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पर्यावरणीय भूगोल
1.0 प्रस्तावना
भूगोल एक ऐसा संकाय है जो एक ओर जहां प्राकृतिक और भौतिक विज्ञानों के बीच के अंतर को पाटता है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक विज्ञानों और मानविकी के बीच के अंतर को कम करता है। पर्यावरणीय भूगोल मानवी और गैर-मानवी विश्व के बीच के संबंधों को समझने के प्रयासों का प्रतिनिधित्व करता है। हालांकि ‘‘पर्यावरणीय भूगोल‘‘ शब्द ‘‘मानवी‘‘ और ‘‘भौतिक‘‘ भूगोल शब्दों से कम प्रचलित है, फिर भी यह संकाय के भीतर और बाहर भी काफी अधिक मान्यता का हकदार है। आज पर्यावरणीय भूगोल के विषय में काफी मिथ्या धारणाएं फैली हुई हैं। पर्यावरणीय भूगोल को अक्सर मानवी भूगोल और भौतिक भूगोल के बीच के एक आयामी विभाजन के मध्य बिंदु के रूप में देखा जाता है। इसके कारण वास्तव में पर्यावरणीय भूगोल क्या है इसकी परिभाषा काफी संकुचित हो जाती है। पर्यावरणीय भूगोल उन संकायों और क्षेत्रों में प्रवेश करती है जो ‘‘भौगोलिक प्रयोग‘‘ (और मानव पर्यावरण परस्पर क्रिया) की इसकी रूचि को साझा करते हैं।
2.0 पारिस्थितिकी और इसके सिद्धांत
19 वीं सदी के मध्य में अर्नस्ट हैकेल ने पारिस्थितिकी को जीवों का उनके पर्यावरण के साथ संबंध के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया। अब पारिस्थितिकी की अन्य परिभाषाएँ प्रस्तावित की गई हैं जो इस संकाय के विकास को प्रतिबिंबित करती हैं नई विशेषज्ञताओं के निर्माण प्रतिबिंबित करती हैं या संकायात्मक सीमा रेखांकित करती हैं।
आज पारिस्थितिकी की तीन परिभाषाओं को व्यापक रूप से स्वीकार्य माना जाता है। पहली परिभाषा हैकेल के प्रकार से उभरती है - वे जीवों और पर्यावरण के बीच के संबंधों का अध्ययन करती हैं। दूसरी परिभाषा जो शायद सबसे सामान्य रूप से दोहराई जाती है, पारिस्थितिकी को जीवों के आधिक्य और वितरण का अध्ययन मानती है। तीसरी परिभाषा पारिस्थितिकी को पारिस्थितिकी तंत्रों के अध्ययन पर केंद्रित करती है। इन सभी परिभाषाओं की अपनी-अपनी सीमाएं हैं और अपने-अपने लाभ हैं।
पारिस्थितिकी की सबसे बड़ी विशेषता है इसकी व्यापकता व प्रकृति का संश्लेषित दृष्टिकोण, न कि एक खंडित दृष्टिकोण। पारिस्थितिकी जैविक और पर्यावरणीय, दोनों प्रकार का विज्ञान है। अनेक पर्यावरणीय विज्ञानों का जीव-विज्ञान के साथ न्यून संबंध है (उदाहरणार्थ मौसम विज्ञान), जबकि अन्य (उदाहरणार्थ पर्यावरणीय विष-विज्ञान) अनिवार्य रूप से भौतिक और जैविक विज्ञानों का सम्मिश्रण करते हैं।
प्रारंभिक परिस्थितिविज्ञानशास्त्रियों ने पारिस्थितिकी की दो शाखाओं को मान्यता दी थी, पशु पारिस्थितिकी और वनस्पति पारिस्थितिकी। अध्ययनों के विकसित होने के साथ और प्रकृति के विभिन्न पहलुओं के बीच संबंधों की जटिलताएं बढ़ने के साथ पारिस्थितिकी की अनेक विशेषज्ञ शाखाएं विकसित हुईं। इनमें से प्रमुख शाखाएं निम्नानुसार हैंः
मानव पारिस्थितिकीः इसमें जनसंख्या पारिस्थितिकी या मनुष्य और पर्यावरण के साथ मनुष्य का संबंध शामिल है, विशेष रूप से जीवमंडल पर मानव का प्रभाव, और इन प्रभावों का मनुष्य के लिए निहितार्थ।
अनुप्रयुक्त पारिस्थितिकीः इसका संबंध पारिस्थितिकी संकल्पनाओं के मनुष्य की आवश्यकताओं पर अनुप्रयोग से है, और इस प्रकार इसमें पारिस्थितिकी के अनुप्रयोग शामिल हैंः वन्यजीव प्रबंधन, श्रृंखला प्रबंधन, वानिकी, संरक्षण, कीट नियंत्रण, जानपदिक रोग विज्ञान, पशुपालन, जलीय कृषि, कृषि, बागवानी, और भूमि उपयोग और प्रदूषण पारिस्थितिकी।
पारिस्थितिक आनुवांशिकी (जनन पारिस्थितिकी) : एक परिस्थितिकीविद् ने प्रत्येक जीव के मामले में एक प्रकार की आनुवंशिक अंधव्यवस्थात्मकता की पहचान की। किसी भी वातावरण में केवल वे जीव ही जीवित रह सकते हैं जिन्हें वातावरण का अनुग्रह प्राप्त है। इस प्रकार जनन पारिस्थितिकी (हमदमबवसवहल) का संबंध आनुवांशिक क्षमताओं पर आधारित प्रजातियों की विविधताओं के अध्ययन से है।
पुरा पारिस्थितिकी (Genecology): यह पर्यावरणीय स्थितियों और प्राचीन युगों के जीवन का अध्ययन है जिसमें पेलिनोलॉजी, जीवाश्मिकी (Palaeoecology) और रेडिओधर्मी तिथि निर्धारण विधियों ने महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है।
अंतरिक्ष पारिस्थितिकीः यह पारिस्थितिकी का एक आधुनिक उपविभाजन है जिसका संबंध आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से पुनः सृजित पारिस्थितिकी तंत्रों के विकास से है ताकि लंबी अंतरिक्ष उड़ानों के दौरान या अतिरिक्त स्थलीय वातावरणों के विस्तारित अन्वेषण के दौरान मानव जीवन को सहायता प्रदान की जा सके।
विकिरण पारिस्थितिकीः यह वह अध्ययन है जो विकिरण और रेडिओधर्मी पदार्थों के पर्यावरण और जीवों पर होने वाले प्रभावों से संबंधित है।
इसके भी आगे, आमतौर पर पारिस्थितिकी को मोटे तौर पर स्वपारिस्थितिकी (autecology) और समुदाय पारिस्थितिकी (synecology) में विभाजित किया जाता है। स्व-पारिस्थितिकी का संबंध जीवों की एक प्रजाति के पारिस्थितिकी अध्ययन से है। इस प्रकार एक स्व-पारिस्थितिकीविद् किसी, एकल प्रजाति के जीवन इतिहास, जनसंख्या गतिकी, व्यवहार, गृह श्रृंखला इत्यादि का अध्ययन कर सकता है, जैसे मैक्सिकन मुक्त पूंछ चमगादड, भारतीय बुल मेंढक या मक्का-छिद्रक चिलो पार्टेलस। समुदाय पारिस्थितिकी का संबंध समुदायों या संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र के पारिस्थितिकी अध्ययन से है।
