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भारत-भौगोलिक संरचना
1.0 प्रस्तावना
भारतीय उपमहाद्वीप में भारत सबसे बडा देश है, जिसका नाम सिंधु नदी के नाम पर पड़ा है, जो देश के उत्तरपश्चिमी भाग से होकर बहती है। पूर्व में, अविभाजित हिंदुस्तान में आज के अनेक स्वतंत्र देश भी शामिल थे।
2.0 भारत - भौगोलिक विशेषतायें
भारत का भूभाग उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में अक्षांश 8°4’ उत्तर से 37°6’ उत्तर तक और देशान्तर 68°7’ पूर्व से 97°25’ पूर्व तक फैला हुआ है। भारतीय सीमा का सबसे दक्षिणी बिन्दु, इंदिरा बिंदु (जिसे पूर्व में पिग्मेलियन बिन्दु कहा जाता था), निकोबार द्वीप में 6°30’ उत्तर पर स्थित है। इस प्रकार, भारत पूरी तरह से उत्तरी और पूर्वी गोलार्धों में स्थित है। भारत का सबसे उत्तरी बिन्दु जम्मू और काश्मीर राज्य में स्थित है और यह इंदिरा कोल कहलाता है। (भूआकारिकी में ‘कोल‘ दो पहाड़ी चोटियों के बीच स्थित न्यूनतम बिंदु को कहते हैं)।
दक्षिण-पश्चिम में भारत अरब सागर से घिरा हुआ है, दक्षिण-पूर्व में बंगाल की खाड़ी से, और दक्षिण में हिन्द महासागर से घिरा हुआ है। कन्याकुमारी भारतीय प्रायद्वीप का दक्षिणी छोर बनाता है, जो नीचे जाते-जाते संकरा होता जाता है, जब तक कि यह हिंद महासागर में नहीं समा जाता। भारत का सबसे दक्षिणी छोर अंदमान और निकोबार द्वीप समूह में स्थित इंदिरा पॉइंट है। भारत के दक्षिण में मालदीव, श्रीलंका और इंडोनेशिया, ये द्वीपीय देश हैं, जिनमें से श्रीलंका पाक जलडमरूमध्य और मन्नार की खाड़ी नामक एक संकरे समुद्री क्षेत्र द्वारा भारत से अलग होता है। एक उपयुक्त आधार रेखा द्वारा नापा गया भारत का सीमांत जलीय क्षेत्र समुद्र में 12 समुद्री मील तक फैला हुआ है (13.8 मी. या 22.2 किलोमीटर)।
भारत की उत्तरी सीमाएं मुख्य रूप से हिमालय की पर्वतीय श्रंखला द्वारा परिभाषित होती हैं, जहाँ इसकी राजनीतिक सीमाएं चीन, भूटान, और नेपाल से लगी हुई हैं। पाकिस्तान के साथ लगी हुई इसकी पश्चिमी सीमाएं पंजाब के मैदानों और थार के मरूस्थल में स्थित हैं। सुदूर पूर्वोत्तर की चिन और कचिन पर्वत श्रेणियाँ और घने जंगलों से व्याप्त पर्वतीय क्षेत्र भारत को म्यांमार से अलग करते हैं, जबकि बांग्लादेश के साथ इसकी राजनीतिक सीमा भारत के गंगा मैदानों के जलविभाजन, खासी पर्वतमाला और मिज़ो पर्वत मालाओं द्वारा परिभाषित होती हैं। भारत में उद्गमित नदियों में गंगा सबसे लंबी नदी है, जो भारत-गंगा के मैदान बनाती है। गंगा-ब्रह्मपुत्र प्रणाली भारत के अधिकांश उत्तरी, मध्य और पूर्वी भाग को व्याप्त करती है, जबकि डेक्कन के पठार भारत के अधिकांश दक्षिणी भाग को व्याप्त करते हैं। भारत की पश्चिमी सीमा पर थार का मरुस्थल है, जो विश्व का सातवाँ सबसे बडा मरुस्थल है।
2.1 क्षेत्रफल और सीमाएँ
अपने अधिकतम में उत्तर से दक्षिण तक का भारत का कुल क्षेत्र विस्तार 3,214 किलोमीटर और पूर्व से पश्चिम मे इसका अधिकतम क्षेत्र विस्तार 2,933 किलोमीटर है। भारत का समुद्रतटीय भूक्षेत्र लगभग 6,100 किलोमीटर लंबा है जबकि भूक्षेत्रों से जुडी हुई सीमाओं की कुल लम्बाई लगभग 15,200 किलोमीटर है। द्वीपों समेत तटीय क्षेत्र की कुल लंबाई लगभग 7500 किलोमीटर है। क्षेत्रफल की दृष्टि से लगभग 32,87,782 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के साथ भारत विश्व का सातवाँ सबसे बडा देश है।
जो दुनिया के कुल क्षेत्रफल के 2.4 प्रतिशत क्षेत्र में बसा हुआ है। भारत से बड़े देशों में रूस, कनाडा, चीन, यू.एस.ए., ब्राजील व ऑस्ट्रेलिया हैं। हालाँकि, जनसंख्या के मामले में भारत केवल चीन के बाद दूसरे क्रमांक पर है।
