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प्रथम विश्व युद्ध और भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन
1.0 प्रस्तावना
जून 1914 में प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ हुआ। इसमें एक ओर ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और जापान (जिनके साथ बाद में अमेरिका और इटली भी जुड़ गये) थे तो दूसरी ओर जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी और तुर्की आदि थे। भारत में युद्ध के वर्षों को राष्ट्रवाद की परिपक्वता का दौर कहते हैं। भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं की प्रतिक्रिया दो स्तरों पर हुई। कई नेताओं ने, जिनमें लोकमान्य तिलक भी शामिल थे, जिन्हें 1914 में रिहा कर दिया गया था, युद्ध के समर्थन का निर्णय इस आधार पर लिया कि अंग्रेज भारतीयों की वफादारी का पुनर्भुगतान अधि-राज्य का प्रावधान बनाकर करेगें। उन्होनें इस तथ्य को नहीं समझा कि विभिन्न शक्तियोँ प्रथम विश्व युद्ध अपने उपनिवेशों की रक्षा के लिए ही लड़ रही हैं।
2.0 होम रूल लीग
कई भारतीय नेता इस बात को स्वीकार कर चुके थे कि अंग्रेज सरकार तब तक किसी प्रकार की छूट नहीं देगी जब तक कि लोकप्रिय जनमत का दबाव नहीं होगा। अंग्रेजों पर दबाव बनाने के लिए राजनीतिक जन आन्दोलन आवश्यक था। कई और कारक भी राष्ट्रीय आंदोलन को इस दिशा में मोड़ रहे थे। विश्व युद्ध ने इस मिथक को खत्म कर दिया था कि पश्चिमी देश, एशियाई देशों से श्रेष्ठ हैं क्योंकि उनकी जाति श्रेष्ठ है, और युद्ध से भारत के गरीबों की समस्याएं और बढ़ गई थी। अंग्रेजों ने युद्ध की लागत के कारण करों में वृद्धि कर दी। अंग्रेजां की आर्थिक नीतियों के कारण आवश्यक वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे थे। इसलिए उस समय लोग किसी भी जन-आंदोलन में भाग लेने को तैयार थे।
1907 के सूरत विभाजन के पश्चात्, उदारवादी नेताओं के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, निष्क्रिय और निर्जीव राजनीतिक संगठन बन चुका था जिसके पास कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं था जिस पर लोग विश्वास कर सकें। इसलिए दो होम-रूल लीगों की स्थापना 1915-16 में की गई। एक के नेता लोकमान्य तिलक थे तो दूसरी कीं, भारतीय संस्कृति एवं लोगों की एक अंग्रेज प्रशंसक महिला, एनी बेसेन्ट और एस. सुब्रमण्यम अय्यर।
श्रीमती एनी बेसेन्ट जो जन्म से आयरिश थीं, थियोसाफिकल सोसाइटी को सदस्य के रूप में भारत आईं थी। बाद में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली। उन्होंने 1914 में लन्दन में एक होमरूल लीग की स्थापना की थी, और एक होमरूल लीग की स्थापना 15 सितम्बर 1916 में की जिसका मुख्यालय मद्रास के निकट अडयार में था।
तिलक की लीग की स्थापना 28 अप्रैल 1916 में हुई जिसका मुख्यालय पूना में था। दोनो ही लीगों ने एक दूसरे से सहयोग किया और दोनों ने ही गतिविधियों के कार्यक्षेत्र भी विभाजित कर लिये। जहाँ तिलक की होमरूल लीग ने अपना कार्यक्षेत्र (वर्तमान के) महाराष्ट्र, कर्नाटक, म.प्र. और बेरार को बनाया, वहीं बेसेन्ट की लीग ने शेष भारत में कार्य किया। इसी दौरान तिलक ने उदारवादियों पर उन्हे कांग्रेस में प्रवेश देने का दबाव बनाये रखा। वे जानते थे कि एक जनाधार वाले आंदोलन को कांग्रेस की सहायता की जरूरत होगी। दोनो ही लीगों ने पूरे देश भर में ’होमरूल’ या युद्ध के बाद ’स्वराज’ के लिए प्रचार जारी रखा। इसी आन्दोलन के दौरान तिलक ने अपना प्रसिद्ध नाराः ”स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं इसे लेकर ही रहूँगा“ दिया। तिलक और बेसेन्ट दोनों ने ही पूरे देश का दौरा किया और लोगों के बीच होमरूल/स्वराज