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औपनिवेशिक वास्तुकला
भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
भारत पर कई यूरोपीय हमलों को छोड़, उन व्यक्तियों के बारे में यदि विचार किया जाये जिन्होंने महान स्थापत्य शैली के माध्यम से देश में अपना प्रभाव छोड़ा था, तो यह निःसंदेह ब्रिटिश थे जिन्होंने भारतीय स्थापत्य कला पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ा। अंग्रेजों ने स्वयं को शक्तिशाली मुगलों के उत्तराधिकारी के रूप में देखा और स्थापत्य शैली का इस्तेमाल शक्ति के प्रतीक के रूप में किया। उपनिवेशवादियों ने भारत के अंदर विभिन्न शैलियों का पालन किया था। इन में से कुछ प्रतिष्ठित शैलियां थींः गोथिक, इंपीरियल, ईसाई, अंग्रेजी पुनर्जागरणकालीन और विक्टोरियाई।
वैभव, घमंड़, सर्वोच्च राज का एहसास कराना... यह सब अंग्रेजों ने भारत में बनवायी इमारतों में झोंक दिया। ब्रिटिशकालीन भारत की औपनिवेशिक स्थापत्य शैली एक देश के लोगों की इस इच्छाशक्ति को व्यक्त करती दिखती है कि वे दूसरों पर केवल शासन, प्रवचन की भावना या शोषण ही नहीं बल्कि अपने लिए पूर्ण रूप से अजनबी परिस्थितियों, प्राकृतिक स्थिति के हिसाब से खुद को अनुकूल बनाने में भी उतने ही सक्षम हैं। यह केवल अंग्रेजों का इस तकनीक में प्रभुत्व का कमाल ही था कि भारत में उनका साम्राज्य था भी।
2.0 औपनिवेशिक स्थापत्य शैली का विकास
कोई आश्चर्य नहीं कि भारत में उनके प्रभुत्व अवधि की औपनिवेशिक स्थापत्य शैली बड़े पैमाने पर दुनिया में उनकी औद्योगिक श्रेष्ठता वाले काल से मेल खाती थी। इसलिए, भारत में उनके द्वारा निर्मित इमारतें उनके देश में उनकी उपलब्धियों के प्रत्यक्ष प्रतिबिंब थे। फिर भी, समुद्र से लंबी दूरी की यात्रा के कारण इंग्लैंड के स्थापत्य प्रकार भारत मे काफी देर से पहुंचे। औपनिवेशिक राज की आयु कई स्थापत्य अवधियों तक फैली थी। अंग्रेज़ जब पहली बार भारत में एक ‘सत्ता‘ बने, उस समय इंग्लैंड में पैलेड़ियन और बरोक प्रचलित शैलियाँ थी। इसलिए, लंदन में सेंट पॉल गिरिजाघर के निर्माण के दौरान बंबई (वर्तमान मुंबई) में ब्रितानियों की स्थापना हुई। जिन वर्षों में वे बंगाल, मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी शहरों को विकसित कर रहे थे उस समय जॉर्जियाई नव-आभिजात्यवाद सर्वोपरि फैशन था। जिस समय तक वे भारत भर में सर्वोपरि सत्ता बने, गोथिक पुनरुद्धार अपने पूर्ण चरम पर था। उच्च विक्टोरियाई शैली का उच्च चयनशील भड़कीलापन उनके शाही शीर्षबिंदु के अनुरूप था। बाद के दशकों के दौरान, अन्य स्थानों में आगे के संरचनात्मक प्रतिष्ठानों की शुरुआत के साथ धीरे-धीरे अंग्रेज़, भारत की औपनिवेशिक स्थापत्य शैली पर एक चिरस्थायी प्रभाव बनाने में सफल हुए।