उत्तर में भारत के पड़ोसी हैं चीन (चीनी तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र), नेपाल और भूटान। भारत और चीन के मध्य की सीमा रेखा को मैकमहोन रेखा कहा जाता है। उत्तरपश्चिम में भारत अपनी सीमाएँ मुख्य रूप से पाकिस्तान के साथ, और पूर्व में म्याँमार के साथ साझा करता है, जबकि बांग्लादेश भारत के साथ लगभग एक विदेशी अंतःक्षेत्र बनाता है। उत्तर पश्चिमी दिशा में भारत का एक करीबी पड़ोसी देश अफ़गानिस्तान भी है। देश का क्षेत्रीय आकार उत्तर में आधार (हिमालय) और दक्षिण में शीर्ष (कन्याकुमारी) के साथ लगभग त्रिकोणीय है। कर्क रेखा के दक्षिण में भारत का भूक्षेत्र पूर्व में बंगाल की खाड़ी और पश्चिम मे अरब सागर के बीच शंकु के आकार का होता हुआ दिखाई देता है। हिंद महासागर भारत के दक्षिण में स्थित है। बंगाल की खाडी और अरब सागर इसके दो विस्तार हैं। दक्षिण में पूर्वी भाग की ओर, मन्नार की खाडी और पाक जलडमरूमध्य भारत को श्रीलंका से अलग करते हैं। भारत के द्वीपों में बंगाल की खाड़ी में अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, और अरब सागर में लक्कादिव (लक्षद्वीप), मिनीकॉय और अमीनदिवे द्वीप शामिल हैं।
भारत और इसके पड़ोसी देशों, पकिस्तान, नेपाल और भूटान को भारतीय उपमहाद्वीप कहा जाता है, जो उत्तर में पर्वतों और दक्षिण में समुद्र से घिरा हुआ है। यह विशेषण इस क्षेत्र की बाकी दुनिया से संकीर्णता दर्शाता है।
भारत की आधिकारिक स्थिति स्पष्ट हैः चीन व पाकिस्तान द्वारा जम्मू-काश्मीर पर किये गये सारे दावे झूठे हैं, व सम्पूर्ण जम्मू-काश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है।
2.3 प्रशासनिक विभाग
1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत सैकडों राज्यों और रियासतों में बंटा हुआ था। इन राज्यों को एक करके कम संख्या में अपेक्षाकृत बङ़े राज्यों का निर्माण किया गया, और अंत में, 1956 में इन सभी को 14 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों में समाविष्ट किया गया। भारतीय राज्यों का यह गठन अनेक मानदंडों के आधार पर किया गया था, जिनमें से भाषा भी एक था। इसके पश्चात, स्थानीय लोगों की भावनाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये और विकास के उद्देश्यों की पूर्ति के लिये कुछ और राज्यों का गठन किया गया। वर्तमान में देश में 29 राज्य, छह केंद्र शासित प्रदेश और एक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र है। तेलंगाना नवीनतम राज्य है।
3.0 भूविज्ञान
भारत की भूगर्भिक संरचना काफी जटिल है। देश के भूगर्भिक इतिहास के अनुसार देश के विभिन्न भागों में संसार की प्राचीनतम से नवीनतम युग तक की चट्टानें पाई जाती हैं। प्रायद्वीपीय पठार क्षेत्र में संसार की प्राचीनतम चट्टानें पाई जाती हैं जबकि हिमालय क्षेत्र नवीन युग की चट्टानों से बना हुआ है। भारत के प्रायद्वीपीय पठार को प्राचीन गोंडवानालैंड़ का एक भाग माना जाता है। भूगर्भिक दृष्टिकोण से यह क्षेत्र प्राचीनकाल में दक्षिणी अफ्रीका तथा आस्ट्रेलिया के साथ जुड़ा हुआ था। यद्यपि पठारी क्षेत्र के अनेक भागों में धरातल पर पाई जाने वाली चट्टानें अवसादी प्रकार की हैं, जैसे कि पठार के उत्तरी भाग में, परन्तु पूरे पठार की आधारी चट्टानें रवेदार (आग्नेय) प्रकार की हैं। भूगर्भवेत्ता मानते हैं कि हिमालय की उत्पत्ति इस कठोर चट्टानों वाले भूखण्ड के उत्तर की और खिसककर एशियाई भूखण्ड के दक्षिणी किनारे के साथ टकराने से हुई है। उत्तर भारत के विशाल मैदान का निर्माण हिमालय से दक्षिण की और बहनें वाली नदियों द्वारा जलोढ़ के निक्षेपण से हुआ है। भारत का यह मैदान न केवल संसार के सबसे नवीनतम क्षेत्रों में से एक है बल्कि यह संसार का सबसे विशाल जलोढ़ मैदान भी है। यह क्षेत्र संसार के सबसे उपजाऊ तथा सबसे घने बसे क्षेत्र में से एक है। भारत को सामान्यतया तीन भूप्रदेशों में विभाजित किया जाता है। ये तीन क्षेत्र हैं (1) हिमालय तथा संबंधित पर्वत श्रेणियां, (2) उत्तरी पर्वतमाला के दक्षिण में स्थित विशाल सिंधु-गंगा का मैदान, तथा (3) दक्षिण भारत का प्रायद्वीपीय पठार। इन तीनों क्षेत्रों का भूगर्भिक इतिहास एक-दूसरे से भिन्न रहा है तथा विभिन्न भूगर्भिक घटनाआें ने इन तीनों क्षेत्र पर अपनी छाप छोड़ी है।
