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भारत की सांस्कृतिक विरासत सम्पन्नता से परिपूर्ण है। हमारी सभ्यता के प्रारंभ से ही प्रदर्शन कलायें जैसे संगीत, नृत्य और नाटक हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं। प्रारंभिक रूप से यह विभिन्न कला-रूप धार्मिक और सामाजिक सुधारों के प्रचार के माध्यम रहें, जिसमें से संगीत और नृत्य को ज्यादा प्रसिद्धि मिली। वैदिक युग से लगाकर मध्यकाल तक प्रदर्शन कलायें आम जनता को शिक्षित करने का एक अच्छा माध्यम रहीं। वैदों में वैदिक स्तुतियों के गायन के लिए कुछ नियम दर्शाये गये हैं। यहाँ तक कि अलग-अलग स्तुतियों के लिए अलग-अलग प्रकार के उच्चारण चिन्ह और ध्वनि के उतार-चढ़ाव बताये गये हैं। तब शिक्षा या समाज सुधार के लिए इस प्रकार के कार्यगत प्रस्तुतियों की आवश्यकता थी। वर्तमान में ये कलाएं सम्पूर्ण विश्व में लोगों के लिए मनोरंजन का माध्यम बन गई हैं।
भारतीय चित्र कला की विभिन्न श्रेणियां भारत के विविधता पूर्ण संस्कृति को दर्शाती हैं। भारतीय चित्रकला को ‘लघु चित्रकारी‘ श्रेणी में रखा गया है। इस श्रेणी में कपड़े पर या कागज के टुकड़ां पर चित्र बनाकर रंग भरे जाते हैं।
वर्तमान में शैली और पद्धति के अनुसार विश्लेषण करने पर, भारतीय चित्रकला को सात समूहों में बांटा जा सकता हैः
इसे मिथिला चित्र शैली भी कहा जाता है और इसका उद्गम बिहार के एक गांव मधुबनी में माना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस परम्परा की शुरूआत जब हुई तब सीता के पिता राजा जनक ने उनके चित्रकारों को आदेश दिया कि वे भगवान राम और सीता के विवाह के विभिन्न क्षणों के लिए चित्र उकेरें। परम्परागत रूप से इसे मधुबनी की ग्रामीण महिलाओं द्वारा उनकी झोपड़ियों में मिट्टी से बनी दीवारों पर बनाती थी, किंतु बाद में इसे कपड़े, कैनवास और हस्त निर्मित कागज पर भी बनाया जाने लगा।
सीता और राम के विवाह के अतिरिक्त मधुबनी चित्रकला श्रेणी में विभिन्न देवताओं जैसे कृष्ण, दुर्गा लक्ष्मी सरस्वती आदि से जुड़ी विभिन्न कथाओं को भी उकेरा जाता है। मधुबनी चित्रकला श्रेणी के विषय रूपों में विभिन्न प्राकृतिक चीजें जैसे चन्द्रमा, सूर्य और तुलसी के पौधे आदि होते है। इस चित्र शैली में कैनवास में कोई खाली स्थान नहीं छोड़ा जाता है तथा रिक्त स्थानों को विभिन्न प्रकार की ज्यामिति आकृतियों, फूलों, पशुओं पक्षियों के चित्रों आदि से भरा जाता है।
मधुबनी चित्र शैली के 3 प्रकार हैः ब्राहम्ण शैली, टैटू शैली और क्षत्रिय शैली। कैनवास पर चित्र टहनियों, ब्रश, उंगलियों, माचिस की तीलियों और कलम की नीब आदि का उपयोग करते हुए प्राकृतिक रंगों से बनाये जाते हैं। और इनकी मुख्य विशेषता नयनाभिराम ज्यामितिय आकृतियां होती हैं।
2.2 तंजौर चित्रकला
तंजौर चित्रकला का उद्गम 16वीं शताब्दी में तमिलनाडु के थंजावुर से हुआ। यद्यपि यह एक परम्परागत चित्रशैली है तो भी यह इसके समकालीन प्रकटन, केनवास पर चित्रों की प्रचुरता और ज्वलंत रंगों के उपयोग के लिए प्रसिद्ध है। तंजौर चित्रकला इसकी विविधता के लिए जानी जाती है और यही कारण है कि तंजौर चित्रकला के उत्पाद गृह सज्जा के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं। इस शैली के चित्र दक्षिण भारतीय शैली के धार्मिक चित्र होते हैं और यह पूजा कक्ष में आध्यात्मिक भाव जगाते हैं तथा दूसरे कक्षों में भी लालित्य पूर्ण लगते हैं। स्थानीय बोली में इस कला शैली को ‘पालगई पदम‘ कहा जाता है जिसका अर्थ होता है सर्वशक्तिमान का पवित्र प्रेम, सौन्दर्य, सत्य, और आध्यात्मिक समर्पण।
2.3 राजस्थानी चित्रकला
राजस्थानी चित्रकला, जिसे राजपूत चित्रकला भी कहा जाता है, का उद्गम 18वीं शताब्दी में राजस्थान में हुआ। मूल रूप से इस कला का उद्गम फारसी लघु चित्रकारी शैली से है। इस शैली के चित्रों में रामायण और महाभारत की कहानियां, हिन्दू धर्म का समर्पण भाव, भगवान कृष्ण का जीवन और राजस्थानी योद्धाओं की महागाथाएं चित्रित की जाती हैं। ये चित्र लघु रूपों में पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय राजस्थानी कला का एक बड़ा हिस्सा किलों की दीवारों, महलों, राजदरबारों और शेखावटी हवेलियों में देखा जा सकता है। राजस्थानी चित्रकला में प्रयुक्त रंग विभिन्न प्रकार के खनिजों और कभी कभी शंखों आदि से प्राप्त किये जाते हैं। और महंगें रत्नों, सोने तथा चांदी से भी रंगो को प्राप्त करने की एक परम्परा रही है।
2.4 मुगल चित्रकला
मुगल शिल्पकला के साथ मुगल चित्रकला भी भारतीय फारसी और इस्लामिक कलाशैलियों का एक विशिष्ट मिश्रण प्रस्तुत करती हैं। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है इस चित्रकला शैली का उद्गम और विकास मुगल काल के दौरान 16वी से 19वी शताब्दी के बीच हुआ। इन चित्रों की विषय वस्तु युद्ध, राजदरबार के दृश्य शिकार के दृश्य, महानायकों की कहानियाँ, व्यक्तियों के चित्र आदि रहे हैं। भारतीय संग्रहलयों और विभिन्न इमारतों के अतिरिक्त लंदन में स्थित विक्टोरिया और अलबर्ट संग्रहलायों में भी बड़ी मात्रा में भी मुगल शैली के चित्र मुख्य रूप से भारत से इकट्ठे किये गये हैं।