अप्रत्याशित भारतीय जलवायु एक ऐसा तथ्य था जिसके साथ शुरूआती अंग्रेज़ों को जूझना पड़ा व इसने भारत में औपनिवेशिक स्थापत्य शैली को गंभीर रूप से आघात पहुंचाया। सभी शैलियों की आंग्ल-भारतीय वास्तुकला को तदनुसार, मौसम के अनुसार विभिन्न युक्तियों से मिश्रित किया गया। इसके पोर्टिको और बरामदों को रतन स्क्रीन से अवरुद्ध किया गया। खिड़कियों को झिलमिली, हुड़, जालीदार काम या वेनेशियन ब्लाइंड्स द्वारा आच्छादित किया गया। लेआउट (अभिन्यास) का अनुकूलन और अनुपातों का समायोजन गर्मी और चमकदार रोशनी के हिसाब से किया गया। उनके पूर्ववर्ती मुगलों की तरह ही चतुर आंग्ल-भारतीय वास्तुकारों ने छाया और परछाई का चटकीला उपयोग करना सीख लिया।
2.1 भारत में औपनिवेशिक स्थापत्य शैली की विशेषताएँ
प्रारंभिक वर्षों के दौरान अंग्रेज़ों ने आम भारतीय प्रथाओं का पालन किया और अपने घरों का निर्माण बांस, गोबर, मिट्टी, कछार के पलस्तर या मिट्टी की ईंटों के साथ किया। ईंटें अधिकतर धूप में सुखायी हुईं होती थीं और उन्हें ‘कच्चा’ कहा जाता था। रालदार छतों पर पहले फूस डाली जाती थी या उन्हें मोटी मिट्टी में लीपा जाता था। ब्रिटिश भारत की प्रारंभिक औपनिवेशिक स्थापत्य शैली, अक्सर सूखे पत्तों और मिट्टी की कसकर संकुचित परतों के साथ आच्छादित लकड़ी की बनी सपाट छतों द्वारा परिलक्षित होती थी। छतें सफेद पुती टाट की बनी होती थीं, जो कमरों को थोड़ी सी हवा प्रदान करती थीं। कटघरे आमतौर पर टेराकोटा के बने होते थे और कांच के अभाव में, कभी-कभी लकड़ी के तख्ते में सीप के गोले खिड़कियों के रूप में उपयोग किये जाते थे। अच्छी भवन निर्माण सामग्री की काफी मांग थी। ब्रिटिश निर्माण को अद्भुत बनाने के क्रम में, कभी-कभी शाही बिल्डर चीन से संगमरमर, बर्मा से सागौन, खाड़ी से बजरी जैसी सामग्री आयात करते थे। कलकत्ता के 1800 के औपनिवेशिक वास्तु शिल्प और 1860 के दशक के बंबई के कैथनेस के शिला पट्ट शायद इस शीर्षक के तहत सबसे प्रमुख थे जिन्होंने इन शहरों को प्राथमिक महत्व प्रदान किया।
2.1.1 पत्थर और लोहे का उपयोग
ब्रिटिश भारत की औपनिवेशिक स्थापत्य शैली, पत्थर के दुर्लभ उपयोग की एक अन्य विशेषता की भी गवाह बनी। वास्तव में, साम्राज्य के प्रारंभिक दिनों के दौरान यह एक रोजमर्रा की विशेषता थी और कलकत्ता के सेंट जॉन चर्च ऊटाकामंड (ऊटी के रूप में लोकप्रिय) के पहले घर को क्रमशः स्टोन चर्च और स्टोन हाउस कहा गया। बाद में, पत्थर की जगह ईंट भारत की ब्रिटिश वास्तुकला की प्रमुख सामग्री बन गई। स्लेट, मशीन द्वारा बनी टाइल्स और इस्पात के गर्ड़र प्रचलन में आए, और जस्तेदार लोहे ने एंग्लो-इंड़ियन छत में क्रांति ला दी। 1911 तक भी, जब अंग्रेज़ दिल्ली में एक नया वायसराय पैलेस बनाने की योजना बना रहे थे, यह आह्वान किया गया था कि आर्थिक दृष्टि से, इमारत का सामने का हिस्सा प्लास्टर किया होना चाहिए।
