यूपीएससी तैयारी - भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास - व्याख्यान - 46

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औरंगजे़ब और मुगल साम्राज्य का पतन, मुगल वास्तुकला और साहित्य भाग - 1

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1.0 प्रस्तावना

अकबर की मृत्यु के बाद, उसके पुत्र जहाँगीर (1605-27) ने शासन किया, और उसके पश्चात उसके पोते शाहजहाँ ने (1628-58)। शाहजहाँ का पुत्र औरंगजे़ब (1658-1707) मुगल साम्राज्य का अंतिम उल्लेखनीय शासक था। उसका शासन ठीक ढ़ंग से शुरू हुआ, और उसने डेक्कन (दक्कन) के मुस्लिम शासकों-बीजापुर और गोलकुण्डा-को मुगलों के नियंत्रण में लिया। वह अन्य धर्मों के प्रति बहुत ही असहिष्णु था, और उसने खुले तौर पर हिंदुओं को सताया। इस कारण से विद्रोह हुए और इन विद्रोहों को दबाने में साम्राज्य का सारा खज़ाना लगभाग खाली हो गया। उसकी मृत्यु के बाद, जो उत्तराधिकारी शासक हुए, उन्हें अपना खोया राज्य पुनर्प्राप्त करने में सफलता नहीं मिली। मुहम्मद शाह के शासनकाल के दौरान (1719-48), मुगल साम्राज्य सिमटता चला गया, और कुछ वर्षों पश्चात, मुगलों का शासन केवल दिल्ली और उसके आस-पास के कुछ क्षेत्रों तक सिमट गया। 1803 में चालाक अंग्रेजों ने इस स्थिति का फायदा उठाया और अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह द्वितीय था, जिसका शासन 1837 में शुरू हुआ। अंत में, 1857 के एक सैन्य ग़दर में सहभागी होने के जुर्म में उसे भारत से निष्कासित कर दिया गया। इस सैन्य ग़दर को सिपाहियों का विद्रोह (भारत की स्वतंत्रता की पहली लड़ाई) कहा जाता है।

2.0 शाहजहाँ के पश्चात् उत्तराधिकार की समस्याएँ 

शाहजहाँ के शासन के अंतिम वर्ष उनके बेटों के बीच उत्तराधिकार की लड़ाइयों से घिरे रहे तिमुरीदों में उत्तराधिकार की कोई स्पष्ट परंपरा नहीं थी। कई मुस्लिम राजनीतिक विचारकों द्वारा शासक द्वारा नामांकन के अधिकार को स्वीकार किया गया है। किंतु सल्तनत काल में यह प्रथा दृढ़तापूर्वक लागू नहीं की जा सकी। तिमुरीदों की विभाजन की परंपरा भी सफल नहीं कही जा सकती, और इसे भारत में कभी लागू ही नहीं किया जा सका।

उत्तराधिकार के सन्दर्भ में हिन्दू परम्पराएं भी स्पष्ट नहीं थीं। अकबर के समकालीन तुलसीदास के अनुसार, एक शासक को अपने पुत्रों में से किसी को भी टीका देने का अधिकार था। किंतु राजपूतों में ऐसे कई उदाहरण थे जहाँ इस प्रकार के नामांकन को अन्य भाइयों ने स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार, राणा सांगा को सिंहासन पर अपने अधिकार को स्थापित करने के लिए अपने भाइयों के साथ कड़वा संघर्ष करना पड़ा था।

1657 के अंतिम दौर में शाहजहाँ दिल्ली में बीमार पड़ा, और एक समय में उसका जीवन मृत्यु के खतरे में था। लेकिन, वह ठीक हुआ और धीरे-धीरे उसने दारा (शिकोह) की वात्सल्यपूर्ण सेवा से अपनी शक्ति वापस प्राप्त की। इस दौरान कई तरह की अफवाहें साम्राज्य में फैलती रहीं। ऐसा कहा गया, कि शाहजहाँ पहले ही मर चुका था, और दारा ने अपना उद्देश्य साधने के लिए वास्तविकता को जानबूझ कर छुपा कर रखा था। कुछ समय पश्चात् धीरे से शाहजहाँ आगरा की ओर रवाना हुआ। इसी दौरान बंगाल में शाहजादे शुजा को, गुजरात में शाहजादे मुराद को और डेक्कन में शाहजादे औरंगजेब को शायद, या तो इन अफवाहों को सत्य मानने के लिए आश्वस्त किया जा रहा था, या वे इन्हें सत्य मानने का बहाना कर रहे थे, और उत्तराधिकार की अवश्यंभावी लड़ाई के लिए तैयारी कर रहे थे।

अपने बेटों के बीच संघर्ष को टालने के लिए, क्योंकि यह मुगल साम्राज्य के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकता था, और अपनी मृत्यु को तेज गति से नजदीक आता देख शाहजहाँ ने दारा को अपना उत्तराधिकारी (वली-अहद) नामांकित करने का फैसला किया। उसने दारा की मनसब 40,000 ज़ट से बड़ाकर अभूतपूर्व  60,000 कर दी। उसे सम्राट की बगल में बैठने की जगह दी गई, और सभी सरदारों को दारा के हुक्म की, उनके अगले सम्राट के रूप में, तामील करने की हिदायत दी गई। लेकिन, शाहजहाँ की इस कार्रवाई से उत्तराधिकार का प्रश्न सुलझने की बजाय और उलझ गया, और इसने, उसके अन्य राजकुमारों को दारा के प्रति षाहजहां के पक्षपाती होने को सिद्ध कर दिया। इसने उनके सिंहासन प्राप्त करने के दावों को और दृढ़ बना दिया।

औरंगजेब की सफलता के कई कारण थे। बंटी हुई सलाह और शत्रु को कम आंकने की गलती, दारा की पराजय के दो मुख्य कारणों में से थे। अपने शहजादों की सैन्य तैयारियों और उनके राजधानी की ओर कूच करने की खबर सुनकर शाहजहाँ ने दारा के बेटे सुलेमान शिकोह के नेतृत्व में और मिर्जा राजा जय सिंह की सहायता के साथ अपनी फौज पूर्व की ओर शुजा, जिसने स्वयं को सम्राट घोषित कर दिया था, से निपटने के लिए रवाना की। एक अन्य सेना, जोधपुर के राजा जसवंत सिंह के नेतृत्व में मालवा की ओर रवाना की। मालवा पहुँचने पर जसवंत सिंह ने देखा कि वह औरंगजेब और मुराद की संयुक्त सेनाओं के समक्ष खड़ा था। दोनों राजकुमार संघर्ष पर तुले हुए थे, और उन्होनें जसवंत से बाजू हटने के लिए कहा।  

जसवंत पीछे हट सकता था, परन्तु पीछे हटना उसे अपमानजनक लगा, और उसने रुक कर लड़ने का निर्णय किया। हालाँकि परिस्थितियाँ निश्चित रूप से उसके विरुद्ध थीं। धरमत में औरंगजेब की विजय (15 अप्रैल 1658) ने उसके समर्थकों का हौसला और उसका रुतबा बढ़ा दिया, जबकि इसने दारा और उसके समर्थकों के हौसले पस्त कर दिए।

इसी बीच दारा ने एक गंभीर गलती की। अपने पद की शक्ति के अतिआत्मविश्वास में उसने अपने सर्वोत्तम दलों को पूर्व के अभियान के लिए रवाना किया था। इस प्रकार उसने राजधानी आगरा को एक तरह से खाली कर दिया था। सुलेमान शिकोह के नेतृव में सेना पूर्व में आगे बड़ी और उसने अपना कर्तव्य का अच्छी तरह से निर्वहन किया। उसने शुजा को अचंभित कर दिया और बनारस के निकट उसे पराजित किया (फरवरी 1658)। चूँकि आगरा का निर्णय पहले ही हो चुका था, उन्होंने उसका पीछा बिहार तक करने का फैसला किया। धरमत की पराजय के बाद, इन फौजों को तुरंत आगरा लौटने के लिए सन्देश भेजे गए। जल्दबाजी में एक संधि करके (7 मई 1658) सुलेमान शिकोह ने पूर्वी बिहार के मुंगेर के अपने शिविर से आगरा के लिए कूच शुरू किया। परंतु औरंगजेब के विरुद्ध लड़ाई के लिए समय से आगरा पहुंचना उसके लिए लगभग असम्भव था।

धारमत के बाद, दारा ने सहयोगी जुटाने के भरसक प्रयास किये। उसने जसवंतसिंह को बार-बार संदेश भेजे, जो जोधपुर वापस चला गया था। उदयपुर के राणा से भी मदद के लिए गुहार लगाई गई। जसवंतसिंह, काफी अनिच्छा से अजमेर के निकट पुष्कर के लिए बढ़ गया। दारा द्वारा उसे दी गई आर्थिक सहायता से उसने एक फौज तैयार की और वह राणा के आने का इंतजार करता रहा। लेकिन राणा को औरंगजेब ने सात हजारी मनसब और 1654 में चित्तौड़ की पुनः किलेबंदी से उत्पन्न झगड़े के कारण शाहजहाँ और दारा द्वारा उससे जीते हुए परगने वापस करने का आश्वासन देकर पहले ही अपनी ओर कर लिया था। औरंगजेब ने राणा को धार्मिक स्वतंत्रता और राणा सांगा के समान सुविधाएं देने का आश्वासन भी दिया। इस प्रकार दारा महत्वपूर्ण राजपूत राजाओं को अपनी ओर करने में भी असफल रहा।

