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पानीपत की दूसरी लड़ाई और अकबर भाग - 3
9.0 धार्मिक समन्वय के प्रयास
अकबर ने शासन संभालने के बाद जो पहला काम किया वह था सर्वेक्षण कर या जिज़या की समाप्ति, जो मुस्लिम राज्य में गैर-मुस्लिमों को चुकाना पड़ता था। हालाँकि, यह कोई बहुत भारी कर नहीं था, फिर भी चूँकि यह दो शासितों के बीच भेद करता था, अतः यह पसंद नहीं किया जाता था। उसी समय, अकबर ने तीर्थयात्रा कर भी समाप्त किया, जो धार्मिक स्थलों पर, जैसे प्रयाग, बनारस, इत्यादि स्थानों पर नहाने के लिए लगाया जाता था। उसने युद्ध कैदियों को जबर्दस्ती इस्लाम धर्म में धर्मान्तरित करने की प्रथा भी समाप्त की। इसने एक ऐसे साम्राज्य की नीवं रखी, जिसमें धार्मिक आस्थाओं की परवाह किये बिना सभी नागरिकों को सामान अधिकार प्रदान किये गये।
लायक हिंदुओं को उच्च पदों पर नियुक्ति देकर साम्राज्य के उदारवादी सिद्धांतों को मजबूत करने के प्रयास किये गए। जबकि, इनमे कई राजपूत राजा थे, जिनमें से कई ने अकबर के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये, और जिनके साथ उसके व्यक्तिगत सम्बन्ध थे, कई अन्य को योग्यता के आधार पर मंसबें दी गईं। दूसरे प्रकार में, सबसे योग्य में टोडरमल, जो राजस्व क्षेत्र में विशेषज्ञ थे, और जो दीवान के पद तक पहुंचे, और बीरबल, जो सम्राट के अत्यंत पसंदीदा थे, शामिल थे।
हिंदुओं के प्रति अकबर का दृष्टिकोण, राजा को अपनी प्रजा के साथ किस तरह का व्यवहार करना चाहिए, उसके इस विचार से प्रेरित था। इन विचारों को अकबर के जीवनीकार अबुल फज़ल द्वारा सावधानी से वर्णन किया गया है, जो सम्प्रभुता के तिमुरीद, फारसी और भारतीय विचारों का एक सुंदर मिश्रण है। अबुल फज़ल के अनुसार, एक सच्चे शासक का ओहदा बहुत ही जिम्मेदार ओहदा है, जो दिव्य प्रकाश (फर्र-ए-यज़दी) पर निर्भर है। इसलिए, ईश्वर और सच्चे शासक के बीच कोई भी नहीं आ सकता। एक सच्चा शासक अपनी प्रजा के लिए, क्षेत्रीय संप्रदाय के भेदभाव के बिना, पितृतुल्य प्रेमभाव रखता है, उसका हृदय विशाल होता है, ताकि बड़े और छोटे सभी की इच्छाओं की पूर्ती उसके द्वारा की जा सके, जो ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा, भक्ति और प्रतिदिन बढ़ता समर्पण का भाव रखता हो, वही सच्चा शासक है। शासक का कर्तव्य यह भी है, कि वह एक पद या व्यवसाय के व्यक्ति को, दूसरों के मामले में दखल देने से रोककर, समाज में संतुलन बनाये रखे। और सबसे महत्वपूर्ण यह है, कि वह सांप्रदायिक संघर्ष में वृद्धि की अनुमति ना दे। ये सभी मिलकर सुलह-कुल, या ‘‘सभी को शांति‘‘ की नीति बनाते हैं।
9.1 धर्म और दर्शन में रूचि
शुरू से ही अकबर की धर्म और दर्शन में गहरी रूचि थी। अकबर एक रूढ़िवादी मुसलमान था। वह राज्य के प्रमुख गाज़ी अब्दुन नबी खान की बहुत इज्जत करता था। वे साम्राज्य के सद्र-उस-सदर के पद पर थे, और एक बार अकबर ने उनकी चप्पलें भी उठाई थीं। परंतु जवान होते-होते, रहस्यवाद ने, जिसका संपूर्ण साम्राज्य में काफी बोलबाला था, अकबर को प्रभावित करना शुरू किया। ऐसा कहा जाता है, कि वह ईश्वर के चिंतन में रात-रात भर मग्न रहता था, हर समय ईश्वर