यूपीएससी तैयारी - विश्व एवं भारतीय भूगोल - व्याख्यान - 3

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भू-आकृति विज्ञान

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1.0 प्रस्तावना 

भू-आकृति विज्ञान वह विज्ञान है जो भू-आकृति की उत्पत्ति, विकास, रचना और स्थानिक वितरण का विश्लेषण व विवरण करता है। यह शब्द 1880 के दशक में अमेरिका में भूगर्भीय सर्वेक्षण में दौरान उठा, संभवतः इसे जे.ड़ब्ल्यू. पॉवेल और ड़ब्ल्यू.जी. मेक्गी द्वारा गढ़ा गया था। भू-आकृति विज्ञान भूतत्व का वह भाग है जिसने भू-आकृति वैज्ञानिकों को पिछले क्षरण के साक्ष्यों को देख कर पृथ्वी के इतिहास की रचना करने के योग्य बनाया। बीते वर्षों के दौरान भू-आकृति वैज्ञानिकों की यह प्रवृत्ति रही है कि वे ये प्रक्रियाएं किस गति से परिचालित होती हैं इस बात का मापन करते हुए, और जमीनी स्तर के प्रकारों के मात्रात्मक विश्लेषण के साथ और उन पदार्थों के जिससे वे निर्मित हैं क्षरण की प्रक्रिया, अपक्षय परिवहन और निक्षेप को समझने के कार्य में गहराई तक डूब जाते हैं। वर्तमान में भू-आकृति विज्ञान की अनेक घटक शाखाएं हैं, उदाहरणार्थ मानव भू-आकृति विज्ञान; अनुप्रयुक्त भू-आकृति विज्ञान इत्यादि। 

2.0 पृथ्वी के चार क्षेत्र

पृथ्वी पर चार प्रणालियां अंतराफलक और परस्पर प्रभाव करती हैं। तीन अजैव प्रणालियां अतिव्यापी होकर जैव प्रणालियों का क्षेत्र बना रही हैं। अजैव क्षेत्र हैं वायुमंडल, जलमंडल और स्थलमंडल। जैव क्षेत्र को जैवमण्डल कहते हैं। चूंकि ये चार क्षेत्र प्रकृति में स्वतंत्र इकाइयां नहीं हैं, अतः इनकी सीमाओं को संक्रमणकालीन के बजाय तीव्र परिसीमन के रूप में समझना चाहिए।

वायुमंडलः वायुमंडल पृथ्वी के चारों ओर एक पतला गैसीय वेष्टन है, जो गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा जकडा हुआ है। पृथ्वी की भूपर्पटी और अंतर्भाग से उठने वाली गैसों और संपूर्ण समय के दौरान के सभी जीवों के उच्छवसन से बना हुआ निचला वायुमंडल सौरमंडल में अद्भुत है। यह नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, आर्गन, कार्बन डाइऑक्साइड, जलवाष्प और छोटी मात्रा में गैसों के निशान का मिश्रण है। 

जलमंडलः पृथ्वी का जल वायुमंडल, सतह पर, और सतह के निकट भूपर्पटी में तरल, ठोस और गैसीय अवस्था में स्थित है। पानी दो प्रकारों में पाया जाता है, मीठा और खारा, और यह महत्वपूर्ण ऊष्मा गुणधर्म प्रदर्शित करता है, साथ ही और एक विलायक की असाधारण भूमिका भी निभाता है। सौर मंडल के ग्रहों में केवल पृथ्वी पर ही पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध है। 

स्थलमंडलः पृथ्वी की भूपर्पटी और ऊपरी मैंटल का एक भाग, जो भूपर्पटी के ठीक नीचे है यह स्थलमंडल बनाता है। नीचे की परतों की तुलना में भूपर्पटी काफी भंगुर होती है। जो ऊष्मा और दबाव के असमान वितरण की प्रतिक्रियास्वरूप गतिशील रहते हैं। व्यापक अर्थों में स्थलमंडल को आमतौर पर इस ग्रह के संपूर्ण ठोस क्षेत्र के रूप में संदर्भित किया जाता है।