समुगढ़ का युद्ध (29 मई 1658) वास्तव में अच्छे सैन्य नेतृत्व का युद्ध था, क्योंकि सैन्य बल की दृष्टि से दोनों सेनाएं लगभग सामान थीं, व दोनों ओर लगभग 50,000 से 60,000 सैन्य बल था। सैन्य नेतृत्व के मामले में दारा औरंगजेब के सामने कहीं नहीं टिकता था। हाड़ा राजपूत और बरहा के सैय्यद, जिन पर दारा मुख्य रूप से निर्भर था, वे भी जल्दबाजी में इकट्ठी की गई बाकी नौसिखिया सेना की कमी को पाट नहीं सके। दूसरी ओर औरंगजेब के सैनिक युद्ध में परिपक्व और कुशल नेतृत्व के अधीन थे।

पूरे समय औरंगजेब यह दिखावा करता रहा कि उसका आगरा आने का उद्देश्य अपने बीमार पिता को देखना और उन्हें ‘‘विधर्मी‘‘ दारा के नियंत्रण से मुक्त करना था। लेकिन, दारा और औरंगजेब के बीच का युद्ध धार्मिक रूढ़िवाद और उदारतावाद के बीच का युद्ध नहीं था। दोनों सेनाओं के बीच हिन्दू और मुस्लिम समर्थक सामान रूप से विभाजित थे। अन्य युद्धों की तरह, इस युद्ध में भी कुलीनों का दृष्टिकोण उनके व्यक्तिगत हितों और अन्य राजाओं के साथ उनके व्यक्तिगत सम्बन्धों पर आधारित था।

दारा की पराजय और पलायन के बाद शाहजहाँ को आगरा के किले में बंदी बना लिया गया। औरंगजेब ने किले के पानी की आपूर्ति के स्रोतों पर कब्जा करके शाहजहाँ को समर्पण करने को मजबूर कर दिया। शाहजहाँ को आगरा के किले के महिलाओं के विभाग में कडे़ पहरे में रखा गया, हालाँकि उससे किसी प्रकार का दुर्व्यहार नहीं किया गया। वह वहाँ आठ वर्षों तक अपनी लाड़ली बेटी जहाँआरा की सेवा में रहा, जिसने स्वेच्छा किले में उसके साथ रहना पसंद किया था। वह शाहजहाँ की मृत्यु के बाद ही सार्वजनिक जीवन में लौटी, और औरंगजेब द्वारा उसे बहुत सम्मान दिया गया, और उसे इलाके की प्रथम महिला होने का बहुमान दिया गया। औरंगजेब ने उसका निवृत्ति वेतन भी बारह लाख रुपये से बढ़ा कर सत्रह लाख रुपये कर दिया।

औरंगजेब द्वारा मुराद के साथ किये गए समझौते के अनुसार साम्राज्य दोनों के बीच विभाजित होना था। किन्तु मुराद के साथ साम्राज्य बांटने का औरंगजेब का कोई इरादा नहीं था। उसने विश्वासघात करके मुराद को बंदी बना लिया और उसे ग्वालियर के किले में रखा, जहां दो वर्ष बाद वह मार डाला गया।

समुगढ़ के युद्ध में पराजय के बाद दारा लाहौर भाग गया और उसके आस-पास के क्षेत्रों पर नियंत्रण बनाये रखने की योजना बनाने लगा। परंतु जल्द ही औरंगजेब एक बहुत बड़ी सेना के साथ उस इलाके के पड़ोसी क्षेत्र में आ धमका। दारा की हिम्मत ने जवाब दे दिया। उसने बिना किसी संघर्ष के लाहौर छोड़ दिया और सिंध भाग गया। इस प्रकार उसने अपनी किस्मत के दरवाजे लगभग बंद कर लिए। हालाँकि, गृहयुद्ध दो वर्षों तक खिंचा, लेकिन उसके नतीजे के बारे में कोई शंका नहीं थी। सिंध से दारा का गुजरात, और वहाँ से मेवाड़ के शासक जसवंत सिंह के निमंत्रण पर अजमेर पलायन, और अंततः जसवंतसिंह द्वारा विश्वासघात का इतिहास सर्वश्रुत है। अजमेर के निकट दूरै का युद्ध (मार्च 1659) दारा का औरंगजेब के विरुद्ध अंतिम युद्ध था। दारा आराम से ईरान भाग सकता था पर वह अपनी किस्मत अफगानिस्तान में आजमाना चाहता था। रास्ते में बोलन दर्रे में एक विश्वासघाती अफगानी सरदार ने उसे बंदी बना लिया और उसे उसके सबसे खतरनाक शत्रु के हाथ में सौंप दिया।

एक न्यायपीठ ने फैसला सुनाया कि ‘‘धर्म और ईश्वरीय कानून की रक्षा करने की आवश्यकता, और साम्राज्य की शांति भंग करके देशद्रोह करने वाले‘‘ दारा को जीवित रख कर और दुःख नहीं दिया जा सकता। यह औरंगजेब की विशिष्ट शैली थी, जिसके द्वारा, धर्म की आड़ लेकर वह अपने राजनीतिक उद्देश्य साधता था। दारा की हत्या के दो वर्ष बाद, उसका बेटा सुलेमान शिकोह, जिसने गड़वाल के तोलेर के यहाँ शरण ली थी, औरंगजेब की आक्रमण की धमकी के कारण, उसे सौंप दिया गया, और उसका अंजाम भी उसके पिता जैसा ही हुआ।

इससे पहले, औरंगजेब ने शुजा को इलाहाबाद के निकट खजवाह में (दिसंबर 1658) हरा दिया था। उसके विरुद्ध आगे के अभियान की कमान मीर जुमला को सौंप दी गई, जिसने उसे भारत के बाहर अराकान में (अप्रैल 1660) खदेड़ दिया। जल्द ही, उसे और उसके परिवार को अरकानियों द्वारा विद्रोह के आरोप में अपमानजनक मौत दी गई।

दो वर्ष तक जिस गृहयुद्ध ने साम्राज्य को विचलित किया हुआ था, उसने बता दिया कि ना तो शासक द्वारा नामांकन और ना ही साम्राज्य का बँटवारा सिंहासन के प्रतिद्वंदियों को मान्य होगा। सैन्य ताकत उत्तराधिकार हासिल करने का एकमात्र जरिया बन गया, और गृहयुद्ध धीरे-धीरे और विनाशकारी होते गए। एक बार राजगद्दी सुरक्षित कर लेने के बाद, औरंगजेब ने, भाइयों के बीच सिंहासन के लिए मृत्यु तक युद्ध की मुगल परंपरा के प्रभावों को कुछ हद तक शांत करने का प्रयास किया। जहाँआरा बेगम की सलाह पर दारा के बेटे सिफिर शिकोह को 1673 में मुक्त किया गया, उसे मनसब दी गई, और औरंगजेब की बेटी के साथ उसकी शादी की गई। इसी प्रकार, मुराद के बेटे इज़्ज़त बख्ष को भी मुक्त किया गया, उसे भी मनसब दी गई और उसकी भी शादी औरंगजेब की बेटी के साथ की गई। इससे पहले, 1669 में दारा की बेटी जानी बेगम, जिसे जहाँआरा द्वारा अपनी बेटी की तरह पाला गया था, उसका निकाह औरंगजेब के बेटे मुहम्मद आज़म के साथ किया गया था। औरंगजेब और उसके पराजित भाइयों के परिवारों के बीच और भी कई अन्य शादियाँ हुईं। इस प्रकार, तीसरी पीढ़ी में औरंगजे़ब और उसके पराजित भाइयों के परिवार एक हो गए।

3.0 औरंगज़ेब का शासन और उसकी धार्मिक नीति 

औरंगजे़ब ने लगभग 50 वर्षों तक शासन किया। उसके शासन काल के दौरान मुगल साम्राज्य, सीमा क्षेत्र की दृष्टि से, अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा। अपने शिखर पर यह उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में जिंजी तक और पश्चिम में हिंदुकुश से पूर्व में चित्तगोंग तक फैला हुआ था। औरंगजे़ब एक बहुत ही कठिन परिश्रमी शासक साबित हुआ और राज्य के कामों से न उसने स्वयं कभी जी चुराया न अपने मातहतों को ऐसा करने दिया। उसके लिखे पत्र बताते हैं कि वह अपने राज्य के मामलों का कितना ध्यान रखता था। वह कड़क अनुशासन वादी था, जो अपने बेटों को भी माफ नहीं करता था। 1686 में, गोलकुण्डा के शासक के साथ मिलकर साजिश करने के आरोप में उसने अपने बेटे मुअज़्ज़म को बंदी बनाया, और उसे 12 वर्षों तक कैद में रखा। उसके अन्य बेटों को भी कई बार उसके क्रोध का सामना करना पड़ा। औरंगजे़ब की दहशत इतनी थी, कि उसके जीवन के उत्तरार्ध में भी जब मुअज़्ज़म काबुल का प्रशासक था और औरंगजेब सुदूर दक्षिण में था, फिर भी औरंगजेब के यहाँ से आये हुए पत्र को देख कर भी मुअज़्ज़म डर से कांपने लगता था। उसके पूर्ववर्तियों के विपरीत औरंगजे़ब को आड़म्बर पसंद नहीं था। उसका व्यक्तिगत जीवन सादगी की मिसाल था। उसकी ख्याति एक रूढ़िवादी अल्लाह से डरने वाले मुसलमान के रूप में थी। समय के साथ लोग उसे जिंदा पीर या ‘‘जीवित फकीर‘‘ मानने लगे थे। हालाँकि यह उसकी प्रजा के एक वर्ग के लिए सही हो सकता था, पर हिन्दू प्रजा इसे बहुत ही हास्यास्पद और अपमानजनक मानती थी।  