3.1 हिमालय पर्वत श्रृंखला और इसकी सहयोगी पर्वत श्रेणियाँ
उत्तर की हिमालय पर्वत श्रंखला और इसकी सहयोगी श्रेणियाँ मुख्य रुप से प्रोटेरोज़ोइक और फाम्रोज़ोइक अवसादों से बनी हुई हैं, जो बड़े पैमाने पर सामुद्रिक मूल की हैं, और इनकी उत्पत्ति शक्तिशाली विवर्तनिक घटनाओं का परिणाम है। ये पर्वत निर्माणकारी घटनायें अपेक्षाकृत नवीन महाकल्पों मे सम्पन्न हुई हैं। इन पर्वतीय क्षेत्रों में चट्टानों पर वलन तथा भ्रंश क्रियाओं का विस्तृत प्रभाव देखने को मिलता है। विभिन्न क्षेत्रों में पाये जाने वाले प्रमाणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है, कि भारत का प्रायद्वीपीय भाग लंबे समय तक जलमग्न रहा है। यही कारण है कि इस समूचे क्षेत्र में कैम्ब्रियन महाकल्प के बाद के सभी कल्पों से संबंधित जलीय चट्टानों की परतें पाई जाती हैं।
3.2 सिंधु-गंगा के मैदान
भारत की दूसरी भौगर्भिक इकाई, उत्तरी भारत का सिंधु-गंगा मैदान, एक अपेक्षाकृत नवीन संरचना है। इस मैदान की उत्पत्ति चतुर्थ महाकल्प मे हुई है। यह एक अति न्यून उच्चावच वाला मैदान है, तथा मैदान का अधिकांश भाग समुद्र तल से 300 मीटर से कम ऊंचा है। यह मैदान एक विकसित अपवाह तंत्र वाले क्षेत्रों मे पाये जाने वाले लगभग समतल मैदानों का एक आदर्श उदाहरण है। मैदान के अधिकतर भाग में नवीन युग के अवसादी निक्षेपों का आवरण पाया जाता है। मैदान का पश्चिमी भाग थार के मरुस्थल का बड़ा विस्तार है।
3.3 प्रायद्वीपीय पठार
प्रायद्वीपीय पठार का क्षेत्र भूगर्भिक तथा स्थलाकृतिक दोनों ही दृष्टिकोणों से उपरोक्त्त दोनों प्रदेशों से भिन्न है। यहाँ पर पाये गए विभिन्न प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि कैंब्रियन महायुग से ही यह क्षेत्र एक महाद्वीपीय क्षेत्र रहा है। यह प्री-कैंब्रियन युग की शैलों का क्षेत्र है, तथा पृथ्वी की उत्पत्ति के समय से ही लगभग यथावत बना रहा है। इसे पृथ्वी के सबसे प्राचीन भूखंडों में गिना जाता है, और कैंब्रियन युग के बाद यह क्षेत्र कभी भी जलमग्न नहीं रहा है। इस पठार के आतंरिक भागों में कहीं भी कैंब्रियन युग के बाद की जलीय चट्टानें नहीं पायी जातीं। अपने निर्माण के बाद की लंबी अवधि में इस क्षेत्र की चटटानों में कोई संरचनात्मक परिवर्तन नहीं हुए हैं। कुछ भूगर्भिक घटनाएं जिनसे यह क्षेत्र प्रभावित हुआ है, उनमें गोंडवाना युग में अवसादों के निक्षेपण और दक्कन लावा के उद्गार, प्रमुख रही हैं। हालाँकि हिमालय क्षेत्र की ही भांति इस क्षेत्र में काफी उच्चावच पाया जाता है, तथापि भूआकृतिक दृष्टिकोण से यह क्षेत्र हिमालय से काफी भिन्न है। अरावली को छोडकर इस क्षेत्र की कोई भी पर्वत श्रृंखला विवर्तनिकी घटनाओं का परिणाम नहीं हैं। बाकी सभी पर्वत श्रंखलाओं की उत्पत्ति एक प्राचीन उच्च भूमि के विभेदात्मक अपरदन का परिणाम है। ये पर्वत श्रृंखलाएँ इस प्राचीन पठार के अपेक्षाकृत कठोर अवशिष्ट भाग है, तथा भूआकृतिक दृष्टिकोण से इन्हें टॉर की संज्ञा दी जा सकती है। चट्टानों का भ्रंशन तथा भ्रंश खण्डों का ऊर्ध्वार्धर एवं क्षैतिक संचलन इस क्षेत्र में होने वाली विवर्तनिकी घटनाओं के प्रमुख प्रभाव रहे हैं। इस क्षेत्र में बहने वाली अधिकाँश नदियों की घाटियां कम गहरी तथा मंद ढ़ाल वाली है, तथा इनमें से अनेक नदियां अपने आधार तल को प्राप्त कर चुकी हैं (टॉर से आशय विशाल, स्वतंत्र चट्टानों से है जो अचानक उठ खड़ी हुई हैं)।
4.0 भूआकृतिक लक्षण
भूआकृतिक दृष्टिकोण से भारत एक विविधताओं का देश है। इन के आधार पर भारत को तीन विभागों में बांटा जा सकता है। ये तीन क्षेत्र हैंः उत्तर की पर्वत श्रृंखलाएँ, उत्तरीय तथा तटीय मैदान, और दक्षिण का पठारी क्षेत्र। भारत के तटीय मैदानों को कई बार एक अलग इकाई भी माना जाता है।
4.1 हिमालय का पर्वतीय क्षेत्र (संस्कृत, हिम (बर्फ) + आलय (आवास), अर्थात, ‘‘बर्फ के निवास‘‘)