2.1.2 आनंदमय गुमनामी
भारत की औपनिवेशिक स्थापत्य शैली के बारे में एक अन्य बुनियादी विशेषता यह थी कि ब्रिटिश भारत के अधिकांश निर्माण गुमनाम थे। अंग्रेजी मिस्त्री प्रेसीड़ेंसी शहरों में (बंगाल, मद्रास और बंबई शामिल) अपनी प्रारंभिक पहचान बना चुके थे और ईस्ट इंड़िया कंपनी के पास अपने निवासी आर्किटेक्ट थे। फिर भी, ब्रिटिश साम्राज्य की शुरुआत से पतन तक केवल मुट्ठी भर प्रतिष्ठित वास्तुविदों ने राज के लिए भवन डिज़ाइन किए। इस साम्राज्य के पत्थर अधिकतर शौकीनों द्वारा और सैनिकों द्वारा रखे गए, जिन्होंने निर्माण व्यापार की रूपरेखा इंग्लैंड में अपने सैन्य शिक्षा के दौरान सीखी थी, या बाद के वर्षों में 1854 में स्थापित लोक निर्माण विभाग के कर्मचारियों द्वारा।
ब्रिटिश साम्राज्य में प्रारंभिक दौर में महज शौकिया काम बढ़ई द्वारा किया हुआ देखा गया, जो कलकत्ता में पहली राइटर्स बिल्डिंग जैसे दिग्गज भवनों के लिए आर्किटेक्ट थे। कई अन्य आजीविकाओं के ब्रितानियों ने निर्भीकता से कई स्थानों के आसपास वास्तु निर्माण चलाया। अपने काम में पूर्णता लाने के लिए वे अक्सर वास्तुकला की हैंड़बुक्स (वास्तुकला पुस्तिकाएं) पर भरोसा करते थे, जो अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में बहुत लोकप्रिय थीं। प्रेसीडें़सी शहरों की कई प्रारंभिक इमारतों की उत्पत्ति ऐसे ग्रंथों की देन हैं। 1830 के दशक की ब्रिटिश भारत की औपनिवेशिक स्थापत्य शैली ने जॉन लूड़ों के अमूल्य काम पर भारी भरोसा किया, जिनकी कई विश्वकोशीय पाठ्य पुस्तकों ने निर्माण के लगभग हर तरह के मॉडल पेश किये। लूड़ों के ग्रंथों ने शायद ब्रिटिश भारत की वास्तुकला पर किसी भी अन्य की तुलना में अधिक प्रभाव छोड़ा। हालाँकि, और अधिक उन्नत और बाद के चरणों के दौरान, शौकीनी ने ब्रिटिश साम्राज्य छोड़ दिया और सैनिक डिजाइनरों और इंजीनियरों की जगह पेशेवर वास्तुकारों ने ले ली।
2.2 प्रगति (शास्त्रीय और गोथिक शैली)
ब्रिटिश भारत की पहली पहचानने योग्य औपनिवेशिक स्थापत्य शैलियां किसी न किसी दृष्टि से शास्त्रीय थीं। यह उसके विघटन तक ईस्ट इंड़िया कंपनी की चुनी हुई विधा थी और यह पूरी तरह से जानबूझकर किया गया था। भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवादी व्यापारियों से विकसित हो कर शासक बन रहे थे और उन्होंने उस शैली का स्वागत किया जो एकदम आलेखीय रूप से उनकी शांत श्रेष्ठता और ऐतिहासिक पूर्ववृत्त (गौरवशाली मुगल वंश की चर्चा करते हुए) व्यक्त करती। युद्ध क्षेत्र में अठारहवीं सदी की जीतें, जिन्होंने भारत में ब्रिटिश वर्चस्व का आगाज़ किया, उसने शक्तिशाली ढ़ंग से इस बुलंद आत्म