सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
विजयनगर साम्राज्य भाग - 2
5.0 बहमनी राज्य - इसकी नींव, विस्तार और विघटन
विनम्र मूल के एक आदमी अलाउद्दीन हसन ने अपने संरक्षक, एक ब्राह्मण, की स्मृति में गंगू बहमनी नाम ग्रहण किया। हसन गंगू बहमनी राजवंश के संस्थापक थे और बहमन शाह के शीर्षक के अंतर्गत शासन किया। बहमनी दक्षिणी राज्य विजयनगर के साथ लगातार युद्ध की स्थिति में था।
5.1 फिरोज़ शाह बहमनी
अवधि के दौरान बहमनी राज्य में सबसे उल्लेखनीय शख्सियत फिरोज़ शाह बहमनी (1397-1422) था। वह धार्मिक विज्ञान, अर्थात् कुरान, न्यायशास्त्र, आदि पर टिप्पणियों का अच्छा जानकार था, और वनस्पति विज्ञान, ज्यामिति, तर्क, आदि जैसे प्राकृतिक विज्ञानों को विशेष रूप से पसंद करता थ। वह एक अच्छा खुशनवीस और कवि था, और अक्सर आशु छंद की रचना करता था। फरिश्ता के अनुसार, वह केवल फारसी, अरबी और तुर्की में ही निपुण नहीं था, बल्कि तेलुगू, कन्नड़ और मराठी में भी निपुण था। उसके अन्तः पुर में कई हिन्दू पत्नियों सहित विभिन्न देशों और क्षेत्रों से बड़ी संख्या में पत्नियां थीं। कहा जाता है, कि वह प्रत्येक के साथ उनकी अपनी भाषा में बात करता था।
फिरोज शान बहमनी डेक्कन को भारत का सांस्कृतिक केंद्र बनाने के लिए कृतसंकल्प था। दिल्ली सल्तनत के पतन ने इस काम में उसे मदद की, क्योंकि कई विद्वान दिल्ली से डेक्कन की ओर पलायन कर गए। राजा ने ईरान और इराक से भी कई विद्वानों को प्रोत्साहित किया। वह कहा करता था, कि राजाओं को अपने आसपास सभी देशों के विद्वानों और मेधावी व्यक्तियों को आकर्षित करना चाहिए, ताकि उनके सान्निध्य से उन्हें विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में यात्रा द्वारा अधिग्रहीत लाभ में से कुछ जानकारी प्राप्त हो सकती है। आम तौर पर वह आधी रात तक अपना समय विद्वानों, इतिहास के वाचक और अपने दरबारियों के बीच सबसे अधिक विनोदपूर्ण और ज्ञानी व्यक्तियों के सानिध्य में बिताता था। उसने पुराने और नए नियम (टेस्टामेंट) पढ़े थे, और वह सभी धर्मों के सिद्धांतों का सम्मान करता था।
फरिश्ता ने उसे एक रूढ़िवादी मुस्लिम कहा है, व उसकी एक ही कमजोरी, शराब पीने की और संगीत सुनने की उसकी चाहत, थी।
फिरोज़ शाह बहमनी द्वारा उठाया गया एक उल्लेखनीय कदम, प्रशासन में बड़े पैमाने पर हिंदुओं का अधिष्ठापन था। कहा जाता है, कि उसके समय से दक्षिणी ब्राह्मण प्रशासन में, विशेष रूप से राजस्व प्रशासन में, प्रभावी बने। दक्षिणी हिंदुओं ने विदेशियों की आमद के विरुद्ध एक संतुलन भी प्रदान किया। फिरोज़ शाह बहमनी ने खगोल विज्ञान की खोज को प्रोत्साहित किया और दौलताबाद के पास एक वेधशाला का निर्माण किया। उसने फारस की खाड़ी और लाल सागर से व्यापारिक जहाजों को आकर्षित करने वाले, और दुनिया के सभी भागों से विलासिता के सामान लाने वाले अपने राज्य के, चोल और दाभोल के प्रमुख बंदरगाहों की ओर अधिक विशेष ध्यान दिया।
उसने खेरला के गोंड राजा नरसिंह राय को हरा कर बेरार की ओर बहमनी विस्तार शुरू किया। राय ने 40 हाथी, 5 मन सोना और 50 मन चांदी भेंट किये। राय की एक बेटी की शादी भी फिरोज़ से की गई। खेरला नरसिंह को बहाल किया गया, जिसे राज्य का एक अमीर बना दिया गया, और एक कढ़ाई टोपी सहित राज्य के वस्त्र दिए गए।
