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क्रिप्स मिशन और भारत छोड़ो आंदोलन
1.0 प्रस्तावना
सितंबर 1939 में दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत कब हुई जब हिटलर की जर्मन विस्तारण की नीति का अनुसरण करते हुए नाज़ियों ने पोलैंड़ पर आक्रमण किया। इससे पहले जर्मनी मार्च 1938 में आस्ट्रिया और मार्च 1939 में चेकोस्लोवाकिया को अपने अधिकार में ले चुका था। ब्रिटेन और फ्रांस जो हिटलर को शांत करने का प्रयास कर रहे थे, उन्हें हिटलर ने पोलैंड़ के मोर्चे पर जाने के लिए मजबूर कर दिया। भारत की ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस से या केन्द्रीय विधान मंडल के चयनित सदस्यों से परामर्श किए बिना युद्ध में भाग लेने का त्वरित निर्णय ले लिया।
2.0 द्वितीय विश्वयुद्ध पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया
राष्ट्रीय कांग्रेस फासीवाद की उग्रता का शिकार हुए लोगों के प्रति पूर्ण सहानुभूति रखती थी और वो फासीवाद के विरुद्ध किए जा रहे उनके संघर्ष में लोकतांत्रिक ताकतों का साथ भी देना चाहते थे। मगर उनके सामने एक बड़ा प्रश्न था कि जो राष्ट्र स्वयं ही गुलाम हो वह किसी दूसरे देश के स्वतंत्रता संग्राम में मदद कैसे कर सकता है? अतः उन्होंने सरकार से अपील की कि इस युद्ध में शामिल होने से पहले या तो वे भारत को पूर्ण स्वतंत्र घोषित करें या कम से कम भारतीयों के हाथ में प्रभावकारी शक्ति दें, ताकि वे स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकें। ब्रिटिश सरकार ने उनकी इस मांग को सिरे से खारिज कर दिया और धार्मिक अल्पसंख्यकों और राजकुमारों को कांग्रेस के विरुद्ध भड़काने की चेष्टा की। कांग्रेस ने अपने मंत्रियों से इस्तीफा देने के लिए कहा। अक्तूबर 1940 में गांधीजी ने कुछ लोगों को साथ लेकर सीमित सत्याग्रह का आह्वान किया। इस सत्याग्रह को सीमित रखा गया ताकि इससे भारत में बड़ा जन आंदोलन खड़ा न हो जिससे ब्रिटेन का युद्ध में हिस्सा लेना प्रभावित हो। इस आंदोलन के उद्देश्यों को गांधी द्वारा वायसराय को लिखे गए पत्र द्वारा समझा जा सकता हैः
‘‘कांग्रेस भी ब्रिटिशों के समान ही नाज़ियों की विजय का विरोध करती है, मगर यह विरोध उनके साथ युद्ध में भाग लेने की हद तक नहीं ले जाया जा सकता। और जैसे कि आपने और भारत के राज्य सचिव ने घोषित किया है कि भारत का युद्ध में योगदान ऐच्छिक है। इस अवस्था में यह स्पष्ट करना आवश्यक हो जाता है कि भारत की अधिकांश जनता इस युद्ध में भाग लेने की इच्छुक नहीं है। उनके लिए नाज़ीवादी और भारत पर राज्य कर रहे दोहरी नीतिवाले तानाशाहों में विशेष अंतर नहीं है।’’
2.1 व्यक्तिगत सत्याग्रह
विनोबा भावे सत्याग्रह प्रारंभ करनेवाले पहले व्यक्ति थे। 15 मई 1941 को 25,000 से अधिक सत्याग्रहियों को कैद कर लिया गया। 1941 के दौरान वैश्विक राजनीति में दो बड़े परिवर्तन आए। पश्चिमी यूरोप में पोलैंड़, बेल्जियम, हालैंड़, नार्वे, फ्रांस और पूर्वी यूरोप के अधिकांश भागों पर अधिकार करने के बाद जर्मनी के नाज़ियों ने 22 जून 1941 को अपने पूर्व मित्र सोवियत यूनियन पर ही आक्रमण कर दिया। 7 दिसंबर को जापान ने पर्ल हार्बर बंदरगाह पर अमरीकी जहाजी बेडे़ पर आक्रमण करते हुए जर्मनी और इटली की ओर से विश्वयुद्ध में भाग लिया। उसने तेजी से फिलीपीन्स, मलाया, इन्डोचीन, इंडोनेशिया और बर्मा पर अधिकार कर लिया। मार्च 1942 में उसने रंगून को अपने अधिकार में ले लिया। जापान के इस कदम ने युद्ध को भारत के द्वार ला खड़ा किया। कांग्रेस के तात्कालिक नेताओं ने जापान के इस कदम की निंदा की और भारत की सुरक्षा हेतु युद्ध में भाग लेने की इच्छा जताई, इस शर्त पर कि ब्रिटेन भारत को त्वरित रूप से स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार प्रदान करें और युद्ध के तुरंत बाद भारत को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करने का वायदा करे।