जैवमण्ड़लः जटिल, परस्पर जुड़े जाल जो सभी जीवों को उनके भौतिक पर्यावरण के साथ जोड़ते हैं, उसे जैवमण्ड़ल कहा जाता है। कभी-कभी जीवित प्राणियों एवं पेड़-पौधां के रहने योग्य जैवमण्डल को पारिस्थितिकी मंडल भी कहा जाता है, और यह वायुमंडल में समुद्र सतह से लगभग 8 किलोमीटर (5 मील) तक विस्तारित होता है। जैवमण्ड़ल वह क्षेत्र है जहां वायुमंड़ल, स्थलमंड़ल और जलमंड़ल एकसाथ कार्य करते हुए उस संदर्भ को बनाते हैं जिसमें जीवन विद्यमान होता है; जटिल, परस्पर जुड़े जाल जो सभी जीवों को उनके भौतिक पर्यावरण के साथ जोड़ते हैं। इन्हीं प्राकृतिक सीमाओं के अंदर जीवन धारणीय होता है। इसीसे जीवन प्रक्रियाओं ने विभिन्न संपर्क प्रक्रियाओं के माध्यम से मजबूती से अन्य तीन मंड़लों को आकार दिया है। जैवमण्ड़ल विकसित हुआ है, अनेक समयों में इसने स्वयं को पुनर्गठित किया है, विलुप्ति का सामना किया है, फिर से नई जीवनशक्ति प्राप्त की है, और समग्र रूप से निखरा है। पृथ्वी का जैव मंड़ल ही सौरमंड़ल का इकलौता ज्ञात जैवमण्ड़ल है। इस प्रकार जीवन पृथ्वी की ही एक अनोखी विशेषता है (सौरमंड़ल में)।

आज सात अरब मानव, लगभग दस लाख पशु प्रजातियां और 3,55,000 ज्ञात वनस्पति प्रजातियां पृथ्वी ग्रह के वायु, पानी और भूमि पर निर्भर हैं। 

3.0 पृथ्वी का अंतर्भाग

पृथ्वी का अंतर्भाग और इसकी रचना हमेशा से भूवैज्ञानिकों और भू-आकृतिक वैज्ञानिकों के बीच विवाद का विषय रहा है। ठोस साक्ष्य के अभाव में पृथ्वी के अंतर्भाग का आकलन तापमान, दबाव, और गहराई के साथ घनत्व की सहायता से किया गया था। हालांकि पृथ्वी के गठन का एक विश्वसनीय चित्र भूकंप सूचक तरंगों की सहायता से निर्धारित किया गया था। 

3.1 रासायनिक भिन्नता 

भूपर्पटीः पृथ्वी की भूपर्पटी की रचना लगभग 4.6 अरब वर्ष पूर्व हुई थी। दो प्रकार की भूपर्पटी हैं महासागरीय और महाद्वीपीय, और वे पृथ्वी की भूपर्पटी की प्रथम क्रम की उभरी हुई नक्काशी बनाते हैं। भूपर्पटी की गहराई पर्वतों के नीचे 70 किलोमीटर से लेकर महासागरों के नीचे 5 किलोमीटर तक भिन्न होती है। पतली महासागरीय भूपर्पटी घने लोहे, मैग्नीशियम सिलिकेट और चट्टान सदृश असिताश्म से बनी है। मोटी महाद्वीपीय भूपर्पटी कम घनी है, और यह सोडियम, पोटैशियम, एल्युमीनियम सिलिकेट और चट्टान सदृश ग्रेनाइट से बनी है। भूपर्पटी और मेंटल के बीच की सीमा को मोहोरोविचिच असातत्य कहा जाता है। आंद्रिया मोहोरोविचिच के नाम पर बनी इन भूकंप सूचक तरंगों की गति इस सीमा पर तीव्रता से बढ़ जाती है। 

मेंटलः मेंटल पृथ्वी की भूपर्पटी की सबसे मोटी और बड़ी परत है और यह ऊपरी मेंटल, मध्यवर्ती मेंटल और आंतरिक मेंटल में विभाजित है। विवर्तनिक प्लेट्स का चालन मेंटल में मौजूद संवहन के कारण होती है। मध्यवर्ती मेंटल में ऊपरी मेंटल की अपेक्षा अधिक घनत्व के खनिज होते हैं। मध्यवर्ती मेंटल का औसत घनत्व 7 ग्राम/घन सेंटीमीटर है, जबकि ऊपरी मेंटल का औसत घनत्व 4.5 ग्राम/घन सेंटीमीटर है। 

बाहरी मूल और आतंरिक मूलः बाहरी मूल का संवहन पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को जन्म देता है। चुंबकीय क्षेत्र के तंत्र को डायनामो सिद्धांत द्वारा समझाया गया है, जो जोसफ लारमोर द्वारा 1919 में प्रतिपादित किया गया था। यह चुंबकीय क्षेत्र हमारे ग्रह को सूर्य के निरंतर विकिरण द्वारा ज्वलन से बचाता है (जिसे यह परावर्तित करता है और रोकता है)। बाहरी मूल तरल से बना होता है और इसका घनत्व 11-12 ग्राम/घन सेंटीमीटर है। मेंटल और मूल के असातत्य को गुटेनबर्ग असातत्य कहा जाता है। 

