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भाषा, साहित्य और स्थापत्य शैली का विकास भाग - 2
7.0 प्राचीन भारतीय धर्मनिरपेक्ष साहित्य
7.1 काव्य साहित्य
यद्यपि दो महान इतिहास (रामायण और महाभारत) निःसंदेह संस्कृत काव्य साहित्य के अग्रदूत रहे हैं, इनका मूल वैदिक भजनों में ढूँढा जा सकता है। पतंजलि ने तीन आख्यायिकी का उल्लेख किया हैः वासवदत्ता, सुमानोत्तर और भाईमराठी। दो अन्य निर्मितियों का संदर्भ भी है, कंसवध और बलिबन्ध, जो शायद नाटकीय रचनाएं होंगी। दुर्भाग्य से, हमें दूसरी सदी ई.पू. और पहली सदी ई. के बीच की अवधि में काव्य की वृद्धि और विकास का कोई निश्चित ज्ञान नहीं है। मौजूदा काव्य में से कोई भी इस अवधि से सम्बंधित नहीं है। लेकिन गीत कविता का एक मजबूत समूह/शाला ईसाई युग की प्रारंभिक शताब्दियों और शायद उससे भी पहले अस्तित्व में था।
सबसे मशहूर भारतीय कवि कालिदास, (माना जाता है कि, उनकी प्रसिद्धि चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में अपने सर्वोच्च शिखर पर थी, किन्तु उनकी सर्वोत्तम रचनाएं सम्भवतः कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल के दौरान रची गई थीं) का नाम संस्कृत गीतों के क्षेत्र में उच्च श्रेणी पर खड़ा है। उनका मेघदूत इस शैली की बेहतरीन रचना है। घाटकरपर (जो चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार के नवररत्नों में से एक माना जाता है) द्वारा रचित घटकरपम-काव्य, एक अन्य प्रतिष्ठित गीत काव्य है। 7 वीं शताब्दी ई. के भर्तृहरि के नाम तीन शतक हैं - श्रृंगारशतक, नीतिशतक और वैराग्यशतक। अमरु द्वारा लिखित अमरुशतक भी एक बहुत ही लोकप्रिय गीत काव्य है, जिसके छंदों को अक्सर समकालीन और बाद के संस्कृत काव्यशास्त्र की रचनाओं में उद्धृत किया गया है।
संस्कृत साहित्य के पुनर्जागरण के सिद्धांत के अधिवक्ताओं ने बार-बार यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि ब्राह्मण संस्कृति उस समय अपने रसातल पर थी, जब भारत को लगातार विदेशी आक्रमणों का सामना करना पड़ रहा था, और इस संस्कृति के प्रारंभिक पुनरुद्धार का तथाकथित स्वर्ण युग, गुप्त वंश के शासन काल में पाया जा सकता है। तथापि, हाल के अनुसंधान ने पुनर्जागरण के सिद्धांत और स्वर्ण युग की अवधारणा, दोनों को अस्वीकार कर दिया ह। ईसाई युग की प्रारंभिक शताब्दियों के शिलालेख निश्चित रूप से स्पष्ट करते हैं कि संस्कृत काव्य का अध्ययन और विकास कभी बाधित नहीं था। उदाहरण के लिए, रुद्रदमन (150 ईस्वी) के गिरनार शिलालेख व्याकरण के नियमों के अनुरूप, पूर्ण काव्य शैली के गद्य में लिखे गए हैं।
7.2 दरबारी महाकाव्य
संस्कृत के सबसे उत्कृष्ट बौद्ध लेखक अश्वघोष, कनिष्क दरबार के भूषण थे। बुद्धचरित के अलावा, उन्होंने सौन्दरानन्द नामक एक और महाकाव्य लिखा था। अश्वघोष के बाद, कालिदास सबसे प्रतिष्ठित भारतीय कवि हैं। उनका कुमारसंभवम सत्रह काण्ड़ों का महाकाव्य है, जिनमें से केवल पहले आठ को असली माना जाता है। इसकी विषयवस्तु भगवान शिव और उमा का विवाह, और कार्तिकेय का जन्म है। कालिदास का एक और महाकाव्य इक्ष्वाकु के राजाओं के इतिहास पर आधारित रघुवंशम, उन्नीस काण्ड़ों का है।