हिमालय संसार के नवीनतम वलित पर्वतों में से एक पर्वतमाला है, और इस पर्वतमाला का निर्माण अवसादी चट्टानों के वलन से हुआ है। उत्तर पश्चिम तथा उत्तर-पूर्व में संलग्न पहाडियों के साथ मिलकर हिमालय भारत की उत्तरी सीमा बनाता है। यह पर्वत क्षेत्र पश्चिम में जम्मू कश्मीर से लेकर पूर्व में असम, मणिपुर तथा मिजोरम तक फैला हुआ है। इस पर्वत श्रृंखला की कुल लंबाई लगभग 5000 कि. मी. है, जिसमें से लगभग 2500 कि. मी. लंबाई भारत की उत्तरी सीमा के साथ धनुषाकार दीवार के रूप में फैली हुई है। सिंधु तथा ब्रह्मपुत्र नदियों की घाटियों को भारतीय हिमालय की क्रमशः पश्चिमी तथा पूर्वी सीमाएं माना जाता है। इस पर्वतमाला की चौडाई 150 से 400 कि. मी. तथा औसत ऊंचाई लगभग 2000 मीटर है। इन पर्वत श्रृंखलाओं की ऊंचाई सामान्यतया पश्चिम से पूर्व की ओर घटती जाती है।
हिमालय की उत्पत्ति टरशरी युग (तृतीयक युग) में हुई मानी जाती है। ऐसा माना जाता है, कि हिमालय की उत्पत्ति टैथीस सागर में जमे तलछटों के वलन एवं उत्थान के परिणामस्वरुप हुई है। यह सागर इसके दक्षिण में गोंडवानालैंड तथा उत्तर मे अंगारालैंड के बीच स्थित था। हिमालय की उत्पत्ति से संबंधित एक मान्यता के अनुसार, इस पर्वत का निर्माण टैथीस के तलछट के संपीडन एवंम वलन के कारण हुआ था, तथा इस सम्पीडन का कारण गोंडवानालैंड तथा अंगारालैंड का परस्पर पास आकर एक दूसरे से भिडना था। इस मत के अनुसार, हिमालय की उत्पत्ति एक अंतरमहाद्वीपीय भिडंत का परिणाम थी।
परनतु प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार, हिमालय की उत्पत्ति अंतः प्लेट वलन प्रक्रिया का परिणाम है। इस सिद्धांत के अनुसार, गोंडवानालैंड के उत्तर की ओर खिसकने के कारण इस प्लेट (भारतीय प्लेट) का अग्र भाग इसके उत्तर में स्थित तिब्बत प्लेट के नीचे प्रवेश कर गया, तथा तिब्बत प्लेट ने भारतीय प्लेट की खिसकने की प्रक्रिया को रोक दिया। परंतु चूंकि भारतीय प्लेट की उत्तर की ओर गतिशीलता जारी रही और इसका अग्र भाग और आगे नहीं जा सकता था, इसलिए भारतीय प्लेट के उत्तरी भाग में वलन पड़ गए तथा इस प्रकार इस पर्वतमाला का निर्माण हुआ। इसके साथ ही भारतीय प्लेट के अग्र भाग के इसके नीचे प्रविष्ट होने से तिब्बत प्लेट का अग्र भाग एक पठार के रूप में ऊपर उठ गया। ऐसा माना जाता है, कि भारतीय प्लेट का उत्तर की ओर खिसकने की प्रक्रिया अभी भी जारी है, तथा इस क्षेत्र में होने वाले भूकंप इसी गतिशीलता का परिणाम हैं।
4.1.1 हिमालय की प्रमुख श्रेणियां
हिमालय पर्वतमाला कई श्रृंखलाओं से मिलकर बनी है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, भारत में हिमालय का विस्तार सिंधु तथा ब्रह्मपुत्र घाटियों के बीच माना जाता है। सिंधु घाटी से पश्चिम में फैले पर्वत क्षेत्र को सामान्यतया ट्रांस-हिमालय कहा जाता है। इसी प्रकार, पूर्व में ब्रह्मपुत्र घाटी से पूर्व में विस्तृत पहाड़ी क्षेत्र को पूंर्वाचल नाम दिया जाता है। हिमालय को सामान्यतया तीन प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता हैः
महान हिमालय या आतंरिक हिमालय (हिमाद्रि) : इस श्रंखला को सेंट्रल हिमालय भी कहा जाता है। यह हिमालय तंत्र की सबसे उत्तरी तथा सबसे ऊंची श्रृंखला है। इसकी चौडाई लगभग 25 कि. मी. तथा औसत ऊंचाई 6000 मीटर है। यह श्रेणी अनेक नदियों तथा हिमनदियों का उदगम क्षेत्र है। संसार की सर्वोच्च पर्वतीय चोटी माउंट एवरेस्ट (8848 मी.) इसी श्रेणी में है। हिमालय के अनेक अन्य प्रमुख शिखर, जैसे कंचनजंगा (8598 मी.), मकालु (8481 मी.), तथा धौलागिरी (8172 मी.) भी इसी भाग में स्थित हैं। हिमाद्रि श्रेणी का दक्षिणाभिमुख ढ़ाल उत्तरी ढ़ाल की अपेक्षा अधिक ढ़लान वाला है। इस श्रेणी में पायी जाने वाली चट्टानों में ग्रेनाइट, नाइस तथा शीस्ट प्रमुख है। अत्यधिक संपीडन के कारण इस क्षेत्र की चट्टानें पूर्णतया कायांतरित हो चुकी हैं।
लघु अथवा मध्य हिमालय (हिमाचल) : इस श्रेणी का विस्तार महान हिमालय के दक्षिण में है। यह श्रेणी हिमाद्रि की अपेक्षा अधिक चौडी है, परंतु इसकी ऊंचाई हिमाद्री से कम है। हिमाचल श्रेणी की चौडाई 80 से 100 कि.मी. तथा औसत ऊंचाई 1800 मीटर मानी जाती है।
