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प्रथम विश्व युद्ध
1.0 प्रस्तावना
लगभग 1 करोड़ सैनिकों की मृत्यु, 2.2 करोड़ घायल सैनिकों और 70 लाख मृत नागरिकों के साथ, प्रथम विश्व युद्ध को ‘एक महान युद्ध’ कहा जाता है। इसके वास्तविक कारणों की खोज एक कठिन कार्य है। यह एक बड़े पैमाने पर हुआ युद्ध था और यह बहुत सघनता से लड़ा गया। सैन्य कार्यक्रमों पर इसका क्रांतिकारी प्रभाव पड़ा। मानवीय और भौतिक अर्थां में इसका मूल्य अथाह था और इसके परिणाम भी गम्भीर हुए।
2.0 विवाद के कारण
इस प्रकार की घटनाओं के मुख्य कारण बड़े स्तर पर खोजे जाते है और विवाद का विषय भी होते है। प्रारंभिक रूप से विद्वान युद्ध के आरोप किसी एक पक्ष पर लगाने की ओर झुके हुये थे किंतु आधुनिक विद्वान ऐसा करना उचित नही समझते। इसके स्थान पर वे उन भय और महत्वकांक्षाओं का अध्ययन करना चाहते हैं, जिनसे यूरोप के वे शासक ग्रसित थे जिन्होंने युद्ध का भयानक निर्णय लिया, विशेषकर जर्मनी।
2.1 बाल्कन समस्या
प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व यूरोप में तनाव का एक प्रमुख कारण बाल्कन क्षेत्र की अस्थिरता और संघर्ष था। जैसा कि नाम से ही विदित होता है यह चार महासागरों - कालासागर, भूमध्यसागर, एड्रीयाटिक और ऐइजीनियन सागरों से घिरा हुआ एक बड़ा प्रायद्वीपीय क्षेत्र है। इस प्रायद्वीप पर कई राज्यों और देशों जिनमें ग्रीस सर्बीया, वुलगेरिया, मखदुनिया और बोसनिया जैसे देशों के निवासियों का समूह था। शताब्दी की शुरूआत में बाल्कन क्षेत्र बहुत ज्यादा विकसित नहीं था और पश्चिमी यूरोप की तुलना में इसकी जनसंख्या भी कम थी; इसके अपने कुछ ही प्राकृतिक संसाधन थे जिनका आर्थिक मूल्य बहुत ज्यादा नही था। किंतु बाल्कन प्रायद्वीप का महत्व इसकी भौगोलिक परिस्थितियों के कारण था। तीन प्रमुख साम्राज्यों-ऑटोमन, रशिया और ऐस्ट्रो-हंगेरियन के मध्य स्थित होने के कारण और कुछ प्रमुख समुद्री मार्गों के मध्य स्थित होने के कारण बाल्कन का रणनीतिक महत्व बहुत ज्यादा था। इन्ही विशेषताओं के कारण यह क्षेत्र पूर्व और पश्चिम के बीच एक सांस्कृतिक और व्यापारिक आदान-प्रदान का प्रमुख द्वार होने के साथ-साथ कई समुदायों के मिलन का केंद्र था।
19 वीं शताब्दी के अंत तक बाल्कन में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन होने लगे जिससे की वहां की व्यवस्था चरमराने लगी। अपने शीर्ष दिनों में ऑटोमन साम्राज्य ने संपूर्ण पूर्वी यूरोप पर शासन किया जिनमें बाल्कन के राज्य भी थे। किंतु 18वीं शताब्दी के अंत तक ऑटोमन साम्राज्य सिकुड़ने लगा। अगली शताब्दी में ग्रीस सर्बिया, मॉण्टेनीग्रो और बुलगेरिया ने ऑटोमन साम्राज्य से स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। पश्चिमी यूरोपीय शक्तियों विशेषकर ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और रूस ने इस क्षेत्र में विशेष रूचि दिखाई क्योंकि वे ऑटोमन साम्राज्य के पतन के परिणामों को लेकर चितिंत थे। उनके अनुसार यह ’एक पूर्वी प्रश्न’ था और इसे लेकर उन्हांने अपनी विदेश नीति के उद्देश्य विकसीत कर लिये थे। रूस को आशा थी कि वह बाल्कन क्षेत्र में प्रवेश कर अपनी सीमाओं का विस्तार कर लेगा और पूर्व में ऑटोमन साम्राज्य के अधीन आने वाले राज्यों को अपने देश में शामिल भी कर लेगा। रूस की नौसेना जिसके बंदरगाह कालासागर मे थे, ने बोसफोरस को नियंत्रण में लेकर इसे साधने का प्रयास किया जो कि भूमध्यसागर के लिए समुद्री मार्ग उपलब्ध कराता था। ब्रिटेन मध्य पूर्व और भूमध्यसागर में रूस के विस्तार के खिलाफ था अतः वह चाहता था कि जब तक सम्भव हो सके ऑटोमन साम्राज्य को ‘बफर राज्य’ का दर्जा दिला दिया जाये ताकि रूस वहां आगे ना बढ़़ सके। जर्मनी को आशा थी कि वह दिवालिया ऑटोमन साम्राज्य को अपने एक उपनिवेश के रूप में हासिल कर लेगा।
2.2 सहयोगी राष्ट्र
2.2.1 बिस्मार्क का वृहद जर्मनी
बिस्मार्क, प्रुशिया का प्रथम प्रधानमंत्री और तत्कालीन जर्मन साम्राज्य का चांसलर, ने ऑस्ट्रिया और फ्रांस के विरूद्ध युद्ध में उच्च राजनीतिक न्यायप्रियता के द्वारा जर्मनी का एकीकरण कर निर्माण किया।
उसका पहला लक्ष्य इन जर्मन राज्यों को आस्ट्रिया के प्रभाव से मुक्त कराना था। उसने यह लक्ष्य 1866 में ऑस्ट्रिया को पोलेस्टाइन के विवादास्पद क्षेत्र में युद्ध में उलझाकर हासिल किया। यह युद्ध सात सप्ताह तक चला अतः इसे ‘सात सप्ताह का युद्ध भी कहा जाता है‘। और यह युद्ध प्रभावशाली प्रुशीयन सेना के पूर्ण नेतृत्व और सर्वोच्चता के साथ समाप्त हुआ। फ्रांसीसी सम्राट नेपोलियन तृतीय की मध्यस्थता में हुये शांति समझौते में बिस्मार्क ने न केवल ऑस्ट्रिया से शेल्स्विग और होलस्टाइन को बल्कि हेनोवर, हैस, नासाऊ और फ्रेंकफर्ट को उत्तरी संघ बनाते हुए अलग कर दिया। महत्वपूर्ण रूप से बिस्मार्क ने सफलतापूर्वक कई छोटे जर्मन राज्यों को ऑस्ट्रिया के प्रभाव से भी मुक्त कर दिया।
उत्तर में इन राज्यों को संगठित कर बिस्मार्क दक्षिण में भी ऐसा ही करना चाहता था और इस तरह सभी जर्मन राज्यों को प्रूशीया के झंडे़ तले इकट्ठा करना चाहता था। बिस्मार्क ने घोषित किया कि सभी के सामूहिक दुश्मन फ्रांस के विरुद्ध युद्ध से सभी लक्ष्य हासिल हो जायेंगे। उसने ऐसी परिस्थितियां पैदा कीं जिससे फ्रांस प्रूशिया के विरुद्ध युद्ध घोषित करने पर मजबूर हो जाये जो कि फ्रांस ने 19 जुलाई 1870 को किया भी।
