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युगांतकारी, यथास्थितिवादी एवं क्रांतिकारी
1.0 प्रस्तावना
चौरी-चौरा हिंसा के बाद असहयोग आंदोलन को वापस लेने से राष्ट्रवादी नेताओं के बीच निराशा फैलने लगी। गाँधीजी अकेले ही सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए आंदोलन को निर्देषित करने के प्रति दृढ़ थे। किंतु दूसरे नेता इसे लेकर संशय में थे। गाँधीजी की गिरफ्तारी के बाद इस बात का भय था कि आंदोलन निष्क्रिय हो जायेगा। इससे बचने के लिए किस मार्ग को अपनाया जाये इसे लेकर बड़े नेताओं के मध्य गम्भीर मतभेद थे।
2.0 युगांतकारी एवं यथास्थितिवादी
सरदार वल्लभ भाई पटेल, डा. अंसारी, बाबू राजेन्द्र प्रसाद आदि सूत कातना, हिन्दू मुस्लिम एकता, अस्पृष्यता निवारण, मद्य निषेध और गाँवों में आधारभूत रचनात्मक कार्य करने पर जोर दे रहे थे। उनके अनुसार धीरे-धीरे इन कार्यां के कारण देश नये सामूहिक संघर्ष के लिए तैयार होगा। इस समूह को यथास्थितिवादी कहा गया।
दूसरी ओर देशबंधु चित्तरंजन दास और मोतीलाल नेहरू बदली हुइंर् परिस्थितियों को लेकर नई राजनीतिक गतिविधियों की वकालत कर रहे थे। 1919 के भारत सरकार अधिनियम ने देश में एक नई प्रशासनिक व्यवस्था का सूत्रपात किया था। इसमें एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह था कि अब विधायिका ज्यादा प्रतिनिधित्वपूर्ण हो गयी थी। यह समूह युगांतकारी कहलाता था जिसका मत था कि राष्ट्रवादियों ने विधान-परिषदों का बहिष्कार समाप्त कर उनमें प्रवेश करना चाहिए और सरकारी योजनाओं तथा कमजोरियों का पर्दाफाश करते हुए विधान-परिषदों को राजनीतिक संघर्ष का केन्द्र बनाना चाहिए और इस प्रकार इनका उपयोग जनभावनाओं को उत्तेजित करने के लिए करना चाहिए। यथास्थितिवादियों ने इसका विरोध किया। उन्होंने चेतावनी दी कि विधायी राजनीति, जनसमूह के बीच के कार्य की अवेहलना करेगी ओर राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करेगी।
2.1 स्वराज पार्टी (स्वराज्य पार्टी)दिसंबर 1922 में, दास और मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस-खिलाफत स्वराज्य पार्टी की स्थापना की, जिसके अध्यक्ष दास और सचिव मोतीलाल नेहरू थे। नई पार्टी को कांग्रेस के भीतर ही एक समूह के रूप में कार्य करना था। केवल इस तथ्य को छोड़कर की यह विधान-परिषद के चुनाव में भाग लेगी, इसने कांग्रेस के सभी कार्यक्रम स्वीकार किये।
स्वराज पार्टी और यथास्थितिवादी एक भयंकर राजनीतिक विवाद में उलझ गये। यहाँ तक कि गाँधीजी भी, जिन्हें 5 फरवरी 1924 को स्वास्थ्यगत आधार पर जेल से छोड़ दिया गया था, इन दोनों को एक करने में असफल रहे। किंतु दोनों ही समूह 1907 के सूरत विभाजन के विनाशकारी अनुभव को टालने के लिए प्रतिबद्ध थे। गाँधीजी की सलाह पर दोनों ही समूह कांग्रेस में रहने को तैयार हो गये, यद्यपि दोनों की कार्यप्रणाली भिन्न थीं। अंत में एक समझौता हुआ जिसके अनुसार युगांतकारी समूह को इस शर्त पर कि वे कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करेंगे, विधान परिषद में प्रवेश की अनुमति दी गई।
2.2 1923 के चुनाव
