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पर्यावरण संरक्षण
1.0 प्रस्तावना
भारत में प्राचीन काल से ही विभिन्न समुदायों, संस्कृतियों और प्रथाओं ने एकसाथ मिल कर जैव-विविधता की सुरक्षा और संरक्षण सुनिश्चित किया है। यह इस तथ्य से जुड़ा हुआ था कि तत्कालीन सांस्कृतिक और आर्थिक आवश्यकताएं आज की तुलना में काफी भिन्न थीं। पूर्व में प्रकृति पर कहर बरपाने के लिए अनियंत्रित पूंजीवाद और भौतिकवाद अस्तित्व में नहीं थे। आज के जमाने में यही मुख्य दर्शन बना हुआ है।
संरक्षण की इस समृद्ध परंपरा के परिप्रेक्ष्य में, भारत को आज इस बात का श्रेय है कि हालांकि वह विश्व की सबसे अधिक सघन जनसंख्या वाले देशों में से एक है, फिर भी वह विश्व के सबसे विशाल जैव-विविधता वाले देशों में से भी एक है। दुर्भाग्य से इसकी जैव-विविधता पतन की दर भी विश्व में सबसे अधिक में से एक है।
भारत 32.87 मिलियन वर्ग किमी के क्षेत्र में फैला हुआ एक बड़ा और विविध देश है, जिसके उत्तर में हिमालय है तो दक्षिण में हिंद महासागर के तट, पश्चिम में सुखे मरूस्थल हैं तो पूर्व में उष्णकटिबंधीय वर्षा वन। भारतीय उप-महाद्वीप को हिमालय पर्वत श्रंखला मुख्य एशियाई भूमि से अलग करती है। देश 80 4’ और 370 6’ अक्षांश उत्तर तथा 680 7’ और 970 25’ देशांतर पूर्व के बीच फैला हुआ है। उत्तर से दक्षिण तक इसकी दूरी 3,214 किमी तथा पश्चिम से पूर्व के मध्य इसकी दूरी लगभग 2,933 किमी है। पड़ोसी देशों के साथ भारत की सीमा रेखा लगभग 15,200 किमी है तथा समुद्र तट की कुल लंबाई लगभग 7,500 किमी है। राजनीतिक रूप से, भारत 29 राज्यों का (वर्ष 2014 में बने तेलंगाना सहित) और सात केंद्र शासित प्रदेश का एक संघ है, जिसमें दक्षिण-पूर्व की ओर अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और हिंद महासागर तथा दक्षिण-पश्चिम में लक्षद्वीप द्वीप समूह शामिल हैं। भारत की सीमा अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल, चीन और श्रीलंका देशों को छूती है। भारत में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मानव आबादी है, जिसमें 136 करोड़ से अधिक लोग हैं (वर्ष 2019 में)। भारत का भूभाग वैश्विक भू-क्षेत्र का केवल 2.4 प्रतिशत है लेकिन इसकी जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग 17.5 प्रतिशत है।
भारत में विशाल भौगोलिक विविधता, विभिन्न प्रकार की जलवायु तथा कई प्रकार की क्षेत्रीय और स्थानीय मौसम की स्थितियाँ हैं। भारत की जलवायु में महाद्वीपीय से तटीय तक की सभी विविधताएं देखने को मिलती है। यहाँ अत्यधिक गर्मी से लेकर अत्यधिक ठंड तक, अत्यधिक शुष्कता और नगण्य वर्षा से लेकर अत्यधिक आर्द्रता और मूसलाधार वर्षा तक होती है। भारत की जलवायु को हिमालय और थार रेगिस्तान ने बहुत प्रभावित किया है। हिमालय, उपमहाद्वीप को मध्य-एशिया से आने वाली ठंडी हवाओं से बचाता है जिससे यह उपमहाद्वीप समान अक्षांशों पर स्थित अन्य स्थानों की तुलना में गर्म रहता है। देश के उत्तरी क्षेत्र अत्यधिक गर्मी और ठंडी सर्दियों के मौसम बारी बारी से होते है, यहाँ महाद्वीपीय जलवायु पाई जाती है। प्रायद्वीपीय भारत में अधिक समशीतोष्ण किंतु सूखी जलवायु पाई जाती है। तटीय क्षेत्रों में प्रचुर वर्षा होती है तथा यह सभी जगह समान रूप से उष्ण है। पूर्वोत्तर में भी प्रचुर मात्रा में वर्षा होती है, लेकिन अधिक बदलता मौसमी तापमान होता है।
2.0 संरक्षण, संरक्षित क्षेत्र और वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972
अनेक व्यक्तियों के लिए पिछली शताब्दी की शुरुआत से ही वन्य जीवों की संख्या में होने वाली कमी चिंता का कारण बनी हुई है। बीते कुछ दशकों के दौरान वन्यजीवों और जैव विविधता की सुरक्षा और संरक्षण इस चिंता से निपटने की दृष्टि से धीमे-धीमे एक उपाय के रूप में उभरा है।
जैव विविधता का संरक्षण वास्तव में क्या है? संरक्षण को निम्नानुसार परिभाषित किया गया है ‘‘विभिन्न प्रजातियों की व्यवहार्य संख्या का उनके प्राकृतिक परिवेश में रखरखाव और पुनरुत्थान, और पालतू या उपजाई गई प्रजातियों के मामले में, उन स्थानों में रखरखाव व पुनरूत्थान जहां उन्होंने अपनी विशिष्ट विशेषताएं विकसित की हैं।‘‘ संरक्षणवादियों का मानना है कि संरक्षण अनेक मार्गों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, परंतु विशेष रूप से यह धारणीय उपयोग की पद्धतियों को अपनाने से और संरक्षित क्षेत्रों का निर्माण करके प्राप्त किया जा सकता है। धारणीय उपयोग को निम्नानुसार परिभाषित किया गया हैः ‘‘जैव-विविधता के घटकों का इस प्रकार और इस दर से उपयोग करना जैव-विविधता का दीर्घकालीन पतन न होने पाये, और इस प्रकार से उसकी वर्तमान और भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं और आकाँक्षाओं की पूर्ति करने की क्षमता बनी रहे।‘‘
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संरक्षित क्षेत्रों की परिभाषा निम्नानुसार की गई हैः ‘‘प्रकृति का, उसकी संबंधित पारिस्थितिकि सेवाओं और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ, दीर्घकालीन संरक्षण प्राप्त करने के लिए कानूनी या अन्य प्रभावी माध्यमों से मान्यताप्राप्त, समर्पित और प्रबंधित एक स्पष्ट रूप से परिभाषित भौगोलिक क्षेत्र।‘‘