का संदेश पहुँचाया। उन्होंने अपना सन्देश समाचार पत्रों, जनसभाओं, और पैम्पलेट बांटकर फैलाने की कोशिश की। तिलक ने अपने समाचार पत्र ’यंग इण्डिया’ और बेसेन्ट ने उनके मुखपत्र ’न्यू इण्डिया’ के माध्यम से लोकप्रिय भावनाओं को जगाने की कोशिश की। आन्दोलन में मोतीलाल नेहरू और तेजबहादुर सप्रू जैसे उदारवादी नेताओं को आकर्षित किया जो इसके सदस्य भी बने। इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध के दौरान होमरूल लीग एक शक्तिशाली आन्दोलन बनकर उभरा। आंदोलन का उद्देश्य प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश राज के अधीन ही, भारत को स्वराज दिलाना था। यह संवैधानिक सीमाओं के अन्दर ही था। दोनों ही लीगों ने त्वरित प्रगति की। कई उदारवादी नेता जो कांग्रेस की निष्क्रियता से असंतुष्ट थे, होमरूल आन्दोलन से जुड़े। स्वाभाविक तौर पर होम रूल लीगों ने भारतीय अंग्रेज सरकार का ध्यान, और गुस्सा, अपनी ओर खींचा।
2.1 होम रूल आन्दोलन का पतन
अंग्रेजों ने आंदोलन को बलपूर्वक कुचलने की कोशिश की। श्रीमती बेसेन्ट पर दबाव डाला गया कि वे ’न्यू इण्डिया’ का प्रकाशन बंद करें, व उन्हें घर में ही नजरबंद कर दिया गया। आंदोलन ने एकाएक तब अखिल भारतीय रूप धारण कर लिया जब तिलक व बेसेन्ट को निजी मुचका भरने से इंकार करने पर कैद कर लिया गया। आंदोलन के कारण आम जनता में राष्ट्रभक्ति, निर्भयता, आत्म-सम्मान और बलिदान की भावनाएँ जागृत हुई। अंततः सरकार ने झुकते हुए 1917 में मोंटेग-चेम्सफोर्ड घोषणापत्र स्वीकार किया जिसमे एक क्रमागत प्रक्रिया के माध्यम से भारतीयों को स्वराज्य देने का लक्ष्य रखा गया। होमरूल-आंदोलन का 1917 में कांग्रेस में विलय हो गया और उसी वर्ष श्रीमती एनीबेसेंट पहली महिला के रूप में कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनी गईं। कांग्रेस ने भी ’होमरूल’ (स्वराज्य) के उद्देश्यों को स्वीकार कर लिया। यह आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता थी।
किन्तु, भारत सरकार अधिनियम 1919 के पारित होने पर, इससे संबंधित मुद्दों पर कांग्रेस विभाजित हो गई। जहाँ एक ओर तिलक एक कानूनी केस लड़ने के लिए लन्दन चले गये वहीं श्रीमती बेसेंट ने सुधारों की नई योजना को स्वीकार कर लिया, इससे आन्दोलन कमजोर पड़ गया। यद्यपि होमरूल आन्दोलन अपने लक्ष्य हासिल करने में असफल हो गया तो भी इसके कारण, युद्ध के वर्षों में जब कांग्रेस जनता को कोई दिशा देने में असफल हो गयी थी, भारतीयों के दिलों में राष्ट्रवाद की आग सुलगती रही। होमरूल आन्दोलन के संबंध में प्रो. एस.आर. मेहरोत्रा कहते हैं, ”होमरूल लीग ने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन को गहरे तक प्रभावित किया। पहली बार कोई आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर हुआ और राजनीतिक समितियों ने भारत के बहुत बड़े हिस्से तक पहुंच बना ली।”
3.0 1914 की कोमागाता मारू घटना और गदर पार्टी
कोमागाता मारू एक जापानी जहाज था, जो 1914 में 376 यात्रियों को पंजाब (भारत) से लेकर हाँगकाँग, शंघाई, चीन, योकोहामा होते हुए वैंकूवर ब्रिटिश कोलम्बिया के रास्ते कनाड़ा पहुँचा। उन यात्रियों में से 20 को कनाड़ा ने स्वीकार कर लिया, किन्तु 356 यात्रियों को कनाड़ा में उतरने की स्वीकृति नहीं दी गयी और जहाज को जबरन वापस भारत जाने के लिए मजबूर किया गया। यात्रियों में 340 सिक्ख, 24 मुस्लिम और 12 हिन्दू थे, और ये सभी ब्रिटेन की ही प्रजा कहलाते थे। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ की ये उन कुछ घटनाओं में से एक थी जो कनाड़ा और संयुक्त राज्य अमेरिका के उन आप्रवासी नियमों को दर्शाती है, जिनके अनुसार एशियाई मूल के प्रवासी नागरिकों को वहाँ रहने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
