यूपीएससी तैयारी - भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास - व्याख्यान - 20

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धर्म का विकास

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1.0 प्रस्तावना

उपनिषद काल (लगभग 800 से 400 ई.पू.) के बाद से ही ब्राह्मणवाद आकार लेने लगा था। सिद्धांततः इसका आधार वैदिक धर्म ने ही तैयार कर दिया था, किंतु वास्तव में यह एक लम्बी और क्रमबद्ध विकास की श्रृंखला की एक कड़ी है।

हिन्दू धर्म, जिसका ब्राह्मणवाद एक हिस्सा है, अनगिनत धार्मिक विश्वासों, संस्कृतियों, परम्पराओं और रीति-रिवाजों का एक मिश्रण है, क्योंकि इसका कोई एक प्रवर्तक नहीं है, कोई एक संस्थागत सिद्धांत नहीं है और न ही कोई केन्द्रीय संगठन है, इसलिए इसे एक धर्म की परिभाषा में बांधा नहीं जा सकता। 

दक्षिण के नव-पाषाण (लगभग 2000-750 ई.पू.) लोगों, द्रविड़ों, जिन्होने बाद के सांस्कृतिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जनजातीय और स्थानीय समूहों, जिनसें समाज के निचले तबके का निर्माण हुआ और आर्य संस्कृति ने मिलकर एक वृहद सतत परिवर्तनशील धार्मिक विश्वासों और रीतिरिवाजों की नींव रखी, इनमें से कुछ इसे विकसित हुईं, कुछ परिष्कृत हुईं और कुछ लोगों ने बदल डालीं।  

कोई भी तत्व जिसे धार्मिक महत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण घोषित किया जा चुका था, कभी भी पूर्ण रूप से अप्रभावी नहीं हुआ और कुछ सदियों पश्चात पुनः प्रचलन में आ गया। इस प्रकार किसी भी एक धार्मिक पद्धति को ब्राह्मणवाद की प्रतिनिधि पद्धति नहीं कहा जा सकता।

2.0 ब्राह्मणवाद का उदय

ब्राह्मण शब्द का प्रारंभिक उपयोग उन वैदिक मंत्रों के लिए किया गया था जिनमें असीम पवित्र शक्ति निहित थी, जिसके माध्यम से ईश्वर तक संदेश पहुंचाया जा सकता था। बाद के काल में, वह पुजारी  जो यज्ञ की प्रक्रिया का संचालन करते थे ब्राह्मण के रूप में जाने जाने लगे। ब्राह्मण शब्द का उपयोग पवित्र शक्ति के लिए एक संज्ञा के रूप में भी किया जा सकता है जो कि सम्पूर्ण ब्रह्ममांड के लिए एक उर्जा स्रोत है। 

यक्ष और नाग की पूजा, और अन्य लोक-देवताओं के प्रति आस्था ने प्रारंभिक धार्मिक विश्वासों के निर्माण में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया। साहित्यिक और पुरातात्विक दोनों ही स्रोतों से यह सिद्ध होता है कि लोगों के बीच इस प्रकार की पूजा-पाठ का अस्तित्व था। देश के कई हिस्सों में, यक्ष, यक्षिणी, नाग और नागिनों के विभिन्न चित्र और मूर्तिया पाई गई हैं जो ईसा की कुछ शताब्दियों पूर्व से लगाकर बाद तक की शताब्दियों की हैं। गणेश की पूजा, जिनकी आकृति यक्ष के समान गोलाकार पेट और नाग के समान सिर है, भी यक्ष और नागों के लोक-संस्कृति के ही अस्तित्त का सूचक है। वास्तव में नाग शब्द के दो अर्थ हैं- इसका एक अर्थ है ‘नाग‘ और दूसर अर्थ है ‘हाथी‘। लोकतत्वों का धर्म में महत्व इस तथ्य से ही स्पष्ट हो जाता है कि गणेश को पांच प्रमुख पौराणिक देवताओं (गणेश, विष्णु, शिव, शक्ति और सूर्य) में पहला स्थान प्रदान किया गया है।

3.0 हिन्दू धर्म में भगवान

वर्तमान में फैली हुई अवधारणा के विपरीत, सभी हिन्दू एक सर्वोच्च शक्ति की ही आराधना करते हैं, यद्यपि उनके नाम भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भारतीयों ने अपने विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों के माध्यम से ईश्वर की अलग-अलग व्याख्या की। एतिहासिक दृष्टिकोण से विश्लेषण करने से ज्ञात होता है कि हिन्दुओं के चार प्रमुख मत हैं - शैववाद, शक्तिवाद, वैष्णव और स्मार्थवाद। शैववादियों के लिए शिव सर्वोच्च शक्ति हैं, शाक्त लोगों के लिए देवी आदिशक्ति सर्वोच्च हैं, वैष्णवों के लिए भगवान विष्णु उच्चतम हैं और स्मार्थ मतानुसार सभी भगवान किसी एक सर्वोच्च शक्ति के ही प्रतिबिंब हैं। यहां ईश्वर को चुनने की स्वतंत्रता भक्त को दी गई है। यह उदारवादी स्मार्थ दृष्टिकोण सुपरिचित है, किंतु यह आम हिन्दू अवधारणा नहीं है। इस विभिन्नता के कारण, हिन्दू धर्म अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति बहुत उदार रहा है और उसने इस तथ्य का हमेशा सम्मान किया है कि ईश्वर तक पहुंचने का प्रत्येक व्यक्ति का अपना मार्ग हो सकता है। 

हिन्दुत्व की एक अद्वितीय अवधारणा यह है कि ईश्वर बहुत दूर कहीं स्वर्ग में नहीं रहता है, बल्कि यह तो प्रत्येक आत्मा के भीतर निवास करता है। बस इसे खोजने की जरूरत है। यह तथ्य कि ईश्वर सदैव हमारे साथ रहता है, हमें आशा और साहस प्रदान करता है। हिन्दू अध्यात्म का मूल उद्देश्य यही है कि इस प्रायोगिक अनुभवी तरीके से उस सर्वोच्च शक्ति का ज्ञान हो जाये। 

3.1 प्रमुख भगवान 

भगवान हेतु संस्कृत में देव शब्द का उपयोग किया जाता है, जो मूल शब्द दिव् से निर्मित हुआ है, जिसका अर्थ है ‘प्रकाशमान होना‘। यह किसी भी ऐसी वैश्विक शक्ति के लिए भी उपयोग किया जा सकता है जो या तो मानवीय रूप में हो या पशु रूप में या (अवतारों)  के रूप में। 

अधिकांश वैदिक देवता प्रकृति की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसमें प्राकृतिक विनाश और व्याधियों के लिए बुरी शक्तियों जैसे की व्रित्र, या देवी निन्ति  आदि का भी उल्लेख होता है जो कि वास्तव में पतन, विनाश और मृत्यु का मानवीकरण है। पहली शताब्दी के बाद से ही अधिकांश हिन्दू या तो वैष्णव रहे या शैव। वे दोनों साथ-साथ सौहार्दपूर्ण वातावरण में बिना किसी विवाद के रहते आये हैं। इस प्रकार के परस्पर सौहार्दपूर्ण वातावरण के कारण, गुप्तकाल में त्रिदेव या त्रिमूर्ति की अवधारणा का विकास हुआ। त्रिमूर्ति में ब्रह्मा, विष्णु और शिव निहित हैं। मनुष्य को बचाने के लिए विष्णु अवतार के रूप में प्रकट होते हैं। शिव इस त्रिमूर्ति के तीसरे सदस्य हैं। उनका प्रमुख कार्य इस नश्वर संसार को नश्ट करना है, किंतु जब मानव किसी प्रकार के संकट में हो तो वह उसे बचाने भी आ सकते हैं। इसके अतिरिक्त हरिहर की संयुक्त अवधारणा ज्यादा लोकप्रिय है। (यहां हरि से आशय भगवान विष्णु और हर का अर्थ शिव से है, और दक्षिण में इसे अय्प्पा कहा जाता है जहाँं अय्या का अर्थ भगवान विष्णु और अप्पा का अर्थ शिव से है।)

मनुष्य की आध्यात्मिक अवधारणा की विविधता का वर्णन सांख्य योग में तीन गुणों के माध्यम से किया गया है, जिनके द्वारा इस संसार की प्रत्येक वस्तु का निर्माण हुआ है। इस प्रकार द्विव्यता की उच्चतम अवधारणा में अच्छाई, कल्याण, पूर्णता आदि सत्व गुण में निहित है; जबकि जब ईश्वर को क्रोधी, निर्दयी और हिंसक माना जाता है तब राजस गुण सर्वोपरी होता है; और जब ईश्वर विनाश और मृत्यु से ग्रसित होता है तो यह माना जाता है कि उसमें तमस गुण की प्रधानता है।