2.5 बंगाल कलाशैली
जिसे सामान्यतः कला की बंगाल शैली कहा जाता है वह न केवल एक सशक्त कलात्मक आंदोलन रहा है वरन् भारतीय चित्रकला की एक विशिष्ट शैली भी, जिसका उद्गम बंगाल में हुआ। प्राथमिक रूप से इसका विकास कोलकाता में हुआ तथा ब्रिटिश राज के दिनों में 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में यह सारे भारत में फैल गया। प्रारंभिक रूप से इसे चित्रकला की भारतीय शैली कहा गया और इसे भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन से जोड़कर भी देखा गया। हालांकि इस कला शैली को ब्रिटिश कला अधिकारियों के द्वारा भी समर्थन दिया गया और प्रोन्नत किया गया। उदाहरण के लिए ई.बी. हैवल, जो कि शासकीय कला महाविद्यालय कोलकाता के प्राचार्य थे, बंगाल कला शैली के सक्रिय समर्थक और प्रशंसक थे। बाद में कला की यह धारा आधुनिक भारतीय चित्रकला के उद्गम का प्रमुख स्त्रोत रही।
2.6 पट्ट चित्र
‘पट्ट‘ =‘वस्त्र‘ = कपड़ा
‘चित्र‘ = चित्रकारी
पट्ट चित्र एक विशेष प्रकार की लोककला है जिसका उद्गम उडी़सा से हुआ। इसमें चित्र कपड़े पर बनाये जाते है अतः इसका नाम ‘पट्ट चित्र‘ पड़ा। पट्ट चित्र कला भगवान जग्गनाथ के प्रति समर्पण को दर्शाती है। आँखों को चकित कर देने वाले मूर्ति शिल्प के अतिरिक्त खण्डागिरी और उदयगिरी की गुफाओं की दीवारों पर बने भित्ती चित्र, कोर्णाक मंदिर और उड़ीसा के दूसरे मंदिरों में बड़ी मात्रा में पट्ट चित्र पाये जाते हैं।
2.7 वर्ली कला
वर्लीकला 400 वर्ष पुरानी भारतीय जनजातीय कला है जिसका उद्गम थाणे जिले के गाँव वर्ली में हुआ। यह एक द्वि-आयामी चित्र होता है जिसमें कोई विशिष्ट कोण या अनुपात नहीं होता है। त्रिकोणीय आकारों के अधिकतम उपयोग के साथ वर्ली चित्र सीधे और सरल प्रतीत होते हैं। सामान्यतः इन चित्रों को विवाहित महिलाओं द्वारा चित्रित किया जाता है और जन्म तथा मृत्यु का चित्रण इस प्रकार की चित्रकला की शैली की अनिवार्य विषय वस्तु होती है।
यह 7 प्रकार की धाराओं में विभाजित चित्रकारी कला शैली है जो एक दूसरे से भिन्न होती है किंतु इन शैलियों के बीच एक सांस्कृतिक घनिष्ठता भी होती है, वह यह कि ये सारे कलात्मक चित्र भारतीय इतिहास और विरासत से प्रभावित होते हैं।
भारतीय चित्रकला शैली और परम्परा की कलात्मकता का विस्तार मानव सभ्यता के प्रारंभ से लगाकर 21वीं शताब्दी के आधुनिक युग तक होता है। प्रारंभिक अवस्था में मूल रूप से यह धार्मिक होने के साथ-साथ भारतीय चित्रकला ने अपने आप को आने वाले वर्षो में विभिन्न प्रकार की परम्पराओं और रीति-रिवाजों का एक मिश्रण बनाया।
3.0 संगीत
3.1 सिंधु घाटी सभ्यता
ईसापूर्व दूसरी व तीसरी सहस्त्राब्दी वाली सिंधु घाटी सभ्यता की संगीत संस्कृति के बारे में बहुत कम ज्ञात हुआ है। इसकी खुदाई में कुछ संगीत के वाद्य यंत्र जैसे कि धनुषाकार दुदुम्भी और कुछ प्रकार के ड्रम टेराकोटा आकृतियों में दिखाई देते है जिन्हें शायद व्यापारियों द्वारा प्रयुक्त किया जाता था। नृत्य करती हुई लड़की की कांसे की प्रसिद्ध मूर्ति, जो शायद मंदिर नृत्यांगनाओं की श्रेणी का प्रतिनिधित्व करती है, स्पष्ट रूप से यह दर्शाती हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता में संगीत का अस्तित्व था। इस बात के भी प्रमाण हैं कि इस काल में रूद्र की भी पूजा की जाती थी। बाद के कालों में रूद्र शिव के नाम से प्रसिद्ध हुए जो नृत्य, नाट्य और संगीत के देवता हैं।
3.2 वैदिक संगीत
वैदिक संगीत धर्म और संगीत के बीच गहरे संबंधों का प्रारंभिक प्रमाण है। वैदिक धर्म ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए आहुति देने में विश्वास रखता था। संगीत उन रीतिरिवाजों का, जो आहुति से जुड़े हुए थे, एक प्रमुख हिस्सा था। इस संगीत के कई सारे गुणधर्म विभिन्न प्रकार से और विभिन्न अनुपातों में अलग-अलग प्रकार से बाद के कालखण्डों में, भारतीय संगीत (जिसमें हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत भी शामिल है) में प्रकट होते हैं। भारतीय शास्त्रीय संगीत का वास्तविक उद्गम सामवेद की गेय ऋचाओं में है जिसमें प्रारंभिक रूप से सुरों की संख्या ज्यादा थी, किंतु अंततः इनकी संख्या सुनिश्चित रूप से सात कर दी गई। वास्तव में शब्द साम ही एक यौगिक अभिव्यक्ति है जिसमें दो तत्व शामिल हैंः पहला तत्व ‘सा‘ से आशय स्तुति से है और दूसरे तत्व ‘म‘ का अर्थ है संगीत।
वैदिक संगीत में विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों को भी शामिल किया गया है। संगीत का उपयोग मुख्यतः दो कार्यों के लिए किया जाता थाः ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए तथा बलि तथा आहुति को रोचक बनाने के लिए। एकल तथा सामूहिक गान दोनों ही प्रचलन में थे। साम ज्ञान में संगीत के चार रूप प्रचलन में थे। प्रत्येक प्रकार के संगीत से वैदिक मंत्रों में हो रहे परिवर्तन प्रभावित होते थे जिसे सम्बद्ध संगीतकार के द्वारा समझना आवश्यक होता था। वीणा, तुनाव, दुंदुभी, भूमि-दुंदुभी और तालव प्रमुख वाद्य यंत्र थे जो 4 प्रमुख वाद्य श्रेणियों का प्रतिनिधित्व करते थेः स्वयंत्र (ऑटोफोन), झिल्लीयंत्र (मेम्ब्रेनोफोन्स), वायुयंत्र (एयरोफोन) व तारयंत्र (कॉर्डोफोन)।
