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आरंभिक और महान पल्लव शासक भाग - 2
6.0 पल्लव वास्तुकला और मूर्तिकला
पल्लव मूर्तियों की विशेषताएं द्रविड़ कला व मूर्तिकला के समान हैं। पल्लवों के शासनकाल में ही रॉक-कट वास्तुकला को पत्थरों की संरचना से विस्थापित किया गया। उनके द्वारा निर्मित विस्तृत मूर्तिकला व विशाल मंदिर आज भी दृढ़ता से खड़े हैं और उस काल की अद्भुत कला की गवाही देते हैं। कांचीपुरम व महाबलीपुरम के मंदिर पल्लव वास्तुकला के कुछ बेहतरीन उदाहरणों में सम्मिलित हैं। जहां तक मूर्तिकला और वास्तुकला का सवाल है वे मुख्यतः धर्म पर केन्द्रित रहे थे। मूर्तियां मुख्य रूप से ग्रेनाइट पर तराशकर बनाई जाती थी। ग्रेनाइट को कठोरतम चट्टान माना जाता है।
द्रविड़ शैली से प्रभावित होने के बावजूद भी पल्लव वास्तुकला व मूर्तिकला ने स्वयं की विशिष्ट विशेषताएं विकसित की थीं। उस काल में विशालकाय मंदिर बनाए जाते थे। मूर्तियों की आकृति की संरचना बहुत ही साधारण व सरल होती थी, कम अलंकरण, लंबे मुख व बड़े नेत्र, मोटे होंठ, दोहरी ठुड्डी, चौड़ी नासिका व अन्य विशेषताएं इन मूर्तिकलाओं में समान रूप से दिखाई देती है।
जहां तक कि पौराणिक देवी-देवताओं के मंदिरों की मूर्तिकला का सवाल है, हमें मंदिर की दीवारों में हाथी व योद्धाओं की आकृतियां प्राप्त होती हैं। श्यामवर्ण की देवी काली को भी विध्वंसक के रूप में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त भगवान शिव के चित्र भी मंदिरों में प्रसिद्ध रूपांकन है। कांचीपुरम के कैलाशनाथ मंदिर की मूर्तिकला पल्लव मूर्तिकला व वास्तुकला का बेहतरीन परिचय देती है।
7.0 सभ्यता और संस्कृति
पल्लव शासन ने दक्षिण भारत के सांस्कृतिक इतिहास में एक स्वर्ण युगारम्भ किया। पल्लवों का शासनकाल साहित्यिक गतिविधियों व सांस्कृतिक पुनरूत्थान के लिए उल्लेखनीय है। पल्लवों ने संस्कृत को अत्यधिक आश्रय प्रदान किया और उनके काल के अधिकतम साहित्यिक अभिलेख भी इसी भाषा में रचे गए हैं। संस्कृति के पुनर्जागरण व संस्कृत भाषा के एक महान पुनरूत्थान के कारण पल्लव युग के दक्षिणी भाग में साहित्यिक व सांस्कृतिक विकास को बल दिया। परंपरा यह उल्लेखित करती है कि पल्लव राजा सिंह विष्णु ने महान कवि भार्वी को उनकी सभा सुशोभित करने का निमंत्रण दिया था, दण्डी, जो कि संस्कृत भाषा के महान साहित्यकार थे सम्भवतः वे नरसिंह वर्मन द्वितीय की सभा में उपस्थित रहते थे। राज संरक्षण के अधीन कांची संस्कृत भाषा और साहित्य का आधार केन्द्र बन गया था। अध्ययन व शिक्षा का केन्द्र कांची, साहित्यिक विद्वानों के आकर्षण का केन्द्र बन गया था। पल्लव देश के दीननाग, कालिदास, भार्वी, वराहमिहिर मध्य न केवल संस्कृत साहित्य, अपितु तमिल साहित्य को भी अत्यधिक प्रोत्साहन मिला। महेन्द्रवर्मन द्वारा लिखित रचना ‘‘मत्तविलासा प्रहासना‘‘ अत्यधिक प्रसिद्ध हुई। प्रसिद्ध शास्त्रीय तमिल काव्य ‘‘कुरल‘‘ भी इसी काल में राज संरक्षण के अधीन रचा गया। मदुरई तमिल साहित्य व संस्कृत का एक महान केन्द्र बन गया था। तमिल व्याकरण ‘‘तोल्काप्पियम‘‘ व तमिल छंद संकलन ‘‘एट्टालोगाई‘‘ इत्यादि इसी काल में संकलित किए गए। यह सभी साहित्यिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण थे।
छठी शताब्दी से संस्कृत के पुनरूत्थान के कारण, लम्बी कविता रचना ने आरम्भिक शैली की छोटी कविता रचना का स्थान ले लिया। कविताएं समाज के कुलीन व परिष्कृत लोगों की रूचि के अनुसार लिखी जाती थी। ‘‘सिलप्पदिगारम‘‘ पल्लव काल की उन्हीं रचनाओं में से एक है जो समाज के परिष्कृत व शिक्षित वर्ग को अतिप्रिय थी। उस काल का सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्य कम्बन द्वारा रचित ‘‘रामायणम्‘‘ था। इसे रामायण के तमिल रूप व तमिल संस्करण के रूप में जाना जाता है, जिसमें रावण के सभी महान गुणों में श्री राम के समान गुणों से तुलना कर चित्रित किया गया है। यह वाल्मीकि की उत्तरी रामायण के प्रति तमिल परपंरा और तमिल अहम् के संकेत देती है। इस काल में बौद्ध साहित्यिक कार्य ‘‘मणिमेखला‘‘ और जैन कविता रचना ‘‘शिभागा सिंदमणि ’’ इत्यादि भी विकसित हुए।