पारिस्थितिकी की पांच मूलभूत संकल्पनाएं निम्नानुसार हैंः
- जीवों की विविधताः वनस्पतियां और पशु असंख्य प्रकार की में अस्तित्व में हैं। उन्हें उनकी संरचना (पशुओं के लिए) और व्यवहार के द्वारा देखा और वर्गीकृत किया जा सकता है। यह विविधता इस तथ्य का परिणाम है कि प्रत्येक प्रकार की वनस्पति और पशु अपने वातावरण में स्वयं को अपने स्वतंत्र तरीके से ढ़ाल लेता है।
- जीवों की एक दूसरे पर परस्पर निर्भरताः सभी जीव अन्य जीवों पर निर्भर होते हैं और अन्य जीवों द्वारा और उनके पर्यावरण की निर्जीव विशेषताओं द्वारा प्रभावित भी होते हैं।
- संसाधन और ऊर्जा चक्रः एक पारिस्थितिकी समुदाय के सदस्यों के बीच की परस्पर क्रिया में ऊर्जा और संसाधनों का विनिमय निरंतर चक्रों में होता है। ये चक्र पूर्ण रूप से निरंतर सौर ऊर्जा के प्रवाह से चलित होते हैं।
- जुड़ी हुई प्रणालियांः परस्पर निर्भर जीवों के संजाल अन्य बडे़ संजालों (समुदाय से लेकर जीवमंडल तक) में विद्यमान होते हैं। प्रत्येक संजाल का निरीक्षण संपूर्ण रूप से भी किया जा सकता है और एक बडे़ संपूर्ण के एक भाग के रूप में भी किया जा सकता है।
- गतिशील संतुलनः प्रत्येक पारिस्थितिकी संजाल स्वयं को एक गतिशील संतुलन बनाये रखकर विनियमित करता है और संगठित करता है। इस गतिशील संतुलन की विशेषता निरंतर परिवर्तन की है।
2.1 मानव पारिस्थितिक अनुकूलन (Human ecological adaptations)
सांस्कृतिक पारिस्थितिकी इस बात का अध्ययन करती है कि मानव किस प्रकार भौतिक और सामाजिक पर्यावरण में स्वयं को अनुकूल बना लेता है। मानवी अनुकूलन का संबंध जैविक और सांस्कृतिक दोनों प्रकार की प्रक्रियाओं से है जो एक जनसंख्या को एक दिए गए परिवर्तनशील पर्यावरण में जीवित रहने और प्रजनन करने में सक्षम बनाती हैं। मनुष्य पर्यावरण के साथ उन प्रकारों से जुड़ा होता है जिनसे वह अपना निर्वाह प्राप्त करता है। निर्वाह व्यवस्थाएं (subsistence systems) आमतौर पर उच्च प्रकार से स्थानीय स्थितियों के अनुकूल होती हैं। मानव शरीर सहजता से अनेक जैविक और सांस्कृतिक तरीकों से परिवर्तित होते हुए पर्यावरणीय तनावों को प्रतिक्रिया देता है। हम अपने आपको बडे़ स्तर पर तापमान और आर्द्रता परिवर्तनों के साथ पर्यनुकूलन कर लेते हैं। जब हम ऊंचाइयों पर यात्रा करते हैं, तो हमारा शरीर सामंजस्य बिठा लेता है ताकि हमारी कोशिकाओं को फिर भी पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन प्राप्त होती रहे। हम आतंरिक और बाह्य तनावों पर भी निरंतर रूप से शारीरिक प्रतिक्रियाएं देते रहते हैं, जैसे जीवाणुज और विषाक्त संक्रामक, हवा और जल प्रदूषण, आहार संबंधी असंतुलन, और भीड़भाड़।
परिवर्तनीय पर्यावरणीय परिस्थितियों से सहजता से अनुकूलन (adapt) करने की इस क्षमता ने ही मनुष्य के लिए विश्व के अधिकांश क्षेत्रों में जीवित रहना संभव बनाया है। मनुष्य सफलतापूर्वक आर्द्र उष्णकटिबंधीय वनों में रह सकता है, कठोर मरुस्थलों में रह सकता है, आर्कटिक की आर्द्रभूमियों में रह सकता है, और यहां तक कि सघन जनसंख्या वाले शहरों में भी रह सकता है जहां प्रदूषण की मात्रा काफी उच्च होती है। अधिकांश पशु और वनस्पति प्रजातियां उनकी सीमित अनुकूलन क्षमता के कारण एक या अपेक्षाकृत कुछ ही पर्यावरणों तक सीमित हैं। आमतौर पर मनुष्य पर्यावरणीय तनावों पर चार प्रकार से प्रतिक्रिया देते हैंः
- आनुवंशिक परिवर्तन (genetic change)
- विकासात्मक समायोजन (developmental adjustment)
- पर्यनुकूलन (acclimatization)
- सांस्कृतिक प्रथाओं और प्रौद्योगिकी
यदि पर्यावरणीय तनाव निरंतर है और यदि यह कई पीढ़ियों तक बना रहता है, तो इस तनाव के प्रति सफल अनुकूलन विकसित हो जाता है। जो व्यक्ति अनुवांशिक रूप से एक ऐसी विशेषता प्राप्त कर लेते हैं जो विशिष्ट तनावों के प्रति प्रक्रिया प्रदान करने में एक लाभ प्रदान करती है तो उनके अधिक काल तक जीवित रहने की संभावना अधिक होती है, साथ ही वे अपने अधिक जीन (genes) अगली पीढ़ी को हस्तांतरित कर देते हैं। यह प्राकृतिक चयन के माध्यम से विकास है। उदाहरणार्थ जिन लोगों के पूर्वज ऐसे क्षेत्रों में रहे हैं जहां स्थानिकमारी अधिक हुई है वे लोग आमतौर पर इस गंभीर बीमारी के प्रति कुछ हद तक प्रतिरोध क्षमता अनुवांशिक रूप से प्राप्त कर लेते हैं। मध्य अफ्रीका के लोगों के बीच लाल खून की कोशिका की विशेषता की उच्च घटना काफी हद तक मलेरिया से इस विशेषता के लिए अप्रत्यक्ष रूप से चयन का परिणाम है। पर्यावरणीय तनाव के प्रतिक्रियास्वरूप होने वाले अनुवांशिक परिवर्तन के संपूर्ण जनसंख्या में व्यापक रूप से पाये जाने के लिए आमतौर पर कई पीढ़ियां लग जाती हैं। अपने जीवन काल के दौरान व्यक्तियों की तरह मानव ने अधिक शीघ्र प्रतिक्रिया देने के अन्य मार्ग भी विकसित कर लिए हैं।
3.0 पारिस्थितिकी तंत्र
