सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
पानीपत की दूसरी लड़ाई और अकबर भाग - 2
4.0 अकबर के अंतर्गत प्रशासन
4.1 मनसब प्रणाली
मुगलों के अधीन मनसब (या रैंक) सरकारी पदानुक्रम में इसके धारक (मनसबदार) की स्थिति का संकेत देता था। धारक की स्थिति को निर्धारित करने के अलावा, यह उनके वेतन और उसके द्वारा बनाए रखे गए घोड़ों और उपकरणों के साथ सैनिकों की संख्या तय करता था। मुगलों के अधीन मनसब प्रणाली में उमरा, नागरिक और सैन्य प्रशासन सब एक जटिल व्यवस्था में शामिल थे। प्रणाली के तहत, संख्या के मामले में मनसब (रैंक) प्रधानों और कमांडरों को दिए गए थे, जो महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर रहते थे। इस प्रकार, मुगल मनसब प्रणाली में न्यायपालिका को छोड़कर सभी सार्वजनिक सेवाएं (नागरिक वित्तीय और सैन्य सेवाएं) शामिल थीं।
4.1.1 अकबर के अधीन मुख्य विशेषताएं
दाग़ और चेहराः दाग़ (घोड़ों की ब्रांडिंग) और चेहरा या तशीहा (सैनिकों का वर्णनात्मक रोल) धोखा-धड़ी की संभावना को कम करने के लिए, बनाए रखे दल के आकार के अनुसार रैंक तय करने के लिए और सेना के दायित्व की चोरी रोकने के लिए बने थे। वे अकबर के शासनकाल के 18 वें राज्य वर्ष (1574) में शुरू किए गए थे। इसके बाद, मनसबदार की रैंक और उसके द्वारा बनाए रखे सवारों की संख्या के बीच संबंध प्रभाव में आया।
जात और सवारः अकबर के अधीन मनसब प्रणाली में 41 वें राज्य वर्ष (1597) से दोहरे जात के पद और सवार द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाने लगा। जात अधिकारी पदानुक्रम में व्यक्तिगत वेतन और स्थिति निर्धारित करता था। सवार बनाए रखे जाने वाले सवारों की संख्या और उन सवारों के रखरखाव के लिए वेतन निर्धारित करता था। इस के आधार पर कर्मियों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया।
- जिनके सवार रैंक उनके जात रैंकों के बराबर थे;
- जिनके सवार रैंक उनके जात रैंक के आधे थे, लेकिन उनके जात रैंक के आधे से कम नहीं थे;
- वे जिनके सवार रैंक उनके जात रैंक के आधे से कम थे।
अन्य विशेषताएं
- मनसबदारों की राजा के प्रति सीधी मातहतता (इस प्रकार बड़े मनसबदारों के दल छोटे दलों को मिलाकर नहीं बनते थे);
- 5000 या अधिक के मनसब केवल राजकुमारों या राजपरिवार के सदस्यों को ही दिए जाते थे;
- मनसब वंश परंपरा के अनुसार नहीं दिए जाते थे, बल्कि योग्यता के आधार पर दिए जाते थे;
- सवार रैंक आमतौर पर हमेशा, या तो शत रैंक के बराबर या उससे नीचे होते थे।
4.2 जागीर प्रणाली