शिक्षा वैदिक साहित्य की पहली शाखा है। इसका संबंध स्वर, व्यंजन आदि के सही उच्चारण से है। वास्तव में इसमें छः पक्षों पर ध्यान दिया जाता हैः वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, सम (संतुलन) एवं संतन। पाणिनी, याज्ञवल्कय, वशिष्ठ, कात्यायनी, मण्डुकी और नार्दियां कुछ प्रसिद्ध शिक्षकों में माने जाते है।
3.2.2 गुरू-शिष्य परम्परा
भारत में संगीत एक परम्परा से चलता है जिसे गुरू-शिष्य परम्परा कहा जाता है। भारतीय संस्कृति में इस पद्धति ने एक महत्वपूर्ण जगह बनाई है। गुरू को उसके शिष्य का आध्यात्मिक पिता माना जाता है।
गुरूकुल प्रणाली की शुरूआत वैदिक काल से भी पहले हुई। गुरूकुल शिक्षा पद्धति में एक शिष्य उसके यज्ञोपवित संस्कार के बाद अपने गुरू के घर पर ही 12 वर्षों के लिए रहता था और गुरू के निदर्शन में वेदों और अन्य विषयों का अध्ययन करता था। गुरू प्रत्येक वह चीज जो वह जानता था, अपने शिष्य को सिखाता था। यह शिक्षा केवल उच्च वर्ण के लोगों के लिए उपलब्ध थी। गुरूकुल को राजाओं का पूर्ण समर्थन रहता था जो इन्हें आर्थिक रूप से पूर्ण सहायता प्रदान करते थे। ऐसा करना राजा का कर्तव्य माना जाता था।
गुरू चार प्रकार के होते थेः आचार्य, प्रवक्ता, श्रोत्रिय, और अध्यापक। संहिता काल में हमें अंगीरा, गर्ग, अत्री, बृहस्पति और वशिष्ट जैसे आचार्यों के नाम सुनने मिलते हैं। शिष्य भी दो प्रकार के होते थेः वह जो गुरू को दक्षिणा प्रदान करते थे उन्हें आचार्य-भाग कहा जाता था; और दूसरे प्रकार के वे शिष्य होते थे जो गुरू के घर में रहते हुए उनके सारे घरेलू कार्य करते थे। उन्हें धर्म-शिष्य कहा जाता था।
हिन्दुस्तानी संगीत में जिसे घराना कहा जाता है, वह इस गुरूकुल प्रणाली का ही अगला कदम है। निश्चित तौर पर घराना में धार्मिक शिक्षा न देते हुए केवल प्रदर्शन कलाओं की शिक्षा दी जाती है।
3.2.3 रामायण और संगीत
भारत के पहले महाकाव्य रामायण की रचना ऋषि वाल्मिकी ने की थी। इसे श्लोक छंद में लिखा गया। श्लोक से आश्य उस लय बद्ध रचना से है जो संक्षिप्त हो तथा जिसमें लय भी हो।
इस महाकाव्य में संगीतमय रूपकों का भव्य उपयोग हुआ है। इसके प्रमाण उपलब्ध हैं कि इस महाकाव्य में संगीत की अवधारणा को पर्याप्त रूप से स्थापित किया गया। उदाहरण के लिए, जब राम अपने अनुज लक्ष्मण को, सुग्रीव की राजधानी किष्किंधा का वर्णन सुनाते हैं, तो वह मधुमक्खियों के स्वर की तुलना वीणा से, और बादलों की ध्वनि की तुलना मृदंग से करते हैं। राम स्वयं भी गंधर्व कला में निपुण थे, जो उस कालखंड का शास्त्रीय संगीत था।
मार्ग संगीत का भी उपयोग इस महाकाव्य में हुआ है जिसे उस कालखण्ड में सम्मानजनक संगीत माना जाता था। मार्ग संगीत के तीन मुख्य गुणधर्म हैं। इसकी रचना ब्रह्मा द्वारा की गई। इसकी रचना केवल मनोरंजन के लिए नहीं की गई थी। इसे भगवान के सम्मुख उन्हें प्रसन्न करने के लिए प्रस्तुत किया जाता था।
महाकाव्य हमें यह भी बताता है कि संगीत वाद्य यंत्रों को सामूहिक रूप से अत्योदय कहा जाता था। चार प्रमुख प्रकार के वाद्य यंत्र उपलब्ध थे। वीणा, वेणु, वंश, शंख, दुंदुभी, भेरी, मृदंग, पानव और पट्टा जैसे वाद्य यंत्रों की एक लम्बी श्रृंखला मौजूद थी।
समाज में संगीत सभी जगह जाना जाता था। राक्षसों का राजा रावण संगीत कला में निपुण था, और इसी तरह वानरों का नायक सुग्रीव भी। त्यौहारों के अवसरों पर संगीत को समाज के नाम से जाना जाता था। बंडी, सूत, मागध, आदि संगीतकारों के व्यावसायिक वर्ग थे जो अपने राजाओं, नायकों आदि के कार्यो, वंशों का गुणगान करते थे।
एक मौखिक महाकाव्य होने के नाते रामायण का प्रचार-प्रसार संगीतमय तरीके से मौखिक परम्परा में हुआ। यह संगीत निर्माण का पाठ्य तरीका था जिसमें चित्रण बहुत आसान होता था। राम के पुत्रों लव-कुश को भी संगीत की शिक्षा दी गई थी, जब उन्होने राम के दरबार में केवल वीणा के उपयोग से राम की प्रशंसा में गीत गाया था। आज भी, जब राम की कहानी, परम्परागत रूप से विभिन्न भारतीय भाषाओं में वर्णित की जाती है तो उसमें प्राचीन ऋषियों द्वारा वर्णित नियमों का पालन किया जाता है।
प्रसिद्ध साहित्य में इन तकनीकी पदों का उपयोग यह दर्शाता है कि इस क्षेत्र का ज्ञान समाज में व्यापक रूप से फैला हुआ था। संगीत के पदों जैसे प्रमाण, लय, ताल, समताल, काल, मात्रा और साम्य इस महाकाव्य के गुणधर्म हैं।
3.2.4 पाठ्य संगीत
पाठ्य को भारतीय संगीत शास्त्र में संगीत रचना की एक विशिष्ट पद्धति माना जाता है। भरत मुनि ने पाठ्य की छः मुख्य विशेषताएं बताई हैंः
- सप्त स्वर
- स्वर के तीन आधारभूत स्थान
- वर्ण प्रबंधन के 4 आधारभूत तत्व
- उच्चारण के दो आधारभूत तरीके
- छः अलंकार, और
- छः अंग
पाठ्य संगीत का उद्देश्य मनोरंजन न होते हुए उपदेश देना था। आज भी घुम्मकड़ संगीतकार पाठ्य संगीत की रचना करते हैं।