देव राय प्रथम की एक बेटी के साथ फिरोज़ शाह बहमनी की शादी और उसके बाद, विजयनगर के विरुद्ध उसकी लड़ाई का उल्लेख पहले किया गया है। तथापि, कृष्णा गोदावरी बेसिन के वर्चस्व का संघर्ष जारी रहा। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, 1419 में, बहमनी राज्य को एक झटका लगा, जब देव राय प्रथम ने फिरोज़ शाह बहमनी को हराया। इस हार से फिरोज़ की स्थिति कमजोर हो गई। उसे अपने भाई, अहमद शाह प्रथम के पक्ष में सत्ता त्याग करना पड़ा। अहमद शाह प्रथम को प्रसिद्ध सूफी गेसू दराज़ के साथ जुड़ाव के कारण एक संत (वली) कहा जाता है। अहमद शाह ने दक्षिण भारत में पूर्वी समुद्र तट के वर्चस्व के लिए संघर्ष को जारी रखा। वह पिछली दो लड़ाइयों को भूला नहीं था, जिनमें बहमनी सुल्तान पराजित हुआ था, और वारंगल के शासक ने विजयनगर का साथ दिया था। प्रतिशोध की आग में उसने वारंगल पर आक्रमण किया, शासक को हरा दिया और लड़ाई में मार डाला, और अपने अधिकांश प्रदेशों पर कब्जा कर लिया। नये अधिग्रहित क्षेत्रों पर अपने शासन को मजबूत करने के लिए, उसने राजधानी को गुलबर्गा से बीदर स्थानांतरित कर दिया। इस के बाद, उसने मालवा, गोंडवाना और कोंकण की ओर ध्यान दिया।
5.2 महमूद गवन
बहमनी राज्य को वारंगल की हार ने दक्षिण भारत में सत्ता का संतुलन बदल दिया। बहमनी राज्य का धीरे-धीरे विस्तार हुआ और महमूद गवन के प्रधानमंत्री पद के दौरान उसकी सत्ता और राज्यक्षेत्रीय सीमाएँ शिखर पर पहुंच गई। महमूद गवन का प्रारंभिक जीवन अस्पष्ट है। वह जन्म से ईरानी था और पहले एक व्यापारी था। उसका सुल्तान से परिचय हुआ और जल्द ही वह सुल्तान का चहेता बन गया, और उसे “व्यापारियों का प्रमुख” (मलिक उल टुज्जर) का खिताब दिया गया। जल्द ही, वह प्रधानमंत्री, या पेशवा, बन गया। लगभग 20 वर्षों के लिए, महमूद गवन का राज्य के मामलों में वर्चस्व रहा। उसने आगे पूर्व में विलय करके बहमनी साम्राज्य का विस्तार किया। विजयनगर क्षेत्र में कांची तक गहरे छापे ने बहमनी हथियारों की ताकत का प्रदर्शन किया। तथापि, महमूद गवन का प्रमुख सैन्य योगदान, दाभोल और गोवा सहित पश्चिमी तटीय क्षेत्रों को पदाक्रान्त करना था। इन बंदरगाहों का नुकसान विजयनगर के लिए एक भारी झटका था। गोवा और दाभोल के नियंत्रण से ईरान, इराक, आदि के साथ विदेशी व्यापार में और अधिक वृद्धि हुई। आंतरिक व्यापार और विनिर्माण भी बढ़ा।
महमूद गवन ने राज्य की उत्तरी सीमाओं को भी व्यवस्थित करने की कोशिश की। अहमद शाह के समय से, खिलजी शासकों ने शासन मालवा के राज्य गोंडवाना, बेरार और कोंकण के स्वामित्व के लिए कोशिश की थी। इस संघर्ष में, बहमनी सुल्तानों ने गुजरात के शासकों की मदद की मांग की और हासिल की थी। काफी संघर्ष के बाद, यह तय हुआ कि गोंडवाना में खेरला मालवा को दिया जाय और बेरार बहमनी सुल्तान को। हालांकि, मालवा के शासक हमेशा बेरार के अधिकार के लिए तलाश में रहते थे। महमूद गवन को बेरार के लिए मालवा के महमूद खिलजी के खिलाफ कड़वी लड़ाई की एक श्रृंखला लड़नी पड़ी। गुजरात के शासक की सक्रिय मदद के कारण वह सफल हुआ।
