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आर्य और वैदिक सभ्यता भाग - 1
1.0 परिचय
भारतीय उप-महाद्वीप के लोगों द्वारा हमेशा अनुमान लगाया जाता रहा है कि वे कौनसी घटनाएं रहीं होंगी जो हज़ारों वर्ष पूर्व घटित हुईं व जिनसे जिन्हें ‘आर्य‘ कहा गया, वे इस क्षेत्र पर स्वयं को स्थापित कर पाए होंगे।
आर्य वे भाषा बोलते थे, जो आज यूरोप, ईरान और भारतीय उपमहाद्वीप कई भागां में पाई जाती हैं। मूलतः आर्य मैदानी (घास के विशाल मैदान), में रहते थे जो कि मध्य एशिया से दक्षिणी रूस तक फैला था। बकरी, कुत्ते, घोड़े आदि, और कुछ वृक्षां के नाम जैसे-पाइन, मेपल आदि सभी भारत और यूरोपीय भाषाओं में मिलते-जुलते पाए गए हैं। ये आम शब्द यूरेशिया के वनस्पति व जीवां का संकेत देते हैं। आर्य नदियों और जंगलों से परिचित थे। आर्यों द्वारा पहाड़ों को पार किया गया हालांकि पहाड़ों के लिए केवल कुछ ही संयुक्त रूप से प्रचलित आर्य भाषाई शब्द ही पाए गए। आर्य संस्कृति में मुख्य रूप से पशुचारण जीवन की झलक मिली जबकि कृषि को इतना महत्व नहीं दिया। आर्यों ने कोई ठोस सामग्री या अवशेष पीछे नहीं छोड़े हैं। आर्यों ने कई जानवरों का उपयोग किया और घोड़ां ने उनके जीवन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। घोड़ों की फुर्ती द्वारा 2000 ईसा पूर्व में उन्हें पश्चिम एशिया में सफल घुसपैठ में मदद मिली।
2.0 वास्तविक घर और पहचान
भारत के पथ पर आर्य प्रथम बार वहां नज़र आए जहां एक लंबे समय तक भारतीय-ईरानी रहते थे। हमें ऋग्वेद से भारत में आर्यों के बारे में ज्ञान मिला है जिसमें यूरोपीय भाषाओं की झलक है व जिसमें प्रार्थना का एक संग्रह है। इसमे कवि या संतों के विभिन्न परिवारों द्वारा अग्नि, इंद्र, मित्रा, वरुण और अन्य देवताआ का आह्वान है। इसमें दस पुस्तकों या मंडलों का संग्रह है, जिसमें II से VII तक की पुस्तकें सबसे प्राचीन, एवं पुस्तक I और X बाद में जोड़ी गईं लगती हैं। ऋग्वेद, ईरानी भाषा के जेंद अवेस्ता से, जो कि ईरानी भाषा का सबसे पुराना लेख है, काफी समान है। दोनो ग्रंथों में कई देवताओं और यहां तक कि सामाजिक वर्गों के लिए एक ही नाम का उपयोग हुआ है। ईरान से आर्यों की एक शाखा पश्चिम की ओर चली थी, प्रतीत होता है क्योंकि 1600 ई.पू. के इराक के कस्साईट शिलालेख में और चौदहवें सदी ई.पू. के मिट्टानि (ईराक) शिलालेख पर आर्यों का उल्लेख किया गया है।
1500 ईसा पूर्व से कुछ पहले आर्यों ने भारत में आगमन किया। इसका कोई स्पष्ट और निश्चित पुरातात्विक निशान नहीं है। संभवतः वे पीतल की कुल्हाड़ियों, खंजरां और तलवारां आदि का उपयोग करते थे, जिनकी पश्चिमी भारत में खोज की गई है। पूर्वकालीन आर्य, पूर्वी अफगानिस्तान, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किनारे तक फैले भौगोलिक क्षेत्र में रहते थे। अफगानिस्तान की कुछ नदियों जैसे “कुभा नदी“ और सिंधु नदी और उसकी पांच शाखाओं का नदियों के रूप में ऋग्वेद में उल्लेख है। सिंधु के समान, बिंधु आर्यों की खास नदी है, और उसका बार-बार उल्लेख पाया गया है।