एक शासक के रूप में औरंगजे़ब की उपलब्धियों के बारे में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ के अनुसार, उसने अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति को बदल दिया जिससे  साम्राज्य के प्रति हिंदुओं की निष्ठा कमजोर हुई। उनके अनुसार, इसका परिणाम स्थानीय उठावों में हुआ, जिन्होंने साम्राज्य की जीवनशक्ति को कमजोर कर दिया। उसके शक्की स्वभाव ने उसकी समस्याओं में वृद्धि की। खाफी खान के शब्दों में ‘‘उसकी सभी योजनाएँ बहुत लंबी होती थीं और सब की सब असफल हुईं’’। कुछ इतिहासकारों को लगता है कि औरंगजेब को अन्यायपूर्ण तरीके से बदनाम किया गया है, हिंदुओं की साम्राज्य के प्रति निष्ठा में कमी, उसके पूर्ववर्तियों के कारण आयी थी। शायद इसी कारण औरंगजेब को कठोर उपाय करने पडे़ और मुसलमानों को अपनी ओर करने के उपाय करने पड़े, क्योंकि लम्बे समय में इन्ही के समर्थन पर साम्राज्य टिका रह सकता था। हाल के समय में, औरंगजेब पर किये गए लेखन में एक नया रुझान दिखाई देता है, जिसमे, औरंगजेब की धार्मिक और राजनीतिक नीतियों को सामाजिक, आर्थिक, और संस्थागत विकास के परिपेक्ष्य में देखने का प्रयास किया गया है। इसमें कोई शक नहीं है कि अपनी आस्था के प्रति वह रूढ़िवादी मतों का था। दार्शनिक चर्चाओं या रहस्यवाद में उसकी रूचि नहीं थी, हालाँकि वह कभी-कभी सूफी संतों के दर्शन के लिए और उनके आशीर्वाद लेने के लिए जरूर जाता था। उसने अपने बेटों पर कभी सूफीमत में आस्था रखने का विरोध नहीं किया। मुस्लिम कानून के हनाफी मतवादी विचारों, जो पारम्परिक रूप से भारत में माने जाते थे, पर उसके विचारों के अनुसार, औरंगजेब ने धर्मनिरपेक्ष फैसले, जिन्हे ज़वाबित कहा जाता था, लेने में कभी संकोच नहीं किया। उसके इन फैसलों को जवाबित-ए-आलमगिरी नामक पुस्तक में संग्रहित किया गया है। सैद्धांतिक दृष्टि से ज़वाबित शरिया के पूरक थे। हालाँकि, व्यवहारिक रूप से, भारत में प्रचलित स्थितियों की दृष्टि से वे शरिया को संशोधित करते थे, क्योंकि शरिया में इन स्थितियों के लिए कोई प्रावधान नहीं थे।

इस प्रकार, एक रूढ़िवादी मुसलमान होने के साथ ही औरंगजेब एक शासक भी था। वह इस राजनैतिक वास्तविकता को भुला नहीं सकता था कि भारत की बहुतांश जनसंख्या हिन्दू थी और वे अपनी आस्था और विश्वास से गहराई से जुड़े हुए थे। ऐसी कोई भी नीति जो हिंदुओं और हिन्दू राजाओं और जमींदारों को अलग-थलग करती हो, भारत में कारगर होना असम्भव थी।

औरंगजेब की धार्मिक नीति का विश्लेषण करते समय हमें यह देखना होगा, कि धार्मिक और नैतिक नियम किसे कहा गया है। अपने शासन की शुरुआत में, उसने सिक्कों पर कलमा अंकित करने पर पाबन्दी लगा दी थी, क्योंकि उसका मानना था, कि एक हाथ से दूसरे हाथ आते जाते ये सिक्के अपवित्र और मैले होते थे और ऐसा भी संभव  था कि वे गिरने पर पैरों के नीचे आ सकते थे। उसने नौरोज का त्यौहार भी बंद करवा दिया था, क्योंकि यह एक पारसी प्रथा थी, जो ईरान के सफाविद शासक द्वारा अपनाई जाती थी। सभी प्रांतों में मुहतासिबों की नियुक्ति की गई थी। इनकी ये जिम्मेदारी थी कि वे सुनिश्चित करें कि लोग शरिया के अनुसार व्यवहार करें। अतः इन अधिकारियों की जिम्मेदारी थी, कि शराब और भांग जैसे नशीले पदार्थों का सेवन सार्वजनिक स्थानों पर ना हो। साथ ही बदनाम बस्तियाँ, जुआखाने इत्यादि नियंत्रण में रहें, और नापतौल और बाटों का उपयोग भी सही तरीके से हो, इस पर ध्यान रखना भी उनकी  जिम्मेदारी थी। दूसरे शब्दों में उनका काम यह सुनिश्चित करना था, कि जवाबित के अनुसार प्रतिबंधित बातों का, कम से कम खुले तौर पर, उल्लंघन ना हो।  

मुहतासिबों की नियुक्ति के पीछे औरंगजेब का उद्देश्य यह स्थापित करना था कि राज्य का नागरिकों के नैतिक कल्याण के प्रति भी उत्तरदायित्व था। किंतु इन अधिकारियों को स्पष्ट निर्देश थे कि वे नागरिकों के निजी जीवन में हस्तक्षेप ना करें। 

बाद में, अपने शासनकाल के ग्यारहवें वर्ष में (1669) औरंगजेब ने कई उपाय किये जिन्हें सख्त माना गया, लेकिन उनमे से कई आर्थिक और सामजिक दृष्टि से आवश्यक और अंधविश्वासी मान्यताओं के खिलाफ थे। उसने दरबार में गाना बजाना बंद करवा दिया और शासकीय गायकों को निवृत्त कर दिया।

हालाँकि, वाद्य संगीत और नौबत (शाही बैंड) जारी रहे। हरम में स्त्रियों द्वारा, और व्यक्तिगत सरदारों द्वारा संगीत को संरक्षण जारी रहा। जैसा पहले भी कहा गया है, यह जानना रोचक होगा, कि शास्त्रीय संगीत पर फारसी में सर्वाधिक पुस्तके औरंगजेब के शासन काल में लिखी गई थीं, और औरंगजेब स्वयं बहुत अच्छा वीणा वादक था।

औरंगजे़ब ने झरोखा दर्शन की प्रथा, अर्थात झरोखे से प्रजा के सामने उपस्थित होने की प्रथा, इसलिए बंद कर दी क्योंकि उसका मानना था कि यह एक अंधविश्वास था और शरिया के खिलाफ था। इसी तरह उसने जन्मदिन पर सम्राट को सोने-चांदी या अन्य वस्तुओं में तोलने की प्रथा भी बंद करवा दी। यह प्रथा जो शायद अकबर के काल में शुरू हुई थी, और काफी बड़े पैमाने पर प्रचलित थी, छोटे सरदारों पर बोझ थी। परंतु सामजिक राय का बोझ काफी ज्यादा था। औरंगजेब को अपने बेटों के बीमारी से ठीक होने पर इस समारोह की अनुमति देनी पड़ती थी। उसने ज्योतिषियों के पंचांग बनाने पर रोक लगा दी थी। किन्तु इस आदेश का उल्लंघन शाही परिवार के सदस्यों सहित सभी के द्वारा खुले तौर पर किया जाता था।

इसी प्रकार के कई अन्य उपाय किये गए, जिनमें से कुछ नैतिक स्वरुप के थे तो अन्य कुछ मितव्ययिता से सम्बंधित थे। सिंहासन का कमरा सस्ते और सादा शैली से सजाया जाता था। कारकूनों को चांदी की दवात के बजाय चीनी मिट्टी की दवातों का इस्तेमाल करना होता था। रेशमी कपड़ों को नाराजी की निगाह से देखा जाता था, दीवान-ए-आम के सोने के कटघरे सोने पर लप्सी लाजुली काम वाले कटघरों द्वारा प्रतिस्थापित किये गए। मितव्ययिता की दृष्टी से सरकारी इतिहास लेखन विभाग भी बंद कर दिया गया। ख्लैपिस लज़ुली एक गहरा नीला अर्द्ध-बहुमूल्य पत्थर होता है, 

मुस्लिमों के बीच व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए औरंगजेब ने पहले चरण में मुस्लिम व्यापारियों को बड़े पैमाने पर उपकर से मुक्त कर दिया। अभी तक मुस्लिम व्यापारी शासन की सहायता पर ही निर्भर थे। लेकिन शीघ्र ही उसने देखा कि हिन्दू व्यापारियों के माल को भी अपना बता कर नाके से निकलवा कर व्यापारी इसका गलत उपयोग कर रहे थे, और शासन को धोखा दे रहे थे। इसलिए औरंगजेब ने मुस्लिम व्यापारियों पर उपकर फिर से लागू कर दिया, हालाँकि इसकी दर अन्य व्यापारियों से लिए गए उपकर की दर की तुलना में आधी थी।

उसी प्रकार, उसने पेशकारों और करोड़ियों (छोटे राजस्व अधिकारी) के पद मुस्लिमों के लिए आरक्षित कर दिए, लेकिन सरदारों के विरोध और लायक मुस्लिमों के अभाव के कारण जल्द ही इसमें परिवर्तन करना पड़ा। अब हम औरंगजेब के कुछ उन उपायों की चर्चा करते हैं जिन्हे पक्षपाती और दूसरे धर्म के मानने वालों की दृष्टि से कट्टर कहा जा सकता है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण था औरंगजेब का मंदिरों के प्रति दृष्टिकोण और जिज़याह (जजि़या) कर लागू करना।

