सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
आर्य और वैदिक सभ्यता भाग - 2
5.0 पश्चात्कालीन वैदिक काल का विस्तार (लगभग 1000-600ई.पू.)
पश्चात्कालीन वैदिक काल के इतिहास को मुख्य रूप से ऋग्वेद की अवधि के बाद का संकलन माना जाता है, जो वैदिक ग्रंथों पर आधारित है। वैदिक भजन या मंत्रों का संग्रह संहिताओं के रूप में जाने जाते थे। ऋग्वेद संहिता सबसे प्राचीन वैदिक ग्रंथ है, जिसके आधार पर पूर्वकालीन वैदिक युग का वर्णन किया जाता है। गायन के प्रयोजनों के लिए ऋग्वेद के श्लोकों को सुरबद्ध बनाया गया और इस संशोधित संग्रह को साम वेद संहिता के रूप में जाना जाता था। सामन = धुन, वेद = ज्ञान। साम वेद के अलावा, ऋग्वेदिक काल में दो अन्य संग्रह भी बने थे-यजुर्वेद संहिता और अथर्ववेद संहिता। यजुर्वेद में न केवल भजन थे बल्कि सस्वर पाठ के साथ अनुष्ठान भी शामिल थे। ये रस्में सामाजिक और राजनीतिक परिवेश को भी दर्शाती हैं। अथर्ववेद बुराइयों और बीमारियों से मंत्र द्वारा बचाव करने हेतु, बना एक संग्रह था। इससे हमें गैर-आर्यों के विश्वास व प्रथाओं का पता चलता है। वैदिक संहिताओं के पश्चात जिन ग्रंथों की रचना हुई वे थे बाम्हण। इन सभी वैदिक ग्रंथो को गंगा के ऊपरी छोर में संकलित किया गया। लगभग 600-1000 ई.पू. में व उसी अवधि और क्षेत्र से खुदाई और अन्वेषण के दौरान पहली बार लगभग 700 स्थल प्रकाश में आए। मिट्टी के कटोरे और चित्रित धूसर मृदभांड, जिनका उपयोग उस काल के लोगों द्वारा हुआ था, पाए गए। वे लोहे के हथियारों का इस्तेमाल भी करते थे। वैदिक काल और लोह युग के पुरातत्व से संयुक्त सबूत के साथ पहली सहस्राब्दी ई.पू. के लगभग के जीवन साक्ष्य व तरीकों का पता चलता है, जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के आसपास के क्षेत्रों में पाए गए।
आर्यों ने पंजाब से पश्चिमी उत्तर प्रदेश व गंगा-यमुना के विभाजक (छोर) तक अपना विस्तार किया। दो प्रमुख वंशां-भरत व पुरूओं-ने मिलकर संयुक्त राज्य का गठन किया, जिसे कुरूवंश कहा गया। वे शुरुआत में सरस्वती और दृषद्वती के छोर के मध्य में निवास करते थे। जल्द ही कुरू लोगों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया और इस क्षेत्र को कुरुक्षेत्र या कौरवों की भूमि कहा जाने लगा। धीरे-धीरे उन्होंने मध्य भाग में रहने वाले पांचालों के साथ मिलकर पूरे दिल्ली क्षेत्र पर अधिकार कर लिया व मेरठ जिले में स्थित हस्तिनापुर में अपनी राजधानी स्थापित की। कुरु वंश का इतिहास महाभारत नामक महाकाव्य में वर्णित मुख्य विषय है जिसमें भरतवंश की गाथा है। यह युद्ध 950 ईसा पूर्व कौरवों और पांडवों के बीच लड़ा गया, माना जाता है। दोनों ही कुरुवंश के थे। नतीजतन पांडवां द्वारा कुरुवंश को व्यावहारिक रूप से पूरी तरह मिटा दिया गया।
