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नृत्यो के रूप भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
भारत में नृत्य की संस्कृति का एक लंबा इतिहास रहा है। दूसरी सदी ईसा पूर्व से लेकर 21 वीं सदी ईस्वी तक की नृत्य से संबंधित काफी सामग्री उपलब्ध है। उदाहरणार्थ, जहां मोहनजोदड़ो में प्राप्त अवशेषों से एक ‘नर्तिका‘ की कांस्य मूर्ती प्राप्त हुई है, वहीं हरप्पा से एक ऐसा धड़ प्राप्त हुआ है जो नृत्य मुद्रा में है।
2.0 विकासक्रम
भारत में नृत्य की उत्क्रांति और इसके इतिहास को तीन कालखंडों में विभाजित किया जा सकता है-शास्त्रीय, मध्ययुगीन और आधुनिक।
2.1 शास्त्रीय काल
नृत्य पर वर्तमान में भी उपलब्ध प्रथम नियमावली है भरत मुनि की नाट्यशास्त्र (लगभग दूसरी सदी ईसा पूर्व)। यह नृत्य के बारे में एक स्पष्ट और विस्तृत वर्णन प्रदान करती है। ऐसा कहा जाता है कि प्रारंभिक काल के नाटकों को दर्शकों के लिए और अधिक आकर्षक बनाने के लिए इनमें अप्सराओं (स्वर्ग की नर्तकियों) से नृत्य करवाया जाता था। नाट्यशास्त्र में कहा गया है की, नृत्य की प्रथम प्रस्तुति देख कर शिव की इच्छा हुई कि नृत्य और नृत्य के पद लालित्यों को नाट्य का एक भाग बनाया जाये। अतः ऋषि तंदु से विनती की गई कि वे एक नृत्य की रचना करें और उसका निर्देशन करें। तंदु ने भरत मुनि को नृत्य के पद विन्यास सिखाये - करी (पंजों और पैरों की मुद्राएं), मंडल (वृत्तीय मुद्राएं), करण (हस्त मुद्राएं) और अंगहार (नृत्य मुद्राएं), जिन्होंने इन्हें नाटक में भाग लेने वाले नर्तकों और अन्य कलाकारों के प्रशिक्षण में शामिल किया। नृत्य को तांडव कहा गया, जो शारीरिक मुद्राओं की एक श्रृंखला थी, और जो भारतीय नृत्य की मूल भाषा बनाती है। महिलाओं द्वारा किये गए समानांतर नृत्य को लास्य कहा जाता है।
नाट्यशास्त्र के पश्चात, नृत्य पर उपलब्ध एक अन्य महत्वपूर्ण रचना है नंदिकेश्वर की अभिनय दर्पण (दूसरी सदी ईस्वी)। इन दो नियमावलियों में नृत्य के सिद्धांत मिलते हैं। भारतीय नृत्य का एक व्याकरण है। प्रत्येक नृत्य शैली विभिन्न स्तरों पर मुद्राओं की एक रचना है। जैसे, नृत्य की न्यूनतम इकाइयां हैं (1) स्थान, खडी मुद्रा; (2) करी, पंजों और पैरों के पद विन्यास; (3) नृत्यहस्त, नृत्य की मुद्रा में हाथों की स्थिति। ये सभी मिलकर करण बनाते हैं। कुल 108 करण होते हैं; इन्हें हम चिदंबरम के नटराज मंदिर के शिल्पों में देख सकते हैं। कोई भी दो करण मिलकर एक मात्रिका बनाते हैं; दो, तीन या चार मात्रिका मिलकर एक अंगहार बनाती हैं, जो मुद्राओं का एक संगठित अनुक्रम है। और अंत में, अंगहारों का एक सुव्यवस्थित अनुक्रम संपूर्ण नृत्य बनाता है।
नृत्य या तो मार्गी होता है या देशी, ये दो श्रेणियां हैं जो सभी कलाओं पर लागू होती हैं। मार्गी मानक, औपचारिक परंपरा है, जबकि देशी लोक, परिवर्तनशील परंपरा है। जैसा कि हमने देखा है, नृत्य का एक अन्य वर्गीकरण तांडव या लास्य चरित्र का होता है।
