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वेंगी के पूर्वी चालुक्य और कल्याणी के चालुक्य
1.0 प्रस्तावना
पुलकेषिन द्वितीय की मृत्यु के बाद पूर्वी चालुक्य पूर्वी दक्कन में एक स्वतंत्र राज्य बन गया। उन्होंने लगभग 11 वीं सदी तक, अपनी राजधानी वेंगी से शासन किया। 8 वीं सदी के मध्य में, पश्चिमी दक्कन में राष्ट्रकूटों के उदय ने तब तक बादामी के चालुक्यों को ग्रहण लगा दिया, जब तक 10 वीं सदी में, उनके वंशजों द्वारा उसे वापस पुनर्जीवित नहीं किया गया। इन पश्चिमी चालुक्य राजाओं ने 12वीं सदी के अंत तक कल्याणी (आधुनिक बसवकल्याण) से शासन किया।
2.0 वेंगी के पूर्वी चालुक्य
पूर्वी चालुक्य राजाओं का राजवंश, जिसे वेंगी के चालुक्य राजाओं के नाम से भी जाना जाता है, लगभग 30 शासकों का था। उन्होंने अपनी राजधानी वेंगी से, लगभग 450 वर्षों तक शासन किया। पूर्वी चालुक्यों का शासन चार विशिष्ट चरणों में देखा जा सकता है।
2.1 प्रथम चरण (625-753 ई.)
इस चरण के दौरान, पूर्वी चालुक्यों के बादामी के चालुक्य राजाओं के साथ घनिष्ठ संबंध थे।
- पुलकेषिन द्वितीय का छोटा भाई कुब्ज विष्णुवर्धन राजवंश का संस्थापक था। उसने, भारत के पूर्वी तट पर कई क्षेत्रों को जीतने के बाद उन्हें अपने छोटे भाई के नियंत्रण में रखा। कुछ साल बाद विष्णुवर्धन ने स्वतंत्रता की मांग की और अपने बड़े भाई की अनुमति होने के बाद स्वतंत्रता ग्रहण की और अपने ही वंश की स्थापना की। विष्णुवर्धन के दो खिताब थे, ”विशंसिद्धि‘‘ और “मकरध्वज”। प्रसिद्ध चीनी बौद्ध यात्री, ह्वेन सांग ने उसके राज्य का दौरा किया और उस काल के आंध्रप्रदेश की की स्थितियों का एक बहुत अच्छा वर्णन छोड़ा है।
- जयसिम्हा-I: वह अपने पिता विष्णुवर्धन प्रथम के पश्चात् राजा बना। उसका शासनकाल राजनैतिक दृष्टि से सामान्य था, लेकिन उसे अपने शिलालेखों में इतिहास में पहली बार तेलुगू का उपयोग करने का श्रेय है।
- अन्यः प्रथम चरण के अन्य शासक थे, इन्द्रभट्टारक, मंगी, जयसिम्हा द्वितीय और विष्णुवर्धन द्वितीय, लेकिन उनके शासन काल में किन्ही भी महत्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी नहीं मिलती।
2.2 द्वितीय चरण (753-972 ई.)
यह पश्चिमी दक्कन के राष्ट्रकूटों, जो अक्सर इस चरण के दौरान पूर्वी चालुक्यों के आंतरिक मामलों में दखल दिया करते थे, द्वारा बादामी के चालुक्य राजाओं कों अपदस्थ करने के साथ शुरू हुआ।
- विजयादित्य-I: उसके शासनकाल के दौरान राष्ट्रकूटों द्वारा वेंगी राज्य पर प्रथम हमला हुआ और उसे उनके साथ शांति की संधि करनी पड़ी।
- विष्णुवर्धन-II: राष्ट्रकूटों ने फिर से वेंगी राज्य पर आक्रमण किया और विष्णुवर्धन को राष्ट्रकूट राजा, ध्रुव के साथ अपनी बेटी (सिंहला देवी) के विवाह की पेशकश के द्वारा उन लोगों के साथ शांति बनाना पड़ी।
- विजयादित्य-III: उसका उत्तराधिकार अपने भाई भीम सालकी से विवादित रहा, जिसे राष्ट्रकूटों का समर्थन हासिल था। लेकिन अंत में वह अपने भाई और राष्ट्रकूटों के विरोध पर काबू पाने में सफल हुआ और ‘‘नरेंद्र मृगराज” की पदवी ग्रहण की।
- विजयादित्य-III:
- “गुणज” (गुण से भरा) के रूप में जाना जाने वाला उसका काल पूर्वी चालुक्यों के लिए समृद्धि और महिमा का काल था।
- उसके सेनापति पांडुरंग ने कलिंग के पूर्वी गंग को हराया, और पल्लवों से भी नेल्लोर जिले के 12 कोट्टम पर कब्जा कर लिया।
- उसे अपने शिलालेखों में तेलुगू कविता को शुरू करने का श्रेय जाता है।
- भीम-I: वह अपने चाचा, विजयादित्य के पश्चात राजा बना, लेकिन उसे अपने चचेरे भाइयों के विरोध और राष्ट्रकूटों के सामान्य हस्तक्षेप पर काबू पाना पड़ा।
- उसके उत्तराधिकारीः भीम प्रथम का उत्तराधिकारी था विजयादित्य चतुर्थ (सिर्फ 6 महीने के लिए शासन करने के बाद वह कलिंग के पूर्वी गंगों द्वारा मारा गया), भीम द्वितीय, (12 वर्षों तक शासन किया), अम्मरजा और दानार्णव। इन सभी का शासकों का काल राजनीतिक अस्थिरता का काल था क्योंकि राष्ट्रकूटों का हस्तक्षेप बना रहता था।
2.3 तीसरा चरण (972-999 ई.)