प्रुशिया की सेना को पुनः सफलता मिली तथा फ्रांस को एलसाचे और लोरियन राज्य खोने पड़े। बिस्मार्क ने जो कुछ प्राप्त किया था उसे बचाने के लिए उसने कुछ गठबंधनों का निर्माण प्रारंभ किया जो प्रथम विश्व युद्ध तक जारी रहे।
2.2.2 तीन सम्राटों की लीग और द्वैत गठबंधन
1873 में उसने तीन सम्राटों की लीग बनाने के लिए वार्ता प्रारंभ की, जिसमें जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और रूस शामिल थे जो युद्ध के समय एक दूसरे की मदद करेंगे। हालांकि यह गठबंधन केवल 5 साल चला क्योंकि 1878 में रूस इससे पीछे हट गया। अब बिस्मार्क ने एक नया द्वैत गठबंधन आस्ट्रिया-हंगरी का गठन 1879 में किया। बाद में हुई इस संधि में एक दूसरे को यह वचन दिया गया था कि रूस से किसी भी आक्रमण की स्थिति में वे एक दूसरे की मदद करेंगे। यदि उनमें से किसी भी देश पर किसी अन्य शक्ति, उदाहरण के लिए फ्रांस, के द्वारा आक्रमण किया जाता है तो उन्हें उदासीन रहना होगा। यही वह उपबंध था जिसने, ऑस्ट्रिया-हंगरी को उकसाया कि वे रूस के विरुद्ध सर्बिया में जर्मनी को अपनी सहायता के लिए बुलाये।
2.2.3 त्रिगुट गठबंधन
जर्मनी तथा ऑस्ट्रिया-हंगरी के समझौता कर लेने के दो वर्ष बाद 1881 में इटली को भी इसमें जोड़कर तीन देशों का एक गठबंधन बनाया गया जिसे त्रिगुट कहा गया। इस संधि के प्रावधानों के अनुसार, जर्मनी और आस्ट्रिया-हंगरी ने वादा किया कि वे इटली की सहायता करेंगे यदि इटली पर फ्रांस आक्रमण करता है, और इसके विपरीत यदि आस्ट्रिया-हंगरी पर फ्रांस का आक्रमण होता है तो इटली उनकी सहायता करेगा।
इसके अतिरिक्त यदि संधि में शामिल किसी भी देश पर कोई एक या एक से ज्यादा देश आक्रमण करते हैं तो शेष दो देशों को उसे सैन्य सहायता उपलब्ध करानी होगी और अंत में यह भी कहा गया कि यदि तीन देशों में से कोई भी एक देश रक्षात्मक युद्ध छेड़ता है तो उन परिस्थितियों में शेष दो देश उदासीन रह सकते हैं। इस त्रिगुट संधि का मुख्य उद्देश्य यह था कि इटली, आस्ट्रिया-हंगरी के विरुद्ध युद्ध ना घोषित करे जिनके साथ इटली के सीमा विवाद थे।
2.2.4 फ्रांस-इटली का गुप्त गठजोड़
इस पूरे घटनाक्रम में यह त्रिगुट वास्तव में अर्थहीन था क्योंकि आगे चलकर इटली ने फ्रांस के साथ एक गुप्त समझौता कर लिया, जिसके अनुसार यदि जर्मनी फ्रांस पर आक्रमण करता है तो उस परिस्थिति में इटली निरपेक्ष रहेगा-जो कि वास्तव में घटित भी हुआ। 1914 में इटली ने घोषित किया कि फ्रांस के विरुद्ध जर्मनी का आक्रमण एक ‘आक्रामक’ कदम था और इसलिए इटली निरपेक्ष रह सकता है। एक साल बाद 1915 में इटली प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन फ्रांस और रूस के सहयोगी के रूप में शामिल हो गया।
आस्ट्रिया-हंगरी ने 1883 में रोमानिया के साथ एक समझौता किया, जिसकी मध्यस्थता जर्मनी ने की थी यद्यपि प्रथम विश्व युद्ध प्रारंभ होने के बाद रोमानिया उदासीन रहा और अंततः मित्र देशों के साथ जुड़ गया; इस तरह आस्ट्रिया-हंगरी की रोमानिया के साथ संधि का कोई महत्व नहीं रह गया।
2.2.5 फ्रांस-रूस समझौता
रूस फ्रांस के साथ जुड़ गया। दोनों ही शक्तियां इस बात पर सहमत हो गईं कि यदि उनमें से किसी भी देश पर किसी अन्य देश का आक्रमण होता है या यूरोप में किसी भी प्रकार की अस्थिरता का भय फैलता है तो दोनों ही देश एक दूसरे की सहायता करेंगे। अपेक्षाकृत एक शाब्दिक समझौता ही था जिसे 1892 में फ्रांस-रूस सैन्य समझौते के द्वारा मजबूती प्रदान की गई, जिसका उद्देश्य त्रिगुट देशों-जर्मनी, आस्ट्रिया-हंगरी और इटली के द्वारा फैलाये गये भय का विरोध करना था।
संक्षिप्त में, यदि फ्रांस या रूस में से किसी भी देश पर त्रिगुट के किसी भी देश का आक्रमण होता, या युद्ध जैसे हालात भी बनते तब भी दूसरे देश को अपने साथी को सैन्य सहायता उपलब्ध करानी था।
2.2.6 अलगाव से ब्रिटेन का उदय
इसी बीच जर्मनी के एक यूरोपीय शक्ति और एक उपनिवेशिक शक्ति के रूप में उदय से ब्रिटेन चौंक गया। कैसर विल्हैम का उत्तराधिकारी विल्हैम द्वितीय जर्मनी के लिए ‘सर्वोच्च स्थान‘ स्थापित करने वाला महत्वकांक्षी सिद्ध हुआ। बिस्मार्क के पतन के साथ ही कैसर द्वितीय जर्मनी को प्रशांत महासागर और विशेषकर अफ्रीका में एक उपनिवेशिक शक्ति बनाने के लिए कटिबद्ध था।
विलहैम को, उसके नौसेना मंत्री अल्फ्रेड़ वोन टर्पिट्ज़ ने भी उत्साहित किया। उसने अपना नौसेनिक बेड़ा बढ़ाने के लिए एक जहाज उत्पादन केंद्र की शुरूआत की जिसका उद्देश्य ब्रिटेन से भी बढ़कर अविवादास्पद रूप से विश्व की नौशक्ति बनना था।
ब्रिटेन, जो कि उस समय विश्व की महाशक्ति था ने इस और ध्यान दिया। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में, 1902 में, उसने जर्मनी की पूर्व में बढ़ती हुई शक्तियों को रोकने के लिए जापान के साथ एक सैन्य समझौता किया।
उसने जर्मनी की बढ़ती हुई नौसेनिक शक्ति को देखते हुए स्वंय की नौसेना को बहुत हद तक मजबूत किया। इसके लिए उसने केवल 14 महीनों के अल्प समय में युद्धपोत ड्रेडनॉट को दिसंबर 1906 में तैयार कर लिया। जब 1914 में युद्ध घोषित हुआ तब जर्मनी के पास 29 युद्धपोत थे और ब्रिटेन के पास 49।