900 ई.पू. से 500 ई.पू. के अवशेष हस्तिनापुर में खुदाई में मिले, जिससे बस्तियों और शायद शहरी जीवन का पता चला है। चौथी शताब्दी के अंत तक महाकाव्य के रूप में महाभारत को संकलित किया गया था लेकिन हस्तिनापुर का संपूर्ण विवरण नहीं मिलता है। पश्चात्कालीन वैदिककाल में लोगों को शायद ही पकी ईंटों के उपयोग की जानकारी थी। हस्तिनापुर में पायी गयी मिट्टी की संरचनाएं भव्य और स्थायी नहीं पाई गइंर्। माना गया कि हस्तिनापुर क्षेत्र बाढ़ में बह गया होगा और बचे कुरुवंश के अवशेष इलाहाबाद के निकट कौशाम्बी में पाए गए।
पांचालां ने आज के बदायूं, बरेली व फारूकाबाद़ जिलों पर राज्य किया। वे अपने दार्शनिक राजाओं और ब्राह्मण धर्मशास्त्रियों के लिए प्रसिद्ध है। 600 ई.पू. के आसपास पश्चात्कालीन वैदिक काल के अंत में वैदिक लोग उत्तर बिहार के विदेहा व पूर्वी उत्तर प्रदेश के कौशल मे फैले थे। कौशल पौराणिक राम की कथा के साथ भी संबंधित है। किंतु यह वैदिक साहित्य में वर्णित नहीं है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार में वैदिक लोग तांबे के औजारों और लाल, काले-मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल करने वालों के आमने-सामने थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी संभवतः गेरू या लाल रंग के बर्तन और तांबे के औजारों का इस्तेमाल करने वाले लोग थे। उनमें आपस में लोगों में एक-दूसरे के खिलाफ संघर्ष भी दिखता है। कुछ स्थानों पर पश्चात्कालीन हड़प्पा संस्कृति की झलक भी नज़र आयी। लेकिन इन लोगों को विशुद्ध रूप से हड़प्पा का नहीं कहा जा सकता। यह एक समूह संस्कृति के प्रतिनिधित्व करने जैसा लग रहा है। जाहिर है कि वैदिक लोगां के विरोधियों ने किसी भी बड़े क्षेत्र पर कब्जा नहीं किया था और गंगा के ऊपरी छोर में उनकी बड़ी संख्या थी, ऐसा प्रतीत नहीं होता। जब वेदिक लोग लोहे के हथियार और घोड़ों के रथ का इस्तेमाल करने लगे तब अपने विस्तार के दूसरे चरण में सफल रहे।
5.1 चित्रीत धूसर मृदभांड-लोह चरण संस्कृति एवं वैदिक अर्थव्यवस्था
1000 ईसा पूर्व के आसपास लोहे का पाकिस्तान के गांधार क्षेत्र में इस्तेमाल किया गया था। यहां शवों के साथ दफ्न लौह औजारों की अच्छी संख्या में खोज की गई है। उसी अवधि मे यह बलूचिस्तान, पूर्वी पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी पाये गये। खुदाई में इस तरह के तीर और कमान, भाले के रूप में लोहे के हथियार आमतौर पर लगभग 800 ईसा पूर्व से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस्तेमाल किये जाने का अंदेशा है। इन लोहे के हथियारों से वैदिक लोगों द्वारा ऊपरी छोर में कुछ विरोधियों को भी पराजित करने के संकेत हैं। लौह कुल्हाड़ी का प्रयोग ऊपरी गंगा छोर के जंगलों की कटाई के लिए किया जाता था, हालांकि इन जंगलां मे केवल 35 से 65 सें.मी. बारिश ही होती थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश और विदेहा में वैदिक काल के अंत तक लोहे का प्रसार हो चुका था। इस क्षेत्र से प्राप्त लोहे के औजार सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व के हैं और धातु का बाद में इन वैदिक ग्रंथों में श्याम या कृष्ण अयास के नाम से उल्लेख मिलता है।
