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प्राचीन और मध्यकालीन भारत में वास्तुकला
1.0 प्रस्तावना
कला और वास्तुशिल्प हमेशा आर्थिक समृद्धि के वातावरण में विकसित होते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में, हालांकि वास्तुशिल्प की शुरूआत बहुत पहले हो गई थी, भारतीय इतिहास के सबसे समृद्ध काल माने जाने वाले गुप्त काल के आरंभ से इसमें तेजी से विकास हुआ। गुप्त काल, असंयोगवश, धार्मिक और बौद्धिक पुनर्जागरण के लिए भी उल्लेखनीय है, जिसे उस काल के वास्तुशिल्प में देखा जा सकता है। बेशक अच्छा संबंध है।
1.1 हड़प्पा काल का वास्तुशिल्प
हड़प्पा सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे पुरानी ज्ञात सभ्यता है। इसलिए वह भारतीय वास्तुशिल्प के अध्ययन के लिए शुरुआती बिंदु है। इस सभ्यता द्वारा लगभग 2500 ई.पू. सिंधु घाटी में भारत के सबसे पुराने बड़े भवन बनाए गए। हड़प्पन भवनों में शत्रुओं से बचने के लिए उनके नगरों में उँची ईंट की दीवारें हुआ करती थीं। अधिकतर भवन साधारण से छोटे आंगन में बने हुए कमरों वाले मकान थे। संभवत कुछ परिवारों के स्वयं के पूर्ण मकान थे, जबकि अन्य लोग केवल मकान का एक कमरा किराए पर लेते थे, तथा पूरा परिवार एक ही कमरे में साथ रहता था।
शासकों ने कच्ची मिट्टी की ईंटों और पक्की मिट्टी की ईंटों से भी, गेहूं और जौ के भंड़ारण के लिए अधिक बड़े भवन गोदाम बनाए थे। मकानों की तरह, ये अधिक बड़े भवन, बीच में छोटे आंगन के साथ आकार में वर्ग या आयाताकार के होते थे। उन्होंने मेहराब का उपयोग किया, लेकिन, सुमेर-वासियों व मिस्त्र-वासियों की तरह ही, उन्होंने नालियों या भवनों की नींव के रूप में, उसका केवल भूमिगत उपयोग किया।
हड़प्पा अपने समय में, विशेष तौर से वास्तुशिल्प में आगे थे। सिन्धु घाटी में प्रत्येक नगर बड़ी-बड़ी दीवारों तथा प्रवेश द्वारों से घिरा था। दीवारें व्यापार नियंत्रित करने और नगर को बाढ़ से बचाने के लिए बनाई गई थीं। हर अनुभाग में विभिन्न भवन शामिल थे, जैसे कि सार्वजनिक इमारत, घर-बाज़ार, और शिल्पकार शालाएँ। घर व अन्य इमारतें धूप में सूखी या भट्टे पर आधारित कीचड़ की ईंटों से बनी थीं। यह ईटें इतनी मजबूत थीं कि उनसे बने मकान या इमारतें हजारों साल तक खड़ी रही (आज की ईटें ईर्ष्या से लाल हरी हो जाएंगी!) प्रत्येक घर में एक आंतरिक और एक बाह्य रसोई घर था। बाह्य रसोई घर का प्रयोग संभवतः गर्मी में और आंतरिक रसोई घर का प्रयोग ठण्ड में किया जाता होगा। वर्तमान में इन क्षेत्रों के गांवों में, उदाहरणतः कच्छ में, आंतरिक एवं बाह्य रसोई घर का प्रयोग किया जाता है। वे आंतरिक रसोई घर का प्रयोग प्रायः संग्रहण कक्ष के रूप में करते थे। केवल बारिश के दिनों में इसका इस्तेमाल रसोई बनाने के लिए करते थे। यह इसलिये क्योंकि लोग गोबर एवं सूखी झाड़ियों का इस्तेमाल ईंधन के रूप में करते थे जिससे अत्यधिक धुआं होता व वह आंतरिक रसोई घर में खाना पकाने में बहुत दिक्कत होती थी। अब तक सिंधु घाटी सभ्यता से संबंधित मंदिर स्थलों के कोई स्पष्ट