ऐसा माना जाता है कि आतंरिक मूल में लोहा-निकल मिश्र धातु होती है, और यह पृथ्वी का सबसे गर्म भाग है। इसका तापमान सूर्य की सतह जितना हो सकता है, अर्थात 5700 केल्विन। यह रचना में ठोस होता है और संपीडित तरंगें इसमें से गुजर सकती हैं, परंतु अपप्रपण तरंगे इसमें से होकर नहीं गुजर सकतीं। आतंरिक मूल की आयु पृथ्वी की आयु से कम है। पृथ्वी, जिसकी आयु 4.5 अरब वर्ष है, उसकी तुलना में आतंरिक मूल की आयु 2-4 अरब वर्ष है। धीरे-धीरे आतंरिक मूल ठंडा होता जा रहा है (प्रति बिलियन वर्ष लगभग 100 अंश सेल्सियस)। स्थायी चुंबकीय क्षेत्र को पकड़ कर रखने की दृष्टि से आतंरिक मूल बहुत अधिक गर्म होता है। ऐसा अंदाज लगाया गया है कि आतंरिक मूल पृथ्वी के घूर्णन की तुलना में कुछ अधिक तीव्र गति से घूर्णन कर सकता है (प्रति वर्ष लगभग 0.3 से 0.5 अंश)।

3.2 यांत्रिक भिन्नता 

स्थल मंडलः इसमें भूपर्पटी और मेंटल के सबसे ऊपरी भाग शामिल हैं, और यह पृथ्वी की बाहरी कठोर और ठोस परत की निर्मिति करता है। स्थलमंडल विवर्तनिक प्लेटों में विभक्त होता है, यह ठोस होता है, और भंगुर असफलता के कारण विकृत हो जाता है, जिसके कारण भ्रंश निर्माण होते हैं। ऐसा माना जाता है कि स्थलमंडल दुर्बलतामंडल के चारों ओर गतिमान रहता है या तैरता है, जिसके कारण प्लेट विवर्तनिका निर्माण होती हैं।

आतंरिक मेंटल, मेंटल का सबसे घना भाग होता है जिसका औसत घनत्व 9 ग्राम/घन सेंटीमीटर होता है। मध्यवर्ती और आतंरिक मेंटल के बीच के असातत्य को बर्च असातत्य कहते हैं। हालांकि आतंरिक मेंटल ठोस होता है, फिर भी रडिओधर्मी ऊष्मा के कारण इसके कुछ भाग पिघल सकते हैं। ऐसे गहरे मेंटल से प्राप्त शैलभूत के कारण ज्वालामुखी विस्फोट हो सकते हैं। 

दुर्बलतामंड़लः यह स्थलमंड़ल के नीचे स्थित होता है, और यह ऊपरी मेंटल के कमजोर, गर्म व गहरे भागों का निर्माण करता है। यह प्लेट गतिकी में भी शामिल होता है। यह चिपचिपे ढ़ंग से विकृत होता है, और प्लेट विकृति के माध्यम से तनाव को स्थान देता है। उच्च तापमान के कारण चट्टान नमनीय बन जाती है जिसके कारण संवहन तरंगे निर्मित होती है। स्थलमंड़ल और दुर्बलतामंड़ल के बीच की सीमारेखा भूकंप सूचक गति के परिवर्तन से परिभाषित होती है। दुर्बलतामंडल में भूकंप सूचक तरंगें धीमी गति से गुज़रती हैं, अतः इसे न्यून-गति क्षेत्र कहा जाता है। 

मध्यस्थमंड़ल (इसे पृथ्वी के वायुमंडल की परत के साथ भ्रमित नहीं करना है) का संदर्भ मेंटल के उस क्षेत्र से है जो स्थलमंडल और दुर्बलतामंडल के नीचे किन्तु बाहरी मूल के ऊपर स्थित है। यह मेंटल मूल सीमारेखा से लगभग 350 किलोमीटर की गहराई तक के क्षेत्र में स्थित है। मध्यस्थमंडल का दबाव इतना अधिक है, कि हालांकि चट्टानें गर्म होती हैं, फिर भी यह इसकी ऊपर की चट्टान की तुलना में अधिक ठोस और अपेक्षाकृत अधिक कठोर होती है। 