भैरवी, जिनका नाम आम तौर पर कांची के पल्लव राजाओं के साथ जुड़ा हुआ है, और पुलकेशिन द्वितीय के प्रसिद्ध ऐहोल शिलालेख (ई. 634) में कालिदास के साथ उल्लेख किया गया है, उन्होंने किरातार्जुनीय महाकाव्य अठारह कांड़ों में लिखा था। महाभारत पर आधारित इस कविता में, अर्जुन ने पाशुपत हथियार शिव से किस प्रकार प्राप्त किया, इसका वर्णन है। भट्टी, जो छठी शताब्दी ई. (उत्तरार्ध) और सातवीं शताब्दी ई. (पूर्वार्ध) काल के थे, और जिन्हे वलभी के श्रीधर सेन का संरक्षण प्राप्त था, उन्होंने बाईस कांण्ड़ों के भट्टिकाव्य या रावणवध की रचना की, जिसका एकमात्र उद्देश्य, व्याकरण और वाकपटुता के नियमों और सिद्धांतों को स्पष्ट करना था। कविता में राम के जन्म से रावण की मृत्यु के समय तक के जीवन इतिहास को दर्शाया गया है। कुमारदास का जानकीहरण (छठी शताब्दी ई.) और माघ का शिशुपाल वध ( आठवीं सदी ई.), अन्य प्रमुख संस्कृत महाकाव्य थे।
7.3 नाटक
संस्कृत नाटक की जड़ें निर्विवाद रूप से, संस्कृत नाट्य शास्त्र पर प्राचीनतम ज्ञात पुस्तक, भरत के नाट्य शास्त्र में खोजी जा सकती हैं। परन्तु सबसे उत्कृष्ट प्रारंभिकसंस्कृत नाटककार, जिनके तेरह नाटकों की अब खोज की गई है, वे भास हैं। हालांकि, उनसे जुड़े नाटकों की प्रामाणिकता और ग्रन्थकारिता पर विद्वानों में व्यापक रूप से मतभेद हैं, फिर भी, कालिदास, बाना, राजशेखर और अन्य बाद के लेखकों ने, भास का उल्लेख अत्यंत सम्मान के साथ किया है। उनके नाटक, दो महान महाकाव्यों और विभिन्न लोकप्रिय कहानियों से लिए गए हैं। रामायण पर आधारित नाटकों में, प्रतिमा और अभिषेक हैं, जबकि मध्यमव्ययोग, दूतघटोतकच्छ और कर्णभारम महाभारत पर आधारित हैं। परन्तु, स्वप्नवासवदत्ता निस्संदेह भास के नाटकों में सर्वश्रेष्ठ है।
हालांकि, शूद्रक द्वारा रचित प्रसिद्ध दस-अंकी नाटक मृच्छकटिकम की तिथि अभी भी विवादित है, यह निश्चित रूप से भसा के चारुदत्त (तीसरी शताब्दी ई.) के बाद लिखा गया था। कालिदास ने भास, सौमिल और कवीपुत्र के नाम का उल्लेख अवश्य किया है, लेकिन वह शूद्रक के बारे में एक शब्द भी नहीं कहते हैं। तथापि, राजा शूद्रक का नाम, कल्हण के राजतरंगिणी, सोमदेव के कथासरितसिगम और स्कन्द पुराण में पाया जाता है। कालिदास के मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीयम्, और अभिज्ञानशाकुंतलम् ने उन्हें भारतीय नाटककारों में महानतम के रूप में मान्यता दिलाई है। विशेष रूप से, उनकी प्रतिभा की सबसे परिपक्व रचना, अभिज्ञानशाकुंतलम् को विश्व स्तर पर मान्यता मिली।
हर्ष को तीन नाटकों के लिए जाना जाता है, जिनमे रत्नावली एक उत्कृष्ट कृति है। उनकी अन्य रचनाएं प्रियदर्शिका और नागानन्द हैं। भवभूति का स्थान, कालिदास के तुरंत बाद माना जाता है। कल्हण ने उनका उल्लेख कान्यकुब्ज के राजा यशोवर्मन (ई. 736), के दरबार में एक कवि के रूप में किया है। महावीर चरिता, मालती माधव, और उत्तर रामचरित कृतियों का संबंध भवभूति से लगाया जाता है।
7.4 गद्य साहित्य