3.2.5 महाभारत और संगीत
कृष्ण द्वैपायन व्यास ने 24000 श्लोकों में महाभारत नामक महाकाव्य की रचना की। रामायण की तुलना में महाभारत में संगीत के बारे में कम वर्णन किया गया है। इसके पीछे एक तर्क यह दिया जाता है कि महाभारत काल तक मानव जीवन ज्यादा जटिल हो गया था इसलिए संगीत के लिए कम समय बचता था।
महाभारत में संगीत के स्थान पर गंधर्व शब्द का उपयोग किया गया है। इस प्रकार यह महाकाव्य एक विशिष्ट प्रकार के संगीत की ही बात करता है। संगीत के ज्ञान को गंधर्व शास्त्र कहा जाता था। गंधर्व, अतिमानवीय प्रकार के होते थे व वे इस कला में निपुण माने जाते थे। गंधर्व और उनकी साथी अप्सरायें, दोनों ही गायन और वादन में निपुण मानी जाती थी।
महाभारत के नायक अर्जुन ने चित्रसेन नामक गंधर्व से संगीत की यह कला सीखी थी। उस काल में राजा राजकुमारों और राजमहल से जुड़े सदस्यों को प्रदर्शन कलायें सिखाने के लिए अपने गुरूकुल खोलते थे।
महाभारत में, जो लगभग 4 शताब्दी ईसा पूर्व रची गई, संगीत के सात आधारभूत स्वरों का स्पष्ट चित्रण है। इस प्रकार यह महाकाव्य भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक लम्बी विरासत का प्रमाण है।
त्योहारों और अन्य सामाजिक अवसरों पर संगीत का उपयोग इस तथ्य को सामने लाता है कि मानव जीवन में संगीत का कितना महत्व है। वास्तव में उस कालखंड में व्यावसायिक संगीतकारों की कई श्रेणियों का अस्तित्व था जो विभिन्न प्रकार की सांस्कृतिक आवश्यकताओं के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार का संगीत रचते थे।
3.3 बौद्ध साहित्य और संगीत
बौद्ध धर्म ग्रंथ और साहित्य भारत में और उन देशों में जहां बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ, ंसंगीत के विकास के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराते हैं। पाली भाषा में तीसरी शताब्दी ईसापूर्व रचे गये जातक, जिसमें गौतम बुद्ध के पूर्व जन्म के बारे में वर्णन है, दर्शाया गया है कि बौद्ध भिक्षु वीणा, वैपामई, तुनक और पनक आदि यंत्रों का उपयोग करते हुए नाचते और गाते थे। उन्हें लय, ताल और संगीत का ज्ञान था।
बौद्ध नीति पर आधारित मूर्तिकला, संगीत के बारे में सूचनाएं उपलब्ध कराने का प्रमुख स्त्रोत है। भरहुत (250-150 ई.पू.) और सांची की मूर्तियां यह सुनिश्चित करती हैं कि धार्मिक विरोधों के बावजूद बौद्ध काल में संगीत फला-फूला। इसका विरोध इस तथ्य के आधार पर होता था कि संगीत जीवन में भटकाव लाता है।
3.4 जैन धर्म ग्रंथों में संगीत
भारतीय संस्कृतिक इतिहास में व्याप्त संगीत को जैन साहित्य में भी दर्शाया गया है। इनमें से कई पद तो संस्कृत परम्परा से लिये गये हैं जो संगीत परम्परा का सातत्य बना रहा ऐसा दर्शाते हैं।
उदाहरण के लिए स्थानक सूत्र में गायकों के गुणधर्मों और खामियों की चर्चा की गई है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि यह नारदीय शिक्षा से मैल खाती है। जैन धर्म ग्रंथों में कुछ ऐसे वाद्य यंत्रों के बारे में जिक्र किया गया है जो कहीं और नहीं पाये जाते। रयप्पासनैजा में 18 प्रकार के वाद्य यंत्रों की सूची दी गई है। भम्भ, मुकुन्द, माचल, कदम्ब सहित कुल 63 वाद्य यंत्र बताये गये है।
3.5 संगीत और नाट्य शास्त्र
गहरी धार्मिक परम्पराओं और इतिहास के साथ, भारतीय पौराणिकता के अनुसार संगीत का उद्गम दिव्य स्त्रोतों से हुआ। नारद पहले ऋषि थे जिनके सम्मुख संगीत के नियमों का प्रकटन हुआ; तम्भूरू पहले गायक थे; सरस्वती को संगीत और शिक्षा की देवी माना गया और भरतमुनि पहले व्यक्ति थे जिन्होनें रंगमंच के लिए नियमों का सम्पादन किया, जिसका संगीत बहुत बड़ा और आंतरिक हिस्सा है। नाट्य शास्त्र या रंगमंच का विज्ञान नाट्य कला की एक विरासत है जिसकी रचना दूसरी शताब्दी ई.पू. भरतमुनि ने की थी।
नाट्य शास्त्र मुख्यः रंगमंच, नृत्य और संगीत को समर्पित है। इसमें भारत के सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं के बारे में भी बताया गया है। इसमें उस आधार का वर्णन है जिसमें भारतीय दार्शनिक विचार प्रणाली टिकी हुई है। इसकी रचना गद्य और पद्य दोनों में ही कि गई है, यद्यपि पद्य अधिक मात्रा में है। संगीत से संबधित खण्डों में विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों का चित्रण है। गंधर्व संगीत, वाद्य यंत्र बजाने की कला और ताल के नियमों की व्याख्या भी इसमें की गई है।
नाट्य शास्त्र में रस सिद्धांत को भी परिभाषित किया गया है। यह सिद्धांत कहता है, ‘‘रस की निष्पत्ति विभाव और अनुभाव के मिलन बिंदु पर होती है तथा इसे व्याभिचारी भाव या पूर्ण भावाविभोर अवस्था कहते हैं।‘‘ नाट्य शास्त्र में प्राथमिक स्तर पर भाव उत्पादन विभिन्न भावों की अंतर क्रिया के कारण होता है। इसकी अभिव्यक्ति आवाज के उतार-चढ़ाव, शरीर के अंगों की गतिशीलता आदि से की जाती है जिससे कि दर्शक के हृदय में सौन्दर्य बोध की निष्पत्ति होती है।