नौसैनिक दौड़ में सफलता के बाद भी जर्मनी की महत्वकांक्षाओं ने ब्रिटेन को मजबूर कर दिया कि वह यूरोप की गठबंधन प्रणाली में शामिल हो जाये। यह तर्क दिया जाता है कि इसी के कारण युद्ध अवश्यम्भावी हो गया।
2.2.7 ब्रिटेन फ्रांस और रूसः सौहार्दपूर्ण गठबंधन
दो वर्ष पश्चात ब्रिटेन ने फ्रांस के साथ एक मित्रतापूर्ण समझौते पर हस्ताक्षर किये। 1904 के इस गठबंधन ने अंततः बहुत सारे उपनिवेशिक विवादों को समाप्त कर दिया। इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि इसने दोनों देशों को कूटनीतिक स्तर पर एक-दूसरे के निकट ला दिया, यद्यपि इस समझौते में दोनों ही देशों को सैन्य सहायता उपलब्ध नहीं करानी थी।3 साल बाद, 1907 में, रूस ने एक त्रिगुट गठजोड़ बनाया जिसमें ब्रिटेन और फ्रांस शामिल थे, जो प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति तक जारी रहा। इस प्रकार हुऐ दो समझौतों ने एक तीन पक्षीय गठबंधन बनाया जिसने तीनों को ही प्रभावशाली तरीके से एक-दूसरे से जोड़ दिया और जो सात साल बाद प्रारंभ होने वाले प्रथम विश्व युद्ध तक जारी रहा।
पुनः यद्यपि दोनों ही मैत्री समझौतों में किसी भी प्रकार की सैन्य सहायता की बात नहीं की गई थी तब भी यह सामान्य समझ विकसित कर ली गई थी की युद्ध के समय सहयोगी देश एक दूसरे की मदद करेंगे।
मुख्य रूप से वहीं यह नैतिक जवाबदारी थी जिसने फ्रांस की रक्षा के लिये ब्रिटेन को युद्ध में कूदने के लिए मजबूर कर दिया। यद्यपि ब्रिटेन का ऐसा करने का वास्तविक कारण 1839 का भुला दिया गया वह लंदन समझौता था जिसने ब्रिटेन को मजबूर किया कि वह बैल्जियम की निरपेक्षता की रक्षा करें (1914 में जर्मनी ने इस समझौते को कागज का एक रद्दी टुकड़ा घोषित किया और ब्रिटेन से इसे अनदेखा करने को कहा)।
1912 में ब्रिटेन और फ्रांस ने एक सैन्य समझौते पर भी हस्ताक्षर किये जिसे आंग्ल-फ्रांस नौसेन्य समझौता कहा जाता है; जिसमें जर्मन आक्रमण की स्थिति में ब्रिटेन ने यह वादा किया कि वह फ्रांस की तटीय सीमा की सुरक्षा करेगा और फ्रांस सुएज़ नहर की रक्षा करेगा। मुख्य महाद्वीपीय शक्तियों के बीच हुए यह प्रमुख समझौते थे।
युद्ध एक वैश्विक घटना थी जिसमें 32 देश शामिल थे। इनमें से 28 देशों ने मिलकर मित्र शक्ति नामक गठबंधन बनाया था जिसके प्रमुख घटक ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, रूस, सर्बिया और अमेरिका थे। इनका विरोध केंद्रीय शक्तियों ऑस्ट्रिया-हंगरी, बुल्गेरिया, जर्मनी और ऑटोमन साम्राज्य ने किया।
2.3 फर्डिनांड की हत्या
28 जून 1914 को आस्ट्रिया के आर्क-ड्यूक फ्रेंच फर्डिनांड उनकी पत्नी के साथ बोसनिया-हर्जेगोविना के शहर सरायेवो के अधिकारिक दौरे पर थे। यह शहर आस्ट्रिया-हंगरी के एक सर्ब-बहुल प्रांत में था। यात्रा के दौरान सर्बिया के आतंकवादी, जो अपने राज्य की स्वतंत्रता चाहते थे, ने आर्क-ड्यूक को दो बार जान से मारने की कोशिश की। पहले प्रयास में, उसके शहर में आते ही आतंकवादियों ने उसकी कार के पास बम फेंकें। किंतु बम उछल कर दूर गिर गया और इसमें किसी की भी न तो जान गई और न ही कोई घायल हुआ।
बाद में उसी दिन आर्कड्यूक बम हमले में घायल एक अधिकारी से मिलने अस्पताल गए तो उसके कार ड्रईवर ने गाड़ी को रास्ते एक ऐसी गली में मोड़ लिया जहां 19 वर्ष गेवरिलो प्रिंसीप नामक एक बोसनियाई सर्ब आतंकवादी जो सुबह के हमले में शामिल था, तैयार खड़ा था। अवसर मिलते ही प्रिंसीप ने कार की खिड़की से आर्कड्यूक और उसकी पत्नी दोनों पर ही गोली चला दी। दोनों की मौके पर ही मृत्यु हो गई।
आर्कड्यूक की हत्या का पूरे मध्य यूरोप पर एक ज्वलंत प्रभाव पड़ा। आस्ट्रिया-हंगरी और सर्बिया के बीच वर्षों से चले आ रहा सीमा विवाद भारी तनाव में बदल गया। बहुत कम प्रमाणों के बावजूद आस्ट्रिया-हंगरी ने इस हत्या के लिए सर्बिया की सरकार को जिम्मेदार ठहराया। इसके साथ-साथ आस्ट्रिया-हंगरी ने बोसनिया हर्जेगोविना में सर्ब जाति को भड़काने का आरोप भी सर्बिया पर लगाया।
3.0 पहला चरण
3.1 शत्रुता का प्रारंभ
इस हत्या ने प्रतिक्रियाओं की एक श्रृंख्ला की शुरूआत कर दी जिसमें मित्र देश और बाल्कन प्रदेश नियंत्रण से बाहर हो गये। हत्या के बाद होने वाली घटनायें निम्नानुसार हैंः
5 जुलाई आस्ट्रिया के अनुरोध पर जर्मनी ने उसकी यह शर्त मान ली की यदि रूस युद्ध में शामिल होता है तो जर्मनी आस्ट्रिया-हंगरी को बिना शर्त समर्थन देगा। इसे जर्मनी के द्वारा दिया जाने वाला ‘ब्लैंक चैक‘ कहा जाता है।
23 जुलाई आस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध चेतावना जारी की।
25 जुलाई सर्बिया ने चेतावनी की प्रतिक्रिया दी; सर्बिया में ऑस्ट्रिया के राजदूत ने तत्काल बेलग्रेड छोड़ दिया और फ्रांस ने युद्ध की स्थिति में रूस को समर्थन देने का वादा किया।
28 जुलाई आस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
30 जुलाई रूस ने सेनाओं को मोर्चे पर जाने के आदेश दिये।
1 अगस्त जर्मनी ने रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। फ्रांस और जर्मनी ने भी सेनाओं को मोर्चे पर लगाया।
3 अगस्त जर्मनी ने फ्रांस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करी।
4 अगस्त ब्रिटेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की।
3.2 युद्ध की प्रगति