छवि को बल दिया। कलकत्ता और मद्रास की ब्रिटिश इमारतें मानो एक ऐसी सभ्यता का बखान कर रही थीं जो अनंत काल तक आत्मनिर्भर और अड़िग रहने वाली हो। ब्रिटिश भारत में औपनिवेशिक स्थापत्य शैली एक सबक पर बल देना चाहती थी। गोरे अपनी स्वयं की सुरक्षा के लिए और स्थानीय निवासियों को समझ देने के लिए, इन दोनों प्रयोजनों से, अपने तरीकों की श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए कृत-संकल्प थे।
1803 में जब उन्होंने दिल्ली को जीत लिया, तो शहर में अपने निवास के लिए एक शानदार, मुगल शैली में निर्मित स्थानीय महल को चुना। इस भव्य स्थापत्य आश्चर्य के सामने वाले भाग पर आयनिक स्तंभों की एक भव्य खंभों की पंक्ति चिपका दी गई ताकि उनकी शैली और उसकी छाप सभी देखने वालों पर पड़ सके। ऐसा सशक्त अंत करने के लिए कई शास्त्रीय वास्तु उपकरणों ने योगदान दिया। ब्रिटिश भारत में औपनिवेशिक स्थापत्य शैली ने विजय सम्बन्धी मेहराब, टोगा मूर्तियों, ट्रॉफी हॉल और विश्व देवालय से बहुत कुछ आत्मसात किया। पारंपरिक पद्धतियों, कोरिंथियन, आयनिक, टस्कन और देहाती, इन सभी ने प्रारंभिक ब्रिटिश वास्तुकारों को उपयोगी रूपक उपलब्ध करवाये। ऐसी अतिव्यापित स्थापत्य कला और इमारतों के कोलाहल के दौरान वर्तमान में, गोथिक फैशन स्थापत्य कला में धीरे से प्रवेश कर गई, और नव-अभिजात्यवाद स्थापत्य कला के फैशन से बाहर चला गया।
वास्तव में, लंदन के रोमांटिक स्ट्राबेरी हिल की तरह से उठता हुआ गोथिक का पहला लक्षण, काली मिर्च पॉट बुर्ज, उड़ते हुए पुष्ट, जो 1784 में आश्चर्यजनक रूप से, कलकत्ता के फोर्ट विलियम के लिए प्रदान किये गए थे, अठारहवीं सदी के अंत में मद्रास और कलकत्ता में देखे गए। परंतु विक्टोरियन गोथिक का वास्तविक दृष्टिकोण सबसे अधिक स्पष्ट रूप से ब्रिटिश भारत के महानगरीय चर्च, कलकत्ता के कैथेड्रल के डिजाइन में प्रकाश में आया, जिसका निर्माण 1847 में पूरा हुआ। बाद में, यह सेंट पॉल कैथेड्रल के रूप में लोकप्रिय हुआ। यह मध्ययुगीन और प्राचीन स्थापत्य शैली के शानदार मिश्रण के रूप में सर्वोत्कृष्ट उदाहरण था जिसे, इसके बिशप द्वारा “स्थापत्य कला की गोथिक शैली, बल्कि ईसाई शैली” के रूप में निर्दिष्ट किया गया। इस प्रकार गोथिक स्थापत्य शैली, अन्य सभी शैलियों से ऊपर उठ कर, एक ब्रिटिश मुहावरा बन गई। इसका एक कारण यह भी था कि निर्माण के लिए, यह शास्त्रीय शैली की तुलना में सस्ती थी, अतः एक चर्च की कीमत में दो धर्म प्रचार संबंधी चर्चों का निर्माण संभव था। और दूसरा कारण था कि, इसमें शास्त्रीय शैलियों के बुतपरस्ती निहितार्थ नहीं थे। और एक तीसरा एक कारण यह भी था कि गोथिक शैली को चर्च आयुक्तों, कैमडेन सोसायटी, और गिरजा शिल्पज्ञ जैसे इंगलैंड़ के सभी बेहतरीन अधिकारियों की मान्यता प्राप्त थी। एंग्लो-इंड़ियन (आंग्ल-भारतीय) चर्च डिज़ाइनरों को जल्दी ही यह तथ्य समझ में आ गया था।