उदाहरण नही पाए गए। पुरातत्वविदों को अभी तक ज्ञात नही हुआ कि सिंधु घाटी सभ्यता में किस धर्म का प्रचलन था। सामुदायिक पानी के कुण्ड मौजूद हैं, जिन्हें धर्म अभ्यास से जोड़ा जा सकता है। जल, हिन्दू पवित्र स्थानों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और ऐसे स्थानों पर किया गया स्नान, गंगा में किये गये स्नान के अतिरिक्त पुण्य स्नान कहलाता है। हिन्दू तीर्थस्थलों और हड़प्पा सभ्यता के शहरों की वास्तुकला समान ही है। विद्वान जन हालांकि इन समानताओं के कार्यात्मक अथवा सांस्कृतिक मूलों को लेकर एकमत नहीं हैं।
मोहन जोदड़ो काल में खोजी गयी कलाकृतियों और सुरागों ने पुरातत्वविदों को इस सभ्यता के पुनर्निमाण हेतु मदद की। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा के बीच योजना और निर्माण में समानता से इस बात के संकेत मिलते हैं कि वे दोनों अत्यंत सुगठित रूप से एकीकृत सरकार के हिस्सा थे। दोनों शहर एक साथ मौजूद रहे, जिससे, व उनके आकार से, प्रतीत होता है कि वे दोनों अपने राज्यों की राजधानी रहे होंगे। यह जानना आवश्यक है कि आधुनिक पाकिस्तान व भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के सैकड़ों शहर मिल चुके हैं।
अब तक, सिंधु घाटी सभ्यता काल के किसी भी मंदिर का पता नहीं चला है। पुरातत्वविदों को यह ज्ञात नहीं हुआ है कि सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान कौन-सा धर्म प्रचलित था। सामुदायिक जलकुंड मौजूद थे, जिसे धर्म से संबंधित किया जा सकता है। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है, जल का हिंदू धार्मिक स्थलों पर विशेष महत्व है जहां अक्सर पवित्र स्नान का आयोजन होता रहता है।
2.0 गुप्तकाल
2.1 वास्तुकला
हालांकि गुप्तों का राजनीतिक वर्चस्व लगभग 550 ई. में समाप्त हो गया था, सामान्य रूप में संस्कृति, और विशेष रूप से कला के प्रकार के बारे में, उनके द्वारा जो प्रारंभ किया गया, वो एक सदी तक जारी रहा, या उससे थोड़ा अधिक भी। अतः 300-600 या 650 ई. के बीच की पूर्ण अवधि गुप्तकाल कही जा सकती है।
गुप्त वास्तुशिल्प पुरानी परंपरा को जारी रखने के साथ ही नए युग के आरंभ को चिह्नित करती है। स्तूपों और चट्टानों से कटी गुफाएं (चैत्य-हॉल और विहार दोनों) पुराने रूपों को बनाए रखती है लेकिन अद्भुत नवीनता भी प्रदर्शित करती हैं। सारनाथ के धामेख स्तूप, संभवतः छठी शताब्दी ई. में, गोल पत्थर के ड्रम के उपर बेलनाकार रूप में ईंट का कार्य किया गया है और जो 128 फीट की ऊंचाईं को छूता है, जो इस तरह की बनावट के विकास का अंतिम रूप दिखाता है। अंजता की देखने लायक गुफाएं (नं ग्टप्ए ग्टप्प्ए ग्प्ग्) पुरानी महत्वपूर्ण विशेषताओं को जीवित रखते हुए, उनके विभिन्न स्तंभों की महान सुंदरता और आंतरिक दीवारों तथा छत पर सजाई गए बारीक चित्रकारी द्वारा एक साथ नई परिपाटी दिखाती है। अन्य ध्यान देने लायक चट्टानों से कटे मठ और चैत्य हॉल के विशेष समूह एलोरा में हैं।
2.1.1 सारनाथ के धामेख स्तूप