इस प्रकार, देखा जा सकता है, कि दक्षिण में संघर्ष की तर्ज धार्मिक आधार पर विभाजित नहीं थी। संघर्ष के अधिक महत्वपूर्ण कारणों में, राजनीतिक और रणनीतिक विचार और व्यापार और वाणिज्य पर नियंत्रण थे। दूसरे, उत्तर भारत में और दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों के बीच संघर्ष एक दूसरे से पूरी तरह से अलगाव में नहीं थे। पश्चिम में, मालवा और गुजरात डेक्कन के मामलों में घसीटे गए थे। पूर्व में उड़ीसा बंगाल के साथ संघर्ष में शामिल था, और कोरोमंडल तट पर लालची नजर जमाये था। उड़ीसा के शासकों ने 1450 के बाद दक्षिण भारत में गहरी छापामारी की उनकी सेनाएं दक्षिण में दूर मदुरै तक पहुँच गईं। उनके प्रयत्नों ने विजयनगर साम्राज्य को और कमजोर कर दिया, जो देव राय द्वितीय की मृत्यु के बाद आंतरिक कलह के दौर से गुजर रहा था।
महमूद गवन ने कई आंतरिक सुधारों को भी अंजाम दिया। उसने राज्य को आठ प्रांतों या तराफों में विभाजित किया। प्रत्येक तराफ एक तराफदार द्वारा नियंत्रित किया जाता था। प्रत्येक कुलीन के वेतन और दायित्व तय थे। 500 घोड़ों के एक दल को बनाए रखने के लिए कुलीन को प्रति वर्ष 1,00,000 हण का वेतन दिया जाता था। वेतन नकद या एक जागीर निर्दिष्ट कर भुगतान किया जा सकता था। जिन्हें जागीर के माध्यम से भुगतान किया जाता था, उन्हें भू-राजस्व की वसूली के लिए व्यय की अनुमति थी। हर प्रांत में, भूमि (खालिस) का एक अलग तंत्र सुल्तान के खर्च के लिए स्थापित किया गया था। जमीन को मापने के लिए और कृषक द्वारा राज्य को भुगतान की जाने वाली राशि तय करने के लिए प्रयास किए गए थे। ख्इस प्रणाली और दिल्ली सल्तनत की प्रणाली के बीच समानता नोट करें,
महमूद गवन कला का महान संरक्षक था। उसने राजधानी बीदर में एक शानदार मदरसा (या कॉलेज) का निर्माण किया। इस सुन्दर भवन को रंगीन टाइल्स से सजाया गया था। यह तीन मंजिला भवन था, जिसमें एक हजार शिक्षकों और छात्रों के लिए आवास था, और उन्हें कपड़े और भोजन निःशुल्क दिए जाते थे। ईरान और इराक के कुछ सबसे प्रसिद्ध विद्वान महमूद गवान के कहने पर मदरसे में आये थे। बहमनी साम्राज्य की सबसे कठिन समस्याओं में से एक थी प्रधानों के बीच का संघर्ष। प्रधान पुराने आने वाले और नए आने वाले, या दखनी और आफाकी (घरीब भी कहा जाता था) में विभाजित थे। एक नवागंतुक के रूप में, महमूद गवान को दखनियों का विश्वास जीतने के लिए काफी प्रयास करने पड़े। हालांकि, उसने सुलह की एक व्यापक नीति अपनाई, फिर भी वह संघर्ष को रोक नहीं पाया। उसके विरोधियों ने उसके विरुद्ध युवा सुल्तान के कान भरे जिसने 1482 में उसे मरवा डाला। महमूद गवन की उम्र उस समय 70 वर्ष से अधिक थी। गुटीय संघर्ष अब और भी अधिक तीव्र हो गया। विभिन्न प्रषासक स्वतंत्र हो गए। जल्द ही, बहमनी साम्राज्य पांच रियासतों में विभाजित हो गयाः गोलकुंडा, बीजापुर, अहमदनगर, बेरार और बीदर। इनमें से, अहमदनगर, बीजापुर और गोलकुंडा के राज्यों ने सत्रहवीं शताब्दी के दौरान मुगल साम्राज्य में उनके अवशोषण तक डेक्कन की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाई।
बहमनी राज्य ने उत्तर और दक्षिण के बीच एक सांस्कृतिक सेतु के रूप में काम किया। परिणाम के रूप में विकसित संस्कृति की अपनी विशिष्ट विशेषताएं थीं, जो उत्तर भारत से अलग थीं। इन सांस्कृतिक परंपराओं को उत्तराधिकारी राज्यों द्वारा जारी रखा गया, और इसने इस अवधि के दौरान मुगल संस्कृति के विकास को भी प्रभावित किया।
6.0 विजयनगर साम्राज्य का चरमोत्कर्ष और उसका विघटन
