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विजयनगर साम्राज्य भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
भारत के विंध्य के दक्षिण में 200 से अधिक वर्षों तक विजयनगर और बहमनी साम्राज्यों का बोलबाला था। उन्होंने न केवल भव्य राजधानियों और शहरों का निर्माण किया, कई शानदार इमारतों से उन्हें सजाया और कला और साहित्य का संवर्धन किया, बल्कि कानून व्यवस्था और वाणिज्य और हस्तशिल्प के विकास के लिए भी पर्याप्त काम किया। इस प्रकार, जबकि उत्तर भारत में विघटनवादी ताकतें सर उठा रही थीं, दक्षिण भारत और डेक्कन (दक्कन) में लंबे समय तक स्थिर सरकारों का दौर जारी रहा। पंद्रहवीं सदी के अंत की ओर, बहमनी साम्राज्य के विघटन के साथ, और पचास से अधिक साल बाद, 1565 में बनिहट्टी की लड़ाई में विजयनगर साम्राज्य की हार के बाद, यह दौर समाप्त हो गया। इसी बीच, पहले पश्चिमी भारत में पुर्तगालियों के आगमन और भारतीय समुद्र क्षेत्रों पर अधिपत्य के उनके प्रयास, और दूसरे, मुगलों के भारत आगमन के साथ भारतीय परिदृश्य बदल गया था। मुगलों के आगमन ने उत्तर भारत में एकीकरण के एक और दौर का मार्ग बनाना षुरू किया, और भूमि-आधारित एशियाई शक्तियों और सागरों पर प्रभुत्व वाली यूरोपीय शक्तियों के बीच टकराव का एक लंबा युग शुरू हो गया।
2.0 विजयनगर साम्राज्य-इसकी नींव और बहमनी साम्राज्य के साथ टकराव
2.1 विजयनगर साम्राज्य की स्थापना
विजयनगर साम्राज्य पांच भाइयों के एक परिवार के दो सदस्यों, हरिहर और बुक्का द्वारा स्थापित किया गया था। एक किंवदंती के अनुसार, वे वारंगल के काकतीयों के जागीरदार थे, और बाद में आधुनिक कर्नाटक में कम्पिली के राज्य में मंत्री बन गए। जब एक मुस्लिम विद्रोही को शरण देने के कारण मुहम्मद तुगलक ने कम्पिली पर आक्रमण किया, तो दोनों भाइयों को कैद कर लिया गया, उन्हें इस्लाम में परिवर्तित किया गया और विद्रोह से निपटने के लिए वहाँ नियुक्त किया गया। मदुरै के मुस्लिम गवर्नर ने खुद को पहले ही स्वतंत्र घोषित कर दिया था, और मैसूर के होयसला शासक और वारंगल के शासक भी अपनी स्वतंत्रता के लिए जोर लगाने कोशिश कर रहे थे। थोड़े समय के बाद हरिहर और बुक्का ने अपने नए स्वामी और अपनी नई आस्था का त्याग कर दिया। उनके गुरू संत माधव विद्यारण्य के कहने पर, उन्हें फिर से हिंदू धर्म में प्रवेश दिया गया, और उन्होंने विजयनगर में अपनी राजधानी स्थापित की। हरिहर के राज्याभिषेक की तारीख 1336 में मानी गई है।
पहले तो नए राज्य को मैसूर के होयसला शासक और मदुरै के सुल्तान दोनों के साथ संघर्ष करना पड़ा। मदुरै का सुल्तान महत्वाकांक्षी था, उसने होयसला शासक को हराया और बर्बर तरीके से उसे मार डाला। होयसला राज्य के विघटन ने हरिहर और बुक्का को अपने छोटे राज्य का विस्तार करने का अवसर दिया। 1346 तक, होयसला का पूरा राज्य विजयनगर शासकों के हाथों में आ गया था। इस संघर्ष में, हरिहर और बुक्का को उनके भाइयों से सहायता प्राप्त हुई, जिन्होंने अपने रिश्तेदारों के साथ, उनके प्रयासों से विजय प्राप्त क्षेत्रों का प्रशासन अपने ऊपर ले लिया।
