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पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट
1.0 परिचय
750 और 1000 ईस्वी के दौरान उत्तरी भारत और दक्कन में कई शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ। नौवीं शताब्दी के मध्य तक पूर्वी भारत में पाल साम्राज्य का प्रभुत्व था; और प्रतिहार साम्राज्य ने दसवीं शताब्दी के मध्य तक पश्चिमी भारत और ऊपरी गंगा घाटी पर प्रभुत्व बरकरार रखा, औैर राष्ट्रकूट साम्राज्य ने दक्कन पर प्रभुत्व कायम रखा और साथ ही उत्तर और दक्षिण भारत में क्षेत्रों को कई बार अपने नियंत्रण में लिया।
इन साम्राज्यों में से प्रत्येक ने, यद्यपि वे आपस में लड़े फिर भी उन्होंने विशाल भू-भागों में जीवन हेतु स्थिर स्थितियां प्रदान कीं, और कला तथा साहित्य को संरक्षण दिया। तीनों में से, राष्ट्रकूट साम्राज्य सबसे लंबे समय तक चला। यह उस समय का ना केवल सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था, वरन् इसने आर्थिक के साथ-साथ सांस्कृतिक मामलों में उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक सेतु के रूप में काम किया।
2.0 प्रतिहार
2.1 उत्पत्ति
प्रतिहार प्रसिद्ध गुर्जरों की एक शाखा थे। गुर्जर उन मध्य एशियाई कबीलों में से एक थे, जो गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद हूणों के साथ आए थे। राष्ट्रकूट अभिलेखों के अनुसार प्रतिहार गुर्जरों से सम्बद्ध थे। अबु जै़द एवं अल-मसूदी जैसे अरब लेखकों ने उत्तर के गुर्जरों से उनके संघर्ष का उल्लेख किया है। सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण कन्नड़ के कवि पंपा का है जिसने महिपाल को ‘गुर्जरराज‘ कहा है। यह नाम राष्ट्रकूट दरबार के ‘प्रतिहार‘ (उच्च अधिकारी) पद धारण करने वाले राजा से व्युत्पन्न है।
2.2 राजनीतिक इतिहास
नागभट्ट प्रथमः प्रतिहार सर्वप्रथम आठवीं शताब्दी के मध्य में लोकप्रिय हुए, जब उनके शासक नागभट्ट प्रथम ने अरबों के आक्रमण से पश्चिम भारत की रक्षा की तथा भड़ौच तक अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसने अपने उत्तराधिकारियों को मालवा, गुजरात तथा राजस्थान के कुछ हिस्सों समेत एक शक्तिशाली राज्य सौंपा। नागभट्ट प्रथम के उत्तराधिकारी उसके भाई के पुत्र ककुष्ठ तथा देवराज थे, तथा दोनों ही महत्वपूर्ण नहीं थे।
वत्सराजः वत्सराज एक शक्तिशाली शासक था तथा उसने उत्तर भारत में एक साम्राज्य की स्थापना की। उसने प्रसिद्ध भांडी वंश को पराजित किया जिनकी राजधानी सम्भवतः कन्नौज थी। उसने बंगाल के शासक धर्मपाल को भी पराजित किया तथा एक महान साम्राज्य की नींव डाली। लेकिन उसे राष्ट्रकूट शासक धु्रव ने बुरी तरह पराजित किया।
