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आई.एन.ए. मुकदमे व नौसेना विद्रोह
1.0 परिचय
द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत ने कई नाटकीय परिदृश्यों को जन्म दिया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नया रूप मिला। 1942 का विद्रोह और आई.एन.ए. (भारतीय राष्ट्रीय सेना) दोनों ही भारतीयों के बीच लोकप्रियता प्राप्त कर चुके थे व भारतीयों की दृढ़ता सिद्ध कर चुके थे। कई क्षेत्रीय और स्तरीय विद्रोहों जैसे 1946 का तिभागा आंदोलन (बंगाल में किसान सभा - भारतीय साम्यवादी पार्टी का किसान मोर्चा), पहाड़ी और गुजरात तथा महाराष्ट्र के तटीय इलाके में रहनेवाली वर्ली जनजाति का वर्ली आंदोलन, पंजाब किसान मोर्चा, त्रावणकोर जन संघर्ष (विशेषतः पुन्नप्रा-वयालार की घटना) और तेलंगाना आंदोलन जैसे आंदोलनों ने साम्राज्यवाद विरोधी वातावरण निर्मित कर दिया था।
जून 1945 के मध्य में जब कांग्रेस के नेता जेल से बाहर आए तो वे यह देखकर आश्चर्यचकित हो गए कि जेल के बाहर अपार भीड़ उनके स्वागत के लिए जमा थी, जो ब्रिटिश शासन को देश से खदेड़ने के लिए अधीर और प्रतिबद्ध थी। सरकार के दमन चक्र ने बहादुरी को और मजबूती दी थी और किनारे बैठने वाले लोगों के अंतर्मन को झकझोर दिया था। तीन साल से भी अधिक समय चले दमन चक्र के बाद अपने नेताओं के रिहा होने से लोगों का उत्साह चरम पर था और उनकी अपेक्षाएं अब बढ़ चुकी थीं। अपने राष्ट्रीय नेताओं के रिहा होते ही लोग अगले, और शायद अंतिम स्वतंत्रता आंदोलन की राह देख रहे थे।
2.0 ब्रिटिश सरकार का बदला हुआ रुख
ब्रिटेन के चुनाव में लेबर पार्टी को अपेक्षा के विपरीत जीत हासिल हुई। नए प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली भारत की समस्या को जल्द से जल्द सुलझाना चाहते थे। इस तरह के कई कारणों ने ब्रिटिश सरकार का रुख बदलने का काम किया।
पहला कारण तो यह था कि युद्ध के बाद शक्ति समीकरणों में खासा बदलाव हुआ। युद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत यूनियन ब्रिटेन की तुलना में महाशक्तियों के रूप में उभरे। दोनों ने ही भारत की स्वतंत्रता की मांग का समर्थन किया। इससे भारत पर अपना अधिकार बनाए रखने के ब्रिटिश इरादे कमजोर सिद्ध होने लगे।
दूसरा कारण यह था कि भले ही युद्ध में ब्रिटेन विजेता दल में था, मगर उसकी आर्थिक और सैन्य शक्ति छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। स्वयं को पुनर्स्थापित करने में ब्रिटेन को वर्षों का समय लगने वाला था। साथ ही लेबर पार्टी के सत्ता में आने से कांग्रेस की स्वतंत्रता की मांग को खासा प्रतिसाद मिला। ब्रिटिश सैनिक अब युद्ध से ऊब चुके थे। लगातार छह वर्षों तक लड़ने और अपना खून बहाने के बाद अब वे भारत के लोगों के स्वतंत्रता आंदोलन के दमन चक्र का हिस्सा बनने के लिए अपने घर से दूर नहीं रहना चाहते थे।
तीसरा कारण था भारत में राज कर रही ब्रिटिश सरकार भारत में शासन करने के लिए भारतीय अधिकारियों पर अधिक भरोसा नहीं कर सकती थी। इसी तरह आंदोलन का दमन करने के लिए सेना पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता था। आई.एन.ए. ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत में ब्रिटिश शासन के प्रमुख संचालनकर्ताओं अर्थात भारतीय सेना व उसके अधिकारियों के मन में देशप्रेम की भावना का प्रवेश हो चुका है। विरोध की वायु का अगला तिनका सिद्ध हुआ फरवरी 1946 में बंबई में नौसेना का प्रसिद्ध विद्रोह, जिसमें नौसैनिकों ने थल सेना और नौसेना के साथ सात घंटों तक युद्ध किया और तभी समर्पण किया जब भारत के राष्ट्रीय नेताओं ने ऐसा कहा। देश के कई भागों में नौसैनिक सहानुभूतिपूर्ण हड़ताल पर चले गए। इसके बाद रॉयल इंडियन एयर फोर्स में व्यापक हड़ताल हुई।
जबलपुर में ब्रिटिश शासन के अन्य दो महत्वपूर्ण अंग पुलिस और अफसरशाही में भी देशभक्ति की भावना लहर लेती दिखाई देने लगी। अब इन्हें अधिक समय तक राष्ट्रीय आंदोलन में भाग ले रहे भारतीयों के दमन हेतु इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था। उदाहरण के लिए, बिहार और दिल्ली का पुलिस बल हड़ताल पर चला गया था।
चौथा और सबसे महत्वपूर्ण कारण था कि भारतीयों का आत्मविश्वास और दृढ़ता बढ़ती जा रही थी। अब वे किसी भी कीमत पर अंग्रेजी शासकों द्वारा अपमानित होने के लिए तैयार नहीं थे। अब वे स्वतंत्रता मिलने तक शांत बैठने वाले नहीं थे।
3.0 आई.एन.ए. मुकदमे
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिशों ने आई.एन.ए के कुल 23,000 सैनिकों को गिरफ्तार किया और उनपर राजद्रोह का अभियोग लगाया गया। नवंबर 1945 को लाल किले पर मुकदमा शुरु हुआ। एस.एन. खान, पी.के. सहगल और जी.एस. ढिल्लों आई.एन.ए. के ये तीन वरिष्ठ अधिकारी भारत के स्वतंत्रता संग्राम के प्रतीक चिह्न बन गए। फरवरी और मार्च 1946 में इस मुकदमे का चारों ओर विरोध हुआ।