यह तेलुगू चोड राजा, जटा चोड भीम द्वारा 972 ई. में दानार्णव की हार और हत्या के साथ शुरू हुआ, व जटा चोड़ ने वेंगी राज्य पर कब्जा कर लिया, और 999 ईस्वी में समाप्त हो गया जब वेंगी राज्य वापस पूर्वी चालुक्यों को बहाल किया गया। 27 साल के इस अंतराल के दौरान, दानार्णव के दो बेटे, शक्तिवर्मन और विमलादित्य, तंजौर के महान चोल राजा राजराजा-प् के दरबार में शरणार्थी थे। यह कल्याणी के चालुक्य राजाओं (पश्चिमी चालुक्य राजाओं) द्वारा राष्ट्रकूटों के अपदस्थ होने का दौर भी था।
2.4 चौथा चरण (999-1070 ई.)
यह वेंगी के चालुक्य राजाओं और तंजौर के चोल राजाओं के बीच करीबी गठबंधन का दौर था। इस अवधि के दौरान, कल्याणी के चालुक्य राजाओं ने वेंगी के मामलों में अक्सर हस्तक्षेप करने की कोशिश की, लेकिन ज्यादातर वे चोल - पूर्वी चालुक्य गठबंधन के कारण नाकाम रहे थे।
- शक्तिवर्मनः उसने राजराजा चोल की मदद से जटा चोड भीम की हत्या द्वारा वेंगी राज्य का सिंहासन पुनः प्राप्त किया। जब पश्चिमी चालुक्यों ने वेंगी राज्य पर आक्रमण किया, तो चोल सम्राट फिर से शक्तिवर्मन के बचाव के लिए आया और पश्चिमी चालुक्यों को वापस खदेड़ दिया।
- विमलादित्यः वह अपने भाई के बाद उत्तराधिकारी बना और लगभग 8 वर्षों तक शासन किया। चोल दरबार में निर्वासन अवधि के दौरान उसने राजराजा चोल की बेटी कुंदवई से शादी की थी।
- राजराजा नरेंद्र (1020-1060 ई.): विमलादित्य और कुंदवई का पुत्र, उसे सिंहासन के लिए अपने सौतेले भाई, विजयादित्य (विमलादित्य और उसकी दूसरी पत्नी, एक तेलुगू चोड़ राजकुमारी के बेटे) के विरुद्ध युद्ध करना पड़ा। वह अपने मामा राजेंद्र चोल, जिसने अपनी बेटी अम्मंगा देवी का विवाह नरेंद्र से किया था, की मदद से विजयादित्य को खदेडने में सफल रहा। उसने वेंगी से अपनी राजधानी को राजमहेंद्री स्थानांतरित कर दिया। उसके दरबार में नन्नय सुशोभित थे, जिन्होंने तेलुगू में महाभारत रची थी।
- राजेंद्र (1061-1118 ई.): राजराजा नरेंद्र के बेटे, अपने पैतृक चाचा विजयादित्य सप्तम के विरुद्ध एक लम्बी लड़ाई के बाद गद्दी पर बैठे। उसकी माता अम्मंगा देवी वीर राजेंद्र (चोल राजा) की बहन थीं। अधिराजेंद्र (वीर राजेंद्र चोल राजा का बेटा और उत्तराधिकारी) एक विद्रोह में मारा गया और उनका कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं था इसलिए, राजेंद्र ने चोल और पूर्वी चालुक्य राज्यों को मिलाया और कुलोत्तुंग- प्रथम खिताब के साथ गंगाईकोंडा चोलपुरम को राजधानी बनाकर 1118 ई.तक शासन किया।
3.0 वेंगी चालुक्य-राष्ट्रकूट संघर्ष
पूर्वी और पश्चिमी चालुक्य राजवंश, जब तक वे एक ही शासक की संपाश्विक (आनुषंगिक) शाखाओं के रूप में थे, एक दूसरे के लिए बहुत परेशानी नहीं बने थे। लेकिन, जब वातापि राष्ट्रकूटों द्वारा ले लिया गया, तो पश्चिमी दक्कन और पूर्वी चालुक्य शासकों के बीच दुश्मनी, सुस्पष्ट हो गई।
तथापि, इस दुश्मनी का मतलब था बहुत से युद्ध जिनमें अधिकतर पूर्वी चालुक्य शासकों का प्रदर्शन बुरा रहा। अपवाद वाले उदाहरण बहुत कम ही थे। विष्णुवर्धन चतुर्थ (पूर्वी चालुक्य) (ई. 772-ई. 808) राष्ट्रकूट के कृष्णा प्रथम का अधीनस्थ बन गया। उसने अपने सक्षम छोटे भाई ध्रुव के विरुद्ध गोविंदा द्वितीय (एक अव्यवस्थित राजकुमार) का समर्थन करने की गलती की और ध्रुव की सफलता पर अपनी नीति को उलटने के लिए बाध्य होना पड़ा।