संरचनात्मक चैत्य-हॉल और मेहराबदार छोर के हिंदू मंदिर पुरानी परंपराओं का पालन करते हैं। छोटे सपाट छत वाले मंदिर, कभी-कभी स्तंभ युक्त हॉल पूर्व गुप्त काल की विशेषता थे और सांची के छोटे लेकिन सुंदर मंदिर एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। लेकिन कुछ तीर्थस्थान, छत पर शिकारा के साथ, उत्तरी भारत में नई शैली लेकर आएं, जिसे बाद में संपूर्ण देश द्वारा अपनाया गया। हालांकि गुप्त काल के ये मंदिर आयामों में न तो भव्य थे न ही बनावट में सुंदर, लेकिन वे मंदिर वास्तुशिल्प की शुरूआत को अंकित करते हैं। इस तरह के दो सबसे अच्छे उदाहरण भीतरगांव के ईंट के मंदिर तथा देवगढ़ के दासवतारा दिखाई देते हैं।
2.2 मूर्तिकला
मूर्तिकला के क्षेत्र मे गुप्त काल, भारत में कला के उच्चतम विकास का गवाह है। सारनाथ और अन्य स्थानों पर कई संख्या में पाई गईं बुद्ध की प्रतिमाएं पूर्णतया विकसित रूप दर्शाती हैं, जिन्हें भारत तथा उसके बाहर आगे के युगों के लिए आदर्श के रूप में माना गया है। यह मथुरा प्रकार से उजागर हुआ है न कि यूनानी या कोई अन्य विदेशी प्रभाव से। निश्चित ही, गुप्त मूर्तिकला शब्द के हर मायने में भारतीय और शास्त्रीय माना जा सकता है। एक कला समीक्षक के अनुसार, ‘‘गुप्त कला, कलात्मक विकास के पूर्णतया सामान्य चक्र में पराकाष्ठा का प्रतीक है’’। सारनाथ की सुंदर बुद्ध की छवियां कृपा और शोधन के साथ ही विनम्रता और संतुष्टि का प्रदर्शन करती हैं, जिससे ये एक उत्कृष्ट कृति बन जाती है।
2.2.1 सारनाथ में बैठे हुए बुद्ध की प्रतिमा
यही उच्च-गुणवत्ता देवगढ़ मंदिर के पैनल में दिखने वाले ब्राहणवादी ईश्वर जैसे शिव एवं विष्णु तथा अन्य में भी दिखती है। पूर्ण रूप से दैवत्व के सही प्रकार के विकास को गुप्त मूर्तिकला का मुख्य गौरव कहा जा सकता है। इन दिव्य छवियां में आकर्षक और गरिमामय सुंदर प्रतिमाएं ही नहीं बल्कि उज्ज्वल आध्यात्मिक अभिव्यक्ति की चमक भी है। ये विशेषताएं मानव और पौराणिक दोनों ही मूर्तियों में मौजूद हैं।
2.2.2 देवगढ़ मंदिर - आदिशेष पर लेटे देव विष्णु
जो सुंदरता व
आकर्षण मानव आकारों में विद्यमान है, वही टेराकोटा एवं सजावटी मूर्तियों
में भी विद्यमान है, जो साथ ही शक्तिशाली और लुभावनी भी है। उत्कृष्ठ आवरण
के साथ बारिक नक्काशी किए गए आवरण तथा छोटे मानव तथा जानवरों की आकृतियां
उनकी प्रकृति तथा विद्यमान सुंदरता के लिए प्रशंसा की हकदार है।
2.3 धातु - कार्य
गुप्त कलाकार और शिल्पकार धातु कार्य में कम माहिर नहीं थे। दिल्ली में कुतुब मीनार के पास प्रसिद्ध लोहे के स्तंभ, धातुकला के कौशल का ही अचंभा है।
2.3.1 दिल्ली का लौह स्तंभ
तांबे की
मूर्ति को सायर परड्यू प्रक्रिया द्वारा बड़े पैमाने पर ढालने की कला को
सफलतापूर्वक रूप दिया गया है। छठी शताब्दी के आसपास ही बिहार के नालंदा में
खड़ी लगभग 80 फीट उंची तांबे की बुद्ध प्रतिमा, और सुल्तानगंज के 7.5 फीट
उंचे बुद्ध को बरमिंघम के म्यूजियम में देखा जा सकता है।
2.3.2 नालंदा में 80 फीट बुद्ध प्रतिमा, बिहार
