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चोल और पांड्य राजवंश भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
चोल साम्राज्य दक्षिण-भारत के सबसे शक्तिशाली और बड़े साम्राज्यां में से एक था। अधीनस्थ राज्यों के साथ-साथ, चोल साम्राज्य दक्षिण भारत में फलने-फूलने वाले सबसे बड़े साम्राज्यों में से एक था। 9वीं शताब्दी में इसके उदय के कारण प्रायद्वीपीय भारत का एक बड़ा हिस्सा इसके अधीन आ गया। चोलों ने एक शक्तिशाली नौसेना का गठन किया था जिसने उनको समुद्री व्यापार में सक्षम बनाया, तथा श्रीलंका और मालदीव जैसे द्वीपों को जीतने में भी सहायता प्रदान की। यहां तक की दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में भी उनका प्रभाव महसूस किया गया। चोल वंश की नींव 850 ईस्वी के आसपास विजयलाय ने रखी, जो कि पल्लव राजाओं के अधीन पहले मात्र एक सामंत था। पल्लव और पांड्यों के बीच हुए संघर्ष में, विजयलाय ने तंजोर पर अधिकार कर लिया और इसे अपनी राजधानी बनाया। चोलमण्डलम् नामक क्षेत्र उनकी मातृभूमि कहा जाता था जिसमें आधुनिक तंजोर, त्रिचीनोपोली और पुदुकोट्टई नामक राज्य शामिल थे। कावेरी नदी चोल साम्राज्य की जीवन रेखा थी। उरईउर, जिसे वर्तमान में त्रिचीनोपोली के नाम से जाना जाता है, इसकी प्राचीनतम राजधानी थी। उन्होंने 850 ई. से 13 वीं शताब्दी तक राज किया।
2.0 चोल साम्राज्य का उदय
इतिहासकारों में इस वंश के उदगम को लेकर मतभेद हैं। अधिकांश इतिहासकार इस मत से सहमत हैं कि चोल किसी प्राचीन शासक वंश का नाम रहा होगा। संगम काल के तमिल साहित्य में चोलों के प्रारंभिक कालखण्ड को लेकर सूचनाएं उपलब्ध हैं। चोलों का उल्लेख अशोक स्तम्भों में भी है। चोलों के इतिहास को चार भिन्न-भिन्न कालखण्डों में बांटा गया है। ये हैं - संगम साहित्य के दौर के प्रारंभिक चोल, संगम काल के पतन से लगाकर मध्यकालीन चोलों के उदय तक का कालखण्ड, और उत्तर-चोल तथा कुलोतुंगा चोल प्रथम का चोल वंश।
हालांकि सबसे ज्यादा स्वीकार किये जाने वाला तथ्य यह है कि चेर और पांड्य के समान, चोल भी किसी प्राचीन विस्मृत शासक वंश का नाम रहा होगा। टीकाकार परिमेल अळगर लिखते हैं, ‘‘प्राचीन वंशों (चोल, पांड्य और चेर) के लोगों की दानवृत्ती सदैव से उच्च मानी जाती है, बावजूद इसके कि उनके संसाधन घटते रहे।‘‘ चोलों के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले अन्य नामों में किल्ली, वाल्वन और सेम्बियन आते हैं। किल्ली शब्द की उत्पत्ति तमिल पद किल से हुई है जिसका अर्थ है खोदना और इससे यह ज्ञात होता है कि शायद वे लोग कृषि कार्य करने वाले रहे होंगे। अक्सर इस शब्द का उपयोग चोल नामों के साथ एक आवश्यक पद के रूप में प्रयुक्त हुआ है जैसे नेदुनकिल्ली, नलनकिल्ली आदि, किंतु बाद के कालखण्ड में यह कहीं देखने को नहीं मिलता। वलवन शब्द पद ‘वलम‘ से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है, जिसका अर्थ है उपजाऊ, अर्थात् उपजाऊ भूमि का राजा। सेम्बियन शब्द का सीधा अर्थ है शिबी के वंशज। शिबी को एक मिथकीय नायक माना जाता है जो एक कबूतर के प्राण चील से बचाने के लिए स्वयं न्यौछावर हो गया था, और बुद्ध जातक कथाओं में शिबी जातक कथाओं का उल्लेख आता है। तमिल शब्दकोष के अनुसार चोल शब्द का अर्थ होता है सोळई या सई जिसका अर्थ है एक नया साम्राज्य। तमिल का ‘सोर‘ शायद संस्कृत का ‘चोल‘ बन जाता है।