मध्यास्थमंडल के आधार में ‘‘ड़ी‘‘ क्षेत्र शामिल होता है जो मेंटल मूल सीमारेखा के ठीक ऊपर लगभग 2,700 से 2,890 किलोमीटर (1,678 से 1,796 मील) स्थित होती है। निचले मेंटल का आधार लगभग 2,700 किलोमीटर है। मध्यस्थमंडल मेंटल एक अधिकांश परिमाण का निर्माण करता है, और यह पूरी तरह ठोस होता है। मध्यस्थमंडल की चट्टान का तापमान और दबाव इसे टूटने से बचाता है; अतः मध्यस्थमंडल क्षेत्र से किसी भूकंप की निर्मिति नहीं होती। ऊपरी मध्यस्थमंडल एक संक्रमणकालीन क्षेत्र है जिसमें बढ़ते स्थलमण्डलीय दबाव के प्रतिक्रियास्वरूप चट्टानें तेजी से घनी और गहरी होती चली जाती हैं।  

निचले मध्यस्थमंडल की शुरुआत पृथ्वी की सतह से 660 किलोमीटर की गहराई से होती है। इस गहराई पर घनत्व में अचानक वृद्धि होती है। यह वृद्धि चट्टान में प्रचुर मात्रा में उपस्थित अधिकांश खनिजों की माणभ संरचनाओं के कारण होती है। ये खनिज सीमारेखा से ऊपर की कम घनी माणभ संरचनाओं से सीमारेखा के नीचे की अधिक घनी माणभ संरचनाओं में परिवर्तित होती हैं। निचले मध्यस्थमंडल में 660 किलोमीटर की इसकी ऊपरी सीमारेखा से 2900 किलोमीटर के इसके आधार पर कम घनत्व परिवर्तन होते हैं, जहाँ यह बाहरी मूल से मिलती है। 



4.0 भूकंपीय तरंगे और पृथ्वी का अंतर्भाग 

पृथ्वी की विभिन्न परतों की भूकंपीय तरंगों का व्यवहार पृथ्वी की बनावट और संरचना के बारे में सबसे अधिक विश्वसनीय साक्ष्य प्रदान करता है। उदाहरणार्थ, जब  एक भूकंप या अंदरूनी परमाणु परीक्षण पृथ्वी में आघात तरंगों का निर्माण करता है, तो अपेक्षाकृत ठन्डे़ क्षेत्र, जो आमतौर पर कठोर होते हैं, इन तरंगों को अपेक्षाकृत गर्म क्षेत्रों की तुलना में अधिक गति से संचारित करते हैं। 

भूकंप के दौरान निर्मित विभिन्न प्रकार की तरंगों को आमतौर पर तीन व्यापक वर्गों में वर्गीकृत किया जाता हैः

  1. प्राथमिक तरंगें, 
  2. द्वितीयक तरंगें, और
  3. सतही तरंगें। 

विभिन्न माध्यमों (ठोस, द्रव और गैसीय) में तरंगों के विभिन्न व्यवहार का वर्णन आगे दिया गया है।

प्राथमिक तरंगेंः इन्हें देशांतरीय या संपीड़ित तरंगे भी कहा जाता है। इस प्रकार की तरंग गति में, माध्यम के कण तरंगों के प्रसारण की दिशा के अनुरूप कंपित होते हैं। ये तरंगें केवल पृथ्वी के ठोस भाग से ही प्रवाहित नहीं होतीं, बल्कि मूल के तरल भाग से भी प्रवाहित होती हैं। प्राथमिक तरंग ठोस और अधिक घनत्व वाले माध्यम से सबसे तेज गति से प्रवाहित होती हैं, और कुछ परिस्थितियों में, अपवर्तन के कारण यह द्वितीयक तरंग में परिवर्तित हो जाती है, या इसके उलट भी हो सकता है। तरल पदार्थों में, उनकी गति धीमी हो जाती है। ये तरंगें ध्वनि तरंगों के समरूप होती हैं, जहां कण इधर-से-उधर (आगे-पीछे) किरण की प्रसारण की दिशा की पंक्ति में गतिशील होते हैं। 

द्वितीयक तरंगेंः इन्हें अनुप्रस्थ या विरूपण तरंगें भी कहा जाता है। द्वितीयक तरंगें पानी या प्रकाश की तरंगों के समान होती हैं, जिनमें कण किरण से समकोण गतिशील होते हैं। एक द्वितीयक तरंग द्रव पदार्थों से नहीं गुजर सकती। ये तरंगें उच्च आवृत्ति, कम तरंगार्द्ध तरंगें होती हैं, जो केंद्र से पृथ्वी की भूपर्पटी, मेंटल और मूल के ठोस भाग आदि सभी दिशाओं में प्रसारित होती हैं, और भिन्न-भिन्न गति से चलती हैं (घनत्व के अनुपातिक)। द्वितीयक तरंगों का उथला क्षेत्र भूकंप के केंद्र से पृथ्वी के लगभग आधे भाग तक विस्तारित होता है। यदि पृथ्वी का बाहरी मूल तरल है, तो इसे समझाया जा सकता है। चूंकि द्वितीयक तरंगें तरल माध्यम से प्रवाहित नहीं हो सकतीं, अतः वे मूल से प्रवाहित नहीं होतीं। 