एक अर्थ में, तांडव तीव्र भंगिमाओं, क्रियाओं और भावनाओं का प्रतीक है, फिर चाहे वह नृत्य पुरुषों द्वारा किया गया हो या महिलाओं द्वारा। दूसरी ओर, लास्य लावण्य, नज़ाकत, और कोमल भावनाओं का प्रतीक होता है। इसका संबंध आमतौर पर महिलाओं से जोड़ा जाता है, क्योंकि शिव की सहचरी पार्वती ने यह ऋषि बाण की पुत्री उषा को सिखाया था, जिसने बाद में यह कला भारतीय महिलाओं को सौंप दी थी। हालांकि, चूंकि लास्य की मूल भावना प्रेम है, अतः यह पुरुषों द्वारा भी तब किया जाता है, जब उनके नृत्य में इस भावना की अभिव्यक्ति आवश्यक होती है। उदाहरणार्थ, कृष्ण का गोपियों संग नृत्य लास्य शैली में है।
शास्त्रीय नृत्य के तीन प्रमुख अंग होते हैं - नाट्य, नृत्य, और नृत्त, जो अन्य तत्वों के साथ मिलकर शास्त्रीय नृत्य बनाते हैं। नाट्य नाटक के समान होता है; यह मंच प्रदर्शन का नाटकीय तत्व होता है। भरत ने नाट्य की व्याख्या निम्न रूप में की है, ‘इस विश्व के देवताओं, राक्षसों, राजाओं और गृहस्वामियों के कारनामों का अनुकरण।’ नृत्य के दौरान भावनाओं, या रस और भाव के साथ शरीर की लयबद्ध हलचल होती है। नृत्त का अर्थ है लयबद्ध हलचल और पद लालित्य। इस आधार पर, नृत्य की तकनीक को दो स्पष्ट भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है, नृत्त और नृत्य।
रस और भाव की अभिव्यक्ति अभिनय या नाटकीय अभिव्यक्ति - अंगिका (शरीर के हाव-भाव), वासिका (शाब्दिक), आहार्य (पोशाक और श्रृंगार) और सत्त्विका (मानसिक और भावनात्मक स्थिति की स्वैच्छिक शारीरिक अभिव्यक्तियाँ) द्वारा की जाती है, जो नाट्य को शासित करते हैं। नाट्य के वासिकाभिनय का स्थान नृत्य के दौरान चलने वाले संगीत ने ले लिया है। जोड़ संगीत आवश्यक रूप से कविता या गीत या कथा के रूप में होता है, जो संगीतबद्ध और लयबद्ध किया जाता है, जो भाव को मजबूत बनाता है। नर्तक इन भावनाओं को सत्त्विका (मानसिक और भावनात्मक स्थिति की स्वैच्छिक शारीरिक अभिव्यक्तियाँ) के माध्यम से दर्शाता है, जैसे लकवा मारने का अभिनय, पसीने से लथपथ होना, बाल खडे़ कर लेना, स्वर परिवर्तन, रंग परिवर्तन, थरथराना, मूर्छित होने का अभिनय करना, रुदन का अभिनय, और रास की अनुभूति प्रदान करने में मदद करना।
भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ मंदिरों के परिसरों में एक निश्चित उद्देश्य के साथ पाली-पोसी गयीं। मंदिर नृत्य, कला को लोगों तक पहुँचाने और आम जनता को संदेश देने की भावना से रंगे होते थे। मंदिरों की रस्मों के अनुसार देवताओं को संतुष्ट करने के लिए अप्सराओं की अलंकृत, खुदी हुई मूर्तियों के बजाय जीती-जागती महिलाओं की आवश्यकता होती थी। देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उपयोग किया जाने वाला नृत्य का लाक्षणिक दृष्टिकोण धीरे-धीरे मध्ययुगीन काल के मंदिरों में गहरे धार्मिक अर्थ के साथ एक नियमित सेवा में परिवर्तित हो गया था।