कोमागाता मारू घटना के द्वारा भारतीय समूहों द्वारा व्यापक स्तर पर, कनाड़ा के पक्षपात पूर्ण प्रवासी नियमों का प्रचार किया गया। इसके साथ ही घटना से संबंधित भावनाओं को भारतीय क्रांतिकारी संगठन गदर पार्टी द्वारा भी समर्थन देकर उत्प्रेरित करने की कोशिश की गई। 1914 में केलिफोर्निया में भी कई सभायें आयोजित की गई, जिनमें प्रमुख अप्रवासी भारतीयों जैसे बरकतउल्लाह, तारकनाथ दास, और सोहन सिंह जैसे गदरपार्टी के सदस्यों ने इस घटना का उपयोग गदर आन्दोलन के लिए सदस्यों की भर्ती करने के लिए भी किया। सबसे उल्ल्ेखनीय कार्य था भारत में हो रहे जन-भावनाओं के उभार का प्रचार-प्रसार कर उनका समर्थन करना। आम जनता से इन योजनाओं को समर्थन नहीं मिलने से कुछ ज्यादा हासिल नहीं हो पाया।
1900 में पंजाब एक जबरदस्त आर्थिक संकट से जूझ रहा था इसलिए बड़ी संख्या में लोग उत्तरी अमेरिका के प्रशांत महासागरीय तटों की ओर पलायन कर रहे थे। इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप कनाड़ा सरकार ने ऐसे कानून बनाये जो दक्षिण एशियाई लोगों के कनाड़ा में प्रवेश को नियंत्रित करे और जो वहाँ पहले से रह रहे थे, उनके राजनीतिक अधिकारों को भी प्रतिबंधित करे। कोमागाता मारू घटना राजनैतिक नीतियों का ही परिणाम थी। पंजाबी समुदाय अब तक ब्रिटिश साम्राज्य और कॉमनवेल्थ के प्रति, महत्वपूर्ण वफादार शक्ति थी (यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश भारतीय सेना में, बड़ी संख्या में पंजाबी सैनिकां की भर्ती उनकी वफादारी के कारण की गई थी) और इस समुदाय को यह उम्मीद थी उनकी वफादारी के एवज में अंग्रेजां व गोरे अप्रवासियों के समान बराबरी के अधिकार मिलेंगे। किन्तु आव्रजंन विरोधी कानून ने, उपनिवेश विरोधी भावनाओं को भड़काया और इस समुदाय के पंजाबी नागरिकां ने बड़ी संख्या में अमेरिका की ओर पलायन किया लेकिन वहाँ भी राजनीतिक व सामाजिक समस्याओं से सामना करना पड़ा।
इण्डियन इंडिपेंंडेन्स लीग की स्थापना पोर्टलैण्ड, ऑरेगॉन में पी.एस. खानखोजे, कांशीराम और तारकनाथ दास जैसे भारतीय छात्रों ने की थी। राष्ट्रवादी कार्यक्रम इसी दौर में गतिशील होने लगे। खानखोजे के काम ही उन्हें तारकनाथ दास सहित अमेरिका में राष्ट्रवादियों के निकट लाये। वे 1911 में लाला हरदयाल से मिले। उन्होने कभी वेस्ट कोस्ट सैन्य अकादमी में भी अपना पंजीयन कराया था। गदर पार्टी, (आरम्भ में पेसिफिक कोस्ट हिन्दुस्तान एसोसिएशन) की स्थापना 1913 में अमेरिका में सोहनसिंह भाकना की अध्यक्षता और लाला हरदयाल के नेतृत्व में हुई। इसे अपने सदस्य अप्रवासी भारतीयों विशेषकर पंजाबी समुदाय से मिले। लाला हरदयाल, तारकनाथ दास, करतार सिंह सारभा और वी.जी. पिंगले जैसे कई प्रमुख सदस्य केलिफोर्निया विश्वविद्ययालय बर्कले से थे। पार्टी को अमेरिका, कनाड़ा और एशिया में कई जगह अप्रवासी भारतीयों का भारी समर्थन मिला। गदर पार्टी की सभाए लॉसएंजिल्स, आक्सफोर्ड, वाशिंगटन डी.सी. और शंघाई जैसे शहरों में हुई। गदर पार्टी का उद्देश्य एक सशस्त्र क्रांति के द्वारा अंग्रेजी उपनिवेश को भारत से उखाड़ फेंकना था। इसकी सबसे महत्वपूर्ण रणनीति भारतीय सैनिकों को विद्रोह के लिए उकसाना था। इसलिए नवम्बर 1913 में गदर पार्टी ने ’युगान्तर आश्रम प्रेस’ की स्थापना सेन फ्रांसिस्को में की। इस प्रेस से ’हिन्दुस्तान गदर’ नामक समाचार पत्र और अन्य राष्ट्रवादी साहित्य प्रकाशित होता था।
