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भारत में इस्लामी वास्तुकला
1.0 परिचय
तुर्कों के भारत आगमन ने स्थापत्य कला की नई तकनीक से भारत का परिचय करवाया जो फारस, अरब और मध्य एशिया से प्रेरित थी। इन इमारतों की अभियांत्रिकी विशेषताएं थीं गुंबद, मेहराब और मीनारें। इनके निर्माण में पारंपरिक वास्तुकला के साथ-साथ नवीन स्थापत्य का भी प्रयोग किया गया था। इससे एक बिल्कुल नयी शिल्पशैली विकसित हो गई। इसका मुख्य कारण यह था कि इन इमारतों को बनाने में तुर्की शासकों ने स्थानीय कारीगरों की मदद ली थी जो बहुत ही कुशल थे और पहले ही इस तरह की भव्य और सुंदर इमारतें बना चुके थे। अतः उनके द्वारा बनाई गई इमारतों में हम इस्लामी संरचना की सादगी के साथ-साथ पारंपरिक संरचना के कौशल की विविध नक्काशी के नमूनों को देख सकते हैं। इस समय के स्थापत्य के नमूनों में एक बीच का रास्ता देखा जा सकता है।
2.0 दिल्ली सल्तनत
2.1.1 मेहराब और गुंबद विधि
इस्लामिक
इमारतों में गुंबद एक आवश्यक संरचना माना जाता था और जल्दी ही अन्य
इमारतों में भी इसे शामिल किया जाने लगा। नुकीली मेहराबें जो इस समय बनाई
जा रही थी वे देश में पहले बनाई जा रही मीनारों से बिलकुल अलग थीं। प्राचीन
भारतीय स्थापत्य में मीनारें बनाते समय पहले दो खंभे लगाए जाते थे। उन
खंभों पर फिर समान दूरी पर खांचे बनाए जाते थे जिनमें किसी प्रक्षेपण को
लगाया जा सकता था। उसमें कुछ वर्ग थे जो धीरे-धीरे घटते जाते थे और मेहराब
का आकार लेते जाते थे। नए कलाकारों ने वास्तविक मेहराब से परिचय करवाया।
इसके लिए बीच के पत्थर को प्रमुख मानकर बाकी पत्थरों का भार दो खंभों पर
बांटा जाता है। गुंबद की अवधारणा से भी परिचय करवाया गया। यह धीरे-धीरे
प्रगति करता गया और इसका उत्कृश्ट उदाहरण बना ताजमहल के शिखर पर बना हुआ
गुंबद।
गुंबद पहले शंक्वाकार बनाए जाते थे जो हमें दिल्ली के महरौली हिस्से में मिलते हैं जो कि बाद में ताजमहल में अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में दिखाई दिए। गुंबद का प्रभाव एक रोचक विधि से लाया जाता था। पहले एक वर्गाकार आधार बनाया जाता था और फिर इस आधार के चारों ओर विभिन्न कोणों पर अन्य वर्ग लगाए जाते थे। इससे, अंत में, एक गुंबद का आकार बनता था।
इसे पूरी तरह से गोलाकार बनाने के लिए प्लास्टर किया जाता था और फिर वर्ग निकाल लिए जाते थे। कांक्रीट का उपयोग भी इस कला के नए आयाम खोल रहा था। कांक्रीट ने भवन निर्माताओं को बडे़ क्षेत्र को घेरकर विशाल इमारतें बनाने में मदद की। स्थानीय भारतीय कलाकारों ने जल्दी ही इस फारसी (पर्शियन) तरीके को सीख लिया जिसके द्वारा वे इन संरचनाओं की सजावट करते थे। उन्होंने इन संरचनाओं को बनाने में अपनी कल्पना का भी प्रयोग किया जिसके चलते जल्दी ही हिंदू धर्म के कुछ आकारों, जैसे कमल, ने भी इन इमारतों में स्थान पा लिया। ऐसे भी उदाहरण थे जहां मेहराबों के इस्लामिक आकार बहुत सी हिंदू मेहराबों की सजावट के लिए इस्तेमाल किए गए थे।
