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खिलाफत और असहयोग आन्दोलन (1919-22)
1.0 प्रस्तावना
1919 भारतीयों के लिए निराशा से भरा रहा। रौलेट एक्ट, जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड और पंजाब में लगाये गये सैनिक शासन से भारतीयों को लगने लगा कि अंग्रेज युद्ध के समय किये गये वादे को पूरा करने का कोई इरादा नहीं रखते हैं। 1919 के अन्त में घोषित किये गये मोंटेग-चेम्सफोर्ड सुधारों को भारतीयों का समर्थन नहीं मिला। यह निराशा और भी बढ़ गयी जब लोगों को पता चला कि जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड की जाँच के लिए गठित हन्टर समिति मात्र दिखावा थी।
पढ़े-लिखे मुसलमानों की युवा पीढ़ी और परम्परागत धार्मिक-विद्वानों का वर्ग भी, दिन-ब-दिन परिवर्तनशील और राष्ट्रवादी होते जा रहे थे। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के द्वारा स्वीकार किये गये लखनऊ समझौते के कारण हिन्दू और मुस्लिम समान राजनीतिक मंच पर कार्य कर रहे थे। रौलेट एक्ट के विरूद्ध किये गये राष्ट्रवादी आन्दोलन ने सभी भारतीयों को प्रभावित किया और राजनीतिक आन्दोलन के लिए हिन्दू और मुस्लिम साथ-साथ आये। उदाहरण के लिए प्रसिद्ध आर्य समाजी नेता स्वामी श्रद्धानन्द को मुसलमानों ने राजनैतिक कार्य के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता की घोषणा के लिए दिल्ली की जामा मस्जिद आकर शिक्षा देने को कहा, जबकि एक मुस्लिम नेता डॉ. किचलू को अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर की प्रतीकात्मक चाबियां दी गईं।
अमृतसर में ऐसी राजनीतिक एकता सरकारी अत्याचारों के कारण हुई। हिन्दू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर साथ-साथ आगे बढ़े और एक साथ खाना-पीना भी किया, जबकि सामान्यतः एक हिन्दू, मुसलमानों के हाथ से पानी नहीं पीता था। इस वातावरण में, मुसलमानों के बीच राष्ट्रवादी प्रवृत्ति ने खिलाफत आन्दोलन का रूप ले लिया।
2.0 खिलाफत आन्दोलन
राजनीतिक रूप से जागरूक मुसलमान, अंग्रेजों द्वारा ऑटोमन साम्राज्य और इसके साथियों के साथ किये गये व्यवहार के आलोचक थे। ब्रिटिश सांसद लॉयड जार्ज ने घोषणा किः ‘‘हम, एशिया माइनर के धनी-मानी प्रदेशों और थ्रेस जो जातिगत रूप से तुर्क ही है, को तुर्की से वंचित करने के लिए नहीं लड़ रहे हैं।’’ मुसलमानों को लगने लगा कि तुर्की के सुल्तान, जो उनके लिए खलीफा भी थे, के सम्मान की रक्षा की जाना चाहिए। शीघ्र ही अली बन्धुओं (मोहम्मद अली और शौकत अली), मौलाना आजाद, हकीम अजमल और हसरत मोहनी के नेतृत्व में खिलाफत समिति की घोषणा की गई।
2.1 खिलाफत कांग्रेस, दिल्ली, (1919)
नवम्बर 1919 में अखिल भारतीय खिलाफत सभा ने निर्णय लिया कि यदि उनकी माँगें नहीं मानी गयी तो वे सरकार से किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं करेंगे। महात्मा गाँधी इस सभा में विशष रूप से आंमत्रित थे। महात्मा गाँधी और लोकमान्य तिलक जैसे कांग्रेसी नेताओं ने इस आन्दोलन को हिन्दू-मुस्लिम एकता और मुसलमानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के एक स्वर्णिम अवसर के रूप में देखा। उन्होंने महसूस किया कि समाज के विभिन्न वर्ग - हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई, पूँजीपति, श्रमिक, किसान, कारीगर, महिलाएँ और युवा, जनजातीय समूह और सभी क्षेत्रों के लोग - अपने विभिन्न हितों के लिए लड़ते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा से जुडेंगे। गाँधीजी ने खिलाफत आन्दोलन को ‘‘हिन्दू-मुस्लिम एकता के ऐसे अवसर के रूप में देखा जो सौ सालों में भी सामने नहीं आयेगा।’’