1914 में विश्वयुद्ध शुरू होने पर गदर पार्टी ने अपने आदमियों और हथियारों को, सैनिकों और स्थानीय क्रंतिकारियों की मदद से, एक गदर की शुरूआत के लिए भेजने का निर्णय लिया। हजारों लोग स्वेच्छा से भारत वापस लौटने को तैयार हो गये। लाखों डॉलर उनके खर्च के लिए एकत्रित किये गये। कई लोगों ने अपनी जीवन भर की जमा पूँजी, जमीनें और सम्पत्ति दे दी। गदर पार्टी के लोगों ने सूदूर पूर्व, दक्षिण पूर्व एशिया और पूरे भारत में भारतीय सैनिकों से सम्पर्क किया और कुछ रेजिमेन्टस को विद्रोह के लिए तैयार कर लिया। 21 फरवरी 1915 पंजाब में सशस्त्र विद्रोह की तारीख तय कर ली गई। दुर्भाग्यवश, अधिकारियों को इस योजना का पता चल गया और उन्होनें त्वरित कार्यवाही की। विद्रोही रेजिमेन्ट्स को प्रतिबंधित कर या तो उनके नेताओं को फाँसी दे दी गई या जेल में डाल दिया गया। उदाहरण के लिए 23वीं बटालियन के 12 लोगों को फाँसी दे दी गई। पंजाब में गदर पार्टी के नेताओं और सदस्यों को बड़ी संख्या में कैद किया गया। उनमें से 42 को फांसी, 114 को आजीवन कारावास, और 93 को लम्बी कैद की सजा दी गई। उनमें से कई ने अपनी रिहाई के बाद पंजाब में कीर्ति और कम्युनिस्ट आंदोलन की शुरूआत की। बाबा गुरूमुख सिंह, करतार सिंह सराभा, सोहन सिंह भाकना, रहमत अली शाह, भाई प्रेमचंद और मोहम्मद बरकतउल्लाह कुछ प्रमुख गदरवादी थे।
गदर आंदोलन ने कई लोगों को ब्रिटेन के विरूद्ध विद्रोह के लिए प्रेरित किया। सिंगापुर में 5वीं लाइट इन्फेन्ट्री के जवानों ने जमादार चिश्ती खान और सुबेदार डुंडे खान के नेतृत्व में विद्रोह किया। एक भयानक लड़ाई, जिसमे कई लोग मारे गये, के बाद वे कुचल दिये गये। 37 लोगों को सार्वजनिक फाँसी दी गई, जबकि 41 लोगों को आजीवन निर्वासन दिया गया। 1915 में एक असफल क्रांतिकारी प्रयास में जतिन मुखर्जी जिन्हे ’बाघा जतिन’ के नाम से भी जाना जाता है, ने पुलिस से लड़ते हुए बालासोर में अपने प्राणों की आहूति दी। रास बिहारी बोस, राजा महेन्द्र प्रताप, लाला हरदयाल, अब्दुल रहीम, मौलाना ओबेदुल्ला सिंधी, चंपक रमन पिल्लैई, सरदार सिंह राणा और मैडम कामा दूसरे अन्य भारतीय थे जिन्होने विदेशों में क्रांतिकारी गतिविधियाँ संचालित की जहाँ उन्हे समाजवादी और अन्य उपनिवेश विरोधी शक्तियों का समर्थन मिला।
4.0 1916 का कांग्रेस का लखनऊ अधिवेशन
राष्ट्रवादियों को लगने लगा था कि अंग्रेजों के विरूद्ध एक संयुक्त मंच की जरूरत है। देश में बढ़ती हुई राष्ट्रीय भावनाओं और राष्ट्रीय एकता की चाहत ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1916 के अधिवेशन में दो महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं को जन्म दिया। पहला, कांग्रेस के दोना धड़े एकत्रित हो गये। पुराने विवादों ने महत्व खो दिया था और विभाजन के कारण कांग्रेस निष्क्रिय हो गई थी। तिलक ने 1914 में जेल से रिहा होने के बाद इस परिवर्तन को महसूस किया और कांग्रेस की दोनों धाराओं का मिलाने के लिए अपने मत को भी लचीला बनाया। उन्होंने घोषणा की, ’मैं सभी से आव्हान करता हूँ कि हम भारत में वही करने की कोशिश कर रहे हैं जो होमरूल आयरलैण्ड में करते आ रहे हैं। हम प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार चाहते हैं न कि सरकार को उखाड़ फेंकना, और मुझे यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि भारत के विभिन्न भागों में घटित हिंसा की घटनाए न केवल मेरे लिए घृणित हैं, किन्तु मेरे दृष्टिकोण में दुर्भाग्यवश, एक बड़ी सीमा तक हमारी राजनीतिक प्रगति को अवरूद्ध करती हैं।”