मेहराब और गुंबद के प्रयोग के कई लाभ थे। गुंबद और मेहराबों ने छत को सहारा देने के लिए बडी संख्या में लगने वाले खंभों की संख्या को घटाया और स्पश्ट दृष्य वाले बडे कमरों के निर्माण को संभव बनाया। गुंबद ने छत की रेखा को भी सुंदरता प्रदान की।
2.1.2 स्लैब और बीम विधि
स्लैब और बीम विधि में एक के ऊपर एक पटिये रखते जाते हैं जिससे बीच का अंतर कम होता जाता है और अंत में उसे एक बीम से या कैपिंग पत्थर से ढंक दिया जाता है।
तुर्क अपनी इमारतों में सजावट के लिए मानव और जानवरों के चित्रों या आकृतियों का प्रयोग नहीं करते थे। इसके स्थान पर वे फूलों और ज्यामितीय आकारों की आकृतियों को उकेरते थे और उन पर कुरान की आयतें भी उकेरी जाती थी। इससे अरब लिपि स्वयमेव ही एक कला का प्रतीक बन गई। इस तरह की सजावट को अरबी कहा गया। उन्होंने हिंदू आकृतियों जैसे घंटियों, स्वस्तिक, कमल आदि को भी अपने स्थापत्य में स्थान दिया। उन्होंने संगमरमर और लाल-पीले पत्थरों के प्रयोग से अपनी इमारतों में रंग भी भरे।
2.2 इस काल के कुछ स्मारक और इमारतें
तुर्कों द्वारा बनाई गई सबसे शानदार इमारत 13वीं सदी में बनी कुतुब मीनार थी। यह मीनार 71.4 मीटर लंबी है जिसे इल्ततमिश ने बनाया था। इसे प्रसिद्ध सूफी संत कुतुब-उद्-दीन बख्तियार काकी, जिन्हें दिल्ली में सभी लोग बहुत मानते थे, के नाम समर्पित किया गया। हालांकि बड़ी मीनारें बनाने का प्रचलन भारत और पश्चिमी एशिया में पहले से था, मगर कुतुब मीनार कई कारणों से विशेष थी।
खिलजी शासन के समय में भवन निर्माण की कई गतिविधियां हुई। कुतुब से कुछ किलोमीटर की दूरी पर अलाउद्दीन ने सिरी को अपनी राजधानी बनाया। अलाउद्दीन खिलजी ने कुवैतुल इस्लाम मस्जिद का विस्तार किया और मस्जिद की दीवार के बाहर एक प्रवेश द्वार बनाया। यह द्वार अलाही दरवाजा कहलाता है और यह अब तक स्थापत्य का अप्रतिम नमूना माना जाता है। इमारत की सुंदरता को बढाने के लिए कई चीजों का इस्तेमाल किया जाता था। इस मस्जिद में एक गुंबद भी है जो विज्ञान आधारित सबसे पहला गुंबद है। अर्थात् इस समय तक भवन कला में विज्ञान का उपयोग करने में भारतीय कारीगरों ने महारत हासिल कर ली थी।
तुगलक स्थापत्य कला का उल्लेखनीय पहलू था इसमें प्रयोग की जाने वाली स्लोपिंग दीवारें। इन्हें ‘‘बैटर‘‘ कहा जाता था और ये इमारत को ठोस और मजबूत बनाती थीं। मगर फिरोज़ तुगलक की इमारतों में हमें कोई बैटर नहीं मिलते। तुगलक शासन के समय की इमारतों में मेहराब, लिंटेल और बीम के नियमों को एकसार करने का सुविचारित प्रयास किया गया था। फिरोज़ तुगलक द्वारा बनवाई गई इमारतों में यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। हौज़ खास जिसे एक आनंद स्थल के रूप में बनाया गया था, इसके बीचों-बीच एक बड़ी झील थी, इसमें ऊपरी हर दूसरी मंजिल के निर्माण में मेहराब, बीम और लिंटेल का प्रयोग किया गया था। इसी तरह का निर्माण फिरोज़ शाह के नए दरबार भवन जिसे अब कोटला कहा जाता है, पाया जाता है। तुगलकों ने इन इमारतों में कीमती लाल पत्थर की बजाय सस्ते और आसानी से उपलब्ध होने वाले सलेटी पत्थर का प्रयोग किया।