3.1.1 पहला मुकदमा
पहला मुकदमा नवंबर - दिसंबर 1945 में चला। तीनों अभियुक्तों के खिलाफ आरोप इस तरह थेः
गुरबख्श सिंह के खिलाफ
- भारतीय दंड़ संहिता की धारा 121 के तहत राज्य के विरुद्ध युद्ध भड़काने का आरोप
- भारतीय दंड़ संहिता की धारा 302 के तहत् कत्ल के चार आरोप लगाए गए
प्रेम सहगल के खिलाफ
- भारतीय दंड़ संहिता की धारा 121 के तहत राज्य के खिलाफ युद्ध भड़़काने का आरोप
- आरोपों में धारा 109 के तहत हत्या हेतु सहायता करने के भी 4 आरोप
शाहनवाज़ के खिलाफ
- धारा 121 के तहत राज्य के खिलाफ युद्ध का आरोप
- धारा 109 के अनुसार गुरबख्श सिंह के साथ कत्ल में सहायता का आरोप
- युद्ध भड़काने के आरोप में शामिल था - सितंबर 1942 से 1945 के बीच सैन्य तैयारी की योजना बनाना, गठन करना और उनमें भाग लेना
- हत्या और हत्या में सहायता के आरोप में आई.एन.ए सैनिकों पर कई संगीन आपराधिक मुकदमे दायर किए गए
3.1.2 दूसरा मुकदमा
यह मुकदमा अब्दुल रशीद, शिंघाड़ा सिंह और फतेह खान पर चलाया गया। पहले मुकदमे की प्रतिक्रियाओं से सीख लेते हुए गद्दारी के आरोप को हटा दिया गया था। मुकदमे का स्थान भी लाल किले से बदलकर एक निकट के भवन में कर दिया गया।
आई.एन.ए. के उन व्यक्तियों को जो किसी भी तरह की निर्दयता या सक्रिय जटिलता के दोषी माने गये थे, केवल उन पर मुकदमे का निर्णय सरकार को अगस्त 1945 के अंत तक सुनाना था। मगर इस फैसले से पहले नेहरु ने 16 अगस्त 1945 को श्रीनगर की सभा में मुकदमे के आरोपियों के लिए दया की अपील की। आई.एन.ए. अधिकारियों की पैरवी का जिम्मा कांग्रेस ने लिया, और भूलाभाई देसाई, तेज बहादुर सप्रू, के.एन. काटजू, नेहरु और आसफ अली लाल किले के ऐतिहासिक मुकदमे में शामिल हुए। कांग्रेस ने आई.एन.ए. राहत और जांच कमेटी गठित की जो उनके रिहा होने पर उन्हें थोड़ा धन और भोजन की व्यवस्था करती थी, और उनके लिए रोजगार का भी बंदोबस्त ढूंढ़ती थी।
आई.एन.ए. का आंदोलन मील का पत्थर साबित हुआ। आई.एन.ए. के सैनिकों की रिहाई हेतु चलाए गए आंदोलन की तीव्रता अभूतपूर्व थी। यह सब संभव हुआ एक साथ कई सभाओं द्वारा आंदोलन के प्रचार से, और प्रेस द्वारा प्रतिकार की धमकियों के प्रचारित किए जाने से।
प्राथमिक रूप से प्रेस में जो अपील की गई वह एक पथ से भटके आदमी के लिए दया की अपील जैसी थी मगर जैसे ही लाल किले में नवंबर 1945 में पहला मुकदमा शुरु हुआ, रोज़ संपादकीय छपने लगे जिनमें आई.एन.ए. के सैनिकों को किसी नायक की तरह पेश किया जाने लगा और उनके खिलाफ सरकार के इस कदम की आलोचना की जाने लगी। अंतर्राष्ट्रीय समाचारों की तुलना में आई.एन.ए. मुकदमे को और आई.एन.ए आंदोलन को प्रमुखता दी जाने लगी। ऐसे पर्चे वितरित किए जाने लगे जिनमें लिखा था ‘‘गद्दार नहीं वफादार’’ साथ ही, अजमेर में इमारतों की दीवारों पर ‘जय हिंद’ और ‘भारत छोड़ो’ लिखा जाने लगा।‘‘हर एक आई.एन.ए. सैनिक की मौत का बदला 20 अंग्रेज कुत्तों से’’ इस तरह के धमकीभरे पोस्टर सारी दिल्ली में लगाए गए। बनारस में एक आम सभा में यह खुलेआम कहा गया कि ‘‘यदि आई.एन.ए. के सैनिकों को रिहा नहीं किया गया तो इसका बदला यूरोपियन बच्चों से लिया जाएगा’’। अक्तूबर 1945 के पहले पखवाडे़ में केन्द्रीय प्रांतों व बेरार में करीब 160 सभाएं आयोजित हुईं जिनमें आई.एन.ए. कैदियों के लिए दया की अपील की गई। 12 नवंबर को आई.एन.ए. दिवस मनाया गया और 5 नवंबर से 11 नवंबर 1945 तक आई.एन.ए. सप्ताह मनाया गया। अब तक की बड़ी सभा में 50,000 लोग उपस्थित हुए थे, मगर कलकत्ता के देशप्रिया पार्क में अब तक की सबसे बडी सभा का आयोजन हुआ जिसमें अपेक्षित 2 से 3 लाख लोगों की तुलना में, नेहरू के अनुसार 5 से 7 लाख लोगों ने भाग लिया। इसे आई.एन.ए. राहत समिति ने आयोजित किया था और इसे सरत बोस, नेहरु और पटेल ने संबोधित किया।
आंदोलन की इस अवस्था का एक और महत्वपूर्ण पहलू इसकी भौगोलिक पहुंच और हर तरह के सामाजिक समूह और राजनैतिक दलों का इसमें शामिल होना था। इसके दो आयाम थे। एक तो आंदोलन का व्यापक रूप और दूसरा आई.एन.ए. के प्रति सहानुभूति की भावना का उन समूहों तक भी पहुंचना जो अब तक राष्ट्रवादी आंदोलनों से बाहर थे। इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक ने उल्लेखित किया, ‘‘ऐसा कभी-कभी ही होता है कि कोई मुद्दा भारतीय जनता को समान रूप से आकर्षित करता है और यह कहना सुरक्षित होगा कि वह मुद्दा है सहानुभूति का‘‘। नेहरु ने भी इस कथन का समर्थन यह कहकर किया, ‘‘आज से पहले भारत में इस तरह भिन्न-भिन्न समूहों द्वारा समान भावनाओं और विचारों का प्रदर्शन कभी नहीं हुआ और यह सब आजाद हिंद सेना के आदर हेतु किया जा रहा है’’।
दिल्ली, बंबई, कलकत्ता और मद्रास तो आंदोलन के प्रमुख केन्द्र थे ही, यह भी देखने लायक था कि यह आंदोलन दूरस्थ इलाकों जैसे कूर्ग, बलूचिस्तान और असम में भी उसी तेजी और तीव्रता से फैला।