सतही तरंगेंः सतही तरंगों को दीर्घ अवधि तरंगें कहा जाता है। ये तरंगे केवल पृथ्वी की सतह को प्रभावित करती हैं, और कम गहराई पर ही समाप्त हो जाती हैं। सतही तरंगों की विशेषता है कि ये कम आवृत्ति की लंबी तरंगदैर्ध्य तरंगें होती हैं, और इनका कम्पन अनुप्रस्थ होता है, जो उपरिकेंद्र के ठीक निकट विकसित होता है। ये तरंगें भूकंप के सबसे अधिक विनाशकारी बल के लिए जिम्मेदार होती हैं। ये तरंगें सभी भूकंप सूचक तरंगों में से सबसे अधिक दूरी तय करती हैं, और भूकंप-सूचक यंत्र में सबसे अंत में दर्ज होती हैं। 

4.1 पृथ्वी के अंतर्भाग की खोज के रूप में भूकंप सूचक तरंगें 

पृथ्वी से प्रवाहित होने वाली भूकंप सूचक तरंगें इस तरह से अपवर्तित होती हैं, जो पृथ्वी के अंतर्भाग के अंदर के विशिष्ट असातत्यों को दर्शाता है, और यह इस मान्यता का आधार प्रदान करता है कि पृथ्वी काः

  1. एक ठोस आतंरिक मूल है,
  2. एक तरल बाहरी मूल है,
  3. एक नरम दुर्बलतामंडल है, और 
  4. एक कठोर स्थलमंडल है। 

यदि पृथ्वी एक समरूप ठोस होती, तो भूकंप सूचक तरंगें इसमें से समान गति से प्रवाहित होतीं। उस दशा में एक भूकंप सूचक किरण (तरंग अग्र की लंबवत रेखा) एक सीधी रेखा होती, जैसा कि चित्र में दर्शाया गया है। हालांकि प्रारंभिक अनुसंधानों ने पाया कि भूकंप सूचक तरंगें भूकंप के केंद्र के दूर के क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अधिक शीघ्र पहुंचती हैं। दूर के क्षेत्र से पहुंचने वाली किरणें पृथ्वी के बीच की गहराई से प्रवाहित होती हैं, उन तरंगों की तुलना में जो उपरिकेंद्र से क्षेत्रों तक पहुंचती हैं। अर्थात यह स्पष्ट है कि, यदि दूरस्थ क्षेत्रों की तरंगें पृथ्वी की गहराई से गुजरती हैं और इस तरंगों का यात्रा समय प्रगतिशील रूप से कम होता है, तो स्वाभाविक रूप से गहराई से प्रवाहित होते समय उनकी गति सतह के निकट की गति की तुलना में अधिक होगी। इन तथ्यों से जो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला गया है वह यह है कि पृथ्वी एक समरूप, एकसमान पिंड़ नहीं होकर इसकी भौतिक विशेषतायें हैं, जो गहराई के साथ परिवर्तित होती हैं। परिणामस्वरूप, ऐसा माना जाता है कि भूकंप सूचक तरंगें पृथ्वी के मध्य से एक वक्र मार्ग का अनुसरण करती हैं। 

भूकंप सूचक असातत्यताएंः भूकंपवैज्ञानिकों ने दो प्रमुख परतों को चिन्हित किया है, जो पृथ्वी के अंदर के उन क्षेत्रों को अलग करती हैं जिनकी विशेषतायें भिन्न-भिन्न होती हैं। बाहरी परत - मोहोरोविचिच असातत्य - भूपर्पटी को मेंटल से अलग करती है, जिसकी औसत गहराई लगभग 35 किलोमीटर है। दूसरा असातत्य मेंटल और बाहरी मूल  स्थित होता है जिसे गुटेनबर्ग असातत्य कहा जाता है, जिसकी गहराई लगभग 2900 किलोमीटर है। 

इस प्रकार, पृथ्वी एक विभेदित ग्रह है। इसके घटक पदार्थ घनत्व के अनुसार अलग-अलग परतों में विभक्त हैं। घने पदार्थ केंद्र के निकट संकेंद्रित हैं, जबकि कम घने पदार्थ सतह के निकट संकेंद्रित हैं। आतंरिक परतों की पहचान रचना, और भौतिक विशेषताओं के आधार पर की जाती है। रासायनिक रचनात्मक परतें हैंः