2.2.1 ईस्ट इंडिया कंपनी का अस्त और धर्मनिरपेक्ष स्थापत्य कला का उदय
ब्रिटिश भारत में अत्यधिक प्रगतिशील औपनिवेशिक स्थापत्य शैली का अगला चरण था धर्मनिरपेक्ष स्थापत्य कला, जिसने जल्द ही अपना स्थान बनाना शुरू कर दिया। दरअसल, मूल भारतीय पर्यावरण के लिए, शास्त्रीय शैली की तुलना में गोथिक शैली काफी कम उपयुक्त थी। जब गोथिक पैटर्न पूर्व में हस्तांतरित किया गया, तो इसको देखने मात्र से एक अजीब बंद-सी और बेचैनी की अनुभूति होती थी। सिपाही विद्रोह (भारतीय स्वतंत्रता 1857 की पहली लड़ाई) के बाद, भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियों की परिणति ने स्थापत्य शैली के एक और परिवर्तन के संकेत दिए। अब महारानी विक्टोरिया और महारानी के संप्रभु ताज ने भारत के लिए स्वयं अपना प्रशासन स्थापित किया था। कंपनी के गवर्नर जनरल महारानी के वायसराय बन गए, एवं महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित किया गया। पहली बार कुछ भारतीयों को उनकी ही सरकार के उच्च पदों पर नियुक्त कराया गया। शाही दर्शनशास्त्र में भड़कीले नए तत्वों का प्रवेश हुआ; यद्यपि, अंग्रेजों द्वारा उनकी शाही स्थापत्य कला में भारतीय विशिष्टताओं और रूपांकनों को पेश करने की शुरुआत करने के लिए यह एक असामान्य समय था।
समय के साथ औपनिवेशिक स्थापत्य कला में एक संकर शैली विकसित हुई। हालांकि, सारसंग्रहवाद काफी अनियंत्रित था। वास्तुकारों के लिए सौभाग्य से, गोथिक शैली, आभूषण की अपनी प्राकृतिक अधिकता, अपनी नुकीली मेहराबों और गुंबददार छतों के साथ अभिविन्यास में यथोचित आसानी से समाविष्ट हो गई। पूर्वी पसंद के सभी तरीकों ने रूढ़िवादी वास्तु अभिव्यक्ति पर आक्रमण किया। और उत्तरी मिस्त्रियों ने अपने तरीकों को कियोस्क और अन्तःपुर खिड़कियों के साथ रूपांतरित पाया। रहस्यात्मक ढ़ंग से इन संयोजनों के लिए पसंदीदा जातिगत नाम ‘‘इंड़ो-अरबी‘‘ था, परंतु हिंदू गोथिक, नवजागरण- मुगल, अरबी-गोथिक, यहां तक कि स्विस-अरबी, ये सभी शैलियाँ कभी न कभी भारत की स्थापत्य शैली के रूप में पहचानी गईं। कई बार अंग्रेज़ों ने इमारतों का निर्माण पूर्ण भारतीय तरीके से किया, और विक्टोरियन समय के उत्तरार्द्ध में अधिक कल्पनाशील एंग्लो-इंडियंस के बीच एक जोरदार “वापस भारत को” आंदोलन उठा। हालांकि, संकर शैली इमारतें बीसवीं सदी के आगमन के साथ भी प्रबल बनी रहीं।