3.0 क्रिप्स मिशन
मार्च 1942 में ब्रिटिश संसद ने सर स्टेफोर्ड क्रिप्स, जो कि लेबर पार्टी के राजनीतिज्ञ थे, के नेतृत्व में एक शिष्ट मंडल को कांग्रेस से बातचीत करके युद्ध में भारतीयों का सहयोग सुनिश्चित करने के उद्देश्य से भारत भेजा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को नए संविधान का मसौदा संतोषजनक प्रतीत नहीं हुआ क्योंकि इस मसौदे के अनुसार भारत द्वारा युद्ध में पूर्ण सहयोग करने के बाद उसे आंशिक प्रभुत्व तो दिया जाएगा मगर पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दी जाएगी। इस बातचीत में प्रगतिशील हस्तांतरण और शक्ति के वितरण की बात तो की जा रही थी मगर पूर्ण स्वतंत्रता कब मिलेगी, यह तय करने में यह वार्ता सफल न हो सकी। हालांकि क्रिप्स ने यह उल्लेख भी किया कि भारत में ब्रिटिश नीति लागू करने का उद्देश्य भारत में स्वतंत्र शासन व सरकार की संभावनाएं तलाश करना ही है, कांग्रेस और क्रिप्स के बीच का विस्तृत वार्ता असफल हो गई। ब्रिटिश सरकार ने शक्ति हस्तातंतरण की भारत की त्वरित मांग को अस्वीकार कर दिया। दूसरे शब्दों में ब्रिटिश सरकार सारी शक्ति को एकतंत्रीय रखते हुए भविष्य के लिए वादे करके भारतीय नेताओं को संतुष्ट न कर सकी। वे सभी जापान द्वारा भारत पर आरोपित खतरे के खिलाफ युद्ध में भाग लेना चाहते थे मगर वे सोचते थे कि ऐसा तभी संभव हो सकेगा जब देश में राष्ट्रीय शासन का निर्माण होगा। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया और कांग्रेस के नेता होने के नाते मोहन दास गांधी ने युद्ध के खिलाफ अभियान चलाते हुए भारतीय स्वाधीनता का आह्वान किया।
‘क्रिप्स मिशन‘ की नाकामयाबी ने भारत के लोगों की आशाओं पर तुषारापात कर दिया। वे अब भी नाज़ी विरोधी सेनाओं के प्रति सहानुभूति रखते थे किंतु उन्हें लगने लगा कि भारत की वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति असहनीय होती जा रही है। उनके इस असंतोष को युद्ध के समय होने वाली विविध कटौतियों और आवश्यक वस्तुओं के बढ़ते हुए दामों ने और भी हवा दी। अप्रैल 1942 से अगस्त 1942 का समय हर दिन तनाव को बढ़ा रहा था। जैसे-जैसे जापानी सेना भारत की ओर बढ़ रही थी, जापान के विजय की काली छाया लोगों को और नेताओं को ड़राने लगी थी और गांधीजी का आंदोलन तीव्र होता जा रहा था।
‘क्रिप्स मिशन’ के बाद गांधीजी को लगने लगा कि अब सोच को कार्यरूप में बदलने का समय आ गया है। उन्होंने अपने समाचार पत्र ‘हरिजन’ में कई आलेख लिखे जिसमें लोगों को सीधे आंदोलन में हिस्सा लेने का आह्वान किया जाने लगा। उनके विचारों को और प्रभावकारी बनाने के लिए कांग्रेस ने 14 जुलाई 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन का सूत्रपात किया। इसके अनुसार ‘‘भारत में ब्रिटिश शासन का त्वरित अंत भारत और संयुक्त राष्ट्र संघ के हित के लिए, दोनों के ही लिए आवश्यक है।’’ और इस आधार पर उन्होंने भारत के ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वराज्य की मांग रखी। इस मसौदे में शासन को यह भी ड़र दिखाया गया कि इन मांगों को अस्वीकार करने की स्थिति में यह आंदोलन उग्र जन आंदोलन का रूप ले लेगा।