नगर पालिकाओं, गुरुद्वारा समितियों और भारत से बाहर रहनेवाले भारतीयों ने आई.एन.ए. राहत कोष में पूर्ण सहायता दी। शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधन समिति, अमृतसर ने 7000 रुपए दान किए और उनके सहयोगियों ने 10,000 रुपयों का सहयोग किया। आई.एन.ए. सैनिकों की सहानुभूति में पंजाब के कई प्रदेशों में दीपावली नहीं मनाई गई। कलकत्ता के गुरुद्वारे आई.एन.ए. अभियान के केन्द्र बन गए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू महासभा और सिख लीग ने भी आई.एन.ए. अभियान का समर्थन किया।
यह सहयोग कई तरह से था। कुछ लोगों ने धन का प्रबंध किया, कुछ ने सभाएं आयोजित कीं, दुकानदारों ने दुकानें बंद रखकर विरोध दर्शाया, राजनीतिक दलों ने कैदियों की रिहाई की मांग रखी। पूना नगर पालिका, कानपुर नगर कोष और मद्रास प्रेसिडेंसी प्रत्येक ने 1000 रुपए का सहयोग दिया। उलेखनीय सहयोग के रूप में कलकत्ता और बंबई के अभिनेताओं, कैम्ब्रिज मजलिस तथा अमरावती के तांगेवालों का नाम लिया जाना आवश्यक है। विद्यार्थियों ने दक्षिण में सेलम से लेकर उत्तर में रावलपिंडी तक भी सभाएं आयोजित करके, कक्षाओं का बहिष्कार करके और रैलियां निकालकर आंदोलन में खासा योगदान दिया। व्यावसायिक संस्थान, बाजार और दुकानें 5 नवंबर 1945 (जिस दिन आई.एन.ए. पर मुकदमा शुरु हुआ), आई.एन.ए. दिवस और आई.एन.ए. सप्ताह पर बंद रखी गईं।
16 नवंबर को धमनगांव और शोलापुर में हुई किसान सभा में, और 29 नवंबर 1946 को हैदराबाद में हुई अखिल भारतीय महिला सभा में आइ.एन.ए. की रिहाई की मांग रखी गई। पूर्वी कमान के जनरल तुकर के अनुसार ‘अंग्रेज बुद्धिजीवी जो कुछ समय के लिए ही भारत आए थे वे भी इस मुकदमे में क्या सही है और क्या गलत है और आइ.एन.ए. की कितनी गलती है इसमें बडी रुचि लेने लगे।‘ कुछ इलाकों में दीपावली नहीं मनाई गई। कलकत्ता के गुरुद्वारे आइ.एन.ए मुहिम के केन्द्र बन गए। मुस्लिम लीग, भारतीय कम्युनिस्ट दल, यूनियनिस्ट दल, अकाली दल, जस्टिस दल, रावलपिंडी में अबरार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू महासभा और सिख लीग ने आइ.एन.ए. को अपने स्तर पर सहयोग दिया। इन सभी के सहयोग में कांग्रेस का सहयोग कुछ अधिक तीव्र है, ऐसा वायसराय ने कहा।
सैन्य दलों ने सरकारी अधिकारियों की सोच कि ‘हमारे सैनिक आई.एन.ए. के गद्दारों के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे‘ को धता बता आई.एन.ए. के प्रति सहानुभूति पूर्ण रवैया दिखाया। रायल इंड़ियन एयर फोर्स ने कोहट में शाहनवाज की, व यू.पी. तथा पंजाब में अन्य व्यक्ति अक्सर वर्दी में सभाओं में शामिल हुए। कलकत्ता, कानपुर, कोहट, इलाहबाद और बमरौली में आर.आइ.ए.फ. के सैनिकों ने आई.एन.ए. को आर्थिक सहायता दी। इसी तरह यू.पी. में अन्य अधिकारियों ने भी आई.एन.ए. को आर्थिक सहयोग दिया। इन सब के अलावा सेना के कमांडर इन चीफ के अनुसार सेना में भी आई.एन.ए के सैनिकों के प्रति सहानुभूति पैदा हो रही थी और वे सरकार से उनके प्रति दया की अपेक्षा कर रहे थे और इस बारे में उन्होंने व्हाइट हाल से भी सिफारिष की।
मजेदार बात यह रही कि आई.एन.ए. के सैनिकों का यह कदम सही था या गलत इस पर कभी कोई भी बहस नहीं हुई। प्रश्न केवल यह था कि ब्रिटेन को भारत के बारे में निर्णय लेने का अधिकार क्यों है। नेहरु ने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि यदि ब्रिटिश सरकार भारत-ब्रिटेन के रिश्तों को सुधारने के बारे में अपनी घोषणा के प्रति ईमानदार है तो उसे आई.एन.ए. मुद्दे पर भारत को निर्णय लेने का अधिकार देकर अपने इरादे की पवित्रता को सिद्ध करना चाहिए। ब्रिटिश सरकार ने आई.एन.ए. मुद्दे की गंभीरता और राजनैतिक महत्व को समझा। उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत (एन.डब्ल्यू.एफ.पी.) के गवर्नर ने भी सुझाव दिया कि आई.एन.ए के इस मुकदमे को स्थगित कर देना चाहिए क्योंकि दिन-ब-दिन यह मुकदमा ब्रिटिश और भारत के बीच के संघर्ष का रूप लेता जा रहा है।
4.0 रॉयल इंडियन नेवी (आर.आय.एन.) विद्रोह
18 फरवरी को आर.आई.एन. का विद्रोह शुरु हुआ जब एच.एम.एस. तलवार के 1100 नौसैनिकों ने अपने खिलाफ होनेवाले भेदभाव, बुरे बर्ताव और खराब भोजन के मुद्दों को लेकर काम बंद कर दिया। बी.सी. दत्त नामक नौसैनिक को ‘भारत छोड़ो’ का प्रचार एच.एम.आइ.एस. तलवार पर करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। इसका बहुत विरोध हुआ। अगले दिन एक अफवाह फैली कि नौसैनिकों पर गोलीबारी हुई है और इसके बाद कैसल और फोर्ट बैरेक के नौसैनिक भी हड़ताल में शामिल हो गए। उन्होंने अपने तैनाती के स्थान छोड़ दिए और गाड़ियों में सवार हो, हाथ मे कांग्रेस के पोस्टर लेकर, यूरोपियन व पुलिस को ड़राते-धमकाते, रास्ते में आती दुकानों में एकाध शीषा तोड़ते बंबई में घूमना शुरू किया।