लोहे के कुछ ही कृषि उपकरण पाये गये हैं। किंतु बेशक कृषि पश्चात्कालीन वैदिक लोगों की आजीविका का मुख्य साधन था। पश्चात्कालीन वैदिक ग्रंथों मे छह, आठ, बारह और चौबीस बैलों द्वारा हल चलाने की पुष्टि होती है। संभवतः गंगा के ऊपरी छोर के मैदानी इलाकों मे जहां मिट्टी मुलायम थी, शायद वहां लकड़ी के फाल की मदद से कृषि होती थी। पर्याप्त बैल उपलब्ध नहीं थे क्योंकि बलिदान में पशु वध का चलन था, इसलिए, कृषि आदिम थी। लेकिन इसके व्यापक प्रसार के बारे में कोई संदेह नहीं है। शत्पथ ब्राह्मण द्वारा जुताई रस्मों के बारे में विस्तारित वर्णन हैं। प्राचीन किंवदंतियों के अनुसार, जनक-विदेहा के राजा यानि सीता के पिता-की हल से संबंधित कथा प्रचलित है। उन दिनों में राजाओं और राजकुमारों द्वारा शारीरिक श्रम में संकोच नहीं किया जाता था। बलराम, जो कि श्रीकृष्ण के भाई थे, उन्हें हल चलाने के कारण हलधर भी कहा गया। बाद के दिनों में ऊपरी वर्णों के सदस्यों के लिए खेती-किसानी को प्रतिबंधित माना गया।
वैदिक लोगां ने जौ का उत्पादन जारी रखा, लेकिन इस अवधि के दौरान चावल और गेहूं उनकी प्रमुख फसल बन चुके थे। तद्उपरांत, गेहूं, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों का मुख्य भोजन बन गया। पहली बार वैदिक लोग गंगा छोर पर चावल से परिचित हुए। इसे ईसा पूर्व के वैदिक ग्रंथों में “वृहि“ कहा गया और हस्तिनापुर से बरामद इसके अवशेष आठवीं शताब्दी के हैं। चावल के उपयोग की सदा अनुष्ठान में सिफारिश हुई, लेकिन गेहूं का शायद ही कभी पूजा आदि मे उपयोग हुआ। दाल के विभिन्न प्रकार भी बाद में वैदिक लोगों द्वारा उत्पादित किए गए।
पश्चात्कालीन वैदिक काल मे विविध कलाओं और शिल्पकलाओं का उदय देखा गया। हम लोहे का उपयोग करने वाले कारीगरों और प्रगालकों के बारे में 1000 ई.पू. का संकेत पाते हैं। 1000 ईसा पूर्व के कई तांबा उपकरणां को भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार में वैदिक और गैर वैदिक समाज दोनों के अस्तित्वकाल का पाया गया। वैदिक लोग, तांबा शायद राजस्थान के खेतड़ी की तांबे की खानों से पाते थे। तांबा वैदिक लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली पहली धातु में से एक था। तांबा, चित्रित धूसर मृदभांड वाले क्षेत्र मे भी पाया गया। वे युद्ध, शिकार और गहनों के लिए मुख्य रूप से तांबे का प्रयोग करते थे।
