंड़ से चिपक जाते हैं और ठंडे हो जाते हैं, जो स्थानीय पर्पटी को मोटा कर देते हैं। समस्थिति बनाये रखने के लिए इस पर्पटी को पर्वत श्रृंखलाओं के माध्यम से ऊपर उठना पड़ता है। हालांकि इस विचार को व्यापक स्वीकृति नहीं मिल पायी है।  

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