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भारत में प्रादर्शित कलाएं भाग - 2
4.0 भारत में नृत्य
ऋग्वेद में नृति और नृतु का जिक्र हुआ है और चमकीले सूर्योदय (उषा) की तुलना नृतु से की गई है। ब्राहम्ण, जैमिनीय और कौषीतकी जैसे गं्रथों में नृत्य और संगीत का उल्लेख साथ-साथ हुआ है। महाकाव्यों में भी धरती और स्वर्ग दोनों ही जगहों पर नृत्यों का संदर्भ आया है। संगीत के समान ही भारतीय नृत्यों की भी एक सुविकसित और समृद्ध परम्परा रही है। किसी कहानी को कहते समय भावों की आवश्यक अभिव्यक्ति के लिए नृत्य एक सशक्त माध्यम है।
4.1 प्राचीन भारत में नृत्य
भारत में नृत्य कला का इतिहास हड़प्पा संस्कृति तक जाता है। खुदाई में प्राप्त कांसे की प्रतिमा, जिसमें एक लड़की नृत्य करती हुई प्रतीत होती है, यह दर्शाता है कि हड़प्पा काल में नृत्य कलाओं का प्रदर्शन होता था।
भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में नृत्य का मुख्य उद्देश्य धार्मिक विचारों की प्रतिकात्मक अभिव्यक्ति था। नटराज के रूप में भगवान शिव की प्रतिमा निर्माण एवं विनाश के वैश्विक चक्र को प्रस्तुत करती है। नटराज के रूप में शिव की प्रतिकृति की लोकप्रियता भारत में नृत्य की लोकप्रियता को दर्शाता है। दक्षिण भारत में तो एक भी मंदिर ऐसा नहीं है जहां विभिन्न नृत्य रूपों को दर्शाती मूर्तियां ना हां। वास्तव में, कथकली, भरतनाट्यम, कथ्थक, मणिपुरी, कुच्चीपुड़ी और ओड़िसी जैसे शास्त्रीय नृत्य हमारी सांस्कृतिक विरासत के महत्वपूर्ण हिस्से हैं।
यह कहना कठिन है कि नृत्य का उद्गम कब हुआ होगा, किंतु यह स्पष्ट है कि नृत्य का अस्तित्व खुशी और उल्लास को अभिव्यक्त करने के प्रयासों के रूप में हुआ होगा। धीरे-धीरे नृत्य शास्त्रीय और लोक जैसी शैलियों में विभाजित होने लगे। नृत्य के शास्त्रीय स्वरूप से मंदिरों और राजदरबारों में प्रस्तुतियां दी जाती थीं। मंदिरों में नृत्य का उद्देश्य धार्मिक हुआ करता था जबकि राजदरबारों में इसका उपयोग केवल मनोरंजन के लिए किया जाता था। दोनों ही रूपों में कलाकार के लिए यह ईश्वर की प्रार्थना के समान ही होता था। दक्षिण भारत में भरतनाट्यम और मोहिनीअट्टम का विकास मंदिरों में एक विशिष्ट प्रथा के रूप में हुआ। यक्षगान, जो कि केरल के कथकली का ही एक रूप है, में रामायण और महाभारत की कहानियों का मंचन होता है, जबकि कथक और मणिपुरी कृष्ण और उनकी लीलाओं से संबंधित कहानियों की अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध है। ओडिसी का मंचन भगवान जगन्नाथ के प्रति समर्पण के लिए होता है। हालांकि कृष्ण लीला और भगवान शिव से संबंधित कहानियाँ कथक की विषय वस्तु हुआ करती थी, किंतु यह नृत्य मध्यकाल में राजदरबारों में अस्तित्व में आया। ठुमरी और गज़ल में निहित रूमानी हाव-भाव भी राजसी स्वभाव की अभिव्यक्ति देते हैं। मणिपुरी नृत्य का मंचन भी धार्मिक उद्देश्य से होता था। लोकनृत्यों का विकास आमलोगों के जीवन से हुआ और इसलिए सामान्यतः इनका मंचन एक साथ ही किया जाता था। असम में फसल आने की मौसम में लोग बीहू नृत्य में झूमते हैं। उसी तरह गुजरात में गरबा, पंजाब में भांगड़ा और गिद्दा, मिजोरम में बांस-नृत्य, महाराष्ट्र में मछुआरों द्वारा किया जाने वाला नृत्य कोली, कश्मीर में धुमाल और बंगाल का चाउ नृत्य उन लोककलाओं के अद्वितीय उदाहरण हैं जो सामूहिक खुशी और दुखों को अभिव्यक्त करते हैं।