चूँकि विष्णुवर्धन चतुर्थ ने लंबे समय के लिए शासन किया, उसे अनेक राष्ट्रकूट शासकों के अधीनस्थ होने के लिए पर्याप्त समय था। लेकिन उनके बेटे और उत्तराधिकारी विजयादित्य द्वितीय (ई. 799-ई. 843) ने राष्ट्रकूट आक्रमण के विरुद्ध विरोध किया, किन्तु यह बुद्धिमानी के बिना ही वीरता का प्रदर्शन था क्योंकि उसे गोविंदा तृतीय द्वारा निष्कासित कर दिया गया था। उसे अमोघवर्ष प्रथम के परिग्रहण तक अपमान को स्वीकार करना पड़ा, जिसकी सैन्य अक्षमता विजयादित्य द्वितीय के लिए भी राष्ट्रकूटों के विरुद्ध एक सैन्य सफलता के लिए अवसर प्रदान करने के लिए पर्याप्त थी।
सफलता से गदगद, उसने महाराजाधिराज और पर्त्नेश्वर जैसे खिताब ग्रहण किये। एक मंदिर निर्माता के रूप में उनकी ख्याति के, हालांकि, वे हकदार थे। उनके उत्तराधिकारियों में गुणज विजयादित्य तृतीय (ई. 849-ई. 892) राष्ट्रकूट से पराजित होने के मामले में अपने पूर्वजों के अनुसार ही थे।
लेकिन उनके शिलालेख, तथापि, पांड्य जैसे सुदूर राजकुमारों पर भी जीत की एक श्रृंखला का दावा करते हैं। यह चालुक्य भीम प्रथम (ई. 892-ई. 921) थे, जिन्होंने दृढ़ता से राष्ट्रकूटों से अपने परिवार के लिए स्वतंत्रता को काफी हद तक सुरक्षित किया। एक सक्षम सेनापति, पांडुरंग द्वारा, विजयादित्य तृतीय और भीमाप्रथम दोनों की, निपुणतापूर्वक सेवा की गई।
भीम प्रथम की मृत्यु के बाद उनके पुत्र विजयादित्य चतुर्थ ने छह महीने तक शासन किया और उनके बाद विजयादित्य चतुर्थ के पुत्र अम्मा प्रथमउत्तराधिकारी बने, जिनकी मृत्यु के बाद गृहयुद्ध और राष्ट्रकूटों के हस्तक्षेप का दौर चला। अम्मा प्रथम के भाई भीमा द्वितीय ने राष्ट्रकूट की चालों को कुंठित किया और वेंगी के सिंहासन पर विराजमान हुए।
अम्मा द्वितीय के शासनकाल की अवधि में राष्ट्रकूटों द्वारा फिर से प्रभावी हस्तक्षेप हुआ, और उन्होंने उसे वेंगी से कलिंग भगा दिया, और पूर्वी चालुक्य साम्राज्य पर बतापा को नियुक्त किया। यह 950 ई. के आसपास हुआ।
4.0 कल्याणी के चालुक्य
मान्यखेत के (आधुनिक कर्नाटक में गुलबर्गा जिला का मालखेड़) राष्ट्रकूट वंश के अंतिम शासक कर्क द्वितीय को तैलप या तैल द्वितीय द्वारा ई. 974 में परास्त किया गया था, जिन्होंने चालुक्य का एक नया वंश शुरू किया, जो कल्याणी के चालुक्य रूप में जाना जाता है। इस राजवंश ने कुछ महानतम शासक दिए हालांकि, कल्याणी के चालुक्यों के शासकों की वंशावली अब भी बहस के दायरे में है।
कल्याणी में अपनी राजधानी (कर्नाटक) के साथ तैलप द्वारा स्थापित राज्य को ‘‘बाद के चालुक्य‘‘ या ‘‘कल्याणी के चालुक्य‘‘ (पहले चालुक्य बादामी के चालुक्य थे) के रूप में जाना जाता है। कई चालुक्य राजवंश थे। इनमें से चार सबसे महत्वपूर्ण थेः बादामी या वातापि के चालुक्य (प्रारंभिक पश्चिमी चालुक्य के रूप में भी जाने जाते हैं), वेंगी के चालुक्य (पूर्वी चालुक्य के रूप में भी जाने जाते हैं), कल्याणी के चालुक्य (पश्चिमी चालुक्य के रूप में भी जाने जाते हैं), और गुजरात के चालुक्य।