भारतीय गद्य लेखन के प्राचीनतम उदाहरण कृष्ण यजुर्वेद में पाए जाते हैं। महाभारत के गद्य अंश, वायु और भागवत पुराण, और चरक के चिकित्सा संकलन उल्लेखनीय हैं। सबरस्वामी और वात्सायन का लेखन संस्कृत गद्य के अच्छे उदाहरण हैं। विद्यमान गद्य साहित्य को दो वर्गों, प्रणय और दंतकथा में, विभाजित किया जा सकता है। गद्य-प्रणय के दो मुख्य प्रकार, आख्यायिका और कथा, हैं। दण्डी (7 वीं शताब्दी ई.) का दशकुमारचरित आख्यायिका प्रकार की रचना थी। सुबंधु (प्रारंभिक 7 वीं शताब्दी ई.) ने वासवदत्ता की रचना की थी। बाणभट्ट निस्संदेह, भारतीय गद्य लेखकों में महानतम थ। उन्होंने हर्षचरित (हर्ष की जीवनी) और कादंबरी (चंद्रपीड़ और कादंबरी की कई जन्मों की प्रेम कहानी) की रचना की थी।
लघु कथाओं की तीन अलग अलग श्रेणियां हैं - लोकप्रिय कथाएं, जानवर आधारित दंत कथाएं और परी कथाएं। लोकप्रिय कहानियों का सबसे अच्छा संग्रह था बृहत्कथा, एक महत्वपूर्ण प्राकृत कार्य, जो अब हमने खो दिया है। हालांकि सौभाग्य से, उस कहानी का खोया हुआ भाग बुद्ध स्वामी के श्लोक संग्रह (8वीं 9वीं शताब्दी ई.), क्षेमेन्द्र के बृहत् कथामंजरी (ई. 1037) और सोमदेव के कथासरित्सागर (ई. 1063-1068) जैसे प्रारंभिक मध्ययुगीन कार्यों में जीवित रहा। विष्णु शर्मा रचित पंचतंत्र, जानवर आधारित दंतकथाओं पर एक महत्वपूर्ण कार्य है।
8.0 मंदिर स्थापत्य कला (वास्तुकला)
भारतीय मंदिर स्थापत्य कला का मूल ईसा पूर्व युग तक जाता है, और श्रेष्ठ वास्तु योग्यता के एक स्मारक के रूप में इसके विकास का श्रेय चौथी से सत्रहवीं सदी के कई सत्तारूढ़ राजवंशों के जागरूक प्रयासों को दिया जा सकता है, जिन्होंने उपमहाद्वीप के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक एकीकरण की दृष्टि से इसे स्थायी महत्व की एक संस्था का स्थान दिया। भारतीय संस्कृति के प्रतीक के रूप में इसके विकास की प्रक्रिया में कई क्षेत्रीय विविधताएं हैं। इसलिए, इसका ऐतिहासिक अतीत एक दिलचस्प अध्ययन का विषय बनता है। पूजा के एक केंद्र के रूप में, मंदिर मुख्य रूप से एक निर्माण होने के साथ ही पौराणिक परंपरा का एक माध्यम भी है। हिन्दू मिथक, किंवदंतियां और मान्यताएं ग्रंथों में संकलित हैं जिन्हे सामूहिक रूप से ग्रंथ एवं पुराण कहा जाता है। हिंदू ईश्वर समूह, दो ब्राह्मण संप्रदायों, वैष्णव और शैव के ग्रंथों से उत्पन्न हुए हैं ,जो अन्य छोटी धार्मिक प्रणालियों के साथ पौराणिक परंपरा का हिस्सा हैं, जिन्हें अब हिंदू धर्म के रूप में जाना जाता है।
परन्तु, “हिंदू धर्म” शब्द, हाल ही का (प्रारंभिक मध्ययुगीन) नामकरण है, जो वैदिक बलि धर्म से विकास के लंबे इतिहास के साथ विजातीय परंपराओं और मान्यताओं और पूजा की बहुलता के एक संग्रह को दिया गया है। एक से अधिक अर्थों में, मंदिर अपनी वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला, रस्में और संस्थागत संगठन के माध्यम से कई पहलुओं और इस विकास की जटिल प्रक्रियाओं का प्रतिनिधित्व करता है।
8.1 भारतीय मंदिरों का उद्गम