इस विद्रोह का रूप पूरी तरह से बदला जब दूसरे चरण में बंबई और कलकत्ता के लोग भी इसमें शामिल हो गए और इसका रुख पूरी तरह से हिंसात्मक और यूरोपीय विरोधी हो गया। इसके प्रति जन-समर्थन और सहानुभूति जुटाने हेतु सभाएं और हडतालें की गईं। धीरे-धीरे यह आंदोलन घर की छतों और गलियों से लड़ी जानेवाले छोटी-मोटी लड़ाइयों में बदल गया। यूरोपीय लोगों पर आक्रमण, पुलिस चौकियां, रेल्वे स्टेशन, दुकानें, पोस्ट आफिस, बैंक, अनाज के गोदाम आदि जलाना आम सी बात हो गई। बंबई में इस तरह की घटनाओं में, अधिकारियों की जानकारी के अनुसार, 30 दुकानें, दस पुलिस चौकियां, दस पोस्ट आफिस, चौसठ अनाज की दुकानें और 200 सड़क की बत्तियां तोड़ दी गईं। शहर का सामान्य जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। कम्युनिस्ट पार्टी के हड़ताल के आह्वान पर लाखों कर्मचारी फैक्टरियां छोड़कर सड़क पर आ गए। दुकानदारों, होटल मालिकों और व्यापारियों के काम बंद करने और विद्यार्थियों द्वारा हड़ताल के आयोजन ने सारे शहर के व्यापार और जन परिवहन को ध्वस्त कर डाला। बाकी रही-सही कसर रेल रोकने से तथा पुलिस और मिलिट्री की गाड़ियां जलाने से पूरी हो गई।
तीसरे चरण में, देश के अन्य भागों के लोग एकजुटता दिखाते हुए सामने आने लगे। विद्यार्थियों ने कक्षाओं का बहिष्कार किया, हड़तालें कीं और जुलूस निकालकर नौसैनिकों और विद्यार्थियों के खिलाफ सरकार के दमन चक्र का विरोध किया। आर.आइ.एन. विद्रोह में बंबई के बाद कराची दूसरा बड़ा केन्द्र था। इस विद्रोह की खबर 19 फरवरी को कराची तक पहुंची जिसके बाद एच.एम.आइ.एस. हिंदुस्तान और एक अन्य जहाज तथा तीन तटीय संस्थानों ने त्वरित हड़ताल कर दी। इसके बाद सहानुभूतिपूर्ण हड़तालों का दौर चल पड़ा जिसने मद्रास, विशाखापट्टनम, कलकत्ता, दिल्ली, कोचीन, जामनगर, अंदमान और बहरीन के करीब 78 जहाजों और 20 तटीय संस्थानों जिनमें 20,000 नौसैनिक भी शामिल थे, को प्रभावित किया। बंबई के मरीन ड्राइव, अंधेरी और सायन इलाके के और पूना, कलकत्ता, जैसूर और अंबाला के कर्मचारी सहानुभूतिपूर्ण हड़ताल में शामिल हो गए। जबलपुर में भी सिपाहियों ने हड़ताल कर दी जबकि कोलाबा कैंटोनमेंट ने अशांति दिखने लगी।
5.0 आई.एन.ए. मुकदमों और आर.आइ.एन. विद्रोह का महत्व
यह कहने में कोई संदेह नहीं है कि इन तीन चरणों का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बहुत महत्व है क्योंकि इन्होंने लोगों के मन में अंग्रेजों के प्रति व्याप्त आक्रामक भावनाओं को बाहर आने का अवसर दिया। लोगों की गतिविधियां भले ही वे परिणाम की चिंता किए बिना की जा रही थीं, पूरी तरह से निर्भयतापूर्ण थीं और जो भीड़ पुलिस का सामना कर रही थी वह केवल अस्थाई रूप से गोलियों से बचने के लिए अपने पोस्ट पर वापस जाती थीं। उसने बंगाल के राज्यपाल की इर्ष्यापूर्ण प्रशंसा भी प्राप्त की थी। आर.आइ.एन. का विद्रोह आज तक अभूतपूर्व रहा है। जब यह घटना हुई तो इसने जन सामान्य के अवचेतन पर गहरा प्रभाव डाला। सशस्त्र सेना का विद्रोह, भले ही उस पर जल्दी ही काबू पा लिया गया था, जनता के दिलों दिमाग पर एक परिवर्तनकारी घटना के रूप में प्रभाव जमा चुका था। इस विद्रोह को बहुत से लोगों द्वारा ऐसी घटना के रूप में देखा गया जिसने 1947 में भारत को स्वतंत्रता का अधिकार दिलाया। कई लोगों का मानना है कि ये तीनों अभूतपूर्व घटनाएं पूर्व में किए गए उन आंदोलनों के परिणाम थे जिनमें कांग्रेस का पूर्ण योगदान था।
कांग्रेस द्वारा चुनाव के समय चलाया गया साम्राज्यवाद विरोधी अभियान, आइ.एन.ए. मुद्दे की वकालत और 1942 के आंदोलनों के पश्चगामी प्रभावों के रूप में ही नवंबर 1945 से फरवरी 1946 के बीच इन तीन घटनाओं का उद्भव हुआ। इन व्यवधानों के संबंध में गृह मंत्रालय द्वारा की गई जांच में यह कहा गया कि ये घटनाएं उन भाषणों के दुष्परिणाम हैं जो पिछले तीन महीनों में कांग्रेस के नेताओं द्वारा जनता के बीच दिए गए थे’ और उन्हीं भाषणों ने ऐसा शासन विरोधी वातावरण निर्मित करने में मदद की। वायसराय भी इस बात से पूरी तरह सहमत थे कि आर.आइ.एन. विद्रोह का प्राथमिक कारण कांग्रेस के नेताओं द्वारा पिछले तीन महीनों में दिए गए भड़काऊ भाषण ही थे। यहां तक कि पंजाब सी.आई.डी. के अधिकारियों ने भी कम्युनिस्टों के बारे में जांच करते समय इस संभावित खतरे के बारे में अपने अधिकारियों को आगाह करते हुए कहा था कि ‘‘हम कांग्रेस से वार्ता करके घोडे़ के सामने गाड़ी रख देने का काम कर रहे हैं (अर्थात गलत प्राथमिकता तय कर रहे हैं) और कांग्रेस के रूप में अपने सबसे बड़े शत्रु को पहचानने में गलती कर रहे हैं’’। ये तीन उबाल पिछले आंदोलनों से आसानी से अलग किए जा सकते हैं क्योंकि इनमें विरोध का तरीका काफी अलग था। इनमें आन्दोलनकारियों ने अधिकारियों को हिंसात्मक, निडर चुनौती दी थी जबकि इसके पहले की गतिविधियां शांतिपूर्ण रूप से राष्ट्रीयता के प्रदर्शन के रूप में थीं।