भरतमुनि द्वारा निष्पादित इस रस सिद्धांत की व्याख्या उनके प्रमुख टीकाकार अभिनवगुप्त द्वारा 10वीं शताब्दी में की गई और 2000 वर्षों से सतत् रूप से अकादमिक विद्वानों और प्रदर्शन कलाओं के कलाकारों ने इसमें अपनी रूचि बनाये रखी है। इसने साहित्यक कलाओं, जिनमें मुख्यतः काव्य, कहानी और नाटक शामिल है, के लिए महत्वपूर्ण सौन्दर्य-बोध के पैमाने उपलब्ध कराये हैं। इसके अतिरिक्त सभी प्रदर्शन कलाओं जैसे कि नृत्य, रंगमंच और संगीत तथा ललितकलाओं जैसे कि चित्रकला और मूर्तिकला और स्थापत्य कला के लिए भी दिशा निर्देशन किया है।
3.6 गुप्त काल
गुप्त काल को संस्कृति, कला और शिक्षा की दृष्टि से प्राचीन भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है। कालिदास जो विक्रमादित्य (380-413 ईस्वी) के दरबार में थे, गुप्त काल की कलात्मक प्रतिभा का प्रतिनिधित्व करते हैं। वह एक गीतात्मक कवि थे जिन्होने महाकाव्य और नाटकों की रचना की। सौन्दर्यमयी कविता ‘मेघदूतम‘, महाकाव्य ‘रघुवंशम‘ और विश्व प्रसिद्ध नाटक ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्‘ उनके द्वारा रची गई कुछ महान कृतियां हैं, जो सांस्कृतिक परम्परा की महानता दर्शाती हैं।
कालिदास की कृतियों में अनगिनत स्थानों पर संगीत और नृत्य का संदर्भित होना उस कालखंड में मानव जीवन में संगीत के महत्व को दर्शाता है। कालिदास की कृतियों में परिवादिनी वीणा, वीपांची वीणा, पुष्कर, मृदंग, वंशी और शंख जैसे संगीत वाद्य यंत्रों तथा विभिन्न प्रकार के गीतों जैसे काकाली गीत, स्त्री गीत और अप्सर गीता तथा तकनीकि पद जैसे मुर्छना, स्वर-सप्तक और तान तथा ध्वनियों के विभिन्न गुण जैसे किन्नर कंठी और वल्गुवगम् का जिक्र आया है।
वात्स्यायन ने उनका प्रसिद्ध ग्रंथ कामसूत्र (400 ई.) इसी काल खंड़ के दौरान लिखा। इसमें 64 प्रकार की कलाओं को श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए आवश्यक बताया है, जिसमें गायन, वादन और नृत्य भी शामिल हैं।
गुप्तकाल के दौरान प्रसिद्ध चीनी यात्री बौद्ध भिक्षु फाह्यान ने यात्रा करते हुए कुछ वर्ष भारत में गुजारे थे। उसने अपने वृतांत में यह बताया है कि भारतीय सामाजिक जीवन में संगीत एक अनिवार्य हिस्सा था।
गुप्तकाल के पश्चात् के प्रसिद्ध राजा हर्षवर्द्धन (606-648 ई.) स्वयं भी एक अच्छे गायक थे। उनके द्वारा रचित नाटकां, ‘नागानंद‘, ‘रत्नावली‘ और ‘प्रियदर्शिका‘ में संगीत का संदर्भ दिया गया है। पांचवी शताब्दी में रचित ‘पंचतंत्र‘ मानवी प्रतिभा द्वारा रचित सर्वोत्तम कृतियों में से एक मानी जाती है व इसमें भी कई स्थानों पर संगीत का जिक्र किया गया है।
भारतीय संगीत परम्परा चार प्रकार के स्थानों पर फली-फूलीः यज्ञ क्षेत्र में, मंदिर परिसर में, मंच पर और राजदरबारों में। इनमें से प्रत्येक स्थान पर चरित्रों को संगीत के उतार-चढ़ाव के अनुसार ध्वनि के उतार-चढ़ाव और गति को नियंत्रित करना होता था।
यज्ञ स्थल से संबधित संगीत मुख्यतः मंत्रों में निहित होता था जिन्हें संगीतमय तरीके से उच्चारित किया जाता था। शब्दों का सही समय पर सही उच्चारण का इन सारी प्रथाओं में बहुत महत्व था। इन प्रथाओं में वाद यंत्र का उपयोग तो किया जाता था किंतु वे द्वितीय प्राथमिकता पर होते थे।
बंद या अर्धखुले मंदिर परिसरों में प्रतिध्वनि और गुंजन प्रभाव को महसूस किया जाता था। वाद्य यंत्रों और स्वर लहरियों के प्रभाव का उच्चारण ज्यादा होता था। इसलिए इसे विकसित किया गया। कई सारे वाद्य यंत्रों का एक साथ उपयोग कर ध्वनि प्रभाव को बढ़ाया जाता है। गुप्त काल से ही संगीत की विभिन्न विधाओं का अभ्यास मंदिरों में होने लगा था।
मंच वह जगह होती है जो रंगभूमि और रंगशाला का अनिवार्य हिस्सा होती है। नाट्य शास्त्र में तीन प्रकार की रंगशाला का विस्तार से चित्रण किया गया है जो रूप और आकार में भिन्न-भिन्न होती है। संगीत को मंच से सुना जाना और साथ ही दृश्य का दिखाई पड़ जाना अनिवार्य माना गया है और इसलिए मंच का दक्षतापूर्ण उपयोग अनिवार्य था। भरतमुनि ने कुत्पा या वादक समूह के बारे में विस्तार से बताते हुए लिखा है कि यह संगीत और मंच स्थान के बीच महत्वपूर्ण संबंध बनाते हैं।
राजदरबार कलाओं के प्रदर्शन के लिए सुव्यवस्थित स्थान होते थे। यहां पर सभी प्रकार के संगीत का उपयोग किया जा सकता था क्योंकि यहां पर बाहृय परिस्थितियों को नियंत्रित करना आसान होता था। सूक्ष्म ध्वनियों और कोमल प्रभाव को भी अभिव्यक्त किया जा सकता था। यहां पर मंचीय कलाकारों और दर्शकों के बीच संवाद भी आसान था।
3.7 पुराणों में संगीत
पुराण पारम्परिक रूप से पांच विषयों की व्याख्या करते हैंः प्राथमिक ब्रहृांड़ की रचना, प्रलय के पश्चात पुनर्रचना, भगवानों और संतों की वंशावली, महायुग और राजवंशों का इतिहास। मुख्य विषयों के साथ-साथ, पुराण धर्म से संबंधित परम्पराओं, समारोहों, त्योहारां, जातियों के कर्तव्यों, दानों, मंदिरों और मूर्तियों के निर्माण, और तीर्थ स्थानों के बारे में भी चर्चा करते हैं। पुराणों में सामाजिक जीवन में संगीत की प्रतिष्ठा के बारे में भी बताया गया है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को पुराण मौखिक परम्परा से ही मिले। यह विश्वास किया जाता है कि सभी मुख्य पुराण पहली शताब्दी के आसपास रचे गये। क्रमशः उनका विकास होता गया। चौथी से दसवीं शताब्दी के मध्य उनका विस्तार हुआ। 18 पुराणों में से तीन में संगीत के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है।