एक और सरस्वती नदी का उल्लेख है जो राजस्थान की रेत में खो गई है, जिसका प्रतिनिधित्व क्षेत्र अब “घग्गर“ नदी से आच्छादित है। संभवतः आर्य, राजस्थान के खेतड़ी खानों से तांबा प्राप्त करते थे। भारत के जिस क्षेत्र मे पहले आर्य बसे, उस क्षेत्र को सात नदियों की भूमि कहा जाता है।
आर्य विभिन्न लहरां में भारत मे आये थे। प्रथम लहर ऋग्वेदिक लोगों का प्रतिनिधित्व करती है जो लगभग 1500 ई.पू. मे यहां पहुंची। स्वदेशी निवासियों के साथ आर्यों का संघर्ष हुआ प्रतीत होता है, जिनमे “दस्यु“ व “दास“ शामिल थे। प्राचीन ईरानी साहित्य में भी “दास“ का उल्लेख किया जाता है अतः वे पूर्वकालीन आर्यों की एक शाखा प्रतीत होते हैं। ऋग्वेद में “संबारा“ की “दिवोदासा“ नामक एक मुखिया द्वारा हार का उल्लेख है। संभवतः ऋग्वेद में “दस्यु“ देश के मूल निवासियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। आर्य प्रमुख का रवैया दासों की ओर नरम लेकिन दस्युआें के प्रति दृढ़ता से प्रतिकूल था। दस्यु शायद लिंग पूजावादी थे व दुग्ध उत्पादां के लिए पशु नहीं रखते थे। ऋग्वेद में हमें ‘‘दस्युहत्या‘‘ शब्द का उल्लेख अनेक बार मिलता है।
2.1 आदिवासी संघर्ष
हमने आर्य के दुश्मनों को भारत द्वारा दी गई कई पराजयां के बारे में सुना है हालांकि हम आर्यों के विरोधियों के हथियारों के बारे में बहुत कम जान पाए हैं। ऋग्वेद में हम “इंद्र“ का वर्णन पाते हैं जिसे “पुरंदर“ कहा जाता है, अर्थात् किलों का “विनाशक“। हम पूर्वकालीन आर्यों द्वारा बनाए किलों की पहचान नहीं कर पाये हैं। उनमें से कुछ पश्चात्कालीन हड़प्पा संस्कृतियों से हो सकते हैं। आर्यों के पास घोड़ों द्वारा चलित रथ थे जिससे आर्यों को हर जगह सफलता मिली व पश्चिम एशिया और भारत को भी उन्होंने इससे परिचित करवाया। आर्य सैनिक बेहतर हथियारों से लैस थे।
आर्य दो प्रकार के संघर्ष में लगे हुए थे - पहला पूर्वकालीन आर्यों के साथ और दूसरा, वे आपस में ही लड़े। अंतरजातीय संघर्षां ने एक लंबे समय तक आर्य समुदायों को हिलाकर रख दिया। आर्य आपस में ही लड़े और कभी कभी इस उद्देश्य के लिए गैर आर्यन लोगों का समर्थन भी लिया। ये “पंचजना“ नामक पाँच जनजातियों में विभाजित थे। “भारत“ और “त्रिस्तु“ सत्तारूढ़ आर्यकुल थे और गुरू “वशिष्ठ“ द्वारा समर्थित थे। हमारे देश भारतवर्ष का नाम अंततः ऋग्वेद में वर्णित वंश “भरत“ के नाम से नामित किया गया था। भरत सत्तारूढ़ कुल का दस जनजातीय प्रमुखों द्वारा विरोध किया गया था जिनमें आर्य वंश के पांच और शेष पांच गैर आर्य थे। भरतवंशियां व दस प्रमुखों के मेजबानों की इस लड़ाई को दस राजाओं की लड़ाई के रूप में जाना जाता है। यह लड़ाई रवी नदी की प्रतिरूपी नदी “परूश्रीरी“ पर लड़ी गई जिसमें “सुदास“ को जीत मिली और भरतवंशियों ने पुरूओं के साथ मिलकर सर्वोच्चता को स्थापित किया और कुरू के नाम से एक नये सत्तारूढ़ शासन का गठन किया। कुरूओं ने पांचालां के साथ संयुक्त रूप से गंगा के ऊपरी छोर पर शासन की स्थापना की, जिसने बाद में वैदिक काल में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