तैलप का शासनकाल 974 से 997 ई. तक तेईस वर्षों तक चला। उसका शासन व्यापक विजय अभियान द्वारा सुस्पष्ट होता है। उसका गंग से लगातार संघर्ष होता रहा। गंग राजवंश के पांचाल देव को पराजित करने के बाद उन्होंने उत्तर मैसूर पर कब्जा कर लिया। उसने मालवा के परमार राजवंश से एक लंबे समय तक लड़ाई लड़ी और अंत में परमार राजा मुंज को बहुत बुरी तरह पराजित करने के बाद उसे बंदी बना लिया और बाद में उसका कैद में निधन हो गया। उनके शासनकाल में भी तंजावुर के चोल राजाओं के विरुद्ध युद्ध के एक लंबे चरण की शुरुआत देखी गई। उसने उत्तम चोल पर हमला किया। उनके उत्तराधिकारियों के शासन के दौरान चालुक्य-चोल संघर्ष एक नियमित विशेषता बन गया।
तैलप के पश्चात, उनके पुत्र और उत्तराधिकारी सत्यश्रय, जिन्हें सोलिना या सोलेगा के नाम से भी जाना जाता है, ने भी अपने पिता की आक्रामक नीतियाँ जारी रखी। सत्यश्रय को पराक्रमी राजेंद्र चोल के नेतृत्व में दो चोला हमलों का सामना करना पड़ा। चोल शस्त्रागार ने पूरे चालुक्य क्षेत्र को लूट लिया, कदंब की सत्ता की गद्दी बनवासी और रायचूर दोआब के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया, और चालुक्यों की राजधानी मान्यखेत को तबाह कर दिया। एक और चोल सेना वेंगी की ओर बढी़ और सत्यश्रय को वेंगी से अपनी सेना को वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया।
1008 में सत्यश्रय की मृत्यु के बाद उनका भतीजा विक्रमादित्य पंचम सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। उसके शासनकाल के दौरान कुछ भी उल्लेखनीय नहीं हुआ था। उसके उत्तराधिकारी के रूप में, उसके भाई जयसिम्हा द्वितीय, ने 1015 ई. में गद्दी संभाली। जयसिम्हा द्वितीय (1015-1042) को कई मोर्चों पर विरोधियों का सामना करना पड़ा। उसे मालवा के परमार राजा भोज के क्रोध का सामना करना पड़ा, जो उससे मुंज की हार का बदला लेने के लिए इच्छुक था। भोज (1018-1055) द्वारा चालुक्य साम्राज्य पर हमला किया गया, जिसने लता (गुजरात) और कोंकण के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया। लेकिन यह राजेंद्र चोल था जो सबसे दुर्जेय दुश्मन साबित हुआ। चालुक्य बलों की लगातार कई हारों के बाद, तुंगभद्रा नदी दोनों साम्राज्यों के बीच उपलक्षित सीमा बन गई। जयसिम्हा द्वितीय की बहन अक्कादेवी, लड़ाइयों और घेराबंदी पर्यवेक्षण करने के लिए इतिहास में प्रसिद्ध है।
जयसिम्हा द्वितीय का उत्तराधिकारी सोमेश्वर प्रथम था (1042-1062 ई.)। उसके शासनकाल के अंतिम वर्षों के दौरान जब उसकी सत्ता में गिरावट शुरू हुई, तो उसने खुद को तुंगभद्रा नदी में डुबो दिया।
ये निरंतर युद्ध चालुक्य संसाधनों के लिए एक झटका साबित हुए और साम्राज्य को कमजोर बनाने के कारण बने। अंतिम उल्लेखनीय चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठम (1076-1126) था, जो शक युग की जगह चालुक्य-विक्रम युग शुरू करने के लिए प्रसिद्ध हुआ। 1085 में, उसकी सेनाओं ने कांची ओर आगे कूच किया और आंध्र में कुछ चोल प्रदेशों पर कब्जा कर लिया। उसने द्वारसमुद्र के होयशाल, वारंगल के काकतिया, देवगिरी के यादवों और गोवा के कदंब के विरुद्ध कई लड़ाइयां लड़ीं, जो चालुक्य राजाओं के जागीरदार थे। लेकिन उन्हें पराजित करने के बावजूद, वह अंत में उनकी शक्ति को दबा नहीं पाया और उसकी मृत्यु के तीन दशक के भीतर, ज्यादातर प्रमुख चालुक्य जागीरदारों ने अपनी स्वतंत्रता दृढ़तापूर्वक हासिल कर ली।