इस प्रकार, शुरू में, विजयनगर साम्राज्य एक सहकारी राष्ट्रमंडल की तरह था। 1356 में बुक्का विजयनगर के सिंहासन पर अपने भाई का उत्तराधिकारी बना, और उसने 1377 तक शासन किया।
विजयनगर साम्राज्य की बढ़ती शक्ति ने उसे दक्षिण और उत्तर, दोनों में कई शक्तियों के साथ संघर्ष में लाया। दक्षिण में, उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी, मदुरै के सुल्तान थे। विजयनगर और मदुरै के सुल्तान के बीच संघर्ष चार लगभग दशकों तक चला। 1377 तक, मदुरै सल्तनत का सफाया हो गया। उस समय, विजयनगर साम्राज्य में, चेर (केरल) के साथ ही तमिल देश सहित, रामेश्वरम तक का पूरा दक्षिण भारत शामिल था। हालांकि, उत्तर में विजयनगर के समक्ष बहमनी राज्य के रूप में एक शक्तिशाली दुश्मन था।
2.2 बहमनी साम्राज्य
बहमनी राज्य 1347 में अस्तित्व में आया था। इसका संस्थापक अलाउद्दीन हसन नामक एक अफगान साहसी था। वह गंगू नामक एक ब्राह्मण की सेवा में बढ़ा था, इसलिए हसन गंगू के रूप में जाना जाता था। ताजपोशी के बाद उसने अलाउद्दीन हसन बहमन शाह का खिताब ग्रहण किया। कहा जाता है, कि वह ईरान के अर्ध-कल्पित नायक बहमन शाह के वंश से था। परन्तु फरिश्ता द्वारा वर्णित एक लोकप्रिय पौराणिक कथा के अनुसार, बहमन शाह शब्द उसके ब्राह्मण संरक्षक के लिए एक श्रद्धांजलि होना चाहिए। कारण जो भी रहा हो, इस शीर्षक से ही इस साम्राज्य को बहमनी साम्राज्य कहा जाता था।
2.3 विजयनगर-बहमनी संघर्ष
विजयनगर शासकों और बहमनी सुल्तानों के बीच हितों का टकराव अलग और विशिष्ट क्षेत्रों में थाः तुंगभद्रा दोआब में, कृष्णा गोदावरी डेल्टा में, और मराठवाड़ा देश में।
तुंगभद्रा दोआब क्षेत्र, कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच का क्षेत्र था। अपनी दौलत और आर्थिक संसाधनों के कारण, यह क्षेत्र पहले पश्चिमी चालुक्य और चोलों के बीच, और बाद में यादवों और होयसला के बीच विवाद की जड़ बना रहा।
कृष्णा गोदावरी घाटी, जो बहुत उपजाऊ थी और इसके कई बंदरगाह, क्षेत्र के विदेशी व्यापार को नियंत्रित करते थे। कृष्णा गोदावरी घाटी के स्वामित्व के संघर्ष को अक्सर तुंगभद्रा दोआब के संघर्ष के साथ जोड़ा जाता था।
मराठा देश में, मुख्य विवाद कोंकण के नियंत्रण और इसे पहुँच मार्ग देने वाले क्षेत्र के लिए था। कोंकण, जो पश्चिमी घाट के बीच भूमि की संकीर्ण पट्टी था, क्षेत्र के उत्पादों के लिए एक महत्वपूर्ण निकास मार्ग, साथ ही ईरान और इराक से घोड़ों के आयात के लिए भी महत्वपूर्ण था। इस प्रकार, दक्षिणी राज्यों के लिए, गोवा से अच्छी गुणवत्ता वाले घोड़ों का आयात काफी महत्वपूर्ण था।