सामान्यतः सौंदर्य की अभिव्यक्ति से पूर्ण विकास से जुड़ा उदात्त आदर्शवाद, गुप्त मूर्तिकला की विशेषताओं को बताता है और उनकी बनावट और अस्तित्व में शक्ति और शोधन मौजूद हैं। बौद्धिक तत्व गुप्त कला को प्रभावित करता है और उच्च विकसित भावनात्मक प्रदर्शन तथा सजावटी तत्वों की अधिकता को भी नियंत्रित करता है जो आगे के युगां को परिभाषित करता है।
2.4 चित्रकला
साहित्यिक सबूत निःसंदेह
बताते हैं कि भारत में चित्रकारी बहुत समय पूर्व से ही अस्तित्व में आ चुकी
थी। घर की दीवारों पर सुंदर चित्रकारी और विहीत पाली ग्रंथ में जीवंत
मूर्तियां इसका सबूत हैं। लेकिन भारत के सबसे प्राचीन मौजूदा चित्र ईसाई युग से एक या दो शताब्दी से अधिक पूर्व के नही हैं। इन्हें मध्यप्रदेश के सरगुजा राज्य में रामगढ़ पहाडियों की जोगीमारा गुफाओं में बनाया गया है। चित्रों के निशान बेड़सा गुफाओं में भी मौजूद हैं और संभवत तीसरी शताब्दी ई. से ताल्लुक रखते हैं।
लेकिन
भारत की सर्वोत्तम भिति चित्रकला को अंजता गुफाओं की श्रेणी में पाया गया
है जो प्रथम और सातवी शताब्दी ई. में बनाई गई थीं। ये 29 गुफाएं थीं, एवं
1878 ई. के अंत में यहां 16 गुफाओं में चित्रकारी के निशान रह गए थे। इनमें
से काफी अदृश्य हो चुके हैं और आज मूल रूप से मौजूद में से कुछ ही गुफाओं
की दिवारों और छत को सुशोभित करते हैं।
ज्यादातर चित्रकारियां
निसंदेह 400 से 600 ई. काल से संबंधित हैं और मुख्य रूप से वकाटक और
चालुक्य शासकों के संरक्षण के अंतर्गत विकसित हुईं। यद्यपि चित्रों को
फ्रेस्को कहा जाता है, यूरोपीय चित्रकारी में उस शब्द से बनने वाली
चित्रकारी की कुछ अलग प्रक्रिया होती है। अंजता मे गुफाओं की चट्टानों की
दीवारों को पहले मिट्टी के मिश्रण और गोबर तथा पिसे हुए पत्थर से ढं़का
जाता था, और फिर महीन श्वेत प्लास्टर की परत लगाई जाती थी और गीला रखा जाता
था। इस तरह तैयार सतह पर आकृति उकेरी जाती थी और फिर रंगी जाती थी। रंगों
में आमतौर पर सफेद, लाल, भूरे रंगों के विभिन्न प्रकार, व हरे और नीले रंग
का उपयोग किया जाता था।
चित्रों द्वारा बुद्ध की आकृतियों और उनके
वर्तमान तथा पिछले समय के जीवन के विभिन्न भागों को दर्शाया जाता था, जैसी
कि जातक कथाएं। जानवर और वनस्पति जगत को सजावट के लिए प्रचुरता से चित्रित
किया जाता था और आकृतियां विभिन्न और मनमोहक होती थीं।
इन चित्रों
की तकनीकी निपुणताएं और सौंदर्यात्मक गुण, जिसके गहन अध्ययन में ग्रिफिथ्स्
ने 13 वर्ष व्यतीत किये, के बारे में सामान्य विचार ये हैं -
‘‘इनकी
कई सीमाओं के बावजूद, मुझे यह कार्य अत्यंत उच्चकोटि का दिखता है। इस
कार्य की मान्यताओं में एकमत बनावट है, अभिकल्पों में विविधता है, आकारों व
रंगों में प्रसन्नता भरी है एवं मैं इसे उसी श्रेणी में रखूंगा जिसमें
इटली की प्राचीन कला को रखा जाता है। अजंता कारीगरी प्रशंसा योग्य है; लंबी
मुड़ी हुई रेखाओं को एक ही बार में एक ही मोटापे की रेखा से बनाया गया है;
ब्रश अक्सर काफी जीवंत व शक्तिशाली हो उठे हैं एवं पोम्पई के समान दिखते
हैं, पूर्व में बिना सिले कपड़ों की विशेषताओं को सही ढंग से उकेरा गया है।