बुनकरी, महिलाओं तक ही सीमित थी, किंतु एक व्यापक पैमाने पर की गई। चमड़े का काम, मिट्टी के बर्तन और बढ़ई के काम काफी प्रगति पर थे। पश्चात्कालीन वैदिक लोग लाल व काले मृदभांड, काले चिकने मृदभांड, चित्रीत धूसर मृदभांड़, चित्रित काले और लाल मृदभांड इन चार प्रकारां से परिचित थे। लाल मृदभांड़ लगभग पूर्ण पश्चिमी उत्तरप्रदेश में पाये गये हैं हालांकि इस अवधि के सबसे विशिष्ट मिट्टी के बर्तन-चित्रीत धूसर मृदभांड़ को माना जाता है। कटोरों और बर्तनां को अनुष्ठानों के लिए, या खाने के लिए या दोनों के लिए भी उच्च वर्गों द्वारा इस्तेमाल किया गया होगा। कांच सामग्री और चूड़ीयाँ पाई गइंर् जो शायद कुछ व्यक्तियों द्वारा प्रतिष्ठा के लिए इस्तेमाल किया गया हो सकता है। कुल मिलाकर वैदिक ग्रंथों और खुदाई के अवशेषों से विशेष शिल्पकला का संकेत मिलता है। गहनों के कारीगरों का भी वर्णन है व ये संभवतः समाज के अमीर वर्गों को प्रतिबिंबित करता है।
कृषि और विभिन्न शिल्प कलाआें द्वारा वैदिक लोग एक अच्छा व स्थिर जीवन व्यतीत करने मे सक्षम थे। खुदाई और अन्वेषणों से हमें वैदिक काल के जनजीवन के बारे में कुछ संकेत मिले हैं। बड़े पैमाने पर चित्रीत धूसर मृदभांड़ न केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली के स्थलों से मिले, जो कुरु-पांचाल क्षेत्र था, बल्कि पंजाब और हरियाणा से भी मिले जो कि मद्र क्षेत्र था व राजस्थान के मत्स्य क्षेत्र से भी पाए गए। कुल मिलाकर हमें ज्यादातर गंगा के ऊपरी छोर से संबंधित लगभग 700 स्थल मिल पाए हैं। हस्तिनापुर, अतरंजीपुरा और नोह में केवल कुछ स्थलों की खुदाई की गई है। बस्ती की सामग्री के अवशेष की मोटाई एक मीटर से तीन मीटर के बीच है, जिससे लगता है कि यह काल एक से तीन सदियों तक चला। ये किसी भी तत्काल पूर्ववर्तियों से भिन्न पूरी तरह से नए समूह लगते हैं। ये लोग मिट्टी के घरों में रहते थे, जो लकड़ी के खंभां पर टिके थे (लीपापोती करके दीवारों से बने थे)। संरचनाओं से प्रतीत है, कि ये लोग कृषि-निर्भर व बसे हुए थे। इन स्थलों से बरामद अनाज (चावल) के कारण ये वैदिक लोगों की भांति प्रतीत होते हैं। उन्हांने लकड़ी के फाल के साथ खेती की लेकिन किसान इस कारण अन्य व्यवसायों में लगे हुए लोगों हेतु भोजन के लिए पर्याप्त उत्पादन नहीं कर सके, इसलिए ये शहरों की वृद्धि करने मे ज्यादा योगदान नहीं दे सके।
वैदिक काल के अंत मे नगर शब्द की उत्पत्ति हुई, किंतु हमें शहरों/नगरों के कुछ हल्के चिन्ह ही इस युग में दिखाई देते हैं। हस्तिनापुर और इलाहबाद के समीप कौशम्बी सबसे पहले आदि ‘नगर‘ दिखते हैं। इन्हे आद्य-शहरी स्थल कहा जा सकता है। समुद्र और उसकी यात्राओं का भी वर्णन है, जो शिल्प व कला से संबंधित वाणिज्य को इंगित करता है।
कुल मिलाकर, पश्चात्कालीन वैदिक काल भौतिकवादी प्रगति का युग था। कृषि की प्रधानता थी व लोगों का जीवन एक ज़गह बसा हुआ व स्थिर था। ये लोग अपनी शिल्प व कला के साथ गंगा के उपरी छोर पर हमेशा के लिए बस गए। आमजन राजा, प्रमुख व पुरोहितों के लिए अपने कृषि उत्पादन में से एक हिस्सा दे पाते थे।
5.2 राजनीतिक संगठन