हालांकि ये परिभाषाएँ पिछले कुछ वर्षों के दौरान ही उभरी हैं, फिर भी, हम जिस प्रकार आज संरक्षित क्षेत्रों को समझते हैं, इस संकल्पना का जन्म इससे काफी पहले 1864 में तब हुआ था जब संयुक्त राज्य अमेरिका में येल्लोस्टोन राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना की गई थी। उसी मॉडल का अनुकरण करते हुए भारत पहले आधुनिक संरक्षित क्षेत्र का गठन 1931 में किया गया था, जिसे उस काल में हेली राष्ट्रीय उद्यान (जिसे आज हम उत्तराखंड़ के कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान के रूप में जानते हैं) कहा जाता था। इसके बाद देश के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में संरक्षित क्षेत्रों का निर्माण किया गया। अंत में 1972 में भारतीय वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम पारित किया गया, जिसने देश में अन्य अनेक संरक्षित क्षेत्रों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। इसके अतिरिक्त भारत सरकार ने गैंड़ों, घड़ियालों, हाथियों और बाघों जैसे लुप्तप्राय विशाल प्राणियों की संख्या के पुर्नजीवन और संरक्षण के लिए अन्य अनेक कार्यक्रमों की शुरुआत की - जिनमें से बाघों के संरक्षण को 1973 में, बाघ परियोजना की शुरुआत के माध्यम से किया गया है, ताकि देश की इस लुप्तप्राय बिल्ली प्रजाति की सुरक्षा की जा सके।
भारत में वन्य जीवों सहित जैवविविधता के संरक्षण की मुख्य जिम्मेदारी पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की है, जिसका प्रभार पर्यावरण मंत्री के पास है और जिसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है। यह मंत्रालय जैवविविधता के संरक्षण से संबंधित राष्ट्र-स्तरीय कार्यक्रमों, नीतियों और अधिनियमों की अगुवाई करता है। इसी के साथ प्रत्येक राज्य में राज्य के पर्यावरण मंत्रालय, पर्यावरण मंत्री और वन विभाग हैं जिनकी जिम्मेदारी राज्यों में केंद्रीय योजनाओं के क्रियान्वयन के साथ ही अपने राज्यों की जैवविविधता के संरक्षण के उद्देश्य से राज्य-स्तरीय नीतियां बनाना भी है।
भारत में संरक्षित क्षेत्र की कोई विशिष्ट परिभाषा नहीं है; कोई भी ऐसा क्षेत्र जिसे केंद्र सरकार या राज्य सरकारें संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानती हैं उसे वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत एक निर्दिष्ट दर्जा प्रदान कर दिया जाता है और फिर उस क्षेत्र को कानूनी रूप से संरक्षित क्षेत्र मान लिया जाता है। 2002 तक वन्यजीव संरक्षण अधिनियम में केवल दो प्रकार के संरक्षित क्षेत्र थे - राष्ट्रीय उद्यान और वन्य जीव अभयारण्य। 2002 में इस अधिनियम में किये गए संशोधन के माध्यम से इसमें दो और श्रेणियों को शामिल किया गया - संरक्षण रिजर्व और समुदाय रिजर्व। 2006 में किये गए अगले संशोधन के साथ इसमें एक और श्रेणी शामिल की गई जिसे बाघ रिजर्व कहा गया।
2.1 राष्ट्रीय उद्यानः वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का अध्याय 4 भाग 35 (1)
कोई भी राज्य सरकार किसी क्षेत्र को राष्ट्रीय उद्यान के रूप में घोषित कर सकती है यदि वह सोचती है कि वह क्षेत्र पारिस्थितिकि, विशिष्ट पशुओं, वनस्पति, भू-आकार की या अन्य प्राणियों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस उद्देश्य का पालन करते हुए, ऐसे क्षेत्रों में निवास करने वाले समुदायों के अधिकारों के निपटान (settlement of rights) की प्रक्रिया की जाती है, और जब सभी अधिकारों का निपटारा कर लिया जाता है, क्षेत्र को अधिग्रहित कर लिया जाता है, या स्थानीय समुदायों का पुनर्वसन कर दिया जाता है तो इस क्षेत्र को अंतिमतः अधिसूचित राष्ट्रीय उद्यान (Notified National Park) के रूप में घोषित कर दिया जाता है। इस वर्ग की सबसे सामान्य व्याख्या यह है कि राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र में किसी भी प्रकार के मानवी निवास या मानवी प्रवेश और उस क्षेत्र में विद्यमान संसाधनों पर अधिकार की अनुमति नहीं दी जा सकती। यदि कोई गांव भौगोलिक रूप से ऐसे राष्ट्रीय उद्यान में स्थित हो, और उसका पुनर्वसन नहीं किया जा सकता, तो कानूनी रूप से ऐसे गांव को राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र से बाहर निकाला जाता है। यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि किसी भी संरक्षित क्षेत्र से स्थानीय लोगों की सहमति के बिना, और उचित क्षतिपूर्ति दिए बिना स्थानांतरण नहीं किया जा सकता।
2.1.1वन्यजीव अभयारण्यः वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का अध्याय 4 भाग 18 (1)
कोई भी राज्य सरकार किसी क्षेत्र को वन्यजीव अभयारण्य के रूप में घोषित कर सकती है यदि वह सोचती है कि वह क्षेत्र पारिस्थितिकि, विशिष्ट पशुओं, वनस्पति, भू-आकारिकी या अन्य प्राणियों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस उद्देश्य का पालन करते हुए, ऐसे क्षेत्रों में निवास करने वाले समुदायों के अधिकारों के निपटान की प्रक्रिया की जाती है, और जब सभी अधिकारों का निपटारा कर लिया जाता है, क्षेत्र को अधिग्रहित कर लिया जाता है, या स्थानीय समुदायों का पुनर्वसन कर दिया जाता है तो इस क्षेत्र को अंतिमतः अधिसूचित वन्यजीव अभयारण्य (Notified Sanctuary) के रूप में घोषित कर दिया जाता है। वन्यजीव अभयारण्य में मानव निवास की अनुमति दी जाती है और अधिकारों के निपटारे के बाद प्रवेश के अधिकार और संसाधनों के अधिकार प्रदान किये जा सकते हैं।