उनके बहादुर कारनामों के अलावा, विक्रमादित्य षष्ठम विद्वत्तापूर्ण व्यक्तियों के संरक्षण के लिए भी प्रसिद्ध था। विक्रमांक देवचरित के रचयिता बिल्हन, एवं स्मृति पर मीताक्षर टीका के रचियता विज्ञनेश्वर, दोनों ही उसके दरबार की शान थे। ऐसा माना जाता है, कि विक्रमादित्य षष्ठम ने स्वयंवर या ‘‘स्व-विकल्प’’ द्वारा दुल्हनें प्राप्त की थीं।
विक्रमादित्य शष्ठम की मौत के बाद, चालुक्य राजाओं को निरंतर उनके जागीरदारों के विद्रोह का सामना करना पड़ा, जिन्होंने अंततः अपनी स्वतंत्रता हासिल कर ली। बारहवीं सदी के मध्य तक, कल्याणी का चालुक्य साम्राज्य स्वयं की छाया मात्र रह गया, और राज्य वारंगल के काकतिया, द्वारसमुद्र के होयसाल (वर्तमान में कर्नाटक के हासन जिले में हलेबिडु) और देवगिरी के यादवों में विभाजित हो गया।
5.0 प्रशासन
राजतंत्रीय सरकार होने के कारण, सभी शक्तियां राजा में निहित हुआ करती थीं। यह वंशानुगत भी थीं और उत्तराधिकार सामान्यतः ज्येष्ठ पुत्र को प्राप्त होता था। युवराज सामान्यतः मध्य क्षेत्र के प्रशासन के प्रभारी हुआ करते थे। राजा को सलाह देने के लिए कई उच्च पदस्थ मंत्री हुआ करते थे। अधिकांश अधिकारी प्रशासन के कुछ विभागों का प्रभार संभालते थे। संधि-विग्रहिक शांति और युद्ध के विभाग के प्रभारी अधिकारी होते थे। अन्तःपुराधवक्ष शाही महल के प्रबंधन के प्रभारी थे। समकालीन अभिलेखों में एक अन्य अधिकारी पदनाम-प्रशासन अधीक्षक-दिखाई देता है जिसे तंत्राध्यक्ष कहा गया था। भंडारी शाही राजकोष के प्रभारी कोषाध्यक्ष होते थे। अधिकांश अधिकारी दंड़नायक के रूप में वर्णित हैं, क्योंकि वे सैन्य सेवा का निर्वहन करने के लिए भी प्रतिबद्ध थे। साहनी घुड़सवार सेना के प्रभारी थे। अनयसाहनी हाथियों के प्रभारी थे। अधिकांश अधिकारियों को वस्तु रूप में भुगतान किया जाता था। उन्हें कार्यकाल आधार पर भूमि अनुदान दिया जाता था।
साम्राज्य कई प्रांतों में बंटा होता था जिसका प्रशासन प्रांतीय गवर्नर करते थे। वे मंडलेश्वर या महामंडलेश्वर के रूप में जाने जाते थे। सबसे सामान्य क्षेत्रीय विभाजन नाडु, विषय अथवा काम्पन तथा थाना थे। नाडू एक बड़ी प्रशासनिक इकाई थी। कांपन या विषय, नाडू का एक हिस्सा होता था। थाना एक क्षेत्रीय विभाजन था जिसका उपयोग सैनिक छावनी के रूप में किया जाता था। गांव के अधिकारी गावुंड ग्रामीणों की भलाई के लिए उत्तरदायी होते थे।
उनकी सहायता के लिए सेनाबोव (कर्णिक) या लेखापाल होते थे। गांवों के अलावा, बड़े शहर और कस्बे होते थे, जिन्हे नगर कहा जाता था। नगरों का प्रशासन व्यापारिक संघ करते थे। ऐसे स्थानों के मुख्य अधिकारी नगराध्यक्ष होते थे। बड़े शहर में तीन आम सभाएं होती थीं जिन्हे महाजन कहा जाता था, इनमें से एक समग्र रूप से शहर की सामान्य समस्याओं के लिए, दूसरी ब्राह्मण निवासियों से संबंधित समस्याओं के निपटान के लिए, जबकि तीसरी, व्यापारिक समुदाय को प्रभावित करने वाले मामलों को नियंत्रित और विनियमित करने के लिए थी।