3.0 सैयद और लोधी सल्तनत के समय स्थापत्य कला
लोधी शासन काल में तुर्क और तुगलक स्थापत्य का मिला जुला रूप प्रयोग में लाया गया। इस समय की इमारतों में मेहराब और बीम के साथ-साथ राजस्थान और गुजरात के प्रभाव में छज्जे, गुफाएं और मंडपों जैसी संरचनाओं का भी प्रयोग किया गया। लोधी काल में एक नया प्रयोग भी किया गया जिसके अंतर्गत मकबरों को ऊंचे मंच पर बनाया गया जिससे वे ऊंचे और विशाल दिखाई दें।
3.1 मकबरे और मूर्तिकला
सैयद व लोधी राजवंशों की स्थापत्य कला के नमूने बहुत हटकर हैं। सैयद और लोधी शासन काल के समय स्थापत्य के कार्यों में पहले के शासकों की तुलना में खासी कमी (गिरावट) देखी गई। तुगलक शासन के समय शुरु हुए इस्लामिक स्थापत्य के कामों की गति सैयद और लोधी काल में खजाने में धन की कमी के कारण प्रभावित हुई। स्थापत्य के नमूने बनाने की उनकी इच्छा सारी दिल्ली में मकबरे और समाधि बनाने तक ही सीमित रही। इसलिए स्थापत्य के नमूने भी केवल मकबरे और समाधियों तक ही रह गए। इस्लामिक स्थापत्य का एक नया रूप सामने आया जिसे बाद में मुगल शासकों द्वारा अपनाया गया। सैयद और लोधी शासकों ने मकबरों का निर्माण दो तरीकों से किया। एक तरीके में अष्टभुजाकर समतल को एक चारदीवारी से घेरा गया था और इसमें एक ही मंजिल थी। दूसरे तरीके से बने मकबरे दो या तीन मंजिला थे, वे वर्गाकार सतह पर बने थे और इनके आसपास चारदीवारी नहीं थी। दोनों ही नमूनों में इमारत में अष्टभुज या वर्ग के हर कोने पर खंभों द्वारा एक गुंबद बनाया गया था। इस काल की इमारतों की एक विशेषता यह भी थी कि इनकी इमारतों की लंबाई में तहखाने की लंबाई-चौडाई की माप भी शामिल रहती थी। हर अष्टभुज सतह की चौडाई तहखाने के साथ तीस फुट की होती थी। सजावट के लिए कोनों पर गुलदस्ते या झालरें लगाई जाती थीं। यह लंबाई भी कंगूरे को मिलाकर इमारत की कुल लंबाई की आधी होती थी। हर अष्टभुजी सतह में तीन कमानीदार स्थान होते थे जो खंभों द्वारा बंटे होते थे। बीच का स्थान आजू-बाजू के स्थानों से चौड़ा होता था। गुंबद का चेंबर या कक्ष अष्टभुजी होता था जिसमें मेहराब और बीम का प्रयोग हर खुली सतह पर होता था। सैयद और लोधी काल में वर्ग और अष्टभुजीय मकबरे इस काल की स्थापत्य कला का नमूना प्रस्तुत करते हैं
3.2 इस काल के कुछ उदाहरण