जागीर या तुयुल, भूमि कि एक इकाई होती थी, जिसका भू-राजस्व मनसबदार को, उसके वेतन के ऐवज में सौंपा जाता था। वेतन के ऐवज में दी गई जागीरें तनख्वाह जागीर कहलाती थीं। इसके अलावा, स्वायत्त प्रधानों के लिए वतन जागीरें भी होती थीं (वंशानुगत अधिकार) जो, यदि मुगल सेवा में हैं, तो उन्हें साम्राज्य की सीमा में, औपचारिक जागीरें भी दी जाती थीं। ऐसा बताया गया है कि 1647 में साम्राज्य की कुल जमा का लगभग 60 प्रतिशत 500 से कम रैंक के 445 मनसबदारों को सौंपा गया था। मुगलों के अधीन जागीर भूमि के अलावा, जिनका राजस्व मनसबदारों को राज्य को उनकी सेवाओं के लिए वेतन के रूप में जाता था, खालिस भूमि भी होती थी, जिनका राजस्व साम्राज्य के दरबार के खर्चों, और राजा के व्यक्तिगत खर्च के लिए रखा जाता था। इस प्रकार, मुगलों की जागीर प्रणाली, दिल्ली सल्तनत की इकटा प्रणाली के समान थी।
इकटा प्रणाली के अनुसार ही, मनसब प्रणाली में भी, जागीर पर मनसबदार का वंश परंपरागत अधिकार नहीं होता था। वह, उस जागीर के राजस्व का लाभ तभी तक उठा सकता था, जब तक वह मनसबदार या किसी शासकीय पद पर था, और राज्य को अपनी सेवाएं दे रहा था, दूसरे शब्दों में, जागीरदार को उसका पद मुगल सम्राट कि मेहेरनज़र की बदौलत प्राप्त था, और मुगल शासन में राज्य और सम्राट में कोई भेद नहीं था। मुगल शासक अपना विशेषाधिकृत पद जागीर पर वंश परंपरागत दावे के विरुद्ध ईर्ष्या से जतन करते थे, व इसके लिए जागीरदारों को समय-समय पर एक जागीर से दूसरी जागीर में स्थानांतरित करने की नीति अपनाई जाती थी।
इस प्रकार, जागीर पद्धति मनसब पद्धति से नज़दीक से सम्बंधित थी। वास्तव में, यह सर्वसमावेशी मनसब पद्धति की एक सहायक पद्धति थी। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है, कि सभी जागीरदार मनसबदार थे, किन्तु सभी मनसबदार जागीरदार नहीं थे, क्योंकि कुछ मनसबदारों को जागीर सौंपकर नहीं, बल्कि नकद में वेतन का भुगतान किया जाता था।
4.2.1 जागीरदारी का संकट
संकुचित अर्थ में जागीरदारी संकट का मतलब था जागीर पद्धति में संकट, जिसके कारण प्रधानों ने स्वयं के लिए अधिक लाभदायक जागीरें चुन लीं। परंतु, विस्तृत अर्थ में इसका मतलब था मध्ययुगीन भारत में आर्थिक और सामाजिक रिश्तों में संकट, विशेष रूप से, कृषि सम्बन्धों में और इन संबंधों पर पोषित प्रशासनिक अधिरचना में। इस संकट के निम्न मुख्य कारण थेः
- भारतीय मध्ययुगीन समाज की प्रकृति ऐसी थी कि जो कृषि विकास को सीमित करती थी, और जिसका नाजुक संतुलन कई कारणों से बिगड़ सकता था, जैसे केंद्र में सत्ता के लिए गम्भीर संघर्ष, प्रधानों के बीच वैमनस्य इत्यादि।
- मुगलों की प्रशासनिक प्रणाली में व्यवधान, और बाद के मुगल शासकों की कमजोरी।
- शासक वर्ग के आकार और उनकी अपेक्षाओं में बेतहाशा वृद्धि, अर्थात, शासक वर्ग और उनके आश्रित दोनों साम्राज्य के राजस्व पर पूर्ण रूप से निर्भर थे। मनसबदारों की संख्या 1605 की 2,000 से 1675 में बढ़कर 12,000 हो गई।
- बढ़ते प्रशासनिक खर्चों को पूरा करने के लिए औरंगजेब और शाहजहाँ दोनों द्वारा की गई बेतहाशा वृद्धि, साथ ही युद्धों पर होने वाला व्यय, जो औरंगजेब के शासन काल में एक आम बात थी।