3.0 भौतिक जीवन
हम ऋग्वेदिक आर्यों की जीवन सामग्री के बारे में इतना अवश्य कह सकते हैं कि वे घोड़े, रथ और पीतल के बने संभवतः कुछ बेहतर हथियारों का प्रयोग करते थे जिनसे उन्हें भारत में सफलता मिली, िंकंतु हथियारों पुरातात्विक सबूत बहुत कम मिल पाए हैं। वे उपमहाद्वीप के पश्चिमी भाग में बसे थे। संभवतः इस्तेमाल किये गये तांबे की आपूर्ति राजस्थान के खेतड़ी की खानों से हुई होगी। ऋग्वैदिक लोगों को कृषि का भी बेहतर ज्ञान था। ऋग्वेद के शुरूआती भाग में फाल का उल्लेख है किंतु कुछ लोग इसे नहीं मानते। संभवतः फाल लकड़ी का बनाया गया था, जिसे वे बुआई, कटाई और जुताई के कार्य मे लाते थे और उन्हे अलग अलग मौसम के बारे मे भी जानकारी थी। पूर्वकालीन आर्य जो वैदिक लोगों से जुड़े क्षेत्र में रहते थे वे भी कृषि कार्य से परिचित थे।
इस सब के बावजूद, ऋग्वेद में गाय के संदर्भ में अनेकों संदर्भ पाये जाते हैं जिससे लगता है कि वे मुख्यतः पशुचारण लोग होंगे। ऋग्वेदिक आर्यों ने कई युद्ध मुख्यतः गायों की खातिर किये थे। ऋग्वेद में युद्ध का उद्देश्य गविष्ठि या गायों की खोज था। गाय को पशुधन में सबसे महत्वपूर्ण रूप में पाया गया। वे आमतौर पर देश के पुजारियों को, गाय और महिला दासियां, उपहारस्वरूप देते थे, किंतु भूमिदान नहीं दिया जाता था। ऋग्वैदिक लोग चराई; खेती और निपटान आदि के लिए भूमि का उपयोग करते थे। लेकिन-भूमि निजी संपत्ति का एक सुस्थापित प्रकार नहीं था।
ऋग्वेद मे बढ़ई, रथकार, वस्त्रकार, चर्मकार, बर्तन निर्माता आदि कारीगरों का उल्लेख मिलता है, जो इन सभी शिल्प अभ्यासां के प्रचलन को इंगित करता है। तांबा या पीतल का धातु कार्य के लिए इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन हमें व्यापार के अस्तित्व का कोई स्पष्ट सबूत नहीं मिलता है। समुद्र शब्द वेदां में मुख्य रूप से “पानी का एक संग्रह“ के अर्थ में उल्लेखित है। आर्य या वैदिक लोग, समुद्र या सागर से परिचित थे या नहीं ये संदिग्ध है। आर्य, गढ़वाले शहरों में रहते थे, पर संभवतः अभी भी पुरातत्वविदों द्वारा संतोषजनक ढंग से पहचान करने की प्रतीक्षा की जा रही है।
हाल ही में भगवानपुरा नामक हरियाणा के एक स्थल और पंजाब में तीन स्थलों की खुदाई की गई है और इन सभी मामलों में या चित्रित धूसर मृदभांड को पश्चात्कालीन हड़प्पा मिट्टी के बर्तनों के साथ पाया गया है। भगवानपुरा को लगभग 1600 ई.पू. से 1000 ई.पू. की ऋग्वेद की समकालीन अवधि का पाया जाता है। इन चारां स्थलों का भौगोलिक क्षेत्र भी ऋग्वेद द्वारा बताए क्षेत्र भाग से मेल खाता है। चित्रित धूसर मृदभांड भी इन सभी स्थलों पर पाये गये है, किंतु लोहे की वस्तुएं और अनाज अनुपस्थित रहे। इसलिए हम पूर्व लौह चरण को ऋग्वेदिक चरण के साथ का “पी जी डब्लयू“ चरण मान सकते हैं। भगवानपुरा में एक तेरह कमरों वाले मिट्टी के घर खोज की गई है, जिसमें दिलचस्प यह है कि यह कदाचित एक बड़े परिवार के लिए या मुखिया के घर होने का संकेत हो सकता है। मवेशी हड्डियां भी इन सभी स्थलों में अच्छी मात्रा में पाई गई हैं।