सैयद और लोधी काल के स्थापत्य ने, जिन शहरों में इनका शासन रहा, उन्हें थोड़ा ही प्रभावित किया। इस काल में जो भी निर्माण कार्य किया गया उसने इस काल के शासकों की कमजोर इच्छाशक्ति को ही प्रदर्शित किया। इस काल में दिल्ली में कोई प्रसिद्ध इमारत, राजधानी या शहर, राजमहल, मस्जिद या कॉलेज जैसी कोई भी इमारत नहीं बनवाई। इस काल में केवल मकबरे यानि मृत्यु के स्मारक बनवाए गए। इस काल में सारी राजधानी में मकबरे बनाए गए, अतः यह काल ‘मकबरों का काल’ के नाम से पहचाना जाता है। इस काल के प्रसिद्ध मकबरे मुबारक सैयद, मुहम्मद सैयद और सिकंदर लोधी के मकबरे थे जो सैयद और लोधी काल की स्थापत्य कला का आदर्श उदाहरण हैं। इसके अलावा दिल्ली के आसपास के प्रसिद्ध मकबरे बारा खान का गुंबद, छोटा खान का गुंबद, शीश गुंबद, पोली का गुंबद, दादी का गुंबद, बड़ा गुंबद, साहिब-उद्-दिन ताज खान का मकबरा भी इस काल की स्थापत्य कला का परिचय देते हैं।
सैयद और लोधी काल का स्थापत्य के क्षेत्र में अगला कार्य 1517 ईस्वी में बना हुआ सिकंदर लोधी का मकबरा था। इसमें मुहम्मद सैयद के मकबरे के नमूने को पुनः प्रयोग में लाया गया था।सैयद और लोधी काल में बने इस तीन मकबरों के अलावा बाकी सभी मकबरे एकल संरचनाओं के रूप में बनाए गए थे जिनके आसपास चारदीवारी नहीं थी, और यदि पहले बनाई गई भी होगी तो अब वह दिखाई नहीं देती। इसके अलावा राजधानी से दूर बसे कालपी (बुंदेलखंड़) और झांसी में ललितपुर में भी इस तरह की इमारतें दिखाई देती हैं। कालपी का मकबरा चौरासी गुंबद कहलाता है जो मुख्यतः अपने चौरासी गुंबदों के लिए प्रसिद्ध है। इस इस्लामिक इमारत के बारे में भी यह धारणा है कि यह किसी लोधी राजा का ही मकबरा है। ललितपुर का मकबरा जामा मस्जिद के नाम से प्रसिद्ध है।
सैयद और लोधी काल के स्थापत्य के नमूने और उनकी बनावट इस बात का संकेत देते हैं कि दिल्ली और इसके आसपास के हिस्सों के निर्माण कार्य में एक अलग छाप दिखाई देने लगी थी, जिसमें पत्थरों की कटाई करके, उन पर नक्काशी करके उन्हें नई संरचना में ढ़ालकर अभिव्यक्त किया जाता था।
4.0 मुगल काल का स्थापत्य
4.1 मुख्य लक्षण
- फारसी (पर्षियन) काल की भव्यता और मौलिकता को भारतीय या हिंदू स्थापत्य की सुंदरता के साथ समावेश करना
- सारे राज्य में स्थापत्य की मूलभूत संरचनाओं को एक जैसा रखना
- किसी बडे़ बगीचे के मध्य में बनाए गए मकबरे जिन्हें ऊंचे मंच पर बनाया गया हो और चारदीवारी से घेरा गया हो
- दोहरे गुंबद (आंतरिक और बाहरी) की रचना जिसमें वास्तविक कब्र को मेहराबदार छत से सजाया गया हो
- अन्य विशेषताओं में कोनों में बेलनाकार खंभों पर लगे क्यूपोला, भव्य दरबार कक्ष और विशाल मेहराबदार द्वार आदि हैं।
मुगल कला इस समय उत्कृष्टता के उच्च स्तर पर थी। मुगल काल का स्थापत्य वास्तव में अकबर के शासन काल से प्रारंभ हुआ।
4.2 किले की इमारत