शायद यही देवदासियों की उत्पत्ति का कारण था, जिन्हें भारतीय शास्त्रीय नृत्य के सर्वप्रथम कलाकारों के रूप में माना जाता है। उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वे भक्ति भाव से नृत्य की साधना करें और उसमें अधिकाधिक निपुण बनें। वे मंदिर परिसरों में ही रहती थीं और वहीं नृत्य किया करती थीं, और उनके इस व्यवसाय को काफी धार्मिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी।
2.2 मध्य काल
मध्ययुगीन काल में हालांकि नाट्यशास्त्र जीवित था, फिर भी इसमें काफी विचलन और कई आशोधन हो चुके थे। शारंगदेव, जिन्होंने अपनी संगीतरत्नाकर में पद्धति (शैली) और चेष्टाओं की संकल्पना की शुरुआत की, उन्होंने चालों की दो मूल श्रेणियों की बात कीः शुद्ध (पूर्णतः शास्त्रीय या अकादमिक शैली) और देशी (क्षेत्रीय रूपांतर)। क्षेत्रीय शैलियों को मिली मान्यता ने विभिन्न क्षेत्रों की व्यक्तिगत, विशिष्ट शास्त्रीय शैलियों के आगे के विकास में काफी योगदान दिया। 13 वीं सदी के बाद से विभिन्न क्षेत्रों की नियमावलियों ने अनेक क्षेत्रीय रूपांतरों को अनुप्रमाणित किया है। इनमें आंध्र प्रदेश के जयसेनापति की नृत्यरत्नावली, वाचणाचार्य की संगीतोपनिषत् सरोधारा, गुजरात की सुधाकलश, असम की हस्तमुक्तावली, मणिपुर की गोविंद संगीत लीला विलास, ओड़ीशा के महेश्वर महापात्र की अभिनव चन्द्रिका, बंगाल के रघुनाथ की संगीत दामोदर, तमिलनाडु के संगीतमकरानन्द की ‘आदि भरतम‘, ‘भारतार्णव’ और ‘नृत्य अध्याय’, केरल की बलराम भरतम् और हस्तलक्षणदीपिका, राजस्थान के कुम्भकरण की नृत्यरत्नकोश, और उत्तर भारत के मोहम्मद शाह की संगीतमल्लिका शामिल हैं।
मध्ययुगीन भारत के मंदिर भी दर्शाते हैं कि शिल्पियों को नृत्य कला का पर्याप्त तकनीकी ज्ञान प्राप्त था। चिदंबरम के नटराज मंदिर के अतिरिक्त तंजावुर (या तंजौर) का बृहदेश्वर मंदिर (11 वीं सदी) करणों को चित्रित करता है, जबकि ओड़िसा के विट्ठल देउल, परमेश्वर और राजरानी (9-11 वीं सदी) मंदिर नाट्यशास्त्र में दिए गए करी और स्थानों (स्थितियों) का वर्णन करते हैं। चंदेल राजाओं (11-13 वीं सदी) के खजुराहो के मंदिर और राजपुताना और सौराष्ट्र से ओडिशा और कश्मीर से तिरुवनंतपुरम (11 वीं से 13 वीं सदी) तक फैले हुए मध्ययुगीन शिल्प विभिन्न नाट्य मुद्राओं और चेष्टाओं को चित्रित करते हैं, जो या तो मूल शैलियां हैं, या कलाकारों द्वारा पालन किये गए मूल पाठों के सटीक उदाहरण हैं।
भारतीय शास्त्रीय नृत्य की भिन्न-भिन्न शैलियों का विभिन्न क्षेत्रों के भिन्न-भिन्न घरानों (पारिवारिक परंपरा या विद्यालय) के रचनात्मक गुरुओं द्वारा अभ्यास किया गया और उन्हें सिद्धहस्त बनाया गया। ये गुरु एक अमूल्य मौखिक परंपरा के खजाने थे। बुनियादी शिक्षा और संस्कृत भाषा के ज्ञान के अभाव के बावजूद उन्होंने अपनी कला के विकास में समय-समय पर बहुमूल्य योगदान दिया। इस काल में, भारतीय शास्त्रीय नृत्य, जो मंदिर परिसरों तक ही सीमित थे, शाही दरबारों में भी संभ्रांत और अभिजात्य वर्ग के समक्ष प्रस्तुत किये जाते थे।