यहां महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि किसने या किन कारणों ने भारतीय मंदिर के विकास में योगदान दिया? यह एक ही परंपरा है या यह विभिन्न परंपराओं का एक मिश्रण है? कुछ लोगों का मत है कि मंदिर का स्वरुप वैदिक वेदी, प्राचीनतम ज्ञात पवित्र संरचना (वेदी), से लिया गया है, जिसका आवश्यक आकार वर्गाकार था। हालांकि, दूसरों के द्वारा इसे कई अन्य उद्गम, उतनी ही वैधता के साथ आवंटित किए गए हैं। हालांकि, वैदिक वेदी से पौराणिक मंदिर तक, वर्गाकार आवश्यक आकार बना हुआ है, मंदिर का उद्गम किसी एक परंपरा में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देता। जब बलिदान (यज्ञ) के वैदिक धर्म का स्थान भक्ति (भक्ति) और विष्णु और शिव जैसे व्यक्तिगत देवताओं की पूजा के प्रभुत्व वाले पौराणिक संप्रदाय ने ले लिया, तो मंदिर मानव गतिविधि के प्रत्येक क्षेत्र का केंद्र बिन्दु बन गया। वैदिक वेदी के विपरीत, मंदिर निर्माण के द्वारा अपने उद्देश्य को पूरा नहीं करता है, बल्कि इसकी उद्देश्य पूर्ती, देखे जाने में है (दर्शन में)। कला इसके महत्व को बल देती है और यह एक पवित्र स्थल (तीर्थ) हो जाता है। मंदिर जाने का उद्देश्य था, और अभी भी है, मंदिर का दर्शन और देवत्व की पूजा। प्रसाद और उपहार (दान) ने बलि की पुरानी परंपरा की जगह ले ली है। वर्गाकार वैदिक वेदी के अलावा, अन्य गैर-वैदिक, गैर-आध्यात्मिक और अधिक ऐतिहासिक शुरुआत मंदिर को प्रदान की गई है। उदाहरण के लिए, वर्तमान सपाट छत वाले मंदिर आमतौर पर आदिवासी मूलरूप की एक शाखा के रूप में देखे जाते हैं, वे पत्थर के पुराकालीन स्मारक विशेष या एक कब्र (अंतिम संस्कार) संरचना हैं जो पहले ईसाई युग शुरुआत से पहले और तुरंत बाद की शताब्दियों में मेगालिथिक काल में दिखाई देते हैं।
पत्थर के पुराकालीन स्मारक (कवसउमद) पत्थर की एक बड़ी पटिया को तीन सीधे खड़े खम्भों पर टिका कर बनाया गया, प्रवेश द्वार के रूप में एक तरफ खुला छोड़ा हुआ, एक छोटा कक्ष था। यह संभवतः मध्य भारतीय गोंड मंदिरों और सपाट छत वाले मध्य और दक्षिण भारतीय मंदिरों का अग्रदूत रहा हो सकता था, जैसे गांव और किनारे के मंदिरों की कालातीत किस्में जो अपनी सपाट छत द्वारा ढंकी घनांतिक दीवारों से बने हों, जैसे आज भी देखे जा सकते हैं। मंदिर की एक और महत्वपूर्ण व्युत्पत्ति जंगल के तम्बू से थी (केवल बांस या ताड़ के बड़े पत्ते की शाखाओं से बना) जो एक दैवी उपस्थिति के लिए जाना जाता था। तम्बू, जो वेदी रूप में देखा जाता था, पवित्र स्थान को चार घुमावदार शाखाओं के उच्च आकार से परिबद्ध करता था, उनके सिरे धीरे - धीरे छोटे होकर तीन आयामी रूप में एक दिशा में या एक चढ़ाई में एक बिंदु पर इकट्ठा किये जाते थे। यह अब भी गांव की झोपड़ियों में एक परिचित रूप है। इस प्रकार ने उत्तर भारतीय मंदिर के वक्रीय शिखर (अधिरचना) का मार्ग प्रशस्त किया, जो हृसमान इकाइयों में शिखर की ओर चढ़ती है, जो एक कलश, फूलदान या घड़े द्वारा चिह्नित होता है।
8.2 प्रारंभिक मंदिर शैलियां
देवताओं के चित्र के लिए पूजाघर बनाने की प्रथा शायद दूसरी शताब्दी ई.पू. की हो सकती है। ईसा पूर्व शताब्दियों के अनेक देव-गृह (देवताओं के घर) भग्नावस्था में पाए गए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि नाशवान सामग्री में निर्मित ये पूजाघर एक कला के रूप में वास्तुकला के सिद्धांतों के अनुप्रयोग बहुत कम गुंजाइश प्रदान करते हैं। गुप्त काल में स्थायी सामग्री से निर्माण की प्रथा की शुरुआत देखी गई, विशेषतः तैयार पत्थर और ईंट में। लकड़ी या बांस के निर्माण और गुफा खुदाई की जन्मजात सीमाओं से मुक्त, भारतीय बिल्डरों ने बहुत चतुराई और कुशलता से अपनी सामग्री, खासकर पत्थर को संभाला।
