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1.0 प्रस्तावना
चालुक्य वंश एक प्राचीन भारतीय राजवंश था, जो 6ठीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी के मध्य, दक्षिण और मध्य भारत में फला-फूला। चालुक्यों ने दक्कन के पठार के क्षेत्र में शासन किया। उन्होंने इस क्षेत्र पर लगभग 600 वर्षां तक अपना साम्राज्य स्थापित रखा। इस साम्राज्य पर तीन अलग-अलग राजवंशों ने, जो एक दूसरे से जुड़े हुए थे, शासन किया। सबसे पहला राजवंश, जिसे बादामी के चालुक्य या प्रारंभिक पश्चिमी चालुक्य राजवंश कहा जाता है, ने इसकी राजधानी वातापी (वर्तमान में बादामी, जो कर्नाटक में स्थित है) से 543 से 757 ईस्वी के बीच शासन किया। पूर्वी चालुक्य या वेंगी के चालुक्यों ने उनकी राजधानी वेंगी (वर्तमान में एल्लुरू जो आंध्रप्रदेश में स्थित है) से 626 से 1070 ईस्वी के मध्य शासन किया। बाद के पश्चिमी चालुक्य या कल्याणी के चालुक्यों ने कल्याणी (वर्तमान का बासव कल्याण जो कर्नाटक में स्थित है) से 975 से 1179 के बीच शासन किया। कल्याणी के चालुक्य राजवंश ने पश्चिमी में गुजरात से लगाकर उत्तर में कवेरिया तथा दक्षिण तक शासन किया। चालुक्यों ने 10वीं शताब्दी के बाद में ही अपना शासन एक बार हासिल करने में सफलता हासिल की थी और वे इसे 12 वीं शताब्दी तक चलाते रहे।
2.0 चालुक्यों का उद्गम
चालुक्यों के उद्गम को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है, एवं इस संबंध में कई प्रकार के सिद्धांत सामने आये हैं। डॉ. डी.सी. सरकार का विश्वास है कि चालुक्यों का उदय किसी कन्नड़ परिवार से हुआ, जो मूल रूप से दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य के निवासी थे, तथा जिन्हें समाज में क्षत्रिय होने का दर्जा प्राप्त था। यह सिद्धांत इन अर्थां में उचित प्रतीत होता है कि चालुक्य वंश के राजा कन्नड,़ जो कि दक्षिण भारत की एक प्रमुख भाषा है, में ही साहित्य और राजकीय कार्य को प्रश्रय देते थे। चालुक्य मंदिरों मे पाये जाने वाले सारे शिलालेख कन्नड़ और संस्कृत में पाये गये हैं। प्रो. एन. लक्ष्मी नारायणराव का मत है कि कुछ चालुक्य राजाओं और राजकुमारों का नाम कन्नड़ प्रत्यय आरसा के साथ समाप्त होता है, जिसका अर्थ होता था, राजा या प्रमुख।
हालांकि डॉ. ए. एफ. रूडाल्फ हार्नेल का विश्वास है, कि चालुक्यों की भाषा संस्कृत आधारित नहीं थी, क्योंकि चालुक्य शब्द का उद्गम तुर्की से है, जिसका अर्थ होता है घोड़े की दौड़। उनके पारिवारिक नाम चालुक्य, जो कि शिलालेखों, चट्टानों गुफाओं, स्तम्भों, मंदिरों आदि जगह पाया जाता है, को चालक्य, चालिक्य और चालुक्य आदि कई तरह से लिखा गया है।
डॉ. सरकार का मानना है कि उनके पूर्वजों का वास्तविक नाम चालका रहा होगा, जबकि नीलकांत शास्त्री चालक्या को उनका वास्तविक नाम मानते हैं। यही बाद में चालुक्य बना होगा।
चालुक्य राजवंश को मुख्य तौर पर तीन राजवंशों में वर्गीकृत किया जा सकता हैः
- पश्चिमी चालुक्य
- बाद के पश्चिमी चालुक्य
- पूर्वी चालुक्य
3.0 पश्चिमी चालुक्यों का राजनीतिक इतिहास