के नाम का स्मरण करता रहता था, और ईश्वर ने उसे जो सफलताएं प्रदान की थीं, उनके लिए आभार-स्वरुप, वह आगरा में अपने महल के निकट एक सपाट पत्थर पर अनेक बार सुबह ईश्वर की प्रार्थना और चिंतन करता था। धीरे-धीरे वह संकीर्ण रूढ़िवाद से दूर होता गया। जज़िया और धार्मिक यात्रा कर वह पहले ही समाप्त कर चुका था। उसने अपने दरबार में कई विद्वान और उदार मत वाले व्यक्तियों को खास जगह दी थी। इनमें से सबसे उल्लेखनीय थे, अबुल फज़ल और उनके भाई फज़ी, और उनके पिता, जो स्वयं एक प्रसिद्ध विद्वान थे, जो कि मुल्लाओं द्वारा, महदवी विचारों के प्रति सहानुभूति के कारण, सताए गए थे। एक अन्य विद्वान ब्राह्मण महेश दास, जिन्हें राजा बीरबल की उपाधि दी गई थी, अकबर के सतत साथी थे।
9.2 धार्मिक तर्क वितर्क
1575 में अकबर ने अपनी नई राजधानी फतेहपुर सीकरी में इबादत खाना नामक एक विशाल प्रार्थना कक्ष बनवाया। इसमें वह चुनिंदा धर्मशास्त्रियों, फकीरों और अपने दरबार के उन सरदारों और दरबारियों को बुलाता था, जो अपनी विद्वत्ता और बौद्धिक सिद्धियों के लिए प्रसिद्ध थे। उनके साथ अकबर धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों पर विचार विमर्श करता था। वह अक्सर कहता था, ‘‘ओ बुद्धिमान मुल्लाओं, मेरा एक मात्र उद्देश्य सत्य की खोज है, सच्चे धर्म का पता लगाना और उसका खुलासा करना‘‘। शुरू में ये कार्यवाही केवल मुस्लिमों के लिए सीमित थी। वे व्यवस्थित भी नहीं थीं।
मुल्ला शहंशाह के सामने भी आपस में झगड़ते थे, एक दूसरे पर चिल्लाते थे, और गाली-गलौच करते थे। मुल्लाओं के इस व्यवहार ने, अपनी विद्वत्ता के बारे में उनके दम्भ और अभिमान ने अकबर के मन में उनके प्रति नफरत पैदा कर दी, और उसे मुल्लाओं से दूर कर दिया।
बाद में अकबर ने इबादत खाने में सभी धर्मों के लिए प्रवेश खुला कर दिया- ईसाईयों, पारसियों, हिंदुओं, जैनियों, और यहाँ तक कि नास्तिकों के लिए भी। इससे, तर्क वितर्क का दायरा विस्तृत हुआ, और ऐसे विषयों पर भी चर्चा होने लगी जिस पर सभी मुसलमानों में मतैक्य था, उदाहरणार्थ, क्या कुरान अंतिम प्रकट ग्रन्थ है, और मुहम्मद इसके पैगम्बर हैं?, पुनरुत्थान, ईश्वर की प्रकृति, इत्यादि। इसने धर्मशास्त्रियों के मन में डर पैदा हुआ, और अकबर के इस्लाम त्यागने की अफवाहें फैलने लगीं। जैसा कि एक आधुनिक लेखक कहते हैं, ‘‘अकबर के धैर्य और ग्रहणशीलता को अलग-अलग धर्मों के लोगों द्वारा अलग-अलग अर्थों में लिया गया। इबादतखाने ने अकबर को प्रसिद्धि दिलाने के बजाय बदनामी दिलायी।‘‘
इसी समय मुख्य सदर अब्दुन नबी के विरुद्ध जांच बिठाई गई, जिसमे पता चला कि वह धर्मार्थ जमीन आवंटन (मदद-ए-माश) में अत्यंत भ्रष्ट और अत्याचारी था। उसने अन्य भ्रष्ट और निम्न तरीकों से भी काफी संपत्ति जमा की थी। वह धर्मांध था और शियाओं को मृत्यु दंड देता था। अपने धर्म को मानने के लिए मथुरा के एक ब्राह्मण को भी मृत्यु दंड दिया था। सबसे पहले अब्दुन नबी को सदर के पद से पदच्युत किया गया और सभी प्रांतों में धर्मार्थ जमीन आवंटन के लिए सदर नियुक्त किये गए। जल्द ही उसे बर्खास्त करके हज़ के लिए मक्का जाने का हुक्म दिया गया। इसी समय के दौरान, 1579-80 में पूर्व में एक विद्रोह हुआ। काजियों द्वारा अकबर के विधर्मी होने के बारे में कई फ़तवे जारी किये गए। अकबर ने विद्रोह को कुचल दिया और काज़ियों को कड़ी सजा दी गई।