  1. भूपर्पटी 
  2. मेंटल 
  3. मूल 

जबकि भौतिक विशेषताओं पर आधारित परतें हैंः 

  1.  स्थलमंडल 
  2.  दुर्बलतामंडल 
  3.  मध्यथमंडल  
  4.  बाहरी मूल, और  
  5.  आतंरिक मूल।

5.0 पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र

हालांकि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र एक छड़ चुंबक के समान दिखाई देता है, फिर भी वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र की उत्पत्ति के अन्य स्पष्टीकरण खोजने के प्रयास किये हैं। स्थायी चुंबक उन तापमानों में विद्यमान नहीं रह सकते जो पृथ्वी के मूल में पाये जाते हैं। हम यह भी जानते हैं कि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र सैकड़ों मिलियन वर्षों से अस्तित्व में है। हम वर्तमान भूचुंबकीय क्षेत्र के अस्तित्व का संबंध किसी दूरस्थ भूतकाल की घटना से नहीं जोड़ सकते। चुंबकीय क्षेत्रों का क्षय होता है, और हम यह दर्शा सकते हैं कि यदि इसके पुनर्निर्माण का कोई तंत्र अस्तित्व में नहीं होता तो विद्यमान भूचुंबकीय क्षेत्र 15,000 वर्षों में लुप्त हो जाता। 

चुंबकीय क्षेत्र किस प्रकार उत्पन्न होता है इसे दर्शाने के लिए अनेक तंत्र प्रतिपादित किये गए हैं, किंतु इनमें से जिसे सबसे स्वीकार्य माना जा सकता है वह है डायनामो सदृश तंत्र, या जनरेटर - यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करने वाला उपकरण। पृथ्वी के संदर्भ में एक डायनामो किस प्रकार कार्य करेगा यह समझने के लिए हमें पृथ्वी के अंतर्भाग की भौतिक स्थितियों को समझना पडे़गा। 

पृथ्वी अनेक परतों से मिलकर बनी हुई हैः एक पतली बाहरी भूपर्पटी, एक सिलिकेट मेंटल, एक बाहरी मूल और एक आतंरिक मूल। पृथ्वी के अंदर की गहराई के साथ तापमान और दबाव बढ़ता जाता है। मूल-मेंटल सीमारेखा के पास का तापमान लगभग 4800 अंश सेल्सियस है, जो बाहरी मूल को तरल स्वरुप में बनाये रखने के लिए पर्याप्त है। हालांकि बढ़े हुए दबाव के कारण आतंरिक मूल ठोस है। मूल मुख्य रूप से लोहे का बना हुआ है, जिसमें हलके तत्वों का छोटा प्रतिशत विद्यमान है। बाहरी मूल पृथ्वी के घूर्णन और संवहन, दोनों कारणों से निरंतर गतिशील अवस्था में रहता है। संवहन हलके तत्वों के ऊपर की और की गतिशीलता के कारण चलायमान होता है, क्योंकि भारी तत्व आतंरिक मूल पर जम जाते हैं। 

वातावरण में चुंबकीय क्षेत्र की निर्मिति की वास्तविक प्रक्रिया अत्यंत जटिल है, और समस्याओं का वर्णन करने वाले गणित के समीकरणों के पूर्ण समाधान के लिए आवश्यक मानदंड़ों की बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। हालांकि आधारभूत संकल्पनाएँ कठिन नहीं हैं। चुंबकीय क्षेत्र की निर्मिति के लिए निम्न शर्तों की पूर्ति आवश्यक हैः  1. एक संचार तरल का होना आवश्यक है़; 2. इस तरल को पर्याप्त गति से गतिशील बनाने के लिए पर्याप्त ऊर्जा आवश्यक है, और इसका प्रवाह का स्वरुप भी उपयुक्त होना आवश्यक है; और  3. एक ‘‘बीज‘‘ चुंबकीय क्षेत्र का होना आवश्यक है। 

इन सभी शर्तों की पूर्ति बाहरी मूल में होती है। पिघला हुआ लोहा एक अच्छा संवाहक है। संवहन और संवाहक गतिकी को चलाने के लिए पर्याप्त ऊर्जा भी विद्यमान है, और यह पृथ्वी के घूर्णन के साथ एक उपयुक्त प्रवाह स्वरुप का भी निर्माण करता है। पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की प्रारंभिक निर्मिति के पहले भी सूर्य के चुंबकीय क्षेत्रों के रूप में चुंबकीय क्षेत्र अस्तित्व में थे। एक बार प्रक्रिया शुरू हो जाती है, तो विद्यमान चुंबकीय क्षेत्र ‘‘बीज‘‘ क्षेत्र के रूप में कार्य करता है। जैसे ही पिघला हुआ लोहा विद्यमान चुंबकीय क्षेत्र से होकर प्रवाहित होता है, चुंबकीय प्रेरण नामक प्रक्रिया के माध्यम से एक विद्युत धारा निर्मित होती है। नए से बना हुआ विद्युत क्षेत्र जवाबी तौर पर एक चुंबकीय क्षेत्र की निर्मिति करेगा। तरल के प्रवाह और चुंबकीय क्षेत्र के बीच सही संबंध होने के साथ निर्मित हुआ चुंबकीय क्षेत्र मूल चुंबकीय क्षेत्र को प्रबलित करेगा। जब तक बाहरी मूल में पर्याप्त तरल गतिकी विद्यमान है, तब तक यह प्रक्रिया निरंतर जारी रहेगी।