तीनों ही चालुक्य वंशों में पश्चिम के चालुक्य सबसे प्रारंभिक थे। उन्हें बादामी के चालुक्य भी कहा जाता है। उनका शासन 6ठी शताब्दी के मध्य में स्थापित हुआ और उन्होनें वातापी (आधुनिक बादामी) को अपनी राजधानी बनाया। इन पश्चिमी चालुक्यों ने बनावसी के कदम्बों के पतन के पश्चात स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया तथा फिर दक्षिणी प्रायद्वीप के तुंगभद्रा-कृष्णा दोआब क्षेत्र में सर्वोच्चता के लिए पल्लवों से संघर्ष किया।
पश्चिमी चालुक्य राजवंश का सम्राट पुलकेशिन द्वितीय इस बात के लिए जाना जाता है कि उसने पल्लव सम्राट हर्ष को युद्ध में हराया था तथा वह पल्लवों की राजधानी कंची तक पहुंच गया था। हालांकि पुलकेशिन द्वितीय, दूसरे पल्लव आक्रमण का सामना करने में असफल हो गया और उसने अपनी राजधानी, वातापी पल्लव शासक नरसिम्हा के हाथों खो दी। बाद में, पश्चिमी चालुक्य राजवंश के विक्रमादित्य द्वितीय ने न केवल पल्लव राजाओं को पराजित किया बल्कि दक्षिण भारत से उनकी सर्वोच्चता सदैव के लिए समाप्त कर दी। पश्चिमी चालुक्य राजवंश के कुछ प्रमुख शासकों मे, पुलकेशिन प्रथम, कीर्तिवर्मन प्रथम, मंगलेष, पुलकेशिन द्वितीय, विक्रमादित्य प्रथम, विनयादित्य, विक्रमादित्य द्वितीय और कीर्तिवर्मन द्वितीय थे।
पुलकेशिन-प्रथमः यद्यपि चालुक्यों ने 535 से 566 ईस्वी के बीच जयसिम्हा और उसके पुत्र राणारागा के नेतृत्व में सफलता पूर्वक शासन किया, किंतु यह माना जाता है कि चालुक्य राजवंश का संस्थापक पुलकेशिन प्रथम ही था। वह पहला शासक था, जिसने बादामी (अब बीजापुर) को अपनी राजधानी बनाया, जो कि बाद में पश्चिमी चालुक्य राजवंश का प्रमुख केन्द्र बन गया।
कीर्तिवर्मन-प्रथमः कीर्तिवर्मन-प्रथम पुलकेशिन-प्रथम का पुत्र था, और उसके सिंहासन का उत्तराधिकारी भी बना। यह माना जाता है कि उसने अंग, वतुरा, मगध, कलिंग और वंग के शासकों को हराया। उसके शासनकाल में, पश्चिमी चालुक्य राजवंश का साम्राज्य एक बड़े हिस्से में फैल गया जिसमें मैसूर, तमिलनाडु और दक्षिणी महाराष्ट्र के हिस्से भी शामिल थे। कीर्तिवर्मन-प्रथम को कुछ प्रमुख महलों और मंदिरों के निर्माण के लिए याद किया जाता है, जो उसने वातापी में बनवाए।
मंगलेशः कीर्तिवर्मन-प्रथम के बाद 598 ईस्वी में चालुक्य साम्राज्य मंगलेश के हाथों में आ गया। वह कीर्तिवर्मन-प्रथम का भाई था। उसके शासनकाल में साम्राज्य का और विस्तार हुआ तथा पूरा मराठा राज्य पश्चिमी चालुक्यों के हाथों आ गया। यद्यपि वह एक उदार शासक था, किंतु वह अपने भतीजे पुलकेशिन-द्वितीय के साथ युद्ध को नहीं टाल सका, जिसमें उसे अपने प्राण गवाने पड़े।
पुलकेशिन-द्वितीयः पुलकेशिन-द्वितीय सभी चालुक्य शासकों में सबसे लोकप्रिय था। उसने एक युद्ध में अपने चाचा मंगलेश को हराकर साम्राज्य पर कब्जा किया था। 610 से लगाकर 642 ईस्वी के बीच उसने पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य पर लगभग 32 वर्ष शासन किया। उसके शासनकाल में साम्राज्य का और विस्तार हुआ तथा दक्षिण मैसूर के गंगा और कोणार्क के मौर्यो के क्षेत्रों को जीत लिया गया। उसने एक छोटे चालुक्य राज्य को एक विस्तृत साम्राज्य में बदल दिया। युद्धों में उसकी कई विजयों ने उसके सम्मान को बढ़ाया तथा उसे दक्षिण भारत का एक सम्प्रभुशासक बना दिया। उसने सीमावर्ती राज्यों को जीतकर