नागभट्ट द्वितीयः वत्सराज का उत्तराधिकारी उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय था जिसने अपने परिवार की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया। लेकिन वह अपने पूर्वज की भांति दुर्भाग्यशाली सिद्ध हुआ और उसे राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय से पराजित होना पड़ा। नागभट्ट द्वितीय ने दूसरी दिशाओं में अपनी तकदीर आजमाई। उसने कन्नौज पर आक्रमण कर धर्मपाल के नामजद शासक चक्रयुद्ध को पदच्युत किया तथा कन्नौज को प्रतिहार राज्य की राजधानी बनाया। अपने अधीनस्थ शासक की पराजय का बदला लेने के लिए धर्मपाल ने तैयारियां शुरू कर दीं तथा संघर्ष अवश्यंभावी हो गया। प्रतिहार शासन ने धर्मपाल को पराजित कर मुंगेर तक अधिकार कर लिया।
2.3 विजय अभियान
उसके पोते के ग्वालियर अभिलेख के अनुसार नागभट्ट द्वितीय ने अनर्त्त (उत्तरी काठियावाड़), मालवा या मध्य भारत, मत्स्य या पूर्वी राजपूताना, किराट (हिमालय का क्षेत्र), तुरूष्क (पश्चिम भारत के अरब निवासी) तथा कौशांबी (कोसम) क्षेत्र में वत्सों को पराजित किया। नागभट्ट द्वितीय के अधीन प्रतिहार साम्राज्य की सीमा में राजपूताना के भाग, आधुनिक उत्तर प्रदेश का एक बड़ा भाग, मध्य भारत, उत्तरी काठियावाड़ तथा आस-पास के क्षेत्र थे। नागभट्ट द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र रामभद्र था जिसके तीन वर्षों के छोटे शासन काल में पाल शासक देवपाल की आक्रामक नीतियों के कारण प्रतिहारों की शक्ति पर ग्रहण लग गया।
मिहिर भोजः रामभद्र के पुत्र मिहिरभोज के राज्यारोहण के साथ ही प्रतिहारों की शक्ति दैदीप्यमान हो गई। उसने अपने वंश का वर्चस्व बुंदेलखंड में पुनः स्थापित किया तथा जोधपुर के प्रतिहारों (परिहार) का दमन किया। भोज के दौलतपुर ताम्रपत्र अभिलेख से ज्ञात होता है कि प्रतिहार शासक मध्य तथा पूर्वी राजपूताना में अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल रहा था। उत्तर में उसका वर्चस्व हिमालय की पहाड़ियों तक स्थापित हो चुका था, जैसा कि गोरखपुर जिले में एक कलचुरी राजा को दिए गए एक भूमि अनुदान से ज्ञात होता है।
लेकिन भोज का साम्राज्यवादी लक्ष्य सभी जगह सफल नहीं रहा। वह पाल शासक देवपाल से पराजित हुआ। पूर्व की इस पराजय से निराश न होते हुए उसने अपना ध्यान दक्षिण की ओर केंद्रित किया एवं दक्षिण राजपूताना एवं उज्जैन के आस-पास के क्षेत्रों समेत नर्मदा तक अधिकार कर लिया। अब उसका सामना राष्ट्रकूटों से हुआ जिसके शासक ध्रुव द्वितीय ने उसके विजय अभियानों पर रोक लगाई। शक्तिशाली पाल शासक देवपाल की मृत्यु के बाद राजनैतिक परिदृश्य में परिवर्तन हुआ तथा राष्ट्रकूटों ने बंगाल पर आक्रमण किया। भोज ने कमजोर नारायण पाल को पराजित कर उसके पश्चिमी क्षेत्रों के बड़े भाग पर अधिकार कर लिया। इस विजय से प्रेरित होकर भोज ने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय पर भी आक्रमण कर दिया और उसे नर्मदा के किनारे पराजित कर मालवा पर अधिकार कर लिया।