अपने शासन के प्रारंभिक वर्षों में औरंगजेब ने मंदिरों, यहूदी उपासना गृहों, चर्चों, इत्यादि के बारे में शरिया स्थिति पर ज़ोर दिया कि ‘‘पुराने मंदिरों को तोड़ा नहीं जाये पर कोई नया मंदिर ना बनाया जाये‘‘। वैसे पुराने धर्मस्थलों की मरम्मत की जा सकती थी, क्योंकि ‘‘भवन सदा के लिए खड़े नहीं रह सकते थे‘‘। यह स्थिति उसके द्वारा बनारस, वृन्दावन, इत्यादि के ब्राह्मणों को जारी किये गए प्रचलित फरमानों से स्पष्ट होती है।

मंदिरों के विषय में औरंगजे़ब का आदेश नया नहीं था। यह केवल सल्तनत काल से चली आ रही और शाहजहाँ द्वारा उसके शासन काल के प्रारंभिक वर्षों में पुष्ट की गई स्थिति का पुनर्पुष्टिकरण था। व्यवहार में, इसने स्थानीय अधिकारियों के लिए ‘‘पुराने समय से चले आ रहे मंदिरों‘‘ शब्दों की व्याख्या मुश्किल बना दी। इन अधिकारियों के लिए सम्राट की व्यक्तिगत राय और भावनाएँ निश्चित रूप से महत्वपूर्ण थीं। उदाहरणार्थ, शाहजहाँ के प्रिय, उदारवादी दारा के उदय के बाद उसके मंदिरों के विषय में आदेश के साथ कुछ मंदिर तोड़ दिए गए थे। गुजरात के प्रशासक के रूप में औरंगजेब ने गुजरात के कई मंदिरों को ध्वस्त कर दिया था जिसका आम तौर पर अर्थ यह था कि मूर्तियों को तोड़ दिया जाता था, और मंदिरों को बंद कर दिया जाता था। अपने शुरुआती दौर में औरंगजेब ने महसूस किया कि तोड़े गए मंदिरों में मूर्तियां फिर से स्थापित कर दी गई थीं और पूजा फिर से शुरू कर दी गई थी, इसलिए, 1665 में औरंगजेब ने फिर से फरमान जारी किया, कि इन मंदिरों को नष्ट कर दिया जाये। सोमनाथ का प्रसिद्ध मंदिर, जो उसने अपने प्रारंभिक काल में नष्ट कर दिया था, शायद उपरोक्त मंदिरों में से एक था।

फिर भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि नए मंदिरों के निर्माण पर रोक के ़औरंगजेब के आदेश के कारण, उसके शुरुआती काल में बड़े पैमाने पर मंदिरों को नष्ट किया गया हो। चूँकि औरंगजे़ब को मराठों, जाटों, इत्यादि जैसे अनेक क्षेत्रों से राजनैतिक विरोध का सामना करना पड़ रहा था, इसलिए शायद उसने नया रुख अख्तियार किया, ऐसा लगता है। स्थानीय तत्वों के साथ संघर्ष में, सजा के रूप में और चेतावनी के रूप में, उसने पुराने स्थापित मंदिरों को नष्ट करना भी जायज़ माना। ठीक उसी प्रकार, उसने मंदिरों को विध्वंसकारी विचारों का प्रसार करने वाले केन्द्रों के रूप में देखा, मतलब ऐसे विचार जो रूढ़िवादी तत्वों को मान्य नहीं थे। इसलिए जब उसे पता चला कि ठट्टा, मुल्तान और विशेष रूप से बनारस के कुछ मंदिरों में हिन्दू और मुस्लिम, दोनों समुदायों के लोग दूर-दूर से ब्राह्मणों से शिक्षा प्राप्त करने आते हैं, तो उसने उन पर कठोर कार्रवाई की।

औरंगजे़ब ने सभी प्रांतों के गवर्नरों को सख्त फरमान जारी किये कि इस प्रथा को तत्काल बंद किया जाये और जिन मंदिरों में यह प्रथा प्रचलित थी, उन्हें सख्ती से नष्ट किया जाये। इन फरमानों के परिणामस्वरूप, बनारस के प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर और जहांगीर के शासन के दौरान वीर सिंह देव बुंदेला द्वारा निर्मित मथुरा के केशव राय मंदिर जैसे कई मंदिरों को नष्ट कर दिया गया, और उनके स्थान पर मस्जिदें बना दी गईं। इन मंदिरों के विध्वंस के पीछे राजनैतिक उद्देश्य भी था। मथुरा के केशव राय मंदिर के विध्वंस के बारे में मासीर-ए-आलमगिरी के लेखक मुस्तैद खान लिखते हैं, ‘‘सम्राट की आस्था की ताकत और ईश्वर के प्रति उसकी भक्ति के वैभव का नजारा देखकर घमंडी राजा अवाक् रह गए और आश्चर्य से दीवार की ओर मुँह करके बुत की तरह खड़े रह गए।‘‘

इसी सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है, कि अंतिम दस से बारह वर्षों में उड़ीसा में बने मंदिरों को भी नष्ट कर दिया गया था। तथापि, यह मानना गलत होगा, कि व्यापक रूप से मंदिरों को ध्वस्त करने के कोई आदेश थे। हालाँकि संघर्षों के समय के दौरान की स्थिति अलग थी। जैसे 1679-80 के दौरान जब मारवाड़ के राठोड़ों और उदयपुर के राणा के विरुद्ध युद्ध के हालात थे उस दौरान जोधपुर और उसके विभिन्न परगनों में और उदयपुर के कई बहुत पुराने स्थापित मंदिर भी ध्वस्त कर दिए थे।

अपनी मंदिरों-सम्बंधित नीति में हालाँकि औरंगजेब शरिया की व्यापक रूपरेखा के अंतर्गत रहा हो सकता है, परंतु इसमें कोई शक नहीं है कि इस मामले में उसकी नीति उसके पूर्वजों द्वारा लागू की गई व्यापक धार्मिक सहिष्णुता की नीति को एक झटका थी। इससे ऐसी सोच के वातावरण का पोषण हुआ कि मंदिरों का विध्वंस सम्राट की ओर से ना केवल क्षम्य होगा, बल्कि सम्राट इससे प्रसन्न भी होगा। हालाँकि, औरंगजेब द्वारा हिन्दू मंदिरों और मठों को दान देने की घटनाएँ देखी गई हैं, फिर भी मंदिरों के प्रति औरंगजेब की नीति से हिन्दुओं के बड़े वर्गों में असंतोष फैलना अवश्यम्भावी था। ऐसा लगता है कि 1679 के बाद मंदिर विनाश का औरंगजेब का उत्साह काम होता प्रतीत होता है, क्योंकि दक्षिण में 1681 से 1707 में औरंगजेब की मृत्यु तक मंदिर विध्वंस के कोई बड़े उदाहरण सुनने में नहीं आये। पर एक नया सिरदर्द, जिज़याह या व्यक्ति कर, इसी अंतराल के दौरान शुरू किया गया था।  

शरिया के अनुसार, एक मुस्लिम राज्य में गैर-मुस्लिमों द्वारा जिज़याह (जज़िया) का भुगतान अनिवार्य (वाजिब) था। अकबर ने इसे समाप्त कर दिया था। हालाँकि, मुस्लिम रूढ़िवादी धर्मशास्त्रियों का एक वर्ग इसे पुनःजीवित करने के लिए लगातार आंदोलन कर रहा था, ताकि इस्लाम और इन धर्मशास्त्रियों की श्रेष्ठ स्थिति सभी के समक्ष जाहिर हो सके। ऐसा कहा जाता है कि सत्ता संभालने के बाद कई अवसरों पर औरंगजेब ने जज़िया को पुनर्जीवित का विचार किया किंतु राजनैतिक विरोध के डर की वज़ह से ऐसा कर न सका। अंत में 1679 में, अपने शासन के बाईस वें वर्ष में उसने उसे पुनः लागू किया। जज़िया के पुनः लागू करने के निर्णय के उद्देश्य के बारे में इतिहासकारों के बीच काफी विचार विमर्श हुआ है। इसे हिंदुओं पर आर्थिक बोझ बढ़ाकर उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर करना यह उद्देश्य नहीं हो सकता क्योंकि इसका बोझ बहुत कम था। दूसरे, औरतें, बच्चे, अपाहिज, गरीब, अर्थात् वे जिनकी आय गुजर-बसर करने लायक आय से काम हो, ये सारे लोग इसके भुगतान से मुक्त थे। वैसे ही, सरकारी मुलाजिमों को भी भुगतान से छूट प्राप्त थी। और एक कर के बोझ के कारण अपने धर्म को छोड़ने वाले हिन्दुओं की संख्या नगण्य थी। यह एक कठिन आर्थिक परिस्थिति से मुकाबला करने के लिए भी लागू नहीं किया गया था। हालांकि, जज़िया से प्राप्त आय पर्याप्त बड़़ी थी, तो औरंगजेब ने अबवाब नामक उपकर, जो शरिया द्वारा स्वीकृत नहीं थे व इसलिए औरंगजेब की नजरों में गैर कानूनी थे, बंद कर दिए थे। मतलब वह बड़ी रकम का त्याग करने में संकोची नहीं था।