उदारवादी नेता, राष्ट्रवाद के बढ़ते ज्वार के कारण कांग्रेस के पुराने नेताओं का स्वागत करने को मजबूर थे। 1907 के बाद लखनऊ कांग्रेस पहली एकीकृत कांग्रेस थी। इसने स्वराज्य के लिए और ज्यादा संवैधानिक सुधारों की माँग रखी। कांग्रेस और लीग के बीच एकता ’कांग्रेस लीग समझौते’ पर हस्ताक्षर के बाद आई जिसे ’लखनऊ पेक्ट’ के नाम से जाना जाता है। इस कार्य में दोनों को साथ लाने की महत्वपूर्ण भूमिका बालगंगाधर तिलक और मोहम्मद अली जिन्ना ने निभाई क्यांकि दोनो को विश्वास था कि केवल हिन्दू-मुस्लिम एकता के द्वारा ही भारत स्वराज्य पाने की लड़ाई जीत सकता है। तिलक ने घोषणा की कि, मुझे कुछ लोगों ने कहा कि हम हिन्दुओं ने हमारे मुसलमान भाईयों की कुछ ज्यादा ही माँगे मान ली हैं। मैं निश्चित तौर पर दावा करता हूँ कि जब मैं ये कहता हूँ कि हमने बहुत ज्यादा समर्पण नहीं किया है तो मैं सारे हिंदू समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हूँ। मुझे इस बात की चिन्ता नहीं है कि यदि स्वराज्य के अधिकार केवल मुसलमानों या हिन्दुओं की निम्न या निम्नतम जातियों को दिये जाते हैं। जब हमे किसी तीसरे से लड़ना है तो जरूरत इस बात कि है की हम एक मंच पर एकता के साथ खड़े रहें, एकता जाति व धर्म के आधार पर, चाहे राजनीति सिद्धांत कितने ही भिन्न क्यों ना हां।
लखनऊ समझौता हिन्दू मूस्लिम एकता की दिशा में एक महत्वपूर्ण बिन्दू था। दुर्भाग्यवश, इसमे हिन्दू और मुस्लिम ज्यादा बड़ी मात्रा में शामिल नहीं थे और इसमें अलग चुनाव क्षेत्रों का सिद्धान्त स्वीकार किया गया था। इसका ध्यान शिक्षित हिन्दुओं और शिक्षित मुसलमानों को राजनीतिक इकाई के रूप में, बिना धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण विकसित किये, साथ लाना था। इस तरह लखनऊ समझौते ने भारतीय राजनीति में भविष्य में होने वाले साम्प्रदायिक अलगाव के रास्ते खोल दिये थे।
लखनऊ में जो कुछ हुआ इसके प्रभाव शीघ्र दिखाई पड़ने लगे। उदारवादियों एवं कट्टरवादियों के बीच एकता तथा कांग्रेस और मुस्लिमलीग की एकता ने देश की राजनीति में उत्साह की लहर पैदा की। यहाँ तक की अंग्रेज़ सरकार को भी राष्ट्रवादियों को शांत करना पड़ा। पहले राष्ट्रवादी आन्दोलन को कुचलने के लिए सरकार ने शक्ति का सहारा लिया था। बड़ी संख्या में कट्टर राष्ट्रवादियों और क्रांतिकारियों को जेल भेजा गया था या कुख्यात भारत सुरक्षा अधिनियम या इस जैसे नियमों के तहत बंदी बनाया गया था। सरकार ने अब राष्ट्रवादी विचारों को शांत करने का निर्णय लिया। 20 अगस्त 1917 को उन्होनें घोषणा की कि भारत में उनकी नीति, भारत को ब्रिटिश साम्राज्य का अविभाज्य अंग मानते हुए, एक जिम्मेदार सरकार गठन की दिशा में स्वशासी संस्थानों का क्रमशः विकास करना है। जुलाई 1918 में मांटेग-चेम्सफोर्ड सुधारों की घोषणा की गई। किन्तु यह ”बहुत थोड़ा वह भी बहुत देर से” दिया गया मामला था। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को शीघ्र ही इसके तीसरे व अन्तिम दौर-संघर्ष के दौर गाँधी युग में प्रवेश करना था।
- She was born on 13th February 1879 at Bikrampur (now in Bangladesh) to Barada Sundari Devi and Aghore Nath Chattopadhyay
- Thanks to her father who was a doctorate of science from Edinburgh University, and a mother who was a Bengali poet , she stepped into the literary world quite early at the age of 12
- Sarojini first work into literature was a play named ‘Maher Muneer’ which impressed Nizam of Hyderabad and he awarded her a scholarship at the age of 16
- Her tenure as a student in King’s College in London and Girton College in Cambridge inspired her to write Indian-themed poetries
- Seeing her amazing work, Nobel Laurate Arthur Simon and Edmond Gausse convinced her to stick to Indian-themed poetries, just because she is so good at it. She retort to their advice and went on to become one of the best poet to depict contemporary Indian life and events through her work.
- She released a collection of poetries in 1905
- Sarojini Naidu started her political career by being a part of Indian National Movement in 1905. She travelled to multiple locations from 1915 to 1918 spreading welfare. She founded the WIA (Women’s India Association) in 1917
- She took over the presidency of Indian National Congress in 1925. She was also a part of Salt Satyagraha in 1930 and later on presided the East African Indian Congress in South Africa
- ¨She became the first women governor of India and served as the governor of United Provinces of Agra and Oudh from 1947 to 1949
- A number of educational institutions including, Sarojini Naidu Medical College, Sarojini Naidu College for Women, Sarojini Naidu School of Arts and Communication have been attributed to the legend Sarojini Naidu.AHA Taxis wishes a very Happy Birthday to the legend, to the Nightingale of India, Sarojini Naidu
- Bagha Jatin Mukherjee (1879-1915) revolutionary activist. Bagha Jatin's real name was Jatindra Nath Mukherjee. He hailed. It is said that he came to be called 'Bagha Jatin' after killing a tiger single-handed and without any arms. He learnt short hand and type writing after passing the Entrance Examination and was appointed a stenographer to the government of Bengal. Jatin, a strong and stout young man, proved his efficiency as a sincere, honest, obedient and diligent employee.
- Jatin was born in Kayagram, a village in the Kushtia subdivision of Nadia district in what is now Bangladesh. His parents were Umeshchandra Mukherjee and Sharatshashi; he grew up in his ancestral home at Jhenaidah till his father's death when Jatin was five years old. His mother settled in her parents' home in Kayagram with him and his elder sister. As he grew older, Jatin gained a reputation for physical bravery and great strength; charitable and cheerful by temperament, he was fond of enacting mythological plays and playing the roles of god- loving characters.
- Jatin, a man with a strong sense of self-respect and national pride, came in contact with Aurobindo Ghosh, and took part in climbing, swimming and shooting in the bodybuilding. In 1908 Jatin, with some revolutionaries, was implicated in the Alipore Conspiracy Case. In the judgement Barin Ghosh was deported for life, many others were sentenced to various terms and the Anushilan Samiti was declared illegal and banned. Jatin was acquitted for want of evidence, went in hiding and continued underground works with other revolutionaries.
- Jatin was once again arrested in the Hawra-Shibpur Conspiracy Case, and those who were arrested with him were given the common name 'Jatin's gang'. They were so ruthlessly tortured that some of them died and some went insane. Jatin, though acquitted in this case also for want of evidence, was dismissed from service. When in jail, Jatin made a long term programme to capture power through armed insurrection. He planned to unite different groups of patriots and with this intention Naren travelled extensively all over India as a Sanyasi and organised the revolutionaries in Bengal and elsewhere. The leaders of various groups gathered together on the occasion of relief works during the floods in Hughli and Midnapore. They chose Jatin Mukherjee and Rashbehari Bose as leaders for Bengal and northern India respectively.
- With the outbreak of the First World War, the Indian revolutionaries of Europe gathered together in Berlin to form the Indian Independence Party and sought German assistance, to which the German government agreed. The Indian Independence Party sent an emissary to Jatin Mukherjee to negotiate with the German Consulate in Calcutta. In the meantime Jatin was made the Commander-in-Chief of the entire revolutionary forces.
- Police, however, discovered the hideout of Jatin in a paddy field. On 9 September 1915, after heavy exchange of fire, two revolutionaries surrendered. Police found Jatin dead with two others injured.