2.2 असहयोग आन्दोलन की गाँधी की घोषणा
1920 की शुरूआत में गाँधी ने घोषणा की कि खिलाफत के प्रश्न ने संवैधानिक सुधारों और पंजाब में हुए अत्याचारों की बात को दबा दिया है और घोषित किया कि यदि तुर्की के साथ की गई शांति समझौते की शर्तें भारतीय मुसलमानों को संतुष्ट नहीं करती हैं तो वे असहयोग आन्दोलन का नेतृत्व करेंगे। जुलाई 1920 में अहमदाबाद में खिलाफत समिति ने गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और उन्हें आन्दोलन का नेतृत्व करने को कहा।
कांग्रेस में भी असन्तोष उबल रहा था। सरकार ने रौलट एक्ट को वापस लेने से, पंजाब में हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध संषोधन करने से, या राष्ट्रवादियों की स्वराज्य देने की माँग को मानने से इंकार कर दिया था। इन परिस्थितियों में कांग्रेस भी असहयोग आन्दोलन को मानने को तैयार हो गयी।
इसे 1 अगस्त 1920 को शुरू किया गया किंतु 1 अगस्त की सुबह ही तिलक की मृत्यु हो गई। इस तरह आंदोलन के प्रारंभ का दिन और शोक दिवस एक दूसरे में मिल गये। लोगों ने हड़ताल रखी और जुलूस निकाले। सितंबर 1920 में कलकत्ता में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन रखा गया। कांग्रेस ने गाँधी के असहयोग आन्दोलन की योजना को तब तक समर्थन देने की घोषणा की जब तक की पंजाब और खिलाफत में हो रहे अत्याचार दूर नहीं हो जाते, और स्वराज्य की स्थापना नहीं हो जाती। लोगों से आह्वान किया गया कि वे सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं, न्यायालयों, विदेशी वस्त्रों, सरकारी उपाधियों एवं सम्मानों को त्याग दे और स्वयं सूत काटते हुए खादी के वस्त्र तैयार करे। बाद में सरकारी नौकरियों से त्याग पत्र और सामूहिक रुप से अवज्ञा तथा कर देने से इंकार कर देना भी इसमें शामिल कर लिया गया। कांग्रेस ने चुनाव का बहिष्कार किया और बड़ी संख्या में मतदाताओं ने भी इसका बहिष्कार किया। यह निर्णय बहुत शांतिपूर्ण तरीके से प्रभावी रहा और कांग्रेस के दिसंबर 1920 के नागपुर अधिवेशन में इसकी अधिकृत घोषणा की गई। नागपुर में गाँधीजी ने घोषणा की कि, ‘‘अंग्रेजों को सावधान रहना चाहिए’’ कि यदि वे न्याय नहीं करेंगे तो प्रत्येक भारतीय का यह बंधनकारी कर्तव्य होगा कि वे सामा्रज्य को नष्ट कर दे।’’ नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस के संविधान में भी संशोधन किया गया। प्रांतीय कांग्रेसी समितियों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर किया गया। अब कांग्रेस का नेतृत्व अध्यक्ष और सचिवां सहित एक 15 सदस्यीय समिति के हाथों में था। इसने कांग्रेस को एक संवैधानिक राजनीतिक संगठन के रूप में सक्षम बनाया और अपने प्रस्तावों को लागू करवाने के लिए उसके पास एक सुचारू तंत्र भी था। अब कांग्रेस को गाँव, कस्बों मोहल्लों तक अपनी पहुँच बनानी थी। इसलिए कांग्रेस ने ग्रामीणों और शहरी गरीबों को अपना सदस्य बनाने के लिए सदस्यता शुल्क चार आना (वर्तमान के 25 पैसे) कर दिया।