इस तथ्य के बावजूद कि चुनाव की तैयारियों का बहुत कम समय मिला, तब भी नवंबर 1923 के चुनाव में स्वराज पार्टी ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। उन्होंने केन्द्रीय परिषद की 101 में से 42 सीटों पर जीत हासिल की। निर्दलीय सदस्यों एम.ए. जिन्ना और मदन मोहन मालवीय की सहायता से और पटल पर किये गये सामूहिक प्रयासों से, उन्होनें केन्द्रीय विधान परिषद और कुछ प्रांतीय परिषदों में कई बार संकट खड़े किये। उन्होनें अपने सशक्त भाषणों के माध्यम से स्वशासन, नागरिक अधिकारों और औद्योगिकीरण के प्रश्नों पर आंदोलन खड़ा किया। मार्च 1925 में वे विठ्ठलभाई पटेल जैसे सशक्त राष्ट्रवादी नेता को केन्द्रीय विधान परिषद में सभापति बनाने में सफल हुए।
स्वराज पार्टी ने मुख्यः 3 बिन्दुओं पर ध्यान दियाः
- स्वराज की ओर ले जाने वाले सवैधानिक सुधारों पर ध्यान देना,
- नागरिक अधिकार, राजनीतिक बंदियों की मुक्ति और अनुक्रमिक कानूनों को निरस्त करना, और
- देशज उद्योगों का विकास।
स्वराज पार्टी ने एक ऐसे समय राजनीतिक शून्य को भरने में सफलता हासिल की जब राष्ट्रीय आंदोलन अपनी खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त करने की कोशिश कर रहा था। उन्होनें 1919 के सुधार अधिनियम के खोखलेपन को भी उजागर किया। किंतु वे भारत सरकार की अधिनायकवादी नीतियों को बदलने में असफल हो गये और इसलिए मार्च 1926 और जनवरी 1930 में उन्हें यह ज़रूरी लगा कि केन्द्रीय परिषद का बहिष्कार कर दिया जाये।
इस बीच यथास्थितिवादी अपने रचनात्मक कार्यां में लगे रहे। इसका प्रतीक थे देश में भर में फैले वे सैकड़ों आश्रम जहाँ युवा पुरूष एवं महिलायें चरखा एवं खादी को आगे बढ़ा रहे थे, और दलितों और जनजाति लोगों के बीच कार्य कर रहे थे। इस दौर में सैकड़ों राष्ट्रीय विद्यालय और महाविद्यालय अस्तित्व में आये जहाँ युवाओं को गैर उपनिवेशिक विचारधारा के अनुसार शिक्षा दी जाती थी। आगे चलकर इन्हीं कार्यकर्ताओं को सविनय अवज्ञा आंदोलन की रीढ़ बनना था।
यद्यपि स्वराज पार्टी और यथास्थितिवादियों ने अपने अपने रास्तों पर काम किया फिर भी उनके बीच कोई आधारभूत अंतर नहीं था। दोनों ही सामा्रज्यवाद विरोधी धारा के रूप में गतिशील थे। बाद में जब नये राष्ट्रीय संघर्ष के दिन आये तो वे दोनों ही एकत्रित होने के लिए तैयार थे। इस बीच राष्ट्रवादी आंदोलन और स्वराज पार्टी को एक गहरा झटका लगा जब जून 1925 में देशबंधु चित्तरंजन दास की मृत्यु हो गई।
3.0 साम्प्रदायिकता का उदय
जैसे ही असहयोग आंदोलन शांत हुआ, लोग हताश होने लगे और साम्प्रदायिकता अपना भद्दा चेहरा सामने लाने में सफल हुई। साम्प्रदायिक शक्तियों ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए अपने विचारों का प्रचार प्रसार किया और 1923 के बाद देश कई मर्तबा साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलसा। मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा, जिसकी स्थापना दिसंबर 1917 में हुई थी, पुनः सक्रिय हो गये। इसका परिणाम यह हुआ कि बढ़ती राष्ट्रीय चेतना को एक झटका लगा। यहां तक कि स्वराज पार्टी, जिसके नेता मोतीलाल नेहरू और दास, जो कि कट्टर राष्ट्रवादी थे, वो भी साम्प्रदायिक धु्रवीकरण का शिकार हुई। एक समूह जिसे ’प्रतिक्रियावादी’ कहा जाता था, जिसमें मदन मोहन मालवीय, लाला राजपत राय और एन.सी. केलकर शामिल थे, ने सरकार को इस शर्त पर सहयोग दिया कि तथाकथित हिंदू हितों की रक्षा की जा सके।