वास्तव में जिज़याह लागू करने का निर्णय राजनैतिक और वैचारिक, दोनों था। यह, मराठों और राजपूतों के विरुद्ध साम्राज्य की रक्षा करने के लिय केवल मुस्लिमों की मदद के लिए था। और डेक्कन के मुस्लिम राज्यों के विरुद्ध था, विशेष रूप से गोलकुंडा के क्योंकि वह काफिरों के साथ गठबंधन में था। दूसरे, जज़िया ईमानदार, ईश्वर से डरने वाले मुस्लिमों द्वारा संग्रह किया जाना था, जिनकी नियुक्ति विशेष रूप से इस काम के लिए की गई थी, और इससे संग्रहित रकम उलेमाओं के लिए सुरक्षित थी। यह धर्मशास्त्रियों के लिए एक बड़ी रिश्वत थी क्योंकि उनमे बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की समस्या थी। फिर भी, जज़िया लागू करने से होने वाले फायदों से नुकसान अधिक थे। हिन्दुओं ने यह कह कर इसका कड़वा विरोध किया कि यह भेदभाव दर्शाता है। इसके वसूल करने के तरीके की भी कुछ विशेषताएँ थीं। करदाता को इसका भुगतान करने के लिए व्यक्तिगत रूप से जाना पड़ता था, और कई बार उसे धर्मशास्त्रियों के हाथों अपमानित होना पड़ता था। क्योंकि गाँवों में इसकी वसूली भू-राजस्व के भुगतान के समय हो जाती थी, शहरों के संपन्न इसकी वज़ह से अधिक प्रभावित थे। 

इसीलिए कई अवसरों पर यह देखने में आया, कि इसके विरुद्ध कई बार हिन्दू व्यापारियों ने उनके प्रतिष्ठान बंद रखे और हड़ताल की। इसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार भी था, जिस कारण कई अमीन या जज़िया संग्राहक मारे भी गए, परंतु औरंगजेब झुकने के लिए तैयार नहीं था, और कृषकों को जज़िया के भुगतान से छूट देने को राजी नहीं था। यहाँ तक कि प्राकृतिक आपदाओं के समय, जब इसमें छूट दी जानी चाहिए थी, तब भी नहीं। अंत में 1705 में ‘‘दक्षिण में युद्ध के समय के लिए‘‘ (जिसका कोई अंत नजर नहीं आता था) उसे जज़िया समाप्त करना पड़ा। इसने हालाँकि उसकी मराठों के साथ संधि वार्ता को प्रभावित नहीं किया, किन्तु समय के साथ यह पूरे साम्राज्य में निष्प्रभ हो गया। औपचारिक रूप से 1712 में इसे समाप्त कर दिया गया। 

कुछ आधुनिक लेखकों का मानना है कि औरंगजेब के ये उपाय, भारत को एक दार-उल-हरब, या काफिरों की भूमि से, दार-उल-इस्लाम या मुस्लिमों की भूमि में परिवर्तित करने के लिए थे। हालाँकि, औरंगजेब इस्लाम में धर्म परिवर्तन को जायज़ मानता था, फिर भी व्यवस्थित पद्धति से या बड़े पैमाने पर जबरदस्ती धर्म परिवर्तन के उदाहरण नहीं मिलते हैं। उसी प्रकार, उच्च पदों पर बैठे हिन्दुओं के साथ पक्षपात के उदहारण भी नहीं मिलते हैं। हाल का एक अध्ययन बताता है कि औरंगजेब के शासन काल के उत्तरार्ध में कुलीनों में हिन्दुओं की संख्या में काफी इजाफा हुआ। यह संख्या इतनी बढ़ गई कि उस दौरान मराठों सहित, हिन्दू कुलीनों की संख्या कुलीनों की कुल संख्या की एक तिहाई हो गई, जो शाहजहाँ के काल में एक चौथाई थी। एक उदहारण में, जिसमें एक पद पर धर्म के आधार पर दावा किया गया था, औरंगजेब लिखता है, ‘‘सांसारिक मामलों का धर्म से क्या सम्बन्ध या अधिकार था? और धार्मिक मामलों को कट्टरता का क्या अधिकार था? आप के लिए आप का धर्म है और मेरे लिए मेरा। यदि यह नियम (जो आप सुझा रहे हैं) स्थापित हो जाता है तो मुझे सभी (हिन्दू) राजाओं और उनके अनुयाइओं को निकाल देना पड़ेगा।‘‘

इस प्रकार औरंगजेब ने राज्य की स्थिति बदलने का प्रयास नहीं किया, परंतु उसके मूल रूप से इस्लामिक चरित्र पर बल दिया। हालांकि वह एक रूढ़िवादी मुस्लिम था, जो धार्मिक नियमों का सख्ती से पालन कराना चाहता था, एक शासक के रूप में, वह अपने साम्राज्य को मजबूत करना चाहता था और उसका विस्तार करना चाहता था। इसलिए, जहाँ तक संभव था, वह हिन्दुओं का समर्थन खोना नहीं चाहता था। हालाँकि, एक ओर उसके धार्मिक विचार और मान्यताएं, और दूसरी ओर उसकी राजनैतिक और लोक नीतियां, इनमें कई बार टकराव की स्थिति निर्मित होती थी, ऐसे समय औरंगजेब को निर्णय लेने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता था। इससे, कभी-कभी उसे विरोधाभासी नीतियाँ लागू करने पर मजबूर होना पड़ता था।

4.0 औरंगजेब और डेक्कन (दक्कन) के राज्य (1658-87)

डेक्कन (दक्कन) के राज्यों के साथ औरंगजेब के संबंधों को तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है। पहला चरण 1668 तक चला, जिसमें, 1636 की संधि के तहत अहमदनगर के वे  क्षेत्र जो बीजापुर को देने पड़े थे, वे बीजापुर से वापस प्राप्त करना था। दूसरा चरण 1684 तक चला, जिसमें डेक्कन में मराठों को सबसे बड़ा खतरा माना गया, और मराठों के महान नेता शिवाजी भोंसले और उसके पुत्र संभाजी के विरुद्ध मुगलों को बीजापुर और गोलकुंडा का साथ प्राप्त करने का प्रयास किया गया। साथ ही साथ, मुगल, डेक्कनी राज्यों पर छुट-पुट हमले करके उन्हें पूर्ण रूप से अपने अधीन और नियंत्रण में लेने का प्रयास करते रहे। अंतिम चरण तब शुरू हुआ जब औरंगजेब मराठों के विरुद्ध बीजापुर और गोलकुंडा का समर्थन प्राप्त करने के मामले में निराश हो गया, और उसने निर्णय किया, कि मराठों की शक्ति को नष्ट करने के लिए पहले बीजापुर और गोलकुंडा पर विजय प्राप्त करना आवश्यक था।

1636 की संधि, जिसके तहत शाहजहाँ ने अहमदनगर राज्य के एक तिहाई क्षेत्र बीजापुर और गोलकुंडा को मराठों को उनका समर्थन वापस लेने के लिए रिश्वत के रूप में दिए गए थे, और यह वादा भी किया था, कि मुगल ‘‘कभी भी‘‘ बीजापुर और गोलकुंडा पर कब्जा ‘‘नहीं करेंगे,‘‘ शाहजहाँ द्वारा स्वयं ही भंग कर दी गई। 1657-58 में बीजापुर और गोलकुंडा लुप्त होने की कगार पर पहुँच गए थे। गोलकुंडा को एक भारी रकम क्षति पूर्ती के रूप में देनी पड़ी और बीजापुर को 1636 में दिए गए निजामशाही के क्षेत्र वापस लौटाने पड़े। 

इसका ‘‘औचित्य‘‘ यह बताया गया, कि इन दोनों राज्यों ने कर्नाटक में बड़े क्षेत्र जीते थे, और ये दोनों ही राज्य मुगल साम्राज्य की जागीरें होने के नाते उन्हें मुगलों को ‘‘क्षतिपूर्ति‘‘ देना लाजमी था, क्योंकि उन्हें ये विजयें मुगलों की कृपालु तटस्थता के कारण मिली थीं। वास्तविकता यह थी, कि डेक्कन में विशाल मुगल सेना के खर्चे उठाना मुगलों को भारी पड़ रहा था, और डेक्कन क्षेत्र में मुगलों के अधीन क्षेत्रों से मिलने वाली आमदनी इन खर्चों को पूरा करने लायक नहीं थी। लम्बे समय तक ये खर्चे मालवा और गुजरात के खजानों से प्राप्त इमदाद (राज्य सहायता) से पूरे किये जा रहे थे।  डेक्कन में सीमित क्षेत्र में बने रहने की नीति जारी रखने के दूरगामी निहितार्थ थे, जो, संभवतः शाहजहाँ और औरंगजेब दोनों को पूर्ण रूप से मंजूर नहीं थे। इसे मुगलों द्वारा की गई संधियों और दिए गए वादों पर सदा के लिए विश्वास उठ गया, जिसके कारण, मराठों के विरुद्ध ‘‘दिलों का मिलन‘‘ असंभव हो गया-एक ऐसी नीति, जो औरंगजेब द्वारा धैर्य के साथ 25 वर्षों तक अपनाई गई, किन्तु जिसमे उसे अल्प सफलता मिली।