दूसरी महत्वपूर्ण शक्तियों ने जुड़ने होने में समय लिया। इटली, जो कि कूटनीतिक रूप से 1882 से ही त्रिगुट गठबंधन में जर्मनी और आस्ट्रिया-हंगरी से जुड़ा हुआ था, ने 3 अगस्त को अपनी निरपेक्षता घोषित की। आने वाले महीनों मे फ्रांस और ब्रिटेन ने इसे उत्साहपूर्ण रूप से मनाने की कोशिश की। 23 मई 1915 को इटली सरकार मित्र देशों के लालच में आ गई और उसने अपनी सीमाओं को बढ़ाने के लिए ऑस्ट्रिया-हंगरी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। बुल्गेरिया ने 7 ऑक्टोबर 1915 को सर्बिया पर आक्रमण किया। इस्ताम्बूल का रास्ता केंद्रीय शक्तियों के लिए खुल गया। रोमानिया, जो कि प्रारंभ मे इस बात को लेकर दुविधा में था कि किस पक्ष का समर्थन किया जाये, ने अंततः अगस्त 1916 में मित्र देशों को चुना। वह रूस की सफलता से उत्साहित था। वास्तव में यह एक घातक निर्णय रहा क्योंकि जर्मनी की प्रतिक्रिया तीव्र और निर्णायक रही। रोमानिया को दो जर्मन आक्रमणों ने पूरी तरह रौंद दिया और अगले दो वर्षों तक इसके द्वारा गेहूं और तेल की आपूर्ति ने जर्मनी को युद्ध में बनाये रखा। रोमानिया भी रूस की तरह हारने वाला मित्र राष्ट्र बना।
हालांकि यह ब्रिटेन की आक्रामकता थी जिसने इस यूरोपीय युद्ध को विश्व युद्ध में तब्दील कर दिया।
ब्रिटेन विश्व की सबसे महान उपनिवेशिक शक्ति था। ब्रिटेन के विश्वव्यापी व्यापार थे और इसलिए विश्वव्यापी दुविधाए भी। उसके पूरे विश्व में मित्र थे। जर्मनी ने स्वयं को न केवल ब्रिटेन के साथ युद्ध में उलझा पाया किंतु साथ ही ब्रिटेन के अधिराज्यों आस्ट्रेलिया, कनाड़ा, न्यूजीलैण्ड़ और दक्षिण अफ्रीका तथा ब्रिटेन के सबसे बड़े उपनिवेशिक राज्य भारत से भी युद्ध प्रारंभ हो गया। भारत की सुरक्षा की चिंता ने ब्रिटेन को नवंबर 1914 में ऑटोमन सामा्रज्य के विरुद्ध युद्ध प्रारंभ करने में मदद की जिसका परिणाम मध्य-पूर्व में एक बड़े युद्ध के रूप में घटित हुआ। ब्रिटेन ने ही अमेरिका का इस युद्ध में प्रवेश संभव कराया। 6 अप्रैल 1917 को अमेरिका द्वारा जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा न केवल अमेरीकी इतिहास बल्कि यूरोप और विश्व के इतिहास में भी एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जिसने पूरे विश्व में यूरोपीय प्रभाव को समाप्त कर आने वाले समय को ‘अमेरिकी शताब्दी‘ के रूप में बदल दिया।
भौगोलिक रूप से देखने पर प्रतीत होता है कि यह कोई एकल युद्ध नहीं था बल्कि कई युद्ध इसमें शामिल थे। पश्चिमी मोर्चे पर फ्रांस और बेल्जियम में, फ्रांसीसी और उनकी ब्रिटिश मित्र सेनायें 1917 के बाद से ही अमेरीका की मदद से जर्मनी के विरुद्ध एक भयानक युद्ध में उलझी हुई थीं। यहां युद्ध को जटिल भूमिगत प्रणाली और किलेबंदी के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। घने तारों की फैंसिंग, भारी बमबारी, आधुनिक मशीन गनों से गोलीबारी और भारी हथियारों के प्रयोग ने सैनिकों के आवागमन को असंभव कर दिया था। इस क्षे़त्र में युद्ध में सर्वाधिक मौतें हुईं।
युद्ध का पहला चरण पश्चिम में नवंबर 1914 तक चला। इसमें जर्मनी ने फ्रांस को हराने का प्रयास किया। उसने फ्रांसीसी सेनाओं को बाइंर् और से घेरने का प्रयास किया जिसमें उसे प्रारंभिक सफलता मिली। जर्मन सेनाओं का बेल्जियम और उत्तरी फ्रांस की तरफ से बढ़ना एक नाटकीय घटनाक्रम था। फ्रांस ने लोराईन में आक्रामक प्रतिक्रिया दी जिसमें वह अचानक राष्ट्रीय हार के निकट पहुंच गया। फ्रांस को केवल उसके लौह पुरूष कमाण्डर-इन-चीफ जनरल जे.जे.सी. ज्योफरी ने बचाया जो न केवल बुद्धिमान था बल्कि उसके पास वह चारित्रिक शक्ति थी की वह स्वंय की योजनाओं को और आदेशों को बर्बाद होते देखने पर भी जीत के लिये रास्ता बना सका। और दाहिनी ओर से जर्मनी पर प्रतिआक्रमण कर सका जिसे ‘मार्ने का चमत्कार‘ कहा जाता है। यहां जर्मन सेनाओं को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा। उनके अंतिम प्रयास को फ्रांसीसी और ब्रिटिश सेनाओं ने एक छोटे फ्लेमिश के व्यापारिक शहर वायप्रस में नवंबर 1914 में समाप्त कर दिया। 1914 के क्रिसमस तक युद्ध बैल्जियम के तट से स्विटज़रलैण्ड तक फैल गया।
यद्यपि 1914 की घटनाओं का परिणाम जर्मनी की जीत के रूप में नही हुआ, तो भी जर्मनी इससे मजबूत स्थिति में आ गया। जर्मन सेनायें रणनीतिक रूप से आगे थीं। वे किसी भी स्थिति से पीछे हटकर युद्ध में उसका फायदा लेने की स्थिति में थी तथा उनके साथ जर्मन सैन्य इंजीनियरिंग विभाग की दक्षता भी थी। फ्रांस को बहुत भारी मात्रा में नुकसान उठाना पड़ा। केवल 1914 में ही फ्रांसीसी सेनाओं का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा मारा गया था, जिसमें लगभग 10वां हिस्सा तो केवल अधिकारियों का था। जर्मन सेनाओं ने उत्तरी फ्रांस का बड़ा हिस्सा जीत लिया था जिसमें फ्रांसीसी औद्योगिक और खनिज संपदा भी शामिल थी।
3.3 द्वितीय चरण
युद्ध का द्वितीय चरण नवंबर 1914 से प्रारंभ होकर मार्च 1918 तक चला। इसमें फ्रांस और उसके ब्रिटिश सहयोगी सेनाओं ने असफल प्रयास किया कि वे जर्मनी को फ्रांस और बैल्जियम की सीमाओं से बाहर खदेड़ दें। इस दौर में जर्मनी मुख्य तौर पर रक्षात्मक मुद्रा में रहा किंतु 22 अप्रैल से 25 मई 1915 तक के वाइप्रस के द्वितीय युद्ध में उन्होंने अपना आक्रामक रूप भी बताया और विशेषकर 21 फरवरी से 18 दिसंबर 1916 के दौरान हुये वर्डुन युद्ध में भी उन्होनें शत्रुओं की योजना को नष्ट करने की अपनी भयानक क्षमता का परिचय दिया।