9.3 धर्मशास्त्रियों से संघर्ष
मुल्लाओं के विरुद्ध अपनी स्थिति को और मजबूत करने के लिए अकबर ने एक घोषणा या मज़हर जारी किया, जिसके अनुसार कुरान की व्याख्या करने के काबिल व्यक्तियों, अर्थात् मुजतहिदों के बीच, यदि मतभेद होते हैं, तो अकबर, ‘‘सबसे बुद्धिमान और न्यायप्रिय शासक‘‘ होने के नाते, और ईश्वर की नजर में उसका कद कहीं ऊंचा होने के नाते, उनमें से किसी भी व्याख्या को मान्यता देने में सक्षम होगा, जो न्याय व्यवस्था और राष्ट्र हित में हो। और आगे यदि अकबर कोई नया हुक्म जारी करता है, जो कुरान के अनुरूप हो और देश को लाभ पहुंचाने वाला हो, तो सभी उसे मानने के लिए बाध्य होंगे।
हुक्मनामा, जो प्रमुख उलेमाओं द्वारा दस्तखत किया हुआ था, गलत तौर से ‘‘अभ्रांतता का फरमान‘‘ कहा गया। अकबर ने केवल काबिल व्याख्याकारों के बीच मतभेद की स्थिति में उसका हुक्म मानने की सख्ती की थी। ऐसी स्थिति में जब शियाओं, सुन्नियों और महदवियों के बीच खूनी संघर्ष चल रहा था, अकबर केवल व्यापक सहिष्णुता चाहता था। साफ था, कि महज़र साम्राज्य में निर्मित धार्मिक स्थिति को कल्याणकारी ढंग से सुलझाने में असमर्थ थे।
9.4 समन्वय स्थापित करने में कम सफलता
परंतु अकबर विभिन्न मतावलम्बियों को एक मंच पर लाने में असफल रहा। इबादतखाने के वाद-विवाद, न केवल विभिन्न धर्मों के बीच बेहतर समन्वय स्थापित करने में नाकाम हुए, बल्कि उन्होंने विभिन्न धर्मों के बीच कड़वाहट बढ़ाई, क्योंकि एक धर्म के प्रतिनिधि दूसरे धर्म को नीचा सिद्ध करने और अपने धर्म को श्रेष्ठ सिद्ध करने में लड़ते रहे। इसलिए, 1582 में अकबर ने इबादतखाने की चर्चाओं को बंद कर दिया। फिर भी उसने अपनी सत्य की खोज नहीं छोड़ी। उसके एक कड़वे आलोचक बदायुनी कहते हैं, ‘‘दिन और रात लोग और कुछ नहीं करते, सिर्फ खोज करते हैं।‘‘ अकबर ने हिंदुत्व के सिद्धांतों को समझने के लिए पुरुषोत्तम और देवी को, और पारसी धर्म के सिद्धांतों को समझने के लिए महारजी राणा को आमंत्रित किया। वह कुछ पुर्तगालियों से भी मिला और ईसाई धर्म के सिद्धांतों को समझने के लिए उसने अपना एक प्रतिनिधि गोआ भेजा, और उनसे विनती की, कि वे उसके दरबार में दो विद्वान प्रचारकों को भेजें। पुर्तगालियों ने एक्वाविवा और मोनसेर्राते को भेजा, जो अकबर के दरबार में लगभग तीन साल रहे और उन्होंने उसका अच्छा वर्णन किया है। लेकिन अकबर को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने की उनकी इच्छा का कभी कोई आधार नहीं था। वे सोचते थे कि यदि वे अकबर को धर्म परिवर्तन के लिए मना लेते हैं, तो अधिकांश भारतीय ईसाई धर्म के तहत आ जायेंगे। परंतु, यह होना विधि लिखित नहीं था! अकबर जैनियों के भी संपर्क में आया, और उसके आग्रह पर काठियावाड़ के मुख्य संत हीर विजय सूरी ने अकबर के दरबार में कुछ वर्ष व्यतीत किये।