पश्चात्कालीन वैदिक काल में लोकप्रिय विधानसभाओं ने महत्व खो दिया और शाही सत्ता के महत्व में वृद्धि हुई। सभा और समिति का दौर जारी रहा लेकिन उनके चरित्र बदल गए। वहां प्रमुखों और अमीर रईसों का बोलबाला हो गया। महिलाआें को अब सभा मे बैठने के लिए अनुमति नही थी, वहां अब रईसों और ब्राह्मणां का वर्चस्व था।
व्यापक राज्यों के गठन से राजा और अधिक शक्तिशाली बन गए। जनजातियां अब उनके अधिकार क्षेत्र में थे। राजाआें ने जनजातियों पर शासन किया। शुरुआत में प्रत्येक क्षेत्र पहले वहाँ बसी जनजाति के नाम से जाने गए, लेकिन अंत में यह प्रादेशिक बन गए। जैसे पहले लोगों के नाम पांचाल थे और फिर ये क्षेत्र का नाम बना, फिर ये क्षेत्र के नाम राष्ट्र के नाम बन गये, ऐसा इस अवधि से प्रकट होता है।
राजा के चुनावां के निशान वैदिक ग्रंथों में दिखाई देते हैं। जो शारीरिक और अन्य गुणों में सबसे अच्छा माना जाता था, वह राजा चुना जाता था। उसे आमजनों से (विश से) स्वैच्छिक उपहार अर्थात् ‘‘बलि‘‘ मिलते थे। किंतु राजा ने ‘‘उपहार पाने का अधिकार‘‘ बनाए रखने हेतु उसे परिवार में वंशानुगत बनाने का प्रयास किया। उसका पद ज्येष्ठ पुत्र को ही मिलता था। हालांकि यह उत्तराधिकार हमेशा आसान नहीं था। महाभारत में युधिष्ठिर के छोटे भाई दुर्योधन ने सत्ता छीन ली थी। क्षेत्र की खातिर पांडवों और कौरवों के परिवारों मे द्वंद हुआ, जो कि भाई थे पर एक दूसरे को नष्ट कर बैठे। यह युद्ध बताता है कि राजा का कोई भाई-बंधु नहीं होता।
राजा का प्रभाव अनुष्ठानों से मजबूत बनता था। राजा द्वारा राजसूय, अश्वमेघ यज्ञ, वाजपई, शाही रथ, घोड़े की निर्बाध दौड़ होती थी। जिसमे आमजन शाही रथ को जीतने की कोशिश करते थे। ये सभी रस्में राजा द्वारा अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा के साथ लोगों को प्रभावित करने के लिए की जाती थी।
कर और अनुष्ठान इस अवधि मे आम थे व संग्रही नामक एक अधिकारी द्वारा वसूले जाते थे। बड़े पैमाने पर सभी वर्गों को बहुमुल्य वस्तुआें का वितरण किया जाता था। अपने कर्तव्यों के निर्वहन में राजा को पुजारी, मुख्यमंत्री, प्रमुख रानी और कुछ अन्य उच्च पदाधिकारियों द्वारा सहायता प्रदान की जाती थी। निचले स्तर पर, प्रशासन संभवतः प्रमुख गुटों के प्रमुखों द्वारा नियंत्रित किया गया हो सकता है। गांव के मामले जनजातिय विधानसभाओं द्वारा निपटाए जाते थे। युद्ध में सफलता के लिए एक अनुष्ठान के अनुसार राजा एक ही थाली मे अपनी प्रजा के साथ खाना खाते थे।
5.3 सामाजिक संगठन
पश्चातकालीन वैदिक समाज को चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बांटा गया। बाद में ब्राह्मणां की शक्ति में बलिदान प्रथा के बढ़ते चलन से इजाफा हुआ। शुरुआत में ब्राह्मण पुजारियों के सोलह वर्ग थे किंतु वे धीरे-धीरे अन्य समूहों पर भारी पड़ रहे थे, और अंततः सबसे महत्वपूर्ण वर्ग के रूप में उभरे। वे अपने शासकां और खुद के लिए रस्में और अनुष्ठान का आयोजन और कृषि कार्यों के साथ जुड़े समारोहों में मौजूद रहते थे। वे युद्ध में उनके संरक्षक की सफलता के लिए प्रार्थना करते थे और बदले में राजा उन्हें कोई नुकसान नहीं करने के लिए वचन देते थे। कभी कभी रईस योद्धाओं का पदों के लिए ब्राह्मणों के साथ भी संघर्ष होता था। वैदिक काल के अंत मे दो समाजां ने बाकी पर शासन करने के लिए आपस मे सहयोग किया, और इस पर बल दिया जाने लगा।