4.0 जनजातीय राजनीति
ऋग्वेदिक काल में आर्यों की प्रशासनिक व्यवस्था के लिए एक मुख्य व्यक्ति युद्ध में नेतृत्व करता था। केंद्र में उस मुख्य व्यक्ति को राजन बुलाया जाता था। यह ऋग्वेदिक काल में राजा का पद था जिसका आधिपत्य वंशानुगत था। इन संगठनों से लगता था की राजा, असीमित शक्ति का प्रयोग नहीं कर पाते थे क्योंकि समिति बनाकर सभाजनां द्वारा राजा के चुनाव की प्रथा का अंदेशा है। राजा को अपने वंश व प्रजा का रक्षक कहा जाता था। वह अपने मवेशियों को संरक्षित रखते थे, युद्ध लड़ते थे और देवताओं की पूजा अर्चना करते थे।
सभा, समिति, विदाचा, गण रूपी वंशो पर आधारित विधानसभाओं का ऋग्वेद में उल्लेख रहा है। इनमें सैन्य और धार्मिक कार्यों के निर्णय लिए जाते थे। यहां तक कि महिलाए भी ऋग्विदक काल में सभा और विदाचा में भाग लेती थी। लेकिन दो सबसे महत्वपूर्ण सभाएं-सभा और समिति थी। इन दो सभाआें का राजा को समर्थन पाना महत्वपूर्ण था।
नित प्रशासन में, राजा को कुछ पदाधिकारियों द्वारा सहायता प्रदान की जाती थी। सबसे महत्वपूर्ण पदाधिकारी पुरोहित होता था। ऋग्वेद के समय में प्रमुख भूमिका निभाने वाले दो पुरोहित वशिष्ठ और विश्वामित्र थे। वे कार्रवाई के लिए प्रमुखों को प्रेरित करते थे और गायों और महिला दासियां के रूप में सुंदर पुरस्कार व सराहना पाते थे। अगला महत्वपूर्ण पदाधिकारी सेनानी होता था जो तलवारें, भाले आदि हथियारां का उपयोग करते थे। हम करों के संग्रह के लिए किसी भी अधिकारी का उल्लेख नहीं पाते हैं। उपहार और युद्ध की लूट शायद कुछ वैदिक विधानसभाओं में वितरित की जाती थी, जिसें बाली कहा गया। ऋग्वेद में न्याय के प्रशासन के लिए किसी भी अधिकारी का उल्लेख नहीं है। यह एक आदर्श समाज नहीं था। वहाँ चोरी और सेंधमारी के कई मामले पाए गए और विशेष रूप से हमे गायों की चोरी के साक्ष्य मिले। जासूस, ऐसी एकांतप्रिय गतिविधियों पर नजर रखने के लिए कार्यरत थे। अधिकारियों का खिताब उस क्षेत्र के प्रशासन का संकेत नहीं है हालांकि कुछ अधिकारियों को प्रदेशों से सम्बद्ध किया गया, लगता है। जो चरागाह मैदानों और बसे गांवों में प्राधिकरण के पदों पर थे, जिन्हें वृजपाली कहा जाता था। फौज व परिवारों की रक्षा करने वाले अधिकारी को कुलापा या ग्रामणी पुकारा गया। शुरुआत में, ग्रामणी एक छोटी सी जनजातीय इकाई का रक्षक था। जो बाद मे गांव के प्रमुख बने और कालान्तर में वह वृजपाली के समान बन गया।