2.2 संरक्षण रिजर्वः वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का अनुच्छेद 36 ए (i)
स्थानीय लोगों के साथ विचार-विमर्श के बाद राज्य सरकार अपने स्वामित्व के किसी क्षेत्र को, विशेष रूप से राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों के आसपास के क्षेत्रों को, और ऐसे क्षेत्रों को जो एक संरक्षित क्षेत्र को दूसरे संरक्षित क्षेत्र से जोड़ते हैं, संरक्षण रिजर्व के रूप में घोषित कर सकती है ताकि भू-दृश्यों, समुद्री दृश्यों, वनस्पतियों और जीवों और उसके वासों को संरक्षण प्रदान किया जा सके। संरक्षण रिजर्व (Conservation Reserve) निर्माण के समय स्थानीय निवासियों के अधिकारों पर किसी भी प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। इस मामले में अधिकारों के निपटान की आवश्यकता नहीं होती।
2.3 समुदाय संरक्षित (रिजर्व): वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का अनुच्छेद 36 सी
राज्य सरकार राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभयारण्य या संरक्षण रिजर्व के बाहर की किसी भी निजी या सामुदायिक भूमि को समुदाय रिजर्व के रूप में घोषित कर सकती है ताकि वनस्पति और जीवों और स्थानीय पारंपरिक या सांस्कृतिक मूल्यों और प्रथाओं को संरक्षित किया जा सके, जहां किसी समुदाय या व्यक्ति ने वन्यजीवों और उनके वासों के संरक्षण की इच्छा प्रदर्शित की है। समुदाय संरक्षित (Community Reserve) निर्माण करते समय भी स्थानीय निवासियों के अधिकारों पर किसी भी प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। इस मामले में भी अधिकारों के निपटान की प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं होती।
2.4 बाघ संरक्षित (रिजर्व): वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का अनुच्छेद 38 व्ही (4)
मूलभूत क्षेत्र और सुरक्षित क्षेत्र का गठनः मूलभूत क्षेत्र को क्रांतिक बाघ प्राकृतिक वास के रूप में भी संदर्भित किया जाता है, और इसमें राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के वे क्षेत्र होते हैं जहां यह स्थापित हो चुका है कि इन क्षेत्रों को बाघों के संरक्षण की दृष्टि से अनतिक्रांत (inviolate) रखना आवश्यक है। क्रांतिक बाघ प्राकृतिक वासों या मूलभूत क्षेत्र के चारों ओर के सुरक्षित या परिधि क्षेत्र को संरक्षण की आवश्यकता कम होती है। सुरक्षित क्षेत्र क्रांतिक बाघ प्राकृतिक वासों की अखंड़ता सुनिश्चित करने के लिए बनाये जाते हैं ताकि बाघों की बढ़ती संख्या के लिए पर्याप्त विचरण स्थान उपलब्ध हो सके।
3.0 अनुसूचित जनजाति एवं अन्य वनवासी (अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (एफ.आर.ए.)
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम में उल्लिखित संरक्षण क्षेत्रों के अतिरिक्त अनुसूचित जनजाति एवं अन्य वनवासी (अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (एफ.आर.ए.) विद्यमान संरक्षित क्षेत्रों के अंदर एक अधिक कठोर श्रेणी के निर्माण का प्रावधान करता है, जिसे क्रांतिक वन्यजीव प्राकृतिक वास (Critical Wildlife Habitat) कहा जाता है।
3.1 एफ.आर.ए. का अनुच्छेद 2(बी) और अनुच्छेद 4(2) (ए-एफ)
नवंबर 2014 की स्थिति के अनुसार भारत में 692 संरक्षित क्षेत्र हैं जो देश के कुल क्षेत्रफल के 4.83 प्रतिशत क्षेत्र पर व्याप्त हैं। इन संरक्षित क्षेत्रों में 103 राष्ट्रीय उद्यान, 525 वन्यजीव अभयारण्य, 4 समुदाय संरक्षित और 60 संरक्षण रिजर्व है।
देश में ऐसे भी क्षेत्र हैं जिनका संरक्षण या तो अन्य राष्ट्रीय अधिनियमों के माध्यम से या अंतर्राष्ट्रीय संधियों और सम्मेलनों के माध्यम से किया जाता है। इनमें से कुछ क्षेत्र निम्नानुसार हैंः- विद्यमान संरक्षित क्षेत्रों के आसपास के बडे़ भू-दृश्यों और समुद्री दृश्यों के संरक्षण के उद्देश्य से यूनेस्को के मनुष्य एवं जीवमंडल कार्यक्रम (UNESCO's Man & Biosphere Programme) के तहत निर्मित जीवमंडल संरक्षित। इन क्षेत्रों को धारणीय उपयोग क्षेत्र माना जाता है।
- विश्व विरासत स्थल ऐसे क्षेत्र हैं जो सार्वभौमिक स्वरुप और सांस्कृतिक मूल्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, और इन्हें सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक विरासत पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के तहत संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया है। यह दर्जा आमतौर पर किसी पहले से ही विद्यमान संरक्षित क्षेत्र को प्रदान किया जाता है।
- पक्षियों के संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्रों की ओर विशेष ध्यान देने के लिए महत्वपूर्ण पक्षी क्षेत्रों को चिन्हित किया जाता है। इन क्षेत्रों को राष्ट्रीय संरक्षण संगठनों की सहायता से अंतर्राष्ट्रीय पक्षी-जीवन द्वारा चिन्हित किया जाता है, जो यूनाइटेड किंगडम स्थित एक संगठन है। ये क्षेत्र देश का संरक्षित क्षेत्रों के संजाल में शामिल क्षेत्र भी हो सकते हैं और नहीं भी हो सकते।