2.3 आधुनिक काल
ब्रिटिश भारत में, शिक्षा व्यवस्था कला और शिल्प को शिक्षा के पाठ्यक्रम विषयों के रूप में मान्यता नहीं देती थी। यहां तक कि मंदिर नृत्य भी प्रतिबंधित थे। फिर भी, इस कला के इन गुरुओं ने इसका अभ्यास अपने घरानों के एकांतवास में जारी रखा। नृत्य के प्रति लगाव के हाल के पुनः प्रवर्तन ने भारतीय नृत्य शैलियों के विकास और इनकी लोकप्रियता बढ़ाने में काफी सहायता प्रदान की है, जो अब भौगोलिक सीमाओं के पार पहुँच गई हैं। 20 वीं सदी के प्रारंभ में उदय शंकर ने किसी भी भारतीय नृत्य शैली के परे, जिसे आधुनिक नृत्य कहा जा सकता है, उसकी आधारशिला रखी। उनकी नृत्य शैली को प्राच्य नृत्य (ओरिएंटल ड़ांस) कहा जाने लगा। साथ ही साथ, रुक्मणी देवी, मेनका, गोपीनाथ और रागिनी देवी जैसे कला प्रतिपादकों ने नृत्य शैलियों के पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिन्होंने इसे इस प्रकार प्रस्तुत किया कि दर्शकों ने उसे आसानी से स्वीकार कर लिया।
दी सिनेमा में नृत्य की प्रस्तुति ने आधुनिक भारतीय नृत्यों को वैश्विक दर्शकों तक पहुँचाया है। प्रारंभिक भारतीय सिनेमा में नृत्य मुख्य रूप से भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियों और विशेष रूप से ऐतिहासिक उत्तर भारतीय नर्तकियों या लोक नृत्यों पर आधारित होते थे। आधुनिक फिल्में प्रायः भारतीय नृत्य शैली और पश्चिमी नृत्य शैली के मिश्रण का उपयोग करती हैं। यह भारतीय शास्त्रीय नृत्य, भारतीय लोक नृत्य, बेली नृत्य, जैज़, हिप हॉप और यहाँ तक कि लोक शैलियों का अंतर-मिश्रण हो सकता है।
3.0 शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ
भारतीय नृत्य शैलियों की दो व्यापक श्रेणियों हैं - शास्त्रीय और लोक नृत्य। भारतीय शास्त्रीय नृत्यों की वर्तमान शैली को मंच पर विभिन्न अवसरों पर प्रस्तुत किया जाता है। लोकप्रिय संस्कृति में इन शैलियों के रूपांतरित या अर्ध-शास्त्रीय स्वरूपों को बडे पैमाने पर लोकप्रिय फिल्मों और टेलीविजन कार्यक्रमों के माध्यम से अनावृत्त किया गया है। इन नृत्य शैलियों में भरतनाट्यम, कथकली, कत्थक, ओड़िसी, मणिपुरी, मोहिनी अट्टम और कुचीपुडी शामिल हैं।
3.1 भरतनाट्यम
भरतनाट्यम तमिलनाडु की नृत्य शैली है। इसकी उत्पत्ति 1000 ईसा पूर्व की मानी जाती है। इसकी प्रेरणा चिदंबरम के प्राचीन मंदिर की मूर्तियों से मिलती है। प्राचीन काल में, भरतनाट्यम सदिरत्तम (दरबारी नृत्य) के रूप में मंदिर की देवदासियों द्वारा प्रस्तुत किया जाता था। 1930 के दशक में ई. कृष्ण अय्यर और रुक्मिणी देवी अरूंडेल ने इसका भरतनाट्यम के रूप में पुनर्नामकरण किया।
भरतनाट्यम को मराठा राजा सर्फोजी द्वितीय (1798-1832) के शासन काल में तंजौर की दरबारी चौकड़ी चिन्नैया, पोन्नैया, शिवनन्दम् और वादिवेलु द्वारा 19 वीं सदी में कूटबद्ध और दस्तावेजबद्ध किया गया था। तंजौर की चौकड़ी द्वारा भरतनाट्यम को इसके विभिन्न विषयों के साथ वर्तमान स्वरुप में पुनः संपादन करने की प्रक्रिया पूर्ण की गई।