प्रथम चरण (1658-68): शासन की बागडोर सँभालते समय डेक्कन में औरंगजेब के सामने दो समस्याएँ थीं, शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति की समस्या और बीजापुर से 1636 की संधि के तहत दिए गए क्षेत्रों को उससे वापस प्राप्त करने की समस्या। कल्याणी और बीदर 1657 तक जीत लिए गए थे। परेंदा भी 1660 में रिश्वत के माध्यम से प्राप्त हो गया था। सोलापुर बचा हुआ था। गद्दी पर आते ही औरंगजेब ने जय सिंह से शिवाजी और आदिलशाह, दोनों को सबक सिखाने को कहा। यह, औरंगजेब का अपनी सेना और हथियारों पर विश्वास, और प्रतिद्वंदियों की शक्ति को काम आँकना दर्शाता है। लेकिन जय सिंह एक मंजा हुआ राजनेता था। उसने औरंगजेब को समझाया कि ‘‘इन दोनों मूर्खों पर एकसाथ आक्रमण करना सही नहीं होगा।‘‘ 

हालाँकि जय सिंह अकेला ऐसा मुगल राजनेता था जिसने डेक्कन में उस समय सर्वतोमुखी आगे कूच की नीति का समर्थन किया था। जय सिंह का मानना था कि सर्वतोमुखी आगे कूच की नीति के बिना शिवाजी की समस्या से निपटना संभव नहीं होगा- एक ऐसा निष्कर्ष जिस पर औरंगजेब, अंततः 20 वर्षों बाद पहुंचा।

अपनी बीजापुर आक्रमण की योजना बनाते समय जय सिंह ने औरंगजेब को लिखा था, ‘‘बीजापुर की विजय संपूर्ण डेक्कन और कर्नाटक विजय की प्रस्तावना है।‘‘  लेकिन औरंगजेब अपनी निर्भीक नीति से पीछे हट गया। हम इसके कारणों के बारे में केवल अंदाज लगा सकते हैं। उत्तर-पश्चिम में, ईरान के शासक ने एक आक्रामक रुख अपनाया था। डेक्कन विजय का अभियान काफी लम्बा और कठिन होगा और जैसा कि शाहजहाँ के दुर्भाग्यपूर्ण अनुभव से स्पष्ट था, बड़ी सेनाएं किसी सेनापति या राजकुमार के अधीन नहीं रखी जा सकतीं, इसलिए सम्राट की सेना के साथ उपस्थिति अनिवार्य थी। वैसे भी जब तक शाहजहाँ जीवित था, औरंगजेब एक सुदूर के अभियान पर जाने का खतरा कैसे उठा सकता था?

अपने सीमित संसाधनो के कारण जय सिंह का बीजापुर अभियान (1665) असफल होना लाजमी था। इस अभियान ने मुगलों के विरुद्ध दक्षिणी राज्यों के एकीकृत संगठन को पुनर्जीवित कर दिया, क्योंकि कुतुबशाह ने बीजापुर की मदद के लिए एक बड़ी सेना भेजी। दक्कनी सेनाओं ने छापामार कार्रवाई का सहारा लिया, जय सिंह को बीजापुर की ओर जाने दिया और पीछे से सारे गाँवों को नष्ट कर दिया, ताकि मुगल सेना तक रसद ना पहुँच सके। जय सिंह को पता चल गया कि वो शहर पर हमला नहीं कर सकता, क्योंकि वो घेराबंदी बन्दूकें साथ नहीं लाया था, और शहर पर आक्रमण असंभव था। पीछे हटना बहुत महंगा पड़ा क्योंकि इस अभियान से जय सिंह को न तो किसी अतिरिक्त क्षेत्र का अधिकार मिला और ना ही लूट की संपत्ति। अभियान की विफलता की निराशा और औरंगजेब की झिड़कियों ने जय सिंह की मृत्यु को नजदीक ला दिया (1667)। अगले ही वर्ष (1668), मुगलों को रिश्वत के द्वारा सोलापुर प्राप्त हुआ। इस प्रकार पहला चरण समाप्त हुआ।

दूसरा चरण (1668-84): 1668 से 1676 के बीच मुगल डेक्कन में केवल समय व्यतीत कर रहे थे। इस दौरान एक नयी बात जो थी गोलकुंडा में मदन्ना और अखन्ना की शक्ति का उदय। इन दो होनहार भाइयों ने गोलकुंडा पर 1672 से 1687 में इसके पतन तक लगभग राज किया। इन भाइयों ने गोलकुंडा, बीजापुर और शिवाजी के बीच एक त्रिपक्षीय संगठन की नीति अपनाई। इस नीति में समय-समय पर बीजापुर दरबार में दलगत झगड़ों और चतुर प्रतिभावान शिवाजी की आत्माभिमानी महत्वाकांक्षाओं के कारण व्यवधान आये। एक स्थाई नीति के लिए बीजापुर के गुटीय संघर्षों के कारण उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता था। वे अपने तात्कालिक हितों के अनुसार मुगलों के साथ पक्ष-विपक्ष का खेल खेलते थे। हालाँकि, शिवाजी के बढ़ते प्रभाव के कारण औरंगजेब गंभीर चिंता में था, लेकिन, शायद वह अपना डेक्कन विस्तार सीमित रखने के लिए उत्सुक था। इसलिए उसने लगातार बीजापुर पर ऐसे पक्ष को स्थापित करने का प्रयास किया जो शिवाजी के विरुद्ध मुगलों का सहयोग करे और जो गोलकुंडा की ओर झुका हुआ ना हो।

इस नीति को लागू करने के प्रयासों के रूप में मुगलों ने कई हस्तक्षेप किये, जिनका ब्यौरा हमारे लिए अनावश्यक है।

मुगलों के डेक्कन में किये गए कूटनीतिक और सैन्य प्रयासों का एक ही परिणाम निकला, और वह था तीन दक्षिणी सत्ताओं का मुगलों के विरुद्ध एकीकृत मोर्चा। मुगल वाइसरॉय दिलेर खान का 1679-80 में बीजापुर जीतने का आखरी हताश प्रयास भी असफल हुआ, विशेष रूप से इसलिए, क्योंकि किसी भी मुगल वाइसरॉय के पास दक्षिणी एकीकृत मोर्चे के विरुद्ध लड़ने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे। एक नया तत्व जो उभरा वो थे कर्नाटकी पैदल सैनिक। बेरार प्रमुख द्वारा भेजे गए तीस हजार के इस विशाल बल ने मुगलों के बीजापुर की घेराबंदी के मंसूबों पर पानी फेर दिया। शिवाजी ने भी बीजापुर को छुड़ाने के लिए बड़ा सैन्य बल भेजा और उसने मुगलों के ठिकानों पर चारों ओर से हमले किये। इस प्रकार दिलेर खान भी इस अभियान से मुगलों के क्षेत्र शिवाजी के सैनिकों के लिए खुले करने के अलावा कुछ भी हासिल नहीं कर सका, और अंत में औरंगजेब ने उसे वापस बुला लिया।

तीसरा चरण (1684-87): इस प्रकार, 1676 से 1680 के दौरान मुगलों को कुछ अधिक हासिल नहीं हो सका। 1681 में औरंगजेब अपने विद्रोही बेटे शहजादे अकबर के पीछे डेक्कन पहुंचा। सबसे पहले उसने अपनी सेना को शिवाजी के पुत्र और उत्तराधिकारी संभाजी के विरुद्ध इकठ्ठा किया, साथ ही वह बीजापुर और गोलकुंडा को मराठों से अलग करने के प्रयास भी करता रहा। उसके प्रयासों का नतीजा भी पूर्व के प्रयासों के अनुसार ही सफल नहीं हो सका। मुगलों के विरुद्ध दक्षिणी राज्यों के पास मराठे ही कवच के रूप में थे, और वे उसे हटाना नहीं चाहते थे।

औरंगजेब ने अब इस मामले का निपटारा करने का फैसला किया। उसने जागीरदार की हैसियत से आदिलशाह को फरमान जारी किया कि वह सम्राट की सेना के लिए रसद की आपूर्ति करे, मुगल सेना को अपने क्षेत्र में मुक्त प्रवेश की व्यवस्था करे, और मराठों के विरुद्ध युद्ध के लिए 5000 से 6000 का घुड़सवार दल मुहैय्या कराये। उसने यह भी मांग रखी कि प्रमुख बीजापुर सरदार शर्जा खान, जो मुगलों के खिलाफ था, उसे बर्खास्त किया जाये। अब एक खुली टूट अवश्यम्भावी थी। आदिलशाह ने गोलकुंडा और संभाजी, दोनों से मदद की गुहार लगाई और उसे तत्काल मदद मिली। हालाँकि, दक्षिणी एकीकृत सेना का विशाल मुगल सेना के सामने टिकना मुश्किल था, और वह भी तब, जब मुगल सेना का नेतृत्व स्वयं मुगल सम्राट कर रहा था। फिर भी इस घेराबंदी को अठारह महीने लगे, और इसके अंतिम चरण में जब 1686 में बीजापुर का पतन हुआ, औरंगजे़ब वहाँ व्यक्तिगत रूप से उपस्थित था। यह पिछली जय सिंह (1665) और दिलेर खान (1679-80) की - असफलताओं का औचित्य सिद्ध करता है।

बीजापुर के पतन के बाद गोलकुंडा का अभियान अपरिहार्य था। कुतुब शाह के ‘‘पाप‘‘ क्षमा के काबिल नहीं थे। उसने काफिरों, मदन्ना और अखन्ना को सर्वोच्च अधिकार दिए थे, और कई अवसरों पर शिवाजी की मदद की थी। उसका आखिरी ‘‘विश्वासघात‘‘, औरंगजेब के मना करने के बावजूद बीजापुर की सहायता के लिए 40,000 सैनिक भेजना था। कड़े प्रतिरोध के बावजूद, 1685 में मुगलों ने गोलकुंडा पर कब्जा कर लिया। सम्राट ने क्षतिपूर्ति की बड़ी रकम, कुछ इलाकों को मुगलों को देने और मदन्ना और अखन्ना के निष्कासन के ऐवज में कुतुब शाह को माफ किया। कुतुब शाह ने ये सारी शर्तें मान्य कीं। मदन्ना और अखन्ना को घसीटकर सड़कों पर लाकर उनकी हत्या कर दी गई (1686), लेकिन यह अपराध भी कुतुबशाही राजवंश को बचाने में नाकाम रहा। बीजापुर के पतन के बाद औरंगजेब ने कुतुब शाह से अपना हिसाब चुकता करने का फैसला किया। 1687 के प्रारम्भ में घेराबंदी खुली और छह महीनों से अधिक के प्रचार के बाद विश्वासघात और रिश्वत के चलते किले पर कब्जा कर लिया गया। 