2.3 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विकास
कांग्रेस का चरित्र अब बदल चुका था। एक शांतिवादी संगठन से हटकर यह विदेशी सत्ता से मुक्ति दिलाने वाले राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष के नायकों के समूह के रूप में उभर रही थी। लोगों में एक रोमांच की लहर फैल गयी थी। राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने में अभी वर्षों बाकी थे, फिर भी लोगों ने अपनी गुलामी की मानसिकता को छोड़ना शुरू कर दिया था। हवाओं में पूर्णतः परिवर्तन हो रहा था। इस दौर की खुशी और उत्साह विशिष्ट था क्योंकि शताब्दियों से सोये हुये लोगों ने जागना शुरू कर दिया था। इससे भी ज्यादा अब हिंदू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रहे थे। किंतु कुछ पुराने कांग्रेसी नेताओं का राष्ट्रीय आंदोलन का यह स्वरूप पंसद नहीं आ रहा था। उन्होनें हड़ताल, जुलूस, सत्याग्रह, कानून को तोड़ना और गिरफ्तारियाँ देना जैसे उग्रवादी कार्यों का विरोध किया। मोहम्मद अली जिन्ना, जी.एस.खापर्डे, विपिन चंद्र पाल और एनीबेसेंट उन प्रमुख नेताओं में से थे, जिन्होंने इस दौरान कांग्रेस छोड़ दी।
1921 और 1922 में भारतीय लोगों ने एक अकल्पनीय आंदोलन को देखा। हजारों की संख्या में छात्रों ने सरकारी स्कूलों और कालेजों को छोड़ दिया और राष्ट्रीय संस्थाओं में प्रवेश लिया। यही वह दौर था जब जामिया-मिलिया इस्लामिया, विश्वविद्यालय अलीगढ़, बिहार विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, और गुजरात विद्यापीठ अस्तित्व में आये। बाद में जामिया-मिलिया को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। आचार्य नरेन्द्र देव, डॉ. ज़ाकिर हुसैन और लाला राजपत रॉय उन जाने माने शिक्षकों में से थे जिन्होंनें इन राष्ट्रीय महाविद्यालयों और विश्व विद्यालयों में शैक्षणिक कार्य किया। सैकड़ों वकीलों जिनमें चितरंजन दास जिन्हें देशबंधु के नाम से जाना जाता था, मोतीलाल नेहरू, राजेन्द्रप्रसाद, सैफउद्दीन किचलू, सी.राजगोपालाचारी, सरदार पटेल, टी. प्रकाशम और आसफ अली शामिल थे, ने अपनी लाभदायक वकालात छोड़ दी। असहयोग आंदोलन को धन उपलब्ध कराने के लिए तिलक स्वराज कोष की स्थापना की गई और छः माह में ही लगभग एक करोड़ रूपये इकट्ठा कर लिये गये। महिलाओं ने भी इस दिशा में उत्साह दिखाया और अपने गहने उदारतापूर्वक दान किये। विदेशी कपड़ों का बहिष्कार भी एक जन आंदोलन बन गया। विदेशी कपड़ों की होली सभी जगह जलाई गई और शीघ्र ही खादी स्वतंत्रता का प्रतीक बन गई। जुलाई 1921 में अखिल भारतीय खिलाफत समिति ने यह प्रस्ताव पारित किया कि किसी भी मुस्लिम ने ब्रिटिश भारतीय सेना में नौकरी नहीं करनी चाहिये। सितंबर 1921 में अलीबंधुओें को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। शीघ्र ही गाँधीजी ने सैकड़ों सभाओं में इसी प्रस्ताव को पारित करने का आहवान किया। अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के 50 सदस्यों ने भी ऐसी ही घोषणा करते हुए कहा कि किसी भी भारतीय को ऐसी सरकार की सेवा नहीं करनी चाहिए जिसने भारत को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से गर्त में धकेला है। कांग्रेस कार्य समिति ने ऐसा ही प्रस्ताव पास किया।
2.4 सविनय अवज्ञा की शुरूआत