इस प्रकार भोज का विशाल साम्राज्य उत्तर पश्चिम में सतलज, उत्तर में हिमालय की पहाड़ियों, पूर्व में बंगाल, दक्षिण तथा दक्षिण पूर्व में बुंदेलखंड तथा वत्स के क्षेत्र, दक्षिण पश्चिम में नर्मदा तथा सौराष्ट्र एवं पश्चिम में राजपूताना के हिस्सों तक फैला हुआ था। भोज का शासन काल काफी लम्बा (46 वर्षों तक) था। अरब यात्री सुलेमान ने उसकी उपलब्धियों का उल्लेख किया है।
महेंद्रपाल प्रथमः भोज का उत्तराधिकारी उसका पुत्र महेंद्रपाल प्रथम था। उसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि मगध तथा उत्तरी बंगाल की विजय थी। महेंद्रपाल प्रथम विद्वानों का उदार संरक्षक था। उसके दरबार का सबसे प्रतिभाशाली व्यक्ति राजशेखर था जिसकी अनेक रचनाएं हैं- कर्पूरमंजरी, बाल रामायण, बाल तथा भारत, काव्य मीमांसा आदि।
2.4 पतन
महेंद्रपाल की मृत्यु के बाद गद्दी पर अधिकार के लिए संघर्ष छिड़ गया। पहले उसके पुत्र भोज द्वितीय ने राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। किंतु शीघ्र ही उसके सौतेले भाई महिपाल ने सत्ता हथिया ली। एक बार फिर इंद्र तृतीय के अधीन राष्ट्रकूटों ने प्रतिहारों पर प्रहार किया तथा कन्नौज नगर को नष्ट कर दिया।
लेकिन इंद्र तृतीय के दक्कन वापस लौट जाने के बाद महिपाल को अपनी स्थिति सुधारने का मौका मिला। अरब यात्री अल- मसूदी, जो 915-16 में भारत आया था, ने कन्नौज के राजा की शक्ति तथा उसके संसाधनों का उल्लेख किया है, जिसका राज्य पश्चिम में सिंध तक तथा दक्षिण में राष्ट्रकूट सीमा तक था। अरब यात्री ने राष्ट्रकूटों तथा प्रतिहारों के संघर्ष की पुष्टि की है तथा प्रतिहारों की महत्वपूर्ण सेना का उल्लेख किया है।
महिपाल का पुत्र तथा उत्तराधिकारी महेंद्रपाल द्वितीय था जिसके काल में साम्राज्य अविछिन्न बना रहा। चंदेलों के स्वतंत्र हो जाने के बाद देवपाल के शासनकाल में साम्राज्य टूटना प्रारंभ हो गया। देवपाल के शासन काल में प्रारंभ विघटन की प्रक्रिया विजयपाल के शासन काल में बढ़ गई। दसवीं शताब्दी में जब विजयपाल का उत्तराधिकारी राज्यपाल शासक बना, तब तक प्रतिहार साम्राज्य की शक्ति समाप्त हो चुकी थी। सन् 1036 ई० के एक अभिलेख में उल्लिखित यशपाल सम्भवतः इस वंश का अंतिम शासक था।
3.0 पाल
650 से 750 ई. के बीच बंगाल का इतिहास अराजकता तथा अस्तव्यस्तता से परिपूर्ण था, जिसका परिणाम था राजनीतिक विघटन। इस अराजकता तथा अस्तव्यस्तता के विरुद्ध स्वाभाविक प्रतिक्रिया हुई। सम्भवतः बंगाल के मुख्य लोगों ने गोपाल को समूचे राज्य का शासक चुना।
3.1 राजनीतिक इतिहास
गोपालः गोपाल ने एक वंश की स्थापना की, जिसने बंगाल में लगभग चार शताब्दी तक शासन किया। उसका जन्म सम्भवतः पुंडरवर्धन (बोगरा जिला) में हुआ था। गोपाल के राज्य की वास्तविक शासन सीमा को तय करना कठिन है लेकिन सम्भवतः उसने सम्पूर्ण बंगाल पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। गोपाल बौद्ध धर्म का प्रबल अनुयायी था और ओदंतपुरी (आधुनिक बिहार शरीफ) का बौद्ध बिहार सम्भवतः उसी ने बनवाया था।
