सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
नृत्यो के रूप भाग - 2
4.0 भारत के लोक नृत्य
लोक नृत्य लगभग सभी अवसरों पर प्रस्तुत किये जाते हैं, फिर चाहे वह किसी मौसम का आगमन हो, शिशु का जन्म हो, विवाह प्रसंग हो या कोई त्यौहार हो। लोक नृत्य बहुत ही सामान्य होते हैं, जिनमें पद लालित्य और चेष्टाएँ न्यूनतम होती हैं। भारतीय लोक नृत्य ऊर्जा और जीवन शक्ति से ओत-प्रोत होते हैं। कुछ लोक नृत्य महिलाओं और पुरुषों द्वारा अलग-अलग प्रस्तुत किये जाते हैं, जबकि कुछ अन्य लोक नृत्यों में महिलाएं और पुरुष साथ-साथ नृत्य करते हैं। अधिकांश अवसरों पर, नर्तक साथ के वाद्यवृन्द के साथ स्वयं ही गाते भी हैं। लोक नृत्य के प्रत्येक प्रकार की अपनी विशिष्ट पोशाकें और लय होती हैं। लोक नृत्यों के दौरान पहनी जाने वाली अधिकांश पोशाकें चटक रंगों की और व्यापक अलंकारों और डिजाइनों से सुसज्जित होती हैं।
5.0 प्रमुख लोक नृत्य
भांगड़ाः भांगड़ा लोक नृत्य का एक ओजस्वी प्रकार है, जिसकी उत्पत्ति पंजाब में हुई। पारंपरिक रूप से लोग बैसाखी के पर्व पर फसल की खुशी मनाने के लिए भांगडा नृत्य करते हैं।
भांगड़ा नृत्य के दौरान लोग पंजाबी बोलियाँ गीत गाते हैं, और ढ़ोल लिए हुए एक व्यक्ति पगड़ी और लुंगियां पहने नर्तकों के बीचोंबीच जोर-जोर से ढ़ोल बजाता है।
हालांकि भांगडा नृत्य की शुरुआत अच्छी फसल की खुशी मनाने के रूप में हुई थी, किंतु अंततः यह ऐसे विविध अवसरों का भाग बन गया जैसे विवाह प्रसंग, और नववर्ष का उत्सव इत्यादि। पिछले तीस वर्षों में भांगड़ा नृत्य को नृत्य के पारंपरिक प्रकार के रूप में और एक मिश्रण के रूप में भी अपार वैश्विक बढावा मिला है।
पंजाब की महिलाओं द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले लोक नृत्य को गिद्दा कहा जाता है। यह एक बहुत ही सुखद नृत्य होता है, जिसमें महिलाएं एक गोल घेरे में तालियां बजाते हुए बोलियाँ गाती हुई नाचती हैं। समूह की दो सदस्य महिलाएं घेरे को छोड कर केवल बोलियाँ गाने के लिए अलग हो जाती हैं, जबकि अन्य महिलाएं घेरे में ही सामूहिक रूप से गाते हुए नृत्य करती हैं। तीन-चार बार अड़ना होता है, और हर बार दूसरी जोडी पहली का स्थान लेती है, और नई बोली के साथ गीत शुरू करती है। इनके अतिरिक्त कई अन्य प्रकार के नृत्य और कलाएं भी होती हैं, जैसे झूमर, लुड्डी, फुल्ली, दानकारा, धमाल, सामी, किकली और गटका।
भोरतलः असम के प्रसिद्ध सत्तरीया कलाकार नरहरि बुढ़ा बबकत द्वारा विकसित भोरतल नृत्य संकरी संस्कृति का विस्तार है।
प्रतीकों के साथ सुसज्जित छह से दस नर्तकों का समूह इस नृत्य को प्रस्तुत करता है, और प्रतीकों को प्रदर्शित करते हुए आकर्षक संरचनाएँ बनाता है।
इस नृत्य की प्रस्तुतियों को राज्य के बारपेटा और गुवाहाटी क्षेत्रों में उत्सवों और त्योहारों के दौरान देखा जा सकता है। इस प्रकार के अवसर और उत्सवों में फसलों की कटाई और बुवाई, विवाह आयोजन और धार्मिक उत्सव और छुट्टियां शामिल हैं।