मोतीलाल नेहरू पर हिन्दुओं का दमन करने का आरोप लगा, तथा गौ-हत्या का पक्ष लेने और मांस भक्षण के कारण वे हिंदू विरोधी कहलाये। मुस्लिम साम्प्रदायिकता-वादी भी इस क्षेत्र में कम सक्रिय नहीं थे। गांधीजी ने बार-बार कहा, ‘किसी भी दौर में और किसी भी परिस्थिति में हिन्दू मुस्लिम एकता हमारा मुख्य सिद्धांत होना चाहिए। गाँधीजी ने परिस्थितियों को सुधारने की बहुत कोशिश की। सितम्बर 1924 में दिल्ली में मौलाना मोहम्मद अली के घर रहकर उन्होनें 21 दिन का उपवास किया ताकि साम्प्रदायिक दंगों में हुई अमानवीयता का पश्चाताप किया जा सके। किंतु उनके प्रयास ज्यादा कारगर सिद्ध नहीं हुए।
4.0 स्वराज पार्टी की कमजोरियाँ
संसदीय राजनीति की मजबूरियों ने स्वराज पार्टी को आंतरिक रूप से थका दिया था। बाधा उत्पन्न करने की राजनीति की सीमाओं में पहुँचकर आगे की प्रगति तभी की जा सकती थी जब बाहर से जनसमूह का समर्थन हो। स्वराज पार्टी को विभाजित करने की सरकारी नीतियों के फल दिखाई देने लगे। बंगाल में स्वराजवादी जमींदारों के विरूद्ध किसानों के हितों की रक्षा व समर्थन करने में असफल हो गये और इसलिए उन्होनें वहाँ किसानों के हितों की रक्षा करने वालों का समर्थन खो दिया। पार्टी को और ज्यादा विभाजन से बचाने के लिए, संसदीय भष्ट्राचार को रोकने के लिए तथा कमजोर होते नैतिक वातावरण को बचाने के लिए इसके प्रमुख नेताओं ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में अपना विश्वास जताया और 1926 में विधान परिषदों से त्याग पत्र दे दिया।
यद्यपि स्वराजवादीयों ने नवम्बर 1926 में एक बार फिर से चुनाव में भाग लिया था किन्तु वे कोई प्रभावी प्रदर्शन नहीं कर सके।
वास्तव में पूरे देश में स्थितियाँ बदतर होती जा रही थी। एक राजनीतिक निराशा का माहौल था; गाँधीजी निर्वासित जीवन जी रहे थे, स्वराजवादी टूट चुके थे तथा साम्प्रदायिकता फल-फूल रही थी। गाँधीजी ने मई 1927 में लिखा; ‘मेरी एक मात्र आशा प्रार्थना और प्रार्थना के उत्तर में ही निहित है’। किन्तु नेपथ्य में राष्ट्रीय भावना का ज्वार उबल रहा था। जब नवम्बर 1927 में साईमन कमीशन के आने की घोषणा हुई, तो भारत पुनः इस निराशा से बाहर निकला और राजनीतिक संघर्ष के एक नये युग की शुरूआत हुई।
5.0 नई शक्तियों का उदय
वर्ष 1927, राष्ट्रीय पुर्नजागरण और सामाजवाद में नई प्रवृत्तियों के उदय का साक्षी बना। मार्क्सवाद और अन्य समाजवादी विचार तेजी से फैल रहे थे। राजनीतिक रूप से इन शक्तियों को जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में कांग्रेस में जगह मिल रही थी जिसे पार्टी का वाम पक्ष कहा गया। वाम पक्ष ने अपना ध्यान केवल सामा्रज्यवाद के विरूद्ध संघर्ष पर ही केन्द्रित नहीं किया। साथ ही साथ इसने पूँजीपतियों और जमीदारों द्वारा किये जा रहे वर्ग अत्याचारों के प्रश्नों पर भी ध्यान खींचा।
5.1 भारतीय युवा
इस दौर में भारतीय युवा सक्रिय हो रहे थे। सारे देश में युवा परिषदों और छात्र सभाओं का गठन हो रहा था। पहली अखिल बांग्ला छात्र सभा का गठन अगस्त 1928 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में किया गया। इसके पश्चात देश भर में कई छात्र सभाओं की शुरूआत की गई और सैकड़ों की संख्या मे छात्र और युवा सभा गठित की गईं। इससे भी ज्यादा राष्ट्रवादी भारतीय युवा धीरे-धीरे समाजवाद की और मुड़ने लगे और इसे राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक बुराईयों के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण हथियार मानने लगे। उन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता के कार्यक्रम को आगे रख लोकप्रिय बनाया।
5.2 समाजवादी और वामपंथी विचाराधाराएं