हालाँकि औरंगजेब विजयी हुआ, लेकिन जल्द ही उसे आभास हो गया कि बीजापुर और गोलकुंडा का पतन उसकी कठिनाइयों की शुरुआत थी। औरंगजेब के जीवन का अंतिम और सबसे कठिन पड़ाव अब शुरू हुआ था।

5.0 औरंगजेब, मराठा और डेक्कन - अंतिम चरण (1687-1707)

बीजापुर और गोलकुंडा के पतन के बाद औरंगजेब अपनी सेनाओं को अपने सबसे बेड़ सिरदर्द-मराठों-के विरुद्ध एकत्र करने योग्य हुआ। 

1689 में संभाजी (शिवाजी के पुत्र) संगमेश्वर के अपने गुप्त अड्डे पर मुगल सेना को देख कर अचंभित हो गया। उसे औरंगजेब के सामने पेश किया गया और एक विद्रोही और काफिर होने के नाते बर्बरता से मार डाला गया। यह निश्चित रूप से औरंगजेब की एक और बड़ी राजनीतिक गलती थी। वह मराठों के साथ समझौता करके बीजापुर और गोलकुंडा की विजय पर ठप्पा लगा सकता था। संभाजी को बर्बरता से मारकर उसने न केवल यह मौका गँवा दिया, बल्कि मराठों को एक कारण भी दे दिया (क्योंकि अब वे बहुत नाराज़ थे)। अब इकठ्ठा होने के लिए स्थान खत्म होने के कारण वे मुगल इलाकों में चारों ओर छापामारी  करने के लिए स्वतंत्र थे, व मुगल सेना के आते ही वे इधर उधर गायब हो जाते थे।

मराठों की शक्ति को नष्ट करने के बजाय औरंगजे़ब ने उन्हें डेक्कन में सर्वव्यापी बना दिया। संभाजी के छोटे भाई राजाराम को राजा के रूप में ताज पहनाया गया, लेकिन राजधानी पर मुगल आक्रमण होते ही उसे भागना पड़ा। राजाराम ने पूर्वी तट पर जिंजी में शरण ली और वहाँ से मुगलों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा। इस प्रकार मराठों का विरोध पश्चिमी तट से पूर्वी तट पर फैल गया। 

इस समय अपने सभी शत्रुओं को हरा कर औरंगजे़ब अपनी सत्ता के शिखर पर था। कुछ सरदारों की राय थी कि मराठाओं से निपटने का कार्य अन्य लोगों पर छोड़ कर औरंगजेब को उत्तर भारत की ओर चले जाना चाहिए। इससे पहले एक राय यह भी थी, और शायद इसे औरंगजेब के उत्तराधिकारी शाह आलम का भी समर्थन हासिल था, कि कर्नाटक पर शासन करने का कार्य बीजापुर और गोलकुंडा के जागीरदारों पर छोड़ देना चाहिए। औरंगजेब ने इन सभी सुझावों को अस्वीकार कर दिया और दक्षिणी शासकों के साथ बातचीत करने के जुर्म में शाह आलम को कैद कर लिया। 1690 के बाद, मराठा शक्ति के नाश से आश्वस्त औरंगजेब ने कर्नाटक के समृद्ध और विस्तृत क्षेत्र को हासिल करने की ओर अपना ध्यान लगाया। हालाँकि औरंगजेब जितना चबा सकता था, उससे ज्यादा उसने तोड़ लिया था। उसने अपनी संचार व्यवस्था को अनावश्यक रूप से फैला लिया जिससे वह मराठों के आक्रमण के लिए भेद्य हो गई। वह बीजापुर और गोलकुंडा के स्थापित क्षेत्रों में मजबूत प्रशासन देने में भी नाकाम हुआ। यहाँ हमें यह ध्यान रखना होगा कि उस जमाने में टेलीफोन, इंटरनेट, कंप्यूटर, और मोटर कारें नहीं थीं।

1690 से 1703 के दौरान, औरंगजे़ब ने मराठों के साथ किसी प्रकार की समझौता वार्ता से हठ से इंकार कर दिया। राजाराम की जिंजी में घेराबंदी की गई, परन्तु यह घेराबंदी बहुत लम्बी खिंच गई। जिंजी का पतन 1698 में हुआ, परंतु राजाराम बच निकला (जैसे उसके पिता शिवाजी अक्सर किया करते थे)। मराठा प्रतिरोध बढ़ता गया और मुगलों को कई गंभीर हारें स्वीकारनी पड़ीं। मराठों ने अपने कई किले वापस छीन लिए और राजाराम सातारा आने में सफल हुआ। औरंगजेब वापस सारे मराठा किलों को छीनने के लिए निकला। 1700 से 1705 तक साढ़े पांच वर्षों तक औरंगजेब अपना बूढ़ा और बीमार शरीर एक किले से दूसरे किले की घेराबंदी के लिए ढ़ोता रहा। ऐसा कहा जाता है कि शिवाजी के समय औरंगजेब को शिवाजी के सपने आते थे, जो उसे चिल्लाते हुए और पसीने से तर बतर उठा देते थे। वे ही सपने अब वह हकीकत में देख रहा था। बाढ़, बीमारियों और मराठा छापामारों ने मुगल सेना को पस्त कर दिया था। सेना और सरदारों में थकान और असंतोष बढ़ने लगा। नैतिक टूट बढ़ने लगा और कई जागीरदारों ने मराठों के साथ गुप्त समझौते कर लिए, कि वे उनके क्षेत्र पर हमले न करें, बदले में जागीरदार उन्हें चौथ चुकाएंगे। यह मराठों के लिए बड़ी विजय थी।

1703 में औरंगजे़ब ने मराठों के साथ संधिवार्ता शुरू की। उसने संभाजी के पुत्र शाहू को छोड़ने की तैयारी दर्शायी, जिसे उसकी माँ के साथ सातारा में कैद किया हुआ था। शाहू के साथ अच्छा बर्ताव किया गया। उस राजा का खिताब और 7000/7000 की मनसब दी गई। उम्र में आने के बाद उसकी अच्छे परिवारों की दो मराठा कन्याओं के साथ शादी की गई। औरंगजेब शाहू को शिवाजी का स्वराज्य और डेक्कन पर सरदेशमुख के अधिकार देने को राजी हुआ। इस प्रकार उसके विशिष्ट पद का सम्मान किया गया। 70 से अधिक मराठा सरदार शाहू की अगवानी करने के लिए इकट्ठे हुए। लेकिन मराठों से शंकित औरंगजेब ने अंतिम क्षणों में सारी तैयारियां रद्द कर दीं। उसके आतंरिक भय उछाल मार रहे थे। 

1706 तक औरंगजे़ब सारे मराठा किलों को जीतने के अपने प्रयासों की निरर्थकता से आश्वस्त हो गया था। धीरे-धीरे वह औरंगाबाद वापस जाने लगा। हर्षित मराठे चारों ओर फैल गए और वापस जाती सेना पर हमले करते रहे। इस प्रकार 1707 में जब औरंगजे़ब ने अंतिम सांस ली, तो उसने एक कष्टदायी रूप से विचलित साम्राज्य छोड़ा था जिसमें सारे अंदरूनी मामले सर उठा रहे थे। इस प्रकार औरंगजे़ब के पतन का सर्वाधिक श्रेय न दबने वाले मराठों को दिया जा सकता है, जिनकी गौरवशाली विरासत कई दशक पहले 14 वर्ष के एक युवा शिवाजी महाराज ने रखी थी।