कांग्रेस ने आंदोलन को बड़े स्तर पर चलाने का फैसला लिया। इसने कांग्रेस कार्यकारी समिति को प्रांतीय स्तर पर सविनय अवज्ञा या ब्रिटिश कानूनों को न मानने (तथा यदि लोग तैयार हो तो करों का भुगतान भी ना करने का अधिकार) प्रांतीय स्तर पर कांग्रेस कार्यकारी समिति को दे दिया।
सरकार ने पुनः दमन की नीति अपनाई। कांग्रेस और खिलाफत आंदोलन की गतिविधियों तथा हिन्दू और मुस्लिमों को निचले स्तर पर एक करने के काम अवैधानिक घोषित किये गये। 1921 के अंत तक गांधीजी को छोड़कर लगभग सभी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय नेताओं को जेल भेज दिया गया। नवम्बर 1921 में वेल्स के राजकुमार, जो कि ब्रिटिश सिंहासन के उत्तराधिकारी थे, की भारत यात्रा के दौरान उनके सामने बड़े प्रदर्शन किये गये। सरकार ने उन्हें भारतीय लोगों और राजवाड़ों की वफादारी को प्रोत्साहित करने के लिए भारत बुलाया था। बम्बई में प्रदर्शन को दबाने के लिए 53 लोगों को मार दिया गया और लगभग 400 लोगों को घायल कर दिया गया। दिसंबर 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद के वार्षिक अधिवेशन में घोषित किया गया कि ‘‘अहिंसा और असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम पूर्ण उत्साह के साथ तब तक जारी रहेंगे जब तक कि पंजाब और खिलाफत में किये गये अत्याचार दूर न हों और स्वराज्य की स्थापना न हो जाये।’’
प्रस्ताव में सभी भारतीयों और विशेषकर छात्रों से आह्वान किया गया कि ‘‘शांतिपूर्वक और बिना किसी प्रदर्शन के सारे स्वयं सेवक अपनी गिरफ्तारियाँ देंगे’’। ऐसे सभी सत्याग्रहियों को शपथ दिलाई गई की वे अपने वचन और कर्म से अहिंसक रहेंगे। हिन्दू, मुसलमानों, सिक्खों, पारसीयों, ईसाईयों और यहूदियों में एकता स्थापित करने के लिये उन्हें स्वदेशी अपनाने और केवल खादी पहनने की सलाह दी गई। हिन्दू स्वयं सेवकों को अस्पृष्यता के विरुद्ध भी सक्रिय भागीदारी करनी थी। प्रस्ताव पारित कर लोगों से कहा गया कि जब भी संभव हो अहिंसक रूप से व्यक्तिगत या सामूहिक अवज्ञा आंदोलन में भाग लें।
लोग अब उत्सुकतापूर्वक अगले आंदोलन की प्रतीक्षा कर रहे थे। यह आंदोलन लोगों में गहरे तक पैठ चुका था। उ.प्र. और बंगाल में हजारों किसान असहयोग आंदोलन में भाग ले रहे थे। उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में किसानों ने जमींदारों को कर देने से इंकार कर दिया था। पंजाब में सिक्ख अकाली आंदोलन के नाम से गुरूद्वारों से भ्रष्ट महंतों को हटाने के लिए भी अहिंसक आंदोलन चला रहे थे। आसाम में चाय बगानों के मजदूर भी हड़ताल पर थे। मिदनापुर के किसानों ने कर देने से इंकार कर दिया था। दुग्गीराला गोपालकृष्णैया के नेतृत्व में गुण्टूर जिले में एक शक्तिशाली आंदोलन चला जिसमें चिराला नाम के कस्बे की सारी जनता ने नगरपालिका कर देने से इंकार करते हुए शहर छोड़ दिया। पेड्डानाडीपडू के सारे अधिकारियों ने इस्तीफा दे दिया। उत्तरी केरल के मालाबार, ओपला, के मुस्लिम किसानों ने शक्तिशाली जमींदारों के विरुद्ध आंदोलन चलाया। फरवरी 1919 में वायसराय ने भारत सचिव को पत्र लिखते हुए कहा, ‘‘शहरों एवं कस्बों के निचले वर्ग असहयोग आंदोलन से गंभीर रूप से प्रभावित हुए हैं...... कुछ हिस्सों, विशेषकर आसामघाटी, बिहार उड़ीसा और बंगाल प्रांत के किसान भी आंदोलन से प्रभावित हुये’’। फरवरी 1922 को महात्मा गाँधी ने घोषित किया कि यदि 7 दिनों के भीतर सारे राजनैतिक बंदियों को छोड़ा नहीं गया और प्रेस की स्वतंत्रता बहाल नहीं की गई तो वह सामूहिक असहयोग आंदोलन की शुरुआत करेंगे जिसमें करों का भुगतान नहीं करना भी शामिल होगा।