राजा की नियमित रूप से या स्थायी सेना नहीं होती थी, लेकिन युद्ध के समय में वह सैन्य कार्यों के लिए विभिन्न जनजातिय समूहों-व्रत, गण, ग्राम और सारधा को इकट्ठा करते थे। कुल मिलाकर यह सैन्य तत्व मजबूत था। सरकार की एक सामूहिक व्यवस्था थी। इसमें कोई नागरिक प्रणाली या प्रादेशिक प्रशासन व्यवस्था नहीं थी, क्योंकि लोग एक से दूसरे क्षेत्र में पलायन व सदा विस्तार की एक अवस्था में थे।
4.1 वंश एवं परिवार
रिश्तेदारी, सामाजिक संरचना का आधार था। ऐसा कई ऋग्वेदिक राजाओं के नाम में देखा जा सकता है, उसी के रूप में किसी व्यक्ति की उसके वंश या कुल द्वारा पहचान थी। लोग प्रथम अपने कुल के साथ प्राथमिक वफादारी निभाते थे, जिसे जन कहा गया। ऋग्वेद में लगभग 275 स्थानों पर जन को पाया गया लेकिन जनपद का एक बार भी उपयोग नहीं किया गया। क्षेत्र या राज्य अब तक स्थापित नहीं किया गया था।
ऋग्वेद में विश; शब्द का 170 बार उल्लेख किया गया है। कदाचित विश को ग्राम या लड़ाई के लिए बने छोटे समूहां की इकाई में बांटा गया था। जब ग्राम एक दूसरे से भिड़ जाते थे गए तब यह संग्राम या युद्ध होता था। वैश्य वर्ण, विश से ही निकली जाति थी।
परिवार (कुल), शब्द का ऋग्वेद में शायद ही कभी उल्लेख किया है। इसमे मां, पिता, पुत्र, गुलाम आदि के अलावा कई लोग शामिल थे। शुरूआती वैदिक चरण में परिवार को गृह कहा गया। पूर्वकालीन भारत और यूरोपीय भाषाओं में कुछ रिश्ते जैसे भतीजे, पोते, चचेरे भाई आदि के लिए एक ही शब्द का प्रयोग हुआ, जो दर्शाता है कि परिवार एक बहुत बड़ी संयुक्त इकाई था। यह रोमन समाज की भांति पिता की अध्यक्षता में एक पितृसत्तात्मक परिवार था। इसमें परिवार की कई पीढ़ीयां एक ही छत के नीचे रहती थीं। ऐसा लगता है कि यह पुरुष प्रधान समाज था, क्योंकि एक बेटे के जन्म की बार-बार चाह की गई है और विशेष रूप से लोगों ने युद्ध लड़ने के लिए बहादुर बेटों की देवताओं से प्रार्थना की थी। ऋग्वेद में कोई इच्छा, बेटियों के लिए व्यक्त नही की गई है। उनके भजनों मे पशुओं और बेटां के लिए स्थान था।
महिलाएं सभाओं में भाग ले सकती थीं। वे अपने पति के साथ बलिदान की पेशकश कर सकती थीं। इन भजनों की रचना में पांच महिलाओं का एक उदाहरण है। हम बाद में ग्रंथों में बीस ऐसी महिलाओं का उल्लेख पाते है। जाहिर है, भजन मौखिक रूप से बना है, और लिखा कुछ भी नहीं है।
विवाह की संस्था की स्थापना हुई थी। प्रेम संबंधों की स्थापना के लिए यम की जुड़वां बहन यमी द्वारा किए गए एक प्रस्ताव के बारे में सुना है। लेकिन इस प्रस्ताव का यम ने विरोध किया। हमे बहुपतित्व के भी कुछ संकेत मिले हैं। उदाहरण के लिए मारूतों के रोडसी के साथ संबंध थे और दो अश्विन भाइयों के सूर्या, जो कि सूर्य भगवान की बेटी थी, के साथ रहने का वर्णन है। लेकिन ऐसे मामले ज्यादा नही हैं। संभवतः ये मातृवंशीय प्रथा का संकेत देते हैं। इन मामलो में बेटों के नाम उनकी मां के नाम पर रखे गए। इसे ममत्य कहा गया।