वैश्य आम जन थे, और इन लोगों को कारीगरी, कृषि, पशु प्रजनन, उत्पादन आदि कार्य करने के लिए गठित किया गया। वैदिक काल के अंत में वे व्यापार में संलग्न हो गए। वैदिक काल में वैश्य अकेले ही कर या ‘धन्यवाद -उपहार, अदा करते थे, और क्षत्रिय इन उपहारों को इकट्ठा कर उनपर जीते थे। कबीले के बहुतायत प्रतिशत लोगों को उपहार/कर देने वाली जनता बनाने की प्रक्रिया लंबी थी। कई एैसे संस्कार/रस्में मिलती हैं जिनकी मदद से वैश्यों को राजनों के प्रति झुकाया जाता था। यह कार्य पुजारी करते थे। तीनों ‘उच्च‘ वर्णों को उपनयन संस्कार की पात्रता थी। इस पवित्र धागे के साथ की गई प्रक्रिया को “उपनयन“ संस्कार कहा गया, जो पुजारियों की मदद से होती थी। शूद्रां के साथ भेद-भाव बढ़ने लगा था। क्योंकि वे इस संस्कार के योग्य नहीं माने जाते थे।
राजा, सभी तीन अन्य वर्णों पर अपने अधिकारों का प्रयोग करते थे। पश्चातकालीन वेद जैसे ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, राजा-राज्य करने के लिए, ब्राह्मण-पाठ करने के लिए व उपहार का एक स्वीकर्ता, वैश्य-आजीविका के साधक के रूप में, और सबसे खराब स्थिति शूद्रों के लिए आरक्षित थी कि वे अत्याचार सहने के लिए है व सेवक, कहे गए।
ततपश्चात् वैदिक ग्रंथों में शूद्रों के लिए तीनों वर्णों से पृथक एक सीमारेखा खींच दी गई। शूद्रों को संभवतः मूल आर्य जनजाति का वंशज मानकर उन्हें राजा के राज्याभिषेक के साथ जुड़े कई सार्वजनिक अनुष्ठानों से जोड़े रखा गया। रथकार इन समारोहों में जाने के हकदार थे। वैदिक काल में वर्ण भेद बहुत दूर तक नहीं पहुंचा था।
परिवारों में पिता की शक्ति बढ़ती गई और वह पुत्र को भी बेदखल कर सकता था। राजसी परिवारों में ज्येष्ठाधिकार प्रबल था। पुरुष पूर्वजों को पूजा जाने लगा। महिलाओं को आमतौर पर एक कमतर स्थान दिया गया। कुछ महिला धर्मशास्त्री दार्शनिक चर्चा में आगे रहीं और कुछ रानियां राज्याभिषेक अनुष्ठान में भाग ले पाइंर्, पर आमतौर पर महिलाओं को पुरुषों ने नीचा ही दिखाया।
गोत्र की संस्था पश्चातकालीन वैदिक काल में दिखाई दी। यह शब्द गाय से संबंधित है (गोशाला), लेकिन समय बीतने के साथ यह एक ही पूर्वज के वंश का द्योतक बन गया। लोग बहिर्विवाह करने लगे। समान गोत्र मे सब एक ही वंश से संबंध रखने वाले व्यक्ति होते हैं, ऐसा कहा गया और इसलिए ऐसा विवाह नहीं हो सकते थे
पश्चात्कालीन वैदिक काल में जीवन के चार आश्रम स्थापित किये गये। ब्रह्मचारी या छात्र, गृहस्थ, वानप्रस्थ अर्थात् वन में रहने वाला, और साधु या सन्यासी। केवल पहले तीन का ही पश्चात्कालीन वैदिक ग्रंथों में उल्लेख है हालांकि चौथे चरण जिसमें सांसारिक जीवन का त्याग होता है, वह सबको पता तो था। वैदिक काल में केवल गृहस्थ आश्रम को ही आमतौर पर सभी वर्णों द्वारा अपनाया गया।