- विशेष जैवविविधता मूल्य के आर्द्रभूमि क्षेत्रों को रामसर स्थलों (Ramsar sites) के रूप में घोषित किया जा सकता है। इन क्षेत्रों की घोषणा रामसर सम्मेलन (Ramsar Convention) नामक आर्द्रभूमि पर अंतर शासन संधि के तहत की जाती है, जिसपर 1971 में ईरान के रामसर नामक स्थान पर देशों द्वारा हस्ताक्षर किये गए थे। आज तक इस संधि पर 160 देशों द्वारा हस्ताक्षर किये गए हैं, जिसमें आर्द्रभूमियों और उनके संसाधनों के समझदारी पूर्वक उपयोग और संरक्षण के लिए राष्ट्रीय कार्यवाही और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की रूपरेखा प्रदान की गई है। यह एकमात्र ऐसी अंतर-शासन संधि है जो एक विशिष्ट पारिस्थितिकी से संबंधित है। भारत में 19 आर्द्रभूमि स्थलों को रामसर स्थलों के रूप में घोषित किया गया है, जो लगभग 648,507 हेक्टेयर क्षेत्र में व्याप्त है।
- प्राथमिकता प्राप्त स्थानीय औषधि वनस्पति प्रजातियों की व्यवहार्य संख्या का उनके प्राकृतिक वासों में संरक्षण करना। उपयुक्त संरक्षण दृष्टिकोणों के विकास के लिए औषधि वनस्पतियों के जैविक और पारिस्थितिकीय पहलुओं पर अध्ययन आयोजित करना।
- प्रभावी संरक्षण के लिए औषधि वनस्पति संरक्षण क्षेत्रों के प्रबंधन के प्रति संसाधन प्रबंधकों और स्थानीय समुदायों को संवेदनशील और सक्षम बनाना। औषधि वनस्पति के दीर्घकालीन संरक्षण के लिए उपयुक्त रणनीतियां और तंत्र निर्मित करना और उनका विकास करना।
- औषधि वनस्पति संरक्षण क्षेत्रों की स्थापना विभिन्न जैव-भौगोलिक क्षेत्रों और सूक्ष्म जलवायु क्षेत्रों में की गई है जिनमें विशिष्ट राज्यों में उपलब्ध प्राथमिकता प्राप्त औषधि वनस्पति प्रजातियों की व्यवहार्य संख्या और अधिकतम प्राकृतिक वास विविधता को शामिल किया गया है। इनका चिन्हीकरण और प्रबंधन राज्य के वन विभाग और स्थानीय लोगों के सहयोग से किया जाता है।
4.0 भारत में समुदाय संरक्षित क्षेत्र (Community Conserved Areas in India)
ऊपर ऐसे उदाहरण दिए गए हैं जहां भारत सरकार या राष्ट्रीय और/या अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी अभिकरणों ने जैव-विविधता के संरक्षण के लिए विभिन्न कदम उठाये हैं। इनके अतिरिक्त भारत में ऐसे हजारों क्षेत्र हैं जहां विभिन्न समुदाय विनियमित उपयोग, संसाधनों के प्रबंधन और विभिन्न प्रजातियों और उनके प्राकृतिक वासों के संरक्षण की प्राचीन प्रथाओं और परंपराओं का आज भी पालन करना जारी रखे हुए हैं, या विभिन्न कारणों से उन्होंने हाल के वर्षों में ऐसी पद्धतियाँ विकसित की हैं। भारत में ऐसे क्षेत्रों को समुदाय संरक्षण क्षेत्र कहा जाने लगा है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इन्हें स्वदेशी और समुदाय संरक्षण क्षेत्र कहा जाता है। स्वदेशी और समुदाय संरक्षण क्षेत्रों को निम्नानुसार परिभाषित किया जाता है, ‘‘प्राकतिक और/या संशोधित पारिस्थितिकी तंत्र जिनमें बडे़ पैमाने पर जैवविविधता मूल्य, पारिस्थितिकी लाभ और सांस्कृतिक मूल्य विद्यमान हैं, जिनका संरक्षण स्वेच्छा से स्वदेशी लोगों और स्थानीय समुदायों द्वारा प्रथागत नियमों या अन्य प्रभावी साधनों के माध्यम से किया जाता है, और जो गतिहीन और गतिशील दोनों प्रकार के हैं।‘‘ इनमें उन वृक्षों का संरक्षण भी शामिल है जिनपर प्रवासी और घरेलू पक्षी अपना घौंसला बनाते हैं और बसेरा करते हैं, गांवों की सिंचाई के लिए उपयोग की जाने वाली टंकियों का रखरखाव और संरक्षण भी शामिल है, जिनका उपयोग वन्य पशु-पक्षियों द्वारा भी किया जाता है, तटीय क्षेत्र जहां युवा समूह कछुओं और उनके आवास स्थलों के संरक्षण में लगे हुए हैं, वन्य क्षेत्र जिनका उपयोग और संरक्षण स्थानीय लोगों द्वारा किया जाता है, नदियों के कुछ भाग जहां मछली पकड़ना पूर्णतः प्रतिबंधित है, और इसी प्रकार के अन्य अनेक प्रकार संरक्षण की दृष्टि से किये जाते हैं।
समुदाय संरक्षित क्षेत्रों में उपयोग किये जाने वाले तंत्रों की श्रृंखला भी अत्यंत चित्ताकर्षक है। लगभग सभी स्थानों पर समुदायों ने विभिन्न नियम और विनियम बनाये हैं, और इनका उल्लंघन करने वालों को दंड़ित किया जाता है। आमतौर पर क्षेत्र के संरक्षण के लिए एक विशिष्ट व्यवस्था भी विद्यमान है, जैसे वन संरक्षण समितियां, युवा समूह, वन्यजीव संरक्षण समूह, महिला समितियां, यहां तक कि समग्र रूप से ग्राम सभा भी इस कार्य में शामिल होती है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि समुदायों द्वारा संरक्षण के इस कार्य की सफलता में समुदाय के अंदर से उभरे सशक्त नेतृत्व और बाहर से प्राप्त प्रेरक सहायता की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।
चूंकि ये स्थान आधिकारिक रूप से मान्यताप्राप्त स्थान नहीं हैं, और अधिकांश स्थानों पर अनौपचारिक रूप से संरक्षण क्षेत्र निर्मित किये गए हैं, अतः इनकी सही-सही संख्या का आकलन कर पाना कठिन है। हालांकि अनुमान है कि ऐसे हजारों स्थान आज भी विद्यमान हैं जहां समुदाय स्तर पर पर्यावरण, जैवविविधता और पारिस्थितिकी संरक्षण का कार्य किया जा रहा है, साथ ही देश भर में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में ऐसे अनेक नए क्षेत्र स्थापित किये जा रहे हैं। 2009 में प्रकाशित एक दस्तावेज में भारत भर के 150 से अधिक ऐसे स्थानों का वर्णन दिया गया है, साथ ही इसमें ऐसे 300 अन्य स्थानों की सूची दी गई है जिनके विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई है। इसके बाद ऐसे अनेक नए उदाहरण सामने आये हैं। सबसे बडे़ संरक्षित क्षेत्रों में से एक है खोनोमा त्रगोपन और वन्य जीव अभयारण्य, जो लगभग 20 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है जहां शिकार और संसाधन उत्खनन से प्रतिबंधित है। इस क्षेत्र एक आसपास के और 50 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में केवल घरेलू उपयोग की आवश्यकताओं के लिए संस्थानों के न्यूनतम अनुमति है। साथ ही गांव ने अपने संपूर्ण 125 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में सभी प्रकार के शिकार को प्रतिबंधित किया हुआ है; हाल ही में इस क्षेत्र में मौसमी और आवश्यकता आधारित शिकार की अनुमति प्रदान की गई है।