उन पर शासन करने की नीति का पालन किया, जिसके कारण वह अपने शत्रुओं से आगे निकल गया। पड़ोसी राज्य (कौशल और कलिंग) पुलकेशिन-द्वितीय से भयभीत रहते थे। उन्होंने उससे युद्ध करने की अपेक्षा उसके सामने आत्मसमर्पण करना उचित समझा। उसकी विस्तारवादी नीति के कारण वह पल्लव सम्राट हर्ष के सामने आ गया था, जिससे उसने 637 ईस्वी में युद्ध किया किंतु हर्श हार गया। बाद में, पुलकेशी-द्वितीय ने पल्लव राजा महेन्द्रवर्मन-प्रथम पर आक्रमण किया तथा उसे पराजित भी किया। हालांकि वह इस विजय का आनंद ज्यादा लम्बे समय तक नहीं ले सका क्योंकि द्वितीय पल्ल्व आक्रमण में उसने अपने जीवन के साथ चालुक्य राजधानी वातापी को भी पल्लव शासक नरसिम्हन के हाथों गवां दिया। एक जैन दरबारी कवि रविकीर्ति के द्वारा लिखे गये ऐहोल प्रशस्ती (634 ईस्वी) में उसके कई सैन्य अभियानों का उल्लेख किया गया है।
विक्रमादित्य-प्रथमः पुलकेशिन-द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् 655 ईस्वी तक चालुक्य सिंहासन तब तक खाली रहा जब तक विक्रमादित्य-प्रथम ने पल्लवों को पराजित करते हुए पुनः चालुक्य क्षेत्रों पर कब्जा नहीं कर लिया। उसने दक्षिण (दख्खन) भारत से पल्लवों को पूर्ण साफ कर दिया।
विनयादित्यः विनयादित्य को चालुक्य साम्राज्य 681 ईस्वी में प्राप्त हुआ और उसने 696 ईस्वी तक सफलतापूर्वक शासन किया। पुलकेशिन-द्वितीय के विपरीत उसके संबंध चोलों और पाण्ड्यों से मधुर नहीं थे, तथा उसने उनके विरूद्ध कुछ युद्ध भी लडे़। जब उसने उत्तरापथ के राजा को हरा दिया तो उसे पालीध्वज की उपाधि दी गई।
विजयादित्यः वह विनयादित्य का उत्तराधिकारी था तथा उसने 696 से 733 ईस्वी के बीच शासन किया। उसके द्वारा की गई किसी भी लड़ाई के कोई एतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं और यह माना जाता है कि उसके शासनकाल का अधिकांश समय शांतिपूर्ण तरीके से व्यतीत हुआ।
विक्रमादित्य-द्वितीयः वह विजयादित्य का पुत्र था और उसने पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य पर 734 से 745 ईस्वी तक शासन किया। वह पल्लव राजा को पराजित करने के लिए जाना जाता है। इस विजय के पश्चात् उसने पल्लवों के संगीत के वाद्य यंत्रों, हाथियों, मोतियों और माणिक्यों आदि पर कब्जा कर लिया था। यह भी माना जाता है कि विक्रमादित्य द्वितीय ने पल्लवों के अतिरिक्त पाण्ड्य और चोलों पर भी जीत हासिल की थी।
कीर्तिवर्मन-द्वितीयः वह पश्चिम के चालुक्य के राजवंश का अंतिम शासक था तथा अपने पिता की मृत्यु के पश्चात लगभग 11 वर्ष उसने सफलतापूर्वक शासन किया। उसने राष्ट्रकूटों के हाथों अपना राज्य खो दिया तथा उसे प्राप्त करने की उसके सारी प्रयास व्यर्थ गये। राष्ट्रकूटों ने अगले 200 वर्षो तक इस क्षेत्र पर शासन किया तथा पुनः पश्चिम के कल्याणी चालुक्यों ने अपना राज्य प्राप्त किया।
4.0 प्रारंभिक चालुक्यों की मंदिर स्थापत्य कला