विभिन्न धर्मों के प्रमुख व्यक्तियों के साथ संपर्क, उनके प्रमुख ग्रंथों का अध्ययन, सूफी संतों और योगिओं से मुलाकात ने अकबर को विश्वास दिलाया कि हालाँकि विभिन्न धर्मों में मतभेद थे, हर धर्म में कुछ अच्छी बातें थीं, जो विवाद के चलते छिप गई थीं। उसका मानना था कि यदि सभी धर्मों की अच्छी बातों पर बल दिया जाये, तो देश में एक सद्भाव और सौहार्द का वातावरण निर्माण किया जा सकता है। उसका यह भी मानना था कि अलग-अलग नामों और रूपों के बावजूद ईश्वर एक ही है। जैसा कि बदायुनी ने माना है, सभी प्रभावों को सम्राट के सामने लाने के बाद, ‘‘उसके दिल में एक पत्थर की लकीर बनती चली गई, और उसके दिल में विश्वास पैदा हुआ, कि सभी धर्मों में कुछ अच्छे लोग निश्चित रूप से हैं। इसी प्रकार यदि सच्चा ज्ञान सभी जगह प्राप्त हो सकता है, तो सत्य को एक धर्म में बाँध कर क्यों रखा जाये?‘‘ यह इस अर्थ में एक क्रान्तिकारी युग था, कि अकबर से पहले किसी शासक को इस बात का एहसास नहीं हुआ था।
9.5 एक नई पहल
बदायुनी आगे कहते हैं, कि परिणामस्वरूप धीरे-धीरे अकबर इस्लाम से दूर होता गया, और उसने एक नए धर्म को इजाद किया जिसमें सभी प्रचलित धर्म हिंदुत्व, ईसाई धर्म, पारसी धर्म, इत्यादि समाविष्ट थे। हालाँकि, आधुनिक इतिहासविद इस दृष्टिकोण को मानने को तैयार नहीं हैं, और सोचते हैं कि बदायुनी ने अतिशयोक्ति की है। अकबर ने वास्तव में किसी नए धर्म की स्थापना की थी, या उसका ऐसा कोई इरादा था, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। नए पंथ के लिए अबुल फज़ल और बदायुनी ने जो शब्द प्रयुक्त किया है, वह है तौहीद-ए-ईलाही, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘‘दिव्य अद्वैतवाद‘‘। दीन शब्द 80 वर्ष बाद तक लागू नहीं किया गया था। तौहीद-ए-ईलाही वास्तव में एक सूफी क्रम था। जो इसमें शामिल होना चाहते थे या जिन्हें सम्राट ने अनुमोदित कर दिया था, वे इसके सदस्य बन गए। शुरुआत के लिए रविवार चुना गया। शुरू करने वाला अपना सिर सम्राट के कदमों में रख देता था, सम्राट उसे उठाते और उसे सूत्र देते, जिसे सूफी भाषा में शस्त कहा जाता है, जो उसे दोहराना था और उसी पर ध्यान केंद्रित करना था।
इसमें अकबर का आदर्श वाक्य ‘‘अल्लाह-ओ-अकबर‘‘ या ईश्वर महान है, शामिल था। संस्कारित लोगों को जहाँ तक सम्भव हो, मांस से दूर रहना था, कम से कम उनके जन्म के महीने में, उनके जन्मदिन पर एक शानदार दावत देनी थी और गरीबों को दान देना था। शुरूआती संस्कार के अलावा किसी प्रकार के पवित्र ग्रन्थ या शास्त्र, पुरोहित वर्ग, पूजा के लिए स्थान, अनुष्ठान और समारोह नहीं थे। बदायुनी के अनुसार सदस्यों के लिए भक्ति के चार वर्ग थे, संपत्ति का त्याग, जीवन, सम्मान और धर्म। ये भी सूफियों द्वारा लागू वर्गों के अनुसार ही थे। धर्म के त्याग का अर्थ था संकीर्ण विचारों और धारणाओं के प्रति आसक्ति का त्याग। यह भी सूफी संप्रदाय के अनुरूप ही था। अनुयायी बनाने के लिए अकबर ने ना तो बल का प्रयोग किया और ना ही पैसे का। वास्तव में, बीरबल को छोड़ कर हिन्दू सरदारों सहित अनेक प्रमुख सरदारों ने सदस्य बनने से इंकार कर दिया।