अलग-अलग कालों में भरतनाट्यम की पोशाकों में अनेक भिन्नताएं थीं। प्राचीन ग्रंथों और शिल्पों से हम देख सकते हैं कि इस नृत्य शैली की प्रारंभिक पोशाक नर्तकों और नर्तिकाओं के संपूर्ण शरीर को ढंकती नहीं थी। मध्ययुगीन काल में, देवदासियों ने एक विशेष भारी साड़ी का उपयोग शुरू किया, जो नृत्य की चेष्टाओं को गंभीर रूप से बाधित करती थी। आधुनिक पोशाकें गहरी प्रतीकात्मक हैं, क्योंकि उनका उद्देश्य नर्तक या नर्तकी के सूक्ष्म शरीर को भौतिक विश्व में प्रदर्शित करना है। साथ ही विभिन्न नृत्यों के लिए अलग-अलग प्रकार और प्रकृति की पोशाकों की आवश्यकता होती है।
3.3 कथक
कथक का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ। कथक शब्द का उद्गम भी संस्कृत शब्द कथा (कहानी) से हुआ है। कथका का अर्थ है ‘‘कथाकार, या कहानी कहने वाला’’, या जिसका संबंध कथा से है। इस नृत्य प्रकार की उत्पत्ति का स्रोत प्राचीन उत्तर भारत के चारणों या भाटों में में खोज जा सकता है, जिन्हें कथका (कथा कहने वाला) कहा जाता था। आज के इसके स्वरुप में मंदिर नृत्यों और रस्मी नृत्यों के अंश और भक्ति आंदोलन का प्रभाव देखा जा सकता है। 16 वीं सदी के बाद से, इसमें मुगल काल के शाही दरबारों द्वारा आयातित कुछ फारसी नृत्य विशेषताओं और मध्य आशियाई नृत्य विशेषताओं का समावेश हुआ।
कत्थक के तीन मुख्य घराने (स्कूल) हैं, जिनसे आज के कत्थक प्रस्तोता अपनी वंशावली प्राप्त करते हैंः बनारस घराना(जिसका जन्म क्रमशः कछवाहा राजपूत राजाओं, अवध और वाराणसी के नवाबों के दरबार में हुआ), जयपुर घराना और लखनऊ घराना। एक कुछ हद तक कम प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण रायगढ़ घराना भी है, जिसने उपरोक्त तीनों घरानों की विधाओं को सम्मिश्रित किया, किंतु अपनी विशिष्ट रचनाओं के कारण प्रसिद्धी प्राप्त की।
भजनों, गजलों और ठुमरी पर प्रस्तुत किये जाने वाले पारम्परिक नृत्य टुकड़ों के अलावा कत्थक में एक विशिष्ट अभिव्यक्ति टुकड़ों की प्रस्तुति शैली होती है, जिसे भाव बताना (भावनाओं या मनोदशा का प्रकटीकरण) कहा जाता है। यह वह पद्धति है, जिसमें अभिनय अधिक प्रभावी होता है, और इसकी शुरुआत मुगल दरबारों से हुई। प्रस्तोता की दर्शकों से निकटता के कारण यह नृत्य प्रकार महफिलों और दरबारी वातावरण के अधिक अनुकूल होता है। दर्शक नर्तक की चेहरे की भंगिमाओं और अभिव्यक्तियों को अधिक आसानी से देख सकते हैं। शम्भू महाराज एक ही पंक्ति को घंटों तक विभिन्न प्रकारों से प्रकट करने में सिद्धहस्त माने जाते थे, किंतु समूचे महाराज परिवार को उनके अभिनय की सहजता और नवीनता के कारण अधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुईं।
