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भारतीय दार्शनिक पद्धतियां भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
वेद विश्व के प्राचीनतम धर्म ग्रंथ हैं। भारतीय दार्शनिक पद्धतियां इस प्रकार विभाजित हैं कि क्या वे वेदों की सर्वोच्चता को स्वीकारते हैं या नहीं। इस प्रकार हमारे पास भारतीय दर्शन के भीतर दो समूह हैंः
- परम्परागत पद्धतियां
- अपरम्परागत पद्धतियां
परम्परागत पद्धतियांः इनमें वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व-मिमांसा, और उत्तर-मिमांसा शामिल हैं।
अपरम्परागत पद्धतियांः इनमें चर्वाक दर्शन, जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन शामिल हैं।
अक्सर, पूर्व मिमांसा को केवल ‘‘मिमांसा‘‘ कहा जाता है और उत्तर-मिमांसा को ‘‘वेदान्त‘‘ कहा जाता है।
परम्परागत पद्धतियों में वेदों की सर्वोच्चता स्वीकारी गई है। अपरम्परागत पद्धतियों में वेदों की सर्वोच्चता को नकारा गया है। यदि सच कहें तो, वैशेषिक, न्याय, सांख्य और योग दर्शन न तो परम्परागत है और न ही अपरम्परागत। इन चारों पद्धतियों में, न तो वेदों को स्वीकार किया गया है और न ही नकारा गया है।
परम्परागत पद्धतियाँ निम्नानुसार युग्म बनाती हैंः
न्याय-वैशेषिक, योग-सांख्य, मिमांसा-वेदान्त। प्रत्येक युग्म में पहली पद्धति प्रायोगिक अभ्यास पक्ष से सम्बंधित है तो दूसरी पद्धति सैद्धांतिक पक्ष पर जोर देती है।
कई बार, यह निर्धारित करना कठिन होता है कि इन पद्धतियों के जनक कौन थे। तब भी, निम्न लोगों को विस्तृत रूप से उपरोक्त पद्धतियों का निष्पादक स्वीकार किया गया हैः गौतम को न्याय दर्शन का, कनाड़ को वैशेषिक दर्शन का, पातंजली को योग दर्शन का, कपिलमुनि को सांख्य दर्शन का, जैमिनी को पूर्व-मिमांसा का, व शंकर को उत्तर-मीमांसा का जनक माना गया है।
चर्वाक दर्शन का निष्पादक ऋषि चर्वाक को माना गया है। वर्धमान महावीर को जैन धर्म का संस्थापक और गौतम बुद्ध को बौद्ध धर्म का संस्थापक स्वीकारा गया है।
2.0 न्याय और वैशेषिक दर्शन
भारतीय दर्शन की वैशेषिक धारा वैशेषिक सूत्र पर आधारित है जिसकी रचना ऋषि कनाड़ ने की थी, और इस पर पांचवीं शताब्दी ई.पू प्रशस्तपद ने अपनी टीका लिखी थी। इसके कुछ समय पश्चात ही न्यायदर्शन सामने आया जो ऋषि गौतम के द्वारा रचित न्यायसूत्र पर आधारित है, जो अक्षपद के नाम से भी जाना जाता है; इस पर चौथी शताब्दी ई.पू. वात्स्यायन ने टिप्पणीयां लिखी थी।
वैशेषिक और न्यायदर्शन में कई बातें समान हैं। वैशेषिक उन तत्वों पर जोर देता है जिनका अस्तित्व है; न्याय उन तत्वों पर जोर देता है जो तत्वों को समझने और उनके अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए आवश्यक है। जहां सांख्य योग में 25 प्रकार की ज्ञात तत्वों पर जोर देता है वहीं वैशेषिक 6 प्रकार के पदार्थ और न्याय दर्शन में 16 प्रकार के पदार्थो पर जोर दिया गया है।
शब्द ‘वैशेषिक‘ का स्वयं अर्थ है ‘पदार्थ का एक प्रकार‘। वर्गीकरण की प्रत्येक इकाई के लिए सही शब्द क्या है इसके बारे में एक निश्चितता है। इस प्रकार, सभी इकाइयां एक कार्य करती हैं, यद्यपि उनमें से कुछ स्थित प्रज्ञ, अप्रभावित घटनाएं भी हैं। उन सभी का स्वतः अस्तित्व है, इन अर्थों में कि वे अस्तित्व के लिए किसी दूसरी घटना या पदार्थ पर निर्भर नहीं करते, यद्यपि वे विलगित होकर अस्तित्व में रह भी नहीं सकते। कुछ निश्चित प्रकार के पदार्थ दूसरे पदार्थों की मदद करते हैं जैसे कि गुणधर्म, और उनके अंतर्सबंधों के लिए वे कारण का कारक बनते हैं।