असम के बोंगाईगांव जिले में शंकर घोल गांव के ग्रामीण कुछ सौ हेक्टेयर के एक वन का संरक्षण कर रहे हैं जहां अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त सुनहरे लंगूर की अत्यंत लुप्तप्राय प्रजाति की एक टोली का प्राकृतिक वास है। राजस्थान के कीचन गांव के ग्रामीण सर्दी के मौसम में वहां 10,000 पक्षियों से भी अधिक की विशाल संख्या में आने वाले जवान सारस पक्षियों को संरक्षण और भोजन प्रदान कर रहे हैं। इस कार्य के लिए ग्रामीणों द्वारा बिना किसी ना-नुकुर या शिकायत के लाखों रुपये खर्च किये जाते हैं।
गोवा, केरल और ओड़िशा में, जो समुद्री कछुओं के निवास स्थल हैं, जैसे गलजीबाग और ऋषिकुल्या समुद्र तटों का संरक्षण स्थानीय मछुआरों की गतिविधियों के माध्यम से किया जा रहा है। कुमाऊं के ऊपरी पर्वतीय क्षेत्रों की गोरी गंगा नदी घाटी के 2,240 वर्ग किलोमीटर पट्टे में से 1439 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का प्रक्बंधन गांव की वन पंचायत के अधीन है। यह क्षेत्र नंदादेवी जीवमंडल संरक्षण क्षेत्र और अस्कोट वन्यजीव अभयारण्य क्षेत्र के बीच एक महत्वपूर्ण गलियारे का निर्माण करता है, जो पर्वतीय मैदानों की जैवविविधता की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र है। ऊपर उल्लेख की गई संरक्षण पहलों के अतिरिक्त ऐसी अनगिनत घटनाएं हैं जिनके माध्यम से स्थानीय समुदायों ने प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र और वन्यजीवों को निश्चित विनाश से बचाया है।
उदाहरणों के रूप में उन विशाल बांधों को शामिल किया जा सकता है जिनके निर्माण के कारण वनों के विशाल क्षेत्र और अन्य महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तर डूब क्षेत्र में आ जाते, और जिनका निर्माण कार्य जन आंदोलनों के कारण रोक दिया गया। इनमें महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ का प्रस्तावित भोपालपटनम-इच्छामपल्ली बांध शामिल है जिसके कारण छत्तीसगढ़ के बोधघाट के इंद्रावती और सिक्किम के रथांग चु बाघ संरक्षित का अधिकांश भाग जलमग्न हो जाता। ऐसे ही अनेक आंदोलनों ने आधिकारिक संरक्षित क्षेत्रों से बडे़ नहीं फिर भी उतने ही विशाल क्षेत्रों का संरक्षण किया है।
समुदायों द्वारा संरक्षित अनेक स्थलों को वन्यजीव मूल्यों की दृष्टि से इतना अधिक महत्वपूर्ण और मूल्यवान माना गया है कि इन स्थलों को संबंधित राज्य सरकारों द्वारा राष्ट्रीय उद्यानों या वन्यजीव अभयारण्यों के रूप में घोषित कर दिया गया है। पंजाब में बिश्नोई के स्वामित्व की भूमि, जिसमें भारी संख्या में कृष्णमृग और चिंकारा मौजूद हैं, को पंजाब सरकार द्वारा अबोहर अभयारण्य घोषित कर दिया गया है। उसी प्रकार दक्षिण भारत के नेल्लापट्टू, वेदंथंगल, और चित्तरंगुड़ी जैसे बगुलों के अंडे़ देने के स्थानों को अब वन्यजीव अभयारण्य बना दिया गया है।
संरक्षण से संबंधित परिभाषाएं
कृषिजैवविविधता - यद्यपि कृषि जैव-विविधता शब्द नया है परंतु इसकी अभिधारणा पुरानी है। यह किसानों, चरवाहों तथा मत्स्य पालनकर्ताओं द्वारा सावधानीपूर्वक किये गये चयन एवं खोजपूर्ण विकास का परिणाम है। यह मानव जाति द्वारा भोजन तथा कृषि के लिये महत्त्वपूर्ण विभिन्न जैविक सम्पदा के निरंतर रख-रखाव द्वारा सृजित होती है। इस प्रकार कृषि जैव-विविधता, जिसे एग्रो बायो-डायवर्सिटी भी कहते हैं, के अंतर्गत निम्नांकित सम्मिलित हैं-फसलों की किस्में, पालतू जानवरों तथा मछलियों की प्रजातियों, जंगलों में उपलब्ध प्रा.तिक सम्पदा, जंगली क्षेत्र तथा जलीय पारिस्थितिक तंत्र।
जैव-विविधता - जैव-विविधता (जैविक-विविधता) जीवों के बीच पायी जाने वाली विभिन्नता है जो कि प्रजातियों में, प्रजातियों के बीच और उनकी पारितंत्रों की विविधता को भी समाहित करती है।
जैवक्षेत्र - जैवक्षेत्र (या बायोम) धरती या समुद्र के किसी ऐसे बड़े क्षेत्र को बोलते हैं जिसके सभी भागों में मौसम, भूगोल और निवासी जीवों (विशेषकर पौधों और प्राणीयों) की समानता हो। किसी बायोम में एक ही तरह का परितंत्र (ईकोसिस्टम) होता है, जिसके पौधे एक ही प्रकार की परिस्थितियों में पनपने के लिए एक जैसे तरीके अपनाते हैं। (जैसे देवदार के जंगल एवं घास के मैदान)
बफर क्षेत्र - ऐसे क्षेत्र जो मूल संरक्षित क्षेत्रों एवं आसपास के क्षेत्र (या समुद्र) के मध्य में होत हैं व संभावित बाहरी-हानिकारक प्रभावों से उनकी रक्षा करते हैं। अनिवार्य रूप से ये अवस्थापरिवर्तनकालिक क्षेत्र होते हैं।
सामुदायिक संरक्षित क्षेत्र - स्थानीय लोगों और स्थिर या घुमंतु समुदायों द्वारा स्वेच्छा से प्रथागत कानूनों या अन्य प्रभावी साधनों द्वारा संरक्षित प्रा.तिक और संशोधित पारिस्थितिक तंत्र, जिनमें महत्वपूर्ण जैव विविधता, पारिस्थितिक सेवाएं और सांस्कृतिक मूल्य शामिल हैं।