मध्य हिमालय श्रेणी के उत्थान को सामान्यतया एक दीर्घगामी परंतु धीमी प्रक्रिया माना जाता है। यही कारण है, कि हिमाद्रि श्रेणी से निकलने वाली नदियों ने हिमाचल श्रेणी में गहरी संकरी घाटियों (गॉर्ज) का निर्माण किया है। मेन सेंट्रल थ्रस्ट जोन इस श्रेणी को वृहद हिमालय से अलग करता है। धौलाधार, नाग रीवा, पीर पंजाल और महाभारत श्रेणियां इस क्षेत्र की प्रमुख पर्वत श्रेणियां हैं। इस क्षेत्र में पायी जाने वाली चट्टानों में स्लेट, चूना पत्थर तथा क्वार्टजाइट प्रमुख हैं।
उप हिमालय (शिवालिक): इस श्रेणी को बाह्य हिमालय के नाम से भी जाना जाता है। शिवालिक हिमालय की तीसरी और सबसे कम ऊंची श्रेणी है, तथा इसका विस्तार उपरोक्त्त दो श्रेणियों के दक्षिण में है। मेन बॉउंड्री थ्रस्ट इस श्रेणी को मध्य हिमालय से अलग करता है। इस श्रेणी का विस्तार पश्चिम में पोटवार बेसिन से पूर्व में तीस्ता नदी के मध्य है। इसकी कुल लंबाई लगभग 2400 कि.मी. है। शिवालिक श्रेणी की चौडाई 10 से 50 कि.मी. तथा औसत ऊंचाई 1200 मीटर है। यह हिमालय की सबसे नवीन श्रेणी है, तथा उत्तर भारत के जलोढ़ के मैदान को दून तथा द्वार घाटियों से अलग करती है। हिमालयन फ्रंटल फॉल्ट शिवालिक तथा इसके दक्षिण में स्थित मैदानों के बीच सीमा बनाता है। इस श्रेणी का निर्माण करने वाली चट्टानों की उत्पत्ति हिमालय से आने वाली नदियों तथा हिमनदियों द्वारा निक्षेपित पदार्थों से हुई है। जैसा कि उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है, शिवालिक का विस्तार लगभग पश्चिमी हिमालय तक ही सीमित है। ऐसा माना जाता है, कि पूर्वी हिमालयक्षेत्र में अधिक वर्षा होने से इस श्रेणी का अपरदन हो चुका है, तथा इसके अवशेष जलोढ़ निक्षेपों के नीचे दब गये हैं। पूर्वी हिमालय में इस श्रेणी के न होने के कारण मैदानों से हिमालय क्षेत्र की ओर जाने पर एकाएक ऊंचे पर्वतों का सिलसिला आरंभ हो जाता है, जबकि पश्चिम मे ऊंचे पर्वतों में प्रवेश से पहले नीची पहाडियों के क्षेत्र से होकर गुजरना पडता है।
तिब्बत हिमालयः महान हिमालय के उत्तर में स्थित इस क्षेत्र को ट्रांस-हिमालय या तिब्बत हिमालय भी कहा जाता है। यह श्रेणी यहाँ से निकलकर उत्तर तथा दक्षिण की ओर बहने वाली नदियों के बीच जल विभाजक की भूमिका निभाती है। इस श्रेणी की चौडाई लगभग 40 कि.मी. तथा ऊंचाई 3,000 से 4,300 मी. है। इस क्षेत्र में कैंब्रियन युग से लेकर टरशरी युग तक की चट्टानें पायी जाती हैं, तथा ये जीवाश्मों से युक्त हैं। सिंधु-सांपो सीवन (रंध्र) क्षेत्र इस श्रेणी को यूरेशियन प्लेट से अलग करता है। हिमालय तंत्र में उपरोक्त प्रमुख श्रेणियों के अतिरिक्त कुछ और श्रेणियां भी हैं। इनमें से पश्चिम में मुख्य श्रेणियां हैं, काराकोरम (सर्वोच्च शीर्ष के2), ज़ास्कर तथा लद्दाख श्रेणी तथा पूर्व में मुख्य श्रेणियां हैं, गारो, खासी, जैंतिया, लुशाई और पठकाई श्रेणियां। ब्रह्मपुत्र घाटी से पूर्व के पर्वतीय क्षेत्र को पूर्वांचल नाम भी दिया जाता है।
4.1.2 हिमालय का प्रादेशिक विभाजन
प्रादेशिक आधार पर हिमालय को सर्वप्रथम पश्चिमी तथा पूर्वी हिमालय में विभाजित किया जाता है। पश्चिमी हिमालय इस पर्वत श्रृंखला का अपेक्षाकृत शुष्क जलवायु वाला भाग है, जबकि पूर्वी हिमालय की जलवायु आर्द्र है। हिमालय का यह विभाजन एक समान्य विभाजन है। एक अधिक तर्कसंगत आधार पर हिमालय को निम्नलिखित भागों मे विभाजित किया जाता हैः
पंजाब हिमालयः यह हिमालय का सबसे पश्चिमी भाग है, तथा सिंधु तथा सतलुज नदियों के बीच विस्तृत है। हिमालय का यह भाग पश्चिम से पूर्व की 562 कि.मी. लंबाई में फैला है।
कुमाऊँ हिमालयः यह भाग पंजाब हिमालय के पूर्व में 320 कि.मी. की दूरी तक विस्तृत है। सतलुज तथा काली नदियां इसकी क्रमशः पश्चिमी तथा पूर्वी सीमाएं हैं।
नेपाल हिलालयः यह क्षेत्र कुमाऊं हिमालय से पूर्व में 800 कि.मी. तक फैला है। यह हिमालय का सबसे लंबा भाग है तथा काली और तीस्ता नदियां इसकी क्रमशः पश्चिमी एवं पूर्वी सीमाएं हैं। हिमालय की सर्वोच्च चोटियां इसी भाग में स्थित हैं।