3.2 देवी

ऋगवेद में वर्णित देवियां, उनके उपादान और वे जिसके प्रतीक हैं निम्नानुसार हैंः 

  1. ईदा आहूति की देवी हैं।
  2. होत्र और स्वाहा आह्वान का मानवीकरण हैं।
  3. यद्यपि ऋगवेद यह मानता है कि देवियाँं देवताओं की सहायक होती हैं, तो भी अदिति सभी देवियों से भिन्न हैं। वह मुक्ति और असीम शक्ति की प्रतिनिधि हैं, व उनके पास ऐसी शक्तियां हैं जो देवताओं के पास भी नहीं हैं। उनके बारह पुत्र, सामूहिक रूप से आदित्य कहलाते हैं, जो किसी एक सौर वर्ष के बारह महीनों को दर्शाते हैं। 
  4. एक अन्य देवी जिसके नाम पर ऋगवेद की पच्चीस स्तुतियाँ समर्पित हैं वह हैं उषा, जो सूर्यादय की देवी मानी जाती हैं जो मूलतः अंधेरे पर प्रकाश की विजय और मृत्यु पर जीवन की विजय का प्रतीक है। 

अन्य वैदिक देवियों में शामिल हैं 

  1. पृथ्वी, धरा का मानवीकरण 
  2. दिति, दैत्यों की माता
  3. अरण्यणी, वनों की देवी
  4. वाक्, स्वर की देवी
  5. पुराम्धी और धिसना, दोनों ही प्रचुरता का प्रतिनिधित्व करती है
  6. राका और सिनीवली लाभकारी देवियां, ईला को मवेशियों की माता माना गया है और
  7. निन्ति को दुर्भाग्य, पतन और मृत्यु की देवी माना गया है।

शक्ति और तांत्रिक सम्प्रदाय में देवी को शक्ति का प्रतिनिधि माना गया है जो इस ब्रहम्माण्ड के दृश्य जगत का प्रतिनिधित्व करती हैं। दूसरे शब्दों में इस विश्व का अंतिम सत्य स्त्री को माना गया है। शक्ति वह ब्रह्ममांड उर्जा का स्रोत है जहां से सभी देवता, संसार और सारे प्राणी अस्तित्व में आये। वास्तव में वह प्रकृति की ही असीम शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। 

वैदिक काल के बाद के समय में, शक्ति को देवताओं की शक्ति माना गया और उनके साथ शक्ति को पत्नी के रूप में भी दर्शाया गया। सातवीं शताब्दी के बाद से शक्ति के लिए साहित्यिक संदर्भ तब से ज्यादा उपयोग में आने लगे जब उन्हें शिव की अर्द्धांगिनी मान लिया गया। उनके कोमल स्वरूप पार्वती, उमा, पद्मा और गौरी माने गये जबकि उनके भयानक स्वरूपों में भैरवी, श्यामा, चामुण्डा, काली और दुर्गा को माना गया। 

मुण्डों की माला धारण किये हुए देवी काली का स्वरूप बंगाल में लोकप्रिय है जहां शक्ति सम्प्रदाय बहुत प्रचलित है और उसने कई स्थानीय देवी देवताओं जैसे मनसा (नागों की देवी), शीतला, चंड़ी (षिकारियों की देवी) आदि को अपने प्रभाव में ले लिया है। काली के रूपों में दस महाविधाएं, सात माताएं, चौसठ योगिनी, डाकिनी आदि भी शामिल की गई हैं। 

आज सबसे लोकप्रिय देवी श्री हैं, जो सम्पन्नता और सौन्दर्य की देवी हैं। इनका उल्लेख ऋगवेद में केवल एक बार और अथर्व वेद और अन्य ग्रंथों में कई बार हुआ है। बाद में इसे उत्तर वैदिक काल की देवी लक्ष्मी से जोड़ दिया गया जिनका जन्म क्षीरसागर से तब हुआ जब देवता और असुर समुद्र मंथन कर रहे थे। इन दो देवियों और इनसे जुड़े मिथकां का आपस में मिल जाना इस बात का सूचक है कि असंख्य लोगों की परम्पराएं आपस में मिश्रित हो गइंर्। यह भी माना जाता है कि श्री फूलों की माला में निवास करती हैं और इसलिए इसे धारण करने वाले अच्छे सौभाग्य, विजय और सम्पन्नता के स्वामी होते हैं। 

3.3 आत्माएं, प्रेतात्माएं एवं कनिष्ठ देवता 

वैदिक संस्कृति और वैष्णव, शैव तथा शक्ति मतों के साथ-साथ जीववाद और प्रकृति पूजा के अनगिनत स्वरूप भारत में अस्तित्व में रहे हैं। इनमें से अधिकांश भावनायें स्थानीय इतिहास से जुड़ी हुई हैं और उनमें से कई धीरे-धीरे उच्च संस्कृति में मिल गइंर्। 

यक्ष, एक रहस्यमयी शक्ति (जिसका उल्लेख बौद्ध और जैन धर्म में भी हुआ) अलौकिकता का एक स्पष्ट प्रदर्शन है। वे एकांत जगहों पर पाये जाते थे और शायद पूर्व आर्य सम्प्रदायों के कामेच्छाओं के देवताओं के रूप में प्रसिद्ध रहे होंगे। यक्ष को अक्सर पत्थर की ऐसी मूर्ति के रूप में स्थापित किया जाता था जो गांव में एक पवित्र वृक्ष के नीचे होती थी, जो उस गांव की सम्पन्नता को सुनिश्चित करती थी। 

यक्ष की साथी, यक्षिणी वनस्पतियों की देवी मानी गई। कुछ यक्ष बिमारियों और प्रकोप का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। अन्य अलौकिक शक्तियों के समान यक्ष भी मनुष्य के लिए कल्याणकारी या हानिकारक हो सकते हैं। पूरे समुदाय के संरक्षक के रूप में उन्हें अक्सर स्थानीय मंदिरों में और घरों की दहलीज पर एक शक्तिशाली पुरूष के रूप में दर्शाया गया है। बाद की पौराणिक कथाओं के अनुसार यक्षों का राजा कुबेर, को माना गया है जो कि धन के देवता हैं। 

अन्य शक्तियों में प्रेत को भी शामिल किया गया जो कि नवमृत लोगों की आत्मायें होती हैं। लम्बे समय से मृत लोगों की आत्मा पितृ कही जाती हैं, तो भी प्रेत और पितृ दोनों ही इस संसार में सक्रिय होते हैं और अवसर आने पर अपने वंशजों की सहायता करते हैं। ऐसी आत्मायें जिनके वंशज उनका विधि विधान से (श्राद्ध) नहीं करते हैं और (पिण्ड) रीति का भी पालन नहीं करते हैं कभी भी पितृ में शामिल नहीं हो पाती हैं, और इस प्रकार वे कई पीढ़ियों तक अतृप्त भटकती रहती हैं।

उन लोगों की आत्मायें जिनकी मृत्यु हिंसक तरीके से होती है, भूत  में बदल जाती हैं और किसी विशिष्ट प्रेत में समा जाती हैं, विशेषकर उसमें जिसकी मृत्यु अप्राकृतिक तरीके से हुई हो या जिसका अंतिम संस्कार उचित विधि विधान से सम्पन्न नहीं हुआ हो। ऐसे भूत पेड़ों के नीचे रहते हैं या बड़े भवनों के खण्डरों में पाये जाते हैं तथा उत्तर भारत में कई जगह इनकी पूजा होती है। 

प्रेत, और अन्य दानवीय आत्मायें पिशाच कहलाती हैं तथा वे मृत लोगों के बीच युद्ध-भूमि में या श्मशान घाट में नृत्य करती हुई प्रकट होती हैं। वें अंधेरे, निर्दयता, हिंसा और मृत्यु का मानवीयकरण हैं। कुबेर के पर्वत के रक्षक यतुधनं भी एैसे ही माने जाते हैं। 

मनुष्य और देवताओं के बीच के गोलार्द्ध में एक और प्रजाति आती है जिसे गंधर्व कहा जाता है जो कि दिव्य संगीतकार होते हैं और धरती पर रहने वाले संगीतकारों, गायकों और नृतकों को प्रेरित करते हैं। उनकी नारी साथी को अप्सरा कहा जाता है जो कि परी के समान होती हैं, और वे देवतओं के दरबार में नृत्य करती थीं और जिनको लेकर कई युद्ध भी हुए। अप्सरा और गंधर्व किन्हीं विशिष्ट वृक्षों पर रहते थे। 

योगिनी (योगी का स्त्रीलिंग स्वरूप) को चुड़ैल माना जाता है, जो भारतीय परम्परा में प्रचलित स्त्री के प्रति घृणा की प्रवृत्ति को दर्शाता है, और इस बात को भी बताता है कि महिलाओं के योग अभ्यास पर प्रतिबंद्ध लगा दिया गया था। योगिनी को दुर्गा और शिव की साथी के रूप मे और कभी-कभी दुर्गा की सेना में शामिल बताया गया है। दुर्गा के साथ शामिल अन्य पिशाचिनियों में शाकिनी और डाकिनी भी शामिल हैं, जो कि कच्चा मांस खाती हैं। डाकिनी का उल्ल्ेख हिन्दुओं के साथ-साथ बौद्ध तंत्र में भी आता है। 