4.0 भारत छोड़ो आंदोलन
कांग्रेस ने अब तय किया कि ब्रिटिश सरकार पर भारत को स्वतंत्र करने हेतु दबाव बनाना होगा। 8 अगस्त 1942 को ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की बंबई में बैठक हुई जिसमें भारत छोड़ो आंदोलन के मसौदे को पारित किया गया और इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु गांधी जी के नेतृत्व में एक अहिंसक जन आंदोलन शुरु करने का निर्णय लिया गया। इस संकल्प में कहा गयाः
‘‘भारत में ब्रिटिश शासन का तत्काल अंत हो यह भारत और संयुक्त राष्ट्र संघ दोनों के ही लिए आवश्यक हो गया है। भारत जो अब साम्राज्यवाद का उत्कृश्ट उदाहरण बन गया है और सवालों की जड़ बनता जा रहा है इसे ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र करवाने में यदि संयुक्त राष्ट्र संघ सहयोग करता है तो यह कदम अफ्रीका और एशिया के लोगों में उत्साह और नई आशा का संचार करेगा। भारत से अंग्रेजी शासन का अंत एक महत्वपूर्ण और तात्कालिक मुद्दा है जिस पर युद्ध का भविष्य और स्वतंत्रता और प्रजातंत्र की सफलता निर्भर है। स्वतंत्र भारत फासीवाद, नाज़ीवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी पूरी ताकत झोंककर इस संघर्ष को सफल बनाने का आश्वासन देता है।’’
8 अगस्त की रात को कांग्रेस के प्रतिनिधि मंड़ल को संबोधित करते हुए गांधी जी ने कहाः
‘‘इसलिए मैं स्वतंत्रता अभी चाहता हूँ यदि संभव हो, इसी रात को, मैं सुबह का इंतजार नहीं करना चाहता। आज झूठ और बेईमानी से सारी दुनिया त्रस्त हो चुकी है। आप यह समझ लें कि अब मैं पूर्ण स्वराज्य के अलावा किसी भी तरह के प्रस्ताव से संतुष्ट नहीं हो सकता हूं। मैं एक छोटा सा मंत्र आपको देना चाहता हूं। आप इसे अपने दिल में छाप लें और आती-जाती हर सांस के साथ इसको जीएं। यह मंत्र है ’‘करो या मरो’’। या तो हम भारत को स्वतंत्र कराएंगे या अपनी जान दे देंगे। हम अपनी दासता की कहानी को और अधिक दिनों तक देखते रहने के लिए जिंदा नहीं रहेंगे।’’
4.1 सरकार द्वारा दमन
जो भी हो, सरकार न तो कांग्रेस के साथ बातचीत करने का विचार कर रही थी न ही इस आंदोलन की औपाचारिक घोषणा का इंतजार करना चाहती थी। 9 अगस्त की सुबह सरकार ने कांग्रेस के सभी प्रमुख नेताओं गांधी, नेहरू, पटेल और आजाद को कैद कर लिया। गांधीजी के अधिकतर अनुयायी जिनमें कांग्रेस की कार्यकारी समिति के कई पदाधिकारी भी शामिल थे, गिरतार कर लिए गए और 24 घंटे के अंदर उन्हें जेल भेज दिया गया। प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी के बाद युवा अरुणा आसफ अली ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति अधिवेषन का नेतृत्व किया और भारतीय झंड़ा लहराया। हालांकि गांधी जी ने स्पष्ट किया था कि आंदोलन अहिंसक रीति से ही होगा मगर लोगों के गुस्से को राह दिखाने वाला कोई नहीं था।
सरकार तो इस तरह के आंदोलन का 1940 से इंतजार कर रही थी और इसके दमन के लिए क्रांतिकारी आंदोलन अध्यादेष के साथ सुसज्जित थी। दो सालों से सरकार और गांधी के बीच चूहे-बिल्ली का खेल चल रहा था। गांधी जी ने समय से पहले, बिना सोचे समझे आंदोलन शुरु न करने का निर्णय लेकर सरकार के बिछाए जाल में उलझने से इंकार कर दिया था। उन्होंने सावधानीपूर्वक पहले व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू करवाया और उसके सतत् प्रचार का अभियान चलाया। मगर अब सरकार उन्हें अपनी रणनीति को मजबूत करने के लिए अधिक समय नहीं देना चाहती थी।