प्रारंभिक चोलों के इतिहास के विषय में बहुत कम प्रमाणिक स्रोत उपलब्ध हैं। पिछले 150 वर्षों से इतिहासकारों ने इस विषय में विभिन्न स्रोतों जैसे प्राचीन तमिल संगम साहित्य, मौखिक परम्परा धार्मिक ग्रंथ, मंदिरों ताम्र पत्र अभिलेखों आदि से सूचनाएं इकट्ठा करने की कोशिशे की हैं। प्रारंभिक चोलों के बारे में सूचनाएं प्राप्त करने का मुख्य स्रोत संगम कालखण्ड का तमिल साहित्य है। पेरीप्लस में भी चोल साम्राज्य और इसके शहरों, बंदरगाहों तथा इसके व्यापार के बारे में विवरण मिलता है। पेरीप्लस किसी अज्ञात यूनानी व्यापारी के द्वारा डोमीटियन (81-96 ईस्वी) के समय लिखा गया कोई ग्रंथ है जिसमें चोल साम्राज्य के बारे में थोड़ी सी जानकारी उपलब्ध है। लगभग आधी शताब्दी बाद लिखते हुए, भूगोलवेत्ता टॉलेमी ने चोल साम्राज्य, इसके बंदरगाहों और इसके शहरों के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। 5वीं शताब्दी में रचित एक बौद्ध ग्रंथ‘महावंश‘ के अनुसार पहली शताब्दी ई.पू. में चोलों और सिलोन के निवासियों के बीच कई सारे संघर्ष हुए। चोलों का उल्लेख अशोक स्तम्भों (273-232 ई.पू.) में भी हुआ है, जहां इसे अशोक की प्रजा नहीं, बल्कि मित्र देशों में शामिल किया गया है।
3.0 राजनीतिक इतिहास
विजयलाय पल्लव शासकों का एक सामंत था जिसने तंजोर पर कब्जा कर के एक अर्द्धस्वतंत्र राज्य की स्थापना की। इसके शीघ्र बाद ही पल्लवों की शक्ति का पतन होने लगा और 9वीं शताब्दी के प्रारंभ में विजयलाय के वंशजों ने पल्लवों से नाता तोड़ते हुए स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर लिया। एक युद्ध में उन्होंने पल्लवों को पराजित कर दिया। उन्होंने मदुरै के पांड्यों हराते हुए आज के दक्षिणी तमिलनाडु पर पूर्ण रूप से अधिकार कर लिया।
हालांकि, राष्ट्रकूट शासक कृष्णा तृतीय जिसने कि तमिलनाडु के उत्तरी हिस्से पर नियंत्रण कर लिया था, ने 949 ईस्वी में थक्कोलम के युद्ध में चोल राजकुमार राजादित्य को मार दिया। अगले ही वर्ष राजा परांतक के मृत्यु हो गई और उसके दूसरे पुत्र गंदरादित्य ने सिंहासन संभाला। वह धर्म की अपेक्षा राजनीति में ज्यादा रूचि लेता था, और इस साम्राज्य का विस्तार रूक गया। शीघ्र ही उसके छोटे भाई अरिन्जय ने सिंहासन पर कब्जा कर लिया। शीघ्र ही अरिन्जय की भी मृत्यु हो गई और उसका पुत्र सुदंर चोल राजा बना। सुन्दर चोल ने साम्राज्य को पुनः जीवंत बना दिया।
965 ईस्वी में कृष्णा तृतीय की मृत्यु के पश्चात, राष्ट्रकूट साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया। सुदंर चोल ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए युवराज आदित्य करीकाला के नेतृत्व में इस रिक्त स्थान को भरने के लिए सेना भेजी। आदित्य युद्ध में सफल हुआ और चोल साम्राज्य का विस्तार उत्तर में तोन्डईमण्डलम तक हो गया। उसने पांड्यों को भी एक बार पुनः पराजित किया और उनकी शेष शक्ति को भी समाप्त कर दिया। हालांकि, उत्तमचोल जो कि पूर्व राजा गंदरादित्य का पुत्र लड़का था, ने आदित्य करीकला को मार डाला, ताकि वह सिंहासन का उत्तराधिकारी बन सके। उत्तमचोल राजा बन भी गया, किंतु उसका कालखण्ड घटना प्रधान नहीं रहा। 985 ईस्वी में, राजेन्द्र चोल, जो कि सुन्दर चोल का पुत्र था ने उसे हटाकर स्वयं को राजा घोषित कर लिया।
3.1 राजराजा और राजेन्द्र चोल