4.0 ब्राह्मणवाद के पंथ  

नास्तिकता की प्रकृति (प्रारंभ में शास्त्र विहीन धर्म नास्तिकता लिये हुए थे और किन्हीं अर्थां में वे नैतिक भी थे क्योंकि उन्होने आत्मा, परमात्मा और ईश्वर जैसे प्रश्नों पर अस्पष्ट वाद-विवाद नहीं किया) वाले धर्म के साथ-साथ, निश्चित आस्तिकता की प्रकृति के धर्म का भी विकास हुआ। इन धर्मों का विकास जिस केन्द्रीय तथ्य के आसपास हुआ वे वैदिक देवता नहीं थे बल्कि कुछ परम्परागत स्रोत थे। वास्तव में पूर्व वैदिक और उत्तर वैदिक लोक तत्व अपने उद्गम में बहुत हैं। इन आस्तिक आंदोलनों का जिस महत्वपूर्ण घटक से विकास हुआ वह था भक्ति (भक्त का भगवान विषेश के प्रति समर्पण) इसी से प्रेरणा लेकर वैष्णव, शैव और शक्ति धर्मां का विकास हुआ जो कि वास्तव में परम्परागत ब्राह्मणवाद के ही घटक माने जाते हैं। 

4.1 वैष्णव धर्म 

वैष्णववाद का उद्गम और विकास भागवतवाद से जुड़ा हुआ है। वैष्णव धर्म का उदगम गुप्तकाल के पहले हुआ था, किंतु गुप्तकाल के दौरान इसने भागवत की शिक्षाओं को अपनाना प्रारंभ कर दिया। भागवत के सिद्धांतों को अपनाने की यह प्रक्रिया गुप्तकाल के अंत तक पूर्ण हो गई, और वास्तव में भागवत के सिद्धांतों को दर्षाने वाला नाम अब बन गया वैश्णववाद जो इस बात का सूचक था कि उत्तर वैदिक काल में जिस विष्णु देवता की पूजा होने लगी थी उन्हें अवतार के रूप में पूजा जाना प्रारंभ किया जा चुका था। 

विष्णु कई स्थानीय देवताओं के मिश्रण का परिणाम थे। इसमें पश्चिमी भारत में पूजे जाने वाले एक प्रसिद्ध नायक वासुदेव; एक सौर्य वैदिक देवता और उपनिषदों में वर्णित दार्शनिक ‘परम‘ तत्व भी शामिल हैं।

देवताओं का यह सम्मिश्रण दूसरी शताब्दी ई.पू. घटित हुआ होगा, क्योंकि बेसनगर में प्राप्त एक स्तम्भ में यह खुदा हुआ है कि ग्रीक राजदूत हेटियोडोरस भगवानों के भगवान ‘वासुदेव‘ का भक्त था। यह माना जाता है कि वासुदेव ने ही भागवत धर्म की  उत्पत्ति की जिनमें कुछ सौर शक्ति भी शामिल थी और बाद में यह वैष्णव धर्म के रूप में रूपातंरित हो गया। 

अवतार वाद के सिद्धांत ने स्थानीय लोकप्रिय देवताओं के वैष्णव धर्म में मिल जाने में बहुत सहायता प्रदान की। इसका विकास, महाकाव्य काल में हुआ और इसका उल्लेख पुराणों में मिलता है।

जब विष्णु का उदय एक महान ईश्वर के रूप में हुआ उस बिंदु का कालखण्ड तय करना कठिन है क्योंकि यह कहीं सुदूर अतीत में खो चुका है; किंतु कहीं-कहीं इसका उल्लेख अभी भी उपलब्ध है; ऋगवेद में प्रचुरता के देव जिन ‘भाग‘ को माना गया था वह वरूण था और बाद में यह विष्णु के रूप में परिवर्तित हो गया; और ब्राह्मणों के अनुसार विष्णु वह परमात्मा हैं जिन्होने इस ब्रहमाण्ड की रचना अपने शारीरिक अंगों से की। 


4.1.1 वैष्णव पंथ  

भागवतः प्रारंभ में भागवत और पंचरात्रा अलग-अलग पंथ थे, जहां पंचरात्रा देवतुल्य ऋषि नारायण की पूजा करते थे, जबकि भागवत देवतुल्य वृष्णी नायक वासुदेव के पूजक थे। दोनों ही पंथ बाद में किसी अवस्था में, नारायण और वासुदेव को एक ही मानने के कारण मिल गये। 

भागवत एक आस्तिक और समर्पणवादी पंथ है जिसका उदगम ईसा से कुछ शताब्दियों पूर्व हुआ। मूलतः यह भागवत गीता पर आधारित है, किंतु बाद में भागवत पुराण और विष्णु पुराण इसके प्रमुख गं्रथ बन गये।

जब दूसरी शताब्दी ईस्वी में भागवतपंथ अपने चरम पर पंहुचा तो इसे पंचरात्र आगम के नाम से जाना जाने लगा। इस शब्द का अर्थ है पांच रात्रियां, किंतु इसका महत्व अभी भी ज्ञात नहीं है। 

राजपूत राजाओं द्वारा भागवत पंथ को समर्थन देने के कारण यह सम्पूर्ण भारत में फैल गया। दक्षिण भारत में, विशेषकर तमिलनाडु में, भागवत आंदोलन मुख्यतः बारह अल्वर (जिन्हें ज्ञान का देवता माना जाता था) के कारण फैल गया। अल्वर आठवीं और नौवीं शताब्दी के दौर में फले-फूले। 

अल्वर समाज के विभिन्न वर्गां का प्रतिनिधित्व करते थे। उनमें से एक मालाबार के राजा थे, एक प्रसिद्ध महिला अंडल थी, जिनके नाम पर उनके जन्म स्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण भी किया गया, एक निम्न जाति में जन्म लिये, और एक पाप का प्रायश्चित करने वाले श्री विल्लिपुट्टुर भी थे। अल्वरों के पश्चात् आचार्यां का उदय हुआ जिन्होंने भक्ति और ज्ञान को कर्म के साथ मिला दिया। 

पंचतंत्रः एक परम्परा के अनुसार पंचतंत्र की शिक्षाओं को 100 ईस्वी में शांडिल्य नामक ऋषि ने व्यवस्थित किया था, जिन्होनें वासुदेव कृष्ण के प्रति सम्पूर्ण समर्पण पर जोर दिया था। 

वासुदेव कृष्ण को एक वैश्विक पहचान देने के लिए उन्हें और उनके परिवार को एक विशिष्ट ब्रह्ममांडीय उद्भव (व्यूह) का सदस्य बताया गयाः प्रारंभिक पंचरात्र पंथ के लिए और बाद के कालखण्ड में विकसित वैष्णव पंथ के लिए यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। पहली शताब्दी के आसपास, उद्भव सिद्धांत की रचना भी तभी हुई जब अवतारवाद के सिद्धांत का उदय हुआ। 

पंचरात्र में विष्णु, वासुदेव या नारायण को सर्वोच्च ब्राह्मण शक्ति के रूप में निर्विवाद स्वीकार किया गया, और यह भी माना गया की इन्ही की शक्ति से इस ब्रह्ममाण्ड का निर्माण हुआ है। समय के प्रांरभिक बिन्दु पर, परम तत्व वासुदेव ने स्वयं से व्यूह समकृष्ण (कृष्ण के एक भाई का नाम) की रचना की जो प्रकृति के प्रतिनिधि थे। इन दोनों से मिलकर, कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का जन्म हुआ जिन्हें मन माना गया। इनसे अनिरूद्ध (कृष्ण के पोते) का जन्म हुआ जो आत्मचेतना का स्वरूप है। अंतिम दो तत्वों से पंचभूत और महाभूत का विकास हुआ जिन तत्वों से ब्रह्म और इस धरती के बाकी के सभी तत्वों का विकास हुआ। 

अंतिम तीन विभूतियों को न केवल दिव्य चरित्र बल्कि भगवान माना जाता है। इस प्रकार ईश्वर न केवल एक है बल्कि अनेक हैं। बाद में जब विष्णु के अवतारवाद की अवधारणा प्रसिद्ध हो गई और जब गुप्तकाल में वैष्णव धर्म प्रचलित हो गया तब इनकी पूजा में कमी आ गई। उपरोक्त वर्णित सभी देवतुल्य नायक मथुरा क्षेत्र में यदुवंशियों के द्वारा पूजे जाते थे। एक मान्यता के अनुसार कृष्ण यदुवंशी, ही थे तथा इस पंथ का विस्तार यादवों के कुलों के पश्चिमी भारत और दक्षिणी भारत में पलायन के साथ फैल गया। 

वैखानसः इस परम्परावादी पंथ की स्थापना महान ऋषि वैखानस के द्वारा की गई जिनकी शिक्षाओं को प्राचीन ऋषियों अत्री, मारिची, भृगु और कश्यप के द्वारा फैलाया गया।