गांधी जी की गिरफ्तारी के तीन या चार दिन बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को गैर-कानूनी पार्टी घोशित कर दिया गया। इन गिरफ्तारियों ने देश को स्तब्ध कर दिया और लोगों का गुस्सा देशव्यापी आंदोलन के रूप में हर तरफ फूट पड़ा। बंबई में इन गिरफ्तारियों की खबर पहुंचते ही गोवलिया मैदान में एक आमसभा का आयोजन किया गया और सरकारी अधिकारियों और जनता के बीच संघर्ष हुआ।
किसी भी नेता या संगठन का मार्गदर्शन ना होने से लोग अपने मन मुताबिक व्यवहार करने लगे। हड़तालें की जाने लगीं और कर्मचारियों ने काम पर जाना बंद कर दिया। अहमदाबाद, बंबई और पूना में लोगों ने कपडे़ की मिलें बंद करवा दीं। अहमदाबाद में 8000 मिल कर्मचारियों ने अपनी नौकरियां छोड़ दीं। देश भर के कस्बों और शहरों में विद्यार्थियों ने स्कूल-कालेज जाना छोड़कर मिल कर्मचारियों के साथ रैली में हिस्सा लिया। बलिया, उत्तर प्रदेश, के छोटे इलाके में लोगों ने जिला प्रशासनिक अधिकारी को हटाकर अपनी सत्ता कायम कर ली। जेल तोड़कर कांग्रेस के नेताओं को रिहा कर दिया गया। देश भर में भीड़ ने बिजली, टेलीफोन के तार काट ड़ाले, रेल की पटरियां उखाड़ डालीं। मद्रास और बंगाल इस मामले में सबसे अधिक प्रभावित हुए। कई क्षेत्रों में विद्रोहियों ने गांवों, शहरों पर कब्जा कर लिया। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, उडीसा, आंध्र, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में ब्रिटिश अधिकारी मानो गायब हो गए। कुछ स्थानों जैसे पूर्वी उत्तरप्रदेश में बलिया, बंगाल के मिदनापुर जिले में तमलुक और महाराष्ट्र में सातारा जिले में क्रांतिकारियों ने एक समानांतर सरकार का गठन किया। दूसरे शब्दों में विद्यार्थी, किसान और मजदूर विद्रोह की रीढ़ बने जबकि उच्च वर्ग और सरकारी अधिकारी सरकार के वफ़ादार बने रहे।
सरकार ने अपने स्तर पर 1942 के इस आंदोलन को कुचलने का पूर्ण प्रयास किया। यह अभियान किसी नियम को नहीं मानता था। प्रेस को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया। प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाई गईं, हवा में बम भी फेंके गए। जेल में बंद कैदियों पर भीषण अत्याचार किए गए। पुलिस और खुफिया पुलिस के अधिकारी सर्वेसर्वा बन गए। कई कस्बों और शहरों पर मिलिट्री (सेना) का कब्जा हो गया। पुलिस और मिलिट्री द्वारा की गई गोलीबारी से करीब 10,000 लोग मारे गए। विद्रोही गांवों को दंड के रूप में भारी धनराशि अदा करने को कहा गया और गांववालों को बेल्ट, लाठियों आदि से बुरी तरह से पीटा गया। 1857 की क्रांति के बाद अब तक भारत ने इस तरह का दमनचक्र नहीं देखा था।
अंत में सरकार इस आंदोलन को कुचलने में कामयाब हुई। 1942 का यह विद्रोह कम आयु का ही साबित हुआ। हां, इसका महत्व इसलिए अधिक है कि इस आंदोलन ने यह साबित किया कि देश प्रेम और स्वतंत्रता की चिंगारी हर दिल में जल चुकी है और लोग देश के लिए बडे़ से बड़ा त्याग कर सकते हैं, व कष्ट सह सकते हैं। इससे यह भी अहसास हो रहा था कि अब जनता की इच्छा के विरुद्ध ब्रिटिश भारत पर अधिक समय तक शासन नहीं कर पाएंगे।
हालांकि सितंबर 1942 तक विद्रोह लगभग कुचला जा चुका था फिर भी 1942 के अंत में कई रेलवे स्टेशनों पर आक्रमण किया गया और सैकड़ों पुलिस स्टेशन लोगों ने जला दिए।
चूंकि कांग्रेस के कई नेता जेल में थे अतः कई स्त्रियों ने नेतृत्व की कमान हाथ में संभालते हुए भूमिगत होकर छुपते-छुपाते अपनी गतिविधियां जारी रखनी शुरु की। वे पर्चे छापतीं, धन एकत्र करतीं और यहां तक कि कांग्रेस के नेताओं को आश्रय प्रदान करने में मदद करतीं। स्त्रियों ने प्रार्थना सभाएं आयोजित की, रैलियां निकालीं और राष्ट्रीय झंडा फहराया।