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, देव राय द्वितीय की मृत्यु के बाद विजयनगर साम्राज्य में भ्रम की स्थिति थी। चूँकि विजयनगर में ज्येष्ठाधिकार का नियम स्थापित नहीं किया गया था, अतः सिंहासन के विभिन्न दावेदारों के बीच गृह युद्ध की एक श्रृंखला शुरू हुई। इस प्रक्रिया में कई जागीरदारों ने स्वतंत्रता ग्रहण कर ली। राज्य के मंत्री बहुत शक्तिशाली बन गए और उन्होंने लोगों से उपहार और भारी कर वसूल करना शुरू कर दिया, जिससे लोगों को काफी कष्ट उठाने पड़े। राय का अधिकार कर्नाटक और पश्चिमी आंध्र क्षेत्र के कुछ भागों तक सिकुड़ गया। शासक ऐशो आराम में डूब गए और राज्य के मामलों की उपेक्षा करने लगे। कुछ समय पश्चात, राजा के मंत्री, सालुवा द्वारा सिंहासन छीन लिया गया। इस प्रकार, पुराना राजवंश समाप्त हो गया। सालुवा ने आंतरिक कानून व्यवस्था पुनः स्थापित की, और एक नए राजवंश की स्थापना की। यह राजवंश भी जल्द ही समाप्त हो गया। अंत में, कृष्ण देव द्वारा एक नया राजवंश (तुलुव राजवंश) स्थापित किया गया। कृष्णदेव राय (1509-1530) इस राजवंश का महानतम व्यक्तित्व था। कुछ इतिहासकार उसे विजयनगर के सभी शासकों में सबसे महान मानते हैं।
कृष्णदेव को न केवल आंतरिक कानून और व्यवस्था पुनः स्थापित करनी थी, उसे विजयनगर के पुराने प्रतिद्वंद्वियों से भी निपटना था, अर्थात्, बहमनी साम्राज्य के उत्तराधिकारी राज्यों और उड़ीसा राज्य, जिसने विजयनगर के कई क्षेत्र छीन लिए थे। इसके अलावा, उसे पुर्तुगालिओं के साथ संघर्ष करना पड़ा, जिनकी शक्ति धीरे-धीरे बढ़ रही थी। वे आर्थिक और राजनीतिक रियायतें हासिल करने के लिए विजयनगर के तटीय क्षेत्रों में छोटे अधीन राज्यों को धमकाने के लिए समुद्र पर अपने नियंत्रण का उपयोग कर रहे थे। उन्होंने बीजापुर से गोवा वापस पाने में उसकी सहायता करने, और उसे घोड़ों की आपूर्ति में एकाधिकार देने का वादा करके राय की तटस्थता को खरीदने की पेशकश भी की थी।सात वर्ष तक चली लड़ाई की एक श्रृंखला में, कृष्ण देव ने पहले उड़ीसा के शासक को कृष्णा नदी तक के सभी राज्य क्षेत्र विजयनगर को बहाल करने के लिए मजबूर किया। इस प्रकार खुद को मजबूत बनाने के बाद, कृष्ण देव ने तुंगभद्रा दोआब के नियंत्रण के लिए पुराने संघर्ष को नए सिरे से पुनर्जीवित किया। इसका परिणाम दो मुख्य विरोधियों, बीजापुर और उड़ीसा, के बीच एक शत्रुतापूर्ण गठबंधन में हुआ। कृष्ण देव ने संघर्ष के लिए भव्य तैयारियाँ की। उसने रायचूर और मुद्कल पर चढ़ाई करके युद्ध का मुह खोला। बाद में जो लड़ाई हुई (1520) उसमे बीजापुर शासक बुरी तरह से हार गया। उसे कृष्णा नदी के पार धकेल दिया गया। वह मुश्किल से जान बचाकर भागा। विजयनगर सेनायें बेलगाम पहुंची और उस पर कब्जा कर लिया। इससे पहले कि संघर्ष विराम हो, उन्होंने कई दिन तक बीजापुर को तहस नहस किया और गुलबर्गा को नष्ट कर दिया।
इस प्रकार, कृष्ण देव के अधीन विजयनगर दक्षिण में सबसे मजबूत सैन्य शक्ति के रूप में उभरा। हालांकि, पुरानी लड़ाइयों को नवीनीत करने की उत्सुकता में, दक्षिणी शक्तियों ने पुर्तगाली के उदय से उन्हें और उनके वाणिज्य को होने वाले खतरे की काफी हद तक अनदेखी की। ऐसा लगता है, कि चोलों और विजयनगर के कुछ प्रारंभिक शासकों के विपरीत, कृष्ण देव ने नौसेना के विकास की ओर अल्प ध्यान दिया।