प्रारंभिक रूप से यह पंथ कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा के द्वारा प्रारंभ किया गया था, किंतु बाद में यह एक परंम्परावादी वैष्णव के रूप में विकसित हो गया। तीसरी शताब्दी ई.पू में रचित वैखानस सूत्र में वैदिक सूर्य विष्णु और नारायण को एक ही मान लिया गया।

वैखानस पारंपरिक सिद्धांत इस पंच तत्व अवधारणा में निहित हैं कि विश्णु ब्राह्मण हैं (सर्वोच्च शक्ति), पुरूश हैं, अच्युत के रूप में अपरिवर्तनीय हैं, सत्य हैं, व अनिरूद्ध के रूप में अविखंड़नीय हैं। पंचमार्गी रस्में (अनुश्ठान) करने से बुराई का नाष होता है व विश्णु सब पर कृपा बरसाते हैं।

विष्णु के दशावतारों की पूजा भी विशिष्ट उद्देश्य से की जाती है। इस आंदोलन का एक महत्वपूर्ण गुणधर्म छवि की पूजा करना है जो कि इस पर वैदिक अपुश्ठान प्रभावों को दर्शाता है। 

दसवीं शताब्दी के अंत तक वैखानसों के ऋषि वैष्णव मंदिरों में मुख्य पुजारी हुआ करते थे। यद्यपि श्री वैष्णव पंथ के उदय के साथ-साथ इनमें से कुछ पटल से हट गये, किंतु कुछ मंदिरों जैसे कि तिरूपति के वेंकटेश्वर मंदिर और कांचीकामकोटी पीठ में आज भी संस्कृत में इनके द्वारा पूजा होती है। 

अलवर या वैष्णव संतः गुप्तकाल के बाद से लगाकर 13वीं शताब्दी के पहले दशक तक वैष्णववाद का इतिहास दक्षिण भारत में केन्द्रित है। वैष्णव संत, जिन्हें दक्षिण भारत में अल्वर के नाम से जाना जाता था ने एक परम आत्मा जो कि एक भक्ति रस में डूबी हुई आत्मा है, कि वंदना विष्णु के रूप में की, और तमिलनाडु में इनके भजनों को सामूहिक रूप से प्रबंध कहा जाता है। बारह अल्वरों में, नामवल्लर और तिरूमलीसाई अल्वर प्रसिद्ध हैं। 

वैष्णव आचार्यः अल्वरों के द्वारा प्रचलित विष्णु भक्ति की धारा का विकास वैष्णव आचार्यों के द्वारा किया गया। दक्षिण भारत में कई वैश्णव आचार्य हुये। रामानुजाचार्य और यमुनाचार्य उन प्रारंभिक आचार्यों में से थे जिन्हांने उपनिषदों के आधार पर विशिष्ठाद्वैत सिद्धांत की स्थापना की जो की शंकराचार्य के अद्वैतवाद के एकदम विपरीत था। शंकर का अद्वैतवाद न तो वैष्णव धर्म और न ही शैव धर्म से संबंधित था बल्कि यह तो निर्गुण शाखा का समर्थक था। दक्षिण भारत के दो प्रमुख वैष्णव संत माधवाचार्य और निम्बार्क भी थे जिन्होंने क्रमशः द्वैतवाद और द्वैताद्वैतवाद की स्थापना की।

इस प्रकार, दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म में अल्वर इसके भावनात्मक पक्ष के प्रतिनिधि थे वहीं आचार्य लोगों ने इसके बौद्धिक पक्ष को प्रबल किया।

4.2 शैव पंथ  

उद्गम और विकासः वैष्णव पंथ के विपरीत शैववाद का विकास सुदूर अतीत में हुआ था। वैदिक पूर्व धर्म, अर्थात् सिंधु घाटी सभ्यता के धर्म का भी एक प्रमुख पक्ष पशुपति महादेव (जिन्हें शिव का ही एक रूप माना जाता है), की पूजा करना था। वैदिक धर्म में यही पशुपति महादेव रूद्र के रूप में पूजे जाने लगे।

यद्यपि, यह वैदिककाल के पश्चात ही हुआ की व्याकरण निर्माताओं ने हमें शैववाद की एक धार्मिक पंथ के रूप में उन्नति की जानकारी दी। उदाहरण के लिए पाणिनी ने उनके समकालीन एक शिवपूजक समूह का उल्लेख किया है। पतंजली ने भी अपने महाभाष्य में शिव भागवत समूह का उल्लेख किया है। पतंजली ने अप्रत्यक्ष रूप में बहुत संक्षेप में इन शिव भक्तों का उल्लेख किया है व उनके शक्तिषाली एवं ‘विचित्र‘ अनुश्ठानों का भी जिक्र किया है। इसके माध्यम से हमें पाशुपत पंथ के अतिशय धार्मिक विश्वासों के बारे में ज्ञात होता है कि जिनका वर्णन पाशुपत सूत्र में किया गया है।

इस प्रकार उत्तर-उपनिषदिकाल में जब शिव को वैदिक ईश्वर रूद्र के समतुल्य मान लिया गया तब शैव पंथ अपने चरम पर पहुंचा। शिव शब्द का अर्थ है ‘शुभत्व‘ प्रदान करने वाले। शिव के कई नाम उनके विभिन्न कार्यों को दर्शाते हैं।

  1. समय की एकछत्र शक्ति के रूप में उन्हें ‘काल‘ कहा जाता है और उन्हें मानव खोपड़ी की माला से सुसज्जित किया जाता है, और उनके शरीर पर नाग लिपटा हुआ दर्शाया जाता है जो कि समय चक्र का प्रतीक है।
  2. मृत्यु के देवता के रूप में उन्हें ‘महाकाल‘ या ‘हर‘ माना जाता है। परिणामस्वरूप यह माना जाता है कि वह युद्ध के मैदान में श्मशान में नृत्य करते हैं।
  3. पर्वतों के ईश्वर के रूप में उन्हें ‘गिरीश‘ कहा जाता है। 
  4. मवेशियों और शिकारियों के ईश्वर के रूप में उन्हें ‘पशुपति ‘ कहा जाता है जो षिकार, युद्ध व बीमारी से जीवन के नाष का दर्षन हैं। 
  5. भूतों के ईश्वर के रूप में उन्हें ‘भूतनाथ‘ माना जाता है।
  6. परमयोगी के रूप में उन्हें ‘महायोगी‘ माना जाता है।
  7. योग ज्ञान, संगीत और वेदों के परमज्ञानी गुरू के रूप में उन्हें ‘दक्षिणमूर्ति‘ कहा जाता है।
  8. परमज्ञान से उत्पन्न आशीर्वाद प्रदान करने के कारण उन्हें ‘शंकर‘ कहा जाता है।
  9. नृत्य के ईश्वर के रूप में उन्हें ‘नटराज‘ कहा जाता है इस रूप में वे ब्रह्मंणीय उर्जा का रूप हैं।

शिव की पूजा लिंग के रूप में की जाती है, जो कि जीवन का स्रोत है, जिसमें विनाश और मृत्यु के बीज भी छुपे होते हैं। स्त्री का यौनांग योनि शिव की शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है, जो कि उनकी वैश्विक शक्ति का स्रोत है। जब लिंग और योनि को एक साथ दर्शाया जाता है तो यह इस ब्रह्ममांड के उद्गम को भी दर्शाते हैं। 

कुछ पुराणों के अनुसार इस सम्पूर्ण चराचर जगत का निर्माण शिव के पंचमुखों- ईशान, तत्पुरूष, अघोर, वामदेव और सद्योजत के सिद्धांत के द्वारा हुआ है। शिव के पांच मुख पांच दिशाओं के शासकों के रूप में दर्शाये गये हैं, जिनमें चार दिशाएं और एक शीर्ष मुख मिलकर सम्पूर्ण अस्तित्व को दर्शाते हैं।

शैवधर्म का विकास गुप्तकाल के दौरान हुआ, यद्यपि उसी दौर में वैष्णव धर्म भी खूब फला-फूला। दक्षिण भारत में, पल्लव राजा महेन्द्रवर्मन प्रथम जो पहले जैन थे बाद में शैव हो गये। शैववाद के विकास के साथ-साथ उन्हें राजकीय संरक्षण भी मिलने लगा, जैसा कि 63 अडियारों के द्वारा रचित भक्तिमय भजनों में देखा जा सकता है। 

शैव संत या नैयनारः दक्षिण भारत में वैष्णववाद के समान ही शैव पंथ का विकास शैवसंतों, जिन्हें नैयनार कहा जाता था के कारण हुआ। उनकी कविताओं को तमिल में तेवराम या द्रविड़वेद कहा गया। कुल मिलाकर 63 नैयनार संत हुए जिनमें से प्रमुख तिरूज्ञान सम्बंधर और तिरूणावुक्कारासु (अप्पर) थे। 

