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भारत - अपवाह तंत्र
1.0 प्रस्तावना
अपवाह शब्द किसी क्षेत्र के नदी तंत्र का वर्णन करता है। किसी एक नदी के तंत्र से अपवाहित क्षेत्र को अपवाह बेसिन कहते हैं।
भारत के अपवाह तंत्र मुख्य रुप से उपमहाद्वीप की विस्तृत स्थितिजन्य विशेषताओं के द्वारा नियंत्रित होते हैं। इसके अनुसार, भारतीय नदियों को दो समूहों मे विभाजित किया जा सकता हैः
- हिमालय से निकलने वाली नदियां, और
- प्रायद्वीपीय नदियां
हिमालय से निकलने वाली अधिकांश नदियां बारहमासी (perennial) नदियां हैं, अर्थात् इन नदियों में पूरे साल पानी रहता है। इन नदियों को पानी की आपूर्ति वर्षा के साथ-साथ ऊंचे पहाड़ों से पिघलने वाली बर्फ से भी होती है। हिमालय की दो प्रमुख नदियों, सिंधु और ब्रह्मपुत्र का उदगम हिमालय पर्वत श्रृंखला के उत्तर से होता है। इन नदियों ने पहाडों को काट कर अपना रास्ता बनाया है, जिसके कारण पहाडों में संकरी घाटियां (गॉर्ज) निर्मित हुई हैं। इन हिमालयीन नदियों का अपने उदगम स्थल से समुद्र में पहुँचने का प्रवाह तंत्र बहुत ही विशाल है। अपने ऊपरी प्रवाह तंत्र के दौरान ये नदियां गहन कटाव का काम करती हैं और इसके परिणामस्वरूप अपने साथ भारी मात्रा में गाद और रेत बहा कर लाती हैं। अपने प्रवाह के मध्य और निचले मार्ग में ये नदियां अपने प्रवाह क्षेत्र में कई मोड, यू आकार की झीलें और अन्य संग्रहण स्थल निर्माण करती जाती हैं। इनमें अनेक पूर्ण विकसित डेल्टा (नदी मुखभूमि) भी निर्मित हुए हैं।
बडी संख्या में प्रायद्वीपीय नदियां मौसमी हैं, क्योंकि उनका प्रवाह वर्षा पर निर्भर है। हिमालयीन नदियों की तुलना में प्रायद्वीपीय नदियों का प्रवाह क्षेत्र छोटा और उथला है। इनमें से कई का उद्गम पहाड़ी मैदानों से होता है, और वे पश्चिम की ओर प्रवाहित होती हैं। प्रायद्वीपीय भारत की अधिकांश नदियों का उद्गम पश्चिमी घाटों में होता है, और वे बंगाल की खाड़ी की ओर प्रवाहित होती हैं।
भारत के सतही प्रवाह का 90 प्रतिशत से अधिक भाग बंगाल की खाड़ी में प्रवाहित होता है, जबकि शेष भाग अरब सागर की ओर जाता है। केवल राजस्थान के एक छोटे से क्षेत्र का अपवाह आंतरिक है। अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में प्रवाहित होने वाले अपवाह लगभग सारे पश्चिमी घाट, अरावली पर्वत माला और यमुना-सतलज विभाजक पर फैले एक जल-विभाजक द्वारा अलग होते हैं। इस जल-विभाजक के पश्चिम से बहने वाली सभी नदियां अरब सागर में समाहित होती हैं, जबकि इस रेखा के पूर्व में बहने वाली सभी नदियां बंगाल की खाडी में गिरती हैं। इस सामान्यता का मुख्य अपवाद केवल नर्मदा और तापी (ताप्ती) नदियां हैं। उद्गम के आधार पर भारत की नदियों को दो प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है - हिमालय से निकलने वाली नदियां तथा प्रायद्वीपीय पठार की नदियां।
2.0 भारत में अपवाह का स्वरुप
समय के साथ, स्थानीय भूगर्भीय स्थिति के अनुसार, एक धारा प्रणाली अपने धारा चैनलों और उपनदियों के जाल के माध्यम से एक अपवाह का स्वरुप धारण कर लेती है। अपवाहों या जालों का वर्गीकरण उनके स्वरुप और बनावट के आधार पर किया जाता है। उनका आकार या स्वरुप स्थानीय स्थलाकृति और उपसतह भूविज्ञान के आधार पर विकसित होता चला जाता है। अपवाह चैनल वहां विकसित होते हैं, जहां अपवाह बढ़ा हुआ होता है और भूमि की सामग्री अपक्षरण को अवरुद्ध करने में सक्षम नहीं (या कम) होती है।
उनकी बनावट मृदा घुसपैठ और एक निश्चित समय में सतह में प्रवेश करने वाले जल की मात्रा के अनुसार निर्धारित होती है। यदि दिए गए समय में मृदा की घुसपैठ क्षमता मध्यम है, और सतह से कम मात्रा में जल टकराता है, तो अधिकतर जल वाष्पीकरण होने की अपेक्षा शायद सतह के अंदर सोख लिया जाएगा। इसके विपरीत यदि काफी अधिक मात्रा मे जल सतह से टकराता है, तो अधिकांश पानी वाष्पीकृत हो जाता है, सतह के अंदर रिसता है या समतल भूमि पर तालाबों में परिवर्तित हो जाता है। अधिक ढ़लान वाली सतहों पर यह अतिरिक्त जल बह जाएगा। जहां सतह अधिक समतल है और मृदा घुसपैठ अधिक है, वहां कम अपवाह बनेंगे, क्योंकि पानी सतह के अंदर सोख लिया जाता है। चैनल जितने कम होंगे, उतना ही अपवाहों का स्वरुप अपरिष्कृत (खुरदरा) होगा।
2.1 भारत में अपवाह तंत्रों के प्रकार
वृक्षवत अपवाह तंत्रः जब नदी का प्रवाह भूभाग के ढ़लान का अनुसरण करता है, तो एक वृक्षवत अपवाह तंत्र विकसित होता है। धारा और उसकी उपनदियां वृक्ष की शाखाओं के आकार के समान दिखाई देती हैं, इसीलिए इस तंत्र को वृक्षवत स्वरुप कहा जाता है।
यह उन क्षेत्रों में विकसित होता है, जहां भूतल की बुनियाद सजातीय सामग्री द्वारा बनी होती है। अर्थात, भूतल की भूगर्भिता की अपक्षय क्षमता समान है, अतः उपनदियां कौनसी दिशा लेंगी इस पर किसी प्रकार का दृढ़ नियंत्रण संभव नहीं है।