- Annie Besant was a prominent British theosophist and reformer, who was a supporter of Indian Independence. On this day, August 1, 1916, she started the Home Rule League.
- Annie was born on October 1, in the year 1847 in London into a middle class family of Irish origin. When Annie Besant's mother could not afford her education, she sent her to a friend, Ellen Marryat's care.
- In Marryat's care, Besant was given a sense of duty to society and what independent women could achieve.
- Besant fought for the causes she thought were right. She fought for freedom of thought, women's rights, secularism, birth control, and workers' rights.
- She was also a leading member of the National Secular Society
- After her divorce, she began to question her long-held religious beliefs and began to write attacks on the churches and the way they controlled people's lives. She was against the role of Church of England as a state-sponsored faith
- Annie Besant was a brilliant speaker. Through her speeches, she always demanded improvement, reform and freedom
- She published foothills of essays, wrote a textbook, and became the editor of the New India newspaper
- Besant came to India on November 16, 1893 to attend the Annual Convention of the Theosophical Society in Madras and after five years she established the Central Hindu College at Benares which is one of the largest schools in India. It is also called the nucleus of the Benares Hindu University
- In 1914, Besant founded a weekly newspaper Commonweal in January 1914. In June, she purchased the Madras Standard and renamed it 'New India'.
- In 1917, Besant started the Women's Indian Association. In 1932, she was made Honorary Commissioner for India
- Besant also participated in Indian political matters and joined the Indian National Congress
- In the year 1916, Besant flung open the All India Home Rule League along with Lokmanya Tilak
- In June 1917, Besant was arrested for participating in Indian political matters. It is said that in prison, Besant disobediently flew a red and green flag. She died in India on September 20, 1933.
- Aga Khan III, personal name Sultan Sir Mohammed Shah, (born November 2, 1877, Karachi, India [now in Pakistan]—died July 11, 1957, Versoix, Switzerland), only son of the Aga Khan II. He succeeded his father as imam (leader) of the Nizari Isma?ili sect in 1885.
- Under the care of his mother, who was born into the ruling house of Iran, he was given an education that was not only Islamic and Oriental but also Western. In addition to attending diligently to the affairs of his own community, he rapidly acquired a leading position among India’s Muslims as a whole. In 1906 he headed the Muslim deputation to the British viceroy, Lord Minto, to promote the interests of the Muslim minority in India. The Morley-Minto reforms of 1909 consequently provided for separate Muslim electorates. The Aga Khan served as president of the All-India Muslim League during its early years and initiated the fund for raising the Muslim college at Aligarh to university status, which was effected in 1920.
- When World War I (1914–18) broke out, the Aga Khan supported the Allied cause, but at the subsequent peace conference he urged that the Ottoman Empire (and its successor state, Turkey) should be leniently treated. He played an important part in the Round Table Conference on Indian constitutional reform in London (1930–32). He also represented India at the World Disarmament Conference in Geneva in 1932 and at the League of Nations Assembly in 1932 and from 1934 to 1937. He was appointed president of the League in 1937. During World War II (1939–45) he lived in Switzerland and withdrew from political activity.
- The Aga Khan was also well-known as a successful owner and breeder of Thoroughbred racehorses.
- India was the largest contributor of soldiers to the British Empire. According to Wikipedia, about 800,000 soldiers fought for the British Empire. Total contribution from India was more than combined contribution of South Africa, Canada, New Zealand and Australia.
- Indian troops were present in all major war theaters including Europe’s Western Front to Africa. They even fought in China.
- At the end of the war, 62,000 Indian soldiers were killed in action and another 67,000 were wounded. However, the overall casualties were greater because many Indian soldiers died of illness and because of extreme cold conditions in some of the Western fronts. The total casualties on Indian side because of combined reasons stood to 74,187.
- Nearly 4,000 Indian soldiers went missing after the war. Most probably they either died in action (and were not accounted for) or they were taken captive by the enemy.
- Nearly 700,000 Indian soldiers were mobilized against the formidable Ottoman Empire in Mesopotamia. This turned out to be the bloodiest battle for Indian troops with over 30,000 casualties and more than 32,000 wounded in combat.
- The bone chilling winters of France was a whole new challenge for Indian soldiers. Not accustomed to such extremely cold weather conditions, nearly 9,000 Indian soldiers succumbed to death because of the fierce winter.
- While the common Indian soldiers were involved on several war theaters, even Indian royalty was involved in Britain’s war efforts. Bhupinder Singh – Maharaja of Patiala participated in Gallipoli Campaign. Maharaja Sir Ganga Singh (Maharaja of Bikaner) was the commander of Bikaner Camel Corps that fought in Palestine, Egypt and France.