असम हिमालयः हिमालय का यह सबसे पूर्वी भाग है, तथा इसका विस्तार पश्चिम में तीस्ता से लेकर पूर्व में ब्रह्मपुत्र के मध्य 750 कि.मी. क्षेत्र में है। इस भाग में हिमालय की ऊंचाई अन्य सभी भागों से कम है।
हिमालय भारत की एक मुख्य भौगोलिक इकाई है। यह पर्वतमाला न केवल भारत की उत्तरी सीमा है, बल्कि यह एक महत्वपूर्ण जलवायु विभाजक की भी भूमिका निभाती है। साथ ही यह पर्वतीय क्षेत्र भारत तथा चीन के बीच एक महत्वपूर्ण जल विभाजक भी है। यह क्षेत्र अनेक नदियों तथा हिमानियों का उदगम क्षेत्र है। हिमालय को ध्रुवीय क्षेत्रों को छोड़कर संसार में सबसे बडा हिम प्रदेश भी कहा जाता है।
4.2 भारत के मैदानी क्षेत्र
इस इकाई के अंतर्गत न केवल उत्तरी मैदान, बल्कि भारत के तटीय मैदानों को भी शामिल किया जाता है। उत्तर भारत का मैदान मुख्यतः एक जलोढ़ मैदान है, तथा इसके पश्चिमी भाग में थार का मरुस्थल स्थित है। तटीय मैदानों का विस्तार बंगाल की खाडी तथा अरब सागर के साथ-साथ उत्तर से दक्षिण तक है, तथा इन मैदानों काफी भाग भी जलोढ़ निक्षेपों से बने है।
4.2.1 उत्तरी भारत का मैदान
भारत के उत्तरी मैदान को गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदान तथा सिंधु-गंगा के मैदान (इंड़ो-गेंजेटिक प्लेन्स्) के नाम से भी जाना जाता है। इस मैदान का निर्माण सिंधु, गंगा तथा ब्रह्मपुत्र तंत्रो की नदियों द्वारा तलछट के निक्षेपण से हुआ है। इस मैदान के पश्चिमी भाग को सिंधु का मैदान तथा पंजाब का मैदान कहा जाता है। इस मैदान के अंतर्गत हरियाणा तथा पंजाब के क्षेत्र आते हैं, तथा इस भाग का ढ़ाल पश्चिम तथा दक्षिण पश्चिम की ओर है। पाकिस्तान में विस्तृत सिंधु का मैदान इसी मैदान का पश्चिमी भाग है। उत्तर भारत के मैदान के मध्यवर्ती भाग को गंगा का मैदान कहा जाता है। इस भाग का सामान्य ढ़ाल पूर्व की ओर है। उत्तरी मैदान का यह मध्यवर्ती भाग इस मैदान का सबसे विस्तृत उपविभाग है। उत्तरी मैदान का पूर्वी भाग ब्रह्मपुत्र का मैदान कहलाता है। ब्रह्मपुत्र के मैदान का ढ़ाल पश्चिम तथा दक्षिण की ओर है, तथा बांग्लादेश में यह मैदान गंगा के मैदान से मिल जाता है।
उत्तर भारत के मैदान को विभिन्न प्रादेशिक विभागो में भी बांटा जा सकता है। इस आधार पर इस मैदान के प्रमुख विभाग पश्चिमी मैदान, पूर्वी मैदान, बिहार का मैदान, बंगाल का मैदान तथा असम का मैदान है। यह पूरा मैदान नदियों के बाढ़ के मैदानों तथा डेल्टा मैदानों का संयुक्त्त रुप है। इसका अधिकतर पश्चिमी भाग एक विस्तृत बाढ़ का मैदान है, जबकि पूर्वी भाग में डेल्टाई लक्षण प्रमुख हैं। उत्तरी मैदान को खादर तथा बांगर इकाइयों में भी बांटा जाता है। खादर क्षेत्र नदियों से संलग्न क्षेत्रों को कहा जाता है, जहाँ लगभग प्रतिवर्ष बाढ़ आती है, तथा जलोढ़ की एक नई परत का निक्षेपण होता रहता है। खादर क्षेत्रों में मिट्टी अधिक रेतीली होती है, तथा जलस्तर ऊंचा होता है।
बांगर क्षेत्र पुराने जलोढ़ क्षेत्र हैं, जो नदियों से अधिक दूरी पर हैं, तथा इन क्षेत्रों में सामान्यतया बाढ़ नहीं आती। इन क्षेत्रों में मिट्टी खादर क्षेत्रों की अपेक्षा महीन कणों से बनी होती है, तथा भू-जल स्तर अपेक्षाकृत नीचा होता है। उत्तरी मैदान का दक्षिणी-पूर्वी भाग सुंदरबन डेल्टा है। यह नदी मुखभूमि (डेल्टा) गंगा तथा ब्रह्मपुत्र का संयुक्त डेल्टा है, तथा इसका एक बडा भाग बांग्लादेश में विस्तृत है। उत्तरी मैदान के उत्तरी भाग को, जो हिमालय की तलहटी का क्षेत्र है, तराई क्षेत्र कहा जाता है। तराई का एक बडा भाग दलदली क्षेत्र रहा है। इस दलदली क्षेत्र के काफी बडे भाग को कृषि भूमि में परिवर्तित कर लिया गया है।
4.2.2 तटीय मैदान