अकबर पहला मुगल शासक था जिसने बडे़ पैमाने पर किलों का निर्माण करवाया। उसने किलों की श्रेणियों का निर्माण करवाया जिनमें लाल पत्थरों से बना आगरा का किला सबसे महत्वपूर्ण है। उसके बनवाए हुए अन्य किले लाहौर और अलाहाबाद में हैं। बुलंद दरवाजा महान मुगल साम्राज्य की भव्यता और महानता का प्रतीक है। इस दरवाजे को अकबर की गुजरात विजय की याद में बनवाया गया था। इसकी मेहराब करीब 41 मीटर ऊंची है और शायद दुनिया का सबसे भव्य दरवाजा है। सलीम चिश्ती की मजार, जोधा बाई का महल, इबादतखाना, बीरबल का घर और फतेहपुर सीकरी में स्थित अन्य इमारतें पर्शियन और भारतीय स्थापत्य कला के सुंदर तालमेल को दिखाती हैं। अकबर के शासन काल की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि आगरा से 40 कि.मी. दूर फतेहपुर सीकरी की राजधानी में उसके द्वारा बनवाई गई इमारतें हैं जिनमें पत्थरों का अद्भुत प्रयोग किया गया है।
4.3 महलों का निर्माण
अकबर के शासन काल
में फतेहपुर सीकरी में एक महलनुमा किले का निर्माण हुआ। यहां की कई इमारतें
गुजरात और बंगाल के तरीके की बनी हुई हैं। गुजराती तरीके की इमारतें अकबर
की पत्नियों के लिए बनाई गई थीं। चमकीली नीली टाइलों में पर्शियन प्रभाव को
देखा जा सकता है। इनमें से सबसे सुंदर इमारत जामा मस्जिद और उसका बुलंद
दरवाजा है, जो कि 176 फीट ऊंचा है। अन्य महत्वपूर्ण इमारतें हैं जोधा बाई
का महल (हिंदू तरीके से बना), मरियम और सुल्ताना का महल, बीरबल का महल,
दीवाने आम और दीवाने खास तथा पांच महल (जो पांच मंजिला इमारत है तथा बुद्ध
विहार के नमूने से प्रभावित दिखाई देती हैं)।
आगरा में नूरजहां द्वारा बनवाया गया अपने पिता इतिमाद-उद्-दौला का मकबरा पूरी तरह से सफेद संगमरमर और पिएत्रा-दुरा का बना हुआ है। इस समय इमारतों के निर्माण में पूरी तरह से संगमरमर का उपयोग किया जाने लगा था। इसी समय सजावट की नई शैली पिएत्रा-दुरा (जिसमें दीवारों पर कीमती पत्थरों द्वारा फूल-पत्तियों के नमूने उकेरे जाते थे), का भी प्रयोग होने लगा था।
शाहजहां के शासन काल में बनी इमारतों में पिएत्रा दुरा शैली का बड़े पैमाने पर इमारतों की सजावट में प्रयोग हुआ, विशेषतः ताजमहल में जो भवन निर्माण का उत्कृष्ट नमूना माना जाता है और जिसके द्वारा मुगल स्थापत्य को नई पहचान मिली। उस्ताद इसा के अनुमान के अनुसार उस समय ताजमहल के निर्माण में पचास लाख रुपए खर्च किए गए थे।4.5 मस्जिदों का निर्माण
बाबर के शासन काल में संभल, पानीपत, आगरा (पुराना किला) और अयोध्या में चार मस्जिदों का निर्माण हुआ। फतेहपुर सीकरी में अकबर के शासन काल में निर्मित जामी मस्जिद भी मस्जिद निर्माण का अति-सुंदर नमूना है। शाहजहां के शासन काल में निर्माण कला अपने चरम पर थी। आगरा की मोती मस्जिद (संगमरमर की बनी) और दिल्ली की जामा मस्जिद (लाल पत्थर से बनी), इसके उदाहरण हैं। मुगल स्थापत्य की परंपरा 18 वीं सदी और 19 वीं सदी तक गतिमान रही। उनके प्रभाव को प्रांत व राज्यों के भवन निर्माण में देखा जा सकता है। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में भी मुगल स्थापत्य के अंश देखे जा सकते हैं।
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