समानांतर अपवाह तंत्रः जहां सतह का ढ़ाल स्पष्ट होता है, वहां समानांतर अपवाह तंत्र निर्माण होने की संभावनाएं अधिक होती हैं। जहां भूतल की लंबाई समानांतर, बढ़ती हुई होती है, जैसे उधडे हुए चट्टानों के क्षेत्र, वहां भी सामानांतर आकार बनते हैं। ऐसी स्थिति में उपनदियों की धाराएं भूतल के ढ़लान के अनुरूप एक समानांतर रेखा में बहने को प्रवृत्त होती हैं। कभी-कभी समानांतर तंत्र जमीनी चट्टानों में एक ऐसे दोष को भी इंगित करता है, जो सीधे वलन वाली चट्टानों में कटाव निर्माण करते हैं। समानांतर, वृक्षवत और जालीदार तंत्रों के बीच आपस में किसी भी प्रकार के परिवर्तन संभव है।
जालीदार अपवाह तंत्रः जब मुख्य नदी की उपनदियां उससे लगभग समकोण पर मिलती हैं, तो एक जालीदार तंत्र निर्माण होता है। यह तंत्र उन जगहों पर निर्मित होता है, जहां कठोर और नरम चट्टानें लगभग समानांतर पायी जाती हैं। नीचे की ओर मुडे हुए वलन, जिन्हें सिंक्लाइन कहा जाता है, घाटियां निर्माण करते हैं, जो धाराओं के मुख्य चैनलों का आधार बन जाते हैं। उपनदियों की छोटी-छोटी धाराएं जब समानांतर क्यारियों की नीचे की ढ़लान की ओर प्रवाहित होती हैं, तो वे इन मुख्य चैनलों में तीव्र कोणों से प्रविष्ट होती हैं। इन क्यारियों को एंटीक्लाइन कहते हैं। उपनदियां मुख्य धारा में लगभग समकोण पर प्रविष्ट होती हैं।
आयताकार अपवाह तंत्रः आयताकार अपवाह तंत्र उन क्षेत्रों में पाये जाते हैं, जहां भूमिगत दोष हों धाराएं उन मार्गों का अनुसरण करती हैं जहां अवरोध न्यूनतम हों, और इसलिए इनका संकेंद्रण उन क्षेत्रों मे अधिक होता है, जहां उभरी हुई चट्टानें सबसे कमजोर होती हैं। दोषों के कारण सतह में होनेवाली हलचल धाराओं की दिशाओं को नगण्य कर देती हैं। जब चट्टानें आपस में दृढ़ता से जुडी हुई होती हैं, तो आयताकार तंत्र विकसित होते हैं।
किरण सदृश अपवाह तंत्रः यह तंत्र केंद्रीय उठावदार क्षेत्र के चारों ओर विकसित होते हैं। जब धाराएं के केंद्रीय शिखर या गुंबदनुमा आकार से विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होती हैं, तो एक किरण सदृश तंत्र विकसित होता है।
अव्यस्थित या विक्षिप्त अपवाह तंत्रः पूर्व स्थापित अपवाह तंत्र के विघटन के कारण एक नया अव्यस्थित या विक्षिप्त अपवाह तंत्र विकसित होता है।
कुंडलाकार अपवाह तंत्रः यह एक ऐसा अपवाह तंत्र है, जिसमें धाराएं एक अपेक्षाकृत कमजोर चट्टानी क्षेत्र में लगभग वृत्ताकार या संकेंद्रित मार्ग का अनुसरण करती हैं, जो एक छल्ले की आकृति का आभास निर्माण करता है। यह उन धाराओं द्वारा प्रदर्शित होता है, जो परिपक्व संरचनात्मक गुंबद या बेसिन को उस स्थान से विच्छेदित करती हैं जहां क्षरण के कारण तलछटी संस्तर के किनारे कठोरता के काफी अलग-अलग स्तर के कारण उजागर हो चुके हैं। इस प्रकार की स्थिति लाल घाटी में देखी जा सकती है।
जल एक अत्यंत बहुमूल्य संसाधन बन चुका है। कई ऐसे स्थान हैं, जहां तेल के एक ड्रम की कीमत से पानी के ड्रम की कीमत अधिक है। इसीलिए पानी का प्रबंधन अत्यंत महत्वपूर्ण है। अपवाह के नक्शे से हमें यह ज्ञात होता रहता है कि किसी क्षेत्र में जमीन के नीचे पानी का कितनी मात्रा में रिसाव हो रहा है, यह जानकारी भूमिगत जल स्तर और सतही जल स्तर के प्रबंधन के विश्लेषण की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
3.0 भारत के नदी तंत्र
नदियों की भारतीय जनमानस के जीवन में एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है। नदी तंत्र सिंचाई, पेय जल, सस्ती परिवहन व्यवस्था, विद्युत उत्पादन और संपूर्ण देश मे अनेक परिवारों को आजीविका प्रदान करता है। यही कारण है कि भारत के अधिकांश महत्वपूर्ण शहर नदियां के किनारे बसे हुए हैं। हिंदू पुराणों में भी नदियां का महत्व है और हिंदुओं द्वारा इन्हें पवित्र माना जाता है। माँ गंगा आज भी कइयों के लिये निर्वाण का साधन है। हजारों वर्षों पूर्व विशाल सिंधु घाटी की सभ्यता, जो सिंधु नदी के तट (और घग्गर-हीकरा/सरस्वती नदी) के आसपास विकसित हुई, हमारी सभ्यता के नदियां से लगाव का परिचायक है।
भारत का नदी तंत्र सात प्रमुख नदियों और उनकी असंख्य उपनदियों के माध्यम से बना हुआ है। अधिकांश नदियों का पानी बंगाल की खाड़ी में प्रवाहित होता है। हालांकि कुछ नदियां, जिनके प्रवाह मार्ग उन्हें देश के पश्चिमी भाग से लेकर हिमाचल प्रदेश के पूर्वी भाग की ओर ले जाते हैं, वे अरब सागर में गिरती हैं। लदाख के कुछ भाग, अरावली पर्वत श्रेणी के उत्तरी भाग और थार के मरूस्थल के शुष्क प्रदेशों में आंतरिक अपवाह है। भारत की सभी प्रमुख नदियों का उद्गम निम्न तीन प्रमुख जल विभाजकों में से एक से होता हैः
- हिमालय और काराकोरम की पर्वतीय श्रेणियां
- मध्य भारत में विंध्य और सतपुड़ा की पर्वत श्रृंखलाएं, और छोटा नागपुर का पठार
- पश्चिमी भारत में सह्याद्रि या पश्चिमी घाट
3.1 सिंधु नदी तंत्र (Indus river system)
हिमालय पार के क्षेत्र से निकलने वाली सिंधु नदी इस तंत्र की प्रमुख नदी है। सिंधु नदी कैलाश पर्वत के उत्तरी ढ़लान से तिब्बत की मानसरोवर झील के निकट से निकलती है। हालांकि सिंधु नदी का अधिकांश भाग पड़ोसी पाकिस्तान से गुजरता है, फिर भी इसका एक भाग भारत की सीमाओं में भी प्रवाहित होता है, जैसा कि नीचे दी गई इसकी पांच उपनदियों का। ये पांच उपनदियां दक्षिण एशिया के पंजाब क्षेत्र के नामकरण के लिए जिम्मेदार हैं। यह नाम फारसी शब्द पंज (‘‘पांच‘‘) और आब (‘‘पानी‘‘) से मिलकर बना है, इन दो शब्दों को जोडकर (पंजाब) अर्थ होता है ‘‘पांच नदियां‘‘ या ‘‘पांच नदियों की भूमि‘‘।