यदि उन कारणों पर गौर करें जिन्होंने ब्रिटिशों को भारत से अपना राज्य समाप्त करने का निर्णय लेने को बाध्य किया, तो क्लीमेंट एटली जो ब्रिटिश प्रधानमंत्री थे, उन्होंने इसके कई कारण अनुभूत किए जिनमें से एक कारण था नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा की गई आई.एन.ए की गतिविधियां जिन्होंने भारतीय सेना - जो भारत में ब्रिटिश राज्य का आधार थी - उसे कमजोर कर दिया। आर.आई.एन. विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासन को यह अनुभव हो गया था कि अब भारतीय सेना को ब्रिटिश शासन को बनाए रखने के लिए और अधिक समय तक उपयोग में नहीं लाया जा सकता। हालांकि क्रिप्स मिशन के समय 1942 में ही ब्रिटेन ने यह वादा किया था कि युद्ध के बाद वह भारत में आंशिक स्वतंत्र सरकार की स्थापना का विचार करेगी। उसके बाद के घटनाक्रम को देखते हुए जिसे इतिहास की पुस्तकें केवल शांतिपूर्ण आंदोलन जो कांग्रेस और महात्मा गांधी पर केन्द्रित थे बताती हैं, इनके अलावा आई.एन.ए. और आर.आइ.एन. विद्रोह, संघर्ष और लोगों में व्याप्त असंतोष सभी ने मिलकर यह सुनिश्चित कर दिया कि अब भारत में ब्रिटिश राज को अधिक समय तक कायम नहीं रखा जा सकता।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में 1920, 30 एवं 40 के दषकों के प्रमुख व्यक्तित्व
- परिचय : भारतीय स्वतंत्रता सेनानी भूलाभाई देसाई को कानून के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है। वह ब्रिटिश भारत के सबसे प्रतिष्ठित वकीलों में से एक थे। एक वकील के रूप में उनकी क्षमताओं का एहसास तब हुआ जब उन्होंने अदालत में भारतीय राष्ट्रीय सेना के तीन सैनिकों का बचाव किया गया, जिन पर द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। हालांकि, राजनीति में उनका करियर तब दागदार हो गया जब मुस्लिम लीग के नेता लियाकत अली खान के साथ उनका गुप्त समझौता सार्वजनिक हो गया। लियाकत अली खान के साथ जुड़ाव से न केवल उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में अन्य नेताओं का समर्थन खो दिया, बल्कि इससे उनका राजनीतिक करियर भी खतरे में आ गया। हालाँकि, भूलाभाई देसाई मन से हमेशा भारत की भलाई ही करना चाहते थे एवं उनका पूरा जीवन भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्पित था।
- किशोरावस्था और शिक्षा : भूलाभाई देसाई का जन्म 13 अक्टूबर, 1877 को गुजरात के वलसाड़ शहर में हुआ था। उनकी शुरुआती स्कूली शिक्षा वलसाड में उनके घर पर ही हुई। प्राथमिक शिक्षा के पश्चात् उन्हें वलसाड के अवाबाई स्कूल और बाद में बंबई के भारदा हाई स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा गया था, जहाँ से उन्होंने 1895 में सर्वोच्च अंकों के साथ मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की। स्कूल की पढ़ाई पूर्ण कर चुकने के के बाद, भूलाभाई देसाई ने बंबई के एल्फिंस्टन कॉलेज में दाखिला लिया। वहाँ उनके अध्ययन के प्रमुख विषय अंग्रेजी साहित्य और इतिहास थे। उन्होंने न केवल अंग्रेजी साहित्य और इतिहास के साथ सफलतापूर्वक स्नातक हुए, बल्कि इतिहास और राजनीतिक अर्थव्यवस्था में सर्वोच्च अंक भी हासिल किए। भूलाभाई देसाई को एल्फिंस्टन कॉलेज के अधिकारियों द्वारा उनके उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए वर्ड्सवर्थ पुरस्कार और छात्रवृत्ति से सम्मानित किया गया था। उसके बाद भूलाभाई देसाई ने मुंबई विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम पूर्ण किया।
- शिक्षा के क्षेत्र में करियर : बॉम्बे विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करने के बाद, भूलाभाई देसाई अहमदाबाद स्थित गुजरात कॉलेज में अंग्रेजी और इतिहास के प्रोफेसर के रूप में शामिल होने के लिए गुजरात लौट आए। जब वे एक शिक्षक थे, तो भूलाभाई देसाई ने अपना खाली समय कानून की पढ़ाई में बिताया। कानून की पढ़ाई पूरी होने के बाद, भूलाभाई देसाई ने वर्ष 1905 में बॉम्बे हाई कोर्ट में एक वकील के रूप में शामिल होने के लिए गुजरात कॉलेज में अपना पद छोड़ दिया। भुलाभाई देसाई बॉम्बे शहर और भारत के सबसे प्रतिष्ठित वकीलों में से एक बन गए।