राजराजा चोल साम्राज्य के सभी शासकों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ। 1022 ईस्वी में उसकी उत्तर-भारत की विजयों के परिणामस्वरूप उसे यह लोकप्रियता मिली। वह एकमात्र दक्षिण भारतीय राजा था जिसने गंगा के मैदानां तक जीत हासिल की। कलिंग क्षेत्र को पार करते हुए वह गंगा तक पहुंचा और इस पूरे क्षेत्र को उसने चोल साम्राज्य में मिला लिया। इसके बाद उसने ‘‘गंगईकांडा चोल‘‘ की उपाधि धारण की, जिसका अर्थ होता है गंगा को जीतने वाला और कावेरी नदी के किनारे एक नई राजधानी बसाई जिसका नाम रखा गया गंगईकांडाचोलपुरम।
राजराजा को उसके पिता के जीवनकाल में ही सिंहासन का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया था, चूंकि उसके राज्याभिषेक के पूर्व ही उसे प्रशासन तथा युद्ध नीति के कार्यों का गहन अनुभव था। राजराजा ने त्रिवेन्द्रम में चेर नौसेना को नष्ट कर दिया तथा क्विलोन पर आक्रमण किया। फिर उसने मदुरै पर आक्रमण किया तथा पांड्य राजा को समर्पण करने पर मजबूर कर दिया। उसने श्रीलंका पर भी आक्रमण किया तथा इसके उत्तरी हिस्सों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। इसका उद्देश्य दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों के व्यापार को अपने नियंत्रण में लाना भी था।
कोरोमण्डल तट और मालाबार भारत के दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के साथ होने वाले व्यापार के केन्द्र थे। उसके एक नौसेनिक अभियान में उसने मालद्वीव द्वीप समूह पर भी कब्जा कर लिया।
उत्तर में राजराजा ने गंगा क्षेत्र के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों को उत्तर-पश्चिमी कर्नाटका तक फैला दिया और वेंगी को भी जीत लिया।
राजेन्द्र प्रथम ने राजराजा की विस्तारवादी नीति को जारी रखा तथा पांड्य और चेर साम्राज्य को जीतते हुए उन्हें अपने राज्य में मिला लिया। श्रीलंका का विजय अभियान भी पूर्ण हो चुका था, व श्रीलंका के राजा और रानी के राजसी मुकुट और राजमुद्रिका को हथिया लिया गया। अगले 50 वर्षो तक श्रीलंका स्वयं को चोल नियंत्रण से मुक्त नहीं कर सका।
राजराजा और राजेन्द्र प्रथम ने अपनी विजयों को अविस्मरणीय बनाने के लिए कई सारे शिव और विष्णु मंदिरों का निर्माण करवाया। इनमें से सबसे प्रसिद्ध मंदिर तंजोर में स्थित राजराजेश्वर मंदिर है जिसका निर्माण 1010 ईस्वीं में पूर्ण हुआ। चोल शासक इन मंदिरों की दीवारों पर विस्तृत लेख लिखवाते थे जिसमें उनकी विजयों का पूर्ण विवरण होता था। यही कारण है कि आज हमें उनके पूर्वजों की अपेक्षा, चोलों के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध है।
राजेन्द्र प्रथम के शासनकाल में एक महत्वपूर्ण सैन्य अभियान में चोल सेना ने कलिंग को पार करते हुए बंगाल तक विजय प्राप्त की, तथा दो स्थानीय राजाओं को पराजित किया। इस विजय अभियान को चोल सेनाओं ने 1022 ईस्वी में पूर्ण किया तथा इसके लिए उन्होंने उसी पथ को चुना, जिसे कभी महान विजेता समुद्र गुप्त ने अपनाया था। इस जीत को अविस्मरणीय बनाने के लिए, राजेन्द्र प्रथम ने गंगईकोंडाचोलम की उपाधि धारण की तथा कावेरी नदी के मुहाने पर गंगईकोंडाचोलपुरम नामक राजधानी बसाई। इसका अर्थ था - गंगा जीतने वाले चोल विजेता का शहर।