6.0 देवता,अनुष्ठानऔरदर्शन
पश्चात्कालीन वैदिक काल में ऊपरी छोर में ब्राह्मणवादी प्रभाव में आर्य संस्कृति के उद्गम स्थल का विकास हुआ। पूरे वैदिक साहित्य को कुरु-पांचाल के इस क्षेत्र में संकलित किया गया, लगता है। इस हेतु बली प्रथा केंद्रीय थी, व सूत्र एवं रस्में भी।
अब दो महान् ऋग्वैदिक देवताओं, इंद्र और अग्नि ने अपना पूर्व का महत्व खो दिया। दूसरी ओर प्रजापति (निर्माता) वैदिक काल मे सब देवताओं में सर्वोच्च स्थान पर माने जाने लगे। ऋग्वैदिक काल के अन्य छोटे देवता जैसे - रुद्र, जो पशुओं के देवता थे, महत्वपूर्ण बन गये और विष्णु की विश्व के रक्षक के रूप में कल्पना की गई। इसके अलावा, कुछ वस्तुओं को दिव्यता के प्रतीक के रूप में पूजा जाने लगा। ऋग्वैद में मूर्तिपूजा के लक्षण पश्चात्कालीन वैदिक काल में दिखाई देते हैं। समाज क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र के रूप में सामाजिक वर्गों में विभाजित हो गया। सामाजिक व्यवस्था के अनुसार लोगों ने अपने ही देवता मान लिए थे। पुशान-जो वैदिक सौर्य देव थे व आदित्यों मे। एक थे-जो कि मवेशियों का ध्यान रखते थे, अब शूद्रों के भगवान बन गये जबकि ऋग्वेदिक युग में मवेशी पालना तो आर्यों का मूल कार्य था।
इस समय में लोग अपनी उन्हीं जरूरतों के कारण देवताओं की पूजा करते थे जैसे कि पहले के युग में। हालांकि बाद में पूजा की प्रक्रिया काफी बदल गई। प्रार्थनाएं जारी रहीं। बलिदान कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गये और ये जनता और शासक दोनों द्वारा किये गए। इस अवधि में वैदिक लोगों ने अनुष्ठानों का अपने जीवन में पालन किया और नियमित रूप से घरों में निजी बलि प्रथा को बनाए रखा। व्यक्तियों द्वारा अग्नि का आह्वान होता था और उसमें आहुति दी जाती थी।
बलिदान में एक बड़े पैमाने पर पशुओं की हत्या होती थी, और पशु धन का काफी विनाश हुआ। इस प्रथा में मेहमान को “घेघना“ के रूप में जाना जाता था, अर्थात् जो मवेशी पर जीता था।
बलिदान में ब्राहमणां द्वारा ध्यान, यज्ञ व श्लोकों को सम्मिलित किया जाता था। इन बलिदानों की सफलता सही ढ़ंग से बोले गए शब्दों की जादुई शक्ति पर निर्भर थी। वैदिक आर्यों द्वारा प्रदर्शित कुछ रस्में अर्ध-यूरोपीय लोगों के समान थीं, लेकिन कई रस्मों को भारतीय भूमि पर विकसित किया गया, लगता है। यज्ञ करवाने वाले को यजमान कहते थे।
ये सूक्त और बलिदान ब्राह्मणां द्वारा रचे गए और ब्राह्मण पुरोहितां ने ज्ञान और विशेषज्ञता के एकाधिकार का दावा किया ब्राह्मणों ने बड़ी संख्या में रस्मों की रचना की, जिनमें से कुछ गैर-आर्यों से लिए गये थे। हालांकि अनुष्ठानों के आविष्कार और विस्तार के लिए कारण स्पष्ट नहीं है हालांकि पैसा/धन कारण रहा हो सकता है। 2,40,000 गायें एक धार्मिक प्रथा के तहत् एक स्थानापन्न पुजारी को दक्षिणा या उपहार के रूप में दी गई थीं, ऐसी भी किवदंति है।