पारिस्थितिकी तंत्र जीव विज्ञान और पारिस्थितिकी विज्ञान की मूल संकल्पना है और यह उस जैविक संगठन के स्तर का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें जीव एक दूसरे के साथ एक ही समय में परस्पर क्रिया करते हैं। इसमें जैविक समुदाय शामिल हैं जो कुछ अवस्थितियों में पाई जाती हैं, और भौतिक और रासायनिक कारक शामिल हैं जो उसके निर्जीव या अजैविक पर्यावरण का निर्माण करते हैं। पारिस्थितिकी तंत्र के अध्ययन में मुख्य रूप से कुछ प्रक्रियाओं का अध्ययन शामिल है, जो जीवित या जैविक घटकों को निर्जीव या अजैविक घटकों के साथ जोड़ते हैं। ऊर्जा परिवर्तन और जैवभूरासायनिक चक्र मुख्य प्रक्रियाएं हैं जो पारिस्थितिकी तंत्र की पारिस्थितिकी को बनाती हैं।
3.1 पारिस्थितिकी तंत्र के जैविक (biotic) और अजैविक (abiotic) घटक
किसी पारिस्थितिकी तंत्र के जैविक कारक वे जीव हैं को जीवित हैं या किसी समय जीवित रहे हैं। ये जीवमंडल से प्राप्त किये जाते हैं और इनमें प्रजनन क्षमता होती है। जैविक कारकों के उदाहरण हैं पशु, पक्षी, वनस्पति, फफूंद, और ऐसे ही अन्य जीव। पारिस्थितिकी तंत्र के अजैविक कारकों का संबंध निर्जीव भौतिक और रासायनिक तत्वों से होता है। अजैविक संसाधन आमतौर पर स्थलमंडल, वायुमंडल और जलमंडल से प्राप्त किये जाते हैं। अजैविक कारकों के उदाहरण हैं पानी, हवा, मृदा, सूर्य प्रकाश और खनिज।
अजैविक कारक जीवों की जीवित रहने और प्रजनन करने की क्षमता को प्रभावित करते हैं। अजैविक सीमित करने वाले कारक नजसंख्या की वृद्धि को प्रतिबंधित करते हैं। वे यह निर्धारित करने में सहायक होते हैं कि एक विशिष्ट पर्यावरण में किस प्रकार के और कितनी संख्या में जीव जीवित रह सकते हैं।
जैविक कारक जीवित वस्तुएं होती हैं जो प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष रूप से एक पर्यावरण में जीवों को प्रभावित करते हैं। इनमें स्वयं वे जीव शामिल होते हैं, अन्य जीव, जीवित जीवों के बीच परस्पर क्रिया और यहां तक कि उनके अपशिष्ट भी शामिल रहते हैं। अन्य जैविक कारकों में परजीविता, रोग और शिकार (एक पशु द्वारा दूसरे पशु को खाने की क्रिया) शामिल हैं। बडे़ पैमाने पर, अजैविक परस्पर क्रियाओं का संबंध स्वरूपों से होता है, जैसे जलवायु और मौसमीपन। तापमान, आर्द्रता और मौसम की उपस्थिति या अनुपस्थिति पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करते हैं। उदाहरणार्थ कुछ पारिस्थितिकी तंत्रों में सर्दियाँ अत्यंत ठंडी और काफी बर्फबारी के साथ होती हैं। इस पारिस्थितिकी तंत्र के अंदर लोमड़ी जैसा जानवर स्वयं को सर्दियों के दौरान एक मोती सफेद रंग की तह पैदा करके इन अजैविक कारकों के प्रति अनुकूलित कर लेता है।
जीवाणु और फफूंद जैसे विच्छिन्न करने वाले (decomposers) ऐसे पैमाने पर जैविक परस्पर क्रिया के उदाहरण हैं। विच्छिन्न करने वाले मृत जीवों को खंडित करके कार्य करते हैं। यह प्रक्रिया जीवों के मूलभूत घटकों को मृदा को वापस दे देते हैं ताकि उस पारिस्थितिकी तंत्र में उनका पुनः उपयोग किया जा सके।
आमतौर पर जैविक समुदायों में ऊपर दिखाए गए ‘‘कार्यात्मक समूहन‘‘ शामिल होते हैं। एक कार्यात्मक समूह जीवों से बनी एक जैविक श्रेणी होती है जो अधिकांश व्यवस्था में समान प्रकार का कार्य करती है य उदाहरणार्थ सभी प्रकाश संश्लेषक वनस्पति या एक कार्यात्मक समूह के प्राथमिक उत्पादक। कार्यात्मक समूह की सदस्यता बहुत अधिक इस बात पर निर्भर नहीं होती कि वास्तविक खिलाड़ी (प्रजाति) कौन है, बल्कि यह इस बात पर निर्भर होती है कि पारिस्थितिकी तंत्र में वे क्या कार्य करते हैं।
3.2 पारिस्थितिकी तंत्र की प्रक्रियाएं
पारिस्थितिकी तंत्रों में ऊर्जा प्रवाह और पारिस्थितिकी तंत्र चक्र सामग्री होती है। ये दोनों प्रक्रियाएं जुड़ी हुई हैं, परंतु फिर भी वे समान नहीं हैं। ऊर्जा जैविक व्यवस्था में प्रकाश ऊर्जा या फोटोन के रूप में प्रवेश करती है। फिर यह कोशिकीय प्रक्रियाओं के माध्यम से जीव अणुओं में रासायनिक ऊर्जा के रूप में परिवर्तित हो जाती है, जिसमें प्रकाश संश्लेषण और श्वसन शामिल है, और अंततः यह ऊष्मा ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। यह ऊर्जा नष्टचरित्र हो जाती है अर्थात यह ऊष्मा के रूप में तंत्र में खो जाती है य एक बार खो जाने के बाद यह पुनरावर्तित नहीं हो सकती सौर ऊर्जा की निरंतर निविष्टि के बिना जैविक तंत्र तुरंत बंद हो आएगा। अतः जहां तक ऊर्जा का प्रश्न है पृथ्वी के खुला तंत्र है। किसी पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा का परिवर्तन पहले सूर्य से मिलने वाली ऊर्जा की निविष्टि से शुरू होता है। सूर्य की ऊर्जा को प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। कार्बन डाइऑक्साइड हाइड्रोजन (जो पानी के अणुओं के विखंडन से उत्पन्न होती है) से मिलती है जिससे कार्बोहाइड्रेट बनते हैं। ऊर्जा एडेनोसाइन ट्राईफॉस्फेट के उच्च ऊर्जा बांड में संग्रहित होती है।
कार्बन, नाइट्रोजन या फॉस्फोरस जैसे तत्व जीवित जीवों में विभिन्न मार्गो से प्रविष्ट होते हैं। वनस्पति को ये तत्व वायुमंडल, पानी या मृदा से प्राप्त होते हैं। पशु भी इन तत्वों को सीधे पर्यावरण से प्राप्त कर सकते हैं परंतु आमतौर पर उन्हें ये तत्व अन्य जीवों का उपभोग करने के परिणामस्वरूप प्राप्त होते हैं। ये तत्व जैवरासायनिक रूप से जीवों के शरीर में ही परिवर्तित हो जाते हैं, परंतु शीघ्र या देर से, मलोत्सर्ग या अपघटन के कारण वे एक अजैविक स्थिति में वापस हो जाते हैं। आमतौर पर शलाकाणु इस प्रक्रिया को अपघटन या खनिजीकरण नामक प्रक्रिया के माध्यम से पूर्ण करते हैं (रोगाणुओं पर पिछला व्याख्यान देखें)।