राजस्व का प्रमुख स्त्रोत भू - राजस्व था। भुगतान किये जाने वाले भूमि कर, सिद्धय, दासवंदा, निरुनी-शुंक और मेलीवन थे। सिद्धय एक स्थायी कर होता था जो जमीन के अलावा मकानों तथा दुकानों पर भी लगाया जाता था। दासवंद, भूमि या राजस्व से उपज का दसवां भाग, कर के रूप में प्राधिकारी को देय था। निरुनी-शुंक, किसान द्वारा भुगतान किया जाने वाला जल उपकर था। मेलीवन को हल पर लगाये जाने वाले कर के रूप में कहा जा सकता है। आय के स्त्रोतों में वाणिज्यिक कर, व्यावसायिक कर, सामाजिक और सामुदायिक कर, और न्यायिक जुर्माने की तरह के करों के अन्य प्रकार शामिल थे। पेरुज्जुमका, वोलावारू (आयात), होरावारु (निर्यात) और अन्य, व्यापार और माल पर लगाए सीमा शुल्क थे। अंगादीदेरे (दुकानों पर लगाया गया कर), गानीदेरे (तेल मिलों पर लगने वाला कर), नावीदादेरे (नाइयों पर लगने वाला कर), जैसे व्यावसायिक कर थे। मनोवाना (गृह कर) और होशतीलु स्थानीय निकायों द्वारा लगाए जाने वाले संपत्ति कर थे। न्यायिक दण्डों को दंड्या कहते थे। विवाह पर लगाया गया कर (मधुवेया-शुंका), चालुक्य प्रशासन की एक अति विशेष बात थी।
6.0 शिक्षा और साहित्य
शिक्षा प्रदान करने, छात्रों और शिक्षकों को बनाए रखने और कला को बढ़ावा देने में, मंदिर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। मंदिर को, राजा से लेकर आम आदमी तक, सभी लोगों से उदार उपहार प्राप्त होते थे। कर्नाटक में शिक्षा के मुख्य केंद्र ब्रह्मपुरी, अग्रहार, घटिकास्थान और मठ थे। ब्रह्मपुरी ब्राह्मणों की एक अलग बस्ती थी, जहां वे छात्रों को शिक्षा प्रदान करते थे।
शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियों के संचालन के लिए राजा या प्रमुखों द्वारा ब्राह्मणों को दान में दिए गए पूरे गांव, अग्रहार कहलाते थे। धटिकास्थान, तुलनात्मक रूप से, कम थे।
चालुक्य काल में संस्कृत और कन्नड़, दोनों साहित्यों में एक अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई। इस काल के संस्कृत लेखकों में सबसे महत्वपूर्ण नाम बिल्हन का है जो विक्रमादित्य षष्ठम के दरबार में कवि थे। बिल्हण का विक्रमांक देवचरित एक महाकाव्य है। बिल्हन ने कई अन्य रचनाएँ रचीं। प्रसिद्ध न्यायविद विज्ञनेश्वर ने, जो विक्रमादित्य के दरबार में रहते थे, यज्ञनाल्वक स्मृति पर टीका, प्रसिद्ध मीताक्षर लिखी। सोमेश्वर तृतीय, विश्वकोषीय कार्य मनसोलियष या अभिलाषीतार्थचिन्तामणि के लेखक थे।
पश्चिमी चालुक्य राजाओं के काल में कन्नड़ साहित्य भी काफी प्रगति कर रहा था। तीन महान विद्वानों-पंपा, पोन्ना और रान्ना- ने 10 वीं सदी में कन्नड़ साहित्य के विकास में योगदान दिया। तीन में से रान्ना, सत्यश्रय के दरबारी कवि थे, जबकि शेष दो, पूर्व के दशकों के थे। नागवर्मा प्रथम, एक अन्य, ख्याति प्राप्त कवि थे। वह, कन्नड़ में इस विषय पर प्राचीनतम कार्य छन्दोम्बुधि के लेखक थे। इसे ‘छंदविद्या का सागर‘ कह सकते हैं। उन्होंने कर्नाटक कादंबरी की रचना भी की, जो संस्कृत में बाणभट्ट के प्रसिद्ध श्रृंगार पर आधारित है। अगले उल्लेखनीय लेखक है दुर्गसिंह, जिन्होंने पंचतंत्र लिखा है। वे जयसिम्हा द्वितीय के दरबार में मंत्री थे। वीरशिव धर्मानुयायी, विशेष रूप से बासव ने, कन्नड़ भाषा और साहित्य, विशेष रूप से गद्य साहित्य के विकास में योगदान दिया। उन्होंने उच्च दार्शनिक विचारों को आम आदमी के लिए सरल भाषा में व्यक्त करने के लिए, वचन साहित्य अस्तित्व में लाया।