एक और अविस्मरणीय अभियान में राजेन्द्र प्रथम ने श्री विजय साम्राज्य के विरूद्ध नौसेनिक आक्रमण किया था। श्री विजय साम्राज्य, जिसका की 10वीं शताब्दी में पुनः उदय हो गया था, मलय प्रायद्वीप, सुमात्रा, जावा और पड़ोसी द्वीप समूहों तक फैला हुआ था तथा चीन के साथ होने वाले समुद्री व्यापार पथ पर उसका नियंत्रण था। शैलेन्द्र वंश के शासक बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और उनके चोलों के साथ मधुर संबंध थे। शैलेन्द्र शासकों ने नागपटम में एक बौद्ध स्तूप का निर्माण करवाया था। वही गांव राजेन्द्र प्रथम ने दान में दे रखा था, जिसकी रक्षा करना उसका कर्तव्य था। दोनों ही शक्तियों के बीच विवाद का मूल कारण भारतीय व्यापारियों के लिए आने वाली बाधाओं को दूर करने की चोलों की प्रबल आकांक्षा ही थी, ऐसा करके चोल अपना व्यापार चीन के साथ बढ़ाना चाहते थे। चोलों का यह अभियान कदरम या केद के युद्ध में बदल गया तथा मलय प्रायद्वीप और सुमात्रा को लेकर कई सारी लड़ाईयां लड़ी गईं। इस क्षेत्र में चोल नौसेना सबसे ज्यादा प्रबल थी और बंगाल की खाड़ी को ‘चोल झील‘ में बदल दिया गया।
राजेन्द्र के तीन पुत्रों - राजाधिराज चोल प्रथम, राजेन्द्र चोल द्वितीय और वीर राजेन्द्र चोल ने उसके बाद सिंहासन सम्भाला। सभी ने चालुक्यों के साथ युद्ध जारी रखा। ऐसे ही एक युद्ध के दौरान राजाधिराज वीरगति को प्राप्त हुआ और राजेन्द्र चोल द्वितीय ने युद्ध के मैदान में ही स्वयं को राजा घोषित कर युद्ध जारी रखा। अंततः, वीर राजेन्द्र चोल ने चालुक्य साम्राज्य के साथ, वहां के राजकुमार के साथ विक्रमादित्य चतुर्थ के साथ वार्ता करते हुए समझौता कर लिया। चोल-विक्रमादित्य गठबंधन युद्ध के मैदान में सफल हुआ और वीर राजेन्द्र ने विक्रमादित्य को पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य का सम्राट घोषित किया। वह चोलों और कल्याणी के चालुक्यों के बीच एक मध्यवर्ती राज्य की तरह कार्य करता था।
विक्रमादित्य ने भी राजेन्द्र चालुक्य को, जो कि एक पूर्वी चालुक्य वंश का राजकुमार था, वैंगी के सिंहासन से अलग करने की कोशिश की। हालांकि जब राजेन्द्र की 1070 ईस्वी में मृत्यु हुई, राजेन्द्र चालुक्य ने पुनः आक्रमण किया तथा चोल साम्राज्य में फैले किसी आंतरिक भ्रम के कारण चोल राजा अथिराजेन्द्र चोल की हत्या कर दी गई। राजेन्द्र चालुक्य ने स्वयं को कुलोतुंग चोल प्रथम के नाम से 1070 ईस्वी में राजा घोषित किया और तब से चोल वंश ने चालुक्य वंश को हथिया लिया।
चोल शासकों ने अपने बहुत सारे राजदूत चीन भेजे थे। 1077 ईस्वी में 70 व्यापारियों का एक समूह चोलों का राजदूत बनकर चीन पहुंचा था, और चीनी विवरणों के अनुसार उसे, ‘‘81,800 ताम्र सिक्के‘‘ दिये गये, जिनका मूल्य 4 लाख रूपये था जो उन्हें, ‘‘कांच का समान, कपूर, जरीदार वस्त्र, गेंडे के सींग, हाथीदांत आदि‘‘ बहुमूल्य वस्तुओं के बदले मिले थे। यहां चीनी विवरणां में व्यापार की वस्तुओं के लिए दान शब्द का इस्तेमाल किया गया है।
चोल शासकों ने चालुक्यों के साथ लगातार लड़ाई जारी रखी। वास्तव में यह चालुक्य राष्ट्रकूटों के उत्तराधिकारी थे। इन्हें उत्तर-चालुक्य कहा जाता था तथा इनकी राजधानी कल्याणी थी। चोल और उत्तर-चालुक्य वेंगी (रायलसीमा), तुगंभ्रदा दोआब और उत्तर-पश्चिमी कर्नाटक के गंग क्षेत्र पर अधिकार करने के लिए लड़ते रहते थे। दोनों पक्षों में से कोई भी निर्णायक जीत हासिल करने की स्थिति में नहीं था, और अंततः इस लड़ाई ने दोनों ही साम्राज्यों को थका दिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस मर्तबा युद्ध ज्यादा भयानक हो गये थे।