- प्रधानों द्वारा वसूली के लिए किये गये तकाजों के विरुद्ध ज़मींदारों और कृषकों द्वारक विरोध और विद्रोह।
5.0 राजनीतिक आदर्श
5.1 राजशाही के सिद्धांत
अकबर के दरबार के नवरत्नों में से एक, अबुल फज़ल ने, मुगल राजशाही के लिए एक नया आयाम दिया था। उसके अनुसार, जो शासन कर रहा है उस राजा में नहीं वरन् राजशाही की संस्था को फर्री ए जात (दिव्य प्रभा) प्राप्त है। उसका पदशाह या शहंशाह (राजाओं का राजा) एक अद्वितीय शख्सियत है, और वह धरती पर अल्लाह का सहायक है। इस विषय में जहांगीर के शासन काल का एक और महत्वपूर्ण विद्वान अब्दुल हक दीहलवी था, जिसने इस विषय पर नुरिय्या-ई-सुल्तानिया नामक एक निबंध लिखा, जिसमे इस विषय के सभी पहलुओं पर विचार किया गया था।
5.2 पूर्ण संप्रभुता
राजा, सम्राट या संप्रभु को आतंरिक और बाह्य, दोनों प्रकार की संप्रभुता प्राप्त थी। आतंरिक दृष्टिकोण से, सभी व्यक्ति और संस्थाएं राजा के अधीन थीं। बाह्य दृष्टि से, मुगल बादशाह खलीफा जैसी किसी श्रेष्ठ प्राधिकारी को मान्यता नहीं देता था, जैसा कि, दिल्ली सल्तनक के शासन के दौरान दिखाई देता था।
5.3 साम्राज्यवाद
मुगलों की यह दिली इच्छा थी कि केवल भारत के अंदर के ही नहीं, बल्कि अफगानिस्तान, मध्य एशिया इत्यादि जैसे भारत के बाहर के क्षेत्र भी उनके अधीन रहें।
5.4 राजवंशीय निष्ठा
मुगल प्रशासन का पोषण राजवंशीय निष्ठा पर हुआ था। हालांकि, सैद्धांतिक रूप से प्रशासनिक पद सभी के लिए खुले थे, पर व्यवहार में, प्रशासनिक पदों पर उन्हीं व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती थी, जो शाही वंश के थे। सरकारी कर्मचारियों की निष्ठा संस्थाओं की अपेक्षा वंशों के प्रति होती थी।
5.5 केंद्रीय प्रशासन
मुगल शासन निरंकुश राजशाही थी। राजा कार्यपालिका, विधानमंडल, न्यायपालिका और सेना का प्रमुख था। उसका मुख्य कर्तव्य प्रजा के प्रति सहिष्णुता और उदारता था। शाही उजुक (छोटी मुहर वाली अंगूठी) वरिष्ठ नियुक्तियों, खिताबों जागीरों इत्यादि फरमानों पर लगाया जाता था। राजा की निरंकुशता पर केवल कुलीन या उलेमा का नियंत्रण था। हालाँकि, सैद्धांतिक रूप से कुलीनों की निष्ठा राजा के प्रति थी, परन्तु व्यवहार में राजा कुलीनों और उलेमाओं की शक्ति की उपेक्षा नहीं कर सकता था।
वकीलः यह राजा का प्रतिनिधि था, अतः वकील राजा की ओर से और राजा के नाम पर सभी शक्तियां इस्तेमाल करता था। बैरम खां के पश्चात् इस पद के अधिकार कम हुए, और यह एक औपचारिक और अलंकारिक पद रह गया था।
वज़ीर या दीवानः दीवान-ए-कुल (प्रमुख दीवान) की अपनी हैसियत से यह राजस्व विभाग का प्रमुख होता था। वकील की अनुपस्थिति में वह प्रधानमंत्री के कर्तव्य भी निभाता था और इसीलिए उसे वज़ीर भी कहा जाता था।