ऋग्वेद की प्रथाओं में एक प्रथा है, जिसमें एक मृतक आदमी के भाई को अपने भाई की विधवा से शादी करना अनिवार्य है, व विधवा पुनर्विवाह भी है। वहाँ बाल विवाह का कोई उदाहरण नही हैं और ऋग्वेद में विवाह की आयु 16-17 पाई गई है।
4.2 सामाजिक विभाजन
ऋग्वेद में 1000-1500 ई.पू. में उत्तर पश्चिमी भारत में लोगों की भौतिक दिखावट के प्रति सामाजिक चेतना का पता चलता है। वर्ण शब्द का रंग के लिए इस्तेमाल हुआ था। आर्य रंगरूप में श्वेत वर्ण और स्वदेशी निवासी काले (श्याम वर्ण) थे, ऐसा लगता है। पहचान के लिए वर्ण एक अच्छा उपाय था, लेकिन इसके महत्व को पश्चिमी लेखकों द्वारा नस्लीय भेद में अतिरंजित कर प्रस्तुत किया गया। सामाजिक विभाजन के लिए जो कारक ज़िम्मेदार था, वो यह कि आर्यों ने स्वदेशी निवासियों पर विजय प्राप्त की थी। जिन दास और दस्युआें पर आर्यों ने विजय प्राप्त की उनके साथ गुलामों और शूद्र के रूप में व्यवहार किया जाने लगा। जनजातीय प्रमुखों का रौब और पुजारियों के दबाव के कारण स्वाभाविक रूप से जनजाति में सामाजिक असमानता पैदा हो गई। ईरान के समान, धीरे-धीरे समाज को तीन समूहों-योद्धाओं, पुजारियों और आम लोगों में विभाजित किया गया। चौथी श्रेणी शुद्रों की मानी गई, जो वैदिक काल के अंत में उपजी, जिसका ऋग्वेद की दसवीं पुस्तक में पहली बार उल्लेख किया गया जो कि इसकी नवीनतम प्रति है।
हम पुजारियों को तोहफे के रूप में दिए गए दासों के बारे में सुनते आ रहे हैं। मुख्य रूप से घरेलू प्रयोजन के लिए कार्यरत महिलाए दास थीं। ऋग्वेदिक काल में दासों को कृषि या अन्य उत्पादन गतिविधियों में सीधे इस्तेमाल नहीं किया गया, यह स्पष्ट है।
ऋग्वेदिक काल में कार्य-आधारित विभाजन प्रबल होने लगे थे, लेकिन यह बहुत तीव्र प्रक्रिया नहीं थी। इस युग मे एक परिवार का सदस्य यह कहता पाया गया कि ‘‘मैं एक कवि हूंँ, मेरे पिता संगीतज्ञ हैं व माँ मसाले पीसती है, व हम एक साथ रहते हुए विभिन्न साधनों के माध्यम से आजीविका कमाते हैं‘‘। इस काल में पशु, दास, रथ व घोडे उपहार में दिए जाते थे। युद्ध की लूट के असमान वितरण ने सामाजिक असमानताएं बनायी और आम लोगों पर प्रधान और पुजारियां की ताकत हावी रही। अर्थव्यवस्था खाद्य उत्पादन आधारित नहीं थी। लोगों से नियमित रूप से खाद्यान्न इकट्ठा करने के लिए गुंजाइश बहुत सीमित थी। भूमि उपहार का चलन नहीं था और अनाज की भेंटें भी दुर्लभ थे। घरेलू दास प्रथा थी, लेकिन वे मजदूरी अर्जक नहीं थे। समाज में जनजातीय तत्व, मजबूत थे और करों या संपत्ति का संचय या संग्रह पर आधारित विशेष प्रभाग अनुपस्थित थे। समाज अभी भी कबीलाई और काफी हद तक समतावादी था।
4.3 ऋग्वेदिक देवता