- राजनीति में करियर : राजनीति में भूलाभाई देसाई का पहला वास्ता एनी बेसेंट के राजनीतिक संगठन ऑल इंडिया होम रूल लीग के साथ हुआ था। भूलाभाई देसाई भारतीय लिबरल पार्टी का भी हिस्सा रहे थे, लेकिन जब उन्होंने यह महसूस किया कि 1928 में गठित साइमन कमीशन यूरोपियों खासकर अंग्रेजों के समर्थन में था तो उन्होंने इस पार्टी को छोड़ दिया। इंडियन लिबरल पार्टी भी काफी हद तक अंग्रेजों से प्रभावित थी। 1928 में बारदोली सत्याग्रह में इस क्षेत्र के किसानों का प्रतिनिधित्व करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के साथ ही भूलाभाई देसाई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियों में शामिल हो गए। लेकिन वे कांग्रेस पार्टी का सदस्य दो साल बाद, 1930 में बने। वर्ष 1932 में, अंग्रेजों ने भूलाभाई देसाई को यह आरोप लगाकर कि उनके नेतृत्व में गठित स्वदेशी सभा देश में अवैध रूप से काम कर रही है, उन्हें गिरतार कर जेल भेज दिया। जेल से रिहा होने पर, उन्हें स्वास्थ्य संबंधी कठिनाईयों के कारण यूरोप भेजा गया। बारडोली सत्याग्रह के प्रणेता सरदार वल्लभभाई पटेल के आग्रह पर भूलाभाई देसाई कांग्रेस कार्य-समिति में शामिल किया गया। वर्ष 1934 में, भूलाभाई देसाई गुजरात से केंद्रीय विधान सभा के लिए चुने गए। चूँकि प्रांतीय स्वायत्तता दी जा चुकी थी इसलिए, भारत सरकार अधिनियम 1935 के पारित होने के बाद, इस बात पर बहस हुई कि क्या कांग्रेस को विधायिका में भाग लेना चाहिए। वे भूलाभाई देसाई ही थे, जिन्होंने कांग्रेस की भागीदारी की बात शुरू की थी, इसलिए, जब कांग्रेस ने केंद्रीय विधानसभा में प्रवेश किया, तो उन्हें कांग्रेसियों के नेता के रूप में चुना गया। बाद में, जब भारत में ब्रिटिश सरकार ने द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की भागीदारी पर जोर दिया, तो यह भूलाभाई देसाई थे जिन्होंने यह स्पष्ट किया कि भारत उस युद्ध का समर्थन, जो देशहित में नही है, नहीं करेगा। उन्होंने गांधी द्वारा शुरू किए गए सत्याग्रह में भाग लिया, लेकिन 10 दिसंबर, 1940 को भारत रक्षा अधिनियम के तहत गिरतार कर उन्हें यरवदा जेल भेज दिया गया। खराब स्वास्थ्य के कारण उन्हें सितंबर 1941 में रिहा कर दिया गया।
- देसाई-लियाकत पैक्ट : 1942-1945 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब कांग्रेस के सभी प्रमुख नेता जेल में थे, भूलाभाई देसाई उन नेताओं में से थे, जो जेल में नहीं थे। इसी समय देसाई मुस्लिम लीग के नेता लियाकत अली खान के संपर्क में आए, दोनों ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरतार किए गए राजनीतिक नेताओं की रिहाई के लिए संघर्ष किया। दोनों की बातचीत से हिंदू एवं मुस्लिमों की एक गठबंधन सरकार बनाने की उम्मीद जगी, ताकि स्वतंत्रता के बाद दोनों संप्रदाय देश के लिए काम कर सकें।
- भूलाभाई देसाई के साथ अपनी बातचीत में लियाकत अली खान ने कहा कि यदि मुस्लिम लीग को गठबंधन सरकार में समान प्रतिनिधित्व दिया जाए तो मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए अलग राज्य की मांग छोड़ देगी। अगर उन्हें । भूलाभाई देसाई का भी यह मत था कि इस समझौते से भारत छोड़ो आंदोलन की त्वरित समाप्ति, भारत की स्वतंत्रता की प्रक्रिया तेज एवं कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेताओं की रिहाई होगी। हालाँकि, भूलाभाई देसाई और लियाकत अली खान दोनों ने अपने समझौते को कांग्रेस के महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू और मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना जैसे महत्वपूर्ण नेताओं से गुप्त रखा था। और यहीं वह कारण बना जिससे यह योजना असफल हो गई।
- जब वर्ष 1945 में भूलाभाई देसाई और लियाकत अली खान द्वारा किए गए गुप्त समझौते के बारे में प्रेस को जानकारी हुई, तो रिपोर्टें सार्वजनिक होने पर दोनों पार्टीयाँ सावधान हो गई। भूलाभाई देसाई ने यह माना कि गुप्त समझौता हुआ था किंतु लियाकत अली खान इस बात से साफ मुकर गए। इससे न केवल देसाई-लियाकत पैक्ट समाप्त हो गया, बल्कि भूलाभाई देसाई के राजनीतिक करियर का मार्ग भी समाप्त हो गया। उन्होंने सभी कांग्रेस नेताओं का समर्थन खो दिया और उन्हें भारत की संविधान सभा से चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी गई।
- इस पूरे सिद्धांत को सर चिमन लाल सीतलवाड़ जैसे प्रतिष्ठित लोगों ने चुनौती दी थी, जिन्होंने कहा है कि गांधी जी के पास चल रही वार्ताओं का पूरा ज्ञान था। उनकी इच्छा थी कि भविष्य की गठबंधन सरकार के लिए एक समझौते, जिससे भारत की स्वतंत्र सरकार के लिए हिंदू और मुसलमानों के एकजुट होने का विकल्प संभव हो, पर बातचीत हो।
- आई एन ए सोल्जर्स फैसला : एक वकील के रूप में भूलाभाई देसाई का सबसे महत्वपूर्ण वाकया वर्ष 1945 में आईएनए सोल्जर्स की सुनवाई के दौरान सामने आया। भारतीय राष्ट्रीय सेना के तीन अधिकारियों शाहनवाज खान, गुरबख्श सिंह ढिल्लों और प्रेम कुमार सहगल पर द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान देश के खिलाफ राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। भूलाभाई देसाई आईएनए सैनिकों की 17 सदस्यीय बचाव पक्ष का हिस्सा थे। मुकदमा अक्टूबर 1945 में दिल्ली के लाल किले में शुरू हुआ। इस तथ्य के बावजूद कि भूलाभाई देसाई बीमार थे, उन्होंन तीन महीनों तक अदालत में जोश भरी दलीलें दी। भूलाभाई देसाई ने अंतरराष्ट्रीय कानून की अवधारणा और अनंतिम सरकार के आदेश को ध्यान में रखते हुए सैनिकों की ओर से तर्क दिया। हालांकि, तीनो अधिकारियों को दोषी ठहराया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। 1945 का यह मामला भूलाभाई देसाई के कानूनी करियर में सबसे महत्वपूर्ण साबित हुआ।