वैशेषिक दर्शन के लिए, सात प्रकार के पदार्थ निम्नानुसार हैः
- द्रव्य - मूल वस्तुएं
- गुण
- कर्म
- सामान्य
- विशेषता
- समावय
- अभाव
न्यायदर्शन के लिए 16 प्रकार के पदार्थ हैंः
- प्रमाण - वस्तु को समझने के तरीके
- प्रमेय - समझने योग्य पदार्थ
- संशय
- प्रायोजन - उद्देश्य
- दृष्टांत - प्रमाण के लिए उपयोगी उदाहरण
- सिद्धांत - स्थापित निष्कर्ष
- अव्यय
- तर्क - परिकल्पना का विशलेषण
- निर्णय - तार्किक विवाद में निर्णायक स्थिति
- वाद - सत्य को खोजने के लिए किया गया वार्तालाप
- जल्प - रचनात्मक या विध्ंवसनात्मक तर्क जिसका उद्देश्य केवल जीत होता है
- वितण्ड - विध्ंवसनात्मक तर्क
- हेत्वभाषा
- छल
- जाति - संदेहास्पद विरोध
- निग्रहस्थान - वह बिंदु जिसके प्रमाण के लिए तर्क किया जा सके।
9 प्रकार के आधारभूत तत्व
नौ प्रकार के आधारभूत तत्व स्वीकार किये गये हैं। यह तत्व गुण और क्रिया के लिए आधार उपलब्ध कराते हैं तथा इन गुणों और क्रियाओं से ये विभिन्न प्रकार से संबंधित होते है, उसी प्रकार जैसे दो गेंदें किसी लकड़ी के द्वारा आपस में जुड़ी होती हैं।
- पृथ्वी
- जल (अप)
- अग्नि (तेजस)
- वायु। इन चार तत्वों को परमाणु अर्थात् शास्वत तत्व स्वीकार किया गया है। एकल तत्व के रूप में समय और स्थान के सापेक्ष इनका अस्तित्व नहीं है।
- आकाश। आकाश पर्दाथहीन, अनंत, सीमा रहीत और परमाणु से युक्त नहीं है।
- समय (काल)
- स्थान। (दिक) समय और स्थान सीमा रहित तत्व हैं किंतु इन्हें नापा जा सकता है।
- आत्मा। आत्मा संख्या में गुणात्मक हो सकती है, तथा प्रत्येक आत्मा सीमा रहित और अनंत होती है। स्वयं में वें अचेतन होती है।
- भौतिक मन अर्थात् बुद्धि का भौतिक पक्ष
चौबीस गुण ऐसे हैं जो आधारभूत तत्वों के विशिष्ट गुण माने गये हैं। प्रत्येक गुण किसी न किसी आधारभूत तत्व से संबंधित है। इनमें से किसी का भी अस्तित्व स्वतंत्र नहीं हो सकता।
आत्मा और उसके नौ आधारभूत गुण-धर्म
नौ गुण, जो सामूहिक रूप से व्यक्ति या आत्मा से संबंधित होते हैं, वे हैं
- इंद्रीय चेतना
- सुख
- दुःख
- इच्छा
- द्वेष
- प्रयास
- आदत
- धर्म
- अधर्म
आत्मा की परिभाषा सभी दर्शनों में एक बड़ी बहस का विषय है। यह अभौतिक है और शरीर, इन्द्रियों और मन से भिन्न है। उपरोल्लिखित 9 गुण आत्मा में विद्यमान नहीं होते परंतु वे उसके द्वारा अनुभव किये जाते हैं। यह अनुभूति मुक्ति (मोक्ष) का निर्माण करती है।
क्योंकि, इसके मूलभूत गुणधर्म के अनुसार, आत्मा के पास चैतन्य का गुण नहीं होता है, यह बाह्य पदार्थो को केवल बुद्धि के भौतिक पक्ष अर्थात् मन के द्वारा जानता है, जो कि भौतिक जगत की चेतन अवस्था है। इस प्रकार आत्मा मन से भिन्न पदार्थ है। साथ ही कर्म से भी भिन्न तत्व हैः यद्यपि परंपरागत रूप से आत्मा ही सुख, दुख और कर्म का केन्द्र होता है।
आत्माओं की संख्या बहुआयामी है, व प्रत्येक अभाज्य, शाश्वत तथा किसी भी तत्व से अप्रभावित होती है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा चैतन्य होती है जबकि न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा सूक्ष्म कणों से मिलकर बनी होती है। यद्यपि न्याय दर्शन कहता है कि आत्मा जिसके सामूहिक सबंध या असबंध मन के साथ हो सकते हैं, तथापि न्याय स्वीकार करता है कि सामान्यतः प्रत्येक आत्मा चैतन्य और सर्वव्यापी होती है।