फ्रांस ने जर्मन सीमा रेखा पर तीन बड़े आक्रमण किये; 1915 के बसंत में ऑरटाइस पर, 1915 की सर्दियों में शैंपेन पर और 1917 के बसंत में आईसीन पर। इन आक्रमणों की विशेषता यह थी कि इसमें लड़ाई की ती्रवता तो बहुत थी किंतु परिणाम शून्य रहा। केवल कुछ जमीन ही जीती गयी तथा रणनीतिक महत्व की किसी जगह को नहीं जीता गया। इसमें सैनिकों की मृत्यु भी बहुत ज्यादा हुई। आईसीन की लड़ाई या नैविल के आक्रमण की असफलता फ्रांसीसी सेनाओं के बीच एक बड़ी उदासी लेकर आई। 1917 तक फ्रांस कोई बड़ा कदम नहीं उठा सका।
ब्रिटेन कुछ ज्यादा अच्छी स्थिति में था। यद्यपि उसकी सेना ने जर्मन रेखा से दूर रहकर अपने आप को विद्रोह से बचा लिया था। 1 जुलाई से 19 नवंबर ’16 तक सोमे के युद्ध और 31 जुलाई से 12 नवंबर 1917 के वाइप्रस के तृतीय युद्ध के दौरान उन्होंने जर्मन सेनाओं को भारी क्षति पहुंचाई जिसकी उन्हें भी भारी कीमत चुकानी पड़ी कितु जर्मन सेना रेखायें बनी रहीं, और युद्ध का कोई अंत निकट दिखाई नहीं दे रहा था।
3.4 अंतिम चरण
पश्चिम में युद्ध का अंतिम चरण 21 मार्च से प्रारंभ होकर 11 नवंबर 1918 तक चला। इसमें जर्मनी ने अंतिम रूप से जीत हासिल करने की कोशिश की जिसमें उसे असफलता मिली। जर्मनी ने नये तथा जटिल सैन्य उपकरणों की सहायता लेकर आक्रमण किया जिसमें उसे सफलता भी मिली। सोमे की लड़ाई में ब्रिटेन की सेना की 5वीं कोर को भारी हार का सामना करना पड़ा किंतु एमाइंस के मोर्चें पर तथा बाद में उत्तर में वाइप्रस के मोर्चें पर वे डटी रहीं। उन्हें कोई बड़ी रणनीतिक हानि भी नहीं हुई। गर्मियों के मध्य तक उन्होनें जर्मन आक्रमण को तोड़ दिया। मित्र राष्ट्रां का प्रतिआक्रमण जुलाई में प्रारंभ हुआ एमीइन्स की लड़ाई में 8 अगस्त को ब्रिटिश सेना ने जर्मन सेना को बुरी तरह पराजित कर दिया। अब बचे हुये युद्ध में पश्चिम में जर्मनी को केवल पीछे हटना पड़ा।
3.5 अमेरीका का युद्ध में प्रवेश
अमेरीका ने युद्ध से लम्बे समय तक दूरी बनाये रखी। अमेरीका में युद्ध के प्रवेश के तीन प्रमुख कारण माने जाते हैं।
- मई 1915 में एक जर्मन पनडुब्बी ने ब्रिटिश पोत ल्यूसीटेनिया को डुबो दिया जिसमें 128 अमेरीकी नागरिक मारे गये।
- फरवरी 1917 को एक जर्मन यू-बोट ने अमेरीकी मालवाहक जहाज ह्यूसेटोनिक को डुबो दिया।
- 1 मार्च 1917 को झिमरमन टेलीग्राम (जिसमें यह प्रस्ताव था कि यदि अमेरिका युद्ध में शामिल होता है तो मेक्सिको जर्मनी का समर्थन करे) एक अमेरीकी समाचार पत्र के पहले पन्ने पर प्रकाश में आया और उसने अमेरीकी जनमत को युद्ध के लिये तैयार कर लिया।
2 अप्रैल को विलसन कांग्रेस के सम्मुख उपस्थित हुए और युद्ध की घोषणा का प्रस्ताव रखा। कांग्रेस ने कुछ ही दिनों में इस प्रस्ताव की प्रतिक्रिया दी और 6 अप्रैल 1917 को अमेरिका ने जर्मनी के विरुद्ध आधिकारिक रूप से युद्ध की घोषणा कर दी।
1917 की गर्मियों के दौरान अमेरीकी सिपाही एटलाण्टिक से पार, जनरल जॉन जे. पर्शींग के नेतृत्व में पहले ब्रिटेन और फिर फ्रांस पहुंचे। 4 जुलाई को पहली मर्तबा अमेरीकी सेनायें सार्वजनिक रूप से दिखाई दीं जब उन्होनें सामूहिक रूप से पेरिस की गलियों में माकि्र्वस द लफाइत, जो कि अमेरीकी स्वतंत्रता के युद्ध में अमेरीका के साथ लड़े थे, की समाधि की ओर मार्च पास्ट किया। यद्यपि 1918 की गर्मियों तक अमेरीकी नेताओं ने किसी बड़े सैन्य ऑपरेशन का विचार नहीं किया था, तो भी 1917 के अंत तक कुछ छोटी-मोटी झड़पें होती रहीं। 4 सितंबर को यूरोप में पहली बार जमीन पर अमेरीकी सैनिक आहत हुए जब जर्मनी हवाई हमले में 4 सैनिकों की मौत हो गई। अमेरीकी सेनाओं का पहला पूर्ण युद्ध 2-3 नवंबर 1917 को बैथलेमोण्ट, फ्रांस में हुआ जिसमें तीन सैनिक मारे गये जबकि 12 सैनिकों को युद्ध बंदी बना लिया।
3.5 रूस का युद्ध से निर्गमन
जर्मनी की शक्ति, ऑस्ट्रिया की कमजोरी और रूस की दृढ़ इच्छा-शक्ति पूर्व में युद्ध को आकार दे रही थी। युद्ध के प्रारंभ से ही जर्मन सैन्य शक्ति की सर्वोच्चता स्पष्ट थी। 1914 में 26-31 अगस्त की टैनिनबर्ग की लड़ाई और 5-15 सितंबर की मसुरीयन झील की लड़ाई में रूस को भारी पराजय का सामना करना पड़ा था। इन जीतों ने पूर्वी मोर्चें पर पूरे युद्ध के दौरान जर्मनी की सुरक्षा सुनिश्चित कर दी थी। 1916 की गर्मियों तक, इन लड़ाईयों ने फील्ड मार्शल पॉल वॉन हिड़नबर्ग और जनरल ऐरिक लड़नडॉर्फ, जो कि जर्मन युद्ध प्रयासों को मुख्य कर्ता-धर्ता थे, को देश में महानायकों के रूप में स्थापित कर दिया। सितंबर 1915 तक रूस को पौलेण्ड से बाहर खदेड़ दिया गया था। ऑस्ट्रो-जर्मनी की सेनाओं ने वॉरसा और रूस के सीमा क्षेत्रां से लगे प्रमुख शहर ईवानगोरोड़, कोवनों, नोवो-ज्योजीवस्क और ब्रेस्ट-लीटोवस्क को जीत लिया। रूस को इन हारों की भारी कीमत चुकानी पड़ी।
रूस की युद्ध की अवधारणाओं पर 1917 की अक्टूबर क्रांति और बोल्शेविक क्रांति का प्रभाव पड़ा जिन्होनें 14 मार्च 1918 की अपमानजनक ब्रेस्ट लिटॉक संधि को स्वीकार कर रूस को युद्ध से बाहर कर दिया। रूस के लिए यह कठिन होता जा रहा था कि वह फ्रांस-ब्रिटेन के गठबंधन पर विश्वास बनाये रखे। पूर्व में रूस के योगदान के बिना यह निश्चित था कि पश्चिम में जर्मनी को नहीं हराया जा सकता था। रूस की बिना किसी हिचक के अपनी पश्चिमी सहयोगियों को सहायता करने की इच्छा जून-सितंबर 1916 के ‘ब्रुसीलो आक्रमण‘ में सबसे ज्यादा स्पष्ट प्रतीत होती है, जिसका परिणाम बुकोविना और गैलिसीया के एक बड़े भू-भाग को जीतने के साथ-साथ 3,50,000 आस्ट्रियन युद्ध बंदी प्राप्त करना हुआ। किंतु इसकी कीमत रूस को चुकानी पड़ी जो कि अंततः घातक सिद्ध हुई।