2.5 असहयोग आंदोलन को स्थगित करना
संघर्ष की स्थितियाँ शीघ्र ही पीछे हटने में परिवर्तित हो गइंर्। 5 फरवरी को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा नामक जगह पर 3000 किसानों के कांग्रेसी जुलूस ने पुलिस स्टेशन में आग लगा दी जिसमें 22 पुलिसवालों की मौत हो गई। इसके अतिरिक्त पूर्व में भी देश के अलग-अलग हिस्सों में भीड़ द्वारा हिंसा की घटनायें घटित हुई थीं। गाँधीजी को भय था कि इस लोकप्रिय आंदोलन की उर्जा एवं उत्साह को आसानी से हिंसक बनाया जा सकता है। उन्हें विश्वास हो गया कि राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं ने अहिंसा का मतलब अभी पूरी तरह से नहीं समझा है और उन्हें विश्वास था कि बिना अहिंसा के असहयोग आंदोलन सफल नहीं हो सकता। इस तथ्य के अलावा कि उनका उस हिंसा से कुछ लेना देना नहीं था वह यह भी जानते थे कि अंग्रेज सरकार किसी भी हिंसक आंदोलन को आसानी से कुचल देगी क्योंकि लोगों के पास भारी सरकारी अत्याचारों से लड़ने की क्षमता नहीं थी। इसलिए उन्होंने निर्णय लिया कि वे इस राष्ट्रवादी आंदोलन को स्थगित कर देंगे। 12 फरवरी को बारड़ोली में कांग्रेस कार्यकारी समिति ने निर्णय लिया कि ऐसी सारी गतिविधियाँ जिसमें कानून का उल्लघंन होता है, स्थगित की जाती हैं। इससे कांग्रेसियों को रचनात्मक कार्य करने का जैसे - चरखा, राष्ट्रीय विद्यालय, अस्पृष्यता निवारण और हिन्दू मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने का समय मिला।
बारड़ोली प्रस्तावों की देश में मिली-जुली प्रक्रिया हुई, किंतु राष्ट्रवादी इससे भौचक्क रह गये। जहाँ कुछ लोगों को गाँधीजी में अटूट विश्वास था और उनका मानना था कि यह गांधीजी की रणनीति का एक हिस्सा है वहीं कुछ दूसरे लोग विशेषकर युवा राष्ट्रवादी इस फैसले के विरोध में थे। एक लोकप्रिय एवं युवा कांग्रेसी नेता सुभाषचंद्र बोस ने अपनी आत्मकथा ’भारतीय संघर्ष’ में लिखा है -
‘‘एक ऐसे समय जब लोगों का उत्साह निर्णायक मोड़ पर था पीछे हटने का आदेश सुनना एक राष्ट्रीय आपदा से कम नहीं था। महात्मा गाँधी के मुख्य सलाहकार देशबंधु दास, पंडित मोतीलाल नेहरू और लाला लाजपतराय जो इस समय जेल में थे, का भी यही लोकप्रिय अभिमत था। मैं उस समय देशबंधु के साथ था और मैने देखा कि वे महात्मा गांधी के इस निर्णय से बहुत क्रोधित और दुःखी थे।’’
कई और युवा नेताओं जैसे कि जवाहरलाल नेहरू का भी यही अभिमत था। किंतु जनता और नेता दोनों को ही गांधीजी में विश्वास था और सार्वजनिक रूप से उनकी अवमानना कोई नहीं करना चाहता था। सभी ने उनका निर्णय बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लिया। पहला असहयोग और अवज्ञा आंदोलन अब समाप्त हो गया।
3.0 महात्मा गाँधी पर मुकदमा और उन्हें जेल भेजा जाना
इस पूरे प्रकरण के अंत में सरकार ने इसका पूरा फायदा उठाना चाहा और इसके लिए कठोर कदम उठाये। 10 मार्च 1922 को महात्मा गाँधी पर सरकार के विरुद्ध असंतोष फैलाने का आरोप लगाते हुये गिरफ्तार कर लिया गया। इस मुकद्मे के पश्चात्, जिसमें उन्होंने न्यायालय के सामने अपना एतिहासिक वक्तव्य दिया, गाँधीजी को 6 साल के लिये जेल भेज दिया गया। अभियोजन पक्ष के आरोपों के जवाब देते हुए, उन्होनें न्यायालय को आमंत्रित किया किः ‘‘कानून के अनुसार इस अपराध की जो भी अधिकतम सजा हो सकती है, उन्हें दी जाये, और यह मेरे लिए एक नागरिक के रूप में सबसे बड़ा कर्तव्य होगा।’’