कला की शिक्षा को किसी भारतीय छात्र तक पहुंचाने के लिए अजंता की गुफाओं से
ज्यादा अच्छा कुछ नहीं हो सकता। यहां की कला जीवंत है, मानव चेहरे भावों
से पूर्ण हैं, फूल जो खिल उठते हैं, पक्षी तो उंचाईओं को छू लेते हैं; पशु
जो दौड़ते हैं, लड़ते हैं, या शांति से बोझ उठाते है; ये सभी प्राकृतिक हैं -
और इस मायने में पूर्णतः मुस्लिम कला से पूर्णतः भिन्न हो अवास्तविक,
अप्राकृतिक एवं विकास हेतु अयोग्य द्विवती है।’’
एक डैनिश कलाकार, जिसने अंजता की चित्रकारी की महत्वपूर्ण व्यावसायिक समीक्षा प्रकाशित की, स्पष्ट करती है कि ‘‘अंजता
ऐसी पराकाष्ठा को दर्शाती है जो वास्तविक भारतीय कला में पायी गयी है और
इन चित्रों में बनावट से लेकर छोटे-छोटे मोती और फूलों तक, दृष्टि के
आयामों के साथ बेहतरीन योग्यता का परीक्षण करते हैं’’।
भारतीय
चित्रकारी के कुछ बढ़िया नमूने ग्वालियर राज्य के गांव बाघ की गुफाओं को
सुशोभित करते हैं। ये 19 वीं सदी के अंत के हैं लेकिन उनमें से कुछ ही अब
बचे हैं। इन चित्रकारियों में भी अजंता जैसी उच्च गुणवत्ता है और ये शायद
छठी या आरंभिक सातवीं शताब्दी ईस्वी से संबंधित हो सकती हैं।
3.0 गुप्त काल पश्चात
3.1 वास्तुशिल्प
3.1.1 चट्टान काटकर बने मंदिर
गुप्तकाल
के बाद छः सौ वर्षों के दौरान हमें वास्तुशिल्प में महत्वपूर्ण विकास
देखने को मिलता है। इससे पूर्व हमारे पास केवल धार्मिक संरचना के नमूने थे।
चट्टानों की गुफाओं ने अब विकास के अंतिम चरण में प्रवेश किया और
धीरे-धीरे संरचनात्मक भवनों में तब्दील हो गई। तथापि हमारे पास एलोरा के
ब्रह्म रूपी श्रेणी, और एलिफेंटा के बढ़िया ब्रह्मा मंदिर और सालसेट
महाद्वीप (बंबई के पास), जैसे कुछ अच्छे उदाहरण हैं। सभी को सातवीं और नवीं
शताब्दी ईस्वी के बीच खोदा गया था। इसके पहले के हैं (1) स्तंभयुक्त अनेक
हॉल, एवं (2) मल्लापुरम के रथ और पगोड़ा कहे जाने वाले लोकप्रिय सात
विशालकाय मंदिर जो मद्रास से 35 मील दक्षिण में, दूर सातवीं शताब्दी ईस्वी
में पल्लव राजा महेन्द्रवर्मन और नरसिंहवर्मन द्वारा खड़े किए गए थे।
राष्ट्रकूट राजा कृष्णा द्वारा एलोरा में बनाए गये कैलाश मंदिर को चट्टान
काट कर बनाए गये मंदिरों में सर्वोत्तम माना जाता है।
एक संपूर्ण
पहाडी को 160 गुना 280 फीट तक काटा गया और बड़े हॉल तथा बारिक नक्काशी किए
स्तंभां के शानदार विशाल मंदिर के रूप में परिवर्तित किया गया। फर्गुसन के
अनुसार ‘‘यह भारत में वास्तुकला के रुचिकर स्मारक हैं’’, और वी. स्मिथ इसे ‘‘सबसे व्यापक और वैभवशाली चट्टानों से कटे मंदिर और भारत में सबसे आश्चर्यजनक वास्तुशिल्प’’ कहते हैं।
एलोरा
(800 से 950 ई.) की जैन गुफाएं एक अंतिम छोर हैं, भारत के चट्टानों से
काटकर तैयार किए गए वास्तुशिल्प का, जिसके विकास को हम अशोक के समय से देख
सकते हैं। मंदिर अब तैयार पत्थरों से बनाये जाने लगे, जो तकनीक पर्याप्त
रूप से विकसित हो जाने पर निःसंदेह रूप से निर्माण की सरल व तर्कयुक्त
पद्धति है।
3.1.2 संरचनात्मक मंदिर
देव प्रतिमावाले
गर्भगृह के ऊपर वाली ऊंची अधिरचना, यानि शिखर, के आकार के अनुसार