ब्यासः ब्यास नदी का उद्गम रोहतांग दर्रे के निकट स्थित ब्यास कुंड से हुआ है। यह मनाली और कुल्लू से होकर गुजरती है, जहां इसकी खूबसूरत घाटी का नाम है कुल्लू घाटी। यह कुछ और उपनदियों से जुडने के बाद हरिका के निकट सतलज नदी से मिल जाती है। इस नदी की कुल लंबाई 470 कि.मी. है।
चिनाबः चिनाब नदी का उद्गम चन्द्र और भागा इन दो नदियों के संगम में से हुआ है। हिमाचल प्रदेश में इसे चन्द्रभागा भी कहा जाता है। यह पीर के समानांतर प्रवाहित होते हुए अखनूर के निकट पंजाब में प्रविष्ट होती है और बाद में झेलम भी इससे मिल जाती है। आगे जाकर पाकिस्तान में रावी और सतलज भी इससे मिल जाती हैं। इसकी कुल लंबाई 960 कि.मी. है।
झेलमः झेलम नदी का उद्गम कश्मीर के दक्षिण-पूर्वी भाग में वेरीनाग के एक झरने से होता है। इसकी लंबाई 813 कि.मी. है।
रावीः रावी नदी का उद्गम हिमालय के रोहतांग दर्रे के निकट से है और यह उत्तर-पश्चिमी मार्ग अपनाती है। डलहौजी के निकट यह दक्षिण-पश्चिम की ओर मुड जाती है, और माधौपुर के पास पंजाब के मैदानों में प्रविष्ट होने से पहले यह धौला धर में एक संकरी घाटी निर्मित करती है। पाकिस्तान में प्रविष्ट होकर चिनाब नदी में मिलने से पहले कुछ दूरी तक यह भारत-पाकिस्तान सीमा के रूप मे प्रवाहित होती है। इस नदी की कुल लंबाई 725 कि.मी. है।
सतलुजः सतलुज नदी का उद्गम राकस सरोवर से हुआ है, जो तिब्बत में एक धारा द्वारा मानसरोवर तालाब से जुङा हुआ है। सुलेमानकी के निकट यह पाकिस्तान में प्रविष्ट हो जाती है, और बाद में इससे चिनाब नदी भी मिल जाती है। इसकी कुल लंबाई 1450 कि.मी. है।
3.2 ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र (Brahmaputra river system)
ब्रह्मपुत्र का उद्गम स्थल भी मानसरोवर तालाब है, जो सिंधु और सतलुज नदियों का भी उद्गम स्थल है। लंबाई में यह सिंधु नदी से थोड़ी बड़ी है, परंतु इसका अधिकांश प्रवाह मार्ग भारत से बाहर है। यह नदी हिमालय के समानांतर पूर्वी दिशा की ओर प्रवाहित होती है। नामचा बरवा (Namcha Barwa) (2900 मी.) पहुंचने पर यह अपना मार्ग बदलकर एक यू आकार का चक्कर लेती है, और अरुणाचल में यह भारत में प्रविष्ट होती है, जहां इसका नाम दिहांग है। नदी द्वारा किया गया कटाव 5500 मीटर तक है। भारत में यह नदी अरुणाचल प्रदेश और असम राज्यों से प्रवाहित होती है, और इसमें कई उपनदियां भी मिलती हैं।
प्रति वर्ष वर्षा के मौसम के दौरान यह नदी भयंकर रूप से उफनती है और अपने किनारों को छोड देती है, जिसके परिणामस्वरूप असम और बांग्लादेश में बाढ़ से भारी तबाही मचाती है। उत्तरी भारत की अन्य नदियों के विपरीत, ब्रह्मपुत्र नदी की तल में गाद (तलछट) का काफी मात्रा में संग्रह है, जिसके कारण यह उफनती है। यह नदी निरंतर अपना मार्ग भी परिवर्तित करती है।
3.3 नर्मदा नदी तंत्र
नर्मदा नदी मुख्य रूप से मध्य भारत की नदी है। यह पारंपरिक रूप से उत्तरी भारत और दक्षिणी भारत के बीच सीमांकन करती है, और इसकी लंबाई 1312 कि.मी. (815 मील) है। प्रायद्वीपीय भारत की प्रमुख नदियों में से केवल नर्मदा, ताप्ती और माही, ये तीन नदियां पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होती हैं। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात इन तीन राज्यों में मिलकर इसकी कुल लंबाई 1312 कि.मी. है, और यह नदी गुजरात के भरुच जिले में अरब सागर में समाविष्ट हो जाती है।
इस नदी पर ‘धुंआधार प्रपात‘ भी बना हुआ है, जहां नदी खड़ी चट्टानों पर से गिरती है।
3.4 ताप्ती नदी तंत्र (प्राचीन नाम : तापी)
ताप्ती नदी प्रायद्वीपीय भारत की एक प्रमुख नदी है, जिसकी लंबाई लगभग 724 कि.मी. है। गुजरात राज्य में अरब सागर की खंभात की खाडी में गिरने से पहले ताप्ती नदी दक्षिणी मध्य प्रदेश की सतपुडा पर्वत श्रृंखला से उठती है। पश्चिमी घाट या सह्याद्रि पर्वत माला गुजरात और महाराष्ट्र राज्यों की सीमा के निकट ताप्ती नदी के दक्षिण से शुरु होती हैं। ताप्ती नदी की मुख्य उपनदियां हैँ, पूर्णा नदी, गिर्णा नदी, पंजारा नदी, वाघूर नदी, बोरी नदी, और अनेर नदी।
डिस्क्लेमरः संपूर्ण जम्मू एवं काश्मीर राज्य निर्विवाद रूप से भारत का अभिन्न अंग है। सभी नक्शे इंटरनेट से लिये गये हैं।
3.5 गोदावरी नदी तंत्र
भारत की सीमाओं के अंदर दूसरे सबसे बड़े नदी मार्ग का स्थान रखने वाली गोदावरी नदी को अक्सर बूढी (वृद्ध) गंगा या दक्षिण गंगा भी कहा जाता है। इस नदी की लंबाई लगभग 1450 कि.मी. (900 मील) है। यह नदी अरब सागर से 380 कि.मी. दूर मुंबई और नासिक के पास त्रिम्बकेश्वर से निकल कर बंगाल की खाडी में गिरती है। समुद्र तट से 80 कि.मी. दूर राजहमुंद्री में यह नदी दो धाराओं में विभाजित हो जाती है (वशिष्ठा, जो नरसापुर की ओर बहती है और गौतमी, जो दूसरी ओर पसरलापुडी की ओर बहती है), और इस प्रकार एक बहुत ही उपजाऊ डेल्टा बनाती है। भारत की किसी भी अन्य प्रमुख नदी की तरह ही गोदावरी नदी के किनारे भी अनेक धार्मिक क्षेत्र बसे हुए हैं, जिनमें नासिक, त्रिम्बकेश्वर, और भद्राचलम प्रमुख हैं। यह एक मौसमी नदी है और वर्षा ऋतु में भर कर बहती है, तो गर्मियों में सूख जाती है। गोदावरी नदी का पानी भूरा रंग लिये हुए है। इसकी कुछ प्रमुख उपनदियां हैं इन्द्रावती, प्राणहिता (पेनगंगा और वरदा का सम्मिलन), मंजिरा, बिन्दुसरा, और शाबरी किन्नेरासणी। गोदावरी नदी के किनारे बसे कुछ महत्वपूर्ण शहरी केंद्र हैं, नासिक, भद्राचलम, राजहमुंद्री और नरसापुर। कोव्वूर और राजहमुंद्री को जोडने वाला गोदावरी नदी पर निर्मित एशिया का सबसे बडा रेल-सड़क पुल अपने आप में एक अभियांत्रिकी उपलब्धि है।