- India significantly contributed to war efforts by supplying 600,000 machine guns, motors and rifles. In addition, 70,000,000 small arms ammunition rounds were also supplied from India.
- Not just armed soldiers, India also offered over 43,000 for Indian Labor Corps. These non-combatants were tasked with work like handling supplies, quarrying, carpentry, road development etc. To narrow it down, they were tasked with every other work other than fighting.
- Not just men and material, India also supplied enormous amounts of wealth to aid British Empire. About 100 million pounds of wealth was contributed from Indian subcontinent.
- India’s Army Clothing Department, during the 4-year period of the war, churned out 41,920,223 garments that were used not just by Indian troops but also by troops from other countries that fought for British Empire.
- In total, India contributed 1,302,394 personnel (including both combatants and non-combatants), 369.1 million tons of total war supplies and 172,815 animals for aiding the British Empire during the World War I.
- In today’s context, the total value of India’s contribution towards WWI was Rs. 7,420,800,000.00. Back in those days the total contribution was worth 80,000,000 British Pounds.
- During the war, Indian troops displayed unmatched gallantry because of which, many Indian soldiers were give Victoria Cross. Prior to 1911, no Indians were eligible for Victoria Cross. Rather, they were given Indian Order of Merit.
- The first Indian soldier to earn Victoria Cross was sepoy Khudadad Khan. Darwan Singh Negi was the second soldier to receive the Victoria Cross.
- In total Indian soldiers won 11 Victoria Cross awards. Victoria Cross is the highest military award in Great Britain. In total, Indians won 13,000 medals for their gallantry during WWI.
- Even after the end of WWI, the Indian forces continued to stay engaged in military conflicts. The most notable ones were Third Afghan War and Waziristan Campaign. These engagements continued until the outbreak of World War II.
- Not just men, even women were deployed in Imperial service during WWI. Queen Alexandra’s Imperial Military Nursing Service (QAIMNS) actually originated in Indian Army.
- At the beginning of the war in 1914, a total of 300 Indian nurses served in QAIMNS and by the time the war ended, the numbers went up to 10,404 (including nurses from India and other countries). A total of 200 nurses died while being on active service. Many of these nurses who lost their lives were Indians.
- The India Gate located in New Delhi was built in year 1931. It was built for commemorating those Indian soldiers who lost their lives in action during WWI.
- The first World War began as a local war between Austria-Hungary and Serbia in 1914. It grew into a war involving 32 countries. The Allies included Britain, France, Russia, Italy and the United States. These countries fought against the Central Powers which included Germany, Austria-Hungary, Ottoman Empire and Bulgaria.
- Archduke Ferdinand, of Austria-Hungary, was assassinated by a Serb on June 28, 1914. This was the formal start of the war, although the countries had problems with each other before that. The countries of Britain, France and Germany had all grown strong and had large armies. They all wanted to sell their products to foreign countries. Several times Britain and France had been in strong arguments with Germany over markets in Africa. Europe was divided into two groups who were hostile to each other.
- After the assassination, Austria declared war on Serbia. A few days later, Germany declared war on Russia, then on France. As the war progressed, other countries took sides and declared war. Finally the United States entered the war against Germany on April 6, 1917.
- At first, the USA was neutral (NOO trul). But the Germans were sinking ships in an area around Britain (to prevent food and supplies from reaching Britain). The Germans sank a passenger ship named the Lusitania without warning, killing many people onboard, including 128 Americans. Later they sank a French ship, also killing some Americans. The Germans promised to stop sinking ships without warnings and trying to save lives. They kept their promise until January 1917. In April, President Wilson asked Congress to declare war.
- The Germans thought they would defeat the British by using submarines. But the British used fleets of ships to protect the goods on supply ships and planes to spot the submarines. Also, when America joined the war, they built so many new ships that the Germans couldn't destroy enough ships. The submarines did not win the war for them, as the Germans hoped.
- Germany tried to defeat Britain by bombing their cities, especially London. They hoped they would destroy the British people's economy and morale (more AL). They did not succeed. There were many fights between planes and groups of planes in this war. After the Americans joined the war, Germany's air force was greatly outnumbered. By July of 1918, the Allies were winning the war. Germany was trying to reach Paris, France, but the Allies defeated Germany at the famous Argonne Forest Battle. Finally, the war ended with the signing of the Treaty of Versailles (vur SIGH).
- President Wilson wanted to keep the world at peace. He helped to create the League of Nations. He wanted countries to be able to talk about their problems and never go to war. Sadly, this was not what happened.
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