अपघटन के दौरान ये पदार्थ नष्ट नहीं होते, या खोते नहीं हैं, अतः तत्वों (इसमें जब तब तंत्र में प्रवेश करने वाले उल्कापिंड़ इसके अपवाद हैं) की दृष्टि से पृथ्वी एक बंद तंत्र है। ये तत्व अपनी जैविक और अजैविक अवस्था में पारिस्थितिकी तंत्रों के अंदर अनंत बार घूमते हैं। वे तत्व जिनकी आपूर्ति जैविक गतिविधि को सीमित करती है उन्हें पोषक तत्व कहा जाता है।
एक सामान्य खाद्य श्रृंखला में प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से प्राप्त की गई सूर्य की ऊर्जा खाद्य श्रृंखला के माध्यम से पौष्टिकता के स्तर से पौष्टिकता के स्तर की ओर प्रवाहित होती है। पौष्टिकता स्तर जीवों से बना होता है जो इसी प्रकार जीवन निर्वाह करते हैं, अर्थात वे सभी प्राथमिक उत्पादक (वनस्पति), प्राथमिक उपभोक्ता (शाकभक्षी), या अप्रधान उपभोक्ता (मांसभक्षी) होते हैं। मृत ऊतक और अपशिष्ट पदार्थ सभी स्तरों पर उत्पादित होते हैं। मैला ढ़ोने वाले, मृत जैविक पदार्थों का भक्षण करने वाले और विच्छिन्न करने वाले मिलकर इस सभी ‘‘अपशिष्ट‘‘ का उपयोग करते हैं, शवों और गिरे हुए पत्तों का उपभोग करने वाले अन्य पशु हो सकते हैं, जैसे कौए, भृंग, परंतु अंततः वे रोगाणु ही होते हैं जो अपघटन के कार्य को पूरा करते हैं। कोई आश्चर्य नहीं है कि प्राथमिक उत्पादन की मात्रा स्थान-स्थान पर काफी भिन्न होती है, क्योंकि प्रत्येक स्थान पर प्राप्त होने वाला सौर विकिरण और पोषकों और जल की उपलब्धता अलग-अलग होती है। जैविक तंत्र का संगठन एक सरल ‘‘श्रृंखला‘‘ में प्रदर्शित करने की तुलना में कहीं अधिक जटिल होती है। एक पारिस्थितिकी तंत्र अनेक खाद्य कडियाँ और श्रृंखलाएं होती हैं, और इन सभी कड़ियों को हम एक खाद्य जाल के रूप में संदर्भित करते हैं। खाद्य जाल काफी जटिल हो सकता है, जहां यह प्रतीत होता है कि ‘‘प्रत्येक चीज अन्य प्रत्येक चीज से जुड़ी हुई है’’ और यह समझना महत्वपूर्ण है कि हम किसी भी विशिष्ट खाद्य जाल में सबसे महत्वपूर्ण हैं।
3.3 जैव-भूरसायनशास्त्र
खाद्य जाल की कड़ियों को आमतौर पर ऊर्जा के प्रवाह या तत्वों के चक्रण के अध्ययन के माध्यम से समझा जा सकता है। जैवभूरसायनशास्त्र शब्द को, जीवित वस्तुएं किस प्रकार पृथ्वी के भूविज्ञान और रसायनशास्त्र द्वारा प्रभावित और नियंत्रित होते हैं, इसके अनुसार परिभाषित किया जा सकता है। इस प्रकार जैवभूरसायनशास्त्र में हम जिस विश्व में रहते हैं उस विश्व के जैविक और अजैविक पहलुओं का समावेश होता है। अनेक मुख्य सिद्धांत और उपाय होते हैं जिनका उपयोग जैवभूरसायनिकशास्त्री पृथ्वी के तंत्रों के अध्ययन के लिए करते हैं। अधिकांश प्रमुख पर्यावरणीय समस्याएं जिनका आज हम हमारे विश्व में सामना करते हैं उनका विश्लेषण जैवभूरसायनशास्त्र के सिद्धांतों और उपायों के उपयोग द्वारा किया जा सकता है। इन समस्याओं में वैश्विक उष्मन, अम्ल वर्षा, पर्यावरणीय प्रदूषण और बढ़ती हुई ग्रीनहाउस गैसें शामिल हैं। हम जिन सिद्धांतों और उपायों का उपयोग कर सकते हैं उन्हें तीन प्रमुख घटकों में विभाजित किया जा सकता हैः तत्व अनुपात, द्रव्यमान संतुलन और तत्व चक्रण।
तत्व अनुपातः जैविक तंत्र में महत्वपूर्ण तत्वों को हम ‘‘अपरिवर्तनवादी‘‘ के रूप में संदर्भित करते हैं। ये तत्व अक्सर पोषक तत्व होते हैं। ष्अपरिवर्तनवादीष् से हमारा तात्पर्य है कि यदि उसे अच्छे स्वास्थ्य के साथ बने रहना है को कोई जीव अपने ऊतकों में इन तत्वों की अत्यंत थोडी मात्रा को परिवर्तित कर सकता है जीव के अन्य महत्वपूर्ण तत्वों की तुलना के संबंध में इन तत्वों के बारे में सोचना सबसे आसान है। उदाहरणार्थ एक स्वस्थ शैवाल में तत्व सी, एन, पी और एफई का अनुपात निम्न होता है, और इसे इसकी खोज करने वाले सगरविज्ञानी के नाम पर रेडफील्ड अनुपात कहा जाता है
C : N : P : Fe = 106 : 16 : 1 : 0.01
एक बार हमें ये अनुपात ज्ञात हो जाते हैं तो हम इनकी तुलना उन अनुपातों से कर सकते हैं जिनका मापन हम शैवाल के नमूने में कर रहे हैं जिससे पता लगाया जा सकता है कि शैवाल में इनमें से किसी पोषक तत्व का अभाव है या नहीं।
द्रव्यमान असंतुलनः एक अन्य महत्वपूर्ण साधन जिसका उपयोग जैवभूरसायनशास्त्रियों द्वारा किया जाता है वह है किसी तंत्र का वर्णन करने के लिए एक आसान द्रव्यमान संतुलन समीकरण। यह तंत्र एक साँप, एक वृक्ष, एक तालाब या संपूर्ण पृथ्वी हो सकता है द्रव्यमान संतुलन दृष्टिकोण का उपयोग करते हुए हम निर्धारित कर सकते हैं कि तंत्र परिवर्तित हो रहा है या नहीं और यदि परिवर्तित हो रहा है तो कितनी तीव्र गति से परिवर्तित हो रहा है। समीकरण निम्नानुसार हैः
शुद्ध परिवर्तन = निविष्टि + उत्पादन + आतंरिक परिवर्तन
इस समीकरण में एक समयावधि से दूसरी समयावधि पर तंत्र का शुद्ध परिवर्तन निविष्टियां क्या हैं, उत्पादन क्या है, और तंत्र में आतंरिक परिवर्तन क्या था इनके द्वारा निर्धारित किया जा सकता है। कक्षा में दिया गया उदाहरण एक तालाब का अम्लीकरण है जिसमें तालाब में अम्ल की निविष्टि, उत्पादन और आतंरिक परिवर्तन का विचार किया जाता है।