- निजी जीवन : भूलाभाई देसाई की शादी इच्छाबेन से उस समय हुई जब दोनों स्कूली बच्चे थे और शादी के कुछ समय बाद ही उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम उन्होंने धीरूभाई रखा। 1923 में कैंसर के कारण इच्छाबेन र्स्वगवासी हो गई।
- मृत्यु : भूलाभाई देसाई का निधन 6 मई, 1946 को हुआ। भूलाभाई देसाई के देश के प्रति योगदान की सराहना के लिए मुंबई में भूलाभाई मेमोरियल इंस्टीट्यूट की स्थापना की गई। उनकी मृत्यु के बाद प्रख्यात राजनीतिज्ञ, वकील और स्वतंत्रता सेनानी श्री भूलाभाई देसाई की जीवनी को एम. सी. सीतलवाड ने ‘भूलाभाई देसाई रोड’ नाम से लिखा।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में 1920, 30 एवं 40 के दषकों के प्रमुख व्यक्तित्व
- प्रारंभिक वर्ष : लक्ष्मी सहगल जिनके जन्म का नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन था एवं जिन्हें सुभाष चन्द्र बोस कैप्टन लक्ष्मी के नाम से पुकारते थे, का नाम भारतीय इतिहास के इतिहास में अमर है। उनके पिता एस. स्वामीनाथन, पालघाट, केरल में, एक क्रिमिनल वकील एवं माँ ए. वी. अमाकुट्टी, एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। चिकित्सा के क्षेत्र में अध्ययन करने के चुनाव के पश्चात् उन्होंने 1938 में एम. बी. बी. एस. की डिग्री प्राप्त कर ली। एक साल के बाद उन्होंने स्त्री-रोग और प्रसूति में डिप्लोमा प्राप्त किया और डॉक्टर के रूप में चेन्नई के गर्वमेंट कस्तूरबा गांधी अस्पताल में काम किया।
- विवाह : पायलट पी. के. एन. राव के साथ उनका विवाह कुछ दिनां तक सफल रहा। शादी की असफलता के बाद वे सिंगापुर चली गई। इसी समय के दौरान सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद फौज या भारतीय राष्ट्रीय सेना वहां सक्रिय थी। उनके कुछ अनुयायियों से मुलाकात के बाद उन्हें भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका के बारे में पता चला। वे पहले से ही प्रवासी महिला मजदूरों, जिनमें ज्यादातर भारतीय थे, के स्वास्थ्य के लिए काम कर रही थीं, अब वे इंडिया इंडिपेंडेंस लीग का हिस्सा भी बन गईं।
- ब्रिटिशों का जापानीयों के सामने आत्मसमर्पण : द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों द्वारा जापानीयों के सामने आत्मसमर्पण के दौरान, सहगल युद्ध के कई कैदियों का ईलाज कर रही थी, कईयों ने इस दौरान, एक भारतीय स्वतंत्रता सेना बनाने की मांग की, जो भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने में मदद करे। सुभाष चंद्र बोस जुलाई 1943 में सिंगापुर पहुंचे। अपने सार्वजनिक भाषणों में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि महिलाएं भारत की आजादी की लड़ाई में भाग ले सकती हैं और महिलाओं की रेजिमेंट बनाने की उत्सुकता दिखाई जो पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करेंगी।
- झांसी की रानी रेजिमेंट : लक्ष्मी सहगल चेन्नई में एक युवा लड़की के रूप में भी फायरब्रांड थीं। उन्होंने भारत में शराब के व्यापार और विदेशी सामानों की बिक्री के खिलाफ आंदोलनों में हिस्सा लिया था और यहां तक कि अपनी विदेशी कपड़े, किताबें, खिलौने आदि भी जलाए थे। जब वह सुभाष चंद्र बोस से मिलीं और झांसी की रानी रेजिमेंट नामक एक सर्व-महिला रेजिमेंट का प्रस्ताव दिया, तो इसे आसानी से स्वीकार कर लिया गया। वह अपने अधीन कई उत्साही महिलाओं के साथ कैप्टन लक्ष्मी बन गई। चल रहे विश्व युद्ध में परिस्थितियोंं ने करवट ली और जब जापानियों पर बमबारी हुई, तो इसका एक हिस्सा होने के नाते आईएनए के कई कर्मियों को गिरतार कर लिया, जिनमें लक्ष्मी भी एक थीं। 1945 में बर्मा में गिरतार, उन्हें 1946 में भारत भेजा गया। बाद में उन्हें मुक्त कर दिया गया था।
- 1947 : 1947 में शरणार्थियों की देखभाल के लिए उन्होंने दिन-रात एक कर दिए। वे मुख्यतः गरीबों, विशेषकर महिलाओं की सेवा की ओर ध्यान देती थी, एवं गरीब महिलाओं के प्रति उनकी करुणा उल्लेखनीय थी। उन्होंने कई साल बिना किसी इनाम या मान्यता के, बिना थके, ऐसी निस्वार्थ सेवा में गुजारे । उन्होंने गरीबों के लिए एक प्रसूति-गृह भी शुरू किया जो आज भी विद्यमान है।