धर्मपाल गोपालः धर्मपाल गोपाल का उत्तराधिकारी उसका पुत्र धर्मपाल था जिसने पाल राज्य को महानता प्रदान की। राज्यारोहण के तुरंत बाद ही धर्मपाल को उस काल की दो मुख्य शक्तियों-प्रतिहार और राष्ट्रकूट-के साथ संघर्ष में उलझना पड़ा। प्रतिहार शासक वत्सराज ने धर्मपाल को एक युद्ध में हरा दिया, जो गंगा के दोआब क्षेत्र में कहीं लड़ा गया था, लेकिन वत्सराज के अपनी विजय का सुख भोगने से पहले ही राष्ट्रकूट राजा धु्रव ने उसे पराजित कर दिया। उसके बाद उसने धर्मपाल को पराजित किया तथा कुछ समय के बाद दक्कन की ओर प्रस्थान किया।
इन सभी पराजयों के बावजूद धर्मपाल को उसकी उम्मीद से ज्यादा फायदा हुआ। प्रतिहार शक्ति की पराजय तथा राष्ट्रकूटों के वापस चले जाने के बाद धर्मपाल अब महान पाल साम्राज्य स्थापित करने की सोच सकता था। धर्मपाल ने कन्नौज की गद्दी पर चक्रयुद्ध को बैठाया। धर्मपाल के अधीन पाल साम्राज्य काफी विस्तृत था। बिहार और बंगाल सीधे उसके शासन के अधीन आते थे। इसके अलावा कन्नौज का राज्य धर्मपाल पर आश्रित था तथा वहां के शासक को धर्मपाल ने नामजद किया था। कन्नौज से आगे पंजाब, राजपूताना, मालवा तथा बेरार के कई छोटे-छोटे राज्यों ने भी धर्मपाल की अधीनता स्वीकार की।
धर्मपाल के विजय अभियान को उसके प्रतिहार प्रतिद्वन्द्वी नागभट्ट द्वितीय ने चुनौती दी तथा कन्नौज से उसके आश्रित चक्रयुद्ध को खदेड़ दिया। इन दोनों शासकों के बीच अब श्रेष्ठता की लड़ाई अवश्यंभावी हो गई। प्रतिहार शासक मुंगेर तक चला गया तथा एक घमासान युद्ध में धर्मपाल को पराजित किया। लेकिन धर्मपाल को समय रहते राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय ने बीच-बचाव कर बचा लिया जिससे शायद धर्मपाल ने सहायता मांगी थी। लगभग 32 वर्षों के शासन काल के बाद धर्मपाल की मृत्यु हो गई तथा उसके विशाल राज्य का स्वामी उसका बेटा देवपाल बना।
वह बौद्ध था तथा उसने भागलपुर के निकट विक्रमशील के प्रसिद्ध महाविहार का निर्माण कराया। सोमपुर (पहाड़पुर) के विहार के निर्माण का श्रेय भी उसी को दिया जाता है। तारानाथ के अनुसार धर्मपाल ने 50 धार्मिक संस्थानों की स्थापना की तथा वह महान बौद्ध लेखक हरिभद्र का संरक्षक भी था।
देवपालः धर्मपाल का उत्तराधिकारी देवपाल बना जिसे सर्वाधिक शक्तिशाली पाल शासक माना जाता है। शिलालेखों से प्राप्त जानकारी के अनुसार उसे हिमालय से विंध्य तक तथा पूर्वी से पश्चिमी समुद्र तक के क्षेत्रों को जीतने का श्रेय दिया जाता है। कहा जाता है कि उसने गुर्जरों तथा हूणों को पराजित किया और उत्कल तथा कामरूप पर अधिकार कर लिया। जिन हूण तथा कंबोज शासकों को देवपाल ने पराजित किया उनकी पहचान कभी स्थापित नहीं हो पाई है। गुर्जर प्रतिद्वन्द्वी मिहिरभोज को माना जा सकता है जिसने अपने राज्य का विस्तार पूर्व की ओर करना चाहा था। किन्तु देवपाल ने उसे पराजित कर दिया।
अपने पिता की तरह देवपाल भी बौद्ध था तथा इस रूप में उसकी ख्याति भारत के बाहर कई बौद्ध देशों में फैली। जावा के शैलेन्द्र शासक बल पुत्र देव ने देवपाल के पास अपना राजदूत भेजकर उससे नालंदा के एक बौद्ध विहार को पांच गांव दान में देने का आग्रह किया। देवपाल ने आग्रह स्वीकार कर लिया। बौद्ध कवि वज्रदत्त देवपाल के दरबार में रहता था जिसने लोकेश्वर शतक की रचना की।