कॉरिडोर वे - मूल-क्षेत्रों के बीच आवाजाही को बनाए रखकर महत्वपूर्ण पारिस्थितिक या पर्यावरणीय संबंधों को बनाए रखने के लिए बनाए गए रास्तें।
पारिस्थितिकी तंत्र - पारिस्थितिकी तंत्र एक कार्यशील क्षेत्रीय इकाई होता है, जो क्षेत्र विशेष के सभी जीवधारियों एवं उनके भौतिक पर्यावरण के सकल योग का प्रतिनिधित्व करता है।
पारिस्थितिक तंत्र सेवाएँ - पारिस्थितिक तंत्र से लोगों को मिलने वाले लाभ, जिनमें प्रवाधान सेंवाएँ जैसे कि भोजन और पानी, रोकथाम संबंधी सेवाएँ जैसे कि बाढ़, सूखा, भूमि-क्षरण और बीमारी की रोकथाम, सहयोगीय सेवाएँ जैसे कि मृदा एवं पोषक-चक्र निर्माण तथा सांस्.तिक सेवाएं जैसे मनोरंजन, आध्यात्म, धर्म तथा अन्य भौतिक विश्व से परे के लाभ इत्यादि शामिल हैं।
भू-विविधता - खनिजों, चट्टानों (चाहे ‘ठोस’ या ‘तरल’), जीवाश्म, भू-आकृतियों, तलछट और मिट्टी इत्यादि की विविधता जो प्राकृतिक प्रक्रियाओं के साथ मिलकर जो पृथ्वी की स्थलाकृति, परिदृश्य और अंतर्निहित संरचना का निर्माण करती हैं।
स्व-स्थामिक संरक्षण (इन-सितु) - पालतू या उत्पादन की जा सकने वाली प्रजातियों, जिन्होंने अपने विशिष्ट गुण विकसित किए हैं, के मामलों में, पारिस्थितिक तंत्र और प्राकृतिक आवासों का उनके प्राकृतिक परिवेश में ही संरक्षण, तथा वहां रह सकने वाली प्रजातियों की आबादी का रखरखाव और पुर्नवास।
स्थानीय और आदिवासी लोग -
- स्वतंत्र देशों में रहने वाले जनजातीय लोग जिनकी सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थितियां उन्हें राष्ट्रीय समुदाय के अन्य वर्गों से अलग करती हैं, तथा जिन्हें पूर्णतः या आंशिक रूप से उनके स्वयं के रीति-रिवाजों या परंपराओं या विशेष कानूनों या नियमों द्वारा शासित किया जाता है ।
- स्वतंत्र देशों में रह रहे वे लोग जो हालिया विजयों, उपनिवेशों या वर्तमान राज्य की सीमाओं की स्थापना के काफी समय पहले, पुरातन काल से उस देश या भौगोलिक क्षेत्र के निवासी हैं तथा जो वर्तमान कानून के परे अपने स्वयं के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संस्थानों को बनाए हुए हैं।
पवित्र स्थल - लोगों और समुदायों के लिए विशेष आध्यात्मिक महत्व के क्षेत्र।
पवित्र प्राकृतिक स्थल - लोगों और समुदायों के लिए विशेष आध्यात्मिक महत्व वाले प्राकृतिक क्षेत्र जैसे पर्वत, नदी इत्यादि।
सतत उपयोग - जैविक विविधता के घटकों का इस तरह या ऐसी दर पर उपयोग जो जैविक विविधता की दीर्घकालिक गिरावट का कारण नहीं बनती है, तथा जिससे उसमें वर्तमान और भावी पीढ़ियों की जरूरतों और आकांक्षाओं को पूरा करने की क्षमता बनी रहती है। (सीबीडी से ली गई यह सतत उपयोग विशिष्ट परिभाषा है, क्योंकि यह जैव विविधता से संबंधित है)।
4.1 जैवविविधता में जारी गिरावट
ऊपर दी गई समस्त जानकारी से ऐसा प्रतीत हो सकता है कि हमारे देश में वन्य जीवों और उनके प्राकृतिक वासों का पर्याप्त संरक्षण किया जा रहा है। परंतु यह सत्य नहीं है। बल्कि पिछले कुछ दशकों के दौरान अवकर्षण की दर में काफी वृद्धि हुई है।
इस गिरावट के अनेक कारण हैं, और इनमें से सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण कारण है स्वयं संरक्षण नीतियां। इन नीतियों को जैवविविधिता की गिरावट को रोकने में सीमित सफलता प्राप्त हुई है, और कुछ मामलों में तो इन नीतियों ने अपने उद्देश्यों के विरुद्ध कार्य किया है, और इन क्षेत्रों में, जिन्हें संरक्षित क्षेत्रों के रूप में संरक्षित किया जा रहा है, और उनके आसपास निवास करने वाले स्थानीय समुदायों को अलग-थलग कर दिया है। ऐसा उन्होंने इसलिए किया है क्योंकि उन्होंने दो महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया हैः पहला, उन्होंने स्थानीय समुदायों द्वारा चलाई जा रही पारंपरिक संरक्षण प्रथाओं और पद्धतियों को अंतर्निहित नहीं किया है (और इस प्रकार समुदायों द्वारा संरक्षित क्षेत्रों के संवर्धन, समर्थन और पुर्नजीवन के एक अच्छे अवसर को गवां दिया है); दूसरा, और उन्होंने संरक्षित के रूप में घोषित किये गए पारिस्थितिकी तंत्रों और प्रजातियों पर स्थानीय लोगों की आर्थिक और सांस्कृतिक निर्भरता को नजरअंदाज कर दिया है। आगे आने वाले भाग में यह किस प्रकार हुआ इसका वर्णन दिया गया है।
5.0 भारत में पारंपरिक संरक्षण का इतिहास
आज की भारत की संरक्षण की सही ढंग से समझ पाने के लिए इन नीतियों और कानूनों की जड़ों की ओर देखना महत्वपूर्ण होगा। आज हम जिन कानूनों का पालन करते हैं उनमें से अनेक कानून या तो औपनिवेशिक काल में निर्मित किये गए थे, या वे उन्हीं सिद्धांतों और पद्धतियों पर आधारित हैं जिनका पालन हमारे औपनिवेशिक शासक किया करते थे। 