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रूसी क्रांति
1.0 प्रस्तावना
रूसी क्रांति, उन सभी क्रांतियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयुक्त किये जाने वाला पद है जो 1917 में रूस में घटित हुई थीं, और जिनके कारण रूस से सम्राट (ज़ार) की तानाशाही समाप्त हुई और एक नये राष्ट्र - सोवियत यूनियन - का उदय हुआ। फरवरी 1917 (रूस के जूलियन कैलेण्डर के अनुसार, जबकि ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार मार्च) की पहली क्रांति के द्वारा ज़ार को अपदस्थ कर दिया गया और उसके स्थान पर एक अस्थायी सरकार गठित की गई। अक्टूबर 1917 में घटित द्वितीय क्रांति के दौरान अस्थायी सरकार को भी हटा दिया गया और उसके स्थान पर बोल्शेविक (कम्युनिस्ट) सरकार की स्थापना की गई।
फरवरी क्रांति (मार्च 1917) पेटो्रग्राड (अब सेण्ट पीटर्सबर्ग) के आसपास केन्द्रित थी। अराजकता की स्थिति में, शाही संसद या ड्यूमा ने देश का नियंत्रण अपने हाथों में लिया और रूस में अस्थायी सरकार गठित की। सेना ने क्रांति को कुचलने में स्वयं को असहाय पाया और रूस के अंतिम ज़ार, निकोलस द्वितीय, को अपदस्थ कर दिया गया। सोवियत (मजदूर या श्रमिक परिषदें) जो कि ज्यादा आधारभूत समाजवादी नेताओं के प्रभाव में थे, ने प्रारंभिक रूप से तो अस्थायी सरकार को शासन करने की अनुमति दे दी, किंतु वे सरकार को प्रभावित करने और विभिन्न सशस्त्र बलों को नियंत्रित करने का अधिकार चाहते थे। फरवरी की क्रांति, प्रथम विश्व युद्ध (1914-1919) में रूस की सेना की भारी असफलता के कारण सफल हो सकी, जिसने सेना को अस्त-व्यस्त स्थिति में लाकर रख दिया था।
इस प्रकार, एक समय में देश में दो शक्तियां एक साथ शासन कर रही थीं, जिनमें से अस्थायी सरकार के पास ‘राज्य शक्तियां‘ थी, जबकि सोवियतों के राष्ट्रीय नेटवर्क, जो कि निम्नवर्ग और राजनीतिक रूप से समाजवादी लोगों के द्वारा संचालित था, के साथ जनता की वफादारी थी। इस अविध में अक्सर हड़तालें होती रहती थीं। जब अस्थायी सरकार ने जर्मनी के साथ युद्ध जारी रखने का विकल्प चुना, तो बोल्शेविक लोगों ने इसका भारी विरोध किया। उन्होंने युद्ध के प्रयास को परित्याग करने के लिए अभियान चलाया। बोल्शेविक लोगों ने रेड गार्ड (जिसे बाद में लाल सेना कहा गया) के नाम से अपने नियंत्रण में श्रमिकों की एक सेना तैयार की, जिसके उपर उनका नियंत्रण था।
अक्टूबर क्रांति (ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार नवबंर) के दौरान सेण्ट पीटर्सबर्ग में व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में मजदूरों की सोवियतों ने अस्थायी सरकार को उखाड़ फेंका। बोल्शेविक लोगों ने स्वयं को सरकार के विभिन्न मंत्रालयां का नेता घोषित किया और ग्रामीण क्षेत्रों तक को अपने नियंत्रण में ले लिया, और असंतोष को समाप्त करने के लिए चेका (गुप्त राजनीतिक पुलिस बल) की स्थापना की। युद्ध को समाप्त करने के लिए, बोल्शेविक नेतृत्व ने मार्च 1918 में जर्मनी के साथ ब्रेस्ट-लिटोव्स्क संधि पर हस्ताक्षर किये।
अंततः, ‘‘लाल‘‘ (बोल्शेविक) और ‘‘सफेद‘‘ (बोल्शेविक-विरोधी) समुहों के बीच गृह युद्ध शुरू हो गया, जो कई वर्षों तक चला, जिसे आखिर में बोल्शेविक लोगों ने जीत लिया। इस प्रकार, क्रांति ने यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक (यू.एस.एस.आर.) बनने का मार्ग प्रशस्त किया। इस बीच कई उल्लेखनीय एतिहासिक घटनाएं मॉस्को और सेण्ट पीटर्सबर्ग में घटित हुईं, पूरे राज्य के कई शहरों में बहुत सारे जनआंदोलन भी हुए, जिसमें पूरे साम्राज्य के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक भी शामिल हुए और ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों ने जमीनों के पुनर्वितरण का लाभ पाया। इस प्रकार यह एक विस्तृत पैमाने पर घटित हुई घटना थी जिसने पुरानी शासन प्रणाली को पूर्णतः नष्ट कर दिया था।
2.0 रूस की क्रांति के कारण
क्रांतियां एक रात में घटित नहीं होती हैं। वे दशकों या शताब्दियों तक उबाल लेती हैं। 19वीं शताब्दी के अंत तक और 20 शताब्दी के प्रारंभ में, रूस एक विस्तृत साम्राज्य था जो पौलेण्ड से प्रशांत महासागर तक फैला था, और 1914 में वहां 16.5 करोड़ लोग रहते थे जो भिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और धर्मों को मानने वाले थे। इतने बड़े साम्राज्य पर शासन करना वास्तव में कठिन था, और रूस में उत्पन्न हुई समस्याओं ने 1917 की क्रांति को जन्म दिया जिसने पुरानी व्यवस्था को उखाड़ फेंका। कुछ महत्वपूर्ण बिंदु जो क्रांति के दीर्घकालीन कारणों में से थे, की व्याख्या की जा सकती है, जबकि प्रथम विश्व युद्ध स्पष्ट तौर पर तात्कालिक कारणों मे से एक था।
2.1 किसानों की गरीबी
1916 में, रूस की तीन चौथाई जनसंख्या किसानों की थी, जो छोटे गांवों में रहते थे और खेती करते थे। सिद्धांततः 1861 में उनकी स्थिति में सुधार हो गया था, जब दास प्रथा समाप्त हो गई थी और किसानों को छोटी जमीन का मालिक बना दिया गया था। 1861 में दासों को मुक्त कर दिया गया और उन्हें जमीन के छोटे हिस्सों का मालिक बना दिया गया, किंतु उसके बदले उन्हें सरकार को एक धनराशि लौटानी थी, जिसका परिणाम यह हुआ कि बड़ी मात्रा में छोटे किसान कर्ज में डूब गये। मध्य रूस में कृषि की स्थिति बहुत खराब थी, वे पुरानी तकनीकों का इस्तेमाल कर रहे थे और सुधार की कोई आशा नहीं थी। पूरे क्षेत्र में असाक्षरता फैली हुई थी और निवेश के लिए कोई धन नही था।