जहां तक इस कला के विश्लेषणात्मक अध्ययन की बात है, भरत मुनि का नाट्य शास्त्र इसके लिए एक प्राथमिक स्त्रोत है जो कि मूल रूप से नाटक कला के बारे में है। भरतमुनि ने नृत्य और इसके विभिन्न अंगों के बारे में विस्तार से लिखा है। मुख-मण्डल की भावाभिव्यक्ति, शरीर के अंगों का संचालन, हस्त मुद्रा और कदम ताल आदि को मुख्यतः तीन वृहद श्रेणियों में विभाजित किया गया है, जो इस प्रकार हैं-नृत (पद संचालन), नृत्य (अंग संचालन), और नाट्य (अभिनय)। महिला और पुरूष दोनों ही नृत्य में भाग लेते थे किंतु सामान्यतः महिला नृतिकाओं को समाज में निम्न स्थान प्राप्त था। हालांकि महान संगीत विचारकों और विभिन्न धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों के प्रयासों के फलस्वरूप लोग महिला कलाकारों का भी सम्मान करने लगे हैं।
4.2 मध्यकाल
मध्यकाल में नृत्य के कथक रूप को मुसलमान शासकों द्वारा प्रोत्साहित किया गया। औरंगज़ेब को छोड़कर सभी मुगल शासकों के राज दरबारों में इसका मंचन होता था। दक्षिण भारत में मंदिरों और राजदरबारों में नृत्यों का मंचन होता था। राम, कृष्ण, गणेश, दुर्गा आदि सभी देवताओं की पौराणिक कहानियों का मंचन नृत्य रूपों में होता था। उत्तर भारत के भी कुछ शासक जैसे वाजिद अली शाह, संगीत और नृत्य के महान संरक्षक थे और इन्हीं के द्वारा लखनऊ घराने की स्थापना हुई। पं. बिरजू महाराज जैसे प्रसिद्ध नृतक इसी घराने की देन हैं। मध्यकाल में दक्षिण भारत नृत्य के प्राचीन संस्कृत ग्रंथों से जुड़े हुए नियमों को लेकर कठोर रूप से प्रतिबद्ध रहा। और इसलिए दक्षिण भारत नृत्य कला के विकास की एक पाठशाला के रूप में उभरा।
4.3 आधुनिक काल
आधुनिक काल के अधिकांश नृत्य दक्षिण भारतीय शास्त्रीय परम्परा से प्राप्त हुए हैं। इनमें कुचीपुड़ी, भरतनाट्यम, कथककली प्रमुख हैं। पूर्व में शास्त्रीय नृत्यों के साथ लोक नृत्यों का भी विकास हुआ। अधिकांश क्षेत्रों में स्थानीय नृत्य बहुत प्रसिद्ध हो गये। मणिपुरी नृत्य, संथाल नृत्य, रविन्द्रनाथ नृत्य, नाटक, चाउ, रस, गिद्दा, भांगड़ा, गरबा उन कुछ लोक नृत्यों के उदाहरण हैं जो भारत में फले-फूले। ये लोक नृत्य भी समान रूप से लोकप्रिय हैं तथा इसमें नवाचार की सम्भावनायें भी हैं। हमारे देश के प्रत्येक क्षेत्र की अपनी लोक नृत्य परम्परा है, उदाहरण के लिए असम का बीहू नृत्य, लद्दाख का मुखोटा नृत्य, मेघालय का वांग्ला, सिक्किम का भुटिया या लेप्चा। इसी प्रकार युद्ध से जुड़े हुए कुछ नृत्य जैसे उत्तरांचल का छौलिया, केरल का कराली पैट्टु, मणिपुर का थांग-टा आदि कुछ प्रसिद्ध नाम हैं।
वर्तमान में देश में कला के तीनों रूप फल-फूल रहे हैं। संगीत संस्थान कई नये लोगों को अवसर उपलब्ध करा रहे हैं। विद्यालयों और विश्व विद्यालयों में संगीत के विभाग हैं। इंदिरा कला विश्वविद्यालय खैरागढ़ संगीत का विश्वविद्यालय है। गंधर्व महाविद्यालय, कथक केंद्र और अन्य कई संस्थान अपने-अपने तरीके से संगीत का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। संगीत सभाएं, बैठकें, व्याख्यान आदि भी संगीत को देश के कोने-कोने में फैला रहे हैं। स्पिक-मैके, अंतर्राष्ट्रीय भारतीय ग्रामीण सांस्कृतिक केंद्र जैसी संस्थाओं ने नई पीढ़ी के कलाकारों को सामने लाने के लिए बहुत कठिन प्रयास किये हैं।