ब्राह्मणधर्म चालुक्य राजवंश का राजकीय धर्म था। इस कालखण्ड में यज्ञ पर विशेष जोर दिया जाता था, साथ ही व्रत तथा दान का भी बहुत महत्व था। बादामी के चालुक्य हिन्दू ब्राह्मण थे, किंतु वें दूसरे धर्मों का भी सम्मान करते थे। वे वैदिक यज्ञ और रीतिरिवाजों को बहुत महत्व देते थे। इस वंश के संस्थापक पुलकेशिन-प्रथम ने अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न कराया था। इस दौरान अनेक ब्राह्मण गं्रथ भी रचे गये। परम्परावादी ब्राह्मणवाद के साथ-साथ, चालुक्य राजवंशों के दौरान पुराण (धर्म) भी लोकप्रिय हुए। वास्तव में, इनकी लोकप्रियता के कारण ही भगवान विष्णु, शिव और अन्य भगवानों के मंदिरों का निर्माण हुआ।
सम्पूर्ण कर्नाटक में चटट्ानों को तराशकर गुफानुमा मंदिर तथा पत्थरों के भव्य मंदिरों का निर्माण किया गया, जो यह दर्शाता है कि चालुक्य राजा हिन्दू धर्म के प्रति समर्पित थे। यह माना जाता था कि राजाओं को राज करने का दिव्य अधिकार प्राप्त था, उन्हें यह अधिकार कुछ विशिष्ट रीतिरिवाजों को सम्पन्न कराकर, ब्राह्मणों के द्वारा, मंदिरों में प्रदान किया जाता था, इसलिए धार्मिक साम्राज्य में मंदिरों का विशेष महत्व था। इनमें से प्रत्येक मंदिर किसी विशिष्ट देवता जैसे विष्णु या शिव को समर्पित होते थे। चालुक्य वंश के दौरान शैव और वैष्णव दोनों ही धाराएं फली-फूलीं।
आज भी, सम्पूर्ण कर्नाटक में सैकड़ों मंदिर बने हुए हैं। हिन्दू धर्म में मंदिरों का विशेष महत्व है क्योंकि वहां के पवित्र वातावरण में आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। एक हिन्दू मंदिर वह केन्द्र होता है, जहां मनुष्य और भगवान के बीच की दूरी समाप्त हो जाती है। इसके अतिरिक्त, मंदिर हिन्दू धर्म के बौद्धिक और कलात्मक पक्ष की भी अभिव्यक्ति करते हैं। वे हिंदू समाज की बौद्धिक एवं कलात्मक जीवनषैली के केन्द्र होते हैं।
बादामी, ऐहोल और पट्टडकल वे केन्द्र थे, जहां प्राचीन समय में भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ। आज भी, बादामी को एक तीर्थ स्थल माना जाता है। यह मंदिर, राजा की असीम शक्ति और राज्य पर नियंत्रण को दर्शाने के लिए बनाये गये। साथ ही, ये मंदिर राज्य की शक्ति का गौरव थे। पुलकेशिन-प्रथम के शासनकाल में वातापी में तीन सुंदर मंदिर चट्टानों को काटकर बनाये गये थे, जो एक पहाड़ी के किनारे स्थित थे। चालुक्य मूर्तिकला, हिन्दू स्थापत्य कला का महानतम उदाहरण है, जिसमें कई हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियां चट्टानों में पहली बार बनाई गई थी।
तीन गुफाओं वाले मंदिर हिन्दू आस्था का केन्द्र हैं, जिसमें कई पौराणिक मूर्तियां, सुन्दर नक्काशी और भित्ती चित्र तथा चालुक्य राजाओं की उपलब्धियों का वर्णन करते हुए लेख उपलब्ध हैं। पहले नम्बर की गुफा 578 ईस्वी में तैयार की गई तथा यह भगवान शिव को समर्पित है, जिसमें भगवान शिव की 18 भुजाओं वाली नटराज प्रतिमा और हरिहर (अर्द्ध शिव और अर्द्ध विष्णु) की मूर्ति बनाई गई है। द्वितीय गुफा भगवान विष्णु को समर्पित है, जहां उनके विभिन्न अवतारां का चित्रण किया गया है। हिन्दू धर्म के अनुसार यह माना जाता है कि विष्णु भगवान धर्म के रक्षक हैं तथा वे धर्म के सुधार के लिए धरती पर अवतार लेते है। तीसरी गुफा को वृहद गुफा भी कहा जाता है, जो लगभग 22 मीटर चौड़ी है, यह भी भगवान विष्णु को ही समर्पित है। इसमे भगवान विष्णु की बेसर प्रतिमा है तथा एक अन्य प्रतिमा में भगवान विष्णु को चतुर्भुज रूप में दर्शाया गया है। उनके एक हाथ में शंख, एक हाथ में सारंग, एक हाथ में पद्म और एक हाथ में चक्र है तथा वे उनके वाहन गरूड़ पर विराजमान हैं।