भवाईः भवाई राजस्थान का प्रसिद्ध लोक नृत्य है, जिसमें उत्कृष्ट प्रस्तुतियाँ शामिल हैं। इस नृत्य प्रकार में घूंघट ओढे़ नर्तकियां शामिल होती हैं, जो सात से नौ पीतल की घागरें सिर पर संतुलित करते हुए दक्षतापूर्वक नृत्य करती हैं, और फिर एक कांच या तलवार की नोक पर अपनी एड़ियों पर लहराते हुए तीव्र गति से घूमते हुए नृत्य करती हैं। इस नृत्य में बढ़ती रहस्यमयता और रोमांचित करने वाले नृत्य समाविष्ट होते हैं।
बीहूः बीहू असम का प्राचीनतम और सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार है। असम में तीन बीहू उत्सव मनाये जाते हैं - बोहाग (बैसाख, अप्रैल के मध्य में) के महीने में, माघ (जनवरी के मध्य में) के महीने में, और काती (कार्तिक, अक्टूबर महीने में) के महीने में।
प्रत्येक बीहू कृषि कलैंडर के एक विशिष्ट समय के साथ जुडा होता है। इनमें से सबसे उत्सवपूर्ण और रंगीन बीहू वसंत के दौरान मनाया जाने वाला ‘बोहाग बीहू‘ या ‘रंगाली बीहू‘ होता है, जो अप्रैल के मध्य में मनाया जाता है, जो कृषि के मौसम की शुरुआत का द्योतक होता है। बीहू असम के सबसे व्यापक रूप से प्रस्तुत किये जाने वाले नृत्य प्रकार का भी नाम है, जिसका आनंद छोटे-बडे, अमीर-गरीब, सभी उठाते हैं।
यह नृत्य बीहू उत्सव का एक भाग है, जो अप्रैल के मध्य में आता है, जब फसल की कटाई पूर्ण हो चुकी होती है, और यह उत्सव लगभग एक महीने तक जारी रहता है। यह असमिया कैलेंडर की शुरुआत का भी प्रतीक माना जाता है। बीहू नृत्य युवा पुरुषों और महिलाओं द्वारा खुले में एक साथ प्रस्तुत किया जाता है, हालांकि वे एक दूसरे के साथ मिलकर नृत्य नहीं करते।
नृत्य में जब नर्तक और नर्तकियां घर-घर जाते हैं, तो नृत्य में पूरा गांव शामिल हो जाता है। नृत्य के इस प्रकार की विशेषता यह है कि इसमें छोटे-छोटे कदम बहुत ही तीव्र गति से पड़ते हैं, हाथ झोंका लेने और झटकने की मुद्रा में घूमते हैं, और कूल्हों के लहराने की मुद्राएं की जाती हैं, जो सभी युवा जोश, उत्साह और जूनून के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं। कभी-कभी कलाकार प्रेम के गीत भी गाते हैं। नृत्य धीमी गति से शुरू होता है, और जैसे-जैसे नृत्य आगे बढ़ता जाता है, नृत्य की गति बढ़ती जाती है।
नृत्य की संगत ‘ढोल’ ‘नगाडे़’ और ‘पेपा’ (भैंस के सींग से निर्मित वाद्य) के चित्ताकर्षक वादन से की जाती है। इस नृत्य की प्रस्तुति के दौरान धोती, गमछा, चादर और मेखला की पारंपरिक पोशाक परिधान करना अनिवार्य है।
अपने अलग-अलग प्रकारों में बीहू नृत्य की प्रस्तुति फसल के विभिन्न चरणों के दौरान और नववर्ष के आगमन पर प्रस्तुत किया जाता है। इसका सबसे सामान्य स्वरुप है एक गोलाकार, या सामानांतर रेखाएं। गीत और नृत्य के माध्यम से बीहू असम के लोगों की सबसे समृद्ध आत्मा का प्रदर्शन करता है।
गरबाः गरबा गुजरात राज्य का एक लोकप्रिय नृत्य प्रकार है, जो गीत, नृत्य और नाट्य की समृद्ध परंपरा का प्रदर्शन करता है। यह एक गोलाकार नृत्य प्रकार है, जिसे महिलाओं द्वारा गरबो नामक पानी से भरे हुए मिट्टी के घडे़ के चारों ओर प्रस्तुत किया जाता है।