7.0 चोल-चालुक्य गठबंधन
शक्तिवर्मन प्रथम के सिंहासन परिग्रहण के साथ, वेंगी एक स्वतंत्र राज्य नहीं रह गया और चोल साम्राज्य का एक परिशिष्ट बन गया। शक्तिवर्मन प्रथम के शासन के दौरान पश्चिमी चालुक्य सत्यश्रय द्वारा वेंगी पर आक्रमण किया गया। परन्तु राजेंद्र चोल प्रथम द्वारा कर्नाटक पर आक्रमण के कारण उसे वेंगी से अपनी सेना वापस लेने के लिए मजबूर होना पडा। शक्तिवर्मन के पश्चात उनके छोटे भाई विमलादित्य द्वारा सत्ता संभाली गई। विमलादित्य के शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना महान चोल सम्राट राजराजा प्रथम की बेटी कुंदवई के साथ उनके विवाह से संबंधित थी। उन्हें राजराजा नाम का एक बेटा था। इस प्रकार अंततः चोल-चालुक्य वैवाहिक गठबंधन की प्रक्रिया शुरू हुई, जो कुलोत्तुंगा के अंतर्गत दोनों राजवंशों के विलय में परिणित हुई। विमलादित्य की एक अन्य रानी, मेलामा थी, जिससे उनका एक बेटा विजयादित्य सप्तम था। विजयादित्य ने कल्याणी के जयसिम्हा द्वितीय की मदद से राजराजा को अधिक्रमित करके सत्ता हथिया ली। परन्तु राजेंद्र चोल अपने भतीजे राजराजा के बचाव के लिए आया, और वेंगी के शासक के रूप में अपने भतीजे को विराजमान किया।
राजराजा नरेंद्र का लंबा शासनकाल उसके सौतेले भाई विजयादित्य के सिंहासन हासिल करने के निरन्तर प्रयासों के कारण, निरंतर राजनीतिक अशांति का काल बना रहा। राजराजा नरेंद्र की मृत्यु के बाद विजयादित्य सप्तम द्वारा सत्ता हथिया ली गई। वह वीरराजेंद्र द्वारा राजगद्दी पर कब्जा करने तक वेंगी के शासक के रूप में बना रहा। परन्तु 1070 में वीरराजेंद्र की मृत्यु के बाद चोल देश एक गृहयुद्ध में घिर गया, जो विजयादित्य के भतीजे राजेंद्र चोल द्वितीय उर्फ कुलोत्तुंगा प्रथम के परिग्रहण के साथ समाप्त हुआ। चोल देश में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद कुलोत्तुंगा प्रथम वेंगी पर कब्जा करने में सफल रहा। जिसके बाद विजयादित्य ने कलिंग के राजराजा देवेन्द्र वर्मा के यहां शरण ली। 1075 में उनकी मृत्यु के साथ पूर्वी चालुक्य वंश का अंत हो गया।
8.0 वेसर की स्थापत्य शैली
वेसर, मध्यकालीन युग के दौरान कर्नाटक में कई सदियों तक प्रचलित, एक विशेष स्थापत्य शैली का नाम है। यह अनिवार्य रूप से “नगर” और ”द्रविड़” शैली का एक मिश्रण है जो, क्रमशः उत्तरी और सुदूर दक्षिण भारत की विशेषता है। शैलियों के इस एकीकरण के लिए कर्नाटक की भौगोलिक स्थिति, वहाँ के महत्वपूर्ण शाही राजवंशों के सर्वसमावेशक दृष्टिकोण, एवं व्यापक प्रसार की गतिविधियों ने प्रेरित किया हो सकता है।
यह घटनाक्रम बादामी चालुक्य राजाओं से लेकर विजयनगर साम्राज्य के दिनों तक के वास्तु प्रयासों में देखा जा सकता है। इस शब्द के दो या तीन व्युव्पत्ति स्पष्टीकरण दिये गये हैं। सबसे पहला, यह संस्कृत शब्द ‘‘मिश्र’’ का एक अपभ्रंश स्वरूप माना जाता है जिसका अर्थ है ‘‘मिश्रित’’, अर्थात्, दो शैलियों का मिश्रण। दूसरा, संस्कृत में वेसर का अर्थ होता है खच्चर, यह भी दो पशुओं का एक संकर होता है। दिलचस्प है कि खच्चर के लिए कन्नड़ शब्द है “हेसरघट्टा” जो वेसर शब्द के साथ आसानी से जोड़ा जा सकता है। तीसरा, विश्र का मतलब है एक क्षेत्र जिसमें दूर तक भ्रमण किया जा सकता है। गुफा मंदिरों में रहने के लिए शहरी क्षेत्रों को छोड़ने वाले बौद्ध और जैन भिक्षुओं के कमरों को विहार कहा जाता था।