चालुक्य राजवंश ने स्थापत्य कला की एक नई शैली बेसर (मिश्रण) की शुरूआत की जो उनके मंदिरों के निर्माण में उपयोग की जाती थी। बेसर में द्रविड़ कला के तत्व (दक्षिण भारत के पिरामिडनुमा मंदिर) और नागर स्थापत्य कला (मधुमक्खी के छत्ते के समान बहुमंजिला इमारत) दोनों के ही गुणधर्म शामिल है।
बेसर स्थापत्य कला का एक अद्भुत उदाहरण पट्टडाकल का विरूपक्ष मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण रानी लोकमहादेवी ने राजा विक्रमादित्य द्वितीय (733-747 ईस्वी) की पल्लवों पर हुई विजय की स्मृति में करवाया था। मंदिर के अंदर शिव की मूर्ति स्थापित है, जिन्हें यह मंदिर समर्पित है। इसके साथ-साथ हिन्दू महाकाव्यों रामायण और महाभारत के वृहद् चित्र भी उकेरे गये हैं।
5.0 साहित्य
चालुक्य राजा साहित्य कला, और शिक्षा के समर्थक थे। उन्होंने कन्नड़ साहित्य के विकास को प्रोत्साहित किया, जो चालुक्य शासनकाल के दौरान बहुत उच्चता पर पहुंच गया था। नौवीं शताब्दी में, दुर्गसिम्बा, जो कि एक ब्राह्मण विद्वान था तथा जयसिम्हा द्वितीय का विदेश मंत्री था, ने पंत्रतंत्र (पांच सिद्धांत) लिखी तथा बेताल पच्चीसी का अनुवाद भी किया। पम्पा, पुन्ना और रन्ना कन्नड़ साहित्य के रत्न-त्रय कहलाते थे क्योंकि उन्हांने कन्नड़ साहित्य के विकास में बहुत योगदान दिया।
पम्पा को कन्नड़ काव्य का पितामह कहा जाता है, तथा आदि कवि भी माना जाता है। उन्होंने विक्रमार्जुन विजय नामक एक काव्य की रचना की जो कि महाभारत से लिया गया है। इसमें अर्जुन नायक हैं। पोन्ना (939-968 ईस्वी) ने संस्कृत और कन्नड़ दोनों ही भाषाओं में रचना की। उन्हें उभय-कवि-चक्रवर्ती की उपाधि भी दी गई थी।
पुलकेषिन द्वितीय के राज कवि रविकीर्ति के द्वारा संस्कृत में रचा गया ऐहोल प्रशस्ती (634) और कन्नड़ में रचित लेख शास्त्रीय काव्य के अनुपम उदाहरण हैं। विजयन्क नामक एक कवियत्री जो स्वयं को ‘‘कृष्ण सरस्वती‘‘ कहती थी, की कुछ कविताएं भी संरक्षित की गई हैं। यह भी सम्भव है कि वह राजकुमार चंद्रादित्य (पुलकेशिन-द्वितीय का पुत्र) की रानी रही हो। पश्चिमी चालुक्य कालखण्ड के कुछ प्रसिद्ध संस्कृत लेखकों में विज्ञानेश्वर भी थे, जिन्होंने मिताक्षर नामक एक हिन्दूविधि पुस्तक लिखकर प्रसिद्धि हासिल की, तथा राजा सोमेश्वर तृतीय थे, जिन्होंने कला और विज्ञान पर मानसोल्लस नामक एक वृहद ग्रंथ की रचना की।
1950 ईस्वी में पोन्ना ने राम-कथा की रचना की जो रामायण पर आधारित थी। रण्णा ने गदा युद्ध नामक एक महाकाव्य की रचना की जो कन्नड़ साहित्य की एक महानतम रचना मानी जाती है, जिसमें चालुक्य शासकों को कर्नाटक के आसपास के क्षेत्रों में शासन करते बताया गया है। रण्णा को राजा तैलप के द्वारा कवि-चक्रवर्ती की उपाधि दी गई थी।