ब्रिटिश शासन के समर्थक होने से उसके तीव्र आलोचक होने तक के अपने राजनीतिक विकास के बारे में विस्तार से बताते हुए वे कहते हैंः
‘‘मैं बहुत ही अनिच्छापूर्वक इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि अंग्रेज सरकार ने राजनीतिक और आर्थिक रूप से भारत को अब तक के सबसे कमजो स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है। शस्त्रहीन भारत के पास किसी भी अत्याचार के विरुद्ध प्रतिरोध की कोई शक्ति नहीं है। वह इतना निर्धन हो चुका है कि उसके पास अकाल से लड़ने की बहुत थोड़ी शक्ति बची है। कस्बाई लोग ये भी नहीं जानते कि कैसे आधे-भूखे भारतीय मौत की ओर बढ़ रहे हैं। वो तो इसके बारे में भी नहीं जानते कि उन्हें विदेशी शासकों से काम के बदले दिया जाने वाला, थोड़ा बहुत आराम भी वास्तव में जनता से चूसा जाता है। वो इस बात को नहीं जान रहे हैं कि कानून द्वारा स्थापित अंग्रेज सरकार आम लोगों का शोषण कर रहीं है।
कोई भी तर्क या आंकड़ों की जादूगरी, कई गावों में नग्न आखों से दिखने वाले कंकालों की व्याख्या नहीं कर सकती है। मेरी नजर में इस तरह कानून के शासन ने, जानबूझकर या अनजाने में, शोषकों के पक्ष में मदद की है। उससे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि अंग्रेज शासन और उसके भारतीय सहयोगी, यह जानते हैं कि वे इस अपराध जिसे मैने बताने की कोशिश की है, में शामिल हैं। मैं संतुष्ट हूँ कि कई अंग्रेज और भारतीय अधिकारी अधिकारी विश्वास करते हैं कि संसार के सबसे अच्छे प्रशासनिक तंत्र में कार्य कर रहे हैं, और इस कारण भारत धीमे ही सही, उन्नति कर रहा है। वे नहीं जानते हैं कि एक ओर जहां, सूक्ष्म किन्तु प्रभावी आंतकी तंत्र और शक्ति का संगठित प्रदर्शन है, वहीं दूसरी ओर विरोध और आत्मरक्षा के सभी अधिकारों से वंचना ने लोगों में शक्तिहीन होने का भाव विकसित कर उनमें गलत को स्वीकारने की आदत डाल दी है।’’
निष्कर्ष रूप में गाँधीजी ने अपना विष्वास व्यक्त किया कि ‘‘बुराई के साथ असहयोग, वैसा ही एक कर्तव्य है जैसा कि अच्छाई के साथ सहयोग।‘‘ न्यायाधीष ने महसूस किया कि वह गाँधीजी को 1908 वाले लोकमान्य तिलक की सज़ा सुना रहे हैं।
3.1 तुर्की में कमाल पाशा का उदय
शीघ्र ही खिलाफत के मुद्दे ने अपना अर्थ खो दिया। नवम्बर 1922 में तुर्की के लोगों ने मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में सुल्तान को अपदस्थ कर दिया। कमाल पाशा ने तुर्की को आधुनिक और धर्म निरपेक्ष राज्य बनाने के लिए कई कदम उठाये। उसने खिलाफत (खलीफा की पद्धति) को समाप्त कर दिया और संविधान से इस्लाम को अलग करते हुए राज्य को धर्म से अलग कर दिया। उसने शिक्षा का राष्ट्रीयकरण किया, महिलाओं को अधिकार सम्पन्न बनाया, यूरोपीय आधार पर कानूनों का निर्माण किया और कृषि के विकास तथा आधुनिक उद्योगों की स्थापना पर जोर दिया। इन सारे कदमों ने खिलाफत आन्दोलन को समाप्त कर दिया।