शिव आचार्यः नैयनारों के द्वारा प्रचलित भावना प्रदान शैवमत को बौद्धिक आचार्यों, जो कि आगमन्त, शुद्ध और विराशैव जैसे आंदोलन से प्रभावित थे, का भी समर्थन मिला। आगमन्त सिद्धांत, 28 आगमों  पर आधारित है जिसमें शिव के विभिन्न रूपां का वर्णन किया गया है। अघोर शैवाचार्य इस मत के प्रमुख अनुयाया थे। शुद्धाशैव रामानुज की शिक्षाओं को मानते थे तथा श्रीकांत शिवाचार्य इस मत के प्रमुख समर्थक थे। विराशैव या लिंगायतों का नेतृत्व भाषव ने किया जो कि चालुक्य राजा बिजलाराय के एक मंत्री थे। भाषव ने अपने आंदोलन को मजबूती प्रदान करने के लिए अपनी राजनीतिक शक्तियों का भी उपयोग किया। वास्तव में यह एक सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन भी था। ये सारे लोग रामानुजाचार्य की शिक्षाओं से प्रभावित थे।

शैवमतः लकुलेश के द्वारा बनाया गया पशुपति सिद्धांत मूलतः द्वैतवादी था। पशु (अर्थात् आत्मा) का अस्तित्व, पति (अर्थात परमात्मा) के साथ ही था, और योग और विधि क्रियाओं के माध्यम से दुखों से मुक्ति इसका लक्ष्य था। विधि विभिन्न अर्थहीन और असामाजिक गतिविधियों का एक समूह थीं। कापाली और कालमुख भी पाशुपत पंथ के ही उत्पाद थे और इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि इनका विकास गुप्तकाल में हो चुका था। शैवमत के दूसरे अतिवादी पंथ अघोरी (कापालिकों के उत्तराधिकारी) और गोरखनाथी थे। 

उपरोक्त वर्णित कठोर मतों के अतिरिक्त, शैव धर्म के कुछ सामान्य रूप भी उत्तरी और मध्यभारत में प्रचलित रहे। कश्मीर में शैव मत की दो धाराएं प्रचलित रहीं। वासुगुप्त ने प्रत्याभिग्न धारा और उनके शिष्य कफलता व सोमानंद ने स्पंद शास्त्र धारा की स्थापना की। इन सारी शिक्षाओं को अभिनव गुप्त ने व्यवस्थित रूप से सजाया और एक नवीन एकेश्वरवाद जिसे त्रिग कहा जाता है, की स्थापना की। एक अन्य मध्यममार्गी शैव पंथ जिसे मत्तमयूर कहा जाता है भी मध्यभारत में फला-फूला। मध्यभारत के षिलालेख सबूत बताते हैं कि उनके मत्तमयूर आचार्य कलचुरी-छेदी राजाओं के गुरू भी थे। 

पाशुपतः यह शैवमत का सबसे प्रारंभिक रूप रहा है जिसमें शिव को पशुओं के देवता के रूप में पूजा जाता है। इस मत की स्थापना उड़ीसा और पश्चिमी भारत में सातवीं से ग्यारवीं शताब्दी के मध्य हुई। 

लकुलेश (लकुलिष) को पशुपति मत का प्रवर्तक माना जाता है, जो कि शिव के ही एक अवतार माने गये हैं। लकुलेश का प्रमुख चिन्ह लकुटा था जो कि लिंग का ही प्रतीक था। उन्हें सामान्यतः नग्न अवस्था में ही दर्शाया जाता है। इस अवस्था में दर्शाने का उद्देश्य कामोत्तेजना को दर्शाना नहीं बल्कि योग तकनीकों के द्वारा काम पर नियंत्रण करने से है। 

इस पंथ का प्रमुख ग्रंथ लकुलिश द्वारा रचित पाशुपत सूत्र है। प्रारंभिक रूप से इसमें इस पंथ के रीति-रिवाजों और अनुशासन के बारे में बताया गया है। 13वीं शताब्दी में लिखे गये एक शिलालेख के अनुसार लकिलश के चार शिष्य थे जिन्होनें चार उपपंथों की स्थापना की। छठी शताब्दी के बाद से ही उत्तरभारत के कई क्षेत्रों में पशुपति मंदिरों की स्थापना की गई, किंतु 11वीं शताब्दी तक आते-आते इस आंदोलन का पतन हो गया। 

इस पंथ का अंतिम उद्देश्य शिव के साथ एकाकार हो जाना रहता था और इस प्रकार कोई भी भक्त अपने कष्टों से मुक्ति पा सकता था। इस उद्देश्य की विभिन्न अवस्थाएं थीं। पहली अवस्था में किसी भी अनुयायी को मंदिर में रहकर सेवा करनी पड़ती रहती थी और वह या तो नग्न रहता था या केवल एक ही कपड़ा पहन सकता था। बाद में वह मंदिर भी छोड़ देता था, अपने पंथ से सम्बंधित सभी चिन्हों का त्याग कर देता था, और किसी पागल के समान अभद्र व्यवहार करता था, और इस प्रकार परम्परावादी हिन्दुओं के लिए घृणा का पात्र बन जाता था। दूसरों के द्वारा की जाने वाली आलोचना भक्त के बुरे कर्मों के प्रभाव को खत्म करती थी तथा वह उन लोगों के अच्छे कर्मों का भागीदार बनता था जो उसे कोसते थे। भक्त का अभद्र व्यवहार वह माध्यम होता था जिसके द्वारा वह सामान्य समाज से विलगित हो जाता था और जिसके कारण उसके अंदर एक समाज से शांत अलगाव की भावना तैयार हो जाती थी और इसलिए वह या तो किसी गुफा, किसी खण्डर या श्मशान घाट में रह सकता था। बची हुई अवस्थाओं में भक्त को बहुत कठिन तब अभ्यास करना पड़ता था जिसके द्वारा वह इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर सकता था। एक लम्बी और कठोर प्रक्रिया के बाद भक्त को शिव के समान एक अतिमानवीय शरीर की प्राप्ति हो जाती थी और वह उसकी सर्व शक्ति और प्रकृति का उपयोग कर सकता था। पशुपति आंदोलन एक मात्र ऐसा आंदोलन था जिसमें पराभौतिक शक्तियों की प्राप्ति के द्वारा मुक्ति का मार्ग बताया गया था। 

कापालिक और कालमुखः 10वीं से लगाकर 13वीं शताब्दी के मध्य तक, मुख्य रूप से कर्नाटका में फले-फूले यह दो अतितांत्रिक समुदाय थे। सम्भवतः यह पशुपति आंदोलन की ही शाखाएं थीं। उन्होनें रचना की विविधता को दो तत्वों तक सीमित कर दिया - ईश्वर, जो रचनाकार हैं तथा रचना जिसका ईश्वर ने निर्माण किया है। 

दुर्भाग्यवश उनके द्वारा रचित कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। उनके बारे में 7वीं शताब्दी और उसके बाद रचे गये पुराणों में गंभीर आरोप लगाए गए हैं।  

कुछ शिलालेखों के अनुसार कापालिक समुदाय का उद्गम 6ठी शताब्दी के आसपास दक्षिण-भारत में हुआ था। 8वीं शताब्दी के अंत तक वे उत्तर की ओर बढ़ने लगे; किंतु 14वीं शताब्दी तक उनका लगभग पतन हो गया। उनके पतन का एक प्रमुख कारण लोकप्रिय लिंगायत आंदोलन का उदय था, या शायद वे दूसरे शैव तांत्रिक समुदायों जैसे कि कनफट और अघोरियों के साथ मिल गये।

कापालिका उस प्राचीन तपस्वी समुदाय की पद्धति पर केन्द्रित थे जो शिव के भयानक स्वरूप, महाकाल, और कपालभृत और भैरव की पूजा करते थे। वे जादुई अभ्यास और सिद्धियों की प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहते थे। 

सारी सामाजिक और धार्मिक वर्जनायें जानबूझकर समाप्त कर दी गई थीं। वे मांस खाते थे, नशीले पदार्थों का सेवन करते थे, तथा सामूहिक रूप से काम क्रिया में मग्न रहते थे ताकि शिव के साथ एकाकार हो सकें। वे मानव की खोपड़ी में खाना खाते थे और शिव की पूजा करते थे। उनके सारे पात्र मनुष्य की हड्डियों से बने होते थे। 

कालमुख समुदाय कर्नाटक में 11वीं से 13वीं शताब्दी के मध्य फला-फूला। वे मानव खोपड़ी का उपयोग प्याले के समान द्रव्य पीने के लिए करते थे, जो मानव के क्षणभंगुर होने का सूचक था, तथा वे अपने शरीर पर मुर्दे की राख भी लगाते थे। 

दोनों ही समुदायों की शिक्षाएं लगभग समान थीं। दोनों ही पंथों में योगी को महाव्रत की शपथ लेनी होती थी जिसका अर्थ अब तक अज्ञात है, और दोनों ही पंथों में योग अनिवार्य था। दोनों ही समुदायों में मानव बलि तथा शराब, भैरव और उनकी साथी चण्डिका को अर्पित की जाती थीं।

अघोरीः यह एक तांत्रिक आंदोलन था, जो अब लगभग समाप्त हो चुका है, और इसकी दो शाखाएं मानी जाती थीं - शुद्ध और मलिन। अघोरी वास्तव में कापालिक पंथ के ही उत्तराधिकारी थे। इनमें देवी शीतला, परनागिरी देवी और काली की पूजा की जाती थी। इस तंत्रवाद में गुरू का स्थान बहुत उच्च होता था।