19 वीं सदी में ब्रिटेन द्वारा किये गए भारत के औपनिवेशीकरण के कारण जैवविविधता के उपभोग और उसके संरक्षण, दोनों में आमूल परिवर्तन हुए। ब्रिटिश अधिकारी और भारतीय शासक (जो उनके संरक्षण के अधीन थे) खेल के रूप में काफी सघन शिकार की गतिविधियों में लिप्त रहते थे। हालांकि भारतीय समाज भोजन के लिए शिकार के अभ्यस्त था, फिर भी इस स्तर का शिकार भारतीय इतिहास के किसी भी काल में दिखाई नहीं देता। इसके अतिरिक्त, ब्रिटिशों ने कृषकों से प्राप्त होने वाले करों को अधिकतम करने की दृष्टि से कृषि के विस्तार को प्रोत्साहित किया, साथ ही ब्रिटिशों ने शाकाहारी पशुओं के शिकार पर निर्भर रहने वाले मांसभक्षी पशुओं का विनाश किया क्योंकि ब्रिटिश कुलीनों द्वारा शिकार के लिए ये शाकाहारी पशु अधिक पसंद किये जाते थे। इसी के साथ ब्रिटिशों ने (जिस प्रक्रिया को उन्होंने राष्ट्रीयकरण का नाम दिया उसके तहत) भारत के अधिकांश वनों का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया, जिनकी आवश्यकता उन्हें इमारती लकड़ी और अन्य वनोपज से राजस्व वसूल करने के लिए महत्वपूर्ण थी। साथ ही उन्होंने इन वनों, घास के मैदानों और अन्य क्षेत्रों के स्थानीय लोगों द्वारा उपयोग को भी प्रतिबंधित कर दिया, जिनके बारे में उनका कहना था कि वे इन वनों का विनाश कर रहे थे।
वन विभाग की स्थापना 1865 में की गई और भारतीय वन अधिनियम अस्तित्व में आया। इस अधिनियम के साथ पर्यावरण, जिसका वनों में निवास करने वाले समुदायों के लिए बड़ा आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक महत्त्व था, अब पूर्ण रूप से ब्रिटिशों के नियंत्रण में आ गया था।
20वीं सदी के प्रारंभ के आते-आते वन्य जीवों (विशेष रूप से बडे़ जीव) की संख्या में गिरावट शुरू हो गई, और इसीके साथ एक नए हित समूह का उदय हुआ। ये थे ‘‘संरक्षणवादी‘‘, मुख्य रूप से शासक और शिकारी, जो गिरती हुई वन्यजीवों की संख्या के कारण चिंतित थे। इनमें से अधिकांश लोगों का सामान्य जनता से कोई नाता नहीं था, न ही उन्हें उनकी आवश्यकताओं, ज्ञान और पद्धतियों की समझ थी। स्थानीय लोगों को वन्यजीवों के लिए सबसे बडे़ खतरे के रूप में माना जाता था क्योंकि वे लोग उन्हीं स्थानों और उन्हीं संसाधनों को साझा करते थे जिन्हें वन्यजीव करते थे। पहले राष्ट्रीय उद्यान के निर्माण के लिए विद्यमान ग्रामीणों को वहां से बाहर कर दिया गया था, और राष्ट्रीय उद्यान की परिधि पर निवास करने वाले लोगों को अब उद्यान में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी।
आईयूसीएन वर्गीकरण
1ए. कड़े संरक्षित प्राकृतिक क्षेत्र - श्रेणी 1एं जैवविविधता और संभवतः भूवैज्ञानिक/भू-आकृति संबंधी विशेषताओं की रक्षा के लिए अलग से संरक्षित क्षेत्र हैं, जहां संरक्षण मूल्यों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए मानव आवागमन, उपयोग और प्रभावों को कड़ाई से नियंत्रित और सीमित किया जाता है। ऐसे संरक्षित क्षेत्र वैज्ञानिक अनुसंधान और निगरानी के लिए अपरिहार्य संदर्भ क्षेत्रों के रूप में उपयोग आ सकते हैं।
1बी. विल्डरनेस क्षेत्र - श्रेणी 1बी संरक्षित क्षेत्र आमतौर पर बड़े संशोधित या थोड़े संशोधित क्षेत्र होते हैं, जो स्थायी मानव निवास के बिना अपने प्राकृतिक चरित्र और प्रभाव को बनाए रखते हैं, तथा जिनका उनकी प्रा.तिक स्थिति को संरक्षित करने के लिए संरक्षण और प्रबंधन किया जाता हैं।
II नेशनल पार्क - श्रेणी 2 संरक्षित क्षेत्र वे बड़े प्रा.तिक क्षेत्र हैं जिन्हें पारिस्थितिक प्रक्रियाओं के साथ क्षेत्र की प्रजातियों और पारिस्थितिक तंत्रों की रक्षा के लिए अलग किया गया है। साथ ही वे पर्यावरण और संस्कृति के संगत, आध्यात्म, विज्ञान, शिक्षा, मनोरंजन और पर्यटन के अवसर भी प्रदान करते हैं।
III प्राकृतिक स्मारक या फीचर - श्रेणी 3 संरक्षित क्षेत्रों को किसी विशिष्ट प्राकृतिक स्मारक जो कि एक भू-भाग, समुद्री पर्वत, पनडुब्बी गुफा, एक भूवैज्ञानिक विशेषता जैसे कि गुफा या यहां तक कि प्राचीन उपवन जैसी जीवंत स्थान भी हो सकती है की सुरक्षा के लिए अलग रखा गया है। वे आम तौर पर काफी छोटे संरक्षित क्षेत्र हैं और अक्सर इनका पर्यटन मान उच्च होता है।
IV आवास/प्रजाति प्रबंधन क्षेत्र - श्रेणी 4 संरक्षित क्षेत्रों का उद्देश्य विशेष प्रजातियों या आवासों की रक्षा करना है एवं प्रबंधन में यह प्राथमिकता परिलक्षित होती है। कई श्रेणी 4 संरक्षित क्षेत्रों को विशेष प्रजातियों की आवश्यकताओं को पूरा करने तथा आवास के रखरखाव के लिए नियमित, सक्रिय हस्तक्षेप की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन यह श्रेणी की एव आवश्यक शर्त नहीं है।
V संरक्षित लैंडस्केप/सीस्केप - एक संरक्षित क्षेत्र जहां समय के साथ लोगों और प्रकृति के अंर्तसंबंध ने महत्वपूर्ण, पारिस्थितिक, जैविक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक मूल्यों का निर्माण किया है तथा जहाँ इन क्षेत्रों और उनसे जुड़े प्रकृति संरक्षण और अन्य मूल्यों को बनाए रखने लिए इस अंर्तसंबंध की अखंडता की रक्षा करना महत्वपूर्ण है।
VI प्राकृतिक संसाधनों के अक्षय उपयोग के साथ संरक्षित क्षेत्र - श्रेणी 6 संरक्षित क्षेत्र में, पारिस्थितिकी तंत्र और आवासों का संरक्षण, संबद्ध सांस्कृतिक मूल्यों और पारंपरिक प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन प्रणालियों के साथ करते हैं। वे आम तौर पर बड़े क्षेत्र होते हैं, जो अधिकांशतः प्राकृतिक स्थिति में होते है, तथा इनके कुछ भाग पर अक्षय प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन होता है और जहां प्रकृति संरक्षण के साथ संगत प्राकृतिक संसाधनों का निम्न-स्तरीय गैर-औद्योगिक उपयोग मुख्य उद्देश्यों में से एक होता है।
6.0 आधिकारिक वन्यजीव संरक्षण नीति और पद्धतियों का लोगों और संरक्षण पर प्रभाव