मीर बक्शीः यह सैन्य विभाग का प्रमुख होता था और मनसब पद्धति के अस्तित्व में आने के बाद यह वेतन भुगतान विभाग का प्रमुख भी बन गया। मनसब पद्धति के विकास और साम्राज्य के विस्तार के बाद वह वज़ीर से अधिक नहीं तो कम से कम उसके बराबर ताकतवर तो निश्चित बन गया, इस प्रकार वह एक तरह से वज़ीर को नियंत्रित रखने वाली शक्ति के रूप में उभरा।
सद्र-उस-सुदूरः धार्मिक विभाग का प्रमुख होने के नाते वह राज्य की धर्म संबंधी नीति को विनियंत्रित करता था। वह सार्वजनिक दान और निधि विभाग का भी प्रमुख था। अर्थात वह प्रमुख सदर और प्रमुख काज़ी के पदों का सम्मिश्रण था (काज़ी उल कल्जत), अतः न्याय विभाग का प्रमुख भी था। दिल्ली सल्तनत के धर्मनिरपेक्ष न्यायाधीश (आमिर-ई-दड़) का मुगल समकक्ष काज़ी के निर्णयों का कार्यान्वयन करवाने के लिए जिम्मेदार था। इसी के साथ, इस विभाग में मल्हतासिब और मुफ्ती भी थे, जो काज़ी के मातहत काम करते थे।
खान-ऐ-सामानः शाही परिवार से सम्बंधित विभाग और शाही कारखाने या बुयुत्तों (वर्कशॉप) का प्रमुख था। यह पद धीरे-धीरे केंद्र में महत्वपूर्ण होता गया। शुरुआत में वह केवल शाही परिवार की देखभाल करता था, जबकि दीवान-ऐ-बुयुत्त कारखानों की देखरेख करता था। बाद में उसे दीवान-ऐ-बुयुत्त का वरिष्ठ बना दिया गया, और इस प्रकार कारखानों का नियंत्रण भी इसके हाथों में आ गया।
अन्यः उपरोक्त के अलावा, केंद्र में कई अन्य मंत्री और अधिकारी थे, हालाँकि वे सारे उपरोल्लिखित की तुलना में काफी महत्वहीन थे। इनमें, दीवान-ऐ-खालिस (ताज की भूमि का मुखिया), दीवान-ऐ-तन (जागीरों का मुखिया), मुशरिफ-ऐ-मुमालिक (महालेखाकार), मुस्ताफ-ऐ-मुमालिक (महा लेखा परीक्षक), दरोगा-ऐ-डाक चौकी (महा डाकपाल), मीर-ए-अर्ज (याचिकाओं का मुखिया), मीर-ए-माल (शाही थैली का मुखिया), मीर-ए-तोजक (समारोहों का मुखिया), मीर बाहरी (जहाजों और नौकाओं का प्रमुख), मीर मंजिल (सरकारी निवास स्थानों का प्रमुख), मीर अपतिश या दरोगा-ए-तोपखाना (तोपखाने का प्रमुख), शामिल थे।
इसके अलावा केंद्र के अपने मुखियाओं के मातहल कार्यरत अन्य अधिकारी राज्य भर में थे जैसे कि खुफिया-नवीस (पत्र-लेखक), हरकारे (जासूस व पत्रवाहक), वाकिया-नवीस (पत्रकार), आदि।
सम्राट कुछ विशेष सैनिक-अहदी-सीधे अपने ही अधीन रखते थे।
6.0 प्रांतीय प्रशासन
अकबर द्वारा साम्राज्य योजनाबद्ध तरीके से प्रांतों या सूबों में विभाजित किया गया था। अकबर की मृत्यु का समय उनकी संख्या 15 थी, जो शाहजहां के समय बढ़कर 19 हो गयी, और औरंगजेब के समय तक 21 हो गयी थी। अकबर ने सभी प्रांतों में समान प्रशासनिक पद्धति लागू की थी।