26 नवंबर 1917 को बोल्शेविक सरकार ने सभी सीमाओं पर युद्ध रोकने का आह्वान किया और सभी पक्षों से अनुरोध किया कि वे शांति समझौते पर तत्काल हस्ताक्षर करें। फ्रांस और ब्रिटेन के द्वारा इस विचार को स्वीकार नहीं किया गया क्योंकि वे अभी जर्मन सेनाओं को अपनी जमीन से बाहर खदेड़ना चाहते थे। जब रूस को सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली तो उसने दूसरी मर्तबा आह्वान जारी किया जिसमें यह चेतावनी दी गई की यदि अब कोई भी प्रतिक्रिया नहीं मिलती है तो वह एकतरफा शांति समझौता कर लेगा। जब कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली तो मित्र राष्ट्रों को दरकिनार करते हुए रूस ने धुरी देशों के साथ कई गुप्त समझौते कर लिये।
कुछ दिनों की बातचीत के बाद 15 दिसंबर 1917 को युद्ध विराम की घोषणा कर दी गई। हालांकि किसी औपचारिक समझौते की घोषणा नहीं हो सकी। इसके लिए महीनों तक बातचीत जारी रही जिसमें रूस को अपने कई क्षेत्रों को खोना पड़ा। रूस को दक्षिणी रूस स्थित कोयला खदानों सहित फिनलैण्ड, पौलेण्ड़, लेटविया, लिथुआनिया, एस्टोनिया, युक्रेन, बेलारूस, बिसर्बिया और कॉकेसस क्षेत्रों सहित कई राज्य खोने पड़े।
युद्ध में रूस के 17 लाख सैनिक मारे गये और लगभग तीस लाख आम नागरिक भी काल-कलवित हो गये। इससे भी अधिक बड़ा नुकसान हुआ कि देश अराजकता की स्थिति में पहुंच गया क्योंकि अभी भी कई लोग बोल्शेविक शासन के खिलाफ थे। कुछ लोग अभी भी ज़ार (राजा) की वापसी चाहते थे; और कुछ लोग लोकतंत्र समर्थक थे और राज्यों में उन सरकारों की वापसी चाहते थे जिन्हें बोल्शेविक लोगों ने उखाड़ फेंका था। अंततः रूस प्रथम विश्व युद्ध से बाहर हो गया तो भी देश मे जो गृह युद्ध प्रारंभ हो गया था उसकी कीमत देश की जनता को प्रथम विश्व युद्ध से भी ज्यादा चुकानी पड़ी।
4.0 अंत
पूर्वी मोर्चे पर नयी सेना के आने के साथ ही, पश्चिमी सीमाओं पर युद्ध प्रारंभ होने के बाद पहली मर्तबा जर्मनी चैन के साथ खड़ा था। इतना ही नहीं जर्मनी सहित लगभग सारे पक्ष थक चुके थे। उनकी शक्तियां सीमित थीं, और अमेरीका से आने वाले नये सैनिक भी उन्हें साथ देने को तैयार थे। यदि जर्मनी किसी भी तरह भी युद्ध जीत सकता तो केवल यही सही समय था।
इसलिए जर्मनी ने अपनी सारी सैन्य शक्तियों को इकट्ठा कर 21 मार्च 1918 को पूरी ताकत के साथ आक्रमण प्रारंभ किया। इसका लक्ष्य सोमे नदी को पार कर पेरिस की ओर बढ़ना था। प्रथम विश्व युद्ध की अन्य लड़ाई की तरह यह लड़ाई भी भारी गोलीबारी से प्रारंभ हुई। यहां पर लड़ाई 5 घण्टे चली जिसमें भारी मात्रा में जहरीली गैसों के साथ-साथ विस्फोटक हथियारों का भी उपयोग किया गया। जब भारी कोहरे और जहरीली गैस के धुएं के बीच जर्मन सैनिक आगे बढ़ रहे थे तब सामने देखने की मानवीय क्षमता लगभग शून्य हो गई थी और लगभग दोनों पक्षों के सैनिक अपने साथियों और दुश्मनों को पहचानने में अक्षम सिद्ध हो रहे थे। दोपहर तक कोहरा हट गया और इसके स्थान पर एक भयानक हवाई हमला प्रारंभ हो गया। जर्मन सैनिक निर्दयतापूर्वक दुश्मन सैनिकों पर टूट पड़े।
जर्मन सैनिकों की यह गति अगले 5 दिनों तक जब तक जारी रही, जब तक कि ब्रिटिश सैनिकों ने 30 मार्च को मोरेल के जंगलों में जर्मन सेना को नहीं रोका। मित्र देशों ने जर्मन सेना को कुछ दिनों के लिए पीछे धकेल दिया जब तक कि लीस की लड़ाई प्रारंभ नहीं हुई। इसकी श्ुरूआत 9 अप्रैल 1918 को हुई। लीस के मैदान में ब्रिटेन और फ्रांस के सैनिकों की हार होने लगी और जर्मन सैनिको ने पूनः पास्चेनडेल और मेसाईन के क्षेत्रों को जीत लिया जिन्हें मित्र देशों ने पिछले वर्षां में कठिन लड़ाईयों के बाद जीता था।
ऐसा लगता था, की अब केवल अमेरीका ही संतुलन ला सकता है किंतु अमेरीका की युद्ध में सक्रिय भागीदारी की घोषणा के वर्ष बाद तक कोई बड़ा परिणाम नहीं निकला था। यद्यपि अमेरीका के हजारों सैनिक यूरोप के लिए भेजे जाते तो भी उनमें से केवल कुछ ही वास्तविक युद्ध में हिस्सेदारी कर रहे थे।
दो मई 1918 को हुई मित्र देशों की सुप्रीम वॉर काउंसिल की सभा के दौरान अमेरीकी सेनाओं के यूरोप में सैन्य कमाण्डर जनरल जॉन जे. पर्शिंग इस समझौते पर तैयार हुये कि 130,000 सैनिक इसी माह और लाखों सैनिक आने वाले महीनों में फ्रांस और ब्रिटेन के साथ विभिन्न मोर्चो पर तैनात होंगे। इस वादे का सीधा मतलब यह था कि लगभग एक तिहाई अमेरीकन सैनिक यूरोप में आने वाली गर्मियों में लड़ाई में उपस्थित रहेंगे। अमेरीकी नेताओं का अनुमान यह था कि 1919 के बंसत तक बाकी सैनिकों की ज़रूरत नहीं होगी।
4.1 पूर्व में अशांति
यद्यपि रूस पूरी तरह से युद्ध से बाहर था तो भी पूर्वी सीमा क्षेत्रों पर बहुत सारा कार्य समाप्त होना बाकी था। 7 मई 1918 को रोमानिया ने केन्द्रीय शक्तियों के साथ एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये जिसमें डैन्यूब नदी का नियंत्रण काला सागर के तटवर्ती इलाके केन्द्रीय शक्तियों को दे दिये। उसी समय जर्मन सेनायें दक्षिण रूस के यूक्रेन और कॉकेसस क्षेत्र से होते हुए दक्षिण पूर्व की ओर आगे बढ़ी। बोल्शेविक सरकार का अभी भी इन क्षेत्रों पर प्रभावी नियंत्रण नहीं था इसलिए जर्मन सेनायें बिना किसी बाधा के आगे बड़ रही थी।