एक आध्यात्मिक मार्ग का उद्देश्य अपरिग्रह (पूर्ण अनासक्ति) की स्थिति को प्राप्त काना है। इसे प्राप्त करने के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि इसे स्वीकार कर तथा इसकी प्रकृति को जानकर कि आत्मा के नौ गुणधर्म नहीं होते हैं तथा यह चैतन्य या कर्म से स्थायी रूप से सम्बंधित भी नहीं होती है। इस स्थिति में आत्मा अभिज्ञता के बिना होती है अतः उसे न तो आनंद और न ही कष्ट का अनुभव होता है। पूर्ण मुक्ति का मार्ग केवल आत्मा को जानकर प्राप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिए नैतिक अभ्यास जैसे उपवास, त्याग और ब्रह्मचर्य तथा आध्यात्मिकता की आवश्यकता होती है। यह करने हेतु अपने आध्यात्मिक गुरू के यहां रहना आवश्यक होता है।
एक ओर जहां जीवात्मन् का अस्तित्व होता है वहीं सर्वोच्च, सर्वव्यापी, शाश्वत, स्थित-प्रज्ञ और अद्वितीय परमात्मा का भी अस्तित्व होता है जो की इस बह्मण्ड के रचयिता ईश्वर (शिव) हैं। यद्यपि ईश्वर का उल्लेख कनड और गौतम द्वारा रचित दो प्राचीनतम ग्रंथों में नहीं है, किंतु प्रशस्तपाद और वात्स्यायन द्वारा रचित उनकी टिप्पणीयों में इस पर चर्चा की गई है। न्याय और वैशेषिक के अनुसार जो कुछ भी इस बह्मण्ड में घटित होता है उसका स्त्रोत ईश्वर की इच्छा है।
पांच प्रकार के कर्म हैंः
- उन्नयन (उपर उठना)
- अधोगति (नीचे गिरना)
- संकुचन
- विस्तार
- प्रस्थान
2.1 सार्वभौमिक
एक वस्तु के रूप में प्रकट होने वाले हमारे अवधारणात्मक ज्ञान को वर्ग या सार्वभौमिकता कहते हैं। उन्हें व्यक्तिगत तौर पर ज्ञान के आधार पर, विशिष्ट पदार्थ मानकर समझा जा सकता है। सार्वभौम किसी विशिष्ट पदार्थ में निहित नहीं होते हैं बल्कि, विशिष्ट पदार्थ इन सार्वभौमिक श्रेणियों के संकेतक या व्यंजक होते हैं।
ये वर्ग दो प्रकार के होते हैंः
- सर्वसर्वागत ही सर्वव्यापी वर्ग है। इसका आशय है उद्देश्यपूर्ण अस्तित्व। सात प्रकार के पदार्थों में वैशेशिका के अनुसार सर्वसर्वागत केवल तत्व, गुण और क्रिया में उपस्थित होता है। यह विशिष्ट पदार्थां या वंशानुगत संबंधों में नहीं होता है। इन सात तत्वों का दो हिस्सों में विभाजन उसी प्रकार है जिस प्रकार बौद्ध ग्रंथ सूत्र टीका में पदार्थ और पराभौतिक तत्वों का विभाजन किया गया है। न्याय वैशेषिक और सूत्र टीका दोनों में ही दोनों ही प्रकार की घटनाओं का अस्तित्व रहता है, यद्यपि केवल पहला समूह ‘‘वास्तविक‘‘ होता है।
- व्यक्ति सर्वगत (विशिष्ट वर्ग) केवल कुछ तत्वों पर लागू होती है, उदाहरणार्थ ‘‘मेज‘‘ की श्रेणी सभी प्रकार की मेजों पर लागू होता है। विशेषता या विशिष्टता वे हैं जो उपरी तौर पर समान वस्तुओं की आंतरिक भिन्न तत्व की समझ के संबंध में है, या तो वह वस्तु स्थूल रूप में मौजूद हो जैसे (गुलदस्ता एवं एक स्तंभ)।
पांच प्रकार के संबंध अंतरर्निहित, अपरिहार्य निम्न के बीच संबंध होते हैंः
- आत्मा से परे आधारभूत तत्व और गुण
- आत्मा से परे आधारभूत तत्व और क्रिया
- विशिष्ट पदार्थ और जाति
- अंतिम तत्व (भूमि, जल, अग्नि, वायु, और मन) और विशिष्ट तत्व जो उनसे मिलकर बनते हैं
- पूर्ण और इसके अंश, जैसे कि शरीर और इसके अंग, या पर्थात कारण व उनके उत्पाद जैसे मिट्टी व उससे बने घड़े
अ-अस्तित्व के चार प्रकार होते हैंः
- प्रगभाव - उदाहरण के लिए किसी बर्तन का अ-अस्तित्व इसके निर्माण से पूर्व
- प्रदवम्सभाव - उदाहरण के लिए किसी बर्तन का अ-अस्तित्व इसके विनाश के पश्चात
- अन्योन्यभाव - उदाहरण के लिए किसी बर्तन का कोई खंबा ना होना
- अत्यंतभाव - इसका आशय है परम अस्तित्वहीनता, उदाहरण के लिए कोई वस्तु जो कि न तो अस्तित्व में थी न है, न ही रहेगी।
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