वायु पुराण सबसे प्रारंभिक पुराणों में से एक माना जाता है जिसकी रचना तीसरी शताब्दी के आसपास हुई। इसमें संगीत को गंधर्व कहा गया है। इस पुराण में संगीत जीवन के विभिन्न दौरों में होने वाले यज्ञों से सबंधित है।
मार्केण्डेय पुराण सबसे छोटे पुराणों में से एक है जिसकी रचना चौथी और पाचवीं शताब्दी में हुई। सरस्वती और अश्वतारा के बीच संवाद के माध्यम से इसमें संगीत की व्याख्या की गई है। सरस्वती राजा को एक वरदान देती है जिसे संगीत और स्वरों के ज्ञान के अतिरिक्त किसी और चीज़ की इच्छा नहीं है।
‘विष्णु धर्मोत्तर पुराण’, जिसकी रचना भी चौथी-पांचवीं शताब्दी में हुई, में लगभग सभी कलाओं के बारे में चर्चा की गई है। इसमें गीत और वाद्य को लेकर एक एक पाठ लिखे गये हैं।
3.8 राग का विकास
रागों का संगीत उस संगीतमय विचार प्रक्रिया के विचार का शीर्षतम बिन्दु है जिसका उद्देश्य सुमधुर और गेय तत्वों का अर्थपूर्ण संयोजन है। राग विकास की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण कदम यह था कि साम गायन ने गंधर्व गायन को भारत के पवित्र संगीत की मुख्य धारा माना। दत्तीलम, जिसकी रचना कहीं चौथी शताब्दी में हुई, इस संगीत की प्रमुख पुस्तक है।
इस पुस्तक में ग्राम, व बावीस सूक्ष्म श्रुति की चर्चा की गई है जिन्हें अष्ट पदों के अंतर पर रखा जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें मूर्छना (स्वरों का पुर्नप्रबंधन) और तानों के क्रमपरिवर्तन व संयोजन के बारे में भी बताया गया है।
दत्तीलम में 18 जातियों का भी वर्णन किया गया है जो कि जातिय ज्ञान के लिए आधारभूत गायन संरचना है। जातियों के दस आधारभूत गुण धर्म होते हैं जो कि हिन्दुस्तानी संगीत में समकालीन रागों की संरचनाओं और विस्तार से मेल खाते हैं। कुछ जातियों के नाम जैसे आंध्री, औडीची उनकी क्षेत्रीय उद्गम को प्रतिध्वनित करते हैं, जैसे कि हिन्दुस्तानी रागों के नाम, उदाहरण के लिए सोरठा, खमज, कन्न्ड़, गौड़, मुल्तानी, और जौनपुरी।
जातीय गायन पूर्णतः पूर्व लिखित होता था। हिन्दुस्तानी संगीत ने ऐसे तात्कालिक सुधार पर जोर दिया कि जिसने इसकी प्रकृति को पूर्णतः बदल दिया किंतु दत्तीलम के तरीकों ने साम संगीत से समकालीन राग संगीत तक की यात्रा महत्वपूर्ण व सरल बना दी।
3.9 राग, ताल और ताल-संगीत
भारतीय संगीत की वर्तमान प्रणाली दो महत्वपूर्ण स्तम्भों पर खड़ी हैः राग और ताल। राग से आशय मधुर रूप से है जबकि ताल संगीत की लय से संबधित है। राग और ताल मिलकर भारतीय संगीत को विश्व की अन्य प्रणालियों से विशिष्ट बनाते हैं। मधुरता का विकास भी राग के साथ कुछ प्रक्रियाओं में होता है; लय की विकास प्रक्रिया में ताल का विकास होता है।
इस प्रकार राग, जिसका आशय रंग या तीव्र आवेग भी होता है, सात स्वरों पर आधारित संगीत की रचना करने का आधारभूत ढ़ांचा है। राग की आधारभूत संरचना को आरोह या अवरोह क्रम में लिखा जा सकता है। इन स्वरों का उपयोग करते हुए, एक निश्चित सीमा तक जोर देकर और एक स्वर से दूसरे स्वर पर एक निश्चित पथ से जाना ही राग के विशिष्ट गुणधर्म हैं। गायक या गायक समूह प्रदर्शन करते हुए किसी एक विशेष एक प्रकार की मनः स्थिति या वातावरण तैयार करते हैं, जिसे रस भी कहा जा सकता है। और यही भारतीय राग और संगीत की विशेषता है।
ताल शब्द का विचार समय की अवधारणा में गुंथा हुआ है। भारतीय संगीत में यह कलाकार ही होता है जो समय की अवधारणा में गुणवत्ता अध्यारोपित करता है। एक संगीतकार जब चाहता है जब अपनी विशिष्ट ताल की शुरूआत कर सकता है। वह समय का विभाजन भी अपने अनुसार रचता है। इस प्रकार वह पहली ‘बीट’ तैयार करता है। कलाकार उत्तरोत्तर और समानांतर ‘स्ट्रोक’ तैयार करता है। इस प्रकार वह हमारे लिए मात्रा उपलब्ध कराता है जो कि संगीतमय समय को नापने की एक इकाई है। समय के प्रवाह को छोड़ना और इस मात्रा की गणना करना ताल के लिए आवश्यक तत्व है।
चक्रीय और पुनर्चक्रीय समय प्रणाली जो समूहों मे तैयार की जाती है, ताल कहलाती है। हिन्दुस्तानी संगीत में ताली, उंगलियों को बजाते हुए आवाज निकालना या हथेली को लहराना (खाली) अनुरूप ही है। यह मिलकर ध्वनि और शांति की एक पद्धति की रचना करते हैं। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार 108 प्रकार की ताल होती हैं। समकालीन प्रदर्शनों में सामान्यतः 15 तालों का ही उपयोग होता है।
जब वाद्य यंत्र अपनी भूमिका निभाते हैं, तभी ताल को जीवन मिलता है। जब वाद्य यंत्रों की ध्वनियां अनुकरणात्मक रूप से अभिव्यक्त होती हैं तब वे स्वर एवं मात्रा का निर्माण करती हैं। जब इन ध्वनियों को ताल विभाजनों में निश्चित किया जाता है तो ‘ठेका‘ का निर्माण होता है जिसे वास्तव में हिन्दुस्तानी संगीत में बजाया और सुनाया जाता है। इस प्रकार ताल हिन्दुस्तानी संस्कृति का एक आवश्यक तत्व है।