इस घडे़ में एक पान का पत्ता और चांदी का सिक्का रखा जाता है, जिसे कुंभ कहा जाता है, जिसके ऊपर एक नारियल रखा जाता है। जब नर्तकियां घडे के चारों ओर नृत्य प्रस्तुत कर रही होती हैं, तब एक गायक या गायिका और एक ढ़ोल बजाने वाला संगीत की संगत प्रदान करते हैं। भाग लेने वाली नर्तकियां लयबद्ध तरीके से तालियां बजाती हैं।
गरबा नृत्य एक गोलाकार नृत्य का प्रकार है, जो गुजरात की महिलाओं द्वारा प्रस्तुत किया जाता है, और यह नृत्य नवरात्री, शरद पूर्णिमा, वसंत पंचमी, होली और अन्य त्योहारों और उत्सवों के अवसर पर किया जाता है। गरबा नृत्य का नाम गर्भदीप नामक एक दीप पर पडा है, जिसका अर्थ है एक मिट्टी के बर्तन में रखा हुआ दीपक।
कुम्मीः कुम्मी तमिलनाडु के गांवों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्राचीन नृत्य प्रकार है। इसकी उत्पत्ति तब हुई थी जब संगीत वाद्यों की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी, और समय मिलाने के लिए नर्तकियां लयबद्ध और समयबद्ध रूप से तालियां बजाती थीं।
यह नृत्य महिलाओं द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। कुम्मी नृत्य के पूणथत्ति कुम्मी, दीपा कुम्मी, कुलवाई कुम्मी, कदीर कुम्मी, मुलैपरी कुम्मी इत्यादि जैसे अनेक प्रकार ज्ञात हैं। महिलाएं एक गोल घेरे में खडी होकर लयबद्ध तरीके से हाथ से तालियां बजाते हुए नृत्य करती हैं। एक महिला किसी लोकप्रिय गीत के माध्यम से गीत का नेतृत्व करती है, जबकि अन्य महिलाएं इससे परहेज करती हैं।
प्रत्येक महिला गीत की नई पंक्ति प्रस्तुत करती है, और इसी क्रम से गीत और नृत्य तब तक चलता रहता है, जब तक वे सभी थक कर चूर नहीं हो जाती हैं। यह नृत्य आमतौर पर मंदिर उत्सवों, पोंगल, फसल कटाई उत्सव, पारिवारिक त्योहारों और समारोहों, जैसे जब कन्या ऋजुता प्राप्त करती है (यौवनावस्था की शुरुआत) आदि अवसरों पर प्रस्तुत किया जाता है।
पोइक्कल कुदीरै अट्टमः पोइक्कल कुदीरै अट्टम तमिलनाडु का नकली घोडे़ के साथ प्रस्तुत किया जाने वाला नृत्य है, जिसमें नर्तक या नर्तकी अपने कूल्हों पर एक नकली घोडे़ को बाँध कर नृत्य करते हैं।
यह घोडा हल्की सामग्री से बना होता है, और उसपर लगा वस्त्र नर्तक के पैरों को ढंकते हुए आगे और पीछे की ओर हिलता है। नर्तक लकडी के पैर धारण करता है, जो घोडे के टापों का आभास निर्माण करते हैं। नृत्य के समय नर्तक एक तलवार या चाबुक भी धारण करते हैं। इस लोक नृत्य को प्रस्तुत करने के लिए काफी प्रशिक्षण और कौशल की आवश्यकता होती है। इस नृत्य की संगत नाइयांदी मेलम या बैंड संगीत के माध्यम से की जाती है। यह नृत्य पौराणिक पद्धति से भगवान अय्यनार से जुडा होता है, और मुख्य रूप से तमिलनाडु के तंजावुर और उसके आसपास के क्षेत्रों में काफी लोकप्रिय है।
देवरत्तमः देवरत्तम एक शुद्ध लोक नृत्य है जिसे तमिलनाडु के मदुरै जिले के कोडांगीपत्ती के वीरपंडिया कट्टबोम्मन राजवंश के वंशजों ने आज तक संजोया हुआ है।