असम के एक गांव में 15 वर्ष की लडकी ने 500 लोगों की रैली आयोजित की जिसने पुलिस स्टेशन तक जाकर झंडा फहराने का प्रयास किया। पुलिस ने उसे पीछे हटने का आदेश दिया मगर वह आगे बढ़ती गई और अपने सीने पर गोली का वार झेला। फिर भी भीड़ में से किसी ने झंड़ा फहराने में सफलता हासिल कर ली।
कुछ राष्ट्रीय नेताओं ने भूमिगत रहकर पर्चे बांटने, समानांतर सरकार का संचालन करने और गुप्त रेडियो से संदेश प्रसारित करने का काम किया। कांग्रेस रेडियो ने जो बंबई में कहीं स्थित था और लगातार घूम रहा था, 14 अगस्त को अपना पहला प्रसारण किया जिसमें भूमिगत गतिविधियों की कहानियां सुनाकर भारतीयों को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष हेतु प्रेरित किया जाता था। यह प्रसारण 12 नवंबर तक निर्बाध रूप से चलता रहा, इसके बाद एक छापे में पुलिस ने इस प्रसारण को भंग कर दिया। बंबई की एक महिला विद्यार्थी डा. उषा मेहता इस प्रकल्प की सूत्रधार थीं।
मार्च 1943 तक यह अभियान कमज़ोर हो गया था। भारत छोड़ो आंदोलन ब्रिटिश सत्ता का अंत करने में नाकामयाब रहा था क्योंकि कई बड़े नेता सलाखों के पीछे थे। मगर इस आंदोलन ने भारत की जनता को ब्रिटिश शासन के खिलाफ ला खड़ा किया था और अंग्रेजों को दिखा दिया था कि अब भारत को बंधक रखने की कोई नई युक्ति काम न आ सकेगी और उन्हें जल्दी ही बिना किसी शर्त के भारत को स्वतंत्र करना ही होगा।
4.2 गांधीजी का 21 दिन का उपवास
फरवरी 1943 में एक नया विचार सामने आया जिसने राजनैतिक गतिविधियों को नया रूप प्रदान किया। 10 फरवरी को गांधी जी ने आगा खान महल, पुणे की जेल में उपवास शुरु किए। उन्होंने बताया कि यह उपवास 21 दिन तक चलेगा। यह उपवास सरकार के उस प्रयास के उत्तर में था जिसके दौरान सरकार गांधी जी को विवश कर रही थी कि वे भारत छोड़ो आंदोलन में सरकारी संपत्ति के नुकसान और सरकारी नुमाइंदों की मौत के लिए लोगों के हिंसात्मक रुख की आलोचना करें। गांधीजी ने न केवल ऐसा करने से मना किया वरन इस हिंसा के लिए स्पष्ट रूप से सरकार को ही दोषी माना। उन्होंने कहा, यह ‘सिंह जैसा हिंसात्मक व्यवहार’ था जिसने लोगों को प्रत्युत्तर देने के लिए उकसाया। उनके अनुसार यह भी राज्य का हिंसात्मक रवैया ही था जिसके चलते अनेक कांग्रेस नेताओं को बिना वारंट के नजरबंद किया गया।
गांधीजी के पास जेल में रहते हुए विरोध का एक ही तरीका बचा था, वह था उपवास।
उपवास की खबर की प्रतिक्रिया त्वरित और अपेक्षा से अधिक थी। सारे देश में हड़ताल, प्रदर्शन और बंद का दौर शुरु हो गया। कलकत्ता और अहमदाबाद विशेष रूप से सक्रिय हो गए। जेल में बंद कैदियों और जेल के बाहर भी लोगों ने उपवास रखने शुरु किए। लोगों का समूह गुप्त रूप से सत्याग्रह के लिए आगा खान पैलेस पहुंचा जहां गांधी जी को नजरबंद किया गया था। जन सभाओं में गांधी जी की रिहाई की मांग की जाने लगी और सरकार के पास रोज हजारों की तादाद में पत्र पहुंचने लगे जिन्हें भेजने वालों में विद्यार्थी, व्यापारी, किसान, वकील, मजदूर और सामान्य जन समुदाय भी शामिल था।