गुप्त काल संरचनात्मक मंदिर वास्तुकला की शुरुआत का काल कहा जा सकता है। सबूत के रूप में विद्यमान स्मारकों से देखा जाता है कि बड़ी संख्या में शैलियों और डिजाइन का प्रयोग किया गया था, जिनमें से दो महत्वपूर्ण मंदिर शैलियां, एक उत्तर में और दूसरी दक्षिण में विकसित हुई। निम्नलिखित अच्छी तरह से परिभाषित प्रकारों की पहचान की जा सकती हैः
- सपाट-छत वाले, वर्गाकार मंदिर सामने एक उथले स्तंभों वाले पोर्च के साथ;
- सपाट-छत वाले, वर्गाकार मंदिर साथ में गर्भगृह के चारों ओर एक ढंका हुआ चलने योग्य स्थान और पहले स्तंभयुक्त पोर्च, कभी कभी ऊपर एक दूसरी मंजिल के साथ;
- वर्गाकार मंदिर जिसका शिखर नीचे एवं बैठा हुआ है;
- आयताकार मंदिर जिसका पिछला हिस्सा मेहराबदार था और ऊपर एक बैरल के आकार की गुंबददार-छत; और
- वृत्ताकार मंदिर जिसके चार प्रमुख हिस्सों पर उथले आयताकार प्रोजेक्शन हों।
पांचवीं और अंतिम शैली राजगीर, बिहार में मनियार मठ (मणि नाग का मंदिर) के रूप में जाना जाता है, जो एकाकी स्मारक का प्रतिनिधित्व करता है, और अब अत्यंतजीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। तेर (शोलापुर जिला) का एक मंदिर और कघेर्ला (कृष्णा जिला) का कपोतेश्वर मंदिर चौथी शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं, दोनों चौथी या पांचवीं शताब्दी ई. के हैं। ऐहोल का दुर्गा मंदिर अभिकल्प में कदाचित चौथी शैली से संबद्ध हो सकता है, तथापि गर्भगृह पर सपाट छत के साथ शिखर स्पष्ट रूप से पुरानी और स्थापित शैली को, नई जरूरतों के अनुकूल बनाने के एक प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। बहरहाल, न तो चौथी और न ही पांचवीं शैली का, बाद के घटनाक्रम पर कोई उल्लेखनीय प्रभाव पड़ा, एैसा लगता है।
पहले तीन प्रकारों को बाद की भारतीय मंदिर शैलियों के अग्रदूत के रूप में देखा जाता है।
पहली शैली, सांची के मंदिर क्रमांक सत्रह, तिगवा के कंकाली देवी मंदिर और एरन के विष्णु और वराह मंदिरों में दृष्टि गोचर होती है। ये सभी मंदिर मध्य प्रदेश में हैं। प्रत्येक में, एक वर्गाकार गर्भगृह तहखाने के साथ सामने एक खुला स्तंभों वाला द्वारमंडप (पोर्च) शामिल है। एक मंदिर का केंद्र बिन्दु अर्थात्, एक एकल प्रवेश द्वार और एक दालान (मंडप) के साथ एक घनांतिक तहखाना (गर्भगृह), मंदिरों के इस प्रकार में एकीकृत संरचना के रूप में पहली बार दिखाई देता है।
दूसरी शैली नाचन कुठार के पार्वती मंदिर में, भूमरा के शिव मंदिर में (दोनों मध्य प्रदेश में) और ऐहोल के लाड खान में दिखाई देती है। प्रत्येक में सपाट छत वाले वर्गाकार बड़े दालान के अंदर, इसी तरह के सपाट छत वाले वर्गाकार गर्भगृह तहखाने शामिल हैं। बड़े दालान में, सामने की ओर खुला सा थोड़ा छोटा आयताकार बरामदा और उसके पीछे आंतरिक गर्भगृह के चारों ओर एक आच्छादित चलने का स्थान (प्रदक्षिणा) दिखता है। नाचन कुठार के पार्वती मंदिर और ऐहोल के लाड खान, दोनों में, भीतरी कक्ष के ऊपर एक ऊपरी मंजिल (विमान) है।