वास्तव में इसकी प्रस्तुति वर्ष में एक बार मंदिर के निकट एक विशेष सीमित समुदाय के लोगों द्वारा ही की जाती है। लोकसाहित्य अनुसंधानकर्ताओं ने खोज की है कि देवरत्तम प्राचीन तमिल राजाओं के प्राचीन ‘‘मुंदरकुरुवै‘‘ और ‘‘पिंथरकुरुवै‘‘ का मिश्रण है।
इसकी प्रस्तुति युद्ध से लौटने वाले विजयी राजाओं और उनकी सेनाओं के रथों पर और रथों के समक्ष की जाती थी। कभी-कभी स्वयं राजा और उनके सरदार रथों पर नृत्य में शामिल हो जाते थे। सैनिक और महिला नर्तकियां रथों के पीछे पंक्तिबद्ध रूप से नृत्य करते हुए चलते थे।
आज इस नृत्य के साथ संगत के लिए कोई गीत नहीं होते, और यह नृत्य उरुमी मेलम, थप्पु मेलम और कभी-कभी एक लंबी बांसुरी की ताल पर प्रस्तुत किये जाते हैं। कलाकारों के दोनों हाथों में रूमाल होते हैं, जिन्हें वे नृत्य करते समय लहराते हैं। नृत्य का नेतृत्व करने वाला कलाकार नकली दाढ़ी और एक मुखौटा लगाये हुए होता है, जिसपर दांतों जैसे दिखने वाली सीपियाँ लगी होती हैं। वह नृत्य का पहला कदम लेता है और बाकी नर्तक उसका अनुसरण करते हैं।
थबल चोंगबाः थबल चोंगबा एक लोकप्रिय मणिपुरी लोक नृत्य है, जो होली के त्यौहार से संबंधित है। थबल का शाब्दिक अर्थ है ‘चंद्र का प्रकाश‘, और चोंगबा का अर्थ है ‘नृत्य‘, अर्थात इसका संपूर्ण अर्थ है ‘चंद्रमा के प्रकाश में प्रस्तुत किया जाने वाला नृत्य।‘
परंपरागत रूप से रूढ़िवादी मणिपुरी पालक उनकी सहमति के बिना अपनी कन्याओं को नौजवान युवकों से मिलने की अनुमति नहीं देते थे। इसलिए, थबल चोंगबा लडकियों को जवान युवकों से मिलने और उनके साथ बात करने का एकमात्र अवसर प्रदान करता था। पुराने समय में यह नृत्य लोक गीतों की संगत के साथ रात्रि में चंद्रमा की रौशनी में प्रस्तुत किया जाता था। इसके साथ इस्तेमाल किया जाने वाला एकमात्र वाद्य था ढोलकर ढोल। यह नृत्य सभी इलाकों में त्यौहार के सभी छहों दिन प्रस्तुत किया जाता था। आग की बजाय एक झोंपडा बनाया जाता है, और उसमें आग लगा दी जाती है। अगले दिन लड़के समूहों में गुलाल लेकर जाते हैं और लडकियों के साथ गुलाल खेलते हैं। और उनसे खेलने के बदले में लडकियां उनसे पैसे लेती हैं।
जात्राः जात्रा भारत के पूर्वी क्षेत्र का एक लोकप्रिय मंच प्रकार है। यह कलाकारों के समूह के साथ एक नाटक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें संगीत, नृत्य, गीत, और नाटकीय द्वंद्व शामिल है। प्राचीन काल में जात्रा के माध्यम से सामान्य जनता में धार्मिक संदेश प्रसारित करने का कार्य किया जाता था।
उडिया और बंगाली जात्रा की उत्पत्ति के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती, और इस विषय पर इतिहासकारों और साहित्यिक समालोचकों में काफी मत भिन्नता है। फिर भी उन्होंने जात्रा के नृत्य की कला और विज्ञान की बाइबिल ‘‘नाट्यशास्त्र‘‘ में उल्लेख की ओर ध्यान आकर्षित किया है। उन्होंने बंगाल, बिहार और ओडिशा में नाट्य प्रस्तुतियों की शुरुआत को जयदेव की ‘गीत गोविंद’ के साथ भी जोडा है।