आमतौर पर गायां के अलावा जो बलिदान प्रथा को उपहार स्वरूप दी जाती थीं, उपहार में सोना, वस्त्र और घोड़े भी दिए जाते थे। कभी कभी पुरोहित दक्षिणा के रूप में प्रदेश के कुछ भागों की मांग करते थे, लेकिन दक्षिणा के रूप में भूमि के अनुदान की प्रथा वैदिक काल में नहीं थी। यहां एक संदर्भ हैः शतपथ ब्राह्मण बताता है कि अश्वमेघ में पुजारी को उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम सभी दे देना चाहिए। फिर राजा के पास क्या बचता? यह बताता है कि शायद पुजारी दक्षिणा के रूप में जितना संभव भूमि हड़पने की इच्छा रखता था। तत्पश्चात् पुजारियों को भूमि का स्थानांतरण या हस्तांतरण स्थगित कर दिया गया।
अनुष्ठानों के खिलाफ व पुरोहित वर्चस्व के खिलाफ एक मजबूत प्रतिक्रिया शुरू हुई जिसमें दार्शनिक ग्रंथों व अनुष्ठानों की आलोचना की गई और सत्य, विश्वास और ज्ञान के मूल्य पर बल दिया गया। एैसा वैदिक काल के अंत में लगभग 600 ई.पू. में पांचाल व वैदेह भूमि पर हुआ। उपनिषद बनाए गये। अर्थात् स्वयं या आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर लिया जाना चाहिए और ब्राह्मण (अविभाजित ब्रह्मांडीय ऊर्जा) के साथ आत्मन का संबंध ठीक से समझ में आ जाना चाहिए, पर बल दिया। ब्रह्मा, उस अवधि के शक्तिशाली राजाओं के समतुल्य सर्वोच्च संस्था के रूप में उभरे। पांचाल, विदेहा और क्षत्रिय राजकुमारां ने भी इस सोच का साथ दिया और पुजारी बहुल धर्म के सुधार के लिए माहौल बनाया।
उन्हांने शिक्षण स्थिरता और एकीकरण के कारण को बढ़ावा दिया। अपरिवर्तिता, अविनाशिता और ‘आत्मन‘ या आत्मा की अमरता पर ज़ोर क्षत्रिय राजा की अध्यक्षता में बढ़ती राज्य सत्ता के लिए जरूरी था। ब्रह्मा के साथ आत्मन के संबंध पर जोर ने उच्चाधिकारी के प्रति निष्ठा को बढ़ाया।
पश्चात्कालीन वैदिक काल में बहुत परिवर्तन हुए। जनजातियां का शासन रहा व राज्यों के लिए संघर्ष हुए। इसमें महाभारत काल का पांडव व कौरवों का संघर्ष हुआ। यह कृषि काल बन चुका था। पहले का पशुचारण समाज अब कृषि समाज था। चार सामाजिक वर्ग अब भी विद्यमान थे, जिनमें-क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, व शूद्र थे। प्रधान अपनी तरक्की किसानों के दम पर कर रहे थे, एवं वे जनसाधारण (‘‘वैश्य‘‘) के विरूद्ध उन्हें सहयोग प्रदान करने वाले पुजारी वर्ग को जबर्दस्त ईनाम देने लगे। शूद्र अब भी एक छोटे सेवक वर्ग के सदस्य थे। लेकिन वर्णभेद का लाभ अनंत नहीं था। ‘‘राजन‘‘ व ‘‘क्षत्रिय‘‘ वर्ण व्यवस्था के दम पर ‘‘राज्य‘‘ न बना सके। राज्य के सफल संचालन के लिए कर, सेना आदि से संबंधित कार्य महत्वपूर्ण होते हैं। लेकिन केवल कृषि पर टिकी व्यवस्था इतना कर नहीं इकट्ठा कर पाती थी।
COMMENTS