खिलाफत आन्दोलन ने असहयोग आन्दोलन के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह शहरी मुसलमानों को राष्ट्रीय आन्दोलन के निकट लाया और उस उत्साह का संचरण किया जो उन दिनों देश में फिजाओं में था। कई इतिहासकारों ने इसका इस आधार पर कि इससे धर्म और राजनीति आपस में मिल गये, विरोध किया।
इसके परिणामस्वरूप राजनीति में धार्मिक जागृति फैल गयी और दीर्घावधि प्रभावों के रूप में इससे साम्प्रदायिक शक्तियाँ मजबूत हुईं। किसी हद तक यह सही भी है। निश्चित रूप से, राष्ट्रीय आन्दोलन में किसी ऐसी मांग को उठाना जो केवल मुसलमानों को संतुष्ट करे, कुछ भी गलत नहीं था।
यह अवश्यसंभावी था कि समाज के विभिन्न वर्ग स्वतंत्रता के अर्थ को समझते हुए उनकी जरूरतों और अनुभवों को समझें। यद्यपि राष्ट्रवादी नेतृत्व मुसलमानों की राजनीतिक-धार्मिक भावनाओं को धर्मनिरपेक्ष स्वरूप देने में कुछ हद असफल हो गया था। भारत में मुसलमान खिलाफत आंदोलन के जरिए उपनिवेषवाद-विरोधी भावनाएं ही प्रकट कर रहे थे। जब 1924 में कमाल पाषा ने खलीफा प्रथा ही समाप्त कर दी, तब कोई विरोध भारत में नहीं हुआ।
3.2 दीर्घावधि प्रभाव
यहां यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलन असफल हो गये थे तो भी इससे राष्ट्रीय आंदोलन को कई तरह से मदद मिली राष्ट्रवादी भावनायें और राष्ट्रीय आंदोलन अब देश के कोने-कोने में फैलने लगा। लाखों किसान, कारीगर और शहरी गरीब राष्टी्रय आंदोलन के छत्र तले जुड़े। भारतीय समाज के सभी वर्ग राजनीति को समझने लगे। महिलाओं को भी आंदोलन से जोड़ा गया। इस तरह लाखों लोगों के राजनैतिकरण और सक्रिय भागीदारी के कारण राष्ट्रवादी आंदोलन का चरित्र क्रांतिकारी हो गया।
अंग्रेज़ शासन इस द्वैत मत पर आधारित था कि अंग्रेज़ लोग भारतीयों की भलाई के लिए भारत पर शासन कर रहे हैं, और इसे हटाया जाना संभव नहीं था। जैसा कि हमने प्रारंभ में देखा कि पहले मत को उदारवादी राष्ट्रीय नेताओं द्वारा चुनोती दी गई जिन्होंने उपनिवेशिक शासन की आर्थिक आधार पर आलोचना की, अब राष्ट्रीय आन्दोलन के लोकव्यापी स्वरूप के दिनों में यह आलोचना युवा आंदोलनकारियों के भाषणों, नुक्कड़ नाटकों, गीतों, प्रभात फेरियों और समाचार पत्रों के द्वारा आम लोगों तक फैला।
अंग्रेज़ शासन के अजेय होने के तर्क को सत्याग्रह और जन आंदोलन द्वारा चुनौती दी गई। जैसा की जवाहरलाल नेहरू ने ‘‘भारत एक खोज’’ में लिखा हैः
‘‘गाँधीजी की शिक्षाओं का सार निर्भयता था ..... न केवल शारीरिक साहस बल्कि मानसिक निर्भयता ..... अंग्रेज़ शासन का भारत में प्रभाव भय, अत्याचार पर आधारित था। सेना का भय, पुलिस का भय, पूरे देश में गुप्तचरों का जाल, सरकारी अधिकारियों का डर, दमनकारी कानूनों का भय, जमींदारों का डर, साहूकारों का डर, बेरोजगारी और भूखमरी का डर, जो हमेशा दहलीज पर ही रहती थी। गांधीजी की दृढ़ और निश्चित ध्वनि-ड़रां मत, इन्हीं सारे ड़रां के विरूद्ध थी।’’
असहयोग आंदोलन का बड़ा प्रभाव यह था कि भारतीयों के अंदर से भय समाप्त हुआ। अंग्रेजों की पाषविक शक्ति अब भारतीयों को भयभीत नहीं करती थी। उन्होंने पूर्ण आत्मविश्वास और उर्जा हासिल कर ली थी जिसे कोई हिला नहीं सकता था। इसकी घोषणा करते हुए गाँधीजी ने कहा कि, ‘‘संघर्ष जिसका प्रारम्भ 1920 से हुआ का अन्त निश्चित है, चाहे एक माह, एक साल या कई सालों तक यह चले, किंतु जीत सुनिश्चित है।’’
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