एक अरब व्यापारी सुलेमान, जो भारत आया था और जिसने अपनी यात्रा का विवरण 85 ई. में लिखा, पाल राज का नाम रूमी बताता है। उसके अनुसार पाल शासक का गुर्जरों एवं राष्ट्रकूटों से युद्ध चलता था तथा उसके पास अपने प्रतिद्वन्द्वियों से अधिक सेना थी।
3.2 परवर्ती पाल
देवपाल की मृत्यु के साथ ही पाल साम्राज्य का गौरव समाप्त हो गया तथा वह फिर से प्राप्त नहीं किया जा सका। उसके उत्तराधिकारियों के काल में राज्य का विघटन धीरे-धीरे होता रहा। देवपाल का उत्तराधिकारी विग्रहपाल था। तीन या चार साल के छोटे शासन काल के बाद विग्रहपाल ने गद्दी त्याग दी।
विग्रहपाल के पुत्र और उत्तराधिकारी नारायण पाल का शासन काल बड़ा था। राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष ने पाल शासक को पराजित किया। प्रतिहारों ने धीरे-धीरे पूर्व की ओर अपनी शक्ति का विस्तार प्रारंभ किया। नारायणपाल को न सिर्फ मगध से हाथ धोना पड़ा अपितु पाल राज्य का मुख्य भाग उत्तरी बंगाल भी उसके हाथ से निकल गया। यद्यपि अपने शासन के अंतिम चरणों में उसके प्रतिहारों से उत्तरी बंगाल और दक्षिणी बिहार को छीन लिया क्योंकि प्रतिहार राष्ट्रकूटों के आक्रमण के कारण कमजोर हो गए थे।
नारायणपाल का उत्तराधिकारी उसका पुत्र राज्यपाल बना तथा राज्यपाल का उत्तराधिकारी उसका पुत्र गोपाल द्वितीय था। इन दो शासकों का शासन पाल शक्ति के लिए अनर्थकारी सिद्ध हुआ। चंदेल तथा कलचुरी आक्रमणों के कारण पाल साम्राज्य चरमरा गया।
पालों की गिरती हुई साख को कुछ हद तक महिपाल प्रथम ने 98 ईस्वी में अपने राज्यारोहण के बाद संभाला। महिपाल के शासन काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना बंगाल पर राजेन्द्र चोल का आक्रमण है। राजेन्द्र चोल के उत्तरी अभियान का विवरण उसके तिरुमलाई शिलालेख में मिलता है। यद्यपि चोल आक्रमण द्वारा बंगाल में उसकी संप्रभुता स्थापित नहीं हो सकी। उत्तरी और पूर्वी बंगाल के अलावा महिपाल बर्दवान प्रभाग के उत्तरी भाग को भी वापस पाल राज्य में मिलाने में सफल रहा। महिपाल की सफलता उत्तरी तथा दक्षिणी बिहार में ज्यादा प्रभावशाली रही। वह बंगाल के एक बड़े भाग पर दोबारा अपना अधिकार जमाने में सफल रहा। उसकी सफलता का एक बड़ा कारण महमूद का लगातार आक्रमण था जिसके कारण शायद उत्तरी भारत के राजपूतों की शक्ति तथा स्रोत क्षीण हो गए थे। पाल वंश का अंतिम शासक मदनपाल था।
4.0 राष्ट्रकूट
4.1 उत्पत्ति
राष्ट्रकूट शब्द का अर्थ है-राष्ट्र नामक क्षेत्रीय इकाई के अधिकार वाला अधिकारी। 7वीं तथा 8वीं शताब्दी के भूमि अनुदानों में राष्ट्रकूटों से यह प्रार्थना की गई है कि वे अनुदानित क्षेत्र की शांति भंग न करें। राष्ट्रकूट मूलतः महाराष्ट्र के लात्तालुर, (आधुनिक लातूर) के थे।
वे कन्नड़ मूल के थे तथा कन्नड़ उनकी मातृ भाषा थी।