विजयनगर और बहमनी साम्राज्य के बीच सैन्य संघर्ष लगभग एक नियमित विशेषता थे और जब तक ये साम्राज्य बने रहे, संघर्ष जारी रहा। इन सैन्य संघर्षों के कारण विवादित क्षेत्र और पड़ोसी प्रदेशों की व्यापक तबाही हुई, और जीवन और संपत्ति का काफी नुकसान हुआ।
दोनों पक्ष शहरों और गांवों को तहस नहस कर देते थे, जला देते थे, पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को कैद कर लेते थे, और गुलामों की तरह उन्हें बेच देते थे, व विभिन्न अन्य बर्बरता करते थे। इस प्रकार, बुक्का प्रथम ने 1367 में जब विवादित तुंगभद्रा दोआब में मुद्कल के किले पर हमला किया, तो उसने एक आदमी को छोड़कर, पूरी चौकी का कत्ल कर दिया।
जब यह खबर बहमनी सुल्तान के पास पहुंची, तो वह गुस्से से आग बबूला हो गया और उसने कसम खाई, कि बदले में जब तक वह एक लाख हिंदुओं को कत्ल नहीं कर देता, तब तक वह अपनी तलवार म्यान नहीं करेगा। बरसात के मौसम और विजयनगर बलों के विरोध के बावजूद, वह तुंगभद्रा को पार कर गया, यह पहली बार था, जब एक बहमनी सुल्तान ने व्यक्तिगत रूप से विजयनगर साम्राज्य में प्रवेश किया। विजयनगर का राजा लड़ाई में हार गया, और उसने जंगल में आश्रय लिया। कहते हैं कि इस लड़ाई के दौरान दोनों पक्षों ने तोपखाने का उपयोग पहली बार किया।
बहमनी सुल्तान की जीत उसके बेहतर तोपखाने के कारण हुई थी लेकिन बहमनी सुल्तान, न तो राजा को पकड़ पाया, और न ही उसकी राजधानी पर कब्जा कर पाया। इस बीच, पुरुषों, महिलाओं और बच्चों का थोक में वध जारी रहा। अंत में, दोनों पक्ष थक चुके थे, और उन्होंने एक संधि करने का निर्णय लिया। इस संधि से पुरानी स्थिति बहाल हुई, जिसके द्वारा दोआब क्षेत्र दोनों के बीच साझा किया गया। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह था, कि दोनों द्वारा सहमति व्यक्त की गई, कि क्योंकि दोनों राज्यों को लंबे समय तक पड़ोसियों के रूप में रहना था, अतः युद्ध में क्रूरता से बचा जाये। इसलिए, यह निर्धारित किया गया, कि भविष्य के युद्धों में, असहाय और निहत्थे निवासियों का कत्ल नहीं किया जाएगा। हालांकि इस समझौते का कभी-कभी उल्लंघन किया गया, फिर भी इसने दक्षिण भारत में युद्ध और अधिक मानवीय बनाने में मदद की।
2.4 विजयनगर साम्राज्य का पूर्वी विस्तार
मदुरै की सल्तनत को नष्ट करके दक्षिण भारत में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद, हरिहर द्वितीय (1377-1406) के तहत विजयनगर साम्राज्य ने पूर्वी समुद्र तट की ओर विस्तार की नीति अपनायी। क्षेत्र में हिन्दू रियासतों की एक श्रृंखला थी, इन में, डेल्टा के ऊपरी भाग पर रेड्डी और कृष्णा गोदावरी डेल्टा के निचले भाग पर वारंगल के शासक सबसे उल्लेखनीय थे। उत्तर में, उड़ीसा के शासक, साथ ही पूर्व में बहमनी सुल्तान भी इस क्षेत्र में रुचि रखते थे। हालांकि, वारंगल के शासक ने दिल्ली के विरुद्ध संघर्ष में हसन गंगू की मदद की थी, उसके उत्तराधिकारी ने वारंगल पर आक्रमण किया और कौलास का गढ़ और गोलकुंडा के पहाड़ी किले पर कब्जा किया। हस्तक्षेप करने की दृष्टि से, विजयनगर दक्षिण में अति व्यस्त था। बहमनी सुल्तान ने गोलकुंडा को अपने राज्य की सीमा के रूप में तय कर लिया, और वादा किया, कि न तो वह और न ही उसके उत्तराधिकारी, इसके आगे वारंगल के विरुद्ध अतिक्रमण करेंगे।
इस समझौते पर मुहर लगाने के लिए, वारंगल के शासक ने बहमनी सुल्तान को एक बहुमूल्य रत्नजड़ित सिंहासन भेंट किया था। कहा जाता है, कि यह मूल रूप से मुहम्मद तुगलक के लिए एक उपहार के रूप में तैयार किया गया था। बहमनी राज्य और वारंगल का गठबंधन 50 से अधिक वर्षों तक चला और तुंगभद्रा दोआब को पदाक्रान्त करने, या क्षेत्र में बहमनी आक्रामकता को रोकने में विजयनगर की अक्षमता का एक प्रमुख कारक था।
हालांकि, सभी लड़ाइयों के बावजूद, दोनों पक्षों की स्थिति, कम-अधिक, जैसे थे, बनी रही। युद्ध का पलड़ा कभी एक ओर झुकता, तो कभी दूसरी ओर। हरिहर द्वितीय, बहमनी-वारंगल गठबंधन के बीच अपनी स्थिति बनाए रखने में सफल रहा। उसकी सबसे बड़ी सफलता पश्चिम में बेलगाम और गोवा बहमनी राज्य से वापस प्राप्त करना थी। उसने उत्तर श्रीलंका में एक अभियान भी भेजा।
3.0 देव राय राजवंश
कुछ समय की भ्रम की स्थिति के बाद, देव राय प्रथम (1406-1422) हरिहर द्वितीय के उत्तराधिकारी बन गए। उनके शासनकाल के शुरू में, तुंगभद्रा दोआब के लिए नए सिरे से झगड़ा शुरू हुआ। वह बहमनी शासक फिरोज़ शाह से हार गया और क्षतिपूर्ति के रूप में उसने दस लाख हूण, मोती और हाथियों का भुगतान किया था। सभी भावी विवाद का निराकरण करने के लिए सुल्तान से अपनी बेटी की शादी करने के लिए और दहेज में बंकापुर उसे सौंपने के लिए सहमत हुआ। शादी बड़ी धूमधाम से हुई।
जब फिरोज़ शाह बहमनी शादी के लिए विजयनगर के पास पहुंचा, देवा राय धूमधाम से उससे मिलने शहर से बाहर आया। शहर के द्वार से महल तक दस किलोमीटर की दूरी की सड़क सोने, मखमल, साटन और अन्य धनी सामग्री से पाट दी गई। दोनों सम्राट शहर चौक से एक साथ घोड़े पर रवाना हुए। देव राय के रिश्तेदार दोनों राजाओं के सामने पैदल काफिले में शामिल हो गए। उत्सव तीन दिन तक चला।
यह दक्षिण भारत की अपनी तरह की पहली राजनीतिक शादी नहीं थी। इससे पहले, गोंडवाना के खेरला के शासक ने शांति के क्रम में फिरोज़ शाह बहमनी के साथ अपनी बेटी की शादी की थी। कहा जाता है, कि यह राजकुमारी फिरोज़ की पसंदीदा रानी थी। हालांकि, ये शादियां स्वयं शांति नहीं ला सकती थीं। कृष्णा गोदावरी घाटी के सवाल ने विजयनगर, बहमनी राज्य और उड़ीसा के बीच एक नए संघर्ष को जन्म दिया। रेड्डी साम्राज्य में भ्रम की स्थिति के बाद, देव राय ने उन दोनों के बीच साम्राज्य को विभाजित करने के लिए वारंगल के साथ गठबंधन किया। बहमनी राज्य की ओर से वारंगल की दलबदल ने डेक्कन में शक्ति संतुलन बदल दिया। देव राय फिरोज़़शाह बहमनी को करारी हार देने में सफल हुआ, और कृष्णा नदी के मुहाने तक के पूरे क्षेत्र को कब्जे में लिया।