वैष्णव अलवरों व शैव नारायणों द्वारा संकलित भक्ति गीतों का भी पल्लव काल के सांस्कृतिक पुनरूत्थान में महत्वपूर्ण स्थान है। अप्पार, संबंधर, मणिक्कबसागर, सुन्दर कुछ धार्मिक नारायण कवि थे जिन्होंने तमिल स्तोत्रों व स्तवनों की रचना की जो शिव आराधना और भक्ति का ध्येय था। चूंकि पल्लव राजा महान संगीतज्ञ थे वे संगीत के महान संरक्षक थे। कई प्रसिद्ध संगीत निबंध भी उनके आश्रय के अधीन रचित हुए। उसकाल में चित्रकारी को भी पल्लव राजाअें से महान आश्रय मिला। पल्लव चित्रकला के प्रतिरूप पुद्दुकोट्टई राज्य में पाए गए हैं।
पल्लव सभ्यता पर आठवीं शताब्दी में भारतवर्ष में फैले धार्मिक पुनरूत्थान आंदोलन का अत्यधिक प्रभाव पड़ा था। पुनरूत्थान की लहर सर्वप्रथम राज्य में उत्पन्न हुई थी। पल्लवों ने भारत के दक्षिणी भाग का आर्यनीकरण पूर्ण किया। वे जैन जो प्राचीन काल में दक्षिण भारत में प्रवेश कर चुके थे, उन्होंने मदुरई व कांची में शिक्षण केन्द्र स्थापित किए। उन्होंने अपने उपदेशों के माध्यमों के रूप में संस्कृत, प्राकृत और तमिल भाषा का व्यापक रूप में उपयोग किया। परन्तु लोकप्रिय होते ब्राम्हणवादी हिन्दूत्व के साथ प्रतियोगिता में जैन धर्म ने लंबी दौड़ में अपनी प्रमुखता खो दी।
महेन्द्रवर्मन की जैन पंथ में रूचि समाप्त हो चुकी थी और वे शैव पंथ के दृढ़ अनुयायी व आश्रयदाता बन गये। फलस्वरूप जैन पंथ धूमिल हो गया और पुदुकोट्टई जैसे केन्द्रों व पहाड़ी क्षेत्रों व वन क्षेत्रों में उसकी कीर्ति कम होती चली गई। बौद्ध धर्म जो कि दक्षिण में प्राचीन काल में ही प्रवेश कर चुका था उसे मठों व सार्वजनिक तर्क-वितर्क में प्रवेश कर रहे ब्राम्हणवाद से लड़ना पड़ा। बौद्ध विद्वानों ने ब्राम्हण विद्वानों के साथ धर्मशास्त्र के महीन बिन्दुओं पर तर्क किया और अधिकतर बौद्ध विद्वान पराजित रहे।
पल्लवकाल की सभ्यता हिन्दू धर्म के अद्भुत प्रभुत्व के कारण उल्लेखनीय है जो कि आधुनिक इतिहासकारों द्वारा उत्तरी आर्यों के विजय चिन्ह के रूप में देखी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि उत्तर भारत में म्लेच्छ शकों, हूणों व कुषाणों के अंतः प्रवेश ने वैदिक संस्कारों और धर्म को व्यापक रूप में मलिन कर दिया था। वैदिक धर्म की पवित्रता के संरक्षण के लिए कई ब्राम्हणों ने दक्षिण भारत में प्रवास किया और वैदिक धर्म का प्रचार किया। इस प्रकार दक्कन या दक्षिण भारत की सभ्यता अधिकतम ब्राम्हणवादी हिन्दूत्व से प्रभावित हुई। पल्लव रूढ़िवादी वैदिक प्रचार के आश्रयदाता बन गए। पल्लव शासकों द्वारा अश्वमेध यज्ञ करना वैदिक सभ्यता के प्रभुत्व की संपुष्टि करता है। हिन्दूत्व की सफलता का मुख्य कारण इस धर्म को मिला राज संरक्षण था।
संस्कृत ने ब्राम्हण विचारों के वाहक का कार्य किया। इसलिए ब्राम्हण धर्म व संस्कृत साहित्य ने पल्लव काल में एक महान प्रगति की। कई ब्राम्हण अध्ययन केन्द्र प्रकट हुए। ये अध्ययन केन्द्र मंदिर परिसर से निकटता से जुड़े हुए थे जिन्हें घेतिका कहा जाता था। ब्राम्हण-शास्त्र और साहित्य का अध्ययन उस काल की आवश्यकता बन चुकी थी। पल्लव राजाओं ने ब्राम्हण सभ्यता के प्रचार के लिए शिक्षण संस्थानों के रखराव के लिए अनुदान या अग्रहार दिए। 8वीं शताब्दी के अन्य हिन्दू संस्थान जिन्हें मठ कहा जाता है, प्रचलन में आए। वे मंदिरों, विश्राम-गृहों, शिक्षण संस्थाओ, विचार व प्रवर्तन केन्द्रों और अन्न क्षेत्रों के संयोजन थे।
कांची का विश्वविद्यालय दक्षिण में आर्य-ब्राम्हण प्रभाव की मुख्य शक्ति बन गया। कांची हिन्दूओं के पवित्र शहरों में से एक माना जाता था। यद्यपि पल्लव राजा विष्णु व शिव के उपासक थे, उनके मन में अन्य धार्मिक मतों के प्रति सहिष्णुता थी। यद्यपि पल्लव काल में बौध धर्म व जैन धर्म ने अपने पूर्व महत्व को खो दिया था। पल्लव काल पल्लवों द्वारा बहु जातीयता को प्रवर्तित करने के लिए चिन्हित किया गया था।
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