वेसर शैली मंदिरों पर बौद्ध मेहराबदार चौपाल का प्रभाव था, और बाद के चालुक्य राजाओं के काल के दौरान ये विकसित किए गए।
यह, उत्तर भारत में प्रचलित नगर शैली और दक्षिण भारत में प्रचलित द्रविड़ शैली के रूबरू दक्कन और दक्षिण-एशिया के मध्य-भाग में वास्तुकला की वेसर शैली की व्यापकता के अनुरूप भी है। कुछ ग्रंथों में वेसर शैली ‘मध्य भारत मंदिर स्थापत्य शैली‘ या ‘दक्कन वास्तुकला‘ के रूप में भी वर्णित है। हालांकि कई इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि वेसर शैली की उत्पत्ति आज जिसे कर्नाटक कहते हैं, वहाँ हुई। यह प्रवृत्ति बादामी के चालुक्य राजाओं (500-753 ई.) द्वारा शुरू की गई जिन्होंने अनिवार्य रूप से नगर शैली और द्रविड़ शैली के मिश्रण द्वारा मंदिरों का निर्माण किया। आगे, मान्यखेत के राष्ट्रकूटों द्वारा परिष्कृत (750-983 ई.) एलोरा में, कल्याणी के चालुक्य राजाओं ने (983-1195 ई.) लक्कुंडी, डम्बल, गदग आदि में, और होयशाल साम्राज्य (1000-1330 ई.) द्वारा भी इसे प्रतीक स्वरुप माना गया।
विद्वानों के अनुसार, वेसर शैली, स्तरों की संख्या को यथावत रखते हुए मंदिर के टॉवरों की ऊंचाई कम कर देती है। यह व्यक्तिगत स्तरों की ऊंचाई को कम करके प्राप्त किया जाता है। बौद्ध चैत्य की अर्ध-वृत्ताकार संरचना भी उधार ली गई है, जैसे ऐहोल के दुर्गा मंदिर में।
मध्य भारत और दक्कन में कई मंदिरों में क्षेत्रीय संशोधनों के साथ वेसर शैली का इस्तेमाल किया है। विशेष रूप से, पापनाथ मंदिर (680 ई.) और पट्टदकल में स्थित कुछ अन्य मंदिरों में एक हद तक, इस शैलीगत समानता को प्रदर्शित किया गया है। आंध्र प्रदेश राज्य में आलमपुर के स्वर्ग ब्रह्मा मंदिर में भी समान लक्षण हैं।
“इन होयसल मंदिरों की सतहें लघु मंदिर मॉडलों के विस्तृत दोहरे पैटर्न के साथ उच्च चट्टान में खुदी हुई हैं जो उन्हें भारत के अन्य भागों के समकालीन मंदिरों से भी अलग बनाती हैं, जहां सजावटी बाहरी क्षेत्र पर मानव और पशुओं की मूर्तियों का व्यापक उपयोग किया है”।
वेसर शैली के मंदिर भारत के अन्य भागों में भी पाए जाते हैं। इनमे सिरपुर, बैजनाथ, बारोली और अमरकंटक के मंदिर शामिल हैं। खजुराहो का मंदिर परिसर वेसरा शैली का एक विशिष्ट उदाहरण है। पश्चिम में (उत्तरी कर्नाटक) ऐहोल और पट्टदकल मंदिरों के समूह (5 वीं से 7 वीं शताब्दी) एक स्वीकार्य क्षेत्रीय शैली विकसित करने के लिए प्रारंभिक प्रयास दिखाते हैं। ऐहोल के प्रारंभिक संरचनात्मक मंदिरों में बेहतर माने जाने वाले हैं, हचिमलीगुडी और दुर्गा मंदिर और लडखान मंदिर भी। सभी की अवधि 450-650 ई. है। समान रूप से महत्वपूर्ण हैं ऐहोल के निकट पट्टदकल में काशीनाथ, पापनाथ, संगमेश्वर, विरूपाक्ष और अन्य मंदिर, और आलमपुर (आंध्र प्रदेश) में स्वर्ग ब्रह्मा मंदिर भी। बाद के चालुक्य राजाओं द्वारा निर्मित इन कुछ मंदिरों में हमें वेसर शैली, अर्थात उत्तरी और दक्षिणी शैलियों का संयोजन दिखाई देता है।
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