- कई अन्य आंदोलन : 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद, लक्ष्मी सहगल ने स्वतंत्र भारत में अपनी राजनीतिक यात्रा जारी रखी। 1971 में, वह भारतीय मार्क्सवादी (CPI(M)) की कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुईं और राज्यसभा में इसका प्रतिनिधित्व किया। बांग्लादेश युद्ध ने कई शरणार्थियों को भारत में आते देखा। अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ की नेता के रूप में, जिसकी उन्होंने ‘1981 में स्थापना की, उन्होंने अभियान चलाया और इन प्रवासी महिलाओं के लिए कई गतिविधियों का नेतृत्व किया। 1984 में भोपाल गैस त्रासदी पीड़ितों की मदद करना, 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद कानपुर में शांति बहाल करने के लिए काम करना, उनके लिए स्वाभाविक था। कानपुर में उनके क्लिनिक में उनकी यात्रा जारी रही और 2006 तक जब वह 92 वर्ष की थीं, तब उन्होंने इसे अपने जीवन में एक नियमित आदत बना लिया।
- पुरस्कृत : 1998 में सहगल को भारतीय राष्ट्रपति क.े आर. नारायणन ने पद्म विभूषण से सम्मानित किया। उन्हें 2002 में वामपंथी दलों द्वारा डॉ. कलाम के सम्मुख चुने जाने का सम्मान मिला, जो राष्ट्रपति पद के प्रमुख दावेदार थे। उन्होंने मार्च 1947 में प्रेम कुमार सहगल से शादी कर ली थी और कानपुर आकर बस गईं। विभाजन के बाद भारत में शरणार्थियों की आमद के साथ विशेष रूप से पहले भी उनकी चिकित्सा पद्धति जारी रही। उनकी दो बेटियां सुभाषिनी अली और अनीसा पुरी हैं। सुभाषिनी एक प्रमुख कम्युनिस्ट राजनीतिज्ञ और श्रमिक कार्यकर्ता हैं।
- प्रारंभिक वर्ष : तेज बहादुर सप्रू का जन्म अलीगढ़ में दिल्ली में रहने वाले एक कुलीन कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने अलीगढ़ के हाई-स्कूल में पढ़ाई की और आगरा कॉलेज से मैट्रिक किया, जहाँ उन्होंने कानून की डिग्री भी ली। मुरादाबाद में प्रशिक्षु रहने के बाद वे 1898 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में शामिल हुए। 1923 में उन्हें कानून के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए नाइटहुड की उपाधि से सम्मानित किया गया। उन्होंने अपने व्यक्तिगत और व्यवसायिक जीवन में उच्च मानक स्थापित किए। उन्हें अंग्रेजी के साथ-साथ फारसी और उर्दू का भी अच्छा ज्ञान था।
- पदोन्नति : सप्रू को गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद का सदस्य नियुक्त किया गया और उन्होंने लंदन में गोलमेज सम्मेलन तथा संयुक्त संसदीय समिति में कार्य किया। संवैधानिक और कानूनी ढांचे के भीतर उदारवादी बदलाव के उदारवादी पक्ष के रूप में, सप्रू ने ब्रिटिश प्राधिकारियों और भारतीय राष्ट्रवादियों के बीच और हिंदू और मुस्लिम नेताओं के बीच मध्यस्थ की भूमिका में अप्रत्यक्ष रूप से काम किया। उदाहरण के लिए, उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस और अंग्रेजों के बीच मध्यस्थता की लेकिन वे दोनो पक्षों को साथ में लाने में असफल रहे। अन्य प्रकरणों में वे सफल रहे जैसे कि 1931 में हुआ गांधी-इरविन समझौता। उन्होंने कांग्रेस नेताओं की नागरिक अवज्ञा आंदोलन के रणनीति के समझौता कर लेने की पूर्वाग्रही धारणा एवं कांग्रेस नेताओ को कारावास में भेजने पर समान रूप से आपत्ति जताई।
- सप्रू समिति : विशेषतः, वे सप्रू समिति के अध्यक्ष थे, जिन्हें नवंबर 1944 में गैर-पार्टी सम्मेलन की स्थायी समिति द्वारा नियुक्त किया गया था। समिति को गांधी-जिन्ना की सांप्रदायिक समस्याओं पर वार्ता के टूटने के बाद संपूर्ण सांप्रदायिक मु़द्धे की न्यायिक ढांचे के अंर्तगत जांच करने का कार्य दिया गया था। सर तेज ने सभी सांप्रदायिक समूहों के 29 प्रतिनिधियों का चयन समिति के सदस्यों के रूप में किया। समिति ने राजनीतिक गतिरोध को तोड़ने के प्रयास में वायसराय लॉर्ड वेवेल को अपना प्रस्ताव प्रस्तुत किया।
- रिपोर्ट : समिति की रिपोर्ट में प्रत्येक समुदाय के प्रस्तावों और दावों के विस्तृत ऐतिहासिक विश्लेषण और इसकी संवैधानिक सिफारिशों के लिए तर्क शामिल थे। विभाजन के महत्वपूर्ण प्रश्न पर, सप्रू समिति ने पाकिस्तान के निर्माण को टालने के लिए एक अंतिम लेकिन असफल याचिका दायर की। सप्रू भारतीय राष्ट्रीय सेना के अधिकारियों पर 1945 में चलाए गए देशद्रोह के मामलें में रक्षा समिति के सदस्य भी थे। बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि चूंकि आई. एन. ए. एक स्वतंत्र सेना थी जो कि एक निर्वासित सरकार का प्रतिनिधित्व करती थी अतः इसके अधिकारियों पर राजद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।
- संविधान सभा : संविधान पर बहसों के दौरान, प्रत्येक चरण में हिंदू और मुस्लिमों तथा अंग्रेजों एवं हिंदूओं को अपने मतभेद दूर करने की अपील कर, सप्रू ने, एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने इस प्रक्रिया के दौरान प्रत्येक सांप्रदायिक समूह के अधिकारों की रक्षा करने की मांग की। 20 जनवरी, 1949 को उनका निधन हो गया।
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