चोल शासकों ने कई चालुक्य शहरों जिसमें कल्याणी भी शामिल था को जीत कर लूट लिया, और सामूहिक नरसंहार किया, जिसमें ब्राह्मणों और बच्चों को भी नहीं छोड़ा। उन्होने ऐसी ही नीति का पालन पांड्य देश के साथ भी किया, जहां उन्होंने जनता के बीच भय के लिए सैन्य उपनिवेश बनाने की कोशिश की। उन्होंने श्रीलंका की प्राचीन राजधानी, अनुराधापुर को भी नष्ट कर दिया और वहां के राजा और रानी के साथ बहुत बुरा बर्ताव किया। चोल साम्राज्य के इतिहास में यह काले धब्बे के समान था। हालांकि, एक बार किसी देश को जीतने के बाद चोलों ने वहां पर सुगठित प्रशासन की व्यवस्था की। चोल प्रशासन का एक उल्लेखनीय गुणधर्म यह था कि उन्होंने ग्रामीण स्तर पर स्थानीय स्वशासन व्यवस्था को बढ़ावा दिया।
12वीं शताब्दी तक चोल साम्राज्य फलता-फूलता रहा। किंतु 13वीं शताब्दी के प्रारंभ में इसका पतन प्रारंभ हो गया। 12वीं शताब्दी में महाराष्ट्र के उत्तर चालुक्यों का भी पतन हो गया था। दक्षिण में चोलों का स्थान पांड्य और होयशाल शासकों ने ले लिया था, और उत्तर-चालुक्यों का स्थान यादव और काकतीय वंश ने। इन राज्यों ने भी कला और स्थापत्य को संरक्षण दिया।
दुर्भाग्यवश, इन राज्यों ने आपस में एक दूसरे से लड़ाई कर स्वयं को ही कमजोर बना लिया, तथा एक दूसरे के शहरों और मंदिरों को लूटते रहे। अंततः 14वीं शताब्दी के प्रारंभ में दिल्ली के सुल्तानों के द्वारा उन्हें नष्ट कर दिया गया।
3.2 चोल सेना और नौसेना
चोलों के पास एक बहुत बड़ी सेना थी, जिसमें हाथी, घुड़सवार और पैदल सेना शामिल थी, जो कि सेना के तीन अंग कहे जाते थे। पैदल सैनिक सामान्यतः भाला लिये हुए होते थे। सभी राजाओं के पास उनके निजी रक्षक होते थे जो किसी भी कीमत पर राजा की रक्षा करने के लिए तैयार रहते थे। वेनिस के यात्री मार्कोपोलो, जिसने 13वीं शताब्दी में केरल की यात्रा की थी, ने अपने विवरण में लिखा है कि जब एक राजा की मृत्यु होती तब उसके सारे निजी रक्षक स्वयं को राजा के साथ चिता पर जिन्दा जला लेते - हालांकि यह कथन अतिशयोक्ति भी हो सकता है। चोलों के पास एक प्रबल नौसेना भी थी जिसने मालाबार और कोरोमण्डल के समुद्री तटों को जीता था तथा किसी समय तो सम्पूर्ण बंगाल की खाड़ी जीत ली थी।
चोल नौसेना में चोल साम्राज्य के तत्वों के अतिरिक्त देश के अन्य हिस्सों के नौसैनिक भी शामिल थे। चोल नौसेना ने चोल साम्राज्य के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें सियोलद्वीप तथा श्री विजय (वर्तमान इण्डोनेशिया) को जीतना भी शामिल है। मध्यकालीन चोल साम्राज्य के दौरान नौसेना उसके आकार और स्तर दोनों ही में खूब फली-फूली।
चोल नौसैनिक अधिकारियों का समाज में बहुत उंचा सम्मान था। नौसेना के कमाण्डर दरबारों में किसी हद तक कूटनीतिक की भूमिका भी निभाते थे। 900-1100 ईस्वी के बीच यह नौसेना एक छोटी सी युद्ध इकाई से बढ़कर एक शक्तिशाली और भव्य सेना के रूप में बदल गई जिसे एशिया में कूटनीतिज्ञ के प्रतीक के रूप में भी उपयोग किया गया, किंतु जब चोलों ने आंध्र-कन्नड़ क्षेत्रां के चालुक्यों से जमीन पर लड़ाईयां लड़ना प्रारंभ कर दी, तब इस नौसेना का धीरे-धीरे पतन हो गया।
3.3 चोल प्रशासन
चोल प्रशासन में राजा सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होता था। राज्य की सम्पूर्ण शक्ति उसके हाथों में निहित होती थी। उसके पास सलाह के लिए मंत्री परिषद हुआ करती थी।