महत्वपूर्ण अधिकारीः गवर्नर को सूबेदार या सिपहसालार कहा जाता था, कभी-कभी उसे असनयिम भी कहा जाता था। उसके कर्तव्यों में, कानून व्यवस्था की स्थिति को बनाये रखना, साम्राज्य के फरमानों को लागू करना, फौजदारी न्याय को लागू करना, इत्यादि शामिल थे। प्रांतीय दीवान प्रान्त के राजस्व प्रशासन का प्रमुख होता था। उसके कर्तव्य केंद्रीय दीवान (दीवान-ए-कुलत) के सामान होते थे। वह सूबेदार पर नियंत्रक के रूप में कार्य करता था और सीधे केंद्रीय दीवान के प्रति उत्तरदायी होता था। बक्शी सीधे मीर बक्शी के प्रति उत्तरदायी होता था, और उसके सामान कर्तव्यों का निर्वहन करता था। अन्य प्रशासनिक अधिकारियों में, काजी, सदर, मुहतसिब, इत्यादि शामिल थे।
6.1 स्थानीय प्रशासन
प्रान्त सरकारों में विभाजित थे। सरकार आगे परगनों में विभाजित थे, जो कुछ गावों का एक समूह होते थे। परगनों और सरकारों का प्रशासन आमतौर पर, शेर शाह द्वारा लागू पद्धति से ही होता था। इस सन्दर्भ में मुगलों द्वारा कुछ मामूली परिवर्तन किये गए थे।
जो गाँव वित्तीय कारणों से एकत्र किये गए थे, उन्हें महल कहा जाता था। फिर, प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से, प्रांत अन्य छोटी इकाईयों में विभाजित किये गए थे, जिन्हे फौजदारी कहा जाता था। एक फौजदार कई परगनों के लिए उत्तरदायी था, परन्तु, आमतौर पर, पूरे सरकार के लिए नहीं। फौजदारियॉँ कई छोटी इकाईयों में बँटी होती थी, जिन्हें थाना या सैन्य चौकी कहा जाता था, जो थानेदारों द्वारा नियंत्रित होते थे। फौजदार, आमतौर पर पुलिस, फौजी और न्यायिक कर्तव्यों का निर्वहन करते थे, साथ ही राजस्व प्रशासन में भी मदद करते थे। वे जागीरदारों, ज़मींदारों और आमिलों द्वारा विद्रोहों से निपटने के लिए जिम्मेदार थे।
केंद्र और प्रांतों के बीच सम्बन्धः प्रांतों, सरकारों, और परगनों के अधिकारियों की नियुक्ति केंद्र द्वारा की जाती थी, अतः वे सीधे केंद्र के प्रति उत्तरदायी होते थे। इसी प्रकार, केंद्र विभिन्न प्रांतीय और स्थानीय अधिकारियों का समय-समय पर स्थानांतरण करता रहता था, ताकि वे स्थानीय जड़ें या हितसंबंध विकसित न कर पाएं। केंद्रीय अधिकारी व स्वयं राजा समय-समय पर दौरे करते थे, ताकि स्थानीय अधिकारियों पर नियंत्रण रखा जा सके और उन्हें ठीक ढंग से काम करने के लिए प्रवृत्त किया जा सके।
सम्पूर्ण साम्राज्य में तीव्र गति से एक जगह से दूसरी जगह सन्देश और फरमान भेजने के लिए, घुड़सवार और प्रेषण धावक नियुक्त थे। इब्न बतूता के अनुसार, घोड़चौकी, जिन्हे उलूक कहा जाता था, हर चार मील के अंतर पर तैनात होते थे, और शाही घोड़ों का इस्तेमाल करते थे। पैदल चौकी, जिसे दावा कहा जाता था, उनके जिम्मे प्रति मील तीन स्थानक होते थे। इन दोनों में, मनुष्य धावक घुड़सवारों से तेज यात्रा करते थे। इन सभी सावधानियों के बावजूद, केंद्र का प्रांतों और स्थानीय इकाईओं पर नियंत्रण हमेशा बहुत प्रभावी हो, ऐसा नहीं था, विशेष रूप से जब शासन की बागड़ोर किसी कमजोर शासक के हाथ में हो।
7.0 राजस्व प्रशासन
जागीरें प्रदान करने की बढ़ती आवश्यकताओं के मामलों में अकबर के आठवें राज्य वर्ष तक, कुछ सुधारों के साथ, आम तौर पर शेर शाह द्वारा लागू पद्धति ही लागू थी। अकबर के चौबीसवें राज्य वर्ष तक कई प्रयोग किये गए, जिसके बाद ही भू-राजस्व के प्रशासन में स्थायित्व आया।