देव राय ने शांति की कला की उपेक्षा नहीं की। उसने तुंगभद्रा पर एक बांध का निर्माण किया, ताकि पानी की कमी को दूर करने के लिए नहरों को शहर में लाया जा सके। इसने पड़ोसी क्षेत्रों को भी सिंचित किया। उसने सिंचाई के लिए हरिद्रा नदी पर भी एक बांध बनाया।
कुछ भ्रम की स्थिति के बाद, देव राय द्वितीय (1422-1446), विजयनगर के सिंहासन पर आसीन हुआ। उसे राजवंश का महानतम शासक माना जाता है। अपनी सेना को मजबूत बनाने के क्रम में उसने अपनी सेना में अधिक मुसलमानों को शामिल किया। फरिश्ता के अनुसार, देव राय द्वितीय ने महसूस किया कि बहमनी सेना की श्रेष्ठता उनके मजबूत घोड़ों और अच्छे तीरंदाजों के बड़े बल के कारण थी। इसलिए उसने 2000 मुसलमानों को सूचीबद्ध किया, उन्हें जागीरें दीं और अपने सभी हिन्दू सैनिकों और अधिकारियों को उन से तीरंदाजी की कला सीखने की सिफारिश की।
विजयनगर सेना में मुसलमानों को रोजगार नया नहीं था। देव राय प्रथम ने अपनी सेना में 10,000 मुसलमानों को रखा था। फरिश्ता हमें बताता है, देव राया द्वितीय ने 80,000 घुड़सवार फौज के अलावा तीरंदाजी में अच्छी तरह से कुशल 60,000 हिंदुओं को और 2,00,000 पैदल सेना इकट्ठा की थी। ये आंकड़े अतिरंजित हो सकते हैं। हालांकि, एक बड़े अश्वारोही बल के संग्रह ने राज्य के संसाधनों पर दबाव डाला होगा, क्योंकि अच्छे घोड़े आयातित किये जाते थे, और इस व्यापार को नियंत्रित करने वाले अरब, ऊंची कीमतें वसूलते थे।
अपनी नई सेना के साथ, देव राय द्वितीय ने 1443 में तुंगभद्रा नदी को पार किया और मुड़कल, बंकापुर, आदि पुर्नप्राप्त करने की कोशिश की, जो कृष्णा नदी के दक्षिण में थे और पहले बहमनी सुल्तान को खो दिए गए थे। तीन कठिन लड़ाइयां लड़ी गई लेकिन अंत में दोनों पक्षों ने मौजूदा सीमाओं के लिए सहमति दी।
4.0 यात्रियों के संस्मरण
सोलहवीं सदी का एक पुर्तगाली लेखक, नुनीज़, हमें बताता है, कि क्विलोन, श्रीलंका, पुलिकत, पेगु और टेनसेरिम (बर्मा और मलाया में) देव राय द्वितीय को नज़राना अर्पित करते थे। क्या विजयनगर शासक पेगु और टेनसेरिम से नियमित रूप से नजराना निकालने के लिए समुद्र पर पर्याप्त शक्तिशाली थे, इसमें संदेह है। इसका शायद यह तात्पर्य हो सकता है, कि इन देशों के शासक विजयनगर के साथ संपर्क में थे, और अपनी साख को सुरक्षित करने के लिए तोहफे भेजते होंगे। हालांकि, श्रीलंका पर कई बार हमला किया गया था। यह एक मजबूत नौसेना के बिना संभव नहीं था।