3.6 कृष्णा नदी तंत्र
कृष्णा नदी भारत की सबसे बडी नदियों में से एक है (इसकी लंबाई लगभग 1300 कि.मी. है)। इसका उद्गम महाराष्ट्र के महाबलेश्वर में है, और यह आंध्र प्रदेश के हंसलादीवी में बंगाल की खाड़ी में गिरती है। कृष्णा नदी महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश राज्यों से होकर बहती है। कृष्णा नदी का परंपरागत उदगम महाबलेश्वर के एक शिव मंदिर में स्थित एक गोमुख की धारा से है। कृष्णा नदी की सबसे महत्वपूर्ण उपनदी है तुंगभद्रा नदी, जो स्वयं पश्चिमी घाट से निकलने वाली तुंगा और भद्रा नदियों से मिलकर बनी है। इसकी अन्य उपनदियों में कोयना, भीमा, मालप्रभा, घाटप्रभा, येर्ला, वारणा, दिंडी, मुशी और दूधगंगा शामिल हैं। 2009 में कृष्णा नदी में 100 वर्षों की सबसे भयंकर बाढ़ आई थी।
3.7 कावेरी नदी तंत्र
कावेरी नदी भारत की महानतम नदियों में से एक मानी जाती है, और हिन्दू इसे अत्यधिक पवित्र मानते हैं। इस नदी को दक्षिण गंगा भी कहा जाता है। इसका मुख्य जल स्रोत कर्नाटक राज्य के पश्चिमी घाट में और कर्नाटक से तमिलनाडु राज्य के माध्यम से है। यह भी बंगाल की खाड़ी में गिरती है। इस नदी का मुख्य स्रोत तलकावेरी (कोडगु जिले में) है, जो पश्चिमी घाट मे समुद्र तल से लगभग 5000 फीट (1500 मीटर) ऊँचाई पर है। इसकी कई उपनदियां हैं, जिनमें शिमशा, हेमावती, अरकवथी, कपिला, होन्नुहोले, लक्ष्मण तीर्थ, कबीनी, लोकपावनी, भवानी, नोय्याल, और प्रसिद्ध अमरावती नदियां शामिल हैं। इस नदी पर निर्मित बाँध के.आर.एस. (कृष्णा राज सागर) मैसूर के महाराजा ने प्रसिद्ध इंजीनियर भारतरत्न सर मोक्षगुन्ड़म विश्वेशरैया से बनवाया था। यह बाँध मांड्या जिले में बना हुआ है, और दक्षिण के निवासियों के लिये जल जीवन के रूप में सेवा कर रहा है।
3.8 महानदी नदी तंत्र
भारत का महानदी डेल्टा एक गाद की घाटी है, जो भारतीय उपमहाद्वीप के एक बडे जलोढ़ का बंगाल की खाड़ी में अपवाह करती है। यह जलोढ़ घाटी काफी विस्तीर्ण है, और अपेक्षाकृत उथली है। इसकी घुमावदार नदी धारा अपना मार्ग बदलती रहती है। महानदी 560 मील तक (900 कि.मी.) धीमी बहती है और इसका अपवाह क्षेत्र अनुमानतः 51,000 वर्ग मील (132,100 वर्ग किलोमीटर) है। यह नदी भारतीय उपमहाद्वीप की किसी भी अन्य नदी से अधिक गाद संग्रहित करती है।
3.9 साबरमती नदी तंत्र
यह नदी तंत्र भारत के प्रायद्वीपीय क्षेत्र से अरब सागर में प्रवाहित होने वाला तीसरा सबसे महत्वपूर्ण नदी तंत्र है। यह नदी राजस्थान की अरावली पर्वत श्रृंखला से निकल कर खंभात की खाड़ी में प्रवाहित होती है। इनके अतिरिक्त, कुछ और छोटी नदियां हैं, जो पश्चिमी घाट से पश्चिम की दिशा में प्रवाहित होती हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण नदियां हैं, गोवा की मांडवी, जुआरी और राचोल, कर्नाटक की कालिंदी, शरावती, ताद्रि, और नेत्रावती, और केरल की बायपोर, पोन्नार, पेरियार और पंबा। इनमें से अधिकांश नदियां तीव्र गति से प्रवाहित होती हैं, और कोई डेल्टा नहीं बनातीं। इसके विपरीत, इनमें से कुछ चूंकि पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढ़लान से तेजी से गिरतीं हैं, अतः कई जल प्रपात बनाती हैं। शरावती नदी 253 मीटर (830 फीट) से गिरते हुए प्रसिद्ध जोग प्रपात का निर्मांण करती है और इसे मेघालय के नोहकलिकाइ जल प्रपात के बाद दूसरा सबसे ऊँचा प्रपात बनाती है। नोहकलिकाइ जल प्रपात की ऊंचाई 335 मीटर (1100 फीट) है।
4.0 हिमालय क्षेत्र की नदियों और प्रायद्वीपीय क्षेत्र की नदियों में अंतर
हिमालय क्षेत्र की नदियों और प्रायद्वीपीय क्षेत्र की नदियों मे कई भिन्नताएं हैं। हिमालय क्षेत्र की कई नदियां, जैसे सिंधु, सतलुज और ब्रह्मपुत्र, पूर्ववर्ती नदियां हैं। अर्थात, जिस भूक्षेत्र पर वे बह रही हैं, उनकी उत्पत्ति उससे कहीं पहले की है। ऐसा माना जाता है, कि ये नदियां हिमालय की उत्पत्ति से पहले से बह रही हैं।