इस अवधि के दौरान की विजयनगर की स्थितियों के बारे में कई विदेशी यात्रियों ने वर्णन किया है। एक इतालवी पेस, जिसने कृष्ण देव के दरबार में कई वर्ष गुजारे, उसने उसके व्यक्तित्व का चमकदार विवरण दिया है। लेकिन वह टिप्पणी करता है, ‘‘वह एक महान शासक और न्याय प्रिय व्यक्ति है, लेकिन उसे अचानक क्रोध के झटके आते हैं।” वह अपनी प्रजा से बहुत प्यार करता था, और उनके कल्याण के लिए उसकी सरपरस्ती किंवदंती बन गई थी।
कृष्ण देव एक महान निर्माणकर्ता भी था। उसने विजयनगर के निकट एक नए शहर का निर्माण किया, और सिंचाई के उपयोग के लिए एक विशाल तालाब खुदवाया। वह तेलुगू और संस्कृत का एक प्रतिभाशाली विद्वान था। उसकी कई रचनाओं में से, आज केवल एक राजनीति पर तेलुगू में और संस्कृत का एक नाटक उपलब्ध है। उसका शासनकाल तेलुगू साहित्य के एक नए युग के रूप में चिह्नित है, जिस समय संस्कृत रचनाओं की नकल के बजाय स्वतंत्र रचनाओं ने अपनी जगह बनाई। उसने तेलुगू, कन्नड़ और तमिल कवियों को समान रूप से संरक्षण दिया। बारबोसा, पेस और नुनीज़ जैसे विदेशी यात्रियों ने उसके कुशल प्रशासन और उसके समय के साम्राज्य की समृद्धि के बारे में काफी वर्णन किया हैं। कृष्ण देव की सबसे बड़ी उपलब्धि उसके साम्राज्य में प्रचलित व्यापक सहनशीलता में निहित थी।
बारबोसा का कहना हैः ‘‘राजा हर आदमी को, बिना किसी दुख या झुंझलाहट के और वह एक ईसाई, यहूदी, मूर या बुतपरस्त है इसकी जांच के बिना, अपने खुद के धर्म के अनुसार रहने की अनुमति देता है।‘‘ बारबोसा उसके साम्राज्य में प्रचलित न्याय और समानता के लिए कृष्ण देव की काफी प्रशंसा करता है।
कृष्ण देव की मृत्यु के बाद, उसके सभी पुत्र अवयस्क होने के कारण उसके रिश्तेदारों के बीच उत्तराधिकार के लिए एक संघर्ष शुरू हुआ। अंत में, 1543 में, सदाषिव राय सिंहासन पर बैठा और 1567 तक राज्य करता रहा। लेकिन असली सत्ता एक तिकड़ी के हाथों में निहित थी जिसमें प्रमुख व्यक्ति राम राजा था। राम राजा विभिन्न मुस्लिम शक्तियों को एक दूसरे के विरुद्ध लड़ाने में सफल हुआ। उसने पुर्तगाली के साथ एक व्यापारिक संधि की जिससे बीजापुर के शासक को घोड़ों की आपूर्ति बंद कर दी गई। युद्धों की एक श्रृंखला में उसने बीजापुर के शासक को पूरी तरह से हरा दिया और गोलकुंडा और अहमदनगर को अपमानजनक पराजय दी। लगता है कि राम राजा का, इन तीन शक्तियों के बीच विजयनगर के लिए अनुकूल सत्ता का संतुलन बनाए रखने के अलावा कोई दूसरा बड़ा उद्देश्य नहीं था। अन्त में, उन्होंने इकट्ठे होकर 1565 में तलीकोटा के निकट बंनिहट्टी में विजयनगर को जबर्दस्त शर्मनाक पराजय दी। इसे तलीकोटा की लड़ाई या राक्षस-टंगड़ी की लड़ाई भी कहा जाता है। राम राजा को घेर लिया गया, कैदी बनाया और तुरंत मार डाला गया। कहा जाता है, कि लड़ाई के दौरान 1,00,000 हिन्दू मारे गए। विजयनगर को पूरी तरह लूट लिया गया, और खंडहर में तब्दील कर दिया गया।
बंनिहट्टी की लड़ाई आम तौर पर विजयनगर के महान युग के अंत को चिह्नित करने के रूप में मानी जाती है। हालांकि, राज्य लगभग एक सौ साल के लिए घिसटता रहा, उसके राज्य क्षेत्र में लगातार कमी आई और दक्षिण भारत के राजनीतिक मामलों में राय का कोई अस्तित्व नही बचा। विजयनगर शासकों के बीच शासन की अवधारणा उच्च थी। राजनीति पर अपनी पुस्तक में, कृष्णदेव राय राजा को सलाह देते हैं, कि ‘‘बड़ी सावधानी और अपनी शक्ति के अनुसार, आप जैसा देख या सुन रहे हैं उसकी उपेक्षा किये बिना, आप रक्षा करें (अच्छे की) और दंडित करें (दुष्ट को)।‘‘ उसने राजा के लिए यह भी हुक्म पारित किया, कि “वह अपने लोगों से मध्यम आकार के कर वसूल करे।‘‘