तत्व चक्रीकरणः तत्व चक्रीकरण दर्शाता है कि तंत्र में किस स्थान पर और कितनी तेजी से तत्व गतिशील हैं। तंत्रों की दो सामान्य श्रेणियाँ होती हैं जिनका हम विश्लेषण कर सकते हैं, बंद तंत्र और खुला तंत्र।
बंद तंत्र एक ऐसा तंत्र है जहां आतंरिक परिवर्तन की तुलना में निविष्टि और उत्पादन नगण्य है। ऐसे तंत्रों के उदाहरणों में एक बोतल, या हमारी संपूर्ण पृथ्वी हो सकती है। बंद तंत्र में पदार्थों के चक्रीकरण का वर्णन हम दो प्रकार से कर सकते हैं, या तो गति की दर देख कर या गति की मार्गिकाओं की ओर देख कर।
दर = चक्रों की संख्या / समय (जैसे-जैसे दर बढ़ती है, उत्पादकता बढ़ती है)
एक खुले तंत्र में निविष्टियां और उत्पादन भी होते हैं साथ ही आतंरिक चक्रीकरण भी होता है। अतः हम गतिशीलता की दर का और मार्गिकाओं का वर्णन कर सकते हैं, उसी प्रकार जैसे हमने बंद तंत्र में किया था, परंतु यहां हम एक नई संकल्पना को भी परिभाषित कर सकते हैं जिसे निवास समय कहा जाता है। निवास समय दर्शाता है कि तंत्र को छोड़ने से पहले तत्व तंत्र में औसत कितने समय तक बना रहा।
3.4 पारिस्थितिकी तंत्र के कार्यों पर नियंत्रण
पारिस्थितिकी तंत्र पर नियंत्रण के दो प्रभावशाली सिद्धांत हैं - नीचे से ऊपर नियंत्रण और ऊपर (Bottom-up) से नीचे नियंत्रण। नीचे से ऊपर नियंत्रण कहता है कि पारिस्थितिकी तंत्र किस प्रकार कार्य करता है इसका नियंत्रण अंततः प्राथमिक उत्पादकों को होने वाली पोषकों की आपूर्ति द्वारा होता है। यदि पोषकों की आपूर्ति बढ़ा दी जाती है तो इसके परिणामस्वरूप स्वपोषियों की होने वाली वृद्धि भोजन जाल के माध्यम से प्रसारित होती है और अन्य सभी पौष्टिकता स्तर बढ़ी हुई खाद्य उपलब्धता को जवाब देंगे (ऊर्जा और सामग्री अधिक तेजी से घूमेंगे)।
ऊपर से नीचे (top-bottom) के नियंत्रण के अनुसार उच्च पौष्टिकता स्तरों द्वारा निचके पौष्टिकता स्तरों पर शिकार और चराई अंततः पारिस्थितिकी तंत्र के कार्यों को नियंत्रित करते हैं। यदि शिकारियों की संख्या में वृद्धि होती है, तो इसके कारण चराई करने वालों की संख्या कम हो जायेगी और चराई करने वालों की संख्या की यह गिरावट प्राथमिक उत्पादकों की अधिक संख्या में परिणामित होगी क्योंकि चराई करने वालों द्वारा उनमें से कम को खाया जा रहा है। इस प्रकार जनसंख्या और समग्र उत्पादकता का नियंत्रण खाद्य श्रृंखला के ऊपरी स्तरों से निचले स्तरों की ओर झरने के रूप में प्रवाहित होगी।
अनेक पारिस्थितिकी तंत्रों के अध्ययनों से प्राप्त उदाहरण दर्शाते हैं कि दोनों ही प्रकार के नियंत्रण एक हद तक कार्यरत रहते हैं। ‘‘ऊपर से नीचे‘‘ का प्रभाव आमतौर पर उच्च शिकारियों के निकट के पौष्टिकता स्तरों पर अधिक तीव्र होता है, परंतु जैसे-जैसे हम खाद्य श्रृंखला के निचले स्तरों की ओर आते हैं तो नियंत्रण कमजोर होता जाता है। उसी प्रकार पोषकों में वृद्धि करने वाला ‘‘नीचे से ऊपर’’ का प्रभाव आमतौर पर प्राथमिक उत्पादन को उत्प्रेरित करता है, परंतु खाद्य श्रृंखला के ऊपरी भाग का अप्रधान उत्पादन कम तीव्र होता है या पूरी तरह से अनुपस्थित होता है। ये दोनों नियंत्रण किसी भी तंत्र में किसी भी समय में कार्यरत होते हैं। प्रत्येक नियंत्रण के सापेक्ष महत्त्व को समझने की आवश्यकता है ताकि विभिन्न परिस्थितियों में पारिस्थितिकी परिवर्तन, जैसे बदलती जलवायु में, का अनुमान लगाया जा सकता है और इसकी निगरानी की जा सकती है।
3.5 पारिस्थितिकी तंत्रों के प्रकार
पारिस्थितिकी तंत्र अनेक भिन्न प्रकार के होते हैंः वर्षा वन और टुंड्रा, प्रवाल भित्तियां और जलाशय, घास के मैदान और मरुस्थल। स्थान-स्थान की जलवायु भिन्नताएं मोटे तौर पर पारिस्थितिकी तंत्र के प्रकार को निर्धारित करती हैं। स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र हमें कैसे दिखता है मुख्य रूप से प्रभावी वनस्पति द्वारा प्रभावित होता है।
‘‘बायोम‘‘ शब्द का उपयोग एक प्रमुख वनस्पति प्रकार का वर्णन करने के लिए किया जाता है, जैसे विशाल भौगोलिक क्षेत्र पर विस्तारित उष्णकटिबंधीय वर्षा वन, चारागाह, टुंड्रा इत्यादि। इसका उपयोग जलीय तंत्रों के लिए कभी भी नहीं किया जाता, जैसे जलाशय या प्रवाल भित्तियां। इसका संदर्भ हमेशा एक वनस्परि वर्ग के लिए होता है जो एक विशाल भौगोलिक क्षेत्र पर प्रभावी है, और इसलिए कुछ हद तक पारिस्थितिकी तंत्र से भी विस्तृत है।
क्षेत्र की तापमान और वर्षा की प्रवृत्तियाँ विशिष्ट होती हैं। पृथ्वी के सभी स्थानों को प्रति वर्ष उतने ही घंटों का सूर्य प्रकाश प्राप्त होता है परन्तु गर्मी की मात्रा समान नहीं होती। निचले क्षेत्रों पर सूर्य का प्रकाश सीधे पड़ता है, परंतु ऊँचाई वाले क्षेत्रों पर यह तिरछा पड़ता है। गर्मी का यह असमान वितरण न केवल तापमान भिन्नता को निर्धारित करता है, परंतु यह वैश्विक हवाओं और समुद्री धाराओं को भी निर्धारित करता है, जिनका व्यापक संबंध विभिन्न स्थानों पर होने वाली पर्जन्य वृष्टि से भी होता है। तापमान और वर्षा में यदि ऊँचाई के ठंडक प्रभाव को जोड दिया जाए तो हमें जलवायु का जटिल वैश्विक स्वरुप प्राप्त होता है।