3.10 भारत में मुस्लिम राजनीतिक पृष्ठभूमि
बारहवीं शताब्दी के अंत में भारत में इस्लाम का उदय फारसी संगीत और संस्कृति को यहां लाया। मुस्लिम शासकों का हिन्दुत्व के प्रति दृष्टिकोण भिन्न था। औरंगजे़ब जैसे शासक कठोर रूप से विरोधी थे, जबकि अकबर अपनी हिन्दू प्रजा के प्रति सहृदय था। भारत में मुसलमान शासकों का एक लंबा, जटिल और घटना प्रधान सांस्कृतिक इतिहास रहा है। अंततः यह भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का एक आंतरिक हिस्सा बन गया।
3.10.1 दिल्ली सल्तनत और अमीर खुसरो
1262 में जब अमीर खुसरो केवल 9 वर्ष का था, तब उसने कविता रचना प्रारंभ कर दिया था। उसने फारसी, तुर्की, अरबी, ब्रज, हिन्दवीं और खड़ी बोली में लगभग 5 लाख कविताओं की रचना की। यह माना जाता है कि उसने कव्वाली, कसीदा, कलबाना नक्ष और कई अन्य प्रकार संगीत रूपों की रचना की। उसके स्वभाव में रही धर्म-निरपेक्षता ने ऐसा करने का अवसर दिया। झिलफ और सर्पर्दा राग भी अमीर खुसरो से संबधित हैं।
उसके समय में कैकुबाद के दरबार में अवध के संगीत और वहां के संगीतकारों का दिल्ली दरबार में बोलबाला था। एक के बाद एक तीन खिलजी सुल्तान उसके संरक्षक बने। प्रत्येक सुल्तान के दौर में संगीत और संस्कृति में परिवर्तन हुआ। जलालउद्दीन खिलजी धर्म संगीत को लेकर उत्साहित था। अलाउद्दीन खिलजी ने खुसरो के साथ मिलकर सूफी संतों के साथ काम किया और दिल्ली में कई वाद्य यंत्रों को प्रस्तुत किया।
विभिन्न संरक्षकों के अधीन रहकर ख्ुसरो ने स्वंय को योग्य बनाया ताकि वह स्वंय को अभिव्यक्त करते हुए विभिन्न संगीत प्रभावों को आत्मसात कर सके। उसने ‘इंद्रप्रस्थमाता‘ या ‘चर्तुदण्डी सम्प्रदाय’ की स्थापना की। खुसरो ने इस्लामी संगीत परम्परा का भारतीयकरण करते हुए उसे हिन्दू परम्परा से मिश्रित कर दिया।
3.10.2 राजा मानसिंह
ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर (1486-1516 ई.) भारतीय संगीत की एक विधा धु्रपद को प्रस्तुत करने और मजबूत करने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारक थे, जिसका आनंद आज भी लिया जाता है। उन्होंने परम्परागत संस्कृत गीतों के स्थान पर हिन्दी गीतों को स्थापित किया। उन्हें गीतों की तीन पुस्तके लिखने का श्रेय भी जाता हैः (1) विष्णु पद, (भगवान विष्णु की प्रशंसा में लिखे गये गीत) (2) धु्रपद, (3) होरी और धामर गीत जो कि होली से संबंधित हैं। मानसिंह के समर्थन के कारण इस विधा को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। इस प्रकार उसने संगीत को आम आदमी तक पहुंचाया ।
3.10.3 अष्ठछाप, पुष्ठि और हवेली संगीत
वल्लभाचार्य ने शुद्धद्वैत वेदांत या पुष्ठि मार्ग की स्थापना की। उनके संम्प्रदाय को रूद्र सम्प्रदाय कहा जाता है। वल्लभाचार्य परम्परा से जुड़े हुए लोगों ने संगीत की प्राचीन परम्परा को पुनर्जीवित किया। इस समुदाय की धार्मिक और संगीत प्रक्रियाओं को वल्लभचार्य के पुत्र गोस्वामी विठ्ठलनाथजी (1516-1698 ई.) ने एकत्रित कर व्यवस्थित किया। इस प्रकार 1607-08 में संगीत की अष्टछाप धारा का उदय हुआ। इसका नामकरण उन 8 संगीतमय आचार्यों के नाम पर हुआ जिन्होंने इस समुदाय के लिए संगीत की रचना की। महान गायक तानसेन भी इनके प्रभाव में रहे।
‘हवेली संगीत’ पुष्ठि मार्गी सम्प्रदाय द्वारा मंदिरों में गाया बजाया जाने वाला संगीत था। राजस्थान में स्थित नाथद्वारा वैष्णव सम्प्रदाय की प्रमुख गादी है। इस सम्प्रदाय में मंदिर आधारित संगीत की एक समृद्ध परम्परा है जिसे हवेली संगीत कहा जाता है। यहां हवेली से आशय मंदिर से ही है क्योंक इसे ही ईश्वर का महल माना जाता है।
पुष्ठि संगीत का उत्तर-अष्ठछाप काल का संगीत इतिहास, हिन्दुस्तानी में संगीत में हुए कई परिवर्तनों का साक्षी है। ध्रुपद, ख्याल और टप्पा का विकास तथा नृत्य का संगीत से अलग होना और पखावज का स्थान तबले द्वारा ले लेना जैसी सभी घटनायें इसी काल में हुईं।
3.10.4 तानसेन
तानसेन, जो कि अकबर के दरबार का एक प्रसिद्ध गायक था, ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्वालियर में राजा मानसिंह तोमर के यहां हासिल की। उसके नाम दर्ज कई महान रचनाओं में ‘रागमाला‘ है, कई दोहे जिनमें रागों के लक्षण बताये गये हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार तानसेन ने चार हजार रागों को कम करके अपने समय के 400 रागों की पद्धति विकसित की। उसने 92 तालों को 12 तक सीमित कर दिया। कहा जाता है कि उसने ‘मियां मल्हार‘ और ‘मियां की तोड़ी‘ जैसी रागों की रचना की।
तानसेन का सैनिया घराना दो धाराओं में विभाजित हुआ। उसके बड़े लड़के बिलक्षण ने रबाब घराने की स्थापना की और उसके दूसरे पुत्र सूरत सेन ने सितार वादन घराने की स्थापना की।
3.10.5 अकबर के दरबार में संगीत
मुगल काल के दौरान और विशेषकर अकबर के शासनकाल में, मंदिर संगीत को दरबार संगीत ने पीछे धकेल दिया। अब संगीत केवल राजा-महाराजाओं और संरक्षकों को खुश करने के लिए रचा जाने लगा।