7.0 विजयनगर राज्य में प्रशासन
विजयनगर राज्य में राजा को सलाह देने के लिए मंत्रियों की एक परिषद थी जिसमें साम्राज्य के श्रेष्ठ कुलीन शामिल थे। साम्राज्य राज्य या मंडलम (प्रांतों) में विभाजित था, जिसके नीचे नाडु (जिला), स्थल (उपजिला) और ग्राम (गांव) थे।
गांव स्वशासन की चोल परंपरा विजयनगर शासकों के समय में काफी कमजोर हो गई थी। वंशानुगत नायकवाद ने उनकी स्वतंत्रता और पहल करने की क्षमता पर अंकुश लगाने का काम किया था। प्रांतों के गवर्नर पहले शाही हाकिम थे। बाद में, जागीरदार से संबंधित व्यक्तियों, सत्तारूढ़ परिवारों और प्रधानों को भी राज्यपालों के रूप में नियुक्त किया गया। प्रांतीय गवर्नरों को काफी हद तक स्वायत्तता थी। उनके स्वयं के दरबार आयोजित होते थे, वे अपने अधिकारियों की नियुक्ति स्वयं करते थे, और उनकी अपनी सेनाएं थी। उन्हें अपने स्वयं के केवल छोटे मूल्यवर्ग के, सिक्के जारी करने की अनुमति दी गई थी। एक प्रांतीय गवर्नर के लिए कोई नियमित अवधि नहीं थी। उसकी अवधि उसकी क्षमता और उसकी ताकत के आधार पर तय होती थी। गवर्नर को नए कर लगाने या पुराने को शिथिल करने का अधिकार था। प्रत्येक गवर्नर केंद्र सरकार को पुरुषों और पैसे में एक निश्चित अंशदान का भुगतान किया करता था। यह अनुमान लगाया गया था कि जब राज्य की आय 12,000,000 परदो थी, केन्द्र सरकार को केवल आधी रकम मिलती थी। इस प्रकार, कुछ इतिहासकारों को लगता है कि जयनगर एक केंद्रीयकृत्य साम्राज्य से अधिक एक महासंघ था।
कई ऐसे क्षेत्र थे जो अधीनस्थ शासकों के नियंत्रण में थे, अर्थात्, जो युद्ध में हार गए थे, लेकिन जिनके राज्य उन्हें बहाल कर दिए गए थे। राजा सैन्य प्रमुखों को भी एक निर्धारित राजस्व के साथ क्षेत्र या अमरम प्रदान करता था। इन प्रमुखों को पलियागर (पालेगार) या नायक कहा जाता था। इन्हे एक निश्चित संख्या में पैदल सिपाही, घोड़े और हाथी राज्य की सेवा के लिए बनाए रखने पड़ते थे। नायक या पालेगार को केंद्रीय खजाने को रकम की निश्चित राशि का भुगतान करना पड़ता था। वे एक बहुत ही शक्तिशाली भाग थे और उन्हें नियंत्रित करना कभी-कभी सरकार के लिए मुश्किल था। विजयनगर साम्राज्य की ये आंतरिक कमजोरियाँ बंनिहट्टी की लड़ाई में इसकी हार, और इसके बाद के विघटन के लिए जिम्मेदार थी। तंजौर और मदुरै जैसे कई नायक उस समय से स्वतंत्र हो गए।
8.0 विजयनगर साम्राज्य की कला एवं वास्तुकला
विजयनगर साम्राज्य के दौरान कला, स्थापत्यकला, शिल्पकला और ललित कलाओं को खासा प्रोत्साहन प्राप्त हुआ था। पर्सी ब्राउन के शब्दों में ‘‘विजयनगर की कला को द्रविड़ियन शैली का सर्वोच्च भावुक कुसुमित के रूप में‘‘ कहा गया है। हंपी या विजयनगर को यूनेस्को के वैश्विक महत्त्व के स्थानों की सूची में शामिल किया गया है, और इसके संरक्षण के लिए एक प्रमुख योजना की आवश्यकता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के साथ और यूनेस्को, स्मिथसोनियन संस्थान और अनेक देशों की सहायता से कर्नाटक की सरकार ने शहर के 26 वर्गकिलोमीटर क्षेत्र में विशाल उत्खनन के कार्य की शुरुआत की है।
8.1 मंदिर स्थापत्यकला