चोल साम्राज्य मण्डलों या प्रांतों में विभाजित था जो कि पुनः वलनाडु और नाडु में बांटे गये थे। कभी-कभी, राजपरिवार के राजकुमारों को इन राज्यों का प्रमुख नियुक्त किया जाता था। अधिकारियों को सामान्यतः राजस्व-भूमि अनुदान में दी जाती थी।
चोल शासकों ने शाही सड़कों का एक जाल तैयार कर दिया था जो कि व्यापार के साथ-साथ सैन्य अभियानों के लिए भी उपयोगी था। चोल साम्राज्य में व्यापार और वाणिज्य बहुत फला-फूला तथा वहां कुछ बहुत बड़ी व्यापारी गुट हुआ करते थे जिनका संबंध जावा और सुमात्रा तक से था।
चोलों ने सिंचाई की ओर भी पर्याप्त ध्यान दिया। कावेरी नदी इस साम्राज्य की जीवन रेखा थी। सिंचाई के लिए कई तालाबों का निर्माण करवाया गया था। कुछ चोल शासकों ंने, भू-राजस्व में सरकार का हिस्सा सुनिश्चित करने के लिए विस्तृत भू-सर्वेक्षण करवाया था। आज हमें ज्ञात नहीं है कि भूमि राजस्व में कितना हिस्सा सरकार का हुआ करता था।
भूमि कर के अतिरिक्त, चोल शासक को वाणिज्य और व्यापार से भी राजस्व प्राप्त होता था, व्यवसायों पर भी कर लगाये जाते थे तथा पड़ोसी क्षेत्रों से प्राप्त लूट के माल भी राजस्व के स्रोत थे। चोल शासक सम्पन्न थे और उन्होंने कई शहरों के साथ भव्य स्मारकों का निर्माण करवाया।
विभिन्न शिलालेखों और ताम्र पत्रों के अध्ययन के बाद चोल साम्राज्य में ग्रामीण प्रशासन को लेकर बहुत सी जानकारियां उपलब्ध होती हैं। चोल साम्राज्य में, उर तथा सभा या महासभा नामक दो समितियां होती थीं। उर सामान्यतः गांवों की सभा होती थी। यद्यपि आज हमें महासभा की कार्य-प्रणाली के बारे में ज्यादा ज्ञात है। वास्तव में यह एक व्यस्क आदमियों की वह सभा थी जो ब्राह्मण गांवों में गठित थी तथा जिसे अग्रहर कहां जाता था। यह वे गांव थे जिन्हें ब्राह्मणों द्वारा बसाया गया था तथा जहां की अधिकांश भूमि कर-मुक्त थी। इस प्रकार के गांव बहुत हद तक स्वशासी थे।
गांवों के सभी मामलों का निपटारा गांव की ही एक कार्य समिति के द्वारा किया जाता था जिसमें सामान्यतः शिक्षित लोग शामिल होते थे। इनका चयन लॉटरी प्रणाली से होता था। इन सदस्यों को प्रत्येक तीन वर्ष में सेवा-निवृत्त कर दिया जाता था यह समितियां भूमि कर के निर्धारण और संग्रहण में मदद करने के साथ-साथ, गांव में शांति व्यवस्था तथा न्याय आदि के मामलों को भी देखती थीं। जल समिति इनमें से एक महत्वपूर्ण समिति हुआ करती थी जो खेतों में जल के वितरण के मामले को देखती थी। महासभा का कार्य नवीन भूमि से सम्बंधित मुद्दों का निराकरण करना तथा वहां के अधिकार को देखना था। यह सभा ग्रामीणों को कर्ज देने के साथ-साथ उन पर कर भी लगा सकती थी।
4.0 सांस्कृतिक जीवन
चोल साम्राज्य के विस्तार और प्रचुर संसाधनों ने चोल सम्राटों को इस योग्य बनाया कि वे इसकी भव्य राजधानियां जैसे तंजोर, गंगईकोंडचोलपरुम, कांची आदि का निर्माण कर सकें। चोल शासकों ने बडे़ और भव्य भवनों का निर्माण करवाया जिसमें महाभोज कक्ष, बड़े और सुन्दर बगीचे तथा झरोखे हुआ करते थे। हमें यह ज्ञात होता है कि उनके सामंतों के लिए सात या पांच मंजिला मकान हुआ करते थे। दुर्भाग्यवश; आज इनमें से कोई भी महल अस्तित्व में नहीं है। चोल राजधानी गंगईकोंडचोलपुरम, वर्तमान में तंजोर के निकट एक छोटा सा गांव है। हालांकि शासकों और मंत्रियों के भव्य महलों तथा व्यापारियों के बड़े भवनों के विवरण समकालीन साहित्य में उपलब्ध हैं, जिससे हमें इसके बारे में जानकारी मिलती है।