समुद्र पार के समाचार पत्रों जैसे मैनचेस्टर गार्डियन, न्यू स्टेट्समैन, नेशन, न्यूज क्रोनिकल, शिकागो सन में और ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी, द सिटिजन आफ लंडन एंड मैनचेस्टर, द वूमन्स इंटरनेशनल लीग, द ऑस्ट्रियन काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियन और सीलोन स्टेट काउंसिल आदि द्वारा गांधीजी को मुक्त करने के लिए सरकार पर दबाव बनाया जाने लगा। अमेरिकी सरकार ने भी दबाव ड़ालना शुरू किया। 19-20 फरवरी को दिल्ली में नेताओं की एक बैठक हुई जिसमें कई जाने-माने व्यक्तियों, नेताओं और जनप्रिय लोगों ने भाग लिया। उन सभी ने गांधीजी को मुक्त करने की मांग रखी। वे लोग जो कांग्रेस से विशेष सहानुभूति नहीं रखते थे, वे भी इस मुद्दे पर एक मत थे और उन्हें लगता था कि सरकार इस मुद्दे पर अपनी हद से बाहर जा रही है। सरकार को तगड़ा झटका तब लगा जब वाइसॅराय कार्यकारी परिषद के तीन भारतीय सदस्यों - एम.एस.एनी, एन.आर.सरकार और एच.पी.मोदी ने, जिन्होंने 1942 के आंदोलन को कुचलने में सरकार की मदद की थी मगर अब वे गांधीजी की मृत्यु के लिए तैयार नहीं थे, पद से इस्तीफा दे दिया।
मगर वायसराय और उनके अधिकारी कठोर बने रहे। विन्सटन चर्चिल के केबिनेट में दिए गए भाषण ‘‘इस समय जब हम दुनिया पर विजय पा रहे हैं, हमें एक बूढ़े दयनीय व्यक्ति की मांगों के सामने घुटने टेकने की आवश्यकता नहीं है’’, द्वारा निर्देशित होने से उन्होंने कठोरता से भारतीयों की भावनाओं के प्रति किसी तरह की नरमी दिखाने से इनकार कर दिया। वायसराय ने गांधी जी की मृत्यु से उपजने वाली संभावना को हिकारत से पुष्ट कियाः ‘छह महीने का वैमनस्य, भार में कमी, इसके अंत में कुछ भी नहीं बचेगा।’ उसने यह भी कहा कि यदि गांधी की मृत्यु हो जाती है तो ‘भारत कई नए प्रयोगों के लिए अच्छा आधार साबित हो सकेगा। गांधी की मौत के बाद भारत में अंग्रेजी शासन को स्थिरता मिल सकती है क्योंकि शासन की स्थिरता के रास्ते में वे किसी टॉरपीडो की तरह मारक सिद्ध होते थे।’ एक ओर जहां चिंतित देश उनके जीवन की दुहाई दे रहा था, अंग्रेजों ने उनके दाह-संस्कार का भी प्रबंध कर लिया था। किसी भी आकस्मिकता से निपटने के लिए सेना को तैयार रहने को कहा गया था। उनके मृत शरीर को लोगों के सामने जलाने, उनकी अस्थियों को ले जाने के लिए एक हवाई जहाज का इंतज़ाम करने और दफ्तरों में आधे दिन का अवकाश घोषित करने के उदार निर्णय सरकार ले चुकी थी। मगर गांधीजी ने मौत के सामने हार मानने से इनकार कर दिया और एक बार फिर उनकी हालत में सुधार होने लगा।
उपवास ने अपना लक्ष्य प्राप्त किया। लोगों का मनोबल बढ़ा। ब्रिटिश विरोधी लहर उठी और राजनैतिक गतिविधियों के लिए अवसर निर्मित हुआ। एक प्रतीकात्मक विरोध अब देशव्यापी बन चुका था और ब्रिटिश सरकार का अन्यायपूर्ण, कठोर रवैया सारी दुनिया के सामने आ चुका था। सरकार अपनी सफाई प्रस्तुत करते हुए कह रही थी कि 1942 के आंदोलन को कुचलने में सरकार का हाथ नहीं था और यही उसका सबसे बडा झूठ था। मई 1944 को ब्रिटिश अधिकारियों ने महात्मा गांधी को स्वास्थ्य खराब होने के कारण जेल से आजाद किया जबकि अन्य कई नेताओं और गांधी जी के अनुयायियों को जेल में बंद ही रखा गया।
1942 के विद्रोह के बाद देश में राजनीतिक गतिविधियां न के बराबर हुई थीं। राष्ट्रीय आंदोलनों के प्रसिद्ध नेता जेल में थे और उनका स्थान लेने और जनता को मार्गदर्शन देने के लिए कोई अन्य व्यक्ति मौजूद नहीं थे। 1943 में बंगाल में इतिहास का सबसे भयानक अकाल पड़ा। कुछ महीनों में तीस लाख से अधिक लोग मारे गए। इतनी बड़ी संख्या में हुई जनहानि को लेकर भी सरकार के प्रति लोगों के मन में भयंकर रोष उत्पन्न हो गया। किंतु इस रोष ने राजनीतिक हलचल को जन्म नहीं दिया।
5.0 आंदोलन में उपजे महत्वपूर्ण प्रश्न
भारत छोड़ो आंदोलन पर छिड़ी बहस दो प्रश्नों के इर्दगिर्द हो रही थी।
5.1 स्वप्रेरित या बाह्यरूप से संचालित?