जलवायु प्रवृत्तियों में बढ़ते परिवर्तनों के कारण जलवायु के अध्ययन जटिल बन जाते हैं। हालांकि अनेक पहलू पूर्वकथनीय हैं। भू-मध्यरेखा के निकट पहुंचने वाली उच्च सौर ऊर्जा लगभग समान उच्च तापमान और वाष्पीकरण और वनस्पति वाष्पोत्सर्जन की उच्च दरें सुनिश्चित करती है। गर्म हवा ऊपर उठती है, ठंडी होती है और अपनी आर्द्रता को छोड देती है, जो एक उष्णकटिबंधीय वर्षा वन की स्थिति निर्मित करती है। प्रत्येक स्थान का एक वर्षा-तापमान का आलेख होता है जो एक विस्तृत क्षेत्र के लिए लगभग समान होता है।
4.0 पारिस्थितिकी संतुलन और पारिस्थितिकी तंत्र पर मानवी प्रभाव
सामग्री के अजैविक पर्यावरण से जीवमंडल की ओर और वापस अजैविक पर्यावरण की ओर चक्रीय प्रवाह की प्रक्रियाएं और खाद्य श्रृंखला के अंदर परस्पर क्रिया के संतुलन को बनाये रखना पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को बनाये रखने के लिए आवश्यक है। इन चक्रों के साथ किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप पारिस्थितिकी तंत्र में गड़बड़ी पैदा कर देता है और पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को प्रभावित करता है। पारिस्थितिकी तंत्र में गड़बड़ी पैदा होने के निम्न प्रकार हो सकते हैंः
क्षेत्र में विदेशी प्रजातियों का आनाः एक प्रकार जिसके द्वारा मनुष्य खाद्य जाल की परस्पर क्रिया के संतुलन को प्रभावित करता है वह है नई प्रजातियों का ऐसे क्षेत्रों में प्रवेश जहां कोई प्राकृतिक दुश्मन अस्तित्व में नहीं हैं जैसे शिकारी, परजीवी और अन्य प्रतिस्पर्धी। प्राकृतिक शत्रुओं के अभाव के कारण नई प्रजातियों की जनसंख्या में अनियंत्रित वृद्धि होती है।
शिकारी प्रजातियों का विनाशः शिकारी प्रजातियों की संख्या में विषम गिरावट खाद्य जाल के अंदर परस्पर क्रिया के संतुलन के साथ हस्तक्षेप करती है। जैविक समुदाय में शिकारियों का बडे़ पैमाने पर उन्मूलन शिकार संख्या में गड़बड़ी पैदा कर सकता है जिससे घनत्व में असंतुलन बढ़ जायेगा।
खेतों में साँपों को मारने का परिणाम चूहों की संख्या में तेजी से होने वाली वृद्धि में हो सकता है। वनोन्मूलन का परिणाम उल्लुओं के प्रव्रजन में होता है। चूंकि उल्लू चूहों के बडे़ शिकारी होते हैं, इसके कारण क्षेत्र में चूहों की संख्या में अनियंत्रित वृद्धि हो सकती है। ऑस्ट्रेलिया में विशाल ट्राइटन की अत्यधिक पकड़ के कारण प्रवाल भित्तियों का विनाश होता है ययह विशाल ट्राइटन क्राउन मछली, कांटा तारामछली की शिकारी है।
संश्लेषित उत्पादों का प्रवेशः संश्लेषित उत्पाद ऐसे पदार्थ हैं जिनका निर्माण रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा किया जाता है जो रासायनिक संश्लेषण द्वारा कृत्रिम पद्धति से बनाये जाते हैं जैसे प्लास्टिक की थैलियां, कुर्सियां, खिलौने इत्यादि। ये संश्लेषित पदार्थ वर्षों तक बने रह सकते हैं और विच्छिन्न करने वालों द्वारा इन्हें नष्ट नहीं किया जा सकता। विभिन्न प्लास्टिक उत्पादों जैसे संश्लेषित उत्पाद प्लास्टिक से बने होते हैं; मनुष्य का यह निर्माण जीवमंडल में सामग्री के प्रवाह को बाधित करता है। इन उत्पादों के अनुचित निपटान का परिणाम पारिस्थितिकी असंतुलन में होता है। यह पारिस्थितिकी तंत्रों का विनाश कर देता है जो जीवों को मार सकते हैं और उसी समय और यह जीवित विश्व में प्रदूषण जैसी विभिन्न समस्याएं भी निर्माण करता है।
जलाशयों में विषैला अपशिष्ट फैंकनाः कृषि भूमि के औद्योगिक क्षेत्रों या आवासीय उप-खण्ड़ों में परिवर्तन के कारण मनुष्य द्वारा अधिक विषैला अपशिष्ट निर्मित किया जा रहा है। उद्योग अपने उत्पादों के विनिर्माण में रसायनों का उपयोग करते हैं और कुछ उद्योग अपने अपशिष्टों के निपटान के बारे में अत्यधिक गैर जिम्मेदार होते हैं। इनमें से अनेक उद्योग तो उनके विषैले अपशिष्टों को नदियों और तालाबों जैसे जलाशयों में छोड़ देते हैं जिसके कारण जलीय जीवों और सूक्ष्म जीवों की मृत्यु होती है। विच्छिन्न करने वालों की संख्या में गिरावट के कारण सामग्री के जीवित से निर्जीव वातावरण में जाने में विलंब हो सकता है।
पर्यावरणीय मुद्देः ऐसे अनेक मुद्दे और समस्याएं हैं जिनका संबंध पारिस्थितिकी असंतुलन से है। ये ऐसी समस्याएं हैं जिनका विकास पारिस्थितिकी संतुलन के विनाश के कारण हुआ है। इन समस्याओं को वैश्विक समस्याएं, राष्ट्रीय समस्याएं और समुदाय समस्याएं के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
वैश्विक समस्याएंः ये ऐसी समस्याएं हैं जो विभिन्न देशों को प्रभावित करती हैं और इनका निराकरण प्रभावित देशों की एकता द्वारा ही किया जा सकता है। कुछ वैश्विक समस्याएं निम्नानुसार हैंः
- वैश्विक उष्मन या ग्रीनहाउस प्रभाव (Global warming)
- अम्ल वर्षा (Acid rain)
- प्रदूषण (हवा और जलीय प्रदूषण)
- वायुमंडल में ओजोन परत का हृस
- परमाणु युद्ध के परिणामस्वरूप रडिओधर्मी परिणाम
राष्ट्रीय समस्याएंः ये ऐसी समस्याएं होती हैं जो किसी एक देश को प्रभावित करती हैं, और इनका निराकरण केवल देश में ही किया जा सकता है। ये राष्ट्रीय पर्यावरणीय समस्याएं निम्नानुसार हैंः
प्रदूषण (हवा, पानी और मृदा) : प्राकृतिक संसाधनों का अपक्षरण जैसे मृदा का अपक्षरण, वनोन्मूलन, वन्यजीवों का अपक्षरण, ऊर्जा की कमी, जलीय पारिस्थितिकी तंत्र का अपक्षरण और खनिक संसाधनों का अपक्षरण।
भूमि के उपयोग में परिवर्तन और और भूमि का असंगत उपयोग जैसे कृषि भूमि का औद्योगिक क्षेत्रों में परिवर्तन, सदाबहार दलदलों का मत्स्य तालाबों और नमक क्षेत्रों में परिवर्तन इत्यादि।