4.1 चोल स्थापत्य कला
चोलों के अधीन दक्षिण-भारत में स्थापत्य कला (वास्तुकला) इसके शीर्ष पर पहुंच गई थी। इस कालखण्ड में जिस स्थापत्य शैली का विकास हुआ उसे द्रविड़ शैली कहा जाता है, क्योंकि यह मुख्यतः दक्षिण भारत में ही प्रचलन में थी। इस शैली का मुख्य गुणधर्म यह था कि इसमें गर्भगृह के उपर बहुमंजिला शिखर बनाया जाता था। पांच से लगाकर सात मंजिला तक शिखर इस शैली में तैयार किये जाते थे जिसे विमान कहा जाता था। स्तम्भों से युक्त एक हॉल होता था जिसे मण्डप कहा जाता था, जिसकी छत सपाट होती थी तथा यह पवित्र गर्भगृह के सम्मुख ही होता था। इस मण्डप का उपयोग वास्तव में दर्शकों के बैठने के लिए किया जाता था तथा अन्य गतिविधियां जैसे सांस्कृतिक नृत्य जो कि देवदासियों के द्वारा किये जाते थे, आदि कार्यों के लिए किया जाता था। कहीं-कहीं गर्भगृह के चारों और एक गलियारा तैयार किया जाता था ताकि भक्त भगवान की प्रदक्षिणा कर सकें। इस गलियारे में कई भगवानों की प्रतिमाएं या छवियां लगी हो सकती थीं।
इसकी सम्पूर्ण सरंचना को उंची दीवारों से घेरकर एक प्रांगण बनाया जाता था, जिस पर एक भव्य द्वारा लगाया जाता था जिसे गोपुरम कहते हैं। समय के साथ-साथ, विमान उच्चतर होते चले गये तथा प्रागंणों की संख्या भी दो या तीन कर दी गई तथा गोपुरम भी भव्यतर बनने लगे। इस प्रकार, मंदिर छोटे शहरों या महलों का रूप लेने लगे जो वहां रह रहे ब्राह्मणों आदि के लिए निवास स्थान का काम भी करते थे। मंदिरों को सामान्यतः कर मुक्त भूमि दान में दी जाती थी ताकि उससे उनके खर्च चलाये जा सके। इसके अतिरिक्त मंदिरों को राजपरिवारों तथा सम्पन्न व्यापारियों से दान भी मिलता था। कुछ मंदिर इतने सम्पन्न हो गये कि उन्होंने ऋण देना प्रारंभ कर दिया तथा राज्य की व्यापारिक गतिविधियों में भाग लेने लगे।
द्रविड़ शैली की मंदिर स्थापत्य कला का एक प्रारंभिक उदाहरण 8वीं शताब्दी में कांचीपुरम में निर्मित कैलाशनाथ मंदिर है। इस शैली का एक सर्वोत्तम उदाहरण, राजराजा प्रथम द्वारा तंजोर में बनवाया गया बृहदिस्वर मंदिर है। इस मंदिर को राजराजा मंदिर भी कहा जाता है क्योंकि चोल साम्राज्य में यह परम्परा थी कि मंदिर में देवताओं की मूर्ति के साथ-साथ राजा और रानी के चित्र भी लगाये जाते थे। गंगईकोंडाचोलपुरम का मंदिर जो अब जीर्णशीर्ण अवस्था में पड़ा है, भी द्रविड़ स्थापत्य कला का एक अनुपम उदाहरण है, जो चोलों के अधीन फली-फूली। दक्षिण भारत में कई अन्य जगहों पर भी इस शैली के मंदिरों का निर्माण किया गया। हालांकि यह भी उल्लेखनीय है कि कभी-कभी इन मंदिरों के निर्माण के लिए चोल राजाओं ने पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण कर लूटपाट कर धन प्राप्त किया।
चोलों के पतन के पश्चात्, मंदिर निर्माण की गतिविधियां कल्याणी के चालुक्य और होयशाल राजाओं के अधीन जारी रही। धारवाड़ जिले में होयशाल की राजधानी हलेबीड़ में बड़ी संख्या में मंदिरों की मौजूदगी इसका प्रमाण है। इनमें सबसे भव्यतम मंदिर होयशालेश्वर मंदिर है। यह चालुक्य कलाशैली का सर्वोत्तम उदाहरण है। विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियों और चित्रों के अतिरिक्त, पुरूषों और महिलाओं, यक्ष और यक्षिणियों के चित्र तथा विभिन्न मानवीय गतिविधियों, जैसे नृत्य, संगीत, युद्ध के दृश्य और प्रेम को दर्शाते हुए चित्र भी इस मंदिर में मौजूद हैं। इस प्रकार, धर्म से जीवन निकटता से जुड़ा हुआ था। आम आदमी के लिए भी, मंदिर केवल पूजा के स्थान न होकर सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियां के केन्द्र थे।