समाजवादी और कम्युनिस्ट समूह 1920 के आसपास अस्तित्व में आये। रुसी क्रांति के उदाहरण ने राष्ट्रवादी युवाओं का ध्यान इस तरफ खींचा। इनमें से कई गाँधी के राजनीतिक विचारां एवं कार्यक्रमों से असंतुष्ट थे और इसलिए समाजवादी विचाराधारा की ओर मुड़ गये। एम. एन. रॉय पहले भारतीय थे जो कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के नेतृत्व के लिए चुने गये थे। 1924 में मुजफ्फर अहमद और बी.ए. डांगे को कम्युनिस्ट (साम्यवादी) विचारधारा फैलाने के आरोप में सरकार ने गिरफ्तार किया और कानपुर षड़यंत्र मामले के लोगों के साथ इन पर भी केस चलाया गया। 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी अस्तित्व में आई। साथ ही साथ देश के विभिन्न हिस्सों कई मजदूर और किसान संगठनों की स्थापना भी की गई। इन पार्टियों और समूहों ने मार्क्सवादी और कम्युनिस्ट विचारों का प्रचार प्रसार किया। साथ ही साथ वे राष्ट्रीय कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन से भी जुड़े रहे।
5.3 काश्तकारी कानून का विरोध और औद्योगिक हड़ताल
किसान और श्रमिक एक बार फिर उत्तेजित हो उठे। उत्तर प्रदेश में काश्तकारी कानूनों में संशोधनों के विरोध में किसानों के बीच बड़े स्तर पर आंदोलन हुआ। किसान करों की दर कम करने, जमीनों से बेदखली से सुरक्षा और कर्ज से राहत चाहते थे। गुजरात में किसानों ने भू-राजस्व बढ़ाने के सरकारी प्रयासों का विरोध किया। प्रसिद्ध बारड़ोली सत्याग्रह इसी समय हुआ। 1928 में सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में किसानों ने ‘शून्य कर अभियान’ चलाया और अंत में उनकी जीत भी हुई। अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्र्रेस के नेतृत्व में मजदूर संगठनों का तेजी से विकास हो रहा था। 1928 के दौरान कई हड़तालों का आयोजन किया गया। खड़गपुर के रेलवे कारखाने में दो महीने चलने वाली लम्बी हड़ताल की गई। युवा भारतीय रेलवे कामगार भी हड़ताल पर गये। एक अन्य हड़ताल टाटा आयरन और स्टील वर्क्स जमशेदपुर में आयोजित की गई। सुभाषचन्द्र बोस ने इस हड़ताल के निपटान में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस काल की सबसे महत्वपूर्ण हड़ताल बाम्बे टेक्सटाईल मिल्स में हुई। लगभग 15 हजार कामगार पांच माह लम्बी हड़ताल पर गये। इस हड़ताल का नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी ने किया था। केवल 1928 में ही लगभग 5 लाख कामगारों ने हड़तालों में हिस्सा लिया।
6.0 क्रांतिकारी
नई विचारधारा की बढ़ती हुई गतिविधियों का प्रतिबिम्ब क्रांतिकारी और उग्रवादी आंदोलनों में दिखाई दे रहा था जो समाजवादी विचारधारा से प्रभावित होकर शुरू हुआ था। असहयोग आंदोलन की असफलता के कारण क्रांतिकारी आंदोलन का पुनः उदय हुआ। एक अखिल भारतीय सभा के पश्चात अक्टोबर 1924 में सशस्त्र क्रांति के उद्देश्य से हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन का गठन किया गया। 1925 में सरकार ने बड़ी संख्या में युवा क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर और उन्हें काकोरी षड़यंत्र में उलझा कर इन्हें कुचलने की कोशिश की। 17 लोगों को आजीवन कारावास दिया गया, 4 लोगों को कालापानी की सजा दी गई और रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्लाह खाँ सहित 4 लोगों को फाँसी की सजा दी गई। शीघ्र ही क्रांतिकारी समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में आये और 1928 में चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में अपने संगठन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक दल कर लिया। धीरे-धीरे वे अतिवादी विचारधारा से दूर होने लगे।