समुदाय की समस्याएंः ये वे समस्याएं हैं जो किन्हीं विशिष्ट बस्तियों या स्थानों या समुदायों को प्रभावित करती हैं और इनका निराकरण उन विशिष्ट स्थानो और बस्तियों या समुदायों में ही किया जा सकता है।
- टूटी हुई और रुकी हुई नालियां और मल निस्सारण तंत्र
- बदबूदार नम स्थान
- बस्तियों में महामारियों का व्यापक प्रसार
5.0 विश्व के प्रमुख पारिस्थितिकी तंत्र
विश्व में व्यापक और सूक्ष्म स्तर पर अनेक पारिस्थितिकी तंत्र कार्यरत हैं। जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है जीवमंडल सबसे बड़े पारिस्थितिकी तंत्र है जो विश्व के सभी पारिस्थितिकी तंत्रों को जोड़ता है। विश्व के छह प्रमुख पारिस्थितिकी तंत्र निम्नानुसार हैं- मीठे पानी का पारिस्थितिकी तंत्र
- जलीय (सागरीय) पारिस्थितिकी तंत्र
- चारागाह पारिस्थितिकी तंत्र
- वनीय पारिस्थितिकी तंत्र
- मरुस्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र
- फसल भूमि पारिस्थितिकी तंत्र
परंतु भौतिक भौगोलिक, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, मृदा और जलाशयों में भिन्नताओं के लॉरेन अलग-अलग पारिस्थितिकी तंत्र विकसित हो गए हैं जैसा चित्र 2.10 में निरूपित किया गया है।
मीठे पानी का पारिस्थितिकी तंत्रः मीठे पानी के प्राकृतिक वासों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैः
- खड़ा पानी या स्थिर (शांत) - तालाब, पोखर, दलदल या पंक
- बहता पानी या प्रवाह (धुल हुआ) - नदी, झरना, धारा
हालांकि मीठे जल के प्रा.तिक वास पृथ्वी की सतह के छोटे भाग पर ही विद्यमान हैं, फिर भी वे मानव जीवन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे पीने के पानी की आपूर्ति के साथ-साथ घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिए पानी की आपूर्ति करते हैं। ओडम ने मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र को निम्न रूप में परिभाषित किया हैः ‘‘मीठे पानी की पारिस्थितिकी पारिस्थितिकी तंत्र सिद्धांत के संदर्भ में पर्यावरण संबंधों में मीठे पानी के प्रा.तिक वासों के जीवों पर जोर देती है।‘‘
पोखर मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र का एक अच्छा उदाहरण है जो एक आत्मनिर्भर स्व विनियमित तंत्र को प्रदर्शित करता है। पोखर एक ऐसा स्थान है जहां जीव न केवल रहते हैं बल्कि वे जैविक और अजैविक घटकों के साथ परस्पर क्रिया भी करते हैं, और इस प्रकार एक ऐसे पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करते हैं जो अन्य पारिस्थितिकी तंत्रों से अलग है।
इसी प्रकार तालाब, दलदली क्षेत्र और नदियों के डेल्टा क्षेत्रों के अपने स्वयं के पारिस्थितिकी तंत्र हैं जिनमें उत्पादक, उपभोक्ता और विच्छिन्न करने वाले आपस में परस्पर क्रिया करते हैं और वे प्रत्येक के अलग पारिस्थितिकी तंत्र के लिए जिम्मेदार होते हैं।
समुद्री (महासागरीय) पारिस्थितिकी तंत्रः जलीय पारिस्थितिकी तंत्र मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र से मुख्य रूप से इसके खारे पानी के कारण भिन्न होता है और साथ ही क्योंकिः
- समुद्र पृथ्वी के क्षेत्र के 70 प्रतिशत को व्याप्त करता है
- समुद्र गहरा होता है,
- समुद्र निरंतर है, और
- समुद्र का पानी निरंतर रूप से परिसंचरण करता रहता है। ओडम के अनुसार ‘‘समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पूर्णता या जीवों और समुद्री पर्यावरण के बीच के संबंधों के स्वरुप पर जोर देता है।’’
समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में उथले पानी और गहरे पानी साथ ही मुहाने के भाग भी एक दूसरे से भिन्न होते हैं। प्रत्येक महासागर अपने आप में एक विशाल और स्थिर पारिस्थितिकी तंत्र का प्रतिनिधित्व करता है।
चारागाहों का पारिस्थितिकी तंत्रः चारागाह पृथ्वी के क्षेत्र के लगभग 19 प्रतिशत भाग को व्याप्त करते हैं, इसमें उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण चारागाह शामिल हैं। इसमें सवाना का पारिस्थितिकी तंत्र अत्यंत महत्वपूर्ण है।
अजैविक घटक मृदा और वायवीय पर्यावरण में उपस्थित पोषक तत्व होते हैं। कार्बन डाइऑक्साइड, पानी, नाइट्रेट, फॉस्फेट, सलफेट इत्यादि जैसे तत्व क्षेत्र की हवा में और जमीन पर उपस्थित होते हैं।
उत्पादक मुख्य रूप से विभिन्न प्रकार की घास और छोटे वृक्ष और झाडियां होते हैं। प्राथमिक उपभोक्ताओं में गायें, भैंसें, भेडें, बकरियां, हिरण, खरगोश, और अन्य पशु शामिल हैं, जबकि अप्रधान उपभोक्ता लोमड़ी, सियार, सांप, मेंढ़क, छिपकलियां, पक्षी इत्यादि हैं।
रोगाणु विभिन्न प्रकार के सड़ने वाले और मृत जैविक पदार्थों पर सक्रिय होते हैं। वे खनिजों को वापस मृदा में लाते हैं, और इस प्रकार वे उत्पादकों के लिए उपलब्ध हो जाते हैं। ग्रामीण काव्य और पशुपालन इन क्षेत्रों के प्रमुख व्यवसाय हैं।
वनीय पारिस्थितिकी तंत्रः पृथ्वी का लगभग 30 प्रतिशत क्षेत्र वनाच्छादन के तहत है, परंतु मनुष्य के हस्तक्षेप के कारण यह क्षेत्र धीरे-धीरे छोटा होता जा रहा है। परंतु फिर भी वनीय पारिस्थितिकी तंत्र अत्यंत महत्वपूर्ण है।