संरचनात्मक मंदिरों को मोटे तौर पर दो वर्गों में बांटा जा सकता है। उत्तर
भारतीय मंदिरों में घुमावदार खड़े ऊंचे ठोस स्तंभ जो मध्य से उभरे हुए और
अंत में सकरे होते हुए छोर पर अलग ही गोलाकार पत्थर से ढ़के होते हैं, जो
अमालक कहलाते हैं। दक्षिण भारत में शिखरों की बनावट सीधे खडे पिरामिडनुमा
स्तंभों से, क्षैतिज बैंड द्वारा विभाजित मंजिलों से घटते हुए और एक गुंबद
से समाप्त या एक श्रृंखला से बना बैरल की छत वाले रिज पर समाप्त होते हैं।
उत्तर और दक्षिण भारतीय दोनों ही शिखरों को मूर्तियों से सजाया जाता है।
भूगौलिक वितरण के अनुसार वास्तुशिल्प की इन दोनों शैलियों को उत्तर भारतीय
या इंडो आर्य, तथा दक्षिण भारतीय या द्रविड कहा जाता है।
3.1.3 उत्तर भारतीय शैली
ओड़िसा
के भुवनेश्वर में स्थित असंख्य मंदिर उत्तर भारतीय शैली के विकास को
प्रदर्शित करते हैं। मंदिरों में मुख्य रूप से दो भाग होते हैं, गर्भगृह
जिसके छत पर शिखर होता है और सामने एक मंडप या पोर्च होता है जो छोटे
पिरामिड़नुमा छत से ढ़ंके होते हैं।
भुवनेश्वर के अनगिनत मंदिरों में से, मुक्तेश्वर राजरानी और लिंगराजा (शिखर 160 फीट), तीन सर्वोत्तम उदाहरण हैं।
कोणार्क
का सुप्रसिद्ध लेकिन जीर्ण मंदिर उसकी अद्भुत आश्चर्यजनक मूर्तिकला और
पोर्च के सुंदर पिरामुडनुमा छत के लिए जाना जाता है, जिसे ‘‘सबसे अनुपातिक सरंचना’’ के रूप मे प्रशंसित किया गया है। पुरी का जगन्नाथ मंदिर भी अन्य उत्कृष्ट मिसाल है।
पूर्व
के ओड़िसा तट से पश्चिम की ओर कश्मीर तक, संपूर्ण उत्तर भारत इसी शैली के
मंदिरों से सजा है। उनके समूहों में एक महत्वपूर्ण खुजराहो, (चंदेलों की
राजधानी) में पाया गया है और उन्हें इस वंश के शासकों द्वारा 900 तथा 1150
ई. के मध्य बनाया गया था। इसी शैली की विविध सुंदरता राजपुताना और गुजरात
में पायी गयी, ‘‘जहां स्तंभों का स्वतंत्र उपयोग किया गया है, जहां
संपूर्ण उत्कृष्टता से तराशे गए, संरचित कोष्ठक और खराग्रयुक्त पेंडेंट के
साथ अति सुंदर संगमरमर छत हैं‘‘। इस शैली के दो उत्कृष्ट उदाहरण माउंट आबू में हैं जो पूर्णतया श्वेत संगमरमर से 1031 और 1230 ई. में बनाए गए थे। ‘‘इन दोनों मंदिरों की सुंदरता और नाजुकता तथा बनावट का सांदर्य सभी विवरणों को बढ़-चढ़ कर प्रदर्शित करता है‘‘।
कोणार्क का सूर्य मंदिरः उत्तर भारत के इन शानदार और अद्भुत मंदिरों के बारे में विविध विचार हमें सुल्तान मोहम्मद गजनी के सचिव, अल उत्बी द्वारा मथुरा के मंदिरो के वर्णन से मिलते हैं।
‘‘शहर के मध्य अन्य मंदिरों से अधिक बड़ा व सुंदर एक मंदिर था, जिसका ना तो वर्णन किया जा सकता है ना ही चित्र बनाया जा सकता है‘‘। सुल्तान ने इसके सम्मान में इस तरह व्याख्या की, ‘‘यदि कोई इस प्रकार की इमारत का निर्माण करने की इच्छा रखता है तो वह इसे सौ हजार-हजार लाल दिनार खर्चा किए बिना नहीं कर सकता, और यहां तक कि सबसे ज्यादा अनुभवी और योग्य कारीगरों को रखने पर भी, इसे बनाने में दो सौ वर्षों का समय लगेगा।‘‘