तीसरी शैली की झलक, देवगढ़ के दशावतार मंदिर (झांसी जिला) और भीतरगावं के ईंट मंदिर (कानपुर जिला), में साफ दिखाई देती ह। प्रत्येक में एक उच्च बेसमेंट पर एक वर्गाकार गर्भगृह तहखाना बना है, जो एक बैठे शिखर द्वारा किया होता ह। डिजाइन की सादगी के मामले में यह पहली दो शैलियों के समान है, फिर भी, इसमें कुछ महत्वपूर्ण विकास निश्चित रूप से दिखाई देता है। गर्भगृह की अधिरचना के रूप में एक टावर और आधार रूप में ऊंचाई बढ़ाने के लिए एक उच्च मंच बना होता है। पत्थर से निर्मित दशावतार मंदिर में, सादी रिक्त दीवारों की बजाय उसके तीनों भागों पर दो भित्ति-स्तंभों के बीच एक मूर्ति बनी होती है। यह व्यवस्था, सामने वाले दरवाजे के फ्रेम के प्रक्षेपण के संतुलन के लिए तीन तरफ से आगे दीवारों को स्थापित करने के अलावा, बहुत महत्वपूर्ण सजावटी योजना का परिचय देती है। भीतरगावं मंदिर में, सलीब जमीन योजना का परिणाम पाने के लिए प्रत्येक पक्ष के बीच में एक नियमित प्रतिभार प्रक्षेपण द्वारा इस प्रभाव के महत्व को और आगे ले जाया गया है।
8.3 बाद की मंदिर शैलियों का उद्भव
वास्तु शास्त्र ग्रंथों में सूचीबद्ध और वर्णित प्रमुख मंदिर शैलियों में नगर, द्रविड़ और बेसरा (कर्नाटक द्रविड़) हैं, जिनमें से अग्रणी शैली के रूप में उत्तर भारत की नगर शैली को प्रमुख स्थान दिया गया है। महत्व की दृष्टि से अगली, दक्षिण भारत की द्रविड़ शैली है। बेसरा दक्कन की मिश्रित शैली है, और 10वीं - 11 वीं सदी में ग्रंथों की रचना के समय और जब मंदिर वास्तुकला अपने चरमोत्कर्ष पर थी, यह अपनी प्रायोगिक अवस्था में थी। दक्कन, उप क्षेत्रों और उनकी वंशवादी प्राथमिकताओं के आधार पर बदलाव के साथ, बेसरा शैली के विकास का मुख्य क्षेत्र था। तीनो शैलियों के वर्गीकरण से स्पष्ट है कि उनके नाम विभिन्न क्षेत्रीय स्कूलों के अनुसार रखे गए हैं और उनकी अधिरचना के अनुसार वर्गीकृत किये गए हैं।
उत्तर भारत का प्रत्येक मंदिर, चाहे वह किसी भी कालखंड और परिस्थिति में बना हो, योजना और उन्नयन में अपने विशिष्ट लक्षण प्रदर्शित करता है। उत्तर भारतीय मंदिर चौकोर होते है।ं प्रत्येक भाग में कुछ क्रमिक छज्जे (रथक) होते हैं जो इसके बाहरी हिस्से को एक सलीब का आकार देते हैं। उन्नयन में यह एक टावर (शिखर) दर्शाता है, जो अंदर की ओर झुका, अंडाकार आकृति स्लैब से आच्छादित होता है और इसके किनारे पर पसलियां (अमलक) होती हैं। सलीब के आकार की जमीन योजना और वक्रीय टॉवर, इसलिए नगर मंदिर शैली की मुख्य विशेषताओं के रूप में मानी जा सकती हैं। इन मामलों में, नगर मंदिर के मूलरूप आदर्श गुप्त कालीन मंदिरों की तीसरी शैली (शिखर) में देखे जा सकते हैं, जिसमें ये विशेषताएं अल्प विकसित चरण में पाई जाती हैं। दक्षिण भारत के मंदिर में, गर्भगृह निरपवाद रूप से एक चलने योग्य दालान के अंदर स्थित होता है और एक पिरामिड टॉवर जो क्षीण होते आयामों में एक के बाद एक मंजिल के संग्रह द्वारा गठित होता है।