विजयनगर के शासक महान निर्माता थे। उन्होंने अपने संपूर्ण साम्राज्य में बड़ी संख्या में फैले हुए मंदिरों का निर्माण किया था, परंतु मंदिर निर्माण गतिविधि का सर्वोत्कृष्ट पुष्पण विजयनगर, जिसे अब हंपी कहा जाता है, के शानदार मंदिरों में देखा जा सकता है, जैसे विट्ठलस्वामी मंदिर, हाजरा रामास्वामी, कृष्णास्वामी, भुवनेश्वरी, अच्युतार्य, विरुपाक्ष मंदिर इत्यादि। हंपी के विरुपाक्ष मंदिर का पुनर्निर्माण प्रारंभिक संगमा शासकों द्वारा किया गया था। इस मंदिर के रंगमंडप का निर्माण 1509-10 में कृष्णदेव राय द्वारा अपने राज्याभिषेक के स्मरणार्थ किया गया था। विजयनगर साम्राज्य में निर्मित मंदिरों में कदम्ब, चोल, चालुक्य, पंड्या और होयसला की अनेक स्थापत्यकला विशेषताओं को लिया गया था। स्तंभों का आकार विजयनगर के मंदिरों की गूढ़ता और सौंदर्य को परिभाषित करता है। प्रोफेसर के नीलक्षत शास्त्री के अनुसार ‘‘स्तंभों की विविध और जटिल रचना शायद विजयनगर शैली की सबसे असाधारण विशेषता है।’’
विद्यारण्य के गुरु गुरु विद्याशंकर की स्मृति में लगभग 1380 ईस्वी में निर्मित श्रृंगेरी का विजयनगर मंदिर सबसे प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर की योजना भारत में अनोखी है, जिसमें एक होयसला मीनार के साथ एक होयसला पीठिका पर एक गजपृष्ठ है। विद्यारण्य ने इस मंदिर का निर्माण श्रीचक्र योजना और कुछ खगोलीय अवधारणाओं पर किया था। मंडप में 12 स्तंभ हैं जिनमें राशिमण्डल के 12 ग्रहों के निशान बने हुए हैं। वे इस प्रकार से निर्मित हैं कि पहले सौर महीने की सूर्य की किरणें अचूक सूचक स्तंभ पर ही पडें़।
विट्ठलस्वामी मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित सबसे अलं.त तीर्थस्थान है। इसका निर्माण देवराय द्वितीय के समय के दौरान शुरू किया गया था और यह कृष्णदेवराय, अच्युतराय और सदाशिवराय के शासन के दौरान भी जारी रहा। हालांकि इसे पूरा नहीं किया जा सका। इसका प्रांगण 500 फुट गुणा 310 फुट का है। प्रांगण के चारों ओर स्तंभों की एक तिहरी पंक्ति है। प्रांगण की ओर खुलने वाले पूर्व, दक्षिण और उत्तर के तीन प्रवेशद्वार गोपुरों से घिरे हुए हैं। मंदिर के तीन सुस्पष्ट विभाग हैं, जिनके नाम हैं महामंटपा (आगे की ओर एक खुला आधारस्तंभ वाला दालान), नवरंग (बीच का बंद दालान) और गर्भगृह। विट्ठलस्वामी मंदिर नक्काशीदार स्तंभ और प्रतिबिंब विजयनगर के शिल्पियों के कौशल के सम्मान का प्रतीक हैं जिन्होंने ग्रेनाइट को संभालने में प्राचीन चोलों जैसी अद्वितीय निपुणता का प्रदर्शन किया है।
सिंहासन मंच या महानवमी डिब्बा को पेस द्वारा विजय गृह के रूप में वर्णित किया गया है। इस स्मारक का निर्माण कृष्णदेवराय द्वारा 1518 ईस्वी में उनके उड़ीसा के सफल अभियान की स्मृति में किया गया था। मंच के सर्वोच्च शिखर की सजावट अत्यंत सुन्दर नक्काशी शैली में की गई है जो घोडे़, हाथी, ऊँट और अन्य पारंपरिक पशुओं के समान है। इसी प्रकार इसपर करती युवतियों और शिकार के चित्रों जैसी और इसी प्रकार की अन्य नक्काशी भी की गई है। यह सिंहासन मंच निजी दर्शकों के लिए उपयोग किया जाता था।
कृष्णदेवराय ने दक्षिण भारत के अनेक मंदिरों का पुनरुद्धार किया। उन्होंने तिरुपति, श्रीसैलम, कांची और तंजोर के मंदिरों पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने इन मंदिरों के प्रवेश द्वारों पर विशाल गोपुरमों की स्थापना की जिन्हें राजगोपुरम कहा जाता है।