वहां स्थित मूर्तियां में पांच लाल स्वर्ण से बनी थीं, जो प्रत्येक पांच गज ऊंची, बिना किसी सहयोग से हवा में लटकाई गई थीं, व इन मूर्तियों में ऐसे माणिक लगे थे कि यदि इस तरह के माणिकों को कोई बेचता तो उसे पचास हजार दिनार प्राप्त होते। दूसरी तरफ, वहां पानी से शुद्ध नीलमणि है जो क्रिस्टल से भी अधिक चमकीले हैं, वजन में 450 मिस्कल के हैं और इन मूर्तियों में संपूर्ण स्वर्ण की मात्रा इट्ठायनवें हजार तीन सौ मिस्कल हैं। चांदी की मूर्तियां दो सौ हैं, लेकिन उन्हें तोड़े बिना मापा नहीं जा सकता है। सुल्तान ने आदेश दिया था कि सभी मंदिरों को नेप्थेन और आग से जलाया जाए, और नेस्तनाबूद किया जाए।
3.1.4 उत्तर भारतीय शैली
द्रविड़
शैली के प्राचीनतम उदाहरण हैं चट्टानों से कटे मंदिर-ममलापुरम में
धर्मराज-रथ के नाम से और कांची के सरंचनात्मक मंदिर जिन्हें कैलाशनाथ कहते
हैं, और वैकुंठ पेरूमल भी, जिन्हें पल्लव राजाओं ने बनाया। सभी का निर्माण
पल्लव शासकों द्वारा किया गया था। पहली एक विशालकाय सरंचना है, जिसे छः
अन्य के साथ उसी स्थान पर सात रथां के रूप मे जाना जाता है, जो पल्लव
कलाकारों के कौशल को प्रदर्शित करती है।
चोल, जो पल्लवों के बाद आए, और दक्षिण में मजबूत राजनैतिक शक्ति का प्रदर्शन किया, वे महान निर्माता थे। उन्होंने तंजोर और गंगाईकोंड़ाचोलपुरम के दो अद्भुत मंदिर बनाए। तंजोर का महान शिव मंदिर भारत का सबसे बड़ा, ऊंचा सबसे प्रबल धार्मिक स्थल है। यह मंदिर 180 फीट लंबा है, जिसका गर्भगृह 82 फीट वर्ग का तथा दो मंजिला है।
3.1.5 दक्कन के मंदिर
दक्कन
भूमि की पहले कोई स्वतंत्र शैली नहीं थी और हमें उत्तरी और दक्षिण दोनों
ही शैलियों के मंदिर को आयहोल, बादामी और पट्टादकल में मिलते हैं। 1000
ईस्वी बाद से, हालांकि कुछ ध्यान देने योग्य बदलाव दिखते हैं जो आहिस्ता से
ही एक अलग शैली का विकास कर रहे थे, जो कुछ-कुछ उत्तरी तथा दक्षिण शैली के
मध्य की शैली थी।
इन मंदिरों के छोटे पिरामिडनुमा शिखर यद्यपि
बेशक उत्तर और दक्षिण प्रकारों का मिश्रण दिखाई देते हैं, और ऊचांई तथा
बनावट में इन्हें उत्तर और दक्षिण की मध्य शैली का माना जा सकता है। सजावटी तत्व के रूप में, छोटे उत्तर भारतीय शिखर की मौजूदगी से, उत्तर भारतीय शैली के प्रभाव को स्पष्ट देखा जा सकता है, हालांकि वहां दक्षिण भारतीय शैली को बेशक अधिक दिखाया गया है।
दोरसमुद्र में स्थित हौयसलेश्वर मंदिर, इसी शैली का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इसमें वास्तव में दो मंदिर हैं, जो पास पास हैं व आसन्न ट्रान्सेप्ट से जुडे हैं। इनमें से प्रत्येक 112 फीट उंचे तथा 100 फीट चौड़ा है और समतल में सलीबाकार का है, ताकि उसके बाहरी रूप अनुमानों तथा कोणीय तल का प्रदर्शन करें। तल पर स्थित उनकी नंदी मंडप वाली दो सरंचनाओं के कोण मुख्य इमारत से लगे हैं। उसकी संपूर्ण 25 फीट की ऊंचाई जिसे मॉल्डिंग की सतत श्रंखला द्वारा ढांका गया है, जिसके उपर दीवारों पर विशाल मूर्तिकला का प्रदर्शन है। ये बेशक, मानवता की सुंदर सृष्टियां हैं।
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