इन्हे द्रविड़ मंदिर शैली की विशिष्ट विशेषताओं के रूप में माना जा सकता है। दूसरे प्रकार के गुप्तकालीन मंजिल युक्त मंदिर जो इस प्रकार की जमीन योजना और उन्नयन की शुरुआत दिखाते हैं, उसके अग्रदूत के रूप में पहचाने जा सकते हैं।
नगर शैलीः प्रारंभ में, मंदिर एक धर्मस्थल के रूप में एक सपाट छत वाली चौकोर संरचना, जिसमें सामने एक स्तंभों वाला दालान होता था, के रूप में अवतरित हुआ। सपाट छत वाली संरचना के संस्करण उत्तर और मध्य भारत में गुप्त बाद के राजवंशों के तहत कायम रहे, और नगर शैली चौकोर धर्मस्थल पर एक शिखर या अधिरचना के विकास के साथ उभरी। नगर शैली का बाद का विकास क्षेत्रीय शालाओं के माध्यम से पता किया जा सकता है। प्रमुख हैं उड़ीसा (प्राचीन कलिंग), मध्य भारत (प्राचीन जेजक भुक्ति महोबा), राजस्थान (राजपूत वंशों के घर) और गुजरात (प्राचीन गुर्जरदेस)। ये मंदिर के ढांचे के उर्ध्वाधर आरोहण और क्षैतिज विस्तार में महत्वपूर्ण शैलीगत और कलापक्ष के विकास का प्रतिनिधित्व करते हैं। उत्तर प्रदेश (और इसके पहाड़ी क्षेत्रों), बिहार, बंगाल और हिमाचल प्रदेश में, वास्तुशिल्पीय और शैली-पद्धति में उल्लेखनीय अंतर के बिना, उत्तरी शैली के मंदिर बनवाये गए। कश्मीर में, मुख्य नगर शैली से अलग, मंदिरों की एक विशिष्ट श्रेणी विकसित हुई।
द्रविड़ शैलीः द्रविड़ मंदिर का केंद्र बिन्दु गुप्तकालीन मंदिर की मंजिल शैली है और महाबलिपुरम (7वीं शताब्दी ई.) की चट्टानों को काटकर रथ शैली द्रविड़ शैली के विकास में एक दिलचस्प चरण की आपूर्ति है। द्रौपदी को छोड़कर, प्रत्येक रथ छत का एक बहुमंजिली उन्नयन दर्शाता है, प्रत्येक मंजिल एक मध्योन्नत कारनीस में लिपटी हुई, चौत्य खिड़की मेहराब से अलंकृत समाप्त होती है। जमीन मंजिल की दीवारें, भित्ति-स्तंभ और तराशे आलों से अलग किये होते हैं, जबकि ऊपरी मंजिलें छोटे मंडप से घिरी होती हैं। इन रथों में हम एक द्रविड़ मंदिर की जुड़वां मूलभूत सुविधाओं के मूल पहचान सकते हैं, अर्थात्, विमान (अपने लम्बे पिरामिड टॉवर के साथ गर्भगृह का प्रतिनिधित्व) और गोपुरम (मंदिर बाड़े लिए प्रमुख प्रवेश द्वार के भारी ढेर)।
7 वीं शताब्दी ई. की पहली छमाही में पल्लव की चट्टानों को काटकर रथ शैली में अपनी शुरुआत के साथ, द्रविड़ शैली दक्षिण के विभिन्न राजवंशों के अंतर्गत विकास और विस्तार की एक लंबी प्रक्रिया से होकर गुजरी है। शैली लगभग एक हजार वर्षों तक विकसित हुई और एक अपेक्षाकृत छोटे से क्षेत्र के भीतर ही सीमित है, और सामान्यतः सघन और एकतरफा रही। प्रारंभिक चरण की चट्टानों को काटकर विधि नरसिंहवर्मन द्वितीय, जिन्हे राजसिंह के नाम से भी जाना जाता है, शासनकाल के दौरान संरचनात्मक द्वारा प्रतिस्थापित किया गया। महाबलीपुरम का शोर मंदिर, दक्षिण में निर्मित होने वाला संभवतः पहला संरचनात्मक मंदिर था, जिसमे दो धर्मस्थल संतुलित रूप से एक दूसरे से जुडे़ हुए हैं। एक मंदिर योजना की एकीकृत संकल्पना, जिसमें द्रविड़ शैली के सभी प्रकार स्पष्ट रूप से व्यक्त हो रहे हैं और सौहार्दपूर्वक एक दूसरे को समायोजित कर रहे हैं, ऐसा पहली बार, राजसिंह द्वारा निर्मित कांचीपुरम के कैलाशनाथ मंदिर में देखने में आता है। सभी