चैतन्य (समाज सुधारक) और उनके अनुयाइयों ने पुनर्जागरण की दिशा में काफी योगदान दिया है, और वे भारत के विभिन्न भागों में सांस्कृतिक स्तर पर राष्ट्रीय एकात्मता की भावना ऐसे समय निर्माण करने के लिए भी जिम्मेदार थे, जब देश के सभी क्षेत्र राजनीतिक और आर्थिक विनाश से प्रभावित थे।
वे नाट्य निर्माता और निर्देशक थे, और आत्मजागृति से उन्होंने नाट्य के इस स्वरुप का उपयोग धार्मिक-सामाजिक कार्यों के लिए किया। मंचीय प्रस्तुति के प्रथम प्रदर्शन के लिए इतिहास उनका ऋणी है, जिसमें चौतन्य ने स्वयं रुक्मिणी की भूमिका निभाई थी।
शायद यही ‘कृष्ण जात्रा’ की शुरुआत थी। अतः वे निर्विवाद रूप से बंगाल और ओडिशा की समकालीन जात्राओं के पूर्वज हैं। आज, जात्राओं के लिए लिखे जाने वाले नाटकों की शैली में काफी बदलाव हुए हैं। जात्रा नाटक अब पौराणिक, ऐतिहासिक, या विलक्षण विषयों पर आधारित नहीं बचे हैं।
अब उनमें आधुनिक दर्शकों को रुचिकर लगने वाले सामाजिक विषयों का समावेश किया जाने लगा है। जात्रा प्रकार, भारतीय साहित्यों, भाषाओं और रंगमंचीय प्रकारों के मूल वृक्ष की महत्वपूर्ण शाखा है, उसके अस्तित्व ने वे बीज बोये हैं, जिन्होंने आधुनिक बंगाली रंगमंच को एक नई दिशा प्रदान की है।
यक्षगानः यक्षगान कर्नाटक राज्य का एक अद्वितीय नृत्य रंगमंचीय प्रकार है, जिसकी एक मजबूत शास्त्रीय पृष्ठभूमि है।
लगभग पांच शतकों की मजबूत नींव के साथ यक्षगान का एक लोक कला के रूप में केरल के कथकली के समान ही अत्यंत सराहनीय स्थान है। इस नृत्य नाट्य का मुख्य सार है धर्म के साथ इसका जुड़ाव, जो इसके नाटकों की सर्वाधिक सामान्य विषयवस्तु है।
यक्षगान चूंकि आम जनता का रंगमंच है, अतः इसके नाटकों में संस्कृत नाटकों, मंदिरों, गांवों की चौपालों में बजाये जाने वाले पारंपरिक संगीत, ‘रामायण‘ और ‘महाभारत‘ जैसे महाकाव्यों से उठाई गई विषयवस्तुओं के कलात्मक तत्वों का सुसंगत समामेलन दिखाई देता है, जो आमतौर पर धान के खेतों में रात्रि में प्रस्तुत किये जाते हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों के धार्मिक चेहरे की मजबूत परंपराओं के चलते उन क्षेत्रों में इसकी लोकप्रियता काफी अधिक है, साथ ही इसमें भाग लेने वाले कलाकारों के विषय में ग्रामीणों के मन में काफी श्रद्धा और इज्ज़त होती है।
इस प्रकार की नाट्यमय प्रस्तुतियां अपने-आप में शास्त्रीय संगीत, उत्कृष्ट नृत्यकला, और अतिप्राचीन प्रतिलेख से मिलकर भारत की एक सर्वोत्कृष्ट नृत्यनाट्य रचना की निर्मिति करती हैं। यक्षगान की एक और अद्वितीय विशेषता है, बिना किसी पूर्वाभ्यास के दी गई इसकी प्रस्तुति और इसके अलिखित संवाद, जो इसे और भी अधिक विशेष बनाता है।
चेरवः चेरव मिज़ो लोगों का एक अति प्राचीन पारंपरिक नृत्य प्रकार है। ऐसा माना जाता है, कि 13 वीं सदी ईस्वी में चिन पर्वतों में प्रव्रजन और उसके बाद वर्तमान मिजोरम में प्रव्रजन से पूर्व जब पहली सदी ईस्वी में, मिजो चीन के यूनान प्रान्त के किसी क्षेत्र में स्थित थे, तब भी चेरव नृत्य अस्तित्व में था। दक्षिण-पूर्व एशिया में रहने वाली जनजातियों में भी इसी के समान नृत्य प्रकार पाये जाते हैं, चाहे उनकी शैली और उनके नाम इससे भिन्न हो सकते हैं।