भूमि का स्वामित्वः भूमि पर किसानों के स्वामित्व (केवल वंशानुगत अधिकार) को मान्यता दी गई थी। उदहारण के लिए, अबुल फज़ल कहता हैः ‘‘खेत उसका है, जो उसमें से झाड़ झंगड़ साफ करता है।‘‘ राजा, ज़मींदारों और जागीरदारों को केवल राजस्व पर उच्च अधिकार था।
गणना की पद्धतियांः आम तौर पर केंद्र उत्पन्न के आधार पर वार्षिक दरें निश्चित करता था, जो बदलती रहती थीं। हालाँकि अकबर मूल्यांकन के लिए एक समान पद्धति चाहता था, जिससे वह फसलों का सही अंदाज लगा सके, ताकि अधिकारियों द्वारा अत्याचार की, और किसानों द्वारा धोखा-धड़ी की सम्भावना कम से कम की जा सके। कुछ प्रचलित पद्धतियां निम्नानुसार थींः
बटाई या गल्ला-बख्शः इस पद्धति में अलग-अलग तरीकों से सहभाजन किया जाता था। पहले प्रकार में, फसल के बाद राज्य का हिस्सा सीधे खेत पर जाकर वसूल किया जाता था। दूसरे प्रकार में, फसल के बाद उत्पादन को अलग-अलग सामान ढ़ेरों में रखा जाता था, और निर्दिष्ट ढे़र सरकारी अधिकारियों द्वारा उठवा लिए जाते थे। तीसरे प्रकार में, फसल काटने से पहले, खड़ी फसल का सर्वेक्षण किया जाता था और एक लकीर खींच कर, राज्य के हिस्से का सीमांकन कर लिया जाता था।
कनकूतः राज्य के अधिकारियों और किसानों द्वारा आपसी सहमति से, क्षेत्र के कुल उत्पादन का एक सामान्य अंदाज नमूने के आधार पर लगाया जाता था।
नसकः इस पद्धति में किसानों द्वारा पूर्व अनुभव के आधार पर राजस्व चुकाया जाता था।
नपतीः यह पद्धति अला-उद्-दीन खिलजी द्वारा शुरू की गई थी और शेर शाह द्वारा भी अपनाई गई। इसमें भूमि को तीन भागों में विभाजित किया जाता था, अच्छी, बुरी और मध्यम।
8.0 अकबर के प्रयोग
जब्ती या बंदोबस्त पद्धतिः इस पद्धति में एक नया जामा तैयार किया जाता था। राजा टोड़रमल (एक खत्री) ने अजमा आंकड़ों को विश्वसनीय नहीं माना और इसलिए कानूनगां से सही आंकड़े मंगवाए और पंद्रहवें राज्य वर्ष से नया जमा लागू हुआ।
करोड़ी प्रयोगः यह अकबर द्वारा खालिस भूमि के विस्तार द्वारा शुरू किया गया था, ताकि राजस्व विभाग विस्तृत आंकड़े एकत्र कर सके। खालिस भूमि को ऐसे वृत्तों में विभाजित किया गया जो एक करोड़ का राजस्व उत्पन्न देते थे। इसीलिए इसे करोड़ी प्रयोग कहा जाता है। हर वृत्त एक अधिकारी के अधीन रखा जाता था, जिसे करोड़ी कहा जाता था। इसका उद्देश्य यही था, कि जितनी हो सके गणना विस्तृत हो, ताकि इसका इस्तेमाल सामान्य मूल्यांकन के लिए किया जा सके।
1575 में, भूमि मापन के लिए रस्सी की जगह तनाब का इस्तेमाल किया जाने लगा। तनाब बांस की लकड़ियों को लोहे के छल्लों द्वारा जोड़ कर बनाया जाता था। इसीलिए कुछ सूबों में पुरानी बटाई और कनकूत पद्धतियां जारी रहीं। इस प्रकार, जहाँ सम्भव था, नपती की जाती थी और अधिक से अधिक जानकारी जुटाई जाती थी। ये सभी उपाय नए जब्ती या बंदोबस्त पद्धतियों के हिस्से थे।