चूंकि यह नृत्य प्रकार महिलाओं और पुरुषों, दोनों के द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है, अतः इसमें दोनों के लिए अलग-अलग पोशाकें होती हैं। महिला नर्तकियों के लिए दो प्रकार की पोशाकें होती हैं, पारंपरिक हिंदू पोशाकें, और मुगल पोशाकें। महिलाओं की पारंपरिक हिंदू पोशाख में कभी-कभी साड़ी का समावेश होता है, जो या तो नियमित पद्धति से पहनी हुई हो सकती हैं, या नृत्य के दौरान अधिक स्वतंत्र चेष्टाओं के लिए खास पद्धति से शरीर के साथ दृढता से चिपकी हुई हो सकती हैं। हालांकि, आमतौर पर इस नृत्य प्रकार की पोशाक में लहंगा चोली का संयोजन अधिक प्रयुक्त किया जाता है, जिसमें ओढ़नी को भी वैकल्पिक रूप में प्रयुक्त किया जाता है। महिलाओं की पारंपरिक मुगल पोशाक में, ऊपरी शरीर पर एक अंगरखे का उपयोग किया जाता है। इसकी डिजाईन चूडीदार-कमीज के समान ही होती है, किंतु कभी-कभी यह कमर के ऊपर कसकर लिपटी होती है, और इसके घाघरे का भाग गोलाई में कटा हुआ होता है, ताकि चक्रण के समय निचले भाग की दमक में वृद्धि हो सके। पुरुषों की पारंपरिक पोशाक में छाती खुली होती है, और निचले अंग में एक धोती होती है, जो आमतौर पर बांग्ला पद्धति से बंधी होती है, अर्थात इसमें कई प्लेटें होती हैं, जिनके एक सिरे को पंखे का स्वरुप दिया होता है। पुरुषों के लिए बंद का विकल्प भी है। पुरुषाओं की पारंपरिक मुगल पोशाक में कुर्ता-चूड़ीदार का समावेश है।
कुचीपुड़ी वह नृत्य प्रकार है, जिसका नाम आंध्र प्रदेश के कृष्णा के एक गांव के नाम पर पडा है। वेदांतम लक्ष्मी नारायणा, चिंतु कृष्णमूर्ति और तदेपल्लि पेरैया जैसे गुरुओं ने इस नृत्य प्रकार के क्षितिज को विस्तारित किया है।
कुचीपुड़ी नृत्य, नृत्य का एक गैर कथा और अमूर्त नृत्य प्रकार है। आमतौर पर नृत्त के रूप में जातिस्वरम की प्रस्तुति दी जाती है। अगली कथा प्रस्तुति को शब्दम कहा जाता है। दशावतार (विष्णु के दस अवतार) एक प्रसिद्ध पारंपरिक शब्दम है। शब्दम की प्रस्तुति के बाद कलपम नामक नाट्य प्रस्तुति प्रस्तुत की जाती है। प्रस्तुति के अगले क्रम में नृत्याभिनय आता है, जो पदम, जावली और श्लोकम जैसी साहित्यिक व संगीतमय प्रस्तुति होती है। इस प्रकार की प्रस्तुति में गाये गए प्रत्येक शब्द को नृत्य के माध्यम से स्थान में चित्रित किया जाता है, अर्थात, दृश्य कविता।
3.5 मणिपुरी
मणिपुरी नृत्य प्रकार उत्तरी भारत के सुंदर राज्य मणिपुर से उपजी महत्वपूर्ण और प्रमुख नृत्य शैलियों में से एक है। मणिपुरी नृत्य का उद्गम प्राचीन काल में खोजा जा सकता है। इसका संबंध रिवाजों और पारंपरिक त्योहारों से है। संसार की निर्मिति करने वाले शिव और पार्वती के नृत्यों के संदर्भ प्राचीन लोक कथाओं और किंवदंतियों में मिलते हैं। प्रारंभ में यह नृत्य मैबा और मैबी (पुजारियों और पुजारिनों) द्वारा प्रस्तुत किया जाता था, जो विश्व के निर्माण के विषय का चित्रण करते थे। 15 वीं सदी में वैष्णव धर्म के आगमन के बाद, राधा और कृष्ण के जीवन पर आधारित नए प्रकरणों की रचनाओं की शुरुआत हुई। राजा भाग्यचन्द्र के शासन के दौरान लोकप्रिय रासलीला नृत्यों की उत्पत्ति हुई।