पं. रविशंकर, उस्ताद अली अकबर खान, अल्ला रक्खा आदि संगीतकारों के द्वारा प्रारंभ किये गये विभिन्न संस्थानों और विदेशी संस्थानों की बदौलत भी संगीत कला फली-फूली है। ये संस्थान विदेशियों के लिए संगीत शिक्षण के प्रसिद्ध संस्थान हैं। कई विदेशी विश्वविद्यालय भी इस क्षेत्र में छात्रों को डिग्री डिप्लोमा प्रदान करते हैं। संसार के प्रत्येक कोने में भारतीय कलाकारों को विभिन्न त्योहारों और अवसरों पर अपनी कला के प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया जाता है।
पिछले कुछ दशकों में नृत्य और इसके मंचन की स्थिति में भारी बदलाव आया है। अब युवा लोग अपने व्यक्तिगत गुणों के विकास के लिए भी नृत्य सीखते हैं। विभिन्न विद्यालयों और महाविद्यालयों, और विश्वविद्यालयों में नृत्य के पृथक विभाग प्रारंभ किये गये हैं। कुछ जाने माने शास्त्रीय नृतकों को पद्मश्री और पद्म भूषणों से भी नवाजा जा चुका है।
सिंधु घाटी सभ्यता के उस बिंदू से जहां नृत्य करती हुई लड़की की प्रतिमा प्राप्त होती है, से वर्तमान दौर के विभिन्न काल खंड़ों तक, भारत के लोगों ने अपनी खुशी और गम को गाकर और नृत्य कर कला रूपों में प्रस्तुत करने की कोशिश की है। इन कला रूपों का उपयोग उनके प्यार, नफरत, इच्छाओं और उनके अस्तित्व के लिए किये गये संघर्ष को अभिव्यक्त करने के लिए किया गया जिसके फलस्वरूप अंततः संस्कृति का विकास हुआ।
5.0 नाटक
5.1 प्राचीन परम्परा
आधुनिक शोध और देशज परम्परायें दोनों ही भारतीय नाटकों का उद्गम वेदों से होना बताते हैं। रामायण में महिलाओं द्वारा नाटक के मंचन के बारे में ज्ञात होता है जबकि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में संगीतकारों, नृतकों और नाटकों का उल्लेख मिलता है।
प्रारंभ से ही देवी-देवताओं और राक्षसों के बीच हुए युद्धों की पौराणिक गाथाएं ज्ञात हैं। भरतमुनि ने नाट्य शास्त्र की रचना की और असुर पराजय तथा अमृत मंथन जैसे नाटक भी रचे।
अगला महान दौर भाषा का युग था जिसने उदयन, रामायण, महाभारत, स्वप्न-वासवदत्ता की कहानियों पर आधारित नाटक लिखे। दूसरी शताब्दी ई.पू. में रचे गये महाभाष्य में नाटक के कुछ पक्ष जैसे कि कलाकार, संगीत, मंच, रस आदि का उल्लेख मिलता है। नाटक का उल्लेख करते हुए भरत ने पुरूष कलाकारों का उल्लेख नहीं किया है बल्कि नटी (महिला कलाकार), संगीत, संवाद, मंच आदि का ही उल्लेख किया है। इस प्रकार नाट्य कला ने भरतमुनि के दौर में एक उच्च स्तर प्राप्त किया था। भरत के अनुसार नाटक संम्प्रेषण का सबसे उचित माध्यम था। उन्होनें नाटकों के मंचन के लिए एक निश्चित क्षेत्र की अवधारणा का भी विकास किया। ‘शैलुश‘ नामक एक जाति का उल्लेख मिलता है जो कि व्यावसायिक नाट्य कलाकार हुआ करते थे। वीरतापूर्ण कहानियों को गीतों के माध्यम से गाने की परम्परा भी प्रसिद्ध हो गई जिसके परिणामस्वरूप व्यवसायिक गायकों की एक श्रेणी कुशीलव भी अस्तित्व में आई।
बुद्ध और महावीर के दौर में नाटक उनके सिद्धांतों और धर्मों के सम्प्रेषण का माध्यम बन गया। लघु नाटकों और बड़े नाटकों का मंचन लोगों को शिक्षित करने के लिए किया जाता था। संगीत और नृत्य ने भी नाटकों के प्रभाव को बढ़ाने में जीवंत भूमिका निभाई।