12 मई को जर्मनी और ऑस्ट्रिया-हंगरी ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किये जिसके अनुसार यूक्रेन से होने वाले आर्थिक लाभों को उन्होनें आपस में साझा कर लिया। बमुश्किल एक सप्ताह बाद ही ऑस्ट्रिया-हंगरी को अपनी सेना के भीतर राष्ट्रवादी तत्वों के विद्रोह का सामना करना पड़ा। पहले विद्रोह में स्लोवेनिस समूह शामिल था; इसे जैसे ही कुचला गया वैसे ही सर्ब रूथेतीयन और चैक्स ने विद्रोह कर दिया।
4.2 केन्टींग्नी की लड़ाई; अमेरीका की पहली जीत
मई 1918 के अंत तक कुछ हजार अमेरीकी सैनिक लड़ाई के लिए युद्ध के मोर्च पर तैयार थे और वे जर्मन आक्रमण का सामना करने के लिए समय का इंतजार कर रहे थे। सोमे नदी के किनारे केन्टींग्नी नामक जगह पर अमेरीकी सेनायें युद्ध के लिए तैयार खड़ी थी। यहां 4 हजार अमेरीकी सैनिकों ने 28 मई को जर्मन सेनाओं पर आक्रमण किया जिनका साथ भारी टैंकों और हवाई हमलों के साथ फ्रांस ने भी दिया। उन्होनें सफलता पूर्वक केन्टींग्नी शहर को आजाद कराया और आने वाले तीन दिनों तक जर्मन प्रतिआक्रमण का सामना करते रहे। इस युद्ध के दौरान लगभग 1 हजार अमेरीकी सैनिक मारे गये।
4.3 मित्र देशों का प्रति-आक्रमण
1918 की जून और जुलाई के दौरान जर्मनी ने कई सारे आक्रमण किये जिसमें वो फ्रांस में स्थित मित्र देशों की रक्षा पंक्ति को भेदना चाहता था। इन रक्षा पंक्तियों में अब अमेरीकी सैनिक भी शामिल थे।
3 जून को चैट्यू-थायरी पर जर्मन आक्रमण को मित्र देशों के द्वारा बुद्धिमतापूर्ण तरीके से रोक लिया गया जिसमें उन्हें जर्मन युद्ध बंदी भी मिले। जर्मन योजनाओं को पहले से ही जानकर फ्रांसीसी सेनाओं ने एक छद्म रक्षा पंक्ति तैयार की जिसमें जमीन में बड़ी-बड़ी खाईयां खोदी गई थी। जर्मन सेनायें इन बड़े गड्ढ़ों में बुरी तरह उलझ गई जो कि वास्तव में खाली थे और जबकि जर्मन सैनिक आगे बढ़ रहे थे तो उनका सामना मित्र देशों के नये सैनिकों से हुआ जिन्होनें उन पर बहुत भारी मात्रा में गोली बारी की जिससे जर्मन सेना बिखर गई। इसके बाद भी जर्मनी ने अगले दो दिनों तक आक्रमण जारी रखा और पुनः पेरिस को जीतने का भय दिखाने लगे।
फ्रांस, ब्रिटेन, इटली और अमेरीका ने संयुक्त रूप से 6 जून को प्रतिआक्रमण किया। यह आक्रमण इतना भयानक था कि 20 दिनों में 30 हजार जर्मन सैनिक मारे गये। यद्यपि युद्ध आने वाले कई सप्ताह तक जारी रहा। किंतु जर्मन लोगों की लड़ाई जारी रखने की इच्छाशक्ति बिखर चुकी थी और कैसर विलहेम द्वितीय यह जानता था कि अंत निकट है। जर्मन सेनायें प्रतिदिन लड़ाई हार रहीं थीं और मित्र देशों ने प्रत्येक देशों के साथ आक्रमणों को और तीखा कर दिया था। पूरे अगस्त और सितम्बर के महीने में वे जर्मन सैनिकों को पीछे धकेलते रहे।
4.4 तुर्की का पीछे हटना
इसी दौरान निकट पूर्व में ऑटोमन साम्राज्य की किस्मत बदल चुकी थी उस वक्त के सापेक्ष जब गैलीपोली और मैसोपोटोमिया की लड़ाईयों में ब्रिटेन हारा था। तब के बाद ब्रिटेन ने बगदाद और मैसोपोटेमिया पर कब्जा कर लिया था। सुदूर दक्षिण में, अरब प्रायद्वीप में, रेगिस्तानी जनजातियों के द्वारा हुये विद्रोह ने इस क्षेत्र में तुर्की की मजबुत पकड़ को कमज़ोर कर दिया था।
दिसंबर 1917 में ब्रिटेन ने फिलिस्तीन के येरूशलम शहर पर कब्जा कर लिया और धीरे-धीरे तुर्की की और आगे बढ़ने लगा। अंततः 19 सितंबर 1918 को ब्रिटेन ने तुर्की के मेगीड़ो शहर पर सीधा आक्रमण कर दिया और इसमें उसे एक बड़ी जीत हासिल हुई जिसने तुर्की को पूरी तरह से पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। अक्टूबर के मध्य तक तुर्की शांति समझौते की मांग करने लगा।
4.5 युद्ध का अंतिम चरण
1918 के बंसत तक दोनों ही तरफ की सेनायें वर्षों से चले आ रहे युद्ध से थक चुकी थीं और युद्ध समाप्ति के कोई आसार भी दिखाई नहीं दे रहे थे। जबकि गर्मियों में शांति समझौते की कुछ उम्मीदें जागी थीं तब राजनीतिक और सैन्य नेता सक्रियता से सैन्य ऑपरेशन की तैयारी कर रहे थे।
रूस के युद्ध से अचानक बाहर हो जाने के कारण जर्मनी को जीत की नई उम्मीदें जागी थीं, व उसी प्रकार की आशा अमेरीकी सैनिकों के आ जाने के कारण फ्रांस और ब्रिटेन की भी थी। यद्यपि इससे घटनाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अपेक्षाकृत इससे तो सैन्य संतुलन बन गया एवं आने वाले दिनों में भारी तबाही की तैयारी की दी। अंततः युद्ध की समाप्ति का वास्तविक बटन तो आस्ट्रिया-हंगरी और जर्मनी में होने वाले जन-विद्रोहों ने दबाया।5.0 महाविनाश
5.1 ऑस्ट्रिया-हंगरी का टूटना
27 अक्टूबर 1918 को ऑस्ट्रिया ने स्वतंत्र रूप से मित्र देशों की ओर शांति समझौते के लिए हाथ बढ़ाया तथा अपनी सेना को आदेश दिया की वह उसी दिन से पीछे हट जाये। 29 अंक्टूबर को सर्ब, क्रोएटस् और स्लोवेन्स ने दक्षिणी स्लेविक राज्य जिसे युगोस्लाविया कहा गया, के गठन की घोषणा की। 30 अक्टूबर को ऑस्ट्रिया का एक प्रतिनिधी मण्डल इटली पहुंचा जिसने बिना किसी शर्त आत्मसमर्पण बात कही। उसी दिन हंगरी ने औपचारिक रूप से स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। 3 नवंबर को ऑस्ट्रिया के सामने युद्ध विराम की सारी शर्तें रखी गईं और दूसरे ही दिन ऑस्ट्रिया-हंगरी औपचारिक रूप से अलग हो गये।