6.0 चट्टानें

चट्टानें पृथ्वी की सतह के ठोस घटक हैं, जिनमें विभिन्न अनुपातों में खनिज उपलब्ध होते हैं। चट्टानें विभिन्न प्रक्रियाओं के फलस्वरूप निर्मित हो सकती हैं। कुछ चट्टानें पृथ्वी की सतह के नीचे बनी-बनाई होती हैं और ज्वालामुखी के कारण बाहर निकलती हैं, जबकि अन्य चट्टानें विस्फोट के दौरान स्थान पर ही निर्मित होती हैं। कुछ चट्टानों को उनका आकार और स्वरुप पृथ्वी की सतह पर होने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं से प्राप्त होता है। उत्पत्ति का स्थान, तत्वों के स्वरुप और प्रक्रियाएं अंतिम उत्पाद का निर्धारण करते हैं। 

रासायनिक और खनिज रचनाः वे चट्टानों के डीएनए होते हैं। वे उनके उत्पत्ति के स्थान के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उदाहरणार्थ, सतह से अधिक गहराई से मिली चट्टानों में अन्य की तुलना में उच्च धातुएं होती हैं। 

बनावट और संरचनाः बनावट का संदर्भ दानों के आकार, आति, और उन्मुखीकरण से है। सामान्य भाषा में बनावट की जानकारी हमें तब होती है जब हम चट्टान के किसी टुकडे़ को अपनी उँगलियों से स्पर्श करते हैं। व्यापक स्तर पर बनावट संरचना का निर्धारण करती है, और इसके अनुसार ही इसकी अन्य भौतिक विशेषताओं को भी निर्धारित करती है, जैसे भेद्यता, भंगुरता इत्यादि। 

प्राप्त होने का माध्यमः वह प्रक्रिया जिसके परिणामस्वरूप चट्टान की रचना हुई है, वह भी इसके स्वरुप और संवेदना को निर्धारित करती है। उदाहरणार्थ, तेजी से ठंड़ा होने वाला लावा ऐसी चट्टानों की निर्मिति करता है जो धीरे-धीरे ठंडे़ होने वाले लावा से निर्मित चट्टानों की तुलना में अधिक मणिभीय होती हैं। 

चट्टानों के केवल तीन वर्गीकरण होते हैं, जिनके नाम हैं, आग्नेय, तलछटी और कायांतरित। इसका अधिक जटिल भाग यह है कि इनमें से प्रत्येक के उपवर्ग होते हैं! 

6.1 आग्नेय चट्टानें 

आग्नेय चट्टानों की निर्मिति पृथ्वी की सतह से नीचे के ठंडे और ठोस होते मैग्मा (पृथ्वी की भूपर्पटी के नीचे के पिघले हुए खनिजों का पिंड) द्वारा होती है। वे ज्वालामुखी दरारों के माध्यम से पृथ्वी की सतह तक पहुंचती हैं। इस प्रक्रिया को मणिभीकरण (क्रिस्टलीकरण) कहा जाता है, क्योंकि अधिकांश आग्नेय चट्टानें स्वरुप में मणिभीय होती हैं। आग्नेय चट्टानों के तीन उपवर्ग होते हैंः

अम्लीय और आधारभूतः जिन चट्टानों में सिलिका का अधिक अनुपात होता है उन्हें अम्लीय चट्टानें कहा जाता है, और जिन चट्टानों में लोहे, मैग्नीशियम, एल्युमीनियम इत्यादि जैसे आधारभूत ऑक्साइड्स की मात्रा अधिक होती है उन्हें आधारभूत चट्टानें कहा जाता है। 

वितलीय और ज्वालामुखी चट्टानेंः जो पिघली हुई चट्टानें ठोस होने से पहले ही सतह पर आ जाती हैं उन्हें वितलीय चट्टानें कहा जाता है। इसके विपरीत ज्वालामुखी चट्टानें वे होती हैं जो तब ठोस बनती हैं जब पिघला हुआ लावा पृथ्वी की सतह पर पहुंचता है। 