रास पोशाक में एक समृद्ध रूप से कढ़ाई किया हुआ कड़क घाघरा शामिल होता है, जो पैरों तक फैला हुआ होता है, और उसके ऊपर एक अत्यंत महीन मलमल का घाघरा पहना जाता है। महिला नर्तकियों की विशिष्ट पोशाक को पटलोई कहा जाता है। लहंगे को कुमिन कहा जाता है, जिस पर सुंदर डिजाईन का आईना काम और जरी काम किया हुआ होता है। महिलाएं एक शंकु के आकार की तंग फिटिंग की टोपी भी धारण करती हैं, जिसके किनारे पर एक झीने पर्दे के नीचे कृत्रिम मोती-जड़ी झालर लगी होती है। एक गहरे रंग की मखमली चोली पहनी जाती है, जो शरीर के ऊपरी भाग को ढंकती है, और पारंपरिक ढंग से बने हुए बालों के ऊपर एक विशेष सफेद पर्दा धारण किया जाता है, जो सुंदरता से चेहरे पर गिरता है। कृष्ण का चरित्र करनेवाला नर्तक पीली धोती और मोर पंखों से बना हुआ मुकुट धारण करता है। सभी आभूषण अत्यंत नाजुक होते हैं, जिनकी डिजाईन उस क्षेत्र के अनुकूल होती है। सामूहिक गीत-संगीत का कीर्तन प्रकार नृत्य की संगत करता है, जिसे मणिपुर में संकीर्तन कहा जाता है। संपूर्ण समाज शिशु जन्म, उपनयनम, विवाह और श्राद्ध को संकीर्तन प्रस्तुतियों के साथ मनाता है। पुरुष नर्तक नृत्य के समय पुंग और करताल का वादन करते हैं। थांग-ता एक सामरिक नृत्य है, जिसकी उत्पत्ति उस काल से संबंधित है जिस समय मनुष्य का अस्तित्व वन्य पशुओं से सुरक्षा के उसके सामर्थ्य पर निर्भर हुआ करता था।
3.6 ओड़िसी
शिल्पकला के विभिन्न उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार ओड़िसी नृत्य प्रकार ओड़िशा राज्य से आया हुआ सबसे प्राचीन नृत्य प्रकार है।
इस नृत्य प्रकार के दूसरी सदी ईसा पूर्व के पुरातात्विक प्रमाण भुवनेश्वर की उदयगिरि और खंडगिरी की गुफाओं में मिलते हैं। पत्थर में स्तंभित नृत्य चेष्टाएँ आज भी ओडिसी नर्तकों को प्रेरित करती हैं। सदियों तक महारिसा या देवदासियां (मंदिर नर्तकियां) ही इस नृत्य के मुख्य खजाने थे। बाद में, गोतीपुआ नामक लडकों के एक वर्ग को इस कला में प्रशिक्षित किया गया। वे मंदिरों में और सामान्य मनोरंजन के लिए भी भी नृत्य प्रस्तुतियाँ देते थे। इस शैली के अनेक गुरु गोतीपुआ परंपरा के हैं।
ओडिसी नृत्य प्रकार की अधिकांश विषयवस्तु जयदेव की 12 वीं सदी की गीतगोविन्द से ली गई है। ऐसा माना जाता है कि रचनाकारों ने प्रत्येक गीत के ताल और राग गीत गोविन्द के मॉडल पर आधारित किये हुए हैं। ओडिसी नाट्यशास्त्र और अभिनय दर्पण द्वारा स्थापित किये गए सिद्धांतों का गहराई से पालन करता है। चेहरे की अभिव्यक्तियाँ, हाथों के हाव-भाव और शारिरिक चेष्टाएँ किसी विशेष भावना, भावावेश या नव रसों में से किसी एक रस को प्रदर्शित करने के लिए उपयोग की जाती हैं।
चेष्टाओं की तकनीकें चौक (एक वर्गाकार आकार की मुद्रा- एक बहुत ही मर्दाना मुद्रा, जिसमें शरीर का पूरा भार समान रूप से संतुलित होता है) की दो मुख्य मुद्राओं और त्रिभंगा (एक अत्यंत स्त्रियोचित मुद्रा, जिसमें शरीर गर्दन, धड़ और घुटनों में मुडा हुआ होता है) के इर्द-गिर्द बनी होती हैं। एक पैर पर चक्रण करने और छलांगों के लिए अनेक प्रकार की चलें होती हैं, और कुछ मुद्राएं मूर्तियों से भी प्रेरित होती हैं।