लोगों का जीवन स्तर बहुत निम्न था, और गांवों के लगभग आधे परिवारों के एकाध सदस्यों ने शहरों में काम ढूंढने के खातिर गांवों से पलायन कर दिया था। जैसे ही मध्य रूस की जनसंख्या बढ़ने लगी, जमीन की कमी महसूस होने लगी। उनका जीवन स्तर सम्पन्न जमींदारों से बिल्कुल उलट था जिनके पास बड़े राज्यों में जमीन का 20 प्रतिषत हिस्सा था, और जिन्हें रूस के उच्चवर्ग का सदस्य कहा जाता था। रूसी साम्राज्य के पश्चिमी और दक्षिणी हिस्से की स्थिति थोड़ी सी भिन्न थी, जहां व्यवसायिक कृषि जमीनें थी और किसानों का स्तर कुछ ठीक था। कुल मिलाकर 1917 तक, असंतुष्ट किसानों के एक बड़े वर्ग का उदय हुआ, जो ऐसे लोगों के प्रति क्रोध से भरे थे, जो किसानों को नियंत्रित करने को आतुर थे व जो बिना कोई कार्य किये, जमीन से सबसे ज्यादा लाभ उठाते थे। सामान्य किसान गांव से बाहर हो रहे विकास के विरोधी थे, और वे सत्ता के सूत्र अपने हाथों में चाहते थे।
2.2 राजनीतिक और बढ़ता हुआ शहरी मजदूर वर्ग
रूस में औद्योगिक क्रांति की शुरूआत मुख्य रूप से 1890 के आसपास, लोहे के काम, फैक्ट्रियों की स्थापना और औद्योगिक समाज से जुड़े हुए अन्य कामों के साथ हुई। जहां तक विकास का सवाल था, यह न तो बहुत ज्याद प्रगत था और न ही शीघ्र जैसा कि ब्रिटेन जैसे छोटे देशों में हो रहा था। रूस के शहर फैलने शुरू हो गये थे और बड़ी संख्या में ग्रामीण किसान शहरों की ओर नई नौकरिया ढूंढने के लिए आ रहे थे। 19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में, लाखों लोग इन फैलते हुए और सघन बस्तियों वाले शहरों में बस चुके थे, और उन्हें गरीबी, आवास, बहुत कम मजदूरी और अपनी नौकरियों में अधिकारों की कमी जैसी जटिल समस्याएं हो रही थीं। सरकार बढ़ते हुए मध्यम वर्ग से डरी हुई थी, किंतु वह विदेशी निवेश के दूर हो जाने के भय से मजदूरों को बेहतर मजदूरी मिले, ऐसे किसी कानून को लाने से डर रही थी। शहरी कामगार वर्ग अक्सर किसानों से जुड़ा हुआ था क्योंकि ये कामगार किसानों के बीच से ही आये थे और गांव में इनकी जमीनें अभी भी थीं।
इन श्रमिकों ने शीघ्रतापूर्वक अपने आप को राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करना प्रारंभ कर दिया और और उनके विरोध कार्यक्रमों पर सरकारी प्रतिबंध, समाजवादी क्रांतिकारी विचारधारा वाले क्रांतिकारियों के लिए उपजाऊ स्थिति बन रही थी। ये क्रांतिकारी शहरों व निर्वासित साईबेरियाई जीवन के बीच झूलते रहते थे। ज़ार विरोधी विचारधारा को फैलने से रोकने की कोशिश के तौर पर सरकार ने कानूनी रूप से वैध, किंतु शक्तिहीन, ट्रेड यूनियनें बनवाईं जो कि प्रतिबंधित शक्तिशाली यूनियनों का स्थान ले सके। 1905 में और 1917 में, राजनीतिक रूप से शक्तिशाली समाजवादी श्रमिकों ने एक बड़ी भूमिका निभाई, यद्यपि ‘समाजवाद‘ नामक छत्र के तले बहुत सारे भिन्न-भिन्न विचारधारा वाले समूह काम कर रहे थे।
2.3 ज़ार की तानाशाही और प्रतिनिधित्व का अभाव
रूस का शासन एक सम्राट द्वारा किया जा रहा था जिसे ज़ार कहा जाता था, और पिछली तीन शताब्दियों से इस पद पर रोमानोव परिवार का एकाधिकार था। उन्होंने बिना किसी वास्तविक प्रतिनिधित्व के शासन किया। यहां तक कि 1905 में ड्यूमा, जो कि एक चुनी हुई संस्था थी, को भी ज़ार ने अपनी इच्छा के अनुसार पूर्णतः अनदेखा कर दिया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत सीमित थी, पुस्तकों और समाचार पत्रों पर सेंसर के नियम लागू थे, और एक गुप्त पुलिस ऐसे लोगों को पकड़ने के लिए तैयार रहती थी, व अक्सर उन्हें पकड़कर साइबेरिया के लिए निष्कासित कर दिया जाता था या मार डाला जाता था। इसका परिणाम यह हुआ कि लोकतंत्रवादी, गणतंत्रवादी, क्रांतिकारी, समाजवादी और अन्य बुद्धिजीवी समूह इस तानाशाही शासन के तले सुधारों के लिए तरस गये। इनमें से कुछ हिंसक परिवर्तन के पक्षधर थे तो कुछ अन्य शांतिपूर्ण परिवर्तन के, किंतु ज़ार का विरोध करने पर प्रतिबंध था, तो विरोधी बहुत विचलित हो गए।
ज़ार निकोलस द्वितीय पर शासन करने की इच्छा के अभाव का भी आरोप लगता है। फिग्स जैसे इतिहासकारों ने निष्कर्ष दिया है कि मामला यह नहीं था; समस्या यह थी कि निकोलस शासन करने के लिए तो दृढ़ इच्छुक था, लेकिन उसके पास तानाशाही शासन को संचालित करने के लिए विचारों या क्षमता का अभाव था। रूस का शासन जिस संकट का सामना कर रहा था उसके लिए निकोलस का उत्तर, उसके पिता के उत्तर के समान ही था। वे दोनों ही भूतगामी होकर, रूस को एक सुधारवादी और आधुनिक देश बनाने की अपेक्षा, सत्रहवीं शताब्दी की ओर देख रहे थे और मध्ययुगीन शासन प्रणाली लाने की कोशिश कर रहे थे। यहीं सबसे बड़ी समस्या थी और शायद असंतोष का स्रोत भी जिसने प्रत्यक्ष तौर पर क्रांति के बीज बोये। हमें महान क्रांतियों में साम्राज्यवाद के विरूद्ध इसी प्रकार की विचारधारा देखने को मिलती है, विशेषकर 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के दौरान।
19वीं शताब्दी के मध्य में एलेक्जेण्डर द्वितीय के नेतृत्व में रूस में सुधारवादी आंदोलन-विशेषकर पश्चिमीकरण-का एक सशक्त दौर चल रहा था, जिसमें सुधारों और यथास्थिति बनाए रखने को लेकर अभिजात्य वर्ग के मन में एक विभाजन था। जब 1881 में एलेक्जेण्डर द्वितीय की हत्या की गई, तब एक संविधान लिखा जा रहा था। उसके बेटे, और बाद में उसके भी बेटे ने (निकोलस द्वितीय), सुधारों के विरूद्ध काम किया और न केवल इन्हें रोक दिया बल्कि सुधारों के उलट एक केन्द्रीकृत, तानाशाहीपूर्ण सरकार बनाने की कोशिश की।
2.4 अप्रभावी सरकार
ज़ारशाही न केवल तानाशाहीपूर्ण थी, बल्कि यह सीधे शब्दों में कहें तो बहुत बुरी थी। रूस में उस समय ऐसी संस्थाएं थी जिनके कानून भ्रमित करने वाले थे; सरकारी निर्णय पूर्णतः स्वेच्छाचारी या संरक्षण पर आश्रित दिखाई देते थे। वास्तव में, फिग्स जैसे इतिहासकारों ने निष्कर्ष निकाला है कि रूस में कोई शासन था ही नहीं, व ग्रामीण किसान समूहों का शाही शासन से कोई सम्पर्क नहीं था, क्योंकि स्थानीय प्रशासन जैसी चीज थी ही नहीं। सरकार को जमींदारों के माध्यम से काम करना पड़ता था, जिनमें मुख्य तौर पर झेगस्टोव थे, किंतु किसानों की मुक्ति के बाद इन जमीदारों का भी पतन हुआ, और वे सरकार से सुधारों की मांग करने लगे। इस प्रकार, पुराने ज़ारवादी शासन प्रणाली के नींव के पत्थर भी जार के खिलाफ हो गये। इसके अतिरिक्त, सरकार को किसानों की समस्याओं को लेकर कोई समझ नहीं थी, और लाखों किसानों की सरकार में कोई भागेदारी नहीं थीः उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं थी कि 1917 की क्रांति में ज़ारशाही पूर्णतः साफ हो जायेगी।
2.5 विमुख सेना
पिछड़ी हुई रूसी सेना ने ऐसे सैनिक तैयार किये जिनके साथ आम नागरिकों से भी ज्यादा अमानवीय व्यवहार किया जाता था, अतः वे भी अपने लिए कुछ सम्मान और गरिमा तथा बेहतर जीवन परिस्थितियां चाहते थे। 1917 में बोल्शेविक लोगों ने सैनिकों को ये दोनों चीजें दी। इसके अतिरिक्त, आधुनिकीकरण के प्रश्न पर अधिकारी वर्ग भी ज़ार और उसके दरबार से अलग-थलग पड़ा हुआ था। अधिकारियों को लगने लगा था कि युद्ध बदल रहा है, किंतु सेना अभी भी पुराने मत पर अड़ी हुई थी। यह अधिकारी वर्ग किसी हल की उम्मीद के लिए ड्यूमा के सम्पर्क में था।
2.6 सिविल सोसायटी (नागरिक समाज) का राजनीतिकरण
1890 के अंत तक, रूस में एक ऐसे शिक्षित, राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्ग का उदय हो रहा था जो संख्या में तो बहुत बड़ा नहीं था जिसे मध्यमवर्ग कहा जा सके, किंतु यह वर्ग राजशाही और किसानों/कारिगरों के बीच का एक समूह था। यह समूह ‘सिविल सोसायटी‘ का एक हिस्सा था जो अपने युवा लोगों को छात्रों के रूप में लोगों के बीच भेजकर समाचार पत्रों का वाचन करवाता था, यह वर्ग आम जनता के प्रति ज्यादा झुकाव रखता था न कि ज़ार के प्रति। मोटे तौर पर उदारवादी इस समूह को, 1890 के दशक के भयंकर अकाल ने राजनीतिक और कट्टरपंथी बना दिया, जैसा कि उनके सामूहिक कार्यां में उन्हें समझ आ गया अब ज़ारशाही कितनी अप्रभावी है, और यदि वे एक होकर काम करें तो वे क्या लक्ष्य हासिल कर सकते हैं। झेम्स्टोव के सदस्य इनमें से अग्रणी थे। जैसे ही ज़ार ने उनकी मांगे मानने से इंकार किया, वैसे ही उनमें से कई लोग ज़ार और उसकी सरकार के विरूद्ध हो गये।
3.0 वे घटनाएं जिनके कारण अन्ततः रूसी क्रांति घटित हुई
3.1 रूस-जापान युद्ध में रूस की हार
रूस का 1904 में जापान से सामना हुआ जब जापान ने मंचूरिया और कोरिया में उससे प्रतियोगिता की। रूसी आशावादी थे, क्योंकि वे निश्चिंत थे कि उनके बड़ी संख्या के कारण वे छोटे से देश जापान को बड़ी आसानी से पराजित कर देंगे। किंतु ऐसा नहीं था। जापान, अपनी प्रगत तकनीक के कारण, रूस को जिसके सैनिकों के पास एशियाई देशों की तुलना में भी पुराने हथियार थे, बड़ी आसानी से हरा सका। रूस के लिए यह हार बहुत बड़ा अपमान था। लोगों ने ज़ार और सेना में विश्वास खो दिया। रूस, जिसे अपनी सेना की सर्वोच्चता पर गर्व था, को अचानक जापान जैसे छोटे से देश ने हरा दिया! लोगों को यह सब अजीब लग रहा था।
3.2 खूनी रविवार
22 जनवरी 1905, रविवार के दिन 2 लाख से ज्यादा मजदूर, चर्च के एक पादरी फॉदर गेपोन के नेतृत्व में, सेण्ट पीटर्सबर्ग में एक शांतिपूर्ण प्र्रदर्शन कर रहे थे। वे ज़ार को काम करने की बेहतर परिस्थितियां, चिकित्सा सुविधाएं और अधिक स्वतंत्रता के लिए एक ज्ञापन सौंपने विंटर पैलेस की ओर बढ़ रहे थे। वे यह भी चाहते थे कि उनके विचारों को प्रतिनिधित्व देने के लिए एक संसद, या ड्यूमा का गठन किया जाये। एक भ्रम में, निःषस्त्र प्रदर्शनकारियों पर, ज़ार के सैनिकों ने गोलियां चला दीं। इसके बाद कई विस्फोटक प्रदर्शन हुए। सैनिकों ने विद्रोह किया, किसान भी उठ खड़े हुए और मजदूरों ने हड़तालें की। सभी ज़ार से ड्यूमा स्थापित करने और अधिक स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे।
अक्टूबर के घोषणा पत्र में, ज़ार ने ड्यूमा की स्थापना की घोषणा की और भाषण देने की स्वतंत्रता भी जारी की। यह ज़ार का वास्तविक अवसर था जब वह लोगों के जीवन में सुधार ला सकता था और कार्य करने की परिस्थतियों के मानकों को उच्च बना सकता था। वह ड्यूमा की स्थापना खुद का समर्थन बढ़ाने के लिए और साथ ही साथ लोगों के जीवन को खुशहाल बनाने के लिए कर सकता था। इसके स्थान पर, उसने एक बहुत बड़ी गड़बड़ कर दी। 1906 से 1917 की अवधी मे चार ड्यूमा का गठन हुआ, जिनमें से तीन ज़ार की स्वार्थी और शक्ति के प्रति भूख के कारण बदल दी गईं। चारों ही ड्यूमा शक्तिहीन थी और वह वास्तव में लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करती थीं।
3.3 रैसप्यूटिन - एक पागल भिक्षु
ज़ार निकोलस द्वितीय का लड़का, एलेक्जी, हिमोफिलिया से ग्रस्त था। इस बीमारी के कारण, किसी घाव के होने पर, उसके खून का थक्का नहीं जमता था क्योंकि उसमें प्लेटलेट्स का अभाव था। रैसप्यूटीन, जो कि साइबेरिया की बंजर धरती का रहने वाला था और दावा करता था कि वह एक पवित्र भिक्षु है, अपनी “पराभौतिक उपचारात्मक शक्तियों“ के द्वारा ऐलेक्जी को ठीक कर पाता था। रैसप्यूटीन ने एलेक्जी के दर्द को कुछ कम किया, किंतु ज्यादातर काम जो उसने किया वह लोगों के लिए एक घोटाले के समान था। ज़ारिना (ज़ार की पत्नी) अपने पुत्र से बहुत लाड़ करती थी और इसलिए वह स्वाभाविक तौर पर भिक्षु के प्रति अच्छा व्यवहार रखती थी। रैसप्यूटिन अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल कर, कई मंत्रियों को हटवा कर खुद के लोग नियुक्त करवा देता था। शाही परिवार के प्रति उसकी प्रत्यक्ष पहुंच और सरकारी मामलों में उसकी दखल-अंदाजी ने हर किसी को परेशान कर रखा था। इसके कारण आम लोग रेसप्युटीन को अत्यधिक नापंसद करने लगे थे और आरोप लगाने लगे थे कि ज़ार के विश्वास के लिए यह एक खतरनाक आदमी है।
युद्ध के दौरान भी महल पर रैसप्यूटीन का प्रभाव जारी रहा। बहुत सारे नीतिगत मुद्दों पर ज़रिना एलेक्जेण्ड्रा उससे सलाह लेती थी। रैसप्यूटीन, सामान्यतः अपनी सलाह देने के लिए तैयार ही रहता था; कभी-कभी तो वह रूसी सैन्य रणनीति पर भी उसकी सलाह देता था, यद्यपि ऐसी सलाह कभी भी लाभदायक सिद्ध नहीं हुई।
एक अर्थ में रैसप्यूटीन की उपस्थिति ज़ार के लिए लाभदायक भी थी, हालांकि वह रोमानोव की लोकधारणा को नष्ट कर रहा था। रूसी जनता अक्सर सैन्य नुकसान के लिए रैसप्यूटीन के हानिकारक प्रभाव को जिम्मेदार ठहराती थीः इसलिए लोगों की आलोचना ज़ार के बजाय उसके तरफ मुड़ जाती थी।
हालांकि, बेलारूस के मोगिलेव में, ज़ार ने सेना का नियंत्रण अपने हाथ में लेने का (ज़ार के चाचा ड्यूक निकोलाई को हटाकर) जो निर्णय लिया, वह एक आपदा का इशारा था। अब ज़ार न केवल अपनी सेना के प्रयासों के परिणामों के प्रति सीधे तौर पर जिम्मेदार था, बल्कि उसकी अनुपस्थिति में राजनीतिक मामलों और स्थानीय प्रशासन की पूरी जिम्मेदारी ज़ारिना और रैसप्यूटीन के हाथों में आ गई थी। उनके साथ प्रधानमंत्री, बोरिस स्ट्रमर भी था, जो ज़ारिना की इच्छाओं का पालन था।
जब रैसप्यूटीन लोक-प्रशासन और चर्च के अधिकारियों की नियुक्ति के लिए अपनी सलाह दे रहा था, तब यह अपवाह फैल गई की ज़ारिना और रैसप्यूटीन, जर्मन के एक समूह के साथ गुप्त सम्पर्क में है। तब दरबार के एक कुलीन समूह ने, फेलिक्स युसुपोव के नेतृत्व में, यह तय किया कि वे रैस्प्यूटिन को ठीक करेंगे।
29 दिसंबर 1916 को युसुपोव ने रैसप्यूटीन को अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित किया, जहां उसे ज़हरीली शराब और केक दिया गया। यह जानकर कि रेसप्यूटीन की जहर के प्रति प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा है, युसुपोव ने उसे गोली मार दी।
थोड़े से नुकसान के बाद रैसप्यूटीन वहां से बचकर भागने में सफल हुआ और वह एक अन्य परिसर में पहुंचा, जहां उसे एक दूसरे षड़यंत्रकारी, व्लादिमीर पुरिशकेविच ने गोली मार दी। अंततः यह मानकर कि रैसप्यूटीन की मौत हो गई है उसके शरीर को नेवा नदी में फेंक दिया गया जहां डूबकर मरने से उसकी मौत हुई। उसकी लाश को नेवा नदी के किनारे से प्राप्त किया गया।
राजपरिवार की विश्वसनीयता को बचाने का युसुपोव का साहसी कदम बहुत देर से उठाया गया; यदि रैसप्यूटीन की हत्या ने राजपरिवार और उनके आलोचकों के बीच से कुछ हटाया तो वह था उस पागल भिक्षु के रूप में एक कवच।
3.4 प्रथम विश्व युद्ध
इसे भी क्रांति के महत्वपूर्ण कारणों में से एक माना जाता है। जैसा कि हम जानते हैं रूस उस समय विश्व की महाशक्तियों में से एक था। जर्मनी, जो कि सभी तरफ से आक्रमण का षिकार था, के खिलाफ रूस एक प्रभावी जीत की उम्मीद कर रहा था। वास्तव में, रूस को कई अपमानजनक हारों का सामना करना पड़ा।
ज़ार निकोलस द्वितीय ने तभी सारे मुद्दे अपने हाथ में लेने का निर्णय लिया और वह कमाण्डर-इन-चीफ की तरह कार्य करने लगा। वह युद्ध के मैदान में पहुंचा और युद्ध के लिए निर्देश देने लगा। उसे उम्मीद थी की उसकी ‘चतुराईपूर्ण रणनीति‘, ‘अद्भुत नेतृत्व‘, और ‘शाही उपस्थिति‘ सेना को जीत के लिए प्रेरित करेगी। दुर्भाग्य से, ऐसा हो न सका क्योंकि उसके पास सैन्य अनुभव की कमी थी और निम्न श्रेणी के सैन्य कुषलता ने रूस की सेना को पूर्णतः बर्बाद कर दिया था, और इस आरोप की सारी जिम्मेदारी ज़ार के कंधों पर आ गई। बड़ी संख्या में मौत की खबरों और निराशाजनक परिणामों ने लोगों को ज़ार पर आरोप लगाने को मजबूर कर दिया और जैसे-जैसे दिन बीतते गये, लोगों का विश्वास ज़ार पर से उठने लगा।
जब ज़ार सीमा पर सेना का नेतृत्व कर रहा था, उसी समय राजधानी में शेष मामलों के लिए ज़ारिना एलेक्जेण्ड्रा प्रभारी थी। रैसप्यूटीन के प्रभाव में ज़ारिना ने बहुत सारे प्रशासनिक परिवर्तन किये और देश को अगले संकटों की ओर ले गई। इसके अतिरिक्त, ज़ारिना, जन्म से जर्मन मूल की थी, और क्योंकि युद्ध में जर्मनी ही रूस का सबसे बड़ा दुशमन था, इसलिए ज़ारिना भी लोगों के गुस्से का शिकार हुई।
युद्ध के प्रयासों को बहुत सारी समस्याओं के कारण धक्का पहुंचा। इसमें अस्त्र-शस्त्रों की कमी, रसद की आपूर्ति का अभाव, एक कुशल परिवहन व्यवस्था की कमी, वितरण पद्धति का न होना, अयोग्य सैन्य नेतृत्व, इच्छा शक्ति का अभाव और बड़ी मात्रा में जमीनों की हार और बड़ी संख्या में हुई मौतें भी जिम्मेदार थीं।
युद्ध के लिए धन या तो उधार लेकर या नये रूबलों की छपाई करके हासिल किया जा रहा था, व इसके लिए नये कर नहीं लगाये जा रहे थे क्योंकि उन्हें लगता था कि ऐसा करके वे पहले से ही परेशान जनता का क्रोध आमंत्रित करेंगे। बढ़ती हुई महंगाई के समान मजदूरी नहीं बढ़ रही थी, और यूक्रेन जो कि सबसे बड़ा मक्का उत्पादक क्षेत्र था, युद्ध में खोया जा चुका था। अकुशल रेल प्रणाली भोजन को प्रभावी तरीके से वितरित करने में अक्षम थी। महंगाई आसमान छू रही थी।
कई परिवारों के युवा महिलाओं और बुजुर्गों को घर में खेती करने के लिए छोड़कर सीमा पर युद्ध के लिए गये थे। इसके साथ ही, मक्का की कीमतें तो निश्चित थी, किंतु कपड़ां की कीमत बढ़ रही थीं। कई किसानों को फैक्ट्रियों में काम करने के लिए जाना पड़ा। निम्न जीवन परिस्थितियों में स्थिति को और ज्यादा खराब कर दिया।
4.0 क्रांति की घटनाएं
1917 के साल में, रूस में दो क्रांतिया घटित हुईं। 1917 की फरवरी क्रांति ने ज़ारवाद को समाप्त कर, इसके स्थान पर गणतंत्र की स्थापना की। हालांकि अक्टूबर 1917 की क्रांति ने सर्वहारा वर्ग (श्रमिक वर्ग) की तानाशाही स्थापित कर दी। (सर्वहारा त्र प्रोलीटेरियट)
1917 की फरवरी क्रांति 23 फरवरी को रोटी के लिए हुए दंगों से शुरू हुई। इसके बाद 25 फरवरी से पेट्रोग्राड में औद्योगिक हड़ताल शुरू हुई। पेटो्रग्राड की नगर सेना और पुलिस ने भी 27 फरवरी को क्रांति में शिरकत की और अगले ही दिन पेट्रोग्राड क्रांतिकारियों के हाथों में चला गया।
फरवरी की क्रांति बड़ी संख्या में मजदूरों और किसानों के स्वतः स्फूर्त क्रोध के फूटने का परिणाम थी। 27 फरवरी तक, दो संगठन ड्यूमा की अस्थायी समिति और पेट्रोग्राड सोवियतों की कार्यकारिणी समिति, अस्तित्व में आ चुके थे। दूसरा संगठन मिल मजदूरों, सामाजिक क्रांतिकारियों, मेनशेविकों और बोलशेविकों का प्रतिनिधित्व कर रहा था जो कि क्रांति को दिशा दे रहे थे।
ज़ार के मंत्री 28 फरवरी 1917 को कैद कर लिये गये और ड्यूमा की अस्थायी समिति द्वारा उनके स्थान पर कॉमिसार नियुक्त कर दिये गये। सेना का विद्रोह 1 मार्च 1917 को घटित हुआ। यद्यपि ज़ार निकोलस द्वितीय को दो मार्च 1917 को जबरन अपदस्थ कर दिया गया, शाही परिवार के सारे सदस्य 16/17 जुलाई 1918 तक के लिए जब तक कि उन्हें गोलियों से मौत के घाट नहीं उतार दिया गया, येकाटेरिनबर्ग में नजरबंद कर दिये गये। इस प्रकार रूस से ज़ार के शासन की समाप्ति हुई।
प्रिंस जार्ज ल्वॉव के नेतृत्व में 3 मार्च 1917 तक एक अस्थायी गठबंधन सरकार अस्तित्व में आई। प्रशासन के सारे अधिकार शीघ्र ही अस्थायी सरकार को मिल गये; इसे ज़ार सरकार का ‘वैध उत्तराधिकारी‘ माना गया।
हालांकि, बड़ी संख्या में शामिल कामगारों और सैनिकों ने संगठन सोवियत ऑफ वर्कर एण्ड सोल्जर को मान्यता दी थी। इस प्रकार क्रांति के द्वारा द्वैत शक्ति स्थापित की गईः अस्थायी सरकार और सोवियत कामगारों और सैनिकों की सरकार। दूसरी सरकार शीघ्र ही सारे शहरों, कस्बों और जिलों में स्थापित हो गई। पहली अखिल रूसी कांग्रेस की घोषणा मार्च 1917 में कर दी गई।
व्लादिमीर लेनिन का सक्षम नेतृत्व और प्रेरक व्यक्तित्व रूस की अक्टूबर क्रांति के लिए जिम्मेदार है। उसके नेतृत्व में ही, बोल्शेविकों ने अस्थायी सरकार की कमियों को उजागर करते हुए उसकी आलोचना की। 17 जुलाई, 1917 को पेट्रोग्राड में अस्थायी सरकार के विरूद्ध एक विशाल सैन्य प्रदर्शन किया गया। प्रधानमंत्री जार्ज वॉव को त्यागपत्र देने पर मजबूर किया गया। उसके स्थान पर एलैक्जे़ण्डर केरेन्सकि को नया प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया।
हांलाकि केरेन्सकि की नई गठबंधन सरकार शीघ्र ही अलोकप्रिय हो गई। उसी समय, जन समूह बोल्शेविकां की ओर आकर्षित हुआ, जिसे वे क्रांति का वास्तविक ध्वज-वाहक मानते थे। 2 अक्टूबर तक अधिकांश सोवियतों में बोल्शेविक बहुमत में आ चुके थे। उन्होंने लियॉन ट्रॉटस्की के नेतृत्व में सेन्य क्रांति समिति गठित की। इस समिति के नेतृत्व में, रेड गार्ड का गठन हुआ और पेट्रोग्राड सैन्य इकाई का प्रभार लेने के लिए कॉमिसार लिये गये। इस प्रकार पेट्रोग्राड सैनिकों की पूर्ण निष्ठा सुरक्षित रही।
25 अक्टूबर को, जब सैन्य संरक्षण में अस्थायी सरकार का एक सत्र विंटर पैलेस में चल रहा था, तभी वहां रेडगार्ड द्वारा आक्रमण किया गया। सारे मंत्रियों को कैद कर मार डाला गया। क्योंकि अक्टूबर क्रांति लेलिन का तख्तापलट और पेट्रोग्राड पर बोल्शेविक नियंत्रण के लिए एक सोची-समझी योजना थी, इसलिए लेनिन को ही बोल्शेविक क्रांति का जनक माना जाता है।
10 जुलाई 1918 को प्रकाशित और स्वीकार किये गये संविधान के अनुसार, रूस का नाम, द रशियन सोशलिस्ट फेडरेटेड सोवियत रिपब्लिक रखा गया। जहां 1918 का संविधान शोषित लोगों को कुछ निश्चित अधिकार देता है, वहीं यह उनके लिए कुछ जिम्मेदारियां भी तय करता है। 1922 में, सोवियतों की अखिल रूसी कांग्रेंस ने यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक (यू.एस.एस.आर.) की रचना की।
1921 में, लेनिन ने एक नवीन आर्थिक नीति की घोषणा की जो राज्य द्वारा प्रायोजित समाजवाद और पूंजीवाद का मिश्रण थी।
1924 में, लेनिन की मृत्यु के बाद, लियॉन ट्राटस्की और जोसेफ स्टालिन के बीच सत्ता को लेकर कड़ा संघर्ष हुआ। स्टालिन स्वंय को पार्टी और देश के तानाशाह के रूप में स्थापित करने में सफल हुआ।
फिर जोसेफ स्टालिन ने, एक कमजोर, कृषि-आधारित रूसी अर्थव्यवस्था को, एक शक्तिशाली औद्योगिक अर्थव्यवस्था में बदलने के लिए, पंचवर्षीय योजनाओं के एक नवीन युग की शुरूआत की। उसने मशीनीकरण और खेतों के एकत्रीकरण (चकबंदी) के द्वारा कुलाक्स से मुक्ति पाने की कोशिश की। इस प्रकार 1928 में प्रथम पंचवर्षीय योजना, 1933 में द्वितीय पंचवर्षीय योजना और 1938 में तृतीय पंचवर्षीय योजना ने स्टालिन को उसके लक्ष्य को पूर्णतः हासिल करने में मदद की। इन पंचवर्षीय योजनाओं की बदौलत, 1940 तक, सोवियत यूनियन विश्व की दूसरी सबसे बड़ी औद्योगिक अर्थव्यवस्था बन गया। क्रांति ने सोवियत यूनियन को, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान दूसरे सबसे शक्तिशाली देश के रूप में उभरने में मदद की; पहले स्थान पर यू.एस.ए. था। 1936 में, स्टालिन ने यू.एस.एस.आर. को एक नया संविधान दिया, जिसमें गुप्त मताधिकार और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार प्रदान किया गया। किंतु स्टालिन जीवन भर एक भयानक तानाशाह ही रहा, जो अपने देश के लाखों लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार था।
5.0 रूसी क्रांति के प्रभाव
5.1 युद्ध का अंत
लेनिन के सत्ता सम्भालने के बाद, उसके बड़े उद्देश्यों में से पहला यह था कि रूस को प्रथम विश्व युद्ध से बाहर निकालना। अपने शांति के विधान का पालन करते हुए, लेनिन ने युद्धरत सारे देशों को एक कूटनीतिक संदेश भेजा, जिसमें सभी से तत्काल दुश्मनी समाप्त करते हुए शांति स्थापित करने का आव्ह्ान किया गया था। उसके प्रयास व्यर्थ गये। इसलिए, नवंबर 1917 में, नई सरकार ने सभी रूसी सैनिकों को सीमा पर शत्रुता समाप्त करते हुए युद्ध रोकने के आदेश दिये। 15 दिसम्बर को, रूस ने जर्मनी और आस्ट्रिया के साथ एक युद्ध विराम समझौते पर हस्ताक्षर किये, और एक औपचारिक शांति संधि को भविष्य के लिए छोड़ दिया गया जो मार्च 1918 तक भी पूर्ण नहीं हो सकी।
रूस का युद्ध से निष्कासन उसके लिए बहुत महंगा था, किंतु लेनिन किसी भी कीमत पर, युद्ध समाप्त करने के लिए दृढ़ इच्छुक था, क्योंकि जर्मनी पेट्रोग्राड पर आक्रमण का भय दिखा रहा था। शांति समझौते में, लेनिन ने पीटर द ग्रेट के समय के जीते हुए अपने सारे क्षेत्र छोड़ने की सहमति प्रदान कर दी। रूस ने जो क्षेत्र खो दिये उनमें फिनलैण्ड, पौलेण्ड, लेटविया, लिथुआनिया, एस्टोनिया, यूक्रेन, बेलारूस, बेसर्बिया और कॉकसस क्षेत्रां के साथ दक्षिण रूस की कुछ कोयला खदानें भी थीं। सोवियत संघ द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक इन क्षेत्रों को पुनः प्राप्त नहीं कर पाया था।
5.2 सोवियत शांति समिति (एस.पी.सी.) और नवंबर के चुनाव
क्रांति और सोवियतों की द्वितीय कांग्रेस के बाद, लेनिन की नई सरकार, एस.पी.सी. के सामने एक अराजक देश का शासन करने की चुनौती थी। देश में संचार व्यवस्था कमजोर थी, और देश के बड़े हिस्सों पर, जिसमें यूक्रेन भी शामिल था, विदेशी सेनाआें का नियंत्रण था। पेट्रोग्राड और मॉस्को के बाहर, विशेषकर साइबेरिया और मध्य-एशिया के दूरस्थ इलाकों में, यह परिभाषित करना भी कठिन था कि राजनीतिक स्तर पर क्या हो रहा है, नियंत्रण तो और ज्यादा मुश्किल काम था।
कम से कम सैद्धांतिक तौर पर, सोवियत शांति समिति (एस.पी.सी.) एक लोकतांत्रिक संस्था थी। वे मत के द्वारा चुनकर सत्ता में पहुंचे थे और वे एक्ज़ीक्यूटिव कमिटी (कार्यकारिणी समिति) के प्रति उत्तरदायी थे जो भविष्य में एक संविधान सभा के प्रति होने वाली थी। वास्तव में, लेनिन, बोल्शेविकों के जीतने की उम्मीद कर रहा था, इसलिए उसने योजना के अनुसार नवंबर के महीने में संविधान सभा के चुनाव की अनुमति दे दी। जब अंतिम परिणाम सामने आये तो बोल्शेविक उम्मीदवारों को 25 प्रतिशत से भे कम वोट मिले। सर्वाधिक मत, 40 प्रतिशत, सोशलिस्ट रिवोल्युशनरी (एस.आर.) पार्टी के पक्ष में गये जो कि किसी हद तक बोल्शेविकों के प्रति सहानुभूति रखती थी। हालांकि दूसरी अन्य विरोधी पार्टियों के सदस्य, जिनमें केडेट्स शामिल थे, भी मजबूती के साथ उभरे।
5.3 क्रांतिकारी तानाशाही
चूंकि बोल्शेविक चुनावों में ज्यादा अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सके, इसलिए संविधान सभा उनके लिए एक चुनौती बन गई। प्रारंभ में, ऐसा लगा कि बोल्शेविक सत्ता में बने रहने के लिए कोई बड़ा समझौता कर सकते हैं। यद्यपि, उन्होंने इस समस्या को हल करने के लिए सबसे पहले केडेट पार्टी को एक गैर कानूनी पार्टी घोषित कर दिया और यह मांग करने लगे कि संविधान सभा स्वेच्छा से अपने वैधानिक अधिकार छोड़ दे - यह एक ऐसा कदम था जो इस संस्था को पूर्ण रूप से बोल्शेविक पार्टी का एक रबर स्टैम्प बना देता।
अंत में, 5 जनवरी 1918 को, संविधान सभा की बैठक केवल एक बार हुई। बैठक के दौरान, सभा ने अपने अधिकार छोड़ने से इंकार कर दिया, किंतु बोल्शेविकों, जो बैठक को अपनी भरी हुई बंदूकें लेकर केवल देख रहे थे, को चुनौती देने के लिए कुछ नहीं किया। जब अगली सुबह बैठक समाप्त हुई तो, बोल्शेविक लोगों ने सभा को हमेशा के लिए भंग कर दिया और इसके सदस्यों पर ‘‘अमेरिकन डॉलर के गुलाम‘‘ होने का आरोप लगाया।
5.4 सोवियतों की तृतीय कांग्रेस
संविधान सभा को सोवियतों की तृतीय कांग्रेस से प्रतिस्थापित कर दिया गया, जिसके 94 प्रतिशत सदस्यों का बोल्शेविक एवं सोशलिस्ट रिवोल्युशनरी होना अनिवार्य था। नये समूह ने शीघ्र ही एक प्रस्ताव पारित किया कि पद ‘‘अस्थायी‘‘ को एस.पी.सी. से हटा दिया जाये और लेनिन तथा बोल्शेविक पार्टी को देश का स्थायी शासक मान लिया जाये।
इस बिंदु तक भी, बोल्शेविक अक्सर लोकतंत्र शब्द का उपयोग सकारात्मक अर्थों में करते थे, पर इस परिवर्तन से सब कुछ अचानक बदल गया। बोल्शेविकों ने उनके आलोचकों को प्रतिक्रांतिकारी की श्रेणी में रखना प्रारंभ कर दिया औैर उनके साथ देशद्रोही के जैसा व्यवहार करने लगे। अब लेनिन के भाषणों में अक्सर क्रांतिकारी तानाशाही और शोषितों की तानाशाही जैसे पद आने लगे, जिसने लोकतंत्र को पश्चिमी पूंजीपतियों के द्वारा फैलाई गई एक भ्रामक अवधारणा बताया।
5.5 बोल्शेविकों का सत्ता में स्थायीकरण
मार्च 1918 में, जब लेनिन के प्रतिनिधि रूस को प्रथम विश्वयुद्ध से बाहर निकालने के लिए अंतिम समझौते पर हस्ताक्षर कर रहे थे, बोल्शेविक अपने सत्ता के केन्द्र को पेट्रोग्राड से मॉस्को स्थानांतरित करने की प्रक्रिया में थे। यह बड़ा कदम बोल्शेविकों के उन प्रयासों का प्रतीक था जिसके तहत वे सत्ता का सशक्तिकरण कर रहे थे।
यद्यपि इस प्रकार का प्रतीकवाद बोल्शेविकों की रणनीति का एक हिस्सा था, पर वे यह जानते थे कि उन्हें अपने देश को विदेशी आक्रमणकारियों और उनके प्रभावों से बचाने के लिए तथा अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए सैन्य शक्ति की जरूरत होगी। इसलिए, उन्होंने उनकी सैन्य शक्ति का पुनर्निमाण किया, जिसमें फिलहाल 35000 लैटवियन बंदूकधारी थे जो बोल्शेविकों के साथ खड़े थे जब उन्होंने रूस को प्रथम विश्व युद्ध से बाहर निकालने की शपथ ली। लैटवियन सैनिक बेहतर रूप से प्रशिक्षित थे और उन रूसी सैनिकों की अपेक्षा जिन पर बोल्शेविक लोग पहले विश्वास करते थे, ज्यादा अनुशासित भी थे। इन सैनिकों ने 1918 के दौरान पूरे रूस में विरोधों को आसानी से कुचल दिया और नवीन स्थापित रेड आर्मी (लाल सेना) की पहली कोर की स्थापना की।
बोल्शेविक सत्ता का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण औजार, गुप्त पुलिस थी जिसे चैका (प्रतिक्रांतिकारियों और विरोधियों के साथ लड़ने वाला विशिष्ट आयोग) के नाम से जाना जाता था। 20 दिसंबर 1917 को अधिकारिक रूप से स्थापित चैका को बोलशेविक शासन को मजबूत करने की जिम्मेदारी दे दी गई थी। इसकी कमान लेनिन ने एक पोलिश क्रांतिकारी जिसका नाम फीलिक्स ज़रज़ैंस्की था, को दी थी जो शीघ्र ही घातक सिद्ध हुआ। आने वाले वर्षों में फीलिक्स ज़रज़ैंस्की के हाथों दसियों हजारों लोगों की हत्या होने वाली थी।
5.6 गृह युद्ध के मूल कारण
रूस में, गृह युद्ध की शुरूआत के लिए कोई निश्चित तिथि तय नहीं की जा सकती, किंतु सामान्यतः इसकी शुरूआत 1918 की गर्मियों में हुई। जैसा कि बोल्शिविक (जिन्हें अक्सर लाल के नाम से जाना जाता है), अपनी सत्ता को मजबूत बना रहे थे, लेनिन के विरोधी भी कई दिशाओं में संगठित हो रहे थे। जो समूह बोल्शेविक लोगों का विरोध कर रहे थे उनमें राजतंत्रवादी, लोकतंत्र समर्थक, अतिवादी कोसैक्स से लगाकर उदारवादी सोशलिस्ट थे। ये पूर्णतः विरोधी समूह धीरे-धीरे एक होने लगे और एक साथ व्हाईट्स (श्वेत) के नाम से लड़ने के लिए तैयार हो गये। अराजकतावादियों द्वारा एक छोटा समूह ग्रीन्स् के नाम से बनाया गया जो व्हाईट्स और रेड्स दोनों का ही विरोध कर रहा था।
इसी बीच, लगभग 5 लाख चेक और स्लोवेक सैनिकों का एक दल, जिसे प्रथम विश्व युद्ध के दौरान रूसी सेना ने बंदी बनाया था, ने बोल्शेविकों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया, जो उन्हें लाल सेना में नौकरी करने के लिए मजबूर कर रहे थे। सैनिकों ने ट्रांस-साइबेरिया रेल मार्ग के एक हिस्से को अवरूद्ध कर दिया और साइबेरिया से रूस के प्रशांत महासागर के किनारे तक उनके जाने का मार्ग बनाने की कोशिश की ताकि वे वहां से नावों द्वारा भाग सकें। उनके विद्रोह के दौरान, उन्होंने अस्थायी रूप से व्हाईट्स के साथ, मध्य वोल्गा क्षेत्र में हाथ मिला लिया था, और नवगठित लाल सेना को एक बड़ी सैन्य चुनौती दे रहे थे। इन बढ़ते हुए खतरों के जवाब में, बोल्शेविक लोगों ने मई 1918 में अपने बलों को बढ़ाने के लिए सैन्य भर्ती की शुरूआत की।
5.7 लाल आतंक
क्रांति के पश्चात् के रूस में लाल आतंक का ध्वज वाहक फीलिक्स ज़रज़ैंस्की का चैका, व उसके साथ लाल सेना की इकाईयां थीं। लाल आतंक की शुरूआत, अगस्त 1918 में, फैनी कैप्लान के द्वारा किये गये व्लादिमीर लेनिन के हत्या के प्रयासों पेट्रोग्राड और चैका नेता की सेण्ट पीटर्सबर्ग में हुई हत्या, के परिणामस्वरूप हुई। लेनिन की हत्या के इस असफल प्रयास को लाल सेना के द्वारा गुप्त पुलिस के गठन और किसी भी व्यक्ति को प्रतिक्रांतिकारी होने के संदेह में कैद करने के लिए उपयोग किया गया। लेनिन ने अस्पताल से ही चैका को निर्देश दिया कि वह ‘‘आतंक की रूपरेखा‘‘ तैयार करें।
चैका के कामों को रोकने के लिए कोई स्पष्ट सरकारी संस्थान नहीं था। ज़रज़ैंस्की संगठन के कामों को सरलता से समझा सकता थाः उदाहरण के लिए 1918 में सेण्ट पीटर्सबर्ग में 800 लोगों को हिरासत में लेकर हत्या कर दी गई जिसका स्पष्टीकरण उसने यह कहकर दिया कि वें सभी ‘राज्य के दुश्मन‘ या ‘क्रांति के दुश्मन‘ थे। केवल कुछ ही लोग ही इतने साहसी थे कि ऐसे आरोपों के विरूद्ध तर्क करें क्योंकि उन्हें बाद में उसी अपराध के आरोप में हिरासत में ले लिया जा सकता था। उन 800 लोगों में से किसी पर भी मुकद्मा नहीं चलाया गया। उन्हें हिरासत में लिया गया और गोली मार दी गई। फीलिक्स स्वयं कहता था कि चैका 24 घंटे के भीतर कार्यवाही करती हैः वो जो अपराधी थे उन्हें 24 घण्टे के भीतर निर्णय सुना दिया जाता था। लाल आतंक सितम्बर 1918 से अक्टूबर 1918 तक जारी रहा, यद्यपि कुछ लोगों का मानना है कि यह गृह युद्ध के अंत तक चलता रहा। लाल आतंक के दौरान चैका के कार्यों को लेनिन का समर्थन मिलता रहा जिसका मानना था कि जिन लोगों को सज़ा दी जा रही है, वे उन शक्तियों की पुनर्स्थापना की कोशिश कर रहे हैं जिन्होंने क्रांति के पूर्व लोगों का शोषण किया। इन सब के अतिरिक्त लेनिन उन सभी चीजों को बचाना चाहता था जो उसने 1917 के दौरान जीती थीं। इसलिए चैका को एक प्रभावी स्वतंत्रता दी गई। किसी भी व्यक्ति के मकान का आकार या कीमत उस को खत्म करने के लिए पर्याप्त आधार थे।
लाल आतंक के दौरान किये गये कार्यों को महत्वपूर्ण बोल्शेविक नेता ग्रेगोरी ज़िनोवियेव का भी समर्थन हासिल था। उसने कहा कि बोल्शेविक सरकार के दुश्मनों को ‘नेस्तनाबूत‘ कर दिया जाना चाहिए। लेनिन ने स्वयं ज़रज़ैंस्की को लिखा कि बोल्शेविक सरकार के विरोधियों को भय से कंपकंपा देना चाहिए।
सत्य यह था कि 1918 में, भविष्य का यू.एस.एस.आर. अराजकता में डूबा हुआ था और यह काम गुप्त पुलिस द्वारा किया गया था, यह पता लगाना मुश्किल है कि लाल आतंक के दौरान कितने लोग पीड़ित हुए। यदि यह केवल लोगों को भयभीत करने के लिए था तो इस बात की सम्भावना थी की विरोधियों द्वारा यह आंकड़ा बढ़ा-चढ़ाकर बताया जा रहा था। यह कहा गया कि चैका द्वारा सितम्बर और अक्टूबर 1918 में जो क्षेत्र बोल्शेविकों के प्रत्यक्ष नियंत्रण में थे, 10 से 15 हजार के बीच लोगों को मौत की सजा दी गई। ऐसे आंकडं़े सार्वजनिक तौर पर सरकारी पत्रों में प्रकाशित किये गये। क्योंकि कोई कानूनी मुकद्मा नहीं चलाया गया, इसलिए ऐसे आकड़ां की सत्यता नहीं जांची जा सकती। हालांकि, यह माना गया कि सजा का यह आंकड़ा उन क्षेत्रों में जो व्हाईट्स के नियंत्रण में था, 15000 से कई ज्यादा हो सकता है। लेनिन ने स्वंय क्रीमिया में, 50,000 लोगों को मौत के घाट उतारने के आदेश दिये और कुछ लोग इस आंकड़े को लाल आतंक का एक हिस्सा बताते हैं।
लाल आतंक का परिणाम उन हजारों लोगों की हत्या के रूप में निकला जिन्हें ‘‘दस्यु‘‘ कहा जाता था। हांलाकि इस शब्द की कोई कानूनी परिभाषा नहीं है और ऐसा लगता है कि यह उन सारे लोगों के लिए जिन्हें संदेह के आधार पर कैद किया गया और फिर मौत की सजा दी गई के लिए एक शब्द में व्याख्या बन गया। उन हजारों लोगों को जिन्होनें लाल सेना के भगोड़े सैनिकों को पनाह दे रखी थी, को हिरासत में लेकर सजा दी गई क्योंकि वे ‘‘दस्यु‘‘ थे। इसका अर्थ यह हुआ कि हजारों परिवार पीड़ित हुए क्योंकि केवल एक व्यक्ति कानून तोड़ रहा था।
5.8 बोल्शेविक रूस का आकलन
अक्टूबर क्रांति के पश्चात्, बोल्शेविकों के पास अपने शासन को लेकर कोई योजना नहीं थी, और वे संविधान सभा के चुनाव मे भी एस. आर. पार्टी से कमतर ही थे। श्रमिक वर्ग अभी भी अल्पमत में ही था। बोल्शेविकों को समय के साथ यह बदल देना था, किंतु तब तक उनका शासन केवल शक्ति से ही संचालित हो सकता था।
बोल्शेविकों को रूस के अंदर तीखे विरोध का सामना करना पड़ा और यह कई भिन्न-भिन्न कारणों से हुआ। इसका एक प्रमुख कारण था प्रथम विश्व युद्ध से रूस की महंगी वापसी। यद्यपि कई लोग युद्ध से बाहर निकलना चाहते थे, तो भी उन्होनें लेनिन की उस योजना को मंजूरी नहीं दी जिसमें उसने बड़ी संख्या में क्षेत्र छोड़ दिये थे। इसके अतिरिक्त, संविधान सभा को बोल्शेविकों द्वारा अचानक भंग कर दिया जाना और कई अन्य राजनीतिक आवाजों को चुप कर दिया जाना भी कई लोगों के लिए आक्रामक था। इसी का परिणाम गृह युद्ध के रूप में सामने आया, जो देश के लिए भयानक रूप से दुखदाई सिद्ध हुआ और अंत में, प्रथम विश्व युद्ध से ज्यादा जानें इसमें चली गईं। आने वाले वर्षों में, जोसेफ स्टालिन का हिंसक होना और रूस की जमीनों का बलपूर्वक एकीकरण करना और भी ज्यादा भयानक था।
5.9 वृहद परिष्करण (1934-‘39)
1934 में स्टालिन के एक प्रतिद्वंदी सर्जेइ किरोव की हत्या कर दी गई। यद्यपि यह माना जाता है कि इस हत्या के पीछे स्टालिन का ही हाथ था, फिर भी उसने इस घटना को अपने हजारों विरोधियों को हिरासत में लेने के लिए उपयोग किया, जो उसके शब्दों में, किरोव की हत्या के लिए जिम्मेदार हो सकते थे। आने वाले वर्षों में स्टालिन के राजनीतिक विरोधियों पर ‘दिखावटी मुकदमें‘ चलाये गये जहां उन्होंने राजद्रोह के असंभव आरोप स्वीकार कर लिए।
1937 में, लाल सेना के कमाण्डर-इन-चीफ और 7 अन्य बडे जनरलों को गोली मार दी गई। 1938-39 में, सारे एडमिरल और आधे से ज्यादा सैन्य अधिकारियों को या तो मार डाला गया या हिरासत में ले लिया गया। इसी दौरान हजारों धार्मिक नेताओं को कैद किया गया और सारे चर्च भी बंद करवा दिये गये। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, विनिटसिया (यूक्रेन) में 10,000 लोगों की सामूहिक क्रबगाह खोजी गई जो कि वहां के मूल निवासी थे और 1937-‘38 में मार दिये गये थे। यह उस वृहद परिष्करण (ग्रेट पर्ज) की व्यापकता का एक संकेत मात्र था। पूरे आंकड़ों के अभाव में यह जानना तो मुश्किल है कि स्टालिन के आतंक में कितने लोग मारे गये। एक अनुमान के अनुसार यह माना जाता है कि सोवियत संघ में कुल मिलाकर 1937-‘39 के दौरान 5,00,000 को मौत के घाट उतार दिया गया और लगभग 3-12 मिलियन लोगों को श्रमिक शिविरों में भेजा गया।
इस प्रकार रूसी क्रांति अपने प्रभाव में एक लम्बा और भयानक समय लेकर आई जिसमें भौतिक प्रगति भी हुई। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका के साथ शुरू होने वाला शीत युद्ध यू.एस.एस.आर. की राजनीति की धुरि बन गया और यह 1989 में उसके पतन तक जारी रहा।
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