जैसा कि पूर्व में वर्णन किया गया है, हिमालय क्षेत्र की अधिकांश नदियां सदावाहिनी (सदानीरा) हैं। उनमें साल भर तक पानी रहता है, और इन नदियों को वर्षा तथा हिमालय की उच्च श्रेणियों से पिघलने वाली बर्फ से पानी की आपूर्ति होती है। हिमालय क्षेत्र की दो प्रमुख नदियां सिंधु और ब्रह्मपुत्र पर्वत श्रृंखलाओं के उत्तरी भाग से निकलती हैं। वे पहाड़ों को काट कर संकरी घाटियां बनाती हैं। हिमालय क्षेत्र की नदियों का उदगम से समुद्र मे गिरने तक का मार्गक्रम काफी लंबा होता है वे अपने ऊपरी मार्गक्रम में बडे पैमाने पर क्षरण क्रियाएं करती हैं और अपने साथ बड़ी मात्रा मे गाद और रेत प्रवाहित करके ले जातीं हैं। अपने मध्य और निचले मार्गक्रमण में ये नदियां अपने प्रवाह क्षेत्र में बडे पैमाने पर भूलभुलैया, झीलें और कई प्रकार की अन्य संग्रह योग्य विशेषताएं निर्मित करती जाती है। उनमें अनेक पूर्णतः विकसित डेल्टा भी निर्मित होते रहते हैं। इसके विपरीत, प्रायद्वीपीय नदियां में से अधिकांश नदियां अनुवर्ती या मौसमी है, क्योंकि उनका प्रवाह वर्षाजन्य जल पर निर्भर रहता है। शुष्क मौसम में बडी नदियों के प्रवाह क्षेत्र में भी पानी की मात्रा बहुत कम हो जाती है। हिमालय क्षेत्र की नदियों की तुलना में प्रायद्वीपीय क्षेत्र की नदियों का प्रवाह क्षेत्र छोटा और उथला (कम गहरा) होता है। उनमें से कुछ का उदगम मध्य क्षेत्र के पहाडी मैदानों से हुआ है और वे पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित होती हैं। प्रायद्वीपीय क्षेत्र की अधिकांश नदियों की उत्पत्ति पश्चिमी घाट में हुई है, और वे बंगाल की खाडी की ओर प्रवाहित होती हैं।
हिमालय क्षेत्र की नदियां एक युवा स्थलाकृति पर बहती हुई अक्सर अपना मार्ग परिवर्तित करती है, और अपने आलिंगन स्थल के पास विपरीत दिशा में मुड जाती हैं। इन नदियों में पानी की मात्रा अत्यधिक होने के कारण इनमें अपार अपरदन क्षमता है, तथा ये नदियां भारी मात्रा में अपरदित चट्टानी मलबे को ढ़ोकर लाती है। इसके विपरीत, प्रायद्वीप के पठार की नदियां परिणामी धाराएं है (कुछ प्रायद्वीपीय नदियों की धाराएं पूर्ववर्ती भी मानीं जाती हैं) और वे प्रायद्वीप के पठार की सामान्य ढ़लान का अनुसरण करती हैं। उनकी घाटियां पूर्ण और सुव्यवस्थित विकसित हैं, और वे सामान्यतया अपना प्रवाह मार्ग भी नहीं बदलती। उनकी विशेषता मौसमी या अनुवर्ती नदियों की है, क्योंकि उनकी जलापूर्ति वर्षां पर निर्भर होती है। कमजोर प्रवाह तीव्रता के कारण इन नदियों की पनबिजली उत्पादन की क्षमता हिमालय क्षेत्र की नदियां की तुलना में काफी कम होती है। हालांकि समग्र प्रायद्वीपीय नदियों की विद्युत जनन क्षमता में काफी विकास किया गया है और इसमें पर्याप्त वृद्धि भी की गई है।
5.0 भारतीय मरुस्थल क्षेत्र का अपवाह तंत्र
राजस्थान और गुजरात के बडे क्षेत्र शुष्क प्रदेश हैं, जो थार के मरूस्थल के भाग हैं। यह क्षेत्र आतंरिक अपवाह का क्षेत्र है, और इस क्षेत्र से निकल कर या इसमें से होकर समुद्र में गिरने वाली इकलौती नदी है लूणी नदी। यह नदी अरावली पर्वत माला से निकलती है और कच्छ के रण से होती हुई अरब सागर में समा जाती है। लूणी नदी पूर्णतः मौसमी नदी है और वर्ष के आधिकांश समय यह सूखी रहती है। मरुस्थल का अधिकांश अपवाह स्थानीय गड्ढों में बह जाता है, जो मुख्य रूप से खार (नमक के) तालाब हैं। सांभर और डिड़वाना तालाब इस प्रकार के गड्ढों के उदाहरण हैं, जिनमें आसपास के क्षेत्र का अपवाह प्रवाहित होता है।
6.0 भारत की नदियों को आपस में जोड़ना (Interlinking of rivers in India)
हिमालय क्षेत्र की पानी के आधिक्य वाली नदियों को प्रायद्वीपीय क्षेत्र की पानी के अभाव वाली नदियों के साथ जोडने का विचार पिछले 150 वर्षों से चर्चा में है। हालांकि इस विचार को अब एक विशाल परियोजना के रूप में ठोस स्वरुप प्राप्त हो पाया है, जिसके अनुसार हिमालय क्षेत्र की नदियों को प्रायद्वीप क्षेत्र की नदियों के साथ जोडा जाना है। अब तक के इतिहास में इस विषय पर इतनी चर्चा और बहस पहले कभी नहीं हुई जितनी पिछले कुछ सालों में, विशेष रूप से, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को इस योजना को कार्यान्वित करने का आदेश देने के साथ। इसे कार्यान्वित करने की समय सीमा 2016 तक निर्धारित की गई है, व इसके बाद इसपर काफी चर्चा और बहस जारी है। हालांकि विशेषज्ञों की राय है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई समय सीमा में इस योजना को कार्यान्वित करना असंभव है। नदियों को जोडने की इस वृहद परियोजना का भारतीय प्रस्ताव ऐसे समय आया है, जब बडे बांधों और नहरों की आधारभूत अधोसंरचनाएं अपने न्यूनतम स्तर का सामना कर रही हैं। पर्यावरणीय समूह गंभीरता से बडे बांधों की पारिस्थितिक लागत पर सवाल कर रहे हैं, और दूसरे गैर-सरकारी संगठन इनसे होने वाले मानवी विस्थापन और अन्य कठिनाइयों के विषय में जानना चाहते हैं कि क्या ये परियोजनायें एक व्यावहारिक सामाजिक लागत लाभ परीक्षण में सफल हो पायेंगी? उनके ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि बाँध प्रभावित क्षेत्रों से विस्थापित जनसंख्या के पुनर्वास के संबंध में भारत का अनुभव अत्यंत दयनीय है। इसमें सार्वजनिक क्षेत्र की सिंचाई योजनाओं के गिरते प्रदर्शन ने और आग में घी डालने का काम किया है। और अंत में, इतने बडे़ पैमाने पर इस परियोजना में निवेश के औचित्य को लेकर इसलिये भी सवाल खडे किये जा रहे हैं, क्योंकि जल दुर्भिक्ष वाले पश्चिमी और प्रायद्वीपीय क्षेत्र में कृषि क्षेत्र संकुचित होता जा रहा है, और भविष्य के खाद्यान्न से संबंधित अनुमान आवश्यकता से कहीं अधिक अनुमानित किये गये हैं।
6.1 भारत की नदी जोड़ो परियोजना (आय.एल.आर.)