अनुलग्न चीजों, जैसे, दीवारों वाली दालान, गोपुरम, खंभों वाला मंडप और विमान सभी पूर्ण और उनके रूपों और स्थितियों में, इनके साथ कांचीपुरम का कैलासनाथ मंदिर प्रारंभिक द्रविड़ शैली के प्रमुख स्मारकों में से एक के रूप में वर्णित किया जा सकता है। रचना की एक औरअधिक विकसित भावना, नन्दिवर्मन द्वितीय द्वारा निर्मित कांचीपुरम के वैकुण्ठ पेरूमल मंदिर में स्पष्ट रूप से नघ्र आती है। दक्षिण में वास्तु गतिविधि पल्लव शासन के बाद के चरण में जारी रही। पल्लव परंपरा की समृद्ध विरासत चोल राजाओं को मिली, जिनके तहत द्रविड़ शैली एक और शानदार और विशिष्ट चरण में प्रवेश करती है।
वेसरा शैलीः वेसरा शैली को चालुक्य या दक्कन शैली के रूप में भी जाना जाता है। इसकी शुरुआत 7 वीं और 8 वीं शताब्दी में प्रारंभिक चालुक्य राजाओं के दिनों तक जाती है। ऐहोल, पट्टकल और अन्य स्थानों पर, द्रविड़ और नगर मंदिर कंधे से कंधा मिलाकर खड़े किये जाते थे। इस सह-अस्तित्व ने दोनों विचारों के एक निश्चित मिश्रण के लिए अवसर उपलब्ध कराया जिसका परिणाम बाद के चालुक्य शासकों के काल में एक मिश्रित या संकर शैली का उद्भव था। इस विकास में नगर संकल्पना की अपेक्षा द्रविड संकल्पना ने अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। द्रविड़ की ही तरह, चालुक्य मंदिर में दो मुख्य विशेषताएं हैं, विमान और मंडप, एक अंतराल जुड़े हुए, कभी कभी सामने के अतिरिक्त खुले मंडप के साथ। समय गुजरने के साथ विमान की मंजिल चरणों की ऊंचाई कम रखने की प्रवृत्ति में वृद्धि हुई। इसी समय, सजावटी आला निर्मिति एक दूसरे के ऊपर उत्तरी शिखर की ऊर्ध्वाधर बैंड का अनुकरण दोहराया गया है। यहां नगर शिखर से एक स्पष्ट प्रेरणा ली गई है।
चालुक्य मंदिर के भीतर इसके गर्भगृह तहखाने में संलग्न एक आच्छादित चलने योग्य गलियारा न होना, इसका द्रविड़ शैली से एक आवश्यक विचलन प्रस्तुत करता है। बाहरी दीवारों के उपचार में, नगर और द्रविड़ विचारों का, फिर से, एक सम्मिश्रण किया गया लगता है। दीवारें रथ ऑफसेट द्वारा टूट रही हैं, जो नगर शैली की विशेषता है, आगे नियमित अंतराल पर हमेशा की तरह द्रविड़ विधा के अनुसार भित्ति - स्तंभ पर स्थान दिया गया है। इस प्रकार बनी जगह आम तौर पर नगर या द्रविड़ शैली के सुपरस्ट्रक्चर के साथ आलों से भरा जाता था। इस प्रकार श्रेष्ठ कलात्मक सौंदर्य के संदर्भ का निर्माण हुआ। कुछ चालुक्य और अधिकांश होयसला मंदिर अपने एकाधिक धर्मस्थल रचनाओं के लिए विख्यात हैं, जिसमें सामान्य मंडप हॉल के आसपास दो, तीन या चार धार्मिक स्थलों की व्यवस्था होती है। वास्तु उपचार के अलावा चालुक्य मंदिर, या उसके वंशज, होयसल की विशेषता है, बेस से शीर्ष तक बड़े पैमाने पर उठावदार दिखावट के लिए सभी बाहरी सतहों को एक विपुल प्लास्टिक आभूषण से आच्छादित करना। इंटीरियर में, स्तंभों और दरवाजे फ्रेम, साथ ही छत पर भी बहुलता से विविधरंगी सजावट नजर आती है। समग्र रूप से माना जाता है कि, चालुक्य मंदिर अपनी शाखा होयसल के साथ, भारतीय वास्तुकला के सबसे अलंकृत और गहरे रंग के भाव का प्रतिनिधित्व करता है।
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