5.2 ऑटोमन साम्राज्य का विभाजन
14 अक्टूबर 1918 को ऑटोमन साम्राज्य के सुल्तान मेहमद टप् जिसे पिछले वर्षों के युद्ध के दौरान अपने कई क्षेत्रों को खोना पड़ा था, ने ब्रिटेन के समक्ष शांति प्रस्ताव रखा। 30 अक्टूबर को एक युद्ध विराम समझौते पर हस्ताक्षर किये गये। इसकी एक प्रमुख शर्त यह थी की डार्डनेल्स नहर को तत्काल ही मित्र देशों के जहाजों के लिए खोल दिया जायेगा। आने वाले महीनों मे ऑटोमन साम्राज्य के अधिकांश हिस्से को मित्र सेनाओं की अध्यक्षता में पुनः संयोजित किया जायेगा और परिणाम स्वरूप कई स्वतंत्र देशां का गठन हुआ।
5.3 जर्मनी का विभाजन
नवंबर 1918 के प्रारंभिक दिनों में जर्मनी में अराजकता और अस्थायित्व के कारण परिस्थितियां बदतर हो गईं। युवराज मैक्स वॉन युद्ध विराम के लिये पंसदीदा जर्मन शर्तें मनवाने में अप्रभावी सिद्ध हुआ और सेना में अंसतोष बढ़ने लगा। विशेषकर नौसेना में तथा जगह-जगह विद्रोह होने लगे। कैसर विलियम द्वितीय जो अब तक बैल्जियन के शहर स्पा में छुपा हुआ था, ने स्वंय को आत्मसममर्पण करने के दबाव में पाया जिसे उसने दृढ़ता पूर्वक नकार दिया।
7 नवंबर को मैक्स ने एक जर्मन प्रतिनिधिमण्डल को ट्रेन से कोम्पेन नामक गुप्त स्थान पर फ्रांस भेजा जहां उन्हें युद्ध विराम के लिए समझौता करना था। प्रतिनिधि मण्डल 9 नवंबर की सुबह पहुंचा और शीध्र ही वार्ता प्रारंभ हुई। उसी दिन प्रिंस मैक्स ने घोषणा की की विलहेम द्वितीय को जर्मन सिंहासन से अलग किया जाता है। पिं्रस मैक्स ने स्वंय वामपक्षी समूहों से समझौता करते हुए जर्मन सोवियत रिपब्लिक और जर्मन सोशलिस्ट रिपब्लिक बनाने की घोषणा कर दी, यद्यपि इन्हें वास्तव में अस्तित्व में नहीं आना था।
5.4 युद्ध-विराम समझौता
अंततः 11 नवंबर को सुबह 5 बजकर 10 मिनट पर जर्मनी के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये गये। उसी दिन आधिकारिक रूप से 11 बजे दुश्मनी समाप्त हो गई। इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध का अंत 1918 के ग्यारहवे महीने के ग्यारहवे दिन के ग्यारहवे घंटे पर माना जाता है। हालांकि औपचारिक शांति संधि का अंतिम प्रारूप बनने में अभी सात माह और बाकी थे।
5.5 वर्सेल्स् की संधि
प्रथम विश्व युद्ध के शुरूआत की तरह ही इसका अंत भी जटिल रणनीतिक वार्ताओं के रूप में हुआ। इसमें महीनों लग गये किंतु जर्मनी के वर्तमान और भविष्य के अस्तित्व को परिभाषित करने वाली संधि पर 28 जून 1919 को हस्ताक्षर किये गये।
जर्मनी के लिए यह एक पूर्ण रूप से अपमानजनक दिन था। देश को अल्साचे-लोराइन और पौलेण्ड़ सहित कई क्षेत्रों का नुकसान उठाना पड़ा। अब जर्मनी केवल राइनलैंड़ के सीमा क्षेत्र में सीमित रह गया था और इसके सैन्यकरण पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था। जर्मनी को भारी भरकम युद्ध मुआवजा देने के लिए भी तैयार होना पड़ा जिसे भरने में वास्तव में आधी शताब्दी की जरूरत थी। जर्मनी को सम्पूर्ण युद्ध की पूरी जिम्मेदारी लेने के लिए सार्वजनिक रूप से बाध्य किया गया। वास्तव में यह कई जर्मनवासियों के लिए कड़वी दवाई निगलने के समान था तथा कई अर्थों में यह एक वास्तव में यह एक खुलेआम बोला गया झूठ था।
5.6 युद्ध की विरासत
प्रथम विश्व युद्ध की शुरूआत शड़यंत्रपूर्वक की गई एक हत्या, कूटनीतिक षड़यंत्र और दूसरे पक्षों के बारे में अतिआत्मविश्वास में लगाये गये अंदाजों से हुई थी। समकालीन ब्योरों से ज्ञात होता है कि हवाओं में यह रोमांच भी था कि कुछ लोगों ने युद्ध को ऐसे अवसर के रूप में देखा कि जब नवीनतम तकनीकों का विकास सामान्य हालतों की तुलना में ज्यादा हो सके। 5 दुखद वर्षों के बाद युद्ध की वास्तविकता की व्याख्या कुछ भिन्न थीः कई लाख लोग मारे गये, पूरे के पूरे देश बर्बाद हो गये और कई अर्थव्यवस्थाऐं समाप्त हो गईं। लाखों की संख्या में सैनिक झोंक दिये गये थे, उनमें से कई तो सुदूर उपनिवेशों से लाये गये थे और उनमें से कई को तो यह भी नहीं पता था की वे किस चीज के लिए लड़ रहे हैं।
वर्सेल्स् की संधि ने इन समस्याओं को सुलझाने के बजाय जर्मनी पर कठोर शर्ते सौंप दीं, और इसे इस बात पर मजबुर भी किया कि वह एक देश के रूप में युद्ध की सम्पूर्ण आर्थिक, राजनीतिक और कूटनीतिक जिम्मेदारी वहन करे। इसके पूर्व हुये सभी युरोपीयन युद्धों में हुये शांति समझौतों में प्रत्येक पक्ष कुछ नुकसान सहन करता था, कुछ दावे करता था, हाथ मिलाये जाते थे और बात आगे चलती थी। प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मन निवासियां को अपमानित किया गया, आर्थिक नुकसान किया गया साथ ही उन्हें शर्म के अतिरिक्त आशारहित शून्य में छोड़ दिया गया। आंतरिक रूप से जर्मनी एक शोर भरी जगह बन गया जो किसी प्रकार की हिंसक क्रांति के लिए एक उपयुक्त स्थान हो सकता था और इन परिथितियों का लाभ वामपंथी के साथ नाज़ी पार्टी जैसे दक्षिणपंथी तत्वों ने भी उठाया। वास्तव में यह सिद्ध होने में कुछ ही दशक लगे कि मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी को सज़ा देने में सीमायें लांघ दीं और उनके अन्याय के कारण ही ऐसी परिस्थितियां तैयार हो गईं जिसनें यूरोप को और ज्यादा भयानक युद्ध में झोंक दिया।
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