जैसा कि हमनें देखा है, वन्यजीव अभयारण्य, राष्ट्रीय उद्यान और बाघ संरक्षित वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम के तहत तीन महत्वपूर्ण प्रकार के संरक्षित क्षेत्र माने जाते हैं। जबकि कानून के तहत वन्यजीव अभयारण्यों में मानव गतिविधियों की अनुमति है, वहीं राष्ट्रीय उद्यानों और बाघ संरक्षितों में किसी भी प्रकार की मानव गतिविधि की अनुमति नहीं है। 2011 की स्थिति के अनुसार भारत का लगभग 5 प्रतिशत प्रदेश संरक्षित क्षेत्रों से व्याप्त है। दूसरी ओर, इन क्षेत्रों ने अनेक पारिस्थितिकी की दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्रों और वन्यजीव प्रजातियों की बांध परियोजनाओं, उत्खनन, शहरी विस्तार, और कृषि विस्तार के कारण पूर्णतः लुप्त होने से सुरक्षा की है। हालांकि महत्वपूर्ण यह है कि इस 5 प्रतिशत क्षेत्र में भी लोगों का निवास है, जिनमें से कई प्राचीन आदिवासी और जनजातीय समुदाय हैं। उपलब्ध जानकारी दर्शाती है कि लगभग 3 से 4 मिलियन लोग भारत के संरक्षित क्षेत्रों में निवास करते हैं, जिनमें से अधिकांश लोग उन समुदायों के सदस्य हैं जो इन क्षेत्रों में इनके संरक्षित क्षेत्र के रूप में अधिसूचित होने से काफी पहले से निवास करते आ रहे हैं। ये सभी लोग (और कई मिलियन अन्य लोग जो इन संरक्षित क्षेत्रों के आसपास निवास करते हैं) भोजन, ईंधन, चारे, औषधियों, गैर-लकड़ी वनोपज, मछली और अन्य जल उत्पादों, निर्वाह, पानी, सांस्कृतिक निर्वाह और अन्य महत्वपूर्ण संसाधनों के लिए स्थानीय संसाधनों पर निर्भर हैं।
चूंकि अब ये सभी लोग भी बाजार अर्थव्यवस्था और नकद आय से जुडे़ हुए हैं, फिर चाहे वह कितनी भी कम हो पर वह उनके लिए महत्वपूर्ण है। इनमें से अनेक क्षेत्रों में गैर लकड़ी वनोपज का संग्रहण प्रत्येक परिवार की वार्षिक नकद आय में 50 प्रतिशत से अधिक का योगदान देता है। इस प्रकार की निर्वाह या वाणिज्यिक गतिविधि को सरकारी दस्तावेजों में रियायत के रूप में दर्ज किया जाता है, परंतु अधिकार के रूप में अभाव से ही दर्ज किया जाता है; इनमें से अनेक गतिविधियों को तो दर्ज भी नहीं किया जाता, अतः इन्हें अवैध माना जाता है। दस्तावेजीकरण के अभाव के कारण इनमें से अनेक व्यक्तियों को अतिक्रमण करने वाले माना जाता है, हालांकि वे लोग उन स्थानों पर पीढ़ियों से रहते चले आ रहे हैं।
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के अनुसार किसी भी क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र के रूप में अंतिम रूप से घोषित करने से पूर्व अधिकारों के निपटान की प्रक्रिया (Process of settlement of rights) अनिवार्य रूप से आयोजित की जानी चाहिए और निर्वाह और आवास के अधिकारों की या तो अनुमति प्रदान की जानी चाहिए या उचित क्षतिपूर्ति या विकल्प प्रदान करके उन्हें अधिग्रहित किया जाना चाहिए। अनेक ऐसे मुद्दे हैं (जैसे भू-अभिलेख अत्यंत खराब हालत में रखे गए हैं, अनेक पीढ़ियों से इन क्षेत्रों में निवास कर रहे लोगों के अधिकार दर्ज ही नहीं किये गए हैं, और इन क्षेत्रों में नए से रहने वाले लोगों की वास्तविक आवश्यकताएं) जिनके कारण भारत के अधिकांश संरक्षित क्षेत्रों के मामले में यह प्रक्रिया पूर्ण होने में बाधाएं निर्मित हुई हैं।
1996 के सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश के कारण अनेक राज्यों ने या तो जल्दबाजी में अधिकारों के सघन मूल्यांकन किये बिना इन अधिकारों के निपटान का प्रयास किया है, जिसके कारण हजारों लोगों को उनके अधिकारों से वंचित रहना पड़ा है, या फिर संरक्षित क्षेत्रों में अधिकारों की अनुमति प्रदान कर दी है। इसके कारण जमीनी स्तर पर अनेक प्रकार के संघर्ष निर्मित हुए हैं; जिनमें से अनेक को तो आज तक राज्य सरकारों द्वारा स्वीकार भी नहीं किया गया है।
कुछ राज्यों में अवश्य लोगों के संरक्षित क्षेत्रों के बाहर पुनर्वसन की दिशा में प्रयास हुए हैं। हालांकि इन प्रयासों में से कुछ प्रयास काफी हद तक सफल भी हुए हैं, फिर भी सरकार के अधिकांश प्रयास स्थानीय समुदायों के गंभीर सामाजिक, सांस्कृतिक और निर्वाह गतिविधियों के ह््रास का ही कारण बने प्रतीत होते हैं। इसके कारण स्थानीय लोगों में व्यापक असंतोष और नाराजी फैली है और सरकार के इन प्रयासों की नागरिक समूहों और संगठनों की ओर से तीखी आलोचना भी हुई है। इसीलिए संरक्षित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का भाग्य दो दशकों के बाद भी अनिर्णीत ही बना हुआ है। निरंतर अनिश्चितता के साथ रहते हुए, इस बात की कोई स्थायी सुनिश्चितता नहीं होने से कि उन्हें इस क्षेत्र में कितने समय तक रहने की अनुमति दी जाएगी, और वनोपज के संग्रह पर होने वाले निरंतर उत्पीड़न के कारण स्थानीय समुदायों के मन में संरक्षित क्षेत्रों के बारे में गंभीर नफरत पैदा हो गई है।
नीतियों के अतिरिक्त, इन नीतियों का क्रियान्वयन करने वाले अभिकरणों के रवैये और अभिरुचि और दूरदृष्टि के अभाव के कारण पहले से ही जटिल परिस्थिति और भी अधिक जटिल और उलझी हुई बन गई है। लोगों का अविश्वास इतना गहरा हो गया है कि समुदाय संरक्षण क्षेत्रों में रहने वाले स्थानीय समुदायों और वन विभाग के अभिकरणों (संरक्षण के लिए जिम्मेदार) के बीच अक्सर संघर्ष और टकराव होता रहता है, जबकि दोनों के लक्ष्य समान ही प्रतीