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गॉधीजी का प्रारंभिक जीवनकाल
1.0 प्रस्तावना
राष्ट्रीय आन्दोलन का तीसरा और अन्तिम दौर 1919 में तब शुरू हुआ जब लोकप्रिय जन-आन्दोलनों की शुरूआत हुई। वास्तव में, तिलक और एनी बेसेंट के द्वारा प्रारम्भ किये गये दो होमरूल आन्दोलनों ने इन भावनाओं के बीज बो दिये थे। आधुनिक इतिहास के सबसे बड़े जन आन्दोलनों में से एक में भाग लेकर भारतीय जनता अन्ततः विजयी होकर उभरी।
2.0 गाँधी के दक्षिण अफ्रीका में अनुभव
मोहनदास करमचन्द गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में हुआ था। अपनी कानूनी पढ़ाई पूर्ण करने के पश्चात् वे एक भारतीय व्यापारी के बुलावे पर वकालत करने दक्षिण अफ्रीका पहुँचे।
1893 में वे डरबन पहुँचे, जहाँ से प्रिटोरिया के लिए रेल में बैठने के पूर्व वे एक सप्ताह ठहरे। उन्होंने प्रिटोरिया जाने के लिए रेल का प्रथम-श्रेणी का टिकट खरीदा और अपने निर्धारित स्थान पर बैठकर अपना कानूनी कार्य करने लगे। यात्रा के दौरान एक गोरे यात्री की, एक ’भारतीय कुली’ के साथ यात्रा करने की शिकायत पर, उन्हें तृतीय श्रेणी डिब्बे में जाने को कहा गया। उनके इंकार करने पर, उन्हें ट्रेन से पीटरमैरिट्जबर्ग स्टेशन पर जबरदस्ती उतार दिया गया। वहाँ उन्होंने पूरी रात गुजारी, और बाद में, उन्होंने इस घटना को अपने राजनीतिक जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना के रूप में चित्रित किया है।
दक्षिण अफ्रीका के अनुभव ने गांधी जी को उस संघर्ष के लिए तैयार किया था, जो भारत में उनके द्वारा बाद में किया जाने वाला था। यही वह स्थान था जहां उनके अहिंसा और सत्याग्रह के हथियार पैने बने थे। स्थानीय संघर्ष के दौरान और बाद में भारत में संघर्ष के दौरान गांधी जी अक्सर दक्षिण अफ्रीका के अपने अनुभव को भारत में संघर्ष की दिशा की रूपरेखा के रूप में संदर्भित करते थे। दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी इस बात से आश्वस्त हो गए थे कि यदि अहिंसा को सही दिशा प्रदान की जाए तो यह बुराई के विरोध की दृष्टि से अजेय है। उनमें अस्पृश्यता निवारण, हिंदू-मुस्लिमएकता, राष्ट्रभाषा, मद्यनिषेध, शारीरिक श्रम का सम्मान, कताई और कुटीर उद्योगों की, सफलता की आवश्यकता को लेकर मजबूत प्रतिबद्धता विकसित हो गई थी।
दक्षिण अफ्रीका में गोरे शासकों द्वारा भारतीय लोगों के प्रति किया जाने वाला भेदभाव और अपमान स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। एक 23 वर्षीय युवा बैरिस्टर के रूप में दक्षिण अफ्रीका में आने के एक वर्ष बाद गांधीजी ने निश्चय कर लिया था कि वे स्वयं को भारतीय समुदाय की सेवा में समर्पित कर देंगे। 1894 में उन्होंने नेटल भारतीय कांग्रेस की स्थापना की और 1903 में ट्रांसवाल ब्रिटिश भारतीय संघ की स्थापना की। एक दशक से भी अधिक समय तक उन्होंने असंख्य याचिकाएं और ज्ञापन तैयार किये, अधिकारियों के पास प्रतिनिधि मंडलों का नेतृत्व किया, प्रेस को पत्र लिखे और दक्षिण अफ्रीका, भारत और ब्रिटेन में भारतीय प्रयोजन के प्रति सार्वजनिक समझ और जनसमर्थन विकसित करने का प्रयास किया।
1906 के ट्रांसवाल एशियाई अध्यादेश ने, जिसके अनुसार सभी भारतीयों को पंजीयन कराना और अपने साथ पास रखना अनिवार्य था, गांधीजी का ब्रिटिशों की निष्पक्षता और औपनिवेशिक सिद्धांतों पर से विश्वास उठा दिया था। जब एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल (गांधीजी और हाजी ओजेर अली) ने लंदन में साम्राज्यवादी अधिकारियों के समक्ष अपील की तो उसके बाद इस अध्यादेश को शाही स्वीकृति रोक दी गई। परंतु 1907 के प्रारंभ में ट्रांसवाल को स्वशासन प्रदान कर देने के बाद, उसने अध्यादेश की शर्तें 1907 के एशियाई पंजीयन अधिनियम में अधिनियमित कर दीं।
इसका परिणाम 1907 के पहले सत्याग्रह में हुआ। अभियान का यह प्रारंभिक चरण जनवरी 1908 के अंत में समाप्त हुआ, जब जनरल स्मट्स और गांधीजी के बीच एक अंतिम समझौता हुआ जिसके तहत भारतीय समुदाय स्वेच्छा से पंजीयन करेगा और सरकार कानून का निरसन कर देगी।
हालांकि जुलाई 1908 में स्वैच्छिक पंजीकरण हो जाने के बाद सरकार अपने वादे से मुकर गई, और सत्याग्रह फिर से शुरु हो गया। ट्रांसवाल की लगभग 10,000 की भारतीय जनसंख्या में से दो हजार से अधिक लोग, और नेटल से भी कुछ लोग पंजीकरण अधिनियम और एक प्रव्रजन कानून, जो अंतर प्रांत आवागमन को प्रतिबंधित करता था, की अवहेलना करते हुए जेल गए। 1911 में दक्षिण अफ्रीका के संघ की नवगठित सरकार के साथ वार्ता के दौरान आंदोलन को स्थगित कर दिया गया।
संघीय सरकार ने 1912 में गोपाल कृष्ण गोखले के साथ नेटल द्वारा करारबद्ध श्रमिकों पर, या जो उनके अनुबंध समाप्त होने पर पुनः करारबद्ध नहीं होते थे या वापस भारत नहीं लौटते थे, उनपर अधिरोपित किये जाने वाले 3 पौंड प्रति वर्ष के वार्षिक कर को समाप्त करने के किये गए एक वादे को अस्वीकार कर दिया। साथ ही 1913 में केप सर्वोच्च न्यायालय ने लगभग सभी भारतीय विवाहों को यह कहते हुए अवैध घोषित कर दिया था कि केवल ईसाई पद्धतियों और अनुष्ठानों के तहत किये गए और विधिवत पंजीकृत किये गए विवाह ही वैध थे। सरकार ने भारतीय समुदाय द्वारा विवाहों को विधिमान्य बनाने के लिए की गई याचिकाओं को नजरअंदाज कर दिया।
इसके बाद ट्रांसवाल और नेटल दोनों स्थानों पर सत्याग्रह फिर से शुरू किया गया, जिनमें 3 पौंड के कर को समाप्त करने और विवाहों को विधिमान्य बनाने की अतिरिक्त मांगें रखी गईं।
इस अंतिम चरण के दौरान 3 पौंड के कर और विवाहों पर दिए गए निर्णय से प्रभावित श्रमिक और महिलाएं भी आंदोलन में जुड गईं, परिणामतः यह एक जन आंदोलन बन गया।
सभी धर्मों और व्यवसायों के लोग इस पवित्र संघर्ष में एकसाथ आ गए। गांधीजी और उनके सहयोगियों को लंबी अवधि की सजाएं हुईं। और हडताल करने वाले नेतृत्वविहीन हो गए। अभियान के इस चरण का एक उल्लेखनीय पहलू था महिलाओं की सक्रिय भागीदारी। गांधीजी की पत्नी कस्तूरबा, जिनका स्वास्थ्य उस समय ठीक नहीं था, और वे केवल फलों के आहार पर थीं, ने अपने अनेक संबंधियों के साथ आंदोलन का नेतृत्व किया।
संपूर्ण भारत में जनमत अत्यंत उत्तेजित था। वाइसराय लॉर्ड हार्डिंग ने भी सत्याग्रहियों के साथ सहानुभूति व्यक्त की थीः भारतीय और ब्रिटिश सरकारों ने हस्तक्षेप किया, और दक्षिण अफ्रीकी सरकार को बातचीत के लिए मजबूर होना पड़ा। 30 जून 1914 के स्मट्स-गांधी समझौते के साथ सत्याग्रह समाप्त हुआ, जिसके तहत सत्याग्रहियों की सभी मांगें मान्य कर ली गईं थीं। सत्याग्रह के इस हथियार का शीघ्र ही व्यापक स्तर पर उपयोग किया जाना था)।
2.1 सत्याग्रह की शक्ति
शीघ्र ही गाँधी इन स्थितियों के विरुद्ध होने वाले संघर्ष के नायक बनकर उभरे और 1893 से 1914 तक वे दक्षिण अफ्रीका में जातिवादी सरकार के खिलाफ एक असमान, लेकिन एक साहसिक संघर्ष करते रहे। लगभग दो दशक के इसी संघर्ष के दौरान, उन्होंने सत्य और अहिंसा पर आधारित सत्याग्रह नामक तकनीक का विकास किया। एक आदर्श सत्याग्रही अपनी बात पर अडिग रहते हुए पूर्णतः शांतिपूर्वक सत्य का पालन करता है। गलत लोगों के खिलाफ संघर्ष करते हुए वे स्वेच्छा से सारी परेशानियों को सहते हैं। यह संघर्ष उनके सत्य के प्रति समर्पण का ही एक हिस्सा होता है। यहाँ तक कि वे बुराई का विरोध करते हुए भी बुराई करने वाले से प्रेम करने लगते हैं। एक सत्याग्रही का घृणा से कोई नाता नहीं होता। वह ज्यादा निर्भय भी होता है। वह परिणाम की चिन्ता किये बिना, कभी भी बुराई के समक्ष सर नहीं झुकाएगा। गाँधी की नजर में अहिंसा कमजोर और कायर का हथियार नहीं था। केवल मजबूत और साहसी लोग ही इसका उपयोग कर सकते थे।
गाँधी के दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि उन्होंने विचार और कार्य, तथा विश्वास और कर्म को पृथक नहीं किया। उनके लिए सत्य और अहिंसा दैनिक जीवन का एक हिस्सा था न कि कोरी भाषणबाजी और लेखन का कृत्य। उन्हें संघर्ष के लिए आम आदमी की शक्ति पर पूरा विश्वास था।
3.0 1915 में गाँधी का भारत आगमन
1915 में 46 वर्ष की उम्र में गाँधी वापस भारत लौटे और आते ही उन्होनें कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की। उन्होनें निर्णय लिया कि भारत को समझना उनके लिए महत्वपूर्ण है। इसके लिए उन्होंने लगभग एक पूरा साल भारत की यात्रा की। 1916 में अहमदाबाद के निकट उन्होंने साबरमती आश्रम की स्थापना की जहाँ उनके मित्रों एवं अनुयायियों को सत्य और अहिंसा का पालन करना होता था। उन्होनें संघर्ष की अपनी नवीन विधि के साथ कुछ प्रयोग भी किये।
3.1 चम्पारण सत्याग्रह, 1917
1917 में बिहार के एक जिले चम्पारण से गाँधी के भारतीय प्रयोगों की शुरूआत हुई। जिले के किसानों को यूरोपीय व्यापारियों द्वारा, खेत के लगभग 3/20 वें हिस्से पर नील की खेती करने तथा व्यापारियों द्वारा ही निर्धारित भावों पर बेचने को मजबूर किया जाता था, जो वास्तव में बाजार की कीमतों की तुलना में बहुत कम होती थीं। बंगाल में भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं, किन्तु 1859-61 के नील-विद्रोह के परिणामस्वरूप वहाँ किसानों को नील व्यापारियों से स्वतंत्रता मिल गयी थी।
गाँधी के दक्षिण-अफ्रीका अभियान के बारे में सुनकर, चम्पारण के कुछ किसानों ने उन्हें वहाँ आकर मदद करने का आव्हान किया। बाबू राजेन्द्र प्रसाद, मजहर उल हक, जे.बी. कृपलानी, नरहरि पारीख, और महादेव देसाई के साथ 1917 में गांधी ने चम्पारण पहुँचकर किसानों के बारे में विस्तृत जानकारी जुटानी शुरू की। गुस्साए जिला अधिकारियों ने उन्हें चम्पारण छोड़ देने का आदेश दिया, किन्तु उन्होंने मुकद्मा और जेल का सामना करने का निर्णय लिया। इसने सरकार को अपना पहला आदेश निरस्त करने पर मजबूर किया और गाँधी की देखरेख में एक समिति का गठन भी किया गया जिसे इस पूरे मामले को देखना था।
(हालांकि गांधीजी की लोकप्रियता और जिस प्रकार वे किसानों को उत्तेजित कर रहे थे, इससे नाराज़ बागान मालिकों ने गांधीजी के विरुद्ध एक ‘‘विषैला आंदोलन‘‘ शुरू किया जिसके तहत वे गांधीजी और उनके सहयोगियों के बारे में दुष्प्रचार करते थे और अफवाहें फैलाते थे। गांधीजी समाचारपत्रों को सूचनाएं और जानकारी भेजते थे जो कभी प्रकाशित ही नहीं की जाती थीं।
जून 12 तक गांधीजी और उनके सहयोगियों द्वारा 8000 से अधिक वक्तव्य दर्ज कराये गए थे, और इनकी उन्होंने एक आधिकारिक रिपोर्ट बनाना शुरू किया। उन्होंने बेतिया और मोतिहारी जैसे विभिन्न स्थानों पर बागान मालिकों और किसानों के साथ अनेक बैठकें कीं। इन बैठकों में लोगों की उपस्थिति 10,000 से 30,000 के बीच थी। 3 अक्टूबर को उन्होंने सरकार को किसानों के पक्ष में एक सर्वसम्मत रिपोर्ट प्रस्तुत की। 18 अक्टूबर को सरकार ने अपना प्रस्ताव प्रकाशित किया, जिसमें अनिवार्य रूप से रिपोर्ट की लगभग सभी सिफारिशें मान्य कर ली गई थीं। 2 नवंबर को श्री मौडे ने चंपारण भूमि विषयक विधेयक प्रस्तुत किया, जो पारित हुआ और चंपारण भूमि विषयक कानून (1918 का बिहार एवं उडीसा अधिनियम प्रथम) बन गया। सरकार ने इन कानूनों को मार्च 1918 में स्वीकार कर लिया)।
3.2 1918 की मिल हड़ताल
1918 में गाँधी ने अहमदाबाद के मिल मालिकों और मजदूरों के बीच चल रहे विवाद में दखल दिया। फरवरी-मार्च 1918 में मिल मजदूरों और मालिकों के बीच, 1917 के प्लेग बोनस को लेकर विवाद चल रहा था। मिल मालिक बोनस नहीं देना चाहते थे जबकि मजदूर अपनी मजदूरी में 50 प्रतिशत बढ़ोतरी चाहते थे। मालिक लोग 20 प्रतिशत बढ़ोतरी के लिए तैयार थे। गाँधी ने श्रमिकों को हड़ताल पर जाने और 35 प्रतिशत बढ़ोतरी की माँग रखने को कहा। पर उन्होनें श्रमिकों से हड़ताल के दौरान मालिकों के खिलाफ हिंसा न करने की सलाह दी। उन्होंने मजदूरों की मांगों के समर्थन में आमरण उपवास प्रारम्भ कर दिये, जिससे मिल मालिकों पर दबाव पड़ा और चौथे ही दिन वे मजदूरी में 35 प्रतिशत बढ़ोतरी के लिए तैयार हो गये।
3.3 1918 का खेड़ा सत्याग्रह
(गुजरात के खेड़ा जिले में अधिकांश किसानों की अपनी स्वयं के स्वामित्व की जमीन थी, और आर्थिक दृष्टि से वे बिहार के अपने समकक्षों की तुलना में बेहतर ढंग से समृद्ध और संपन्न थे। हालांकि यह जिला गरीबी, अल्प संसाधनों, और मद्यपान और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों और समग्र ब्रिटिश उदासीनता और वर्चस्व से ग्रस्त था। जिले के एक बडे़ भाग में एक भयंकर अकाल हुआ जिसने लगभग संपूर्ण कृषि अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया था। गरीब किसानों के पास अपने स्वयं के निर्वाह योग्य ही अनाज उपलब्ध था। परंतु ब्रिटिश सरकार ने इस बात पर जोर दिया कि किसान न केवल पूर्ण कर का भुगतान करें, बल्कि उस वर्ष से प्रभावी होने वाले 23 प्रतिशत अतिरिक्त कर का भी भुगतान करें। 1918 में जिले को फसल नाश का भी सामना करना पडा।
हालांकि नागरिक समूह ज्ञापन दे रहे थे और अत्यंत उच्च करों के विरुद्ध संपादकीय भी निरंतर प्रकाशित किये जा रहे थे, परंतु फिर भी इन सबका ब्रिटिश सरकार पर कोई असर नहीं हो रहा था। गांधीजी ने सत्याग्रह का प्रस्ताव दिया - अहिंसा और व्यापक नागरिक सविनय अवज्ञा। जबकि यह सख्ती से अहिंसक था, गांधीजी वास्तविक कार्रवाई प्रस्तावित कर रहे थे, एक वास्तविक विद्रोह, जिसे अमल में लाने के लिए पीड़ित और प्रताड़ित भारतीय व्याकुल थे। गांधीजी ने सख्त हिदायत दी थी की न तो बिहार के प्रदर्शनकारी और न ही गुजरात के प्रदर्शनकारी स्वराज या स्वतंत्रता का कोई संकेत देंगे, और न ही इसका प्रचार करेंगे। यह राजनीतिक स्वतंत्रता का मुद्दा नहीं था, बल्कि यह एक भयानक मानवीय आपदा के बीच घोर अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह था। भारत के अन्य भागों से प्रतिभागियों और सहायता को स्वीकार करने के साथ ही गांधीजी ने सख्त हिदायत दे रखी थी कि कोई भी अन्य जिला या प्रांत सरकार के विरुद्ध विद्रोह नहीं करेगा, और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी समर्थन के प्रस्ताव पारित करने के अतिरिक्त किसी भी अन्य तरीके से इसमें शामिल नहीं होगी, ताकि ब्रिटिशों को अत्यधिक दमनकारी उपाय करने और इन विद्रोहों पर राजद्रोह का ठप्पा लगाने से रोका जा सके)।
3.4 गाँधीजी का एक नेता के रूप में विकास
इन अनुभवों से गाँधी लोगों के निकट आये जिनके हितों के लिए वे जीवन भर समर्थन देते रहे। वास्तव में वे पहले भारतीय राष्ट्रवादी नेता थे जो भारत और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रतीक बन गये। हिन्दू-मुस्लिम एकता, छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष और देश में महिलाओं की स्थिति में सुधार कुछ अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे थे जो गाँधी के हृदय के निकट थे। उन्होंने स्वयं अपने उद्देश्य पर बोलते हुए कहाः
”मैं एक ऐसे भारत के लिए काम करूँगा जहाँ गरीब से गरीब आदमी भी महसूस करे कि ये उनका देश है, जिसके निर्माण के लिए उनका योगदान महत्वपूर्ण है, एक ऐसा भारत जहाँ लोगों के बीच कोई उच्च या निम्न वर्ग ना हो, एक ऐसा भारत जहां सारे समुदाय सौहार्द के साथ रहें। ऐसे भारत में छूआछूत के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा। महिलाओं के पास भी पुरूषों के समान सारे अधिकार होंगे। ऐसे भारत का निर्माण मेरा स्वप्न है।”
एक समर्पित हिन्दू होने के बावजूद, गाँधी का सांस्कृतिक व धार्मिक दृष्टिकोण संकीर्ण नहीं था। वे लिखते हैं, ”भारतीय संस्कृति न तो पूर्णतः हिन्दू है, ना मुस्लिम, और ना ही कोई और, यह तो इन सबका सम्मिश्रण है।” वे चाहते थे कि भारतीयों की जड़े अपनी संस्कृति में गहरे तक पैठी हों तथा साथ ही वे विश्व की दूसरी संस्कृतियों का भी सर्वोत्तम ग्रहण करें। वे कहते हैंः
”मैं चाहता हूँ कि सभी संस्कृतियाँ मेरे घर में स्वतंत्रतापूर्वक रहें। किन्तु मैं अपने आप को किसी से भी भटका दिया जाना नहीं चाहूंगा। मैं दूसरे के घर में एक पराया, भिखारी या गुलाम बनकर रहने से इंकार करता हूँ।”
3.5 रौलेट एक्ट के विरुद्ध 1919 का सत्याग्रह
1919 में अंग्रेज सरकार ने आम भारतीयों के उपर शक्ति सम्पन्न सत्ता बनाने के लिए एक अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम को रौलेट एक्ट कहा गया क्योंकि रौलेट कमिशन (आयोग) ने ही ’इम्पिरियल लेजस्लेटिव काउंसिल’ को इसकी अनुशंसा की थी। भारतीयों ने इसका विरोध करते हुए इसे ’काला कानून’ कहा। इस कानून का भारतीयों ने बहुत विरोध किया क्योंकि इससे अंग्रेजों को भारतीयों पर ज्यादा अधिकार मिल गये थे। इस नये कानून के अनुसार किसी भी भारतीय को बिना मुकद्मा चलाये जेल भेजने का अधिकार अंग्रेजों को दिया गया। यदि वे किसी भारतीय को अंग्रेज़ों के विरुद्ध षड़यंत्र में भागीदार पाते तो वे ऐसा कर सकते थे। वायसराय को भी प्रेस पर प्र्रतिबंध लगाने का अधिकार इस नये कानून में दिया गया।
दूसरे राष्ट्रवादी नेताओं के साथ गाँधीजी ने भी रोलैट एक्ट का विरोध किया। फरवरी 1919 में उन्होंने सत्याग्रह सभा की स्थापना की जिसके सदस्यों ने यह शपथ ली कि वे इस कानून का विरोध करेंगे और अपनी गिरफ्तारियां देंगे। यह संघर्ष का एक नया तरीका था। अभी तक नरम दल या गरम दल के नेतृत्व में राष्ट्रवादी आंदोलन प्रदर्शनों के रूप में जारी रखा था। बड़ी सभाएं, प्रदर्शन, सरकार से सहयोग से इंकार, विदेशी कपड़ों और स्कूलों का बहिष्कार या व्यक्तिगत उग्रवाद, राजनीतिक काम के तरीके थे। सत्याग्रह ने आंदोलन को एक नई उंचाई प्रदान की। अब राष्ट्रवादी केवल उत्तेजित होने और अपने विचारों को शब्दों में अभिव्यक्त करने के अतिरिक्त कार्य भी कर सकते थे।
यह किसानों, कारीगरों, और शहरी गरीबों को अंग्रेज सरकार के विरुद्ध संघर्ष में जोड़ने की शुरूआत थी। गाँधीजी ने राष्ट्रवादीयों से गावों की और रूख करने को कहा। उन्होंने राष्ट्रवाद का रूख आम आदमी की ओर मोड़ दिया और खादी को इसका प्रतीक चिन्ह बना दिया, जो शीघ्र ही राष्ट्रवादियों का गणवेश बन गयी। उन्होंने श्रम और आत्मनिर्भरता पर जोर देने के लिए चरखा चलाने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि भारत की मुक्ति तभी होगी जब जन समूह नींद से जागकर राजनीति में सक्रिय होगा। गाँधी के आव्हान पर लोग बड़ी संख्या में आंदोलनों में शामिल हुये।