प्राचीन काल से दसवीं शताब्दीं तक पढ़े-लिखे वर्ग की भाषा संस्कृत हुआ करती थी। इसलिए अधिकांश नाटक इसी भाषा में हुआ करते थे। हालांकि निम्न जातियों के पात्र और महिलाओं से प्राकृत भाषा का इस्तेमाल करवाया जाता था। कौटिल्य का अर्थशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र, कालिदास का अभिज्ञान शाकुन्तलम आदि संस्कृत में ही रचे गये और उस दौर के प्रसिद्ध नाटक थे। भाष प्रसिद्ध नाटककार थे जिन्होनें 13 नाटक लिखे। 10वीं शताब्दी तक प्राकृत में लिखे गये नाटक भी प्रसिद्ध होने लगे थे। विद्यापति जो कि 14वीं शताब्दी के नाटककार थे, इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। उन्होनें हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में गीत लिखे। उमापति मिश्रा और शारदा तान्या भी नाटकों के मंचन में प्रसिद्ध नाम थे।
5.2 नाटकों के दो प्रकार
नाटकों के संदर्भ में दो धाराओं का विकास हुआ-शास्त्रीय नाटक जिसमें विषय वस्तु के उतार-चढ़ाव और नाट्य प्रवृत्तियों के सूक्ष्म रूप होते थे तथा दूसरा लोक मंच। लोकमंच या लोक नाटक स्वभावतः स्वतः स्फूर्त हुआ करता था। लोक नाटकों में क्षेत्रीय बोलियों का उपयोग किया जाता था और इसलिए विभिन्न प्रांतों में कई प्रकार के लोकनाट्यों का विकास हुआ। संगीत और नृत्य के साथ नाटकों का मंचन एक लोकप्रिय परम्परा थी। विभिन्न प्रांतों में लोक नृत्यों को अलग-अलग नाम दिये गये जैसे :
- बंगाल - जत्रा, कीर्तन्या नाटक
- बिहार - बिदेशिया
- राजस्थान - रास, झूमर, ढ़ोला-मारू
- उत्तरप्रदेश - रास, नौटंकी, स्वांग, भाण्ड़
- गुजरात - भवाई
- महाराष्ट्र - लरीटे, तमाशा
- तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक - कथकली, यक्षगान
मध्यकाल संगीत और नृत्य की दृष्टि से समृद्ध था किंतु इस दौर में मंच (नाटक) को कोई महत्व नहीं मिला। वाज़िद अली शाह, जो कला के बड़े संरक्षक थे, ने नाटको को भी संरक्षण दिया। उन्होनें कलाकारों को नाटकों में भाग लेने के प्रोत्साहित किया। दक्षिण भारत में क्षेत्रीय बोलियों के साथ लोक नाट्य ही ज्यादा प्रसिद्ध था।
5.4 नाटकों पर ब्रिटिश प्रभाव
अंग्रेजों के भारत आगमन ने समाज के चरित्र को बदल दिया। 18वीं शताब्दी में एक अंग्रेज द्वारा कलकत्ता में एक थियेटर की स्थापना की गई। होराशिम लेबेदेव नामक एक रूसी ने बंगाली थियेटर की स्थापना की जो कि भारत में आधुनिक थियेटर का प्रारंभिक बिंदु माना जाता है। अंग्रेजी नाटकों, विशेषकर शेक्सपियर के द्वारा रचे गये नाटकों ने भारतीय नाटक को प्रभावित किया। पढ़े-लिखे भारतीयों द्वारा विकसित किये गये मंचों का स्वरूप परम्परागत खुले मंच से भिन्न था। अब मंच में पर्दा भी हुआ करता था और दृश्यों में परिवर्तन भी दिखाई देता था। एक पारसी कम्पनी ने बॉम्बे में व्यवसायिक थियेटर की स्थापना की। नाटकां में अब मानवीय जीवन के दुख, सुख और शहरी जीवन की जटिलताएं प्रदर्शित होने लगीं। अब नाटक विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में लिखे जाने लगे। इसके साथ ही लोक नाटक जैसे कि जत्रा, नौटंकी और नाच भी फलने-फूलने लगे। दूसरा पक्ष जिसने इस कला पक्ष को प्रभावित किया वह यह था कि अब शास्त्रीय रूपों में लोककला को समाहित किया जाने लगा। हर क्षेत्र के कला साधकों ने अपने-अपने क्षेत्र को जनता की सेवा का माध्यम बनाया इसलिए उन्होनें आम जनता तक अपनी पहुंच बनाने के लिए इस लोकप्रिय लोककला माध्यम को चुना। यही घटना नाट्य लेखन के क्षेत्र में हुई। विद्या सुन्दर, जो कि मध्यकाल का एक लोकप्रिय नाटक है, जत्रा से प्रभावित है। गीत-गोविंद जिसकी रचना महाकवि जयदेव ने की, में भी कृष्ण की कहानियों को कीर्तनीया नाटक और जत्रा शैली में रचा गया।