ना तो कोई धार्मिक या जातीय बंधन इसमें लागू था और ना ही किसी प्रकार की मूर्ति या छवि की पूजा की जाती थी, और सभी भक्तों को ब्रह्ममचर्य का पालन करना होता था। मानवबलि, पशुबलि और अन्य कई क्रूर प्रथायें इसमें प्रचलित थीं। इसमें सभी प्रकार का वर्जित मास का भक्षण किया जाता था जिसमें मलमूत्र का सेवन भी किया जाता था। क्योंकि यह जमीन की उपजाऊ क्षमता को बढ़ाता है। इसलिए यह माना जाता था कि इसे खाने से मस्तिष्क की उपजाऊ क्षमता भी बढ़ेगी। 

अघोरी लोग खानाबदोश जीवन व्यतीत करते थे। प्रत्यके गुरू के साथ एक कुत्ता रहता था, जैसा कि शिव के भैरव रूप में होता है। अघोरी योगियों को मृत्यु होने पर दफनाया जाता था ना कि अग्नि संस्कार किया जाता था, और यह माना जाता था कि वे एक शाश्वत और गहरी ध्यानावस्था में चले गये हैं।

कनपट योगी या गोरखपंथीः गोरखनाथ, जो कि पूर्वी बंगाल के मूल निवासी थे, ने इस आंदोलन की शिक्षाओं को संगठित किया। उनके अनुयायी उन्हें शिव का रूप मानते हैं। यह माना जाता है कि गोरखनाथ के पास महान जादुई और किमीयायी शक्तियां थी। उन्हांने पशुपति शिक्षाओं को तंत्र और योग से जोड़ा।  

इस कठोर तपस्वी गुट को उनके कटे हुए कान के आधार पर जाना जाता है और वे सींग या कांच से बनी हुई बड़ी सी बाली पहनते थे। 

इस मत में श्मशान में तंत्रसाधना और मानव मांस भक्षण जैसी विधि का इस्तेमाल किया जाता है। यहां योगी का अंतिम उद्देश्य शिव के साथ एकाकार हो जाना होता है। कुछ गं्रथों में 32 प्रकार के योगिक आसनों का उल्लेख मिलता है, जबकि शिवसंहिता में 84 आसनों का उल्लेख है जो सभी जादुई और आध्यात्मिक मूल्यों से भरपूर हैं। कुछ आसन बीमारी दूर करते हैं, जबकि कुछ बुढ़ापे और मृत्यु से बचाते हैं जबकि कुछ अन्य आसनों से सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

इस आंदोलन में 9 नाथ और 84 सिद्धों का बहुत महत्व है तथा उन्हें लेकर कई लोककथाएं बनाई गई हैं। गोरखनाथ की शिक्षाएं वैश्विक हैं जिनमें जातिप्रथा का विरोध किया गया है। भोजन को लेकर निषिद्धियां नहीं हैं, केवल गाय और सुअर के मास को प्रतिबंधित किया गया है। योगियों को विवाह के लिए अनुमति प्रदान की जाती है तथा साथ ही वे अफीम आदि का सेवन भी कर सकते हैं।

इस मत में मृत योगी को समाधि की अवस्था वाले आसन में दफनाया जाता है क्योंकि यह माना जाता है कि वें शाश्वत समाधि में चले गये हैं तथा उनकी कब्र को समाधि कहा जाता है। उनकी समाधि के उपर लिंग और योनि के चिन्ह बनाये जाते हैं। 

कनपट योगी भैरव, शक्ति और शिव के मंदिरों में पुजारी होते हैं। किसी समय गोरखनाथी योगियों को अघोरी भी माना जाता था। 

आज गोरखनाथी पंथ का पतन भारत और नेपाल दोनों ही जगह हो गया है, जहां 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उन्हें राजकीय संरक्षण प्राप्त था। गोरखनाथ को नेपाल के गोरखावंश का कुल देवता भी माना जाता है। 

आगमन्त या शैव सिद्धांतः बहुदेववादी दर्शन का यह एक महत्वपूर्ण पंथ है, जिसके पूजक दक्षिण भारत में पाये जाते हैं। यह संसार को एक सत्य मानता है तथा आत्मा की बहुलता को स्वीकारता है। इस आंदोलन का विकास आंशिक रूप से शैव संतों के भजनों और आंशिक रूप से नयनारों की भक्तिमयी कविताओं के कारण 7वीं से लगाकर 10वीं शताब्दी के मध्य हुआ। 

इस पंथ के चार प्रकार के अधिकारिक गं्रथों में वेद, 28 शैव आगम, 12 तिमुराई और 14 शैव सिद्धांत शास्त्र हैं। यद्यपि वेदों का महत्व बहुत उच्च है किंतु आगम उच्चतर महत्व के माने गये हैं क्योंकि यह शिव के द्वारा ही भक्तों को दिये गये। सिद्धांत शास्त्र की रचना 13वीं और 14 शताब्दी के मध्य 6 गुरूओं के द्वारा की गई, जो सभी निम्न कुल में उत्पन्न हुए थे। तमिलग्रंथों में उन कविताओं को संग्रहित किया गया है जो तीन महान शैव गुरूओं-अप्पार, तिरूजन्ना-सम्बंधार और सुंदरमूर्ति के द्वारा रची गईं। 

मैकंटर तमिल शैव पंथ के पहले गुरू माने गये हैं जिनकी रचनायें षिवज्ञाहोदम में संग्रहित हैं (13वीं सदी)। किंतु इस पथ के स्थापक अघोर शिवाचार्य थे। 

शैव सिद्धांत का उद्देश्य शाश्वत आनंद को प्राप्त करना तथा द्वैत में अद्वैत का अनुभव करना है। आज शैव सिद्धांत को मानने वाले लोग तमिलनाडु और उत्तरी श्रीलंका में रहते हैं। 

कश्मीरी शैववादः यह एक एकेश्वरवादी पद्धति है जिसे ‘त्रिक‘ भी कहा जाता है जिसकी स्थापना कश्मीर में अभिनव गुप्त ने (993-1015 ईस्वी) प्रारंभिक संतों की शिक्षाओं के आधार पर की। उसने सोमनंद द्वारा रचित शिव दृष्टि  पर कई टीकायें लिखीं। उसके द्वारा रचित टीका का संक्षिप्त रूप उसके एक शिष्य उत्पल द्वारा प्रत्याभिन्न सूत्र के नाम से लिखा गया।

हालांकि, वासुगुप्त प्रत्याभिन्न शाखा के पहले गुरू थे जिन्होंने इसकी स्थापना 9वीं शताब्दी में की। उन्होनें बताया कि आत्मा के योग ध्यान के द्वारा ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसका एक नाम त्रिक है जो इसके त्रि-स्तरीय स्वरूप को दर्शाता है यह पंथ सांख्य, अद्वैत वेदान्त और पंचरात्र सिद्धांत से प्रभावित है। 

इस पद्धति में शुरूआत अति महत्वपूर्ण या सर्वोपरि है। षिव की दिव्य कृपा से, आकांक्षी को सच्चा गुरू प्राप्त होता है जो उसे दीक्षा प्रदान करता है। इस प्रकार ‘‘कर्मठता की शक्ति‘‘ (क्रिया शक्ति) उसकी आत्मा में जागृत होती है


और इससे उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

शुद्धाशैव या शिवाद्वैतः इस समुदाय की स्थापना श्रीकांत के द्वारा की गई थी। इसके कुछ गुणधर्म शैव सिद्धांत और कश्मीरी शैववाद के समान हैं, साथ ही कुछ गुणधर्म अपने आप में अद्वितीय भी हैं। श्रीकांत की शिक्षाएं वेदान्त सार पर आधारित हैं। इसमें शिव को सर्वोच्च अर्थात् परम शिव माना गया है, और उन्हें ही ब्रहम कहा गया है जो कि इस संसार के संचालन की एक मात्र शक्ति हैं।

इस पंथ के अनुसार मुक्ति का एक मात्र मार्ग शिव के प्रति गहरी ध्यान अवस्था में पहुचना ही है, जहां यह ज्ञान हो जाता है कि शिव प्रत्येक जीव में बसे हुए हैं।

वीरशैवः यह एक दक्षिण भारतीय भक्तिमार्गी पंथ है, जिसे लिंगायत भी कहा जाता है। यह एक अद्वैतवादी या विशिष्टाद्वैत को मानने वाला पंथ है। यद्यपि वीरशैव पंथ के प्रमुख धार्मिक गं्रथ शून्यसंपदने में लिंगायत शब्द का उल्लेख नहीं है यह प्रतीत होता है कि शायद वीरशैव के लिए दूसरे पंथों द्वारा इस शब्द का प्रयोग किया गया होगा क्योंकि इनका सारा ध्यान लिंग पर ही होता है, क्योंकि वहीं एक मात्र दिव्यता का प्रतीक माना जाता है। 