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01-01-2020,1,04-08-2021,1,05-08-2021,1,06-08-2021,1,28-06-2021,1,Abrahamic religions,6,Afganistan,1,Afghanistan,35,Afghanitan,1,Afghansitan,1,Africa,2,Agri tech,2,Agriculture,150,Ancient and Medieval History,51,Ancient History,4,Ancient sciences,1,April 2020,25,April 2021,22,Architecture and Literature of India,11,Armed forces,1,Art Culture and Literature,1,Art Culture Entertainment,2,Art Culture Languages,3,Art Culture Literature,10,Art Literature Entertainment,1,Artforms and Artists,1,Article 370,1,Arts,11,Athletes and Sportspersons,2,August 2020,24,August 2021,239,August-2021,3,Authorities and Commissions,4,Aviation,3,Awards and Honours,26,Awards and HonoursHuman Rights,1,Banking,1,Banking credit finance,13,Banking-credit-finance,19,Basic of Comprehension,2,Best Editorials,4,Biodiversity,46,Biotechnology,47,Biotechology,1,Centre State relations,19,CentreState relations,1,China,81,Citizenship and immigration,24,Civils Tapasya - English,92,Climage Change,3,Climate and weather,44,Climate change,60,Climate Chantge,1,Colonialism and imperialism,3,Commission and Authorities,1,Commissions and Authorities,27,Constitution and Law,467,Constitution and laws,1,Constitutional and statutory roles,19,Constitutional issues,128,Constitutonal Issues,1,Cooperative,1,Cooperative Federalism,10,Coronavirus variants,7,Corporates,3,Corporates Infrastructure,1,Corporations,1,Corruption and transparency,16,Costitutional issues,1,Covid,104,Covid Pandemic,1,COVID VIRUS NEW STRAIN DEC 2020,1,Crimes against women,15,Crops,10,Cryptocurrencies,2,Cryptocurrency,7,Crytocurrency,1,Currencies,5,Daily Current Affairs,453,Daily MCQ,32,Daily MCQ Practice,573,Daily MCQ Practice - 01-01-2022,1,Daily MCQ Practice - 17-03-2020,1,DCA-CS,286,December 2020,26,Decision Making,2,Defence and Militar,2,Defence and Military,281,Defence forces,9,Demography and Prosperity,36,Demonetisation,2,Destitution and poverty,7,Discoveries and Inventions,8,Discovery and Inventions,1,Disoveries and Inventions,1,Eastern religions,2,Economic & Social Development,2,Economic Bodies,1,Economic treaties,5,Ecosystems,3,Education,119,Education and employment,5,Educational institutions,3,Elections,37,Elections in India,16,Energy,134,Energy laws,3,English Comprehension,3,Entertainment Games and Sport,1,Entertainment Games and Sports,33,Entertainment Games and Sports – Athletes and sportspersons,1,Entrepreneurship and startups,1,Entrepreneurships and startups,1,Enviroment and Ecology,2,Environment and Ecology,228,Environment destruction,1,Environment Ecology and Climage Change,1,Environment Ecology and Climate Change,458,Environment Ecology Climate Change,5,Environment protection,12,Environmental protection,1,Essay paper,643,Ethics and Values,26,EU,27,Europe,1,Europeans in India and important personalities,6,Evolution,4,Facts and Charts,4,Facts and numbers,1,Features of Indian economy,31,February 2020,25,February 2021,23,Federalism,2,Flora and fauna,6,Foreign affairs,507,Foreign exchange,9,Formal and informal economy,13,Fossil fuels,14,Fundamentals of the Indian Economy,10,Games SportsEntertainment,1,GDP GNP PPP etc,12,GDP-GNP PPP etc,1,GDP-GNP-PPP etc,20,Gender inequality,9,Geography,10,Geography and Geology,2,Global trade,22,Global treaties,2,Global warming,146,Goverment decisions,4,Governance and Institution,2,Governance and Institutions,773,Governance and Schemes,221,Governane and Institutions,1,Government decisions,226,Government Finances,2,Government Politics,1,Government schemes,358,GS I,93,GS II,66,GS III,38,GS IV,23,GST,8,Habitat destruction,5,Headlines,22,Health and medicine,1,Health and medicine,56,Healtha and Medicine,1,Healthcare,1,Healthcare and Medicine,98,Higher education,12,Hindu individual editorials,54,Hinduism,9,History,216,Honours and Awards,1,Human rights,249,IMF-WB-WTO-WHO-UNSC etc,2,Immigration,6,Immigration and citizenship,1,Important Concepts,68,Important Concepts.UPSC Mains GS III,3,Important Dates,1,Important Days,35,Important exam concepts,11,Inda,1,India,29,India Agriculture and related issues,1,India Economy,1,India's Constitution,14,India's independence struggle,19,India's international relations,4,India’s international relations,7,Indian Agriculture and related issues,9,Indian and world media,5,Indian Economy,1248,Indian Economy – Banking credit finance,1,Indian Economy – Corporates,1,Indian Economy.GDP-GNP-PPP etc,1,Indian Geography,1,Indian history,33,Indian judiciary,119,Indian Politcs,1,Indian Politics,637,Indian Politics – Post-independence India,1,Indian Polity,1,Indian Polity and Governance,2,Indian Society,1,Indias,1,Indias international affairs,1,Indias international relations,30,Indices and Statistics,98,Indices and Statstics,1,Industries and services,32,Industry and services,1,Inequalities,2,Inequality,103,Inflation,33,Infra projects and financing,6,Infrastructure,252,Infrastruture,1,Institutions,1,Institutions and bodies,267,Institutions and bodies Panchayati Raj,1,Institutionsandbodies,1,Instiutions and Bodies,1,Intelligence and security,1,International Institutions,10,international relations,2,Internet,11,Inventions and discoveries,10,Irrigation Agriculture Crops,1,Issues on Environmental Ecology,3,IT and Computers,23,Italy,1,January 2020,26,January 2021,25,July 2020,5,July 2021,207,June,1,June 2020,45,June 2021,369,June-2021,1,Juridprudence,2,Jurisprudence,91,Jurisprudence Governance and Institutions,1,Land reforms and productivity,15,Latest Current Affairs,1136,Law and order,45,Legislature,1,Logical Reasoning,9,Major events in World History,16,March 2020,24,March 2021,23,Markets,182,Maths Theory Booklet,14,May 2020,24,May 2021,25,Meetings and Summits,27,Mercantilism,1,Military and defence alliances,5,Military technology,8,Miscellaneous,454,Modern History,15,Modern historym,1,Modern technologies,42,Monetary and financial policies,20,monsoon and climate change,1,Myanmar,1,Nanotechnology,2,Nationalism and protectionism,17,Natural disasters,13,New Laws and amendments,57,News media,3,November 2020,22,Nuclear technology,11,Nuclear techology,1,Nuclear weapons,10,October 2020,24,Oil economies,1,Organisations and treaties,1,Organizations and treaties,2,Pakistan,2,Panchayati Raj,1,Pandemic,137,Parks reserves sanctuaries,1,Parliament and Assemblies,18,People and Persoalities,1,People and Persoanalities,2,People and Personalites,1,People and Personalities,189,Personalities,46,Persons and achievements,1,Pillars of science,1,Planning and management,1,Political bodies,2,Political parties and leaders,26,Political philosophies,23,Political treaties,3,Polity,485,Pollution,62,Post independence India,21,Post-Governance in India,17,post-Independence India,46,Post-independent India,1,Poverty,46,Poverty and hunger,1,Prelims,2054,Prelims CSAT,30,Prelims GS I,7,Prelims Paper I,189,Primary and middle education,10,Private bodies,1,Products and innovations,7,Professional sports,1,Protectionism and Nationalism,26,Racism,1,Rainfall,1,Rainfall and Monsoon,5,RBI,73,Reformers,3,Regional conflicts,1,Regional Conflicts,79,Regional Economy,16,Regional leaders,43,Regional leaders.UPSC Mains GS II,1,Regional Politics,149,Regional Politics – Regional leaders,1,Regionalism and nationalism,1,Regulator bodies,1,Regulatory bodies,63,Religion,44,Religion – Hinduism,1,Renewable energy,4,Reports,102,Reports and Rankings,119,Reservations and affirmative,1,Reservations and affirmative action,42,Revolutionaries,1,Rights and duties,12,Roads and Railways,5,Russia,3,schemes,1,Science and Techmology,1,Science and Technlogy,1,Science and Technology,819,Science and Tehcnology,1,Sciene and Technology,1,Scientists and thinkers,1,Separatism and insurgencies,2,September 2020,26,September 2021,444,SociaI Issues,1,Social Issue,2,Social issues,1308,Social media,3,South Asia,10,Space technology,70,Startups and entrepreneurship,1,Statistics,7,Study material,280,Super powers,7,Super-powers,24,TAP 2020-21 Sessions,3,Taxation,39,Taxation and revenues,23,Technology and environmental issues in India,16,Telecom,3,Terroris,1,Terrorism,103,Terrorist organisations and leaders,1,Terrorist acts,10,Terrorist acts and leaders,1,Terrorist organisations and leaders,14,Terrorist organizations and leaders,1,The Hindu editorials analysis,58,Tournaments,1,Tournaments and competitions,5,Trade barriers,3,Trade blocs,2,Treaties and Alliances,1,Treaties and Protocols,43,Trivia and Miscalleneous,1,Trivia and miscellaneous,43,UK,1,UN,114,Union budget,20,United Nations,6,UPSC Mains GS I,584,UPSC Mains GS II,3969,UPSC Mains GS III,3071,UPSC Mains GS IV,191,US,63,USA,3,Warfare,20,World and Indian Geography,24,World Economy,404,World figures,39,World Geography,23,World History,21,World Poilitics,1,World Politics,612,World Politics.UPSC Mains GS II,1,WTO,1,WTO and regional pacts,4,अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं,10,गणित सिद्धान्त पुस्तिका,13,तार्किक कौशल,10,निर्णय क्षमता,2,नैतिकता और मौलिकता,24,प्रौद्योगिकी पर्यावरण मुद्दे,15,बोधगम्यता के मूल तत्व,2,भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास,47,भारत का स्वतंत्रता संघर्ष,19,भारत में कला वास्तुकला एवं साहित्य,11,भारत में शासन,18,भारतीय कृषि एवं संबंधित मुद्दें,10,भारतीय संविधान,14,महत्वपूर्ण हस्तियां,6,यूपीएससी मुख्य परीक्षा,91,यूपीएससी मुख्य परीक्षा जीएस,117,यूरोपीय,6,विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं,16,विश्व एवं भारतीय भूगोल,24,स्टडी मटेरियल,266,स्वतंत्रता-पश्चात् भारत,15,
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PT's IAS Academy: यूपीएससी तैयारी - भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास - व्याख्यान - 46
यूपीएससी तैयारी - भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास - व्याख्यान - 46
सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
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