4.2 राजनीतिक इतिहास
दांतिदुर्गः दातिदुर्ग ने अपना जीवन चालुक्यों के सामंत के रूप में प्रारंभ किया था। उसके एक दीर्घकालीन राज्य की नींव रखी। दांतिदुर्ग के विजय अभियानों के बारे में हमें दो स्रोतों से पता चलता है-प्रथम, समागद पत्र तथा द्वितीय, एलोरा का दशावतार गुफा अभिलेख। दातिदुर्ग की विजय का इरादा पूर्व तथा पश्चिम का क्षेत्र था तथा वह चालुक्यों के गढ़ कर्नाटक को नहीं छेड़ना चाहता था। उसने मालवा पर आक्रमण किया जो उस समय गुर्जर प्रतिहारों के अधीन था तथा इसे अधिकार में कर लिया। मालवा पर अपनी विजय के उल्लास में उसने उज्जैन में हिरण्यगर्भदान उत्सव किया। उसके कुछ दिनों के बाद वह मध्य प्रदेश के महाकोशल या छतीसगढ क्षेत्र में गया। अतः 750 ईस्वी तक उसने सम्पूर्ण मध्य प्रदेश तथा मध्य एवं दक्षिण गुजरात पर अधिकार कर लिया था। उसके बाद उसने अपने स्वामी चालुक्य राजा कीर्तिवर्मन II पर आक्रमण किया तथा स्वयं को पूरे दक्षिण का स्वामी घोषित कर दिया। परंतु इस विजय के बाद वह ज्यादा दिनों तक ज़िन्दा नहीं रहा।
कृष्णा I: दांतिदुर्ग की कोई संतान नहीं थी। उसके बाद गद्दी पर उसके चाचा कृष्णा I आए। महाराष्ट्र एवं कर्नाटक में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद कृष्णा I दक्षिण की तरफ बढ़े। उन्होंने गंगावडी (आधुनिक मैसूर) पर आक्रमण किया जो उस समय गंगा राजा श्रीपुरुष के अधीन था। श्रीपुरूष को अपने अधीनस्थ के रूप में शासन की अनुमति देकर वे वापस लौट गए। पूर्व में कृष्णा प् का मुकाबला वेंगी के चालुक्यों से हुआ। उन्होंने राज कुमार गोविंद को वेंगी भेजा, जहां के शासक विजयादित्य I ने बिना किसी संघर्ष के समर्पण कर दिया। एक महान विजेता के साथ-साथ कृष्णा एक महान निर्माता भी था। उन्होंने एलोरा में एक भव्य विशाल एकल शिलाखंडीय पत्थरों को काटकर बनाए गए मंदिर का निर्माण करवाया जिसे अब कैलाश के नाम से जाना जाता है।
ध्रुवः कृष्ण प्रथम के बाद गद्दी मिली उसके ज्येष्ठ पुत्र गोविंद द्वितीय को। उसने प्रषासन अपने छोटे भाई ध्रुव को सौपा जो कि महत्वकांक्षी निकला, एवं गद्दी छीन बैठा। गद्दी पर आने के तुरंत बाद ध्रुव ने उन राजाओं को दंडित करना प्रारंभ किया जिन्होंने उसके भाई का साथ दिया था। उसके बाद ध्रुव ने उत्तर भारत की राजनीति पर नियंत्रण स्थापित करने का साहसिक प्रयास किया जिसे सातवाहनों के बाद कोई भी दक्षिण भारतीय शक्ति नहीं कर पाई थी। उस समय उत्तर भारत में श्रेष्ठता के लिए वत्सराज प्रतिहार तथा बंगाल के पाल शासक धर्मपाल के बीच संघर्ष चल रहा था।
जब वत्सराज दोआब मे धर्मपाल के साथ युद्धरत था, धुव ने नर्मदा पार कर मालवा पर बिना ज्यादा प्रतिरोध का सामना किए, अधिकार कर लिया। उसके बाद वह कन्नौज की तरफ बढ़ा तथा वत्सराज को इतनी बुरी तरह पराजित किया कि उसे राजस्थान के रेगिस्तान में शरण लेनी पड़ी। उत्तर की ओर बढ़ते हुए ध्रुव ने गंगा-यमुना दोआब क्षेत्र में धर्मपाल को पराजित किया। शाही शहर कन्नौज की तरफ न जाकर ध्रुव लूट के बड़े भंडार के साथ वापस लौट गया। उनके चार पुत्र थे कर्क, स्तंभ, गोविंद तथा इंद्र। कर्क की मृत्यु पिता से पहले ही हो गई थी। बाकी बचे तीनों बेटों में से राजा ने सबसे योग्य गोविंद को अपना उत्तराधिकारी चुना तथा युवराज बना दिया।