जिस परियोजना के कार्यान्वयन के लिये भारत के सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रपति ने भारत सरकार को निर्देशित किया है, वह शायद दुनिया की अब तक की सबसे बडी आधारभूत संरचना संबंधित परियोजना होगी, जिसके द्वारा घाटी क्षेत्रों में उपलब्ध अतिरिक्त पानी को भारत के कम पानी वाले पश्चिमी और दक्षिणी भागों में उनकी पानी की कमी को पूरा करने के लिये स्थानांतरित किया जाना है, साथ ही साथ इससे उत्तरी और पूर्वी भाग में होने वाले बाढ़ के प्रभाव को भी कम किया जा सकेगा (एनडब्लूडीए 2006)। इस परियोजना के अन्तर्गत 30 श्रृंखलाओं और कुछ 3000 संग्राहकों का निर्माण किया जाएगा जो 37 हिमालय क्षेत्र की और प्रायद्वीपीय नदियों को आपस में जोडेंगे और एक विशालतम एशियाई जल ग्रिड़ तैयार हो जायेगा। 50 से 100 मीटर चौड़ी और 6 मीटर गहरी प्रस्तावित नहरें नौपरिवहन की सुविधा प्रदान करेंगीं।
परियोजना के प्रमुख चरों का अनुमान-जो अभी भी कच्चे अनुमान के रूप में ही है-बताते हैं कि परियोजना की लागत 123 बिलियन अमेरिकी डॉलर (या रु. 5,60,000 करोड़, जो कि 2002 की कीमतों पर आधारित हैं) होगी, यह प्रति वर्ष 178 घन कि.मी. अंतर घाटी जल स्थानांतरित करेगी, 12,500 कि.मी. नहरें निर्मित करेगी, 35 गीगावॉट पनबिजली क्षमता पैदा करेगी, भारत की सिंचित भूमि में 35 मिलियन हेक्टेयर की वृद्धि करेगी, और नौपरिवहन और मत्स्य पालन में असीमित वृद्धि करेगी। प्रमुख जल विभाजकों के उभार से पानी को 116 मीटर तक उठाने के लिए 3700 मेगा वॉट की आवश्यकता होगी। 2016 के बारे में तो विचार भी नहीं किया जा सकता, अधिकांश प्रेक्षकों का मानना है कि यह परियोजना 2050 तक भी पूरी तरह से तैयार नहीं हो पाएगी। सरकार के बाहर के इस परियोजना के एक दृष्टा वर्गीस (2003) का मानना है, कि इस परियोजना को एक 50 से 100 वर्षों की परियोजना के रूप में देखना चाहिए।
जो बात नदी जोडो परियोजना को अद्वितीय बनाती है, वह है इसकी बेजोड़ भव्यता। जब भी यह नदी जोडो परियोजना पूरी होगी, तो यह चीन की दक्षिण से उत्तर जल वितरण परियोजना, जो अपने आप में दुनिया की हिमालय से प्रायद्वीपीय जल वितरण की अबतक की सबसे बडी परियोजना है, (आर.स्टोन और एच.जिया 2006), से चार गुना अधिक जल वितरण का कार्य करेगी। नदी जोडो परियोजना तीन संकरी घाटी परियोजना से चार गुना अधिक पानी वितरित करेगी। अमेरिका की सर्व अंतरघाटी जल वितरण परियोजना से पाँच गुना अधिक जल वितरण करेगी और भारत में पूर्ण हुई छह जल वितरण परियोजनओं द्वारा वितरित कुल पानी से छह गुना अधिक जल वितरण करेगी (शारदा-सहायक, ब्यास-सतलुज, माधोपुर-ब्यास लिंक, कुरनूल-कडप्पा नहर योजना, पेरिया-वेगई लिंक, तेलगु गंगा)। नदी जोडो परियोजना की लागत जो अभी अनुमानित है, वह चीन की दक्षिण से उत्तर जल वितरण परियोजना से तीन गुना अधिक होगी। तीन संकरी घाटी बांध परियोजना की लागत से छह गुना अधिक होगी, और मध्य-पूर्व के लाल-मृत जोड परियोजना की लागत से बीस गुना अधिक होगी। अर्थात, निवेश की दृष्टि से नदी जोडो परियोजना, 1830 से औपनिवेशिक और स्वतंत्र भारतीय शासन द्वारा सिंचाई के लिये अब तक किये गये कुल निवेश से अधिक निवेश करने वाली परियोजना होगी। और इस अनुमानित अंदाजन लागत मे भूमि अधिग्रहण की लागत शामिल नहीं की गई है। इस लागत में जब भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनः स्थापन, स्थानिक लागतें और अपरिहार्य समय सीमा वृद्धि के कारण बढ़ी हुई लागतें जोड दी जायेंगीं, तो शायद नदी जोड़ो परियोजना की कुल लागत वर्तमान में अनुमानित 123 बिलियन अमेरिकी डॉलर से कहीं अधिक होगी। प्रस्तावित 30 लिंक्स में से केवल 9 लिंक स्वतंत्र हैं, जिन पर अन्य लिंक्स पर कार्य किये बिना भी कार्य शुरु किया जा सकता है। इस विशाल परियोजना के प्रथम चरण में, जिसे पिछले अगस्त में सरकार की अनुमति प्राप्त हो चुकी है, उत्तरी मध्य प्रदेश की केन नदी से बेतवा नदी तक एक 230 किलोमीटर लंबी नहर की खुदाई की जानी है। पन्ना टाइगर रिज़र्व मे एक बांध और एक छोटा पनबिजली संयंत्र लगाया जाना है। इस 1.1 बिलियन डॉलर प्रथम चरण की परियोजना पर कार्य प्रगति पर है, जिसके अगले 8 वर्षों में पूर्ण होने का अनुमान है (बागला 2006)।
6.2 नदी जोड़ो परियोजना का औचित्य
आलोचकों द्वारा सबसे महत्वपूर्ण सवाल इस परियोजना के औचित्य पर उठाया जाता है। इस परियोजना का प्रयोजन पश्चिमी और प्रायद्वीपीय भारत में तेजी से बढ़ती पानी की कमी है। उपभोग्य पानी की कम प्रति व्यक्ति उपलब्धता, वर्षा की उच्च स्थानिक और अस्थायी परिवर्तनशीलता और इसके परिणामस्वरूप निर्माण होने वाली सूखे और बाढ़ की स्थितियां इसके अन्य प्रमुख प्रयोजन हैं। ऐसा अनुमान है, कि 2050 तक भारत में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता आज की 1820 घन मीटर से घट कर 1140 घन मीटर रह जायेगी, जो सभ्य जीवन के लिये अवश्यक के रूप मे फलकनमार्क द्वार परिभाषित जल अकाल के 1700 घन मीटर प्रतिव्यक्ति के मानक से कहीं कम है। स्थानिक असमानता भी चरम है। गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना घाटी, जो देश के एक तिहाई भूक्षेत्र को व्यापता है, और जहां देश की लगभग 44 प्रतिशत जनसंख्या बसती है, यह क्षेत्र देश के लगभग 60 प्रतिशत पानी का अपवाह करता है। इसके विपरीत, कृष्णा, कावेरी और पेन्नेर घाटी और पेन्नेर और कन्याकुमारी के बीच पूर्व की ओर बहने वाली नदियों का क्षेत्र, जो देश के कुल भूक्षेत्र का लगभग 16 प्रतिशत है, और जहां लगभग 17 प्रतिशत जनसंख्या का निवास है, इस क्षेत्र के जल अपवाह की मात्रा केवल 6 प्रतिशत है। भारत की 19 मुख्य नदी घाटियों में केवल 55 प्रतिशत पानी उपयोगक्षम है। इसके परिणामस्वरूप, देश की 220 मिलियन जनसंख्या से अधिक जनसंख्या को प्रति वर्ष प्रतिव्यक्ति पानी की उपलब्धता 1000 घन मीटर से कम है, जो फलकनमार्क 1994 के अनुसार, पानी के भीषण क्षेत्रीय असमतोल को दर्शाता है। पानी की इसी असमानता का परिणाम है कि आज भारत की सभी नदी घाटियां ‘‘बंद होने‘‘ के अलग-अलग चरणों में हैं। सिंधु घाटी से प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति लगभग 1600 घन मीटर पानी की खपत होती है; जबकि ब्रह्मपुत्र घाटी से केवल 290 घन मीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष की खपत हो पाती है। सिंधु, तापी, साबरमती, कच्छ सौराष्ट्र और राजस्थान (लूणी) से पश्चिम की ओर बहने वाली नदियां और पेन्नेर और कन्याकुमारी के बीच पूर्व की ओर बहने वाली नदियों के क्षेत्र अति-विकास से पीडित हैं, और भौतिक रूप से इनमें पानी का अभाव है (आयडब्लूएमआय 2000)। उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति हिमालय क्षेत्र की नदियां के अतिरिक्त पानी के उपयोग द्वारा की जा सकती है।
यदि कुछ बाढ़ जन्य अतिरिक्त पानी को हिमालय क्षेत्र की नदियों से सूखाक्षम क्षेत्रों को परिवर्तित किया जा सके तो यह दोनों क्षेत्रों के लिये लाभप्रद स्थिति निर्मित करेगा। देश में प्रति वर्ष आने वाली बाढ़ 7 मिलियन हेक्टेयर से अधिक भूमि, 3 मिलियन हेक्टेयर फसलयुक्त भूमि और लगभग 34 मिलियन जनसंख्या को प्रभावित करती हैं। जो मुख्य रूप से पूर्वी भागों को प्रभावित करती हैं, और इससे होने वाला नुकसान 220 मिलियन अमेरिकी डॉलर (1000 करोड़ रुपये) से
अधिक का है (भारत सरकार 1998)। इसके विपरीत, नियमित होने वाले सूखे के कारण देश के 19 प्रतिशत भाग, 68 प्रतिशत फसलयुक्त भूमि और 12 प्रतिशत जनसंख्या प्रभावित होती हैं। ऐसा अनुमान है कि नदी जोडो परियोजना के अंतर्गत तालाबों में पानी का संग्रह और नहरों को परिवर्तित करने के कारण बाढ़ से होने वाले नुकसान को 35 प्रतिशत तक कम किया जा सकेगा और अर्ध शुष्क और शुष्क क्षेत्रों की सूखाग्रस्तता को राहत प्रदान की जा सकेगी। इसके अलावा, इन सूखा-ग्रस्त क्षेत्रों मे घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिये 12 घन किलोमीटर पानी की आपूर्ति की जा सकेगी।
6.3 नदी जोड़ो परियोजना की आलोचनाएं
नदियों को जोड़ने की इस परियोजना के साथ आर्थिक, सामाजिक, और पारिस्थितिक विषयों से जुड़ी अनेक समस्याएं और चुनौतियाँ जुड़ी हुई हैं। इस संदर्भ में अय्यर (2003) बहुत ही तीखे शब्दों मे कहते हैं ‘‘जहां हमें एक परियोजना को सफलतापूर्वक पूरा करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, वहां हम एक साथ तीस विशाल परियोजनाओं पर काम करने का विचार कर रहे हैं।‘‘ हमारी नदी जोड़ो परियोजना ने हमारे पड़ोसी बांग्लादेश में क्रोध और विरोधों को जन्म दिया है। उसे डर है कि ब्रह्मपुत्र और गंगा के पानी का दिशा परिवर्तन उस देश में अनेक पारिस्थितिक आपदाओं को निर्मिति करेगा, क्योंकि ये दो नदियां शुष्क मौसम मे उस देश की 85 प्रतिशत मीठे पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करती हैं। परियोजना से प्रभावित लोगों के पुनर्वास और पुनः स्थापना की समस्याएं भी सम्बंधित अधिकारियों के समक्ष एक गंभीर प्रश्न है। इस परियोजना में जलसंग्राहकों और नहरों को जोडने के कार्यों के परिणामस्वरूप प्रायद्वीपीय क्षेत्र में 5,83,000 लोगों को पुनः स्थापित करना पड़ेगा, और इससे वनक्षेत्र, कृषि भूमि और गैर-कृषि भूमि के विशाल क्षेत्र डूब से प्रभावित होंगे। भविष्य में पानी की बढ़ती आवश्यकता के मद्देनजर कोई भी राज्य अपने हिस्से के पानी को किसी अन्य राज्य को वितरित करने के लिये सहमत नहीं होगा। इस परियोजना की चर्चा मे भूराजनीति हावी रहती है। अंतरघाटी जल वितरण पर अभी तक कोई व्यवस्था निश्चित नहीं हो पायी है। इसमें कई संस्थाजनिक और विधि विषयक समस्याओं का निराकरण होना भी बाकी है। संसद के समक्ष प्रस्तुत की गई ताजा जानकारी के अनुसार, संसदीय कार्य और जल संसाधन मंत्री ने संसद को सूचित किया है, कि एनडब्लूडीए ने फरवरी 2012 तक विभिन्न नदी जोड़ो परियोजना के अध्ययनों पर 350.5 करोड़ रुपये खर्च किये हैं और जल संसाधन मंत्रालय को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किये गये दिशा निर्देशों की सत्यापित प्रतिलिपि उपलब्ध नहीं हो पायी है। नदी जोड़ो परियोजना की कई योजनाओं के अंतर्राष्ट्रीय निहितार्थ भी है, जिनका