दःसाला पद्धतिः उपरोक्त जब्ती पद्धति के आधार पर टोडरमल द्वारा नए सुधार लागू किये गए। ये सुधार, जिन्हें सामूहिक रूप से ऐन-ए-दः साला कहा जाता था, 1580 में पूर्ण हुए। इस पद्धति में, ज़मीन को चार भागों में विभाजित किया जाता था, अर्थात्, पोलाज, जो हर वर्ष जोती जाती थी, परौती, जो थाड़े समय के लिए पड़त रखी जाती थी (1 या 2 वर्ष के लिए), चाचड़, जो तीन या चार वर्षों के लिए पड़त रखी जाती थी, और बंजर, जो 5 या अधिक वर्षों तक पड़त थी।
1588 में टोडरमल ने मापन की एक सामान इकाई, इलाही गज़, लागू की, जो 41 अंकों (33 इंचों का) मध्यम गज़ होता था। आगे, जैसे अबुल फज़ल कहता है, ऐन-ए-दः साला के अनुसार, उपज की श्रेणी और मूल्यों के स्तर के अनुसार, हर परगने की 10 वर्ष की स्थिति का आकलन किया जाता था। उद्देश्य यही था कि, एक स्थाई जुमा (दस्तूर-उल-अमल) लागू किया जा सके, ताकि वार्षिक मंजूरी की कठिनाइयों और देरी का निराकरण किया जा सके। इस प्रकार, 24 वें राज्य वर्ष में अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अंतिम दस्तूर तैयार किये गए। पिछले 10 वर्षों की नकद औसत उपज दर निर्धारित की गई, और इस प्रकार, नकद दर अंतिम रूप से तय की गई। नकदी फसलों के लिए अलग से दस्तूर निर्धारित किये गए।
भुगतान की पद्धतिः आम तौर पर भुगतान नकद किया जाता था, हालाँकि, इसमें कुछ अपवाद थे। उदाहरणार्थ, कश्मीर और उड़ीसा में भुगतान वस्तु रूप में किया जाता था। नकद भुगतान किसानों के लिए एक कठिन काम था। कीमतें कम होते हुए भी उन्हें फसल तत्काल बेचनी पड़ती थी, क्योंकि राजस्व का भुगतान नकद में करना आवश्यक था, इसलिए नकदी की मांग बहुत अधिक थी, परिणामस्वरूप किसानों पर बनियों की पकड़ मजबूत थी।
8.1 संग्रहण के लिए तंत्र
- गाँव के स्तर पर एक पटवारी होता था। वह एक बही बनाये रखता था, जिसमें किसानों की पूर्ण जानकारी, उनकी जमीन की जानकारी और आंकलित राजस्व की पूरी जानकारी दर्ज रहती थी। यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज था, जो विवाद की स्थिति में सबूत के तौर पर उपयोग किया जाता था। ग्राम प्रधान, जो राजस्व संग्रहकों को उनके काम में मदद करता था, उसे कुल जमा राजस्व का ढ़ाई प्रतिशत वेतन के रूप में मिलता था।
- परगना स्तर पर कानूनगों होते थे। कानूनगो का पद वंशानुगत होता था। वह रेकॉर्ड बनाये रखता था। डेक्कन और गुजरात में इस अधिकारी को देसाई कहा जाता था। वह किसानों के तक्कावी कर्जों और राजस्व के आकलन के लिए भी उत्तरदायी होता था।
- सरकार स्तर (जिला) पर आमिल या अमलगुजार की मदद कारकून (मुनीम) और खजानदार (खजांची) करते थे।
ये सभी अधिकारी प्रांतीय दीवान की देखरेख में काम करते थे, जो सीधे तौर पर केंद्रीय दीवान के तहत होता था।
COMMENTS