पुरुष जमीन पर एक दूसरे के सम्मुख हाथों में बांस की बल्लियां सीधी और आड़ी पकड कर बैठते हैं, और लयबद्ध तरीके से उन्हें खोलते और बंद करते हैं। ‘पुआंचे‘, ‘कवरचे‘, ‘वकीरिया‘ और ‘तिहना‘ जैसे मिजो पारंपरिक रंग-बिरंगी पोशाकें पहनी हुई युवतियां संगीत की ताल पर बांस के चौकोरों के अंदर और बाहर नृत्य करती हैं। अब यह नृत्य लगभग सभी अवसरों, उत्सवों, त्योहारों और मौसमों में प्रस्तुत किया जाता है। चेरव नृत्य जहाँ भी प्रस्तुत किया जाता है, वहां इसकी अद्वितीय शैली लोगों को आकर्षित करती है। इस नृत्य की संगत ढ़ोल और घड़ियाल करते हैं। आज का आधुनिक संगीत भी इस नृत्य प्रकार के साथ काफी अच्छे से इस्तेमाल किया जाने लगा है।
छाउः छाउ नृत्य मनोदशा, स्थिति और अंतर्दशा की अभिव्यक्ति करता है। छाउ नृत्य तीन विभिन्न क्षेत्रों की तीन शैलियाँ विद्यमान हैं - सराईकेला (झारखंड), पुरुलिया (पश्चिम बंगाल) और मयूरभंज (उडीसा)।
सामरिक चेष्टाएँ, मजबूत लयबद्ध संवाद और स्थान का गतिशील प्रयोग छाउ की विशेषतायें हैं। यह नृत्य विशाल पौरुष और जीवन शक्ति की पराकाष्ठा है। चूंकि मुखौटे के साथ लंबे समय तक नृत्य करना संभव नहीं है, अतः यह नृत्य 7 से 10 मिनट से अधिक समय के लिए प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।
सराईकेला छाउ शाही संरक्षण के अंतर्गत फला-फूला। इसकी जोरदार सामरिक प्रकृति इसे पुरुषों के लिए ही उपयुक्त बनाती है। राजा-महाराजा केवल इसके संरक्षक ही नहीं थे, बल्कि वे स्वयं नर्तक, नृत्य गुरु और मुखौटे निर्माण करने वाले विशेषज्ञ शिल्पकार भी थे।
पुरुलिया छाउ में मुखौटे का प्रयोग किया जाता है, जो उस क्षेत्र का काफी विकसित हस्तशिल्प है। जनजातीय बस्ती वाली बंजर भूमि, वैदिक साहित्य, हिंदू धर्म और सामरिक लोक साहित्य के त्रिस्तरीय प्रभाव, इन सभी ने मिलकर पुरुलिया छाउ को आकार प्रदान किया है, जिसका केवल एक संदेश है- ‘‘बुराई पर अच्छाई की विजय।‘‘
मयूरभंज छाउ में अन्य दोनों शैलियों की तुलना में काफी विकसित चेष्टाएँ होती हैं, मुखौटे का प्रयोग नहीं होता, और तराशी हुई शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है।
सराईकेला छाउ की ही तरह यह भी शाही संरक्षण में समृद्ध हुई है, और इसे प्रारंभिक भारतीय नृत्य चेष्टाओं और पाश्चात्य शैली के नृत्य चेष्टाओं के बीच एक कड़ी के रूप में माना जाता है।
अन्य भारतीय शास्त्रीय नृत्य प्रकारों के विपरीत छाउ में कंठसंगीत नहीं ही पाया जाता है। वाद्य संगीत और ढोल, दुम्बा, नगाडा,
ढांसा और चडचडी जैसे विभिन्न प्रकार के ड्रमों का उपयोग संगत के लिए किया जाता है।
हाल के वर्षों में, मयूरभंज छाउ राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों के मंचों पर नृत्यकला के रूप में लोकप्रिय हुआ है, क्योंकि इसकी मुद्राओं और चेष्टाओं की विशाल श्रृंखला इसे पारंपरिक के साथ-साथ आधुनिक नृत्य शैलियों में भी समरस कर देती है।
COMMENTS