6.1 कर्नल सॉन्डर्स की हत्या
उन्होनें धीरे-धीरे व्यक्तिगत साहसिक कारनामों से दूर होना शुरू कर दिया था किंतु 30 अक्टोबर 1928 को साईमन कमीशन के विरुद्ध किये जा रहे प्रदर्शन पर किये गये पाशविक लाठी चार्ज ने परिस्थितियां अचानक बदल दीं। एक महान पंजाबी नेता लाला लाजपतराय लाठी लगने के कारण शहीद हो गये। इसने युवाओं को क्रोध से भर दिया और 17 दिसम्बर 1928 को भगत सिंह, आजाद और राजगुरू ने लाठी चार्ज के लिए जिम्मेदार ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सॉन्डर्स की गोली मारकर हत्या कर दी।
इस संगठन के नेताओं ने यह निर्णय लिया कि उनके बदले हुए राजनीतिक उद्दश्यों को आम जनता को बताना चाहिए तथा जन समूह द्वारा भी क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेना चाहिए। परिणामस्वरूप भगत सिंह और बी. के दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को केन्द्रीय विधान परिषद में बम फेंका। बम से किसी को कोई नुकसान नही हुआ क्योंकि जान-बूझकर इसे हानि-रहित ही तैयार किया गया था। इसका उद्देश्य किसी को मारना नहीं था किंतु लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचना था। भगत सिंह और बी. के. दत्त बम फेंकने के बाद आसानी से भाग सकते थे। किंतु उन्होनें जान-बूझकर गिरफ्तार होना ही उचित समझा क्योंकि वे अदालत का उपयोग क्रांतिकारी विचारों को प्रचारित करने के लिए एक मंच की तरह करना चाहते थे।
6.2 बंगाल शस्त्रगार पर धावा
बंगाल में भी क्रांतिकारी गतिविधियाँ पुनर्जीवित हो उठी थीं। अप्रैल 1930 में चिटगांव में सूर्य सेन के नेतृत्व में सरकारी शस्त्रागार पर एक सुनियोजित धावा बोला गया। यह अलोकप्रिय सरकारी अधिकारियों पर किये गये कई हमलों में से पहला था। बंगाल के इस क्रांतिकारी आंदोलन का एक मुख्य पक्ष यह था कि इसमें महिलाओं ने भी भाग लिया था। चिटगांव क्रांतिकारियों ने बहुत बड़ी हद तक सफलता हासिल की। उनकी गतिविधियां व्यक्तिगत न होकर सामूहिक थीं जिनका उद्देश्य उपनिवेशिक राज्य के घटकों को चोट पहुँचाना था।
इन क्रांतिकारी उग्रवादियों के विरुद्ध सरकार सख्त हो गई थी। इनमें से कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर श्रृंखलाबद्ध रूप से उनके विरुद्ध केस चलाये गये। भगत सिंह और कुछ अन्य लोगों के विरुद्ध भी सॉन्डर्स की हत्या का मुकद्मा चला। युवा क्रांतिकारियों के कोर्ट में दिये गये बयानों और उनके भय रहित आक्रमक व्यवहार ने लोगों का दिल जीत लिया। उनका केस कांग्रेसी नेताओें ने लड़ा जो सामान्यतः अहिंसा में विश्वास करते थे।
6.3 भगत सिंह
भगत सिंह युवा क्रांतिकारियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय एवं प्रेरणादायी व्यक्तित्व थे। उनके द्वारा जेल की भयानक परिस्थितियों के विरुद्ध की गई भूख हड़ताल बहुत प्रेरणादायी है। एक राजनीतिक कैदी के रूप में उन्होंने जेल में एक सम्मान-जनक व्यवहार की मांग की। इस भूख हड़ताल के दौरान एक युवा क्रांतिकारी जतिन दास 63 दिवसीय महा उपवास के बाद शहादत को प्राप्त हुये। भगत सिंह सुखदेव, और राजगुरू को लोकप्रिय अभिमत के विरुद्ध 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गई। फांसी के कुछ दिन पूर्व जेल अधीक्षक को लिखे पत्र में तीनों ने कहा कि; ‘शीघ्र ही अंतिम युद्ध प्रारंभ होगा और इसका फैसला भी निर्णायक होगा। हमने संघर्ष में भाग लिया और हमें ऐसा करने पर गर्व है’।