गोविंद III: यद्यपि गोविंद शांति के साथ पद पर आया परंतु शीघ्र ही उसे अपने बड़े भाई स्तंभ के विरोध का सामना करना पड़ा जिसके गद्दी के दावे को निरस्त कर उसे राजा बनाया गया था। स्तंभ को पराजित करने तथा दक्षिण में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद गोविंद ने भी अपना ध्यान उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति की तरफ मोड़ा। गोविंद ने उत्तर भारत की तरफ रुख किया तथा नागभट्ट II को पराजित किया। नागभट्ट दोआब को आक्रमणकारियों की दया पर छोड़ कर राजपूताना भाग गया। कन्नौज के कठपुतली शासक चक्रयुद्ध तथा धर्मपाल ने बिना शर्त समर्पण कर दिया। शक्तिशाली गुर्जर प्रतिहार तथा पाल राजाओं के अलावा उत्तर भारत के दूसरे राजाओं को भी गोविंद III ने पराजित किया।
अमोघवर्ष I: गोविंद III के बाद गद्दी पर उसका पुत्र सार्व आया जिसे अमोघवर्ष के नाम से जाना जाता है। उसने अपने 64 वर्ष के लम्बे शासन काल में शांति नसीब नहीं हुई। उसे अपने शासन काल में अपने सामंतों के अनेक विद्रोहों का सामना करना पड़ा तथा अपने शक्तिशाली पड़ोसियों से युद्ध करना पड़ा। अमोघवर्ष में अपने पिता की विलक्षणताओं का अभाव था। मालवा तथा गंगावडी उसके राज्य से छीन लिए गए।
युद्ध के स्थान पर उन्हें शांति, धर्म तथा साहित्य में ज्यादा रुचि थी। अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में उनका झुकाव जैन धर्म की ओर हो गया तथा आदिपुराण के लेखक जिनसेन उनके मुख्य शिक्षक हुए। अमोघवर्ष खुद भी एक लेखक थे तथा उन्होंने साहित्यकारों को काफी प्रोत्साहन दिया। कन्नड़ भाषा में कविता पर पहली पुस्तक कविराजमार्ग के लेखक वे खुद थे। उन्होंने भवन निर्माण के क्षेत्र में भी काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने मान्यखेत नगर का निर्माण करवाया तथा वहां एक वैभवशाली महल भी बनवाया। उनके बाद उनका पुत्र कृष्ण II गद्दी पर आया।
कृष्ण II: वह न तो एक अच्छा शासक था, न कुशल सेना अध्यक्ष। उनकी एकमात्र उपलब्धि गुजरात शाखा की समाप्ति थी। वह सिर्फ अपने आपको भोज I के विरुद्ध खड़ा कर पाया तथा वेंगी और चोलों के साथ उसके युद्ध काफी विनाशकारी सिद्ध हुए। अपने पिता अमोघवर्ष की तरह कृष्ण भी जैन था।
इंद्रा III: कृष्ण II के बाद उनका पोता इन्द्र III आया। अपने महान पूर्वजों का गौरव बढ़ाते हुए इन्द्र ने गुर्जर प्रतिहार राजा महिपाल के साथ युद्ध छेड़ दिया। उसने कन्नौज पर अधिकार कर लिया। वेंगी के शासकों के लिए समस्याएं उत्पन्न कर उसने अपने प्रतिनिधि को वहां की गद्दी पर बिठा दिया।