भारत के तटीय मैदान बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर तट के साथ उत्तर से दक्षिण को फैली मैदानी पट्टियां है। पूर्वी तटीय मैदान को कोरोमंडल तटीय मैदान भी कहा जाता है, तथा इसे प्रादेशिक आधार पर उत्कल तटीय मैदान, आंध्र तटीय मैदान तथा तमिलनाडु तटीय मैदान की ईकाइयों में विभाजित किया जाता है। महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियों के डेल्टा क्षेत्र इस मैदान के अंतर्गत आते हैं। इन डेल्टाई क्षेत्रों में मैदान की चौडाई अपेक्षाकृत अधिक है, तथा यह मैदान दक्षिण भारत का सबसे उपजाऊ क्षेत्र है।
भारत का पश्चिमी तटीय मैदान उत्तर में गुजरात से लेकर दक्षिण में केरल तक एक अपेक्षाकृत संकरी पट्टी के रूप में फैला हुआ है। यह मैदान पूर्वी तटीय मैदान की अपेक्षा काफी संकरा है, तथा इसकी अधिकतम चौडाई गुजरात क्षेत्र में है इस मैदान के सबसे उत्तरी भाग को गुजरात का तटीय मैदान कहते हैं। गुजरात के मैदान के दक्षिण में गोवा तक के तटीय मैदान को कोंकण तटीय मैदान कहा जाता है। इस मैदान का दक्षिणी भाग मालाबार तथा केरल तटीय मैदानों के अंतर्गत आता है। पश्चिमी तटीय मैदान की अपेक्षाकृत कम चौडाई का एक प्रमुख कारण यह है, कि इस क्षेत्र में बहने वाली नदियां डेल्टा नहीं बनातीं। ये नदियां पश्चिमी घाट के खडे ढ़ालों से तीव्र गति से बहती हुई अरब सागर में गिरती हैं, और तीव्रगामी बहाव के कारण इनमें से अधिकांश नदियां गहरे नदमुखों (एस्चुरी) का निर्माण करती हैं। इस तटीय मैदान की अपेक्षाकृत कम चौडाई का एक और महत्वपूर्ण कारण भारत की पश्चिमी तट रेखा का निमन्जन की तट रेखा होना है। इसके विपरीत, भारत की पूर्वी तटरेखा एक उत्थान की तटरेखा है। कृषि की दृष्टि से पूर्वी तटीय मैदान पश्चिमी मैदान की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हैं।
4.3 प्रायद्वीपीय पठार
गंगा-सिंधु के मैदान के दक्षिण मे फैले त्रिभुजाकार क्षेत्र को प्रायद्वीपीय पठार अथवा प्रायद्वीपीय भारत कहा जाता है। यह क्षेत्र तीन ओर से समुद्र से घिरा है। इस त्रिभुजाकार क्षेत्र का चौडा आधार उत्तर की ओर तथा संकरा शीर्ष दक्षिण की ओर है। पूर्वी घाट तथा पश्चिमी घाट इस क्षेत्र की क्रमशः पूर्वी तथा पश्चिमी सीमाएं हैं, जो इस पठारी प्रदेश को तटीय मैदानों से पृथक करती हैं। नर्मदा नदी, जो एक भ्रंश घाटी से बहती है, प्रायद्वीपीय पठार को दो भागों मे विभाजित करती है। नर्मदा घाटी से उत्तर के क्षेत्र को मालवा का पठार तथा इससे दक्षिण के भाग को दक्कन का पठार कहा जाता है। मालवा पठार के पश्चिमी भाग में अरावली तथा पूर्वी भाग में छोटा नागपुर पठार स्थित है। मालवा पठार क्षेत्र का समान्य ढ़ाल उत्तर की ओर है, तथा इस क्षेत्र की नदियां उत्तर दिशा में बहती हुई गंगा नदी तंत्र में मिलती हैं। चंबल, सोन तथा दामोदर इस क्षेत्र की प्रमुख नदियां हैं। यद्यपि समूचे प्रायद्वीप में पायी जाने वाली चट्टानें काफी प्राचीन हैं, परंतु मालवा पठार क्षेत्र में लावा के निक्षेप धरातल पर दृष्टिगोचर नहीं होते। वास्तव में, प्रायद्वीप पठार की चट्टानें उत्तर-पूर्व में मेघालय के पठार तक विस्तृत हैं, परंतु धरातल पर यह निरंतरता नजर नहीं आती। एक निम्न क्षेत्र (गर्त) छोटा नागपुर पठार को मेघालय पठार से पृथक करता है, जिसका गंगा तथा ब्रह्मपुत्र तंत्रो की नदियों द्वारा लाये गये जलोढ़ के निक्षेपण से भराव हो गया है। इस भराव के परिणामस्वरूप यह गर्त स्पष्टतया नजर नहीं आता है। प्रायद्वीप पठार की प्राचीन चट्टानें उत्तर की ओर उत्तरी मैदान के नीचे तक फैली हुई हैं। मैदान के अधिकांश भागों में सैकडों मीटर से भी अधिक मोटी जलोढ़ की परत इन चट्टानों को ढ़ंके हुए हैं।