शंकुधारी वन चौडे़ पट्टे के रूप में उत्तरी अमेरिका और यूरेशिया में फैले हुए हैं। दूसरी ओर, समशीतोष्ण पर्णपाती वन पूर्वी उत्तर अमेरिका, यूरोप, जापान के कुछ भागों और ऑस्ट्रेलिया में फैले हुए हैं। वनों में उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाये जाते हैं।
वनीय पारिस्थितिकी तंत्र में अजैविक घटक मृदा और वायुमंडल में विद्यमान जैविक पदार्थ हैं, और साथ ही मृत जैविक मलबे में विद्यमान खनिज भी इनमें शामिल हैं। उत्पादक विभिन्न प्रजातियों के वृक्ष हैं।
प्राथमिक उपभोक्ता हैं विभिन्न प्रकार के पशु, जबकि अप्रधान उपभोक्ताओं में शेर, बाघ, सांप, पक्षी, छिपकली, लोमड़ी आदि शामिल हैं।
पर्यावरणीय दृष्टि से वनीय पारिस्थितिकी तंत्र अत्यंत चिंता का कारण बने हुए हैं। मनुष्य द्वारा वनों के शोषण की दर दिन प्रति दिन बढती ही जा रही है, और इस प्रकार वैश्विक जलवायु और अनेक प्रकार की पशु प्रजातियों पर इसके होने वाले प्रभावों के कारण सभी देशों के लिए चिंता निर्माण कर रही है।
मरुस्थलीय पारिस्थितिकी तंत्रः आमतौर पर मरुस्थल उन क्षेत्रों में होते हैं जहां 25 सेंटीमीटर से कम वर्षा होती है, और ये असमान रूप से वितरित हैं।
वर्षा की कमी निम्न कारणों से हो सकती हैः
- उच्च उपोष्णकटिबंधीय दबाव जैसा सहारा और ऑस्ट्रेलियाई मरुस्थलों में पाया जाता है,
- वर्षा छायाओं की भौगोलिक स्थिति, या
- उच्च ऊंचाई जैसी तिब्बती, गोबी, बोलीविया मरुस्थलों में है।
मरुस्थलों को अनुकूलित तीन जीवन रूप हैंः
- एक बरसी वृक्ष जो केवल उन्हीं स्थानों पर उगते हैं जहां पर्याप्त नमीं उपलब्ध है, और इस प्रकार सूखे से बचे रहते हैं,
- रसभरे, जैसे नागफनी, जो पानी का संग्रह करते हैं, और
- मरुस्थलीय झाड़ियां, जिनकी अनेक शाखाएं और एक विशेष प्रकार की जड व्यवस्था होती हैं जो उन्हें मरुस्थलीय स्थितियों से अनुकूलित करने में सहायक होती है।
ऊंटों और बकरियों के अतिरिक्त सबसे आम पशु हैं सांप और कीडे़, जो शुष्क स्थितियों में रहने में सक्षम होते हैं। अल्प वनस्पति के कारण मृत जैविक पदार्थ कम होता है और कुछ फफूंद और बैक्टीरिया विच्छिन्न करने वालों के रूप में कार्य करते हैं।
गर्म मरुस्थल के अतिरिक्त उत्तर और दक्षिणी ध्रुवों के आसपास कुछ विस्तीर्ण ठंडे मरुस्थल भी हैं जहां स्थाई बर्फ टोपियां और एक पूरी तरह से अलग प्रकार का पारिस्थितिकी तंत्र विकसित हो गया है, जो ठंडी जलवायु स्थितियों के प्रति धारणीय है।
फसल भूमि पारिस्थितिकी तंत्रः ऊपर उल्लेख किये गए प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्रों के अतिरिक्त मनुष्य द्वारा निर्मित पारिस्थितिकी तंत्र भी हैं। इस प्रकार का एक पारिस्थितिकी तंत्र है फसल भूमि पारिस्थितिकी तंत्र, जिनमें मनुष्य ने मृदा, जलवायु और अन्य पर्यावरणीय स्थितियों का विचार करने के बाद फसल भूमि विकसित कर ली है। ये प्रभावी फसल प्रजातियों के पारिस्थितिकी तंत्र हैं, जैसे गेहूं, मक्का, ज्वार, धान, गन्ना, कपास, चाय, कॉफी इत्यादि।
इस पारिस्थितिकी तंत्र के अजैविक घटकों में जलवायु स्थितियां और मृदा के खनिज तत्व शामिल हैं। किसी भी न्यूनता की स्थिति में मनुष्य ने रासायनिक उर्वरकों और/या लिए पानी का उपयोग किया है। इन फसल भूमियों में विभिन्न प्रकार के खाद्यान्न, दालें और वाणिज्यिक फसलें उगाई जाती हैं जो केवल मनुष्यों और पशुओं को भोजन और चारा ही प्रदान नहीं करते बल्कि खेतों में विविध प्रकार के पशु, पक्षी, चूहे, खरगोश और अन्य सरीसृप कीडे इत्यादि भी जीवित रहते हैं।
वनस्पति और पशुओं की मृत जैविक सामग्री खनिजों को फिर से उपलब्ध कर देती है। प्रत्येक पारिस्थितिकी तंत्र का विस्तार से अध्ययन करने की आवश्यकता है। ऊपर उल्लेख किये गए वैश्विक या स्थूल पारिस्थितिकी तंत्रों के अतिरिक्त प्रत्येक क्षेत्र में कुछ मध्यम और सूक्ष्म पारिस्थितिकी तंत्र क्षेत्र भी विद्यमान हैं।
उदाहरणार्थ भारत में निम्न प्रमुख पारिस्थितिकी तंत्र हैंः
- हिमालयीन पर्वत पारिस्थितिकी तंत्र
- मैदानी पारिस्थितिकी तंत्र
- मरुस्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र
- मध्य भारत पठारी पारिस्थितिकी तंत्र
- प्रायद्वीपीय (डेक्कन पठार) पारिस्थितिकी तंत्र
- तटीय मैदानी पारिस्थितिकी तंत्र
- द्वीपीय पारिस्थितिकी तंत्र
इन पारिस्थितिकी तंत्रों की पहचान प्राकृतिक भूगोल के आधार पर की गई है, जो जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, मृदा और मनुष्य के प्रकृति को अनुकूलन को भी नियंत्रित करती है।
प्रत्येक प्रमुख क्षेत्र को उप पारिस्थितिकी तंत्र क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है; उदाहरणार्थ राजस्थान में निम्न पारिस्थितिकी तंत्र हैंः
- शुष्क पारिस्थितिकी तंत्र
- सिंचित शुष्क पारिस्थितिकी तंत्र
- अर्ध शुष्क पारिस्थितिकी तंत्र
- अरावली पर्वत पारिस्थितिकी तंत्र
- पूर्वी मैदान पारिस्थितिकी तंत्र
- हाड़ोती पठार पारिस्थितिकी तंत्र
सूक्ष्म पारिस्थितिकी तंत्रों की और अधिक पहचान न केवल पारिस्थितिकी तंत्र को समझने में सहायक होगी बल्कि यह क्षेत्रीय विकास और नियोजन में भी सहायक होगी। धारणीय विकास के लक्ष्य की प्राप्ति तभी की जा सकती है जब हमारी विकासात्मक नीतियां प्रत्येक क्षेत्र के सूक्ष्म पारिस्थितिकी तंत्र पर आधारित होंगी।
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