हालांकि कांग्रेस ने 1919-22, 1930-32 के आंदोलनों में भी पहल करने और स्वप्रेरणा के लिए काफी स्थान रखा था फिर भी उन आंदोलनों की तुलना में 1942 के आंदोलन की तीव्रता और स्व-प्रेरणा दोनों ही अधिक थीं। हालांकि अब तक के गांधीवादी आंदोलनों के संचालन का तरीका यही था कि आंदोलन के प्रणेता आंदोलन की मोटी रुपरेखा तय करते थे और और शेष कार्यनीति का निर्धारण निचले स्तरों पर काम करनेवाले कार्यकर्ताओं और जन समूह पर छोड़ देते थे। यहां तक कि सबसे सुनियोजित माने जानेवाले सविनय अवज्ञा आंदोलन 1930 में भी गांधी जी ने दांड़ी यात्रा शुरु करके और नमक कानून तोडकर आंदोलन प्रारंभ करने के संकेत दिए थे, निचले स्तर के कार्यकर्ताओं ने निर्णय लिया कि वे कर नहीं देंगे या जंगल कानून के खिलाफ सत्याग्रह करेंगे या मदिरा की दुकानों को नुकसान पहुंचाएंगे या इसी तरह की अन्य गतिविधियां करेंगे। 1942 में भले ही आंदोलन का नेतृत्व कौन करेगा यह तय न हो पाने से विस्तृत रूपरेखा नहीं बनाई जा सकी थी, मगर फिर भी एक सीमा तक नेता आंदोलन की और पहल के लोकप्रिय मुद्दों की तीव्रता के अंशों का निर्धारण कर चुके थे। 8 अगस्त 1942 को ए.आई.सी.सी. (अखिल भारतीय कांग्रेस समिति) द्वारा पारित संकल्प में यह स्पष्ट रूप से बताया गया था कि ‘‘ऐसा भी समय आ सकता है जब शायद कोई निर्देश दे पाना या उसे लोगों तक पहुंचा पाना संभव नहीं होगा और कांग्रेस की कोई समिति कार्य नहीं कर सकेगी। ऐसी स्थिति में इस आंदोलन से जुडे़ हर पुरुष या स्त्री को सामान्य निर्देशों की चतुर्सीमा को ध्यान रखते हुए स्वविवेक से काम करना पडेगा। हर भारतीय जो स्वतंत्रता की चाह रखता है, उसे स्व-प्रेरणा से संचालित होना होगा।’’
इसके अलावा कांग्रेस राजनीतिक, वैचारिक और संस्थात्मक रूप से भी इस संघर्ष के लिए लंबे समय से तैयारी कर रही थी। 1937 के बाद से संस्था 1932-34 के आंदोलन के नुकसान से पुनरुत्थान का प्रयास कर रही थी। राजनैतिक और वैचारिक स्तर पर भी स्थानीय मंत्रियों ने कांग्रेस के पक्ष में जनाधार बनाने और उसकी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए काम किया। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में जिन क्षेत्रों में 1942 में सघन गतिविधियां हुई थीं, वे वहीं क्षेत्र थे जिनमें 1937 से संस्थागत सघन कार्य किया गया था। गुजरात में सरदार पटेल 1942 से लगातार बारडोली और अन्य स्थानों का दौरा कर रहे थे और लोगों को भविष्य के आंदोलन हेतु सचेत कर रहे थे, और यह भी बता रहे थे कि कर देने से इंकार करना इसी संघर्ष का एक हिस्सा होगा। कांग्रेस के समाजवादी कार्यकर्ता 1942 जून से कार्यकर्ताओं के लिए शिविरों का अयोजन कर रहे थे। गांधीजी ने स्वयं व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आंदोलन के द्वारा 1940-41 में, एवं फिर 1942 के दौरान लोगों को आनेवाले संघर्ष के लिए तैयार किया जो उनके अनुसार छोटा और तीव्र होगा। किसी भी तरह से आधिपत्य हेतु किया गया प्रारंभिक संघर्ष भी केवल तात्कालिक तीव्रता पर आधारित नहीं था वरन उसके पीछे पूर्व की कई तैयारियां जुड़ी हुई थीं।
5.2 हिंसा को किस तरह न्यायोचित ठहराया जा सकता है?