प्रायद्वीपीय पठार के उत्तरी-पश्चिमी भाग में स्थित अरावली पर्वत एक महत्वपूर्ण जलवायु विभाजक है। अरावली से पूर्व के क्षेत्र की जलवायु अर्धशुष्क है, जबकि इसके पश्चिम में स्थित क्षेत्र की जलवायु मरुस्थलीय है। यह मरुस्थलीय क्षेत्र राजस्थान तथा गुजरात में फैला है, तथा पश्चिम में इसका विस्तार पकिस्तान में भी है। प्रायद्वीपीय पठार के दक्षिणी भाग (दक्कन पठार) को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट तथा दक्कन ट्रैप। दक्कन ट्रैप को इस क्षेत्र का नाभिक माना जाता है, तथा भारत की सबसे प्राचीन चट्टानें इसी क्षेत्र में पाई जाती हैं। यह क्षेत्र रवेदार (आग्नेय) चट्टानों से निर्मित हैं, तथा यहां धरातल पर लावा निक्षेप देखने को मिलते हैं। पश्चिमी घाट दक्कन पठार में स्थित एक प्रमुख जल विभाजक है। घाट के पश्चिमी ढ़ालों से निकलने वाली नदियां अरब सागर में तथा इसके पूर्वी ढालों से निकलने वाली नदियां बंगाल की खाडी में गिरती हैं। पश्चिमी घाट से निकलने वाली प्रमुख नदियां गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी हैं, और ये सभी नदियां दक्कन के पठार से बहती हुई बंगाल की खाडी में पहुंचती हैं। प्रायद्वीपीय पठार की नदियों में केवल नर्मदा तथा तापी ही ऐसी दो महत्त्वपूर्ण नदियां हैं, जो पश्चिमी घाट के पूर्व से निकलती हैं, तथा अरब सागर में गिरती हैं। ये दोनों ही नदियां भ्रंश घाटियों से होकर बहती हैं। पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढ़ालों से निकलने वाली नदियां अपेक्षाकृत छोटी तथा द्रुतगामी हैं। इन नदियों के तीव्र बहाव का प्रमुख कारण पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढाल का तीव्र होना है। पश्चिमी घाट दक्कन ट्रैप को पश्चिमी तटीय मैदान से पृथक करता है। इसी प्रकार, दक्कन ट्रैप क्षेत्र के पूर्व में स्थित पूर्वी घाट इस क्षेत्र को पूर्वी तटीय मैदान से पृथक करता है। परंतु दोनों घाट क्षेत्रों का भौतिक स्वरूप एक जैसा नहीं है। पश्चिमी घाट पठार के पश्चिम में स्थित एक सतत पर्वत श्रेणी है। पश्चिमी घाट क्षेत्र की सबसे ऊंची श्रेणी को सह्याद्रि श्रेणी कहा जाता है। पश्चिमी घाट के विपरीत पूर्वी घाट पहाड़ियों की एक विखण्डित श्रृंखला है, तथा इन पहाड़ियों के बीच में निम्न क्षेत्र हैं, जिनमें से गुजरती हुई प्रायद्वीपीय पठार की नदियां बंगाल की खाडी में पहुंचती हैं। दक्षिण में नीलगिरि पहाडियां दोनों घाटों को परस्पर जोडती हैं। नीलगिरि के दक्षिण में अन्नामलाई की पहाडियां स्थित हैं, तथा दक्षिण भारत की सर्वोच्च चोटी (अन्नाइमुडी) इन्हीं पहाडियों में स्थित है। इन पहाडियों के बीच पालघाट दर्रा है। दक्कन के पठार के आतंरिक भाग को पश्चिमी तटीय मैदान से जोडने वाले परिवहन मार्ग इसी दर्रे से होकर गुजरते हैं। पालनी की पहाडियां तथा येलागिरी (इलाइची की पहाड़ियां) अन्नामलाई पहाड़ियों की दो प्रमुख शाखाएं हैं। पश्चिमी घाट से निकलने वाली अनेक नदियां जलप्रपात बनाती हैं, जो जलविद्युत उत्पादन के लिये अनुकूल परिस्थितियां प्रदान करते हैं। शिवसमुद्रम, गोकक तथा महात्मा गांधी प्रपात इस क्षेत्र के प्रमुख जलप्रपात हैं। भारत के पठारी प्रदेश में अरावली, पश्चिमी घाट के अतिरिक्त भी कई पर्वतीय क्षेत्र हैं। मध्य भारत में स्थित सतपुडा तथा विंध्याचल इनमें सबसे ऊंचे और महत्वपूर्ण हैं। सतपुडा पर्वत नर्मदा तथा तापी की घाटियों के मध्य स्थित हैं। महाराष्ट्र की राजपिपला पहाडियां तथा मध्य प्रदेश में स्थित मैकाल श्रेणी तथा पचमढ़ी की पहाडियां सतपुडा पर्वत के अंतर्गत आते हैं। पचमढ़ी के निकट धूपगढ़ मध्य भारत की सबसे ऊंची चोटी है।
4.4 भारत के द्वीप
भारतीय मुख्य भूमि के अतिरिक्त देश में अनेक द्वीप भी हैं। भारत के अंतर्गत सम्मिलित द्वीपों की कुल संख्या 247 मानी जाती है, जिनमें से 204 द्वीप बंगाल की खाडी में तथा 43 द्वीप अरब सागर में स्थित हैं। मन्नार की खाडी में अनेक प्रवाल द्वीप भी है। बंगाल की खाडी में स्थित अंडमान और निकोबार द्वीप कठोर ज्वालामुखी चट्टानों से बने हैं। मध्य अंडमान और महान अंडमान द्वीप भारत के सबसे बडे द्वीप हैं। अरब सागर में स्थित लक्षद्वीप द्वीप प्रवालों से बने हैं। भारत का सबसे दक्षिणी बिंदु महान निकोबार द्वीपों में स्थित है। इसे इंदिरा पॉइंट कहा जाता है (पूर्व में इसे पिग्मेलियन पॉइंट कहा जाता था)। यह क्षेत्र 2004 की सुनामी के पश्चात डूबा हुआ है।
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