औपनिवेशिक प्रभाव कार्यालय भवनों में देखा जा सकता है। सोलहवीं शताब्दी ईस्वी से आने लगे यूरोपीय लोगों ने कई चर्चों और अन्य इमारतों का निर्माण किया। पुर्तगालियों ने गोवा में कई चर्चों का निर्माण किया, इनमें से सबसे प्रसिद्ध हैं, बेसिलिका बॉम जीसस और संत फ्रांसिस चर्च। अंग्रेज़ों ने प्रशासनिक और आवासीय भवनों का निर्माण भी किया, जो उनकी शाही महिमा को प्रतिबिंबित करती हैं। कुछ ग्रीक और रोमन प्रभाव कोलोनेड़ या स्तंभ भवनों में देखा जा सकता है। संसद भवन और दिल्ली का कनॉट प्लेस इसके अच्छे उदाहरण हैं। वास्तुकार लुटियन ने राष्ट्रपति भवन बनाया, जो पूर्व में वाइसराय निवास था। यह बलुआ पत्थर से बनाया गया है और इसमें राजस्थान की छतरियां और जाली जैसी डिजाइन विशेषताएं हैं। कोलकाता का विक्टोरिया मेमोरियल, ब्रिटिश भारत की पूर्व राजधानी, संगमरमर की एक विशाल इमारत है। अब इसमें औपनिवेशिक कलाकृतियों से भरा एक संग्रहालय है। कलकत्ता की राइटर्स बिल्डिंग, जहां ब्रिटिश काल में सरकारी अधिकारियों की पीढ़ियों ने काम किया, अभी आज़ादी के बाद भी बंगाल का प्रशासनिक केंद्र है। कुछ गोथिक तत्व कलकत्ता के सेंट पॉल कैथेड्रल जैसे चर्च भवनों में देखे जा सकते हैं। अंग्रेजों ने मुंबई के विक्टोरिया टर्मिनस जैसे प्रभावशाली रेलवे टर्मिनल भी पीछे छोडे़ हैं।
1947 में आजादी के बाद निर्माण की अधिक समकालीन शैलियाँ अब भी साक्ष्य के रूप में मौजूद हैं। चंडीगढ़ में फ्रेंच वास्तुकार कार्बुजिए द्वारा अभिकल्पित इमारतें हैं। दिल्ली में ऑस्ट्रिया के वास्तुकार, स्टीन, ने इंड़िया इंटरनेशनल सेंटर डिजाइन किया है, जहां दुनिया भर के अग्रणी बुद्धिजीवियों द्वारा सम्मेलन आयोजित किये जाते हैं, और अभी हाल ही में इंडिया हैबिटैट सेंटर राजधानी की बौद्धिक गतिविधियों का केंद्र बन गया है।
पिछले कुछ दशकों में कई प्रतिभाशाली भारतीय वास्तुकार हुए हैं, इनमें से कुछ, स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर (एसपीए) जैसे वास्तुकला के प्रमुख स्कूलों में प्रशिक्षित हैं। राज रेवाल और चार्ल्स कोरिया जैसे वास्तुविद इस नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। श्री राज रेवाल ने दिल्ली में स्कोप कॉम्प्लेक्स और जवाहर व्यापार भवन डिजाइन किए हैं। वह निर्माण के लिए बलुआ पत्थर जैसी स्वदेशी निर्माण सामग्री का उपयोग करने में गौरवान्वित महसूस करते हैं और चढ़ाव और खुले स्थानों को रोम के प्लाजा से जोड़ते हैं। इस का एक उदाहरण दिल्ली में सीआईईटी भवन है। मुंबई के चार्ल्स कोरिया ने दिल्ली के कनॉट प्लेस में एलआईसी बिल्डिंग डिजाइन किया है। उन्होंने प्रकाश प्रतिबिंबित कर के बढ़ती ऊंचाई का आभास निर्माण करने के लिए ऊंची इमारतों में ग्लास मुखौटा उपयोग किया है। पिछले दशक में घरेलू वास्तुकला में, सभी महानगरों में गृह निर्माण सहकारी संस्थाएं उभर आई हैं, जो उपयोगिता के साथ उच्च स्तर की योजना बनाने और सौंदर्य बोध का संयोजन करती हैं।
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