इसके अतिरिक्त कन्नड़ साहित्य के विकास में एक जैन कवि नागवर्मा प्रथम ने भी योगदान दिया था, जिसने काव्य शास्त्र पर 990 ईस्वी में चंदोम्बुधी की रचना की। नागवर्मा प्रथम ने कर्नाटक कादम्बरी नामक गं्रथ की रचना भी की जिसने हिन्दू धर्म में जाति प्रथा में चाण्डालों (अछातों) की स्थिति का उल्लेख किया गया है। बासवां (1106-1167 ईस्वी) ने वचन नामक गं्रथ में दार्शनिक और मानवतावादी विचारों को सरल भाषा में आम आदमी तक पहुंचाया। इसके अनुसार यह तथ्य सामने लाया गया कि एक गरीब भी व्यक्तिगत तौर पर मंदिर निर्माण में अपना योगदान दे सकता है।
वह जिनके पास अकूत सम्पदा है, भगवान शिव के मंदिर निर्माण में योगदान नहीं देते। तो मैं एक गरीब आदमी, ओ भगवान शिव तेरे लिए मंदिर बनाउंगा। मेरे पैर उस मंदिर के स्तम्भ बनेंगे, तथा मेरा शरीर उसकी दीवारें, मेरा मस्तक उसका शिखर होगा। ओ कुदाल संगम देव (एक महत्वपूर्ण मंदिर) तुम तो पत्थरों से बने हो, एक दिन नष्ट हो जाओगे; किंतु यह जीवित मंदिर तथा इसकी समर्पण भावना कभी नष्ट नहीं होगी।
ब्र्रह्मशिव, जो पश्चिमी चालुक्यों का राजकवि था, वेद और पुराणों के अध्ययन में भी निपुण था एवं शैव पंथ की रचनाओं में भी। वह एक शिव भक्त कवि था। ब्रह्मशिव ने साम्य परीक्षा नामक गं्रथ की रचना की, जो कन्नड़ साहित्य में पहला व्यंग्य गं्रथ था, जिसमें अन्य धर्मों की आलोचना की गई थी। 1100 ईस्वी में चालुक्य राजा त्रैलोक्यमल्ला द्वारा उसे कवि-चक्रवर्ती की उपाधि दी गई थी। चालुक्य राजा विक्रमादित्य षष्ठम के राजदरबार में विज्ञानेश्वर द्वारा रचित संस्कृत गं्रथ मीताक्षर को एक विधि पुस्तक के समान माना जाता था। मीताक्षर हिन्दू विधि-विधान का एक महान गं्रथ है, जो याज्ञवल्क्य के गं्रथ पर एक टीका हो सकती है, जिसे सम्पूर्ण भारत में हिन्दूओं के द्वारा स्वीकार किया जाता है। एक अंग्रेज हेनरी थॉमस कोलबु्रक ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया जो विरासत आदि मामलों में ब्रिटिश भारतीय न्यायालयों में उपयोग में की जाती थी।
6.0 चालुक्य-पल्लव संघर्ष
पांचवी शताब्दी के अंत तक, सिंहविष्णु ने राज्य को अपने अधिकार में ले लिया और पल्लव वंश की नींव रखी। उसने कई युद्ध लड़े और एक बड़े क्षेत्र में अपने राज्य का विस्तार किया। उसकी मृत्यु के पष्चात उसके पुत्र महेन्द्रवर्मन ने सिहांसन सम्भाला। वह एक बुद्धिमान व षिक्षित व्यक्ति था; उसने महाबलीपुरम मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ कराया।
पुलकेशिन द्वितीय, जो कि प्रारंभिक चालुक्य राजाओं में सबसे महत्वपूर्ण था, को जब कांची की भव्यता और सम्पन्नता के बारे में ज्ञात हुआ तो उसने पल्लवों पर आक्रमण किया। वह एक बड़ी सेना लेकर महेन्द्रवर्मन के विरूद्ध आक्रमण के लिए निकला और 620 ईस्वी में पुल्ललुर में उसे हरा दिया तथा पल्लव साम्राज्य के उत्तरी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। यह पल्लव वंश और विशेषकर महेन्द्रवर्मन के विरूद्ध एक बड़ा आक्रमण था। इसके कारण महेन्द्रवर्मन बीमार रहने लगा। तमिलनाडु के उत्तरी क्षेत्रों को पुलकेशिन द्वितीय से पुनः वापस लेने के उसके सारे प्रयास व्यर्थ गये। 630 ईस्वी में महेन्द्रवर्मन एक अपमानित व्यक्ति के रूप में हताशा की अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हुआ।