अकबर के नए पंथ में वास्तव में जुड़नेवालों की संख्या कम थी, और जो जुड़े थे उनमें अकबर के पसंदीदा व्यक्ति थे। इस प्रकार इस पंथ से कोई महत्वपूर्ण राजनीतिक भूमिका निभाने की अपेक्षा नहीं थी। बहरहाल, जब पंथ शुरू हुआ उस समय तक अकबर ने अपनी आंतरिक स्थिति काफी मजबूत कर ली थी, और इस प्रकार के किसी दाम्भिक आडम्बर की आवश्यकता नहीं बची थी। फिर अकबर का उद्देश्य क्या था? इस मामले में इतिहासकारों में मत भिन्नता है। बदायुनी के अनुसार, अकबर का दिमाग उसके कई चाटुकारों और स्तुति-पाठकों ने खराब कर दिया था, जिन्होंने उसके दिमाग में यह भर दिया था कि वह इंसान-ए-कामिल या युग का परिपूर्ण व्यक्ति था। उन्ही की सलाह के अनुसार अकबर ने पाबोस या सम्प्रभु के समक्ष जमीन के चुम्बन, की प्रथा शुरू की थी, एक ऐसी प्रथा जो पहले केवल ईश्वर तक सीमित थी। सम्राटों द्वारा लौकिक और आध्यात्मिक शक्ति स्वयं में समाविष्ट करने के उदहारण पूर्व में भी देखे गए हैं। अबुल फज़ल के अनुसार, लोगों के लिए अध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए सम्राट के पास जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी, और अकबर लोगों को इस प्रकार अध्यात्मिक आनंद तक पहुंचाने के लिए और संघर्षरत सम्प्रदायों के बीच सद्भावना निर्माण करने के योग्य भी था।
अकबर के उद्देश्य कुछ भी हों, तौहीद-ए-ईलाही अकबर की मृत्यु के साथ समाप्त हो गया। संस्कारितों को शास्त देने की प्रथा कुछ समय के लिए जहाँगीर द्वारा भी जारी रखी गई। किंतु शीघ्र ही यह समाप्त कर दी गई। हालाँकि, सम्राट की ओर चमत्कारी शक्तियों के लिए देखने की प्रथा, ताकि उसके छूने मात्र से लोगों के दुःख दर्द दूर हो जायेंगे, या उसके द्वारा एक पानी के बर्तन पर फूंक मारने की प्रथा चलती रही और औरंगजेब जैसा कठोर शासक भी इस मान्यता को दूर नहीं कर सका।
अकबर ने सुलह-ए-कुल की संकल्पना पर बल दिया, अर्थात्, अन्य दृष्टि से भी धर्मों के बीच सौहार्द। उसने संस्कृत, अरबी, यूनानी, आदि भाषाओं से फारसी में अनुवाद के लिए एक बड़ा अनुवाद विभाग स्थापित किया। इस क्रम में सिंहासन बत्तीसी, अथर्ववेद, और बाइबिल सर्वप्रथम अनुवाद के लिए गए। इसके बाद महाभारत, गीता और रामायण का अनुवाद किया गया। इसके अलावा पंचतंत्र और भूगोल पर कई पुस्तकों का भी अनुवाद किया गया। शायद पहली बार, कुरान का भी अनुवाद किया गया।
10.0 अकबर की वास्तु विरासत
अकबर द्वारा निम्नलिखित स्मारकों का निर्माण किया गया।
- हुमायूँ का मकबरा-दिल्ली (1560)
- अरब सराय-दिल्ली (1560)
- खैर-उल-मंजिल मस्जिद-दिल्ली (1561)
- उधम खान का मकबरा-दिल्ली (1566)
- निजाम-उद्-दीन की दरगाह-दिल्ली (1561)
- अटगाखान का मकबरा-दिल्ली (1566)
- अफसरवाला मस्जिद और मकबरा-दिल्ली (1566)
- आगरे का किला अमरसिंह दरवाजे और जहांगीरी महल सहित-आगरा (1565-70)
- अजमेर का किला और मंडप-अजमेर (1570-2)
- लाहौर किला और महल-लाहौर
- जामा मस्जिद-फतेहपुर सीकरी (1571)
- शेख सलीम चिश्ती का मकबरा-फतेहपुर सीकरी (1571-80)
- इस्लाम खान का मकबरा-फतेहपुर सीकरी
- फतेहपुर सीकरी का महल (1571-85)
- बुलंद दरवाजा-फतेहपुर सीकरी (1575-6)
- इलाहाबाद का किला और महल (1583)
- मुहम्मद गौस का मकबरा, ग्वालियर
- हरी पर्बत किला, श्रीनगर (1583)
- नसीम बाग-श्रीनगर
- बाबर का मकबरा-दिल्ली (1590)
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