प्रस्तुति की शुरुआत मंगलाचरण (वंदन) से होती है, जिसमें नर्तकी धीरे-धीरे हाथ में फूल लिए हुए मंच की ओर आती है, और धरती माता को पुष्प समर्पित करती है। इसके पश्चात नर्तकी की पसंद की देवता का आह्वान किया जाता है। आमतौर पर शुभ आरंभ के लिए भगवान गणेश का आह्वान किया जाता है। प्रस्तुति का अंत ईश्वर, गुरु और दर्शकों के अभिवादन के लिए प्रस्तुत नृत्त अनुक्रम द्वारा किया जाता है।
एक ओड़िसी नर्तकी विस्तृत उड़िया आभूषणों से श्रृंगारित होती है। नृत्यांगना एक चोकर (एक बडा हार), बाजूबंद, कंगन, कमरबंद, पायल, घुँघरू, कानों में कुंडल और एक सिंथी (बालों और माथे पर पहना जाने वाला एक गहना) धारण करती है। वह एक विस्तृत जूड़ा धारण करती है, जो तहिया (मुकुट का भाग) से श्रृंगारित होता है, और एक मंदिर के शिखर का प्रतिनिधित्व करता है। हाथ के पंजों और पांव की एडियों को लाल रंग के आलता से रंगा जाता है। सिर के आभूषण को मथामी कहते हैं। नर्तकी कानों को ढंकने वाले आभूषण, चूड़ियां, बाजूबंद और एक बड़ा कमरबंद भी धारण करती है। उसकी एडियों पर एक ही धागे से बंधे घुँघरू बंधे होते हैं, और उसकी छाती पर एक पदक-तिलक (एक पदक जड़ित हार) लटकता है।
3.7 सत्त्रिया
सत्त्रिया नृत्य प्रकार, जिसे हाल ही में प्रमुख भारतीय शास्त्रीय नृत्य परंपराओं में शामिल किया गया है, असम में वैष्णव धर्म के संस्थापक महान संत श्रीमंत शंकरदेव द्वारा 15 वीं सदी की इसकी रचना के समय से ही एक जीवंत परंपरा बना हुआ है। इस नृत्य प्रकार की उत्पत्ति मठों में हुई, और बाद में यह महानगरीय मंचों पर आया। शंकरदेव द्वारा इस नृत्य प्रकार की शुरुआत विभिन ग्रंथों से लिए गए तत्वों और लोक नृत्यों को मिश्रित करके और उन्हें अपना एक विशिष्ट दुर्लभ दृष्टिकोण प्रदान करके की गई। पारंपरिक रूप से यह नृत्य प्रकार केवल भोको (पुरुष मठ वासी) द्वारा मठों में उनकी दैनंदिन प्रथाओं के एक भाग के रूप में, या किसी विशेष उत्सव को मनाने के लिए प्रस्तुत किया जाता था। आधुनिक काल में, सत्त्रिया महिलाओं और पुरुषों द्वारा मंचों पर प्रस्तुत किया जाता है। यह मुद्राओं, पद चेष्टाओं, अहार्याओं (पोशाकों) और संगीत इत्यादि के विषय में सख्ती से निहित सिद्धांतों के अनुसार ही प्रस्तुत किया जाता है। इसकी प्रस्तुति बोरगीत (संगीतीय रचनाओं) के साथ की जाती है, जो शास्त्रीय रागों पर आधारित होते हैं। पारंपरिक प्रस्तुति के लिए जो वाद्य सम्मिलित किये जाते हैं, वे हैं, खोल (ड्रम), ताल (झांझ) और बांसुरी। आधुनिक समय में इनमें वॉयलिन और हारमोनियम का भी समावेश किया जाता है। इसकी पोशाक विशिष्ट असमिया होती है, क्योंकि जिस रेशम की पोशाक उपयोग की जाती है, वह असम में ही उत्पादित होती है, और जिसमें सूक्ष्म डिज़ाईन बनी होती है।
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