प्रभाव भूटान, नेपाल और बांग्लादेश जैसे देशों पर पड़ सकता है। नदी जोड़ो परियोजना की तीस में से प्रत्येक योजना को अनेक प्रकार की वैधानिक, विधिक और प्रक्रियात्मक प्रक्रियाओं से गुजरना होगा। अभी तक कोई भी योजना इन प्रक्रियाओं से रूबरू नहीं हुई है। केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने पहले ही इस परियोजना से इंकार कर दिया है। कोई भी राज्य अपना पानी किसी दूसरे राज्य को देने को राजी नहीं है। भारत के संविधान में पानी अनिवार्यतः राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आने वाला विषय है। केरल, आंध्रप्रदेश, असम और सिक्किम जैसे कई राज्य पहले ही नदी जोडो परियोजना का विरोध कर चुके हैं। नदी जोडो परियोजना के भूमि, वनों, का डूब क्षेत्र में जाना, नदियों का नाश, जलीय और स्थलीय जैव विविधता को नुकसान, नदियों के ढ़लान से होने वाले प्रभाव, मत्स्यपालन का नाश, क्षार तत्व प्रवेश, प्रदूषण का संकेंद्रण, भूजल पुनर्भरण का विनाश, संग्रहण क्षेत्रों में मीथेन के उत्सर्जन में वृद्धि, जैसे अनेक प्रभावों की आलोचना की जा रही है। दुर्भाग्य से इन सारे संभाव्य प्रभावों के समग्र विश्लेषण का कोई विश्वसनीय तरीका नहीं है।
6.3.1 पर्यावरणीय चिंताएं
भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने प्रस्तावित नदी जोड़ो परियोजना के संभावित पर्यावरणीय प्रभावों के बारे में अपनी अत्यंत गंभीर चिंताएं 23 मई 2003 को ही प्रदर्शित कर दी थीं। बंदोपाध्याय (2003) ने प्रश्न पूछा था ‘‘नदी जोडो परियोजना के परिणामस्वरूप होने वाली पर्यावरणीय क्षति और उसकी वित्तीय लागत का अनुमान यदि लगाया गया है, तो वह किस प्रकार लगाया गया है‘‘? मार्टिन (2003) ने स्पष्ट चेतावनी दी है, कि इसके पारिस्थितिक प्रभावों को नजरअंदाज करके सीधी पाइपलाइन की तरह नदियों को जोडना हमारे पर्यावरण के लिए अत्यंत घातक हो सकता है। वैज्ञानिकों को इस बात पर भी संदेह है, कि नदियों के मार्ग परिवर्तन से नदियों द्वारा प्रवाहित तलछट गाद के भौतिक या रासायनिक रचना नदी आकारिकी, या नदी की घाटी में निर्मित होने वाले डेल्टा में कोई परिवर्तन होगा रुके हुए और धीमी गति से बहने वाले पानी के कारण मलेरिया, फाइलेरियासिस जैसे जलजन्य रोग फैलने का खतरा बड़ जाएगा। पारिस्थितिकी दृष्टि से बिना जानकारी के किया गया आर्थिक विकास, जैसे बड़े पैमाने पर पानी के संग्रह के परिणामस्वरूप बडी सिंचाई परियोजनाओं के जलग्रह क्षेत्र में मरुस्थलीकरण का खतरा बढ़ जाएगा। रॉय (1993) ने कहा है, कि ‘‘भारत में पिछले पांच दशकों में बांधों, विद्युत संयंत्रों, राजमार्गों, और अन्य अधोसंरचनात्मक निर्माणों के कारण पांच करोड लोग विस्थापित हुए हैं। बाद में इनमें से केवल एक चौथाई लोगों को अपनी आजीविका की दृष्टि से पुनः प्रतिस्थापित होने के लिए सहायता प्रदान की जा सकी। वोल्फेंसोहन (1995) ने टिप्पणी की थी कि ‘‘इस प्रकार का सामाजिक अन्याय आर्थिक और राजनीतिक विकास को अवरुद्ध कर सकता है।‘‘ लिंक टूट जाने से समुद्रों और जमीन के बीच, खारे और मीठे पानी के बीच पारिस्थितिकी संतुलन भी बिगड जाता है। (शिवा 2003) वैज्ञानिकों के एक वर्ग का मानना है कि विशाल बांधों और जल संग्राहकों के कारण भूकंप की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। कोयना बांध पर विवाद ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। भूकंपों की अनुभव की गई एक श्रृंखला के मद्देनजर यह कहा जा सकता है, कि ऐसी किसी घटना के दौरान विशाल जल संग्रहों का होना खतरनाक हो सकता है। गैर विषाक्त नदियों को विषाक्त नदियों से जोडने से हमारी सभी नदियों पर गंभीर प्रभाव होने की संभावना है, जो अंततः हमारे मानवी जीवन और वन्यजीवन को प्रभावित करेगा।
शिवा (2003) के अनुसार नदी जोडो परियोजना प्रकृति के विरुद्ध हिंसा हैः ‘‘मनुष्यों की आवश्यकताओं के लिए नदियों के पानी का उपयोग हिंसा से सामान्यतः नहीं होता। विशाल नदी घाटी परियोजनाओं की यह विशेषता है कि वे नदियों की प्राकृतिक प्रकृति के विरुद्ध होते हैं। ये परियोजनाएं न्यूनीकारक धारणाओं पर आधारित होती हैं, जो पानी का संबंध प्राकृतिक प्रक्रियाओं के अनुरूप उपयोग की बजाय राजस्व और लाभ अर्जन से जोडते हैं। नदियों को जीवन दायिनी की दृष्टी से देखने के बजाय पैसा कमाने के साधन के रूप में देखा जाता है। वर्स्टर के शब्दों में नदी अंत में एक असेंबली लाइन बन कर रह जाती है जो असीमित उत्पादन के उद्देश्य से बहती रहती है। यह सिंचित फैक्ट्री पूरे क्षेत्र को सूखा होने तक पीती जाती है।‘‘ अय्यर की टिप्पणियों में नदी जोड़ो परियोजना के प्रति काफी कड़वाहट हैः ‘‘क्या नदियां पाइपलाइन के गट्ठे हैं, कि उन्हें जब चाहे तब काट दिया जाये, मोड़ दिया जाय और वेल्डिंग कर के वापस जोड़ दिया जाय? यह तकनीकी अभिमान है - यह घमंड है - सबसे बुरी तरह से वर्णित किया जाने वाला घमंड, निपुणता या दंड में प्रोमिथियस का, या उसके समान। देश को इस पागलपन से बचाने की आवश्यकता है।‘‘
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