भासव इस पंथ के संस्थापक थे, या यह कहा जाये कि उन्होनें ने इस पंथ को व्यवस्थित किया था। 16 वर्ष की अवस्था में उन्होंने घर छोड़ दिया था और वे संगम नामक तीर्थ नगरी में रहने लगे थे, जहां उन्होंने शैव धर्म में सुधार का कार्य किया। उन्होंने जातिप्रथा के बंधनों को समाप्त करने और विधवा पुनर्विवाह को प्रारंभ करने का प्रयास किया। बाद में वह राजा बिज्जल के यहां कल्याणी में मंत्री बन गये थे। राजा के दरबार में अपनी सेवाएं देते हुए उन्होंने कई जैन लोगों को शैव मत में रूपातंरित किया। किंतु उनके गैर-परम्परावादी विचारों के कारण वहां राजा और प्रजा के बीच तनाव बढ़ गया जिसके कारण उन्हें दरबार छोड़ना पड़ा। 1168 ईस्वी में भासव की मृत्यु के बाद, इस पंथ के कई अनुयायिओं को प्रताड़ित किया गया किंतु आज इस आंदोलन के अनगिनत अनुयायी कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में रहते हैं। 

इस पंथ में भक्तों को रोज की पूजा करने के लिए लिंग का एक छोटा स्वरूप दिया जाता है। इस लिंग को किसी ताबीज में बांधकर गले में पहना जाता है या पूजा के दौरान हाथ में रखा जाता है। वीर शैव पंथ में शिक्षा का प्रारंभ यज्ञोपवीत संस्कार के द्वारा होता है जो सामान्यतः शिशु अवस्था में ही किया जाता है। 

भासव ने बतलाया कि सभी पुरूष अपने आप में मंदिर होते हैं, और इसलिए बिना किसी पुजारी या रीतिरिवाज के शिव की पूजा प्रत्यक्ष तौर पर की जा सकती है। हालांकि इस पंथ ने भी अपने पुजारी गढ़े जो जंगम कहलाते हैं तथा जिन्हें शिव का अवतार माना जाता है। इस आंदोलन के लोगों ने किसी भी प्रकार के मंदिरों का निर्माण नहीं किया। इसमें महिलाओं को पुरूषों के बराबर का अधिकार दिया गया वे अपने पति स्वयं चुन सकती हैं।

इस पंथ के लोगों के लिए घमण्ड, बेईमानी, तुच्छता, पशुबली, मास भक्षण, मदिरा सेवन, ज्योतिष, बाल-विवाह, काम प्रदर्शन और दाह संस्कार आदि पर प्रतिबंध है। दाह संस्कार पर प्रतिबंध इसलिए है क्योकि यह माना जाता है कि मृत्यु के तत्काल बाद भक्त शिव का हो जाता है तथा उसकी रक्षा की जाना आवश्यक है, इसलिए इस पंथ में मृत शरीरों को समाधि अवस्था में दफनाया जाता है।

4.3 शक्तिवाद पंथ  

यद्यपि शक्तिवाद और तंत्रवाद दो भिन्न-भिन्न धाराएं थीं, किंतु आज यह दोनों लगभग समान मानी जाती हैं। दोनों ही पंथों में सर्वोच्च शक्ति के रूप में देवी शक्ति की पूजा की जाती है और उन्हें अंतिम सत्य अर्थात ब्रहम माना जाता है। इस प्रकार इन समुदायों के सदस्यों द्वारा माने जाने वाली ईश्वर नारी रूपा है। 

शक्ति धर्म की जड़ें प्रागैऐतिहासिक ‘धरा-संस्कृति‘ से प्रारंभ होती है जहां धरती को धार्मिक दर्जा प्राप्त था और उसे महान माता माना जाता था। भारतीय गांवों में ग्राम देवी इसी अवधारणा का विस्तार है। इस अवधारणा में कई सारे भारतीय तत्व शामिल हो गये हैं जिनमें कुछ भारतीय जनजाति संस्कृति के तत्व, कुछ द्रविड़ संस्कृति के तत्व और कुछ सिंधु घाटी सभ्यता की परम्परा भी शामिल है। वास्तविकता यह है कि शक्ति को कई सारे नामों से जाना जाता है जो उसकी प्रकृति के साथ निकटता को दर्शाती है, इसमें कई स्थानीय और जनजातीय देवियों के रूप भी मौजूद हैं। यद्यपि शक्ति धर्म शैववाद से निकटता से जुड़ा हुआ तो भी यह इससे किन्हीं अर्थों में भिन्न है।

ऋग्वेद के अनुसार वाक् देवी अलौकिक उर्जा का प्रतीक हैं, जिन्हें बाद में शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है। इसी प्रकार इंद्र की पत्नी शची एक दिव्य शक्ति है। अथर्व वेद में भी गनास का जिक्र है जिसका अर्थ होता है नारी। यहां प्रकृति की शक्तियों को नारी उर्जा के रूप में दिखाया गया है। 

बंगाल में 7वीं शताब्दी तक कई स्थानीय देवियों जैसे मनसा, शीतला और चण्डी को काली के रूप में समाहित कर लिया गया था, जिसे बाद में शिव की अर्द्धांगिनी मान लिया गया।

दुर्गा-काली शक्ति के प्रमुख नामों में से एक है। बंगाल में यह धर्म गहरी आस्था, पवित्रता और धार्मिक कौतुक से परिपूर्ण है।

काल का प्रतिनिधित्व करती काली दुर्गा को आदि शक्ति माना जाता है जो एक ऐसा सिद्धांत है जिसमें नारी को सर्वोच्च स्थान दिया गया है।

यह अवधारणा है कि काल का तब तक कोई अस्तित्व नहीं है जब तक कि देवी प्रकट नहीं होती है इसलिए उसे काल की माता या कालमाता कहा जाता है। वह सम्पूर्ण बह्ममाण्ड के स्वरूप के रूप में महाकाली है। विष्वों के विनाषक के रूप में वे कालहर्शिनी हैं। उन्हें जो भी कहा जाये या जो भी नाम दिया जाये उनका महत्व अपरिवर्तनीय है। 

काली-दुर्गा चंद्रमा संबंधी ज्योतिष-लौकिक पूर्णता का भी प्रतिनिधित्व करती हैं, इसलिए उन्हें 16 भुजाओं वाली के रूप में दर्शाया गया है जो चंद्रमा की 16 कलाओं का प्रतिनिधित्व करती है। वेदों में भी ब्राह्मंण को सोलह भागों में बना माना गया है।

जब शक्ति को शिव के साथ उनकी अर्द्धांगिनी के रूप में दर्शाया जाता है तो उन्हे पार्वती कहा जाता है और उनका यह रूप कल्याणकारी होता है। उन्हें उमा अर्थात् आदर्श नारी के रूप में भी देखा जाता है। उनके मिलन को समस्स्य कहते हैं।

4.4 तंत्रवाद 

तंत्रवाद सांस्कारिक रीतिरिवाजों पर आधारित एक पंथ है, जिसमें कई गुप्त साधनाएं की जाती हैं जिसमें मंत्र, यंत्र और योग साधनाएं हैं। तंत्र साधना के तत्व जैन, महायान-बौद्ध, शैव, वैष्णव और शक्ति धर्मां में भी पाये जाते हैं। 

इस शब्द की व्युत्पत्ति तंत्र नामक गं्रथों से हुई है। इस प्रकार का साहित्य गुप्तकाल में बड़ी मात्रा में रचा गया। तंत्रवादियों के लिए तंत्र साहित्य वेदां के समान ही पवित्र है इसलिए इसे ‘पांचवां वेद‘ कहा जाता हैं ।

तंत्रवाद का विकास प्रांरभिक रूप में उत्तरी-पश्चिमी भारत में प्रारंभ हुआ तथा असम और बंगाल तक फैल गया। यह इस उपमहाद्वीप के सभी हिन्दुओं द्वारा माना जाता है इसलिए इसे अनार्य भी माना जा सकता है। 

दीक्षा के माध्यम से योग्य गुरू से मंत्र प्राप्त करना तंत्र समुदाय की एक महत्वपूर्ण रीति है। दीक्षा के माध्यम से गुरू भक्त को मुक्ति का गुप्त मार्ग बताता है। इस पंथ में तपस्या के नये रूपों का विकास हुआ जिसमें काम भी एक महत्वपूर्ण विधि थी क्योंकि इसके माध्यम से शिव और शक्ति भी एकाकार होते हैं। 

इस समुदाय में यह माना गया कि शक्ति की पूजा का बहुत महत्व है।  

तंत्रवाद के दो मुख्य भाग हैं - वामाचार पंथ और दक्षिणाचार पंथ। दक्षिणाचार पंथ के रीतिरिवाज वामाचारियों के समान कठिन नहीं है। दोनों ही पंथों में जाति प्रथा का भेद नहीं है। वामाचारी हिन्दू रीतिरिवाजों को जानबूझकर भंग करते हैं क्योंकि वे ऐसा करके स्वयं को सामाजिक बंधनों से मुक्त कर आध्यात्मिकता की ओर ले जाना चाहते हैं। 