दखल देने वाली और बहिर्वेधन चट्टानेंः ये क्रमशः वितलीय और ज्वालामुखी चट्टानों के अन्य नाम हैं। 

6.2 तलछटी चट्टानें

इस प्रकार की चट्टानें लंबे समय के दौरान तलछट के जमा होने के कारण निर्मित होती हैं, आमतौर पर पानी और हवा की गतिविधि के कारण। इन्हें स्तरीकृत चट्टानें भी कहा जाता है, क्योंकि वे परतों में बनी हुई होती हैं। आमतौर पर इनमें विभिन्न प्रकार के जीवाश्म (जैव पदार्थों के अवशेष) विद्यमान होते हैं। वे उनकी उत्पत्ति के तंत्र के आधार पर उप-वर्गीकृत होती हैं। 

यंत्रवत् निर्मित चट्टानेंः ये चट्टानें अन्य चट्टानों से उत्पन्न पदार्थों के जुड़ने से निर्मित होती हैं। इनका उपयोग आमतौर पर बलुआ पत्थर, मिट्टी, रेती और कंकड़ों के रूप में भवन निर्माण सामग्री में किया जाता है। बिल्लौर की निर्मिति भी इसी प्रक्रिया के द्वारा होती है। 

बवाल से निर्मित तलछटः ये खोल मछलियों और प्रवाल जैसे जीवों के अवशेषों से निर्मित होते हैं। ऑस्ट्रेलिया का द ग्रेट बैरियर रीफ इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। चूनापत्थर, कोयला और खड़िया भी इसी प्रकार की चट्टानों के उदाहरण हैं। इनका उप-वर्गीकरण निम्नानुसार हैः

चूनेदारः जीवों के अवशेषों से बना होता है। इसके कुछ उदाहरण हैं चूनापत्थर और खड़िया। 

कार्बनयुक्तः वनस्पतीय पदार्थों के अवशेषों द्वारा दलदलों और वनों में निर्मित चट्टानें। इसके उदाहरण हैं दलदल का कोयला और लिग्नाइट। 

रासायनिक ढंग से निर्मित तलछटेंः इस प्रकार की चट्टानें रसायन होते हैं, जो किसी न किसी प्रकार के घोल से अवक्षेपित होते हैं। जिप्सम इसका एक प्रकार है, जो नमक झीलों के वाष्पीकरण के कारण निर्मित होता है, जिनमें उच्च मात्रा में खारापन होता है। इसी प्रकार से, पोटाश, सेंधा नमक और नाइट्रेट्स की निर्मिति होती है।

6.3 कायांतरित चट्टानें 

कायांतरित चट्टानों को परिभाषित करना आसान है। परंतु इसकी परिभाषा चट्टानों की परिवर्तनीयता परिभाषा के भानुमति के पिटारे को खोल देता है। एक प्रकार की चट्टान की दूसरे प्रकार की चट्टान के रूप में परिवर्तित होने की प्रक्रिया निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया है, और इसे चट्टान चक्र कहते हैं। चट्टान चक्र एक प्रकार की चट्टान के दूसरी प्रकार की चट्टान में आवर्ती अनुक्रम में परिवर्तित होने का मार्ग है। पहली बार इसका सुझाव आधुनिक भूविज्ञान के संस्थापक जेम्स हटन द्वारा दिया गया था। हम चट्टान चक्र का परीक्षण करते हैं।

अपक्षय और कटावः इसका संदर्भ हवा और पानी की गतिविधि से है। इसके कारण अन्य प्रकार की चट्टानों का विखंडन और तहीकरण में होता है। निक्षेप और द्विस्रोतः अपक्षय और कटाव के बाद चट्टानें दबी हुई रहती हैं। इनमें द्विस्रोत नामक रासायनिक, यांत्रिक और जैविक परिवर्तन होते हैं, जिनसे तलछट चट्टानों की निर्मिति होती है। 

दबाव और ऊष्माः इसका संबंध भूमिगत चट्टानों की स्थिति से है, जो उच्च दाब और तापमानों से गुजरती हैं, और कायांतरित चट्टानों में परिवर्तित हो जाती हैं। 

चट्टानों का पुनः मैग्मा में परिवर्तित होनाः यह भूकंप सूचक क्षेत्रों के आसपास दिखाई देता है। जब दो विवर्तनिक प्लेटें एक दूसरे से टकराती हैं, तो ऐसी संभावना होती है कि उनमें से एक नीचे की ओर लुढ़क जाएगी। यह परत फिर मैग्मा में परिवर्तित हो जाती है, और इसका पृथ्वी के किसी अन्य भाग में पुनर्नवीनीकरण होता है।


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