उसका पुत्र नरसिंहवर्मन रणनीतिक रूप से एक चतुर व्यक्ति था। उसने 630 ईस्वी में सिंहासन सम्भाला, तथा उसके पिता के अपमान का बदला लेने की शपथ ली। उसने पाण्डय राजकुमारी वानम देवी से विवाह किया तथा वातापी पर अपने आक्रमण प्रारंभ किये। उसने अपनी सेना का नेतृत्व सेनापति परणज्योति को दिया और वातापी को जीत लिया; 642 ईस्वी में मणीमंगलम और परियलम के मैदानों में हुए इस युद्ध में पुलकेशिन द्वितीय मारा गया। उसने पुलकेशिन की राजधानी को जलाकर पूरी तरह नष्ट कर दिया।
वह एक विजेता सम्राट के समान कांचीपुरम लौटा और उसने वातापीकोण्डन् (वातापी को नष्ट करने वाला) की उपाधि ग्रहण की। उसने ‘‘मामल्ला‘‘ की उपाधि भी ग्रहण की, शायद यही कारण है कि महाबलीपुरम को मामल्लापुरम भी कहा जाता है। बादामी 655 ईस्वी तक, तब तक उसके अधिकार में रहा जब तक कि विनयादित्य ने पुनः इसे चालुक्यों के लिए जीत नहीं लिया। तंडीवर्मन (775-825) एक पल्लव सम्राट था जिसने दक्षिण भारत पर शासन किया। वह नंदीवर्मन द्वितीय का पुत्र था।
पल्लवों ने बादामी में तांबे के सिक्के चलाये, जिनके एक ओर उनका राजचिन्ह ‘‘नंदी‘‘ और पीछे की ओर ‘‘कमल‘‘ बना हुआ था।
7.0 धर्म और प्रशासन
चालुक्य राजा हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। समाज में जाति प्रथा व्याप्त थी तथा देवदासी प्रथा को सरकार के द्वारा मान्यता थी। कुछ राजाओं की गणिकायें होती थी, जिन्हे पर्याप्त सम्मान दिया जाता था। सतीप्रथा शायद प्रचलन में नहीं थी क्योंकि विनयावती और विजयंका जैसी विधवाओं का उल्लेख मिलता है। देवदासियां मंदिरों में रहती थीं। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में वर्णित भरतनाट्यम दक्षिणभारत का लोकप्रिय शास्त्रीय नृत्य था, जिसे कई मूर्तियों में देखा जा सकता है और जिसका उल्लेख शिलालेखों में भी मिलता है। राज-परिवार की कुछ महिलाओं को राजनीतिक अधिकार प्राप्त थे। रानी विजयंका एक संस्कृत कवियत्री थी। विजयादित्य की छोटी बहन कुमकुम देवी (अलुपा के राजा चित्रवाहन की रानी) ने एक जैन मंदिर (अनेसज्जेबसड़ी) का निर्माण पुलीगर में करवाया। विक्रमादित्य द्वितीय की रानियों लोकमहादेवी और त्रैलोक्यमहादेवी ने लोकेश्वर मंदिर (जिसे अब विरूपाक्ष मंदिर कहा जाता है) का निर्माण कराया तथा पट्टडाकल में मल्लिकार्जुन मंदिर भी बनवाया।
बादामी चालुक्य राजवंश के दौरान शैव और वैष्णव दोनों ही धर्म फले-फूले, यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि वैष्णव धर्म ज्यादा लोकप्रिय था। पट्टडकल, ऐहोल तथा महाकूट में प्रसिद्ध मंदिरों का निर्माण कराया गया तथा उत्तरभारत से आचार्यों को आमंत्रित किया गया। बली प्रथा, व्रत और दान का बहुत महत्व था। बादामी के चालुक्य वैदिक हिन्दू धर्म के अनुयायी थे तथा इसी कारण लोकप्रिय हिन्दू देवी देवताओं के मंदिरों का निर्माण ऐहोल में करवाया। हिन्दूओं के बीच लोकप्रिय देवता विष्णु, शिव, कार्तिकेय, गणपति, शक्ति, सूर्य और सप्तमातृका की मूर्तियां इस बात का प्रमाण हैं। बादामी राजाओं ने अश्वमेध यज्ञ भी कराया। उर्वरता (प्रजनन) की देवी लज्जा गौरी की पूजा भी की जाती थी। इस कालखण्ड में जैन धर्म भी प्रचलित था। कुछ चालुक्य राजाओं ने जैन धर्म अपनाया था। राजवंश के अन्य शासक भी जैन धर्म के प्रति उदार रहे तथा इसे प्रोत्साहित किया। बादामी की एक गुफा जैन धर्म के लिए निर्मित की गई थी। ऐहोल में जैन मंदिरों