इस कालखण्ड में, दक्षिण-भारत में मूर्तिकला के उच्च मानक स्थापित हुए। इसका एक उदाहरण श्रवणबेलगोला में स्थित गोमतेश्वर की भव्य प्रतिमा है। इस कला का एक दूसरे पक्ष चित्र निर्माण भी था जो शिव की नृत्य करती हुई स्थिति जिसे नटराज कहा जाता है, के रूप में इसकी उच्चता पर पहुंचा। इस कालखण्ड में निर्मित नटराज प्रतिमा, विशेषकर कांसे से निर्मित, कला का अनुपम उदाहरण मानी जाती हैं। भारत के संग्रहालयों और विदेशों में भी इस दौर में निर्मित कई कलात्मक चीजें पाई जाती हैं।
4.2 कला और साहित्य
चोल वंश के विभिन्न शासकों ने कला और साहित्य का संरक्षण किया। संस्कृत को उच्च सांस्कृतिक भाषा माना जाता था इसलिए बहुत सारे राजाओं और विद्वानों तथा दरबारियों कवियों ने इस भाषा में रचनायें लिखीं। साथ ही इस कालखण्ड का एक महत्वपूर्ण गुणधर्म यह था कि इस समय क्षेत्रीय भाषाओं में भी साहित्य का विकास हुआ। 6ठी शताब्दी से 9वीं शताब्दी के मध्य तमिल क्षेत्र में बहुत सारे संत जिन्हें नयनार और अलवर कहा जाता था, जो शिव और विष्णु के भक्त थे, फले-फूले। उन्होंने अपनी रचनायें तमिल और अन्य स्थानीय भाषाओं में लिखीं। 12वीं शताब्दी के अंत में इन संतों की रचनाओं को 11 खण्डों की एक पुस्तक तिरूमुराई में संग्रहीत किया गया जिसे पवित्र माना जाता है, तथा इसे पांचवा वेद भी कहा जाता है। कम्बन, जो 11वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 12वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुए थे, के दौर को तमिल साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता हैं। कम्बन की रामायण को तमिल साहित्य में शास्त्रीय दर्जा हासिल है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि कम्बन किसी चोल राजा के दरबार में कवि थे। कई अन्य कवियों में अपनी कविताओं की विषय वस्तु रामायण और महाभारत से चुनी और इन महान ग्रंथों को आम जनता के निकट लाये।
कन्नड़, जो कि तमिल की तुलना में तुलनात्मक रूप से नवीन भाषा है, भी इस कालखण्ड में साहित्यक भाषा बन गई। राष्ट्रकूट, चालुक्य और होयशाल शासकों ने कन्नड़ के साथ-साथ तेलगु का भी संरक्षण किया। कई जैन विद्वानों ने भी कन्नड़ के विकास में योगदान दिया। पम्पा, पोन्ना और रन्ना कन्नड़ काव्य के तीन रत्न माने जाते हैं। यद्यपि उन पर जैन धर्म का प्रभाव था, तब भी उन्होंने रामायण और महाभारत की कहानियों पर आधारित रचनायें रचीं। नन्नैया, जो चालुक्य दरबार का एक कवि था, ने महाभारत का तेलगु संस्करण लिखा।
उसके द्वारा प्रारंभ किये गये कार्य को 13वीं शताब्दी में टिकन्ना ने पूर्ण किया। तमिल रामायण के समान ही, तेलगु महाभारत भी एक शास्त्रीय रचना मानी जाती है जिसने कई समकालीन लेखकों को प्रभावित किया। इस साहित्य में लोक प्रसिद्ध विषय-वस्तुओं का भी समावेश हुआ है। लोकप्रिय विषय जो संस्कृत से लिये गये हैं जिसमें आम आदमी की भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई है को तेलगु में देसी कहा जाता हैं।
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