मार्च और अप्रैल 1919 में भारत में बड़ा राजनैतिक आंदोलन हुआ। लगभग सारे ही देश में हड़ताल, जुलूस धरने एवं प्रदर्शन हुये। हिन्दू-मूस्लिम एकता का स्वर गूँजने लगा। पूरा देश ही राष्ट्रवाद की धारा में बहने लगा। अब भारतीय विदेशी शासन के सामने और ज्यादा झुकने को तैयार नहीं थे।
3.6 1919 का जलियांवाला बाग हत्याकांड
भारतीयों के आंदोलन से ड़री हुई अंग्रेज सरकार ने रौलेट एक्ट के विरुद्ध आंदोलन को कुचलने का निश्चय किया। भय और बर्बरता का प्रदर्शन करते हुए कई जगह लाठी चार्ज किये गये और निहत्थे लोगों पर बॉम्बे, अहमदाबाद, कलकत्ता, दिल्ली और कई शहरों में गोलियाँ भी चलाई गयीं। 6 अप्रैल 1919 को गाँधीजी ने महा हड़ताल का आव्हान किया। लोगों ने पूरे उत्साह के साथ इसमें भाग लिया। सरकार ने इस आंदोलन को, विशेषकर पंजाब में कुचलने का निर्णय लिया। 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर (पंजाब) के जलियांवाला बाग में बड़ी संख्या में निहत्थे लोग इकट्ठा हुए। वे अपने नेता डॉ. सैफउद्दीन किचलू और डॉ. सत्यपाल की गिरफ्तारी का विरोध कर रहे थे। जनरल डायर जो कि अमृतसर में सैनिक कमाण्डर था, ने लोगों से पूर्ण समर्पण करवाने का निश्चय किया। जलियांवाला बाग एक बड़ा खुला मैदान था, जो तीन ओर से बड़े भवनों से घिरा हुआ था। बाहर निकलने का एक ही रास्ता था। उसने बाग को अपनी सेना के माध्यम से चारों और से घेर लिया और बाहर निकलने के द्वार को बंद कर दिया। और फिर अपने जवानों को आदेश दिया कि वे भीड़ पर रायफल और मशीनगनों से आक्रमण करें। उन्होनें तब तक गोलियाँ चलाई जब तक कि उनका असलाह खत्म ना हो गया। हजारों लोग मारे गये और घायल भी हुए। इस हत्याकांड के बाद पूरे पंजाब में सैनिक शासन लागू कर दिया गया और लोगों को क्रूर अत्याचारों के सामने झुकना पड़ा। यह पंजाब में फैले हुये भय की एक झलक मात्र थी। जैसे ही पंजाब की घटना की खबर पूरे देश में फैली, दहशत की एक लहर एक भय की लहर दौड़ गयी। लोगों ने साम्राज्यवादी और विदेशी शासन का क्रूरतम और बदसूरत चेहरा देखा। भारतीयों ने पहली बार अंग्रेजों की नग्न महत्वकांक्षा को देखा जिसने उनकी शर्महीनता और पाशविकता को सामने ला दिया था।
जनभावना को प्रकट करते हुए महान कवि और मानवतावादी रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी नाईटहुड की उपाधि लौटा दी और घोषणा कीः
”समय आ गया है जब, सम्मान के तमगे दरअसर हमें शर्मशार कर रहे हैं, जहाँ तक मेरा सवाल है मैं स्वयं को सारे विशेषाधिकारों से तोड़कर मेरे देशवासियों के साथ खड़ा रहना चाहता हूँ जो तथाकथित रूप से महत्वहीन माने जाते हैं, और अमानवीय अत्याचार सहने को मजबूर हैं ।”
भारत और भारतीय लोग स्वतंत्रता आन्दोलन के अन्तिम दौर में प्रवेश कर चुके थे। शताब्दियों के अत्याचारों और शोषण के पश्चात, अंग्रेजों को गाँधीवादी उपचार पद्धति का सामना करना था, जो उन्हें दो दशक बाद इस उपमहाद्वीप से हमेशा के लिए खदेड़ देने वाली थी।
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