सभी लोगों को अपने परिवेश से अपने धर्म का पता चलता है। बारिश का आगमन, सूरज और चंद्रमा की उपस्थिति, नदियों एवं पहाड़ों आदि के अस्तित्व की आर्यों के लिए व्याख्या करना मुश्किल था। अतः उन्होंने इन प्राकृतिक ताकतों को प्रतीकात्मक रूप दिया और उन्हें जीवों के रूप में देखा जिन्हें उन्होंने मानवीय व पशुगुण प्रदान किये। ऋग्वेद में ऐसे देवताओं की व ऐसे भजनों की एक बड़ी संख्या है, जिनमें विभिन्न परिवारों के कवियों द्वारा प्रकृति के सम्मान में रचित भजनों का वर्णन है। ऋग्वेद में सबसे महत्वपूर्ण देवता इंद्र हैं, जिन्हें किलों का विनाशक या “पुरंदर“ कहा गया है। आर्य सैनिक व प्रमुख, इंद्र को राक्षसों के खिलाफ जीत का देवता मानते थे। 250 भजन उनके लिए समर्पित किए गए थे। उन्हें बारिश का देवता माना गया और वर्षा के लिए जिम्मेदार माना गया। दूसरे स्थान पर अग्नि देवता को 200 भजन समर्पित किए गए। वैदिक काल में अग्नि का आह्वान देवताओं और इंसानां के बीच मध्यस्थ की तरह होता था। अर्थात् अग्नि आसमान में धुएं के रूप में जाकर देवताओं को मानव द्वारा चढ़ाए गये भेंट आदि प्रेषित करती थी।
तीसरा महत्वपूर्ण स्थान, जल के देवता वरुण को दिया गया। वरुण प्राकृतिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए थे और उन्हें दुनिया की इच्छापूर्ति का प्रतिबिंब माना गया। सोम देव को पौधों का देवता माना जाता था और एक नशीला पेय उनके नाम पर बना था। ऋग्वेद मे, पौधों से इस पेय की तैयारी के लिए तरीकों की व्याख्या, जो भजनरूप में है, उसकी संतोषजनक ढंग से अब तक पहचान नहीं की गई है। मारूत, तूफान के देवता हैं। इस प्रकार ऋग्वेद में हम एक या किसी अन्य रूप में प्रकृति के विभिन्न बलों का प्रतिनिधित्व करने वाले देवताओं की एक बड़ी संख्या पाते हैं, जिनके कार्यों में मानव गतिविधियां सम्मिलित हैं।
हम कुछ देवियों जैसे अदिति व उषा के रूप की उपस्थिति भी पाते हैं, किंतु ऋग्वेद के समय में इनका इतना महत्व नहीं था। इस अवधि में पुरुष देवता, देवियों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे।
देवी देवताओं की पूजा, प्रार्थना और आह्वान व सस्वर पाठ एवं बलिदान के माध्यमों से होती थी जिसने ऋग्वेदिकाल में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सामूहिक और व्यक्तिगत प्रार्थना की जाती थी। मूल रूप से हर जाति या कबीले के एक विशेष देवता होते थे। पूरे कुल के सदस्यों द्वारा सामूहिक रूप से देवताओं की प्रार्थना होती थी। अग्नि और इंद्र देव का पूरे जनजाति (जना) द्वारा आह्वान किया जाता था व सब्जियों व जौ का प्रसाद देवताओं को चढ़ाया जाता था। ऋग्वेदिक काल में यह प्रक्रिया किसी भी अनुष्ठान या बलि के तहत नहीं थी, ना ही शब्द की जादुई शक्ति इस स्तर पर इतनी महत्वपूर्ण मानी गयी। क्यों लोगां द्वारा ऋग्वेद के समय में देवताओं की पूजा की गई थी? अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए या अस्तित्व के लिए या दुःख समाप्त करने के लिए देवताओं की पूजा नहीं करते थे। वे मुख्य रूप से प्रजा (बच्चां), पशु, भोजन, धन, स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करते थे।
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