अमोघवर्ष II: इंद्र III के बाद उनके पुत्र अमोघवर्ष II आया परंतु गद्दी पर आने के एक वर्ष के अंदर उसकी मृत्यु हो गई तथा उसकी जगह उसके छोटे भाई गोविंद ने ली।
अमोघवर्ष III कृष्ण III: गोविंद एक क्रूर शासक था जिसके विरूद्ध व्यापक असंतोष था। उसके एक सरदार ने गोविंद IV के शासन को समाप्त करने में व्यापक सहयोग दिया तथा सत्ता अमोघवर्ष III के पास स्थानांतरित हो गई। अमोघवर्ष III की प्रषासन के बदले धर्म में ज्यादा रूचि थी। शासन का कार्य युवराज कृष्ण III के हाथों में था। कृष्ण III गद्दी पर आने के बाद कृष्ण ने कुछ वर्ष प्रशासन को सुधारने में बिताया। कृष्ण ने चोल राज्य पर अचानक हमला कर कांची तथा तंजौर पर अधिकार कर लिया। चोलों को इससे उबरने में कुछ वर्ष लग गए तथा 949 ई.पू. में उत्तरी आरकोट में ताक्कोलम का निर्णायक युद्ध लड़ा गया। कृष्ण ने दक्षिण की ओर बढ़ते हुए केरल तथा पांड््य शासकों को भी पराजित किया तथा कुछ समय तक रामेश्वरम् पर उसका अधिकार रहा। उनसे जीते हुए प्रदेश में अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया जिसमें रामेश्वरम के कृष्णवेश्वर तथा गंदमातंड्य मंदिर मशहूर हैं। अपने लम्बे शासन काल में कृष्ण III का तोंडइमंडलम् पर पूरा अधिकार रहा जिसमें आरकोट, चिंगलेपुट तथा वेल्लोर जिले थे।
अपने अधिकांश पूर्वजों की तरह कृष्णा III ने भी वेंगी के मामले में रुचि ली परंतु वेंगी में राष्ट्रकूट शासन ज्यादा लम्बा नहीं चला। अपने शासन के अंतिम दिनों में कृष्ण ने मालवा के परमार शासक हर्ष सियाक पर आक्रमण किया तथा उज्जैन पर अधिकार कर लिया।
कृष्ण के समय से राष्ट्रकूट शासन का पतन प्रारंभ हो गया। वह राज्य के उन सामंती गतिविधियों से अनभिज्ञ था, जो राज्य के बीचों-बीच स्थित तारदावड़ी को जागीर के रूप में तैलाप को देने से उत्पन्न हुई थी, तथा जिससे राज्य की स्थिरता को खतरा था। कृष्ण की मृत्यु के कुछ वर्षों में ही तैलाप इतना शक्तिशाली हो गया कि उसने राष्ट्रकूटों को उखाड़ फैंका तथा कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य वंश की स्थापना की।
खोट्टिगाः खोट्टिगा कृष्ण III के बाद उसका सौतेला भाई खोट्टिगा आया। उसके शासन काल में राष्ट्रकूट राज्य को गहरा झटका लगा जिससे उसकी प्रतिष्ठा नष्ट हुई। परमार राजा सियाक, कृष्ण III के हाथों अपनी पराजय को भूल नहीं पाया था तथा बदले की ताक में लगा था। सियाक ने राष्ट्रकूट राजधानी मालखेद पर आक्रमण किया तथा खोट्टिगा इस अपमान के साथ ज्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रह पाया। उसके बाद उसका भतीजा करक II आया।
करक II: जब कर्क II गद्दी पर आया उस समय तक राज्य की प्रतिष्ठा को काफी नुकसान हो चुका था। नए राजा के कुशासन के कारण स्थिति और भी खराब हो गई। सामंत स्वाभाविक रूप से केंद्रीय शक्ति को चुनौती देने लगे तथा उनमें से एक ने गद्दी पर आने के 18 महीनों के अंदर करक से उसका दक्षिण का राज्य छीन लिया। वह था चालुक्य वंश का तैल II (तैलाप)।
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