अकबर के दरबार में प्रचलित संगीत के बारे में जानकारी अबुल-फज़ल द्वारा रचित ‘आइना-ए-अकबरी‘ में मिलती है। अबुल (1551-1602 ई.) अकबर के दरबार में दरबारी था। उसके अनुसार हिन्दू, ईरानी, कश्मीरी और तुरानी सहित कई पुरूष और महिला संगीतकार अकबर के दरबार में थे। संगीतकारों को सात श्रेणियों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक के लिए सप्ताह का एक दिन निश्चित था। तानसेन के नेतृत्व में 19 गायकों का समूह था जिनमें से कुछ शुद्ध गायक थे और कुछ वादन में निपुण थे। सरमण्डल, बीन, नय, करणा और तानपुरा प्रमुख वाद्य यंत्र थे । दूर-दूर से संगीतकार दरबार में आते थे और इसलिए उस काल में संगीत बहुत समृद्ध हुआ। अकबर के दरबार में फारसी और भारतीय संगीत पद्धतियों का पूर्ण सम्मिश्रण हुआ।
3.11 आधुनिक काल
16वीं शताब्दी के बाद के 400 सालों में भारतीय संगीत, विशेषकर कलात्मक संगीत, एक पूर्ण रूपातंर से होकर गुजरा जिसका परिणाम आज के हिन्दुस्तानी संगीत के रूप में दिखाई देता है। इस आध्ुनिक काल में संस्कृत के स्थान पर फारसी, उर्दू, हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में कई संगीतमयी कृतियों की रचना हुई। यह सब हमें हिन्दुस्तानी कला संगीत के विकास की गाथा बताती है।
19वीं शताब्दी की शुरूआत से ही कई भारतीय विद्वानों ने हिन्दुस्तानी संगीत पर अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं में पुस्तकों का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया था। प्रारंभिक ब्रिटिश भारतीय शास्त्रियों के कार्यों के अलावा यह एक अच्छी शुरूआत थी।
आधुनिक काल में कई संगीत रूपों का विकास हुआ जैसे ख्याल और ठुमरी, जो आज भी प्रमुखता लिये हुए हैं। औरंगजे़ब की मृत्यु के बाद मुगल बादशाहों का शीघ्र परिवर्तन होने लगा क्योंकि केंद्रीय शक्ति कमजोर हो गई थी। उनमें से एक था मोहम्मद शाह रंगीले (1716-1748 ई.)। वह कई संगीतकारों का प्रिय संरक्षक था। उसी के राजदरबार में नियामतखान, जो सदारंग के नाम से जाना जाता था, ने ख्याल नामक एक नई विधा की रचना की।
19वीं शताब्दी में नवाब वाज़िद अली शाह ने जोगिया जश्न नामक एतिहासिक नाटकों का मंचन प्रारंभ किया। इन मंचनां में राजा, उसके महल के सेवक और जनता योगियों के रूप में दिखाई देते थे। कृष्ण लीलाओं के इन मंचनों ने आधुनिक हिन्दुस्तानी नाटकों का बीजारोपण किया। रोमानियत और समर्पण से भरी ठुमरी भी 19 वीं शताब्दी में प्रसिद्ध हुई। चौथी शताब्दी के हरिवंश में प्रस्तुत ‘चालिक्य‘ में ठुमरी के समान रचना दिखाई देती है। चालिक्य विधा गीत, नृत्य और नाटकीय हाव-भाव का मिश्रित रूप है।
रामनिधि गुप्त या निधुबाबू (1741-1839) ने हमें बंगाली टप्पा नामक एक नई विधा दी। इसमें हिन्दुस्तानी संगीत से टप्पा और बंगाली संगीत से लय का उतार-चढ़ाव लिया गया। निधुबाबू की रचनाएं बंगाली में थीं और उनकी विषयवस्तु धर्म-निरपेक्ष हुआ करती थी। ये रचनाएं सामान्यतः राधा कृष्ण के भजनां, या पौराणिक पात्रों के प्रति समर्पण गीतों से अलग प्रकार की होती थीं।
सुरेन्द्र मोहन टैगोर (1840-1915) 19वीं शताब्दी के एक अन्य महान संगीतकार थे। उनका उद्देश्य हिन्दुस्तानी संगीत को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाना था।
20वीं शताब्दी में दो लोगों ने भारतीय संगीत में क्रांतिकारी परिवर्तन कियाः पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर और पं. विष्णु नारायण भातखंडे। वी.डी. पलुस्कर (1872-1931) ने पहले संगीत महाविद्यालयों की स्थापना की। उन्होनें संगीत की शिक्षा और प्रचार-प्रसार को एक नया स्वरूप दिया। यह उनके ही प्रयास थे कि संगीत और संगीतकारों को समाज में सम्माननीय स्थान मिलने लगा।
वी.एन. भातखंडे (1860-1933) ने प्रचलित प्रदर्शन प्रणाली को उस दौर में एक संगठित संगीत व्यवस्था रूप में प्रस्तुत किया। भारत में संगीत की एतिहासिक परम्परा मध्यकाल में पूर्णतः नष्ट हो गई थी। उसके बाद से भारत में संगीत पूरी तरह से इन अर्थों में बदल गया कि अब प्राचीन संस्कृत ग्रंथों का वर्तमान संगीत से संबंध पूर्णतः विच्छेद हो गया। यह भातखंडे ही थे जिन्होनें इस खाई को पाटा। उन्होनें सफलता पूर्वक समकालीन संगीत को प्राचीन संगीत और साहित्य की परम्परा से जोड़ दिया।
उन्होंने संगीत के क्षेत्र में पूरे देश में विस्तारपूर्वक काम किया। उन्होनें संगीत से संबंधित आंकड़ें जुटाये और उन्हें व्यवस्थित रूप से संयोजित किया, और प्रदर्शन कलाओं की परम्पराओं का विश्लेषण भी किया। संगीत पर रचा गया उनका साहित्य आज भी अद्वितीय है और हिन्दुस्तानी कला संगीत के व्यवस्थित अध्ययन के लिए आवश्यक है। हिन्दुस्तानी संगीत के बारे में, इस साहित्य में व्याकरण संरचना, एतिहासिक विकास, प्रस्तुतीकरण के पैमाने और सौर्न्दयबोध जैसे आवश्यक तत्वों पर उनके विचार विस्तार से दिये गये हैं। उन्होंने उस समय उपलब्ध बड़े घरानों की लगभग 1800 रचनाओं को वर्गीकृत किया और उन्हें 10 थाटों में विभाजित किया।
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