1942 के आंदोलन में हुई हिंसा को कांग्रेस की अहिंसक नीति के आधार पर किस तरह देखा जाएगा? कई लोगों ने अहिंसक नीति पर कायम रहते हुए किसी भी तरह की हिंसात्मक गतिविधि से स्वयं को दूर रखा था। मगर ऐसे लोग जिनमें से कुछ गांधीजी के कट्टर अनुयायी भी थे, उन्होंने हिंसा का सहारा लिया और उन परिस्थितियों में इसे उचित भी कहा। कई लोगों का मानना था कि टेलीफोन के तार काटना या बिजली के तार काटने, पुल को उड़ाने जैसे कामों में कोई बुराई नहीं है, जब तक कि इससे किसी मनुष्य की जान को खतरा न हो। बाकियों ने स्वीकार किया कि वे अपनी हिंसात्मक गतिविधि को कांग्रेस की नीति के साथ नहीं जोड़ सकते या इसे अहिंसक विचारों के साथ मिलाकर नहीं देखा जा सकता। मगर उन्होंने किया ऐसा ही। गांधीजी ने इस हिंसा के लिए लोगों को धिक्कारने से इनकार किया क्योंकि उन्होंने इसे राज्य सरकारों द्वारा इसके मुकाबले बड़े पैमाने पर हिंसा का उपयोग किए जाने की प्रतिक्रिया के रूप में देखा। फ्रांसिस हटचिन के विचार से गांधीजी हिंसा के खिलाफ इसलिए थे कि उनके विचार से हिंसा के भय से बड़ा जन समूह आंदोलन में भाग नहीं लेता। मगर 1942 में उनकी यह धारणा बदल गई और उन्हें महसूस हुआ कि जन समूह के एकत्रीकरण में हिंसा बाधक नहीं है।
इस ऐतिहासिक आंदोलन का एक बड़ा प्रभाव यह हुआ कि इसने भारत की स्वतंत्रता के मुद्दे को राष्ट्रीय आंदोलन की तात्कालिक और अपरिहार्य कार्यसूची में शामिल कर दिया। भारत छोड़ो के बाद पीछे हटने का अवसर नहीं आया। अब ब्रिटिश सरकार से कोई भी अगली बातचीत केवल शक्ति हस्तांतरण की शर्त पर ही संभव थी। स्वतंत्रता अब मोलभाव का विषय नहीं बन सकती थी। और युद्ध के बाद यह पूरी तरह से स्पष्ट हो गया था।
- Quit India moment, a civil disobedience movement, was launched at the Bombay session of the All India Congress Committee (AICC) by Mahatma Gandhi on August 8, 1942.
- Britain had entered World War II and since it was war time, this movement gained worldwide attention.
- In 1939, the Governor General Lord Linlithgow had, without consultations with Indian leaders, brought India into the War. The Muslim League supported the War, but Congress was divided; Indian nationalists were unhappy.
- The Indian political situation was complicated by the new conservative government under Winston Churchill, who held a grudge against the Indians. The conservatives were not sympathetic with Indian freedom fighters.
- In July 1942, the Congress Working Committee at Wardha passed a resolution termed The Wardha Resolution (also known as Quit India Resolution). It recommended a non-violent mass protest under Mahatma Gandhi.
- On 8 August 1942, the resolution was passed at the Bombay AICC session to stage Quit India movement and on the same day in evening, Gandhi in a speech given at Gowalia Tank Maidan, Bombay urged the people and the leaders to take part in this movement. “Do or die” was his call, complete freedom his desire!
- Almost the entire leadership of the INC was imprisoned without trial within hours of Gandhi's speech, as it was war time. People in thousands were arrested without any enquiry or trial.
- Quit India movement failed to get support from many, including the Viceroy's council (consisting mostly of Indians), the All India Muslim League, the princely states, Civil and Military administration of the government, RSS, Hindu Mahasabha and many Indian businessmen who were making money from heavy wartime spending.
- In parallel, Netaji Subash Chandra Bose took charge of the Indian National Army (INA) and with support of Japan and other countries, fought against the British forces in the war.
- Across India, students in thousands took inspiration from Netaji Bose and registered their protest.
- A group of seven young students on 8 August 1942 tried to hoist the Indian National flag on the Patna Collectorate building. They were shot dead by the police!
- The Americans consistently supported India's cause. President Franklin D. Roosevelt put pressure on PM Winston Churchill to give in, and free India. Churchill never caved in.
- When the British faced threats from Japan on the eastern font, they arrested Gandhiji and imprisoned him.
- On 9 August, 1942 because most leaders were in prison, a new leader Aruna Asaf Ali presided over the AICC session and hoisted the national flag. Subsequently the Congress was banned.
- Though there was lack of leadership, tens of thousands of people protested; workers and factory employees remained absent en masse. There were strikes and demostrations.
- Following violence more than 100,000 people were sent to prison; heavy fines were levied. In some places the police shot many protesters dead; hundreds of Indians lost their lives and many important leaders who escaped arrest went underground. It was unruly and chaotic. All the while, the World War II was raging.
- Due to persistent persecution and suppression by the British, the Quit India Movement failed.
- The British government indicated that Indians could expect freedom only after India's participation in the War.
- The British took enormous beating in the WW II. Hitler and other Axis forces were defeated due to the strength and resolve of Americans and Russians. The Russians defeated the Nazi army, taking advantage of the harsh winter condition. As for Americans, the nuclear bombing of Hiroshima and Nagasaki ended the WWII in favour of the allied forces. (Germany, Japan and Italy were the Axis powers)
- Britain not only lost its prestige as a strong military power but also its financial stability. This was good for India.
- With the nation against the British and their long years of misrule and racial discrimination, and the public protest against governance increasing daily, the British decided it was time to leave!
- Since the Quit India movement, the Indian leaders had continued their struggle against the British. At last, after many events and incidents (including the RIN revolts and the INA trials at Red Fort), after long deliberations and discussion, they left India leaving behind a divided India.
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