सक्षम शासकों की एक श्रृंखला के तहत, विजयनगर पंद्रहवीं सदी के पूर्वार्ध के दौरान दक्षिण में सबसे शक्तिशाली और धनी राज्य के रूप में उभरा। 1420 में विजयनगर का दौरा करने वाले इतालवी यात्री निकोलो कोंटी ने इसके बारे में एक सचित्र विवरण दिया था। वे कहते हैंः ‘‘शहर की परिधि साठ मील की है, इसकी दीवारें पहाड़ों तक ऊपर गई हैं, और घाटियों को उनकी तह में परिबद्ध कर रही हैं। इस शहर में अनुमानित नब्बे हजार पुरूष हथियार उठाने में सक्षम हैं। उनका राजा भारत में अन्य सभी राजाओं से अधिक ताकतवर है।‘‘ फरिश्ता भी कहते हैंः ‘‘बहमनी के सदन के प्रधान अपनी श्रेष्ठता वीरता से ही बनाए रखते थे। क्योंकि शक्ति, धन और देश की सीमा में बीजानगर (विजयनगर) के राजा उनसे कहीं अधिक थे।‘‘
फारसी यात्री अब्दुर रज्जाक, जिसने भारत में और बाहर व्यापक रूप से यात्रा की थी, देव राय द्वितीय के शासनकाल में विजयनगर आया था। वह देश का सुन्दर वर्णन करता है, ‘‘इस बाद के राजकुमार के उपनिवेश में तीन सौ बंदरगाह हैं, जिनमें से प्रत्येक कालीकट के बराबर है, और शुष्क भूमि पर उसके राज्य क्षेत्र तीन महीने की यात्रा के बराबर लंबे हैं।‘‘ सभी यात्री इस बात से सहमत हैं, कि देश घनी आबादी वाला है, और इसमें कई शहर और गांव हैं। अब्दुर रज्जाक कहते हैंः ‘‘देश के अधिकांश भाग में अच्छी तरह से कृषि की जाती है, बहुत उपजाऊ है, सैनिकों की संख्या ग्यारह लाख है।‘‘
अब्दुर रज्जाक विजयनगर को उसके द्वारा देखे या सुने गए दुनिया में सबसे शानदार शहरों में से एक समझता है। शहर का वर्णन करते हुए वे कहते हैंः “यह इस तरीके से बनाया गया है, कि सात गढ़ और उतनी ही दीवारें एक दूसरे से परिबद्ध है।‘‘ सातवां किला दूसरों के मध्य में रखा गया है, जो हेरात शहर के बाज़ार की तुलना में दस गुना बड़े क्षेत्र पर है। महल से शुरू होकर चार बाजार थे, जो ‘‘बहुत लंबे और व्यापक थे।‘‘ भारतीय रिवाज के अनुसार एक जाति या पेशे से संबंधित लोग शहर के एक हिस्से में रहते थे।
मुसलमान उनके लिए प्रदान अलग मकानां में रहते थे। बाज़ार में और साथ ही राजा के महल में, ‘‘पॉलिश किये, चिकने तराशे पत्थर से बने कई चल प्रवाह और नहरें दिखाई देते हैं।‘‘ एक और बाद के यात्री कहते हैं कि यह, उस समय पश्चिमी दुनिया में सबसे बड़े शहरों में से एक, रोम, से भी बड़ा था।
विजयनगर के राजा ‘बहुत समृद्ध‘ के रूप में प्रतिष्ठित थे। अब्दुर रज्जाक परंपरा का उल्लेख करते हैं, ‘‘राजा के महल में बड़े पैमाने पर कई सेल की तरह के थाल थे, जो सोने और चांदी से भरे रहते थे।‘‘ एक शासक द्वारा धन जमा करना एक प्राचीन परंपरा थी। हालांकि, इस तरह जमा किया गया धन प्रचलन से बाहर रहता था, और कभी कभी विदेशी हमले को आमंत्रित करता था।
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