तांत्रिक रीति रिवाजों में नारी के साथ संभोग का बहुत महत्व है और इसे गहरी आस्था के साथ पूजा जाता है। तांत्रिक समाधि अवस्था में नारी के यौनांग योनि को सम्पूर्ण अस्तित्व के स्रोत के रूप में दर्शाया जाता है। मुक्त हो जाने पर आत्माएं शुद्ध एवं पवित्र चेतना में एक हो जाती हैं।

यंत्र की ज्यामितिय रचना का भी अध्यात्मिक महत्व होता है। जहां यंत्र का दृश्य प्रभाव होता है वहीं मंत्र का श्रृव्य प्रभाव होता है। यंत्र के माध्यम से भक्त ब्रह्ममाण्ड की शक्तियों को महसूस कर सकते हैं। इसका सर्वोत्तम उदाहरण श्री यंत्र है जो एक (बिंदु) पर केन्द्रित कई त्रिभुजों के द्वारा निर्मित होता है जो शाश्वत उर्जा अर्थात् ब्रह्मम को दर्शाते हैं। 

सहजीय तंत्र में मत्र, ग्रंथ, छवि और ध्यान आदि को नकारा गया है क्योंकि शून्य ही वास्तविक प्रकृति होती है। शून्य को परिभाषित करने में आने वाली कठिनाईयों और इसकी दार्शनिक दुरूहता के कारण कई काम संबंधी समस्याएं होती हैं।

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exchange,9,Formal and informal economy,13,Fossil fuels,14,Fundamentals of the Indian Economy,10,Games SportsEntertainment,1,GDP GNP PPP etc,12,GDP-GNP PPP etc,1,GDP-GNP-PPP etc,20,Gender inequality,9,Geography,10,Geography and Geology,2,Global trade,22,Global treaties,2,Global warming,146,Goverment decisions,4,Governance and Institution,2,Governance and Institutions,773,Governance and Schemes,221,Governane and Institutions,1,Government decisions,226,Government Finances,2,Government Politics,1,Government schemes,358,GS I,93,GS II,66,GS III,38,GS IV,23,GST,8,Habitat destruction,5,Headlines,22,Health and medicine,1,Health and medicine,56,Healtha and Medicine,1,Healthcare,1,Healthcare and Medicine,98,Higher education,12,Hindu individual editorials,54,Hinduism,9,History,216,Honours and Awards,1,Human rights,249,IMF-WB-WTO-WHO-UNSC etc,2,Immigration,6,Immigration and citizenship,1,Important Concepts,68,Important Concepts.UPSC Mains GS III,3,Important Dates,1,Important Days,35,Important exam concepts,11,Inda,1,India,29,India Agriculture and related issues,1,India Economy,1,India's Constitution,14,India's independence struggle,19,India's international relations,4,India’s international relations,7,Indian Agriculture and related issues,9,Indian and world media,5,Indian Economy,1248,Indian Economy – Banking credit finance,1,Indian Economy – Corporates,1,Indian Economy.GDP-GNP-PPP etc,1,Indian Geography,1,Indian history,33,Indian judiciary,119,Indian Politcs,1,Indian Politics,637,Indian Politics – Post-independence India,1,Indian Polity,1,Indian Polity and Governance,2,Indian Society,1,Indias,1,Indias international affairs,1,Indias international relations,30,Indices and Statistics,98,Indices and Statstics,1,Industries and services,32,Industry and services,1,Inequalities,2,Inequality,103,Inflation,33,Infra projects and financing,6,Infrastructure,252,Infrastruture,1,Institutions,1,Institutions and bodies,267,Institutions and bodies Panchayati Raj,1,Institutionsandbodies,1,Instiutions and Bodies,1,Intelligence and security,1,International Institutions,10,international relations,2,Internet,11,Inventions and discoveries,10,Irrigation Agriculture Crops,1,Issues on Environmental Ecology,3,IT and Computers,23,Italy,1,January 2020,26,January 2021,25,July 2020,5,July 2021,207,June,1,June 2020,45,June 2021,369,June-2021,1,Juridprudence,2,Jurisprudence,91,Jurisprudence Governance and Institutions,1,Land reforms and productivity,15,Latest Current Affairs,1136,Law and order,45,Legislature,1,Logical Reasoning,9,Major events in World History,16,March 2020,24,March 2021,23,Markets,182,Maths Theory Booklet,14,May 2020,24,May 2021,25,Meetings and Summits,27,Mercantilism,1,Military and defence alliances,5,Military technology,8,Miscellaneous,454,Modern History,15,Modern historym,1,Modern technologies,42,Monetary and financial policies,20,monsoon and climate change,1,Myanmar,1,Nanotechnology,2,Nationalism and protectionism,17,Natural disasters,13,New Laws and amendments,57,News media,3,November 2020,22,Nuclear technology,11,Nuclear techology,1,Nuclear weapons,10,October 2020,24,Oil economies,1,Organisations and treaties,1,Organizations and treaties,2,Pakistan,2,Panchayati Raj,1,Pandemic,137,Parks reserves sanctuaries,1,Parliament and Assemblies,18,People and Persoalities,1,People and Persoanalities,2,People and Personalites,1,People and Personalities,189,Personalities,46,Persons and achievements,1,Pillars of science,1,Planning and management,1,Political bodies,2,Political parties and leaders,26,Political philosophies,23,Political treaties,3,Polity,485,Pollution,62,Post independence India,21,Post-Governance in India,17,post-Independence India,46,Post-independent India,1,Poverty,46,Poverty and hunger,1,Prelims,2054,Prelims CSAT,30,Prelims GS I,7,Prelims Paper I,189,Primary and middle education,10,Private bodies,1,Products and innovations,7,Professional sports,1,Protectionism and Nationalism,26,Racism,1,Rainfall,1,Rainfall and Monsoon,5,RBI,73,Reformers,3,Regional conflicts,1,Regional Conflicts,79,Regional Economy,16,Regional leaders,43,Regional leaders.UPSC Mains GS II,1,Regional Politics,149,Regional Politics – Regional leaders,1,Regionalism and nationalism,1,Regulator bodies,1,Regulatory bodies,63,Religion,44,Religion – Hinduism,1,Renewable energy,4,Reports,102,Reports and Rankings,119,Reservations and affirmative,1,Reservations and affirmative action,42,Revolutionaries,1,Rights and duties,12,Roads and Railways,5,Russia,3,schemes,1,Science and Techmology,1,Science and Technlogy,1,Science and Technology,819,Science and Tehcnology,1,Sciene and Technology,1,Scientists and thinkers,1,Separatism and insurgencies,2,September 2020,26,September 2021,444,SociaI Issues,1,Social Issue,2,Social issues,1308,Social media,3,South Asia,10,Space technology,70,Startups and entrepreneurship,1,Statistics,7,Study material,280,Super powers,7,Super-powers,24,TAP 2020-21 Sessions,3,Taxation,39,Taxation and revenues,23,Technology and environmental issues in India,16,Telecom,3,Terroris,1,Terrorism,103,Terrorist organisations and leaders,1,Terrorist acts,10,Terrorist acts and leaders,1,Terrorist organisations and leaders,14,Terrorist organizations and leaders,1,The Hindu editorials analysis,58,Tournaments,1,Tournaments and competitions,5,Trade barriers,3,Trade blocs,2,Treaties and Alliances,1,Treaties and Protocols,43,Trivia and Miscalleneous,1,Trivia and miscellaneous,43,UK,1,UN,114,Union budget,20,United Nations,6,UPSC Mains GS I,584,UPSC Mains GS II,3969,UPSC Mains GS III,3071,UPSC Mains GS IV,191,US,63,USA,3,Warfare,20,World and Indian Geography,24,World Economy,404,World figures,39,World Geography,23,World History,21,World Poilitics,1,World Politics,612,World Politics.UPSC Mains GS II,1,WTO,1,WTO and regional pacts,4,अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं,10,गणित सिद्धान्त पुस्तिका,13,तार्किक कौशल,10,निर्णय क्षमता,2,नैतिकता और मौलिकता,24,प्रौद्योगिकी पर्यावरण मुद्दे,15,बोधगम्यता के मूल तत्व,2,भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास,47,भारत का स्वतंत्रता संघर्ष,19,भारत में कला वास्तुकला एवं साहित्य,11,भारत में शासन,18,भारतीय कृषि एवं संबंधित मुद्दें,10,भारतीय संविधान,14,महत्वपूर्ण हस्तियां,6,यूपीएससी मुख्य परीक्षा,91,यूपीएससी मुख्य परीक्षा जीएस,117,यूरोपीय,6,विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं,16,विश्व एवं भारतीय भूगोल,24,स्टडी मटेरियल,266,स्वतंत्रता-पश्चात् भारत,15,
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PT's IAS Academy: यूपीएससी तैयारी - भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास - व्याख्यान - 20
यूपीएससी तैयारी - भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास - व्याख्यान - 20
सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
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