5.5 समकालीन थियेटर
वर्तमान में नाट्य मंचन के क्षेत्र में कई प्रयोग आकार ले रहे हैं। शम्भू मित्रा, फैज़ल अलकाज़ी, बादल सरकार, विजय तेन्दुलकर आदि के नाटकों में पश्चिमी प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
नाटक और नृत्य की विषय वस्तु के परीक्षण के लिए हमें रचनात्मक साहित्य का भी अध्ययन करना चाहिए। सबसे बड़ी साहित्यक घटना जिसने न केवल नृत्य और नाटक बल्कि चित्रकला को भी प्रभावित किया वह थी, 13वीं शताब्दी में रची गई जयदेव की गीत-गोविंद। पूर्व में मणिपुर और असम से लगाकर पश्चिम में गुजरात तक और उत्तर में मथुरा और वृदांवन से लगाकर दक्षिण में तमिलनाडु और केरल तक, नृत्य और नाटक के सभी क्षेत्रों में इसके प्रभाव को महसूस किया जा सकता है। गीत-गोविंद पर पूरे देश में अनगिनत टीकायें उपलब्ध हैं। गीत-गोविंद से संबंधित कई सारे हस्तलिखित दस्तावेज उपलब्ध हैं जो यह बताते हैं कि क्षेत्रीय नाट्य परम्परा को इससे साहित्यिक मदद उपलब्ध होती रही। इस दौर में विस्तार लेने वाले वैष्णव धर्म ने भी नृत्य, नाटक और संगीत के विकास में ऊर्जामयी भूमिका निभाई।
6.0 प्रदर्शन कलाओं का वर्तमान परिदृश्य
वर्तमान दौर में, कलाओं के तीनों ही रूप, नाटक, संगीत और नृत्य पूरे देश में फल-फूल रहे हैं। गंधर्व महाविद्यालय और प्रयाग संगीत समिति जैसे संस्थान शास्त्रीय संगीत और नृत्य के क्षेत्र में पिछले 50 वर्षों से शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। पूरे देश के अनगिनत विद्यालयों, महाविद्यालयों, और विश्व विद्यालयों ने इन कलाओं की शिक्षा को अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया है। खैरागढ़ में स्थित इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय संगीत का एक उत्कृष्ट विश्वविद्यालय है। कथक केंद्र, राष्ट्रीय नाट्य संस्थान, और भारतीय कला केंद्र जैसे कई संस्थान अपने-अपने तरीकों से इन कलाओं के विकास में योगदान दे रहे हैं। संगीत नाट्क अकाद्मी भारतीय संगीत नृत्य और नाटक को लोकप्रिय बनाने में और इसका संरक्षण करने के लिए सतत् रूप से क्रियाशील है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भारतीय संगीतकारों ने उल्लेखनीय कार्य किया है। स्व. पं. रविशंकर, उस्ताद अली अकबर खान और उस्ताद अल्लाह रक्खा खान विदेशों में अलग-अलग संस्थानों में संगीत का अध्यापन करते रहे हैं। कई विदेशी विश्वविद्यालयों में भारतीय प्रदर्शन कलाओं के अध्ययन-अध्ययपन हेतु अलग से विभागों की स्थापना की गई है और वे इस क्षेत्र में विभिन्न पाठ्यक्रमों का संचालन करते हैं। सारे संसार में भारतीय कलाकारों को विभिन्न अवसरों और त्यौहारों पर अपनी कला के प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया जाता है। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आई.सी.सी.आर.) और मानव संसाधन विकास मंत्रालय जैसे विभिन्न विभाग इन कलाओं को अनुदान देकर प्रचार-प्रसार में सहयोग करते हैं। भारतीय संगीत नृत्य और नाटक के क्षेत्र में जाने माने कलाकारों के साथ-साथ युवा कलाकारों को भी छात्रवृत्तियां और अध्येतावृत्तियां प्रदान की जाती है तथा विदेशी कलाकारों से आदान-प्रदान भी किया जाता है।
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