का भी निर्माण कराया गया था, मगुति का मंदिर इसका एक उदाहरण है। पुलकेशिन द्वितीय का राजकवि रविकीर्ति एक जैन था। रानी विनयावती ने राजधानी बादामी में त्रिमूर्ति का एक मंदिर बनवाया था। त्रिमूर्ति, हरिहर और अर्द्धनारीश्वर की मूर्तियों का पाया जाना उनका उदार होने का सूचक है। इस कालखण्ड में बौद्ध धर्म पतन की ओर था। यह ह्वेनसांग के आलेखों से भी स्पष्ट होता है। बादामी, ऐहोल, कुर्तकोटी और पुलीगर (आधुनिक लक्ष्मेश्वर) विद्यार्जन के केन्द्र थे। चालुक्यों के कालखण्ड में ही दक्षिण भारत में ही रामानुजाचार्य और बसवन्ना के नेतृत्व में भक्ति आंदोलन को गति मिली।
चालुक्य सेना एक सुगठित सैन्य शक्ति थी, व शायद यही कारण है कि पुलकेशिन द्वितीय विंध्य पार तक जीत सका। उनके पास पैदल सेना, अश्वारोही सेना, हाथियों का एक दल और शक्तिशाली नौसेना थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने लिखा है कि चालुक्य सेना में सैकड़ां हाथी थे, जिन्हें युद्ध के पहले शराब आदि मादक पदार्थ दिये जाते थे। उनकी नौसेना के कारण ही उन्होनें रेवतीद्वीप (गोआ), और पूर्वी किनारे पर पुरी को जीत लिया। राष्ट्रकूट वंश के दस्तावेजों में ताकतवर चालुक्य सेना के लिए कर्नाटबला शब्द का उपयोग हुआ है।
उच्च स्तर पर प्रशासन का गठन मगध और सातवाहन प्रणाली के समान किया गया था। साम्राज्य को महाराष्ट्रक (राज्य) और फिर राष्ट्रक (मण्डल), विषय (जिला), भोग (दस गांवों का समूह) जो कि कदम्बों के द्वारा उपयोग की जाने वाली इकाई दसग्राम के समान ही था, में विभाजित किया गया था। प्रशासन के निचले स्तर पर पूर्णतः कदम्बशैली का उपयोग किया गया था। विक्रमादित्य प्रथम के शासनकाल में भूमि की एक इकाई को दसग्राम कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कुछ सामंत भी थे जो लगभग स्वशासी थे, किंतु वे साम्राज्य के प्रति वफादार रहते थे। इनमें - अलुप, गंग, बन और सेन्द्रक प्रमुख थे। स्थानीय सभाएं और श्रेणियां, स्थानीय मुद्दों का निराकरण करती थीं। महाजनों (विद्वान ब्राह्मण) के समूह शिक्षा और अध्ययन के केन्द्रां के लिए नियुक्त होते थे, जिन्हें घटिका कहा जाता था; बादामी में एक घटिका में 2000 महाजन और ऐहोल की एक घटिका में 500 महाजन रहते थे। विभिन्न प्रकार के कर जैसे - हरजुनका परिवहन पर, किरूकुल परचुन पर, बिलकोड़ा व्यापार पर, पन्नया पान पर सिद्या भूमि कर और वद्दरावुल एक अन्य कर था जो आमजन पर लगाये जाते थे।
बादामी के चालुक्य सिक्के गढ़ते थे जो उत्तरी साम्राज्यों की तुलना में अलग प्रकार के होते थे। सिक्कों पर नागरी और कन्नड़ा में महागाथा उकेरी हुई होती थी। मंगलेश के सिक्कों पर मंदिर का चिन्ह और ‘दीपकों के बीच राजमुद्रिका‘ आदि बना होता था। पुलकेशिन द्वितीय के सिक्कों पर एक ओर दहाड़ते हुए शेर तथा दूसरी ओर मंदिर बने होते थे। सिक्कों का वजन 4 ग्राम होता था तथा इसे प्राचीन कन्नड़ में हुन या होन्नु कहते थे, और फन या (फनम) इसकी छोटी इकाई होती थी। गदयाना नामक एक स्वर्णमुद्रा का उल्लेख पट्टडकल के विजयेश्वर मंदिर में मिलता है, जो बाद में वराह कहा जाने लगा तथा चालुक्यों का राजचिन्ह बन गया।
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