गैर-धार्मिक स्थापत्यकलाः राजा का दरबार हॉल विजयनगर साम्राज्य की धर्मनिरपेक्ष स्थापत्यकला का उत्.ष्ट उदाहरण है। इस दरबार हॉल में सैकड़ों स्तंभ हैं जो प्रत्येक दस स्तंभों की दस पंक्तियों में क्रमबद्ध किये गए हैं। इसके अवशेष दर्शाते हैं कि उनके आधार वर्गाकार थे, दस्ते बेलनाकार थे और शिखर ईंटों से निर्मित थे। हंपी इंडो-इस्लामिक स्थापत्यकला शैली के भी अनेक निर्माणों का स्थल है। इसके कुछ उदाहरण हैं कमाल महल, रानी का स्नानागार, पर्यवेक्षण बुर्ज, हाथियों और घोड़ों के अस्तबल, बाजार, शाही टकसाल (टंकशाला) और शाही तराजू। कृष्णदेवराय के कोषाध्यक्ष विरुपणा ने 1535 ईस्वी में लेपाक्षी में वीरेश्वर या पापनाशेश्वर मंदिर का निर्माण किया और तडिपात्री में चिंतालराय मंदिर (1535 ईस्वी) का निर्माण किया। ये मंदिर उनकी सुंदर नक्काशी और चित्रकारी के लिए प्रसिद्ध हैं। ये दोनों मंदिर आंध्र प्रदेश में स्थित हैं। लेपाक्षी स्थित मंदिर को शिव, सप्तऋषि, अष्टदिपकलश इत्यादि को चित्रित करने वाली उसकी उत्कृष्ट नक्काशीदार मूर्तिकला के कारण शैवों के अजंता के रूप में वर्णित किया जाता है।
विशाल अखंड नागलिंग विजयनगर साम्राज्य की स्थापत्यकला के कौशल का एक अन्य उत्कृष्ट नमूना है। यह 25 फुट ऊंचा, सात टोपीदार और फैली हुई बहिर्विष्ट पट्टियों वाला है। इसके पाये में एक सुंदर शिवलिंग बना हुआ है। नागलिंग के अतिरिक्त ऐसी अनेक मूर्तियां हैं जो उस काल की असाधारण मूर्तिकला को प्रदर्शित करती हैं। इसके कुछ उदाहरण हैं उग्रनरसिंह, कडलेकलु गणपति और सासुवेकलु गणपति। उग्रनरसिंह की विशाल मूर्ती ग्रेनाइट के एक ही विशाल शिलाखंड से खोदकर बनाई गई है, और इसका निर्माण 1528 ईस्वी में किया गया था।
8.2 चित्रकला
विजयनगर के शासकों ने चित्रकारी और नृत्य और संगीत जैसी ललित कलाओं पर विशेष ध्यान दिया था।
हंपी के विरुपाक्ष के कल्याणमंतपा की छतों में ऐसी चित्रकारी है जो दशावतार, गिरिजाकल्याण, और अन्य धार्मिक रूपांकनों का अत्यंत सुंदरता से चित्रण करती है। लेपाक्षी के वीरभद्र मंदिर की छत पर कई सौ रूपांतरों के चित्र हैं जो शिवपुराण की कथाओं को प्रदर्शित करते हैं। चित्रों की एक पंक्ति में अर्जुन के प्रायश्चित्त को अत्यंत सुंदरता से विषयवस्तु बनाया गया है और चित्रकार ने अत्यंत कुशलता से इसके विभिन्न चित्रों को चित्रित किया है। एक चित्र में पार्वती के विवाह को दर्शाया गया है जिसमें अनेक ऋषियों और विष्णु, वायु और अग्नि जैसे देवताओं को अतिथियों के रूप में दर्शाया गया है। एक चित्र में पार्वती को विवाह से पूर्व शिव के साथ शतरंज खेलते हुए दर्शाया गया है। परंतु इन सब में सर्वोत्कृष्ट वह फलक है जिसमें शिव को गौरीप्रसादक के रूप में दर्शाया गया है, जिसमें वे गौरी का तुष्टिकरण करते हुए दिखाई देते हैं। इस चित्र में प्रक्रिया, प्रतिक्रिया और ठहराव का एक उल्लासपूर्ण मिश्रण है। यह दर्शाता है कि विजयनगर की चित्रकला एक उच्च क्रम की थी।
विजयनगर साम्राज्य ने नृत्य और संगीत को भी प्रश्रय दिया था। इस युग में कर्नाटक संगीत नई ऊंचाइयों पर पहुंचा। विद्यारण्य एक महान विद्वान थे और उन्हें ‘‘संगीतसार’’ कहा जाता था। पुरंदरदास ने कन्नड भाषा में सरल गीतों की रचना करके और उन्हें गाकर कर्नाटक संगीत को काफी लोकप्रिय बनाया।
विजयनगर साम्राज्य ने दक्षिण भारत के इतिहास में एक ऐसे युगारंभ का प्रतिनिधित्व किया जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता।
COMMENTS