23 वर्षीय भगत सिंह ने अपने दो अंतिम पत्रों में समाजवाद में अपनी आस्था प्रकट की। उन्होनें लिखा; ‘किसानों को न केवल विदेशी सत्ता से स्वंय को मुक्त करना है किन्तु साथ ही उन्हें जमींदारों और पूँजीपतियों के चंगुल से छुड़ाना हैं’। 3 मार्च 1931 को भेजे गये अपने अंतिम संदेश में उन्होनें घोषणा की कि ‘भारत में संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक की मुट्ठी भर शोषक अपने लाभ के लिये आम जनता के श्रम का शाषण करते रहेगें। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की ये शोषक शुद्ध रूप से अंग्रेज पूंजीपति है या अंग्रेजों और भारतीयों का कोई गठबंधन है या शुद्ध भारतीय हैं।‘ भगत सिंह ने समाजवाद को वैज्ञानिक तरीके से प्रभावित किया- उनके लिये इसका अर्थ था पूंजीवाद और वर्गवाद को पूर्णतः समाप्त करना। उन्होंनें यह स्पष्ट कर दिया था कि 1930 के बहुत पहले ही उन्होंने और उनके साथियों ने उग्रवाद का रास्ता छोड़ दिया था। 2 फरवरी 1931 को लिखे गये उनके अंतिम राजनीतिक विरासत में उन्होंने घोषित कियाः
‘ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि मैनें एक आंतकवादी के रूप में कार्य किया। किन्तु मैं एक आतंकवादी नहीं हूँ..... मैं अपनी पूर्ण शक्ति के साथ यह घोषित करता हूँ कि मैं ना तो आतंकवादी हूँ और ना कभी था। और मेरा विश्वास भी है कि हम इन पद्धतियों से कुछ हासिल नहीं कर सकते’।
भगत सिंह पूर्ण धर्म-निरपेक्ष थे। वह अक्सर अपने साथियों से कहते थे कि साम्प्रदायिकता भी उपनिवेशवाद के समान एक बड़ा दुश्मन है। 1926 में उन्होंने पंजाब नवजवान भारत सभा की स्थापना में सहायता कि और इसके प्रथम सचिव बने। इस सभा के दो नियम भगत सिंह द्वारा ही बनाये गये ये थे, ‘किसी भी साम्प्रदायिक दल के साथ कोई सबंध नहीं रखना’ और ‘लोगों के बीच सहिष्णुता की भावना का विकास करते हुए धर्म को पूर्णतः निजी आस्था का मामला मानना’।
6.4 एक नई राजनीतिक सच्चाई
शीघ्र ही क्रांतिकारियाँ गतिविधियाँ कमजोर पड़ गइंर्, यद्यपि छुटपुट गतिविधियाँ कुछ सालों तक जारी रहीं। चन्द्रशेखर आजाद एक पुलिस मुठभेड़ में एक सार्वजनिक पार्क में (जिसका नाम बाद में आजाद पार्क रख दिया गया) फरवरी 1931 में इलाहाबाद में शहीद हुये। सूर्य सेन फरवरी 1933 में गिरफ्तार हुए और शीघ्र ही फाँसी पर लटका दिये गये। सैकड़ों दूसरे क्रांतिकारी भी गिरफ्तार कर विभिन्न सजाओं के साथ जेल भेजे गये, व कुछ लोगों को अण्डमान की सेल्युलर जेल भी भेजा गया।
इस प्रकार 1930 आते तक नई राजनीतिक परिस्थितियाँ तैयार हो गई थीं। इन वर्षों के बारे में लिखते हुए, तब के वायसराय लार्ड इर्वीन ने लिखा है, ‘तब कुछ ऐसी नई शक्तियां सक्रिय थीं जिनके बारे में जिनका भारत का ज्ञान 20 या 30 साल पुराना था, वे भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे‘। सरकार इन नई प्रवृत्तियों को कुचलने के लिए प्रतिबद्ध थी। जैसा कि हमने देखा क्रांतिकारी भयानक रूप से कुचल दिये गये। बढ़ते हुए ट्रेड यूनियन आंदोलन और कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया गया। मार्च 1929 में 31 प्रमुख ट्रेड यूनियन और कम्युनिस्ट नेताओं को, जिनमें 3 अंग्रेज भी शामिल थे, गिरफ्तार किया गया और 4 साल लम्बे चले मेरठ षड़यंत्र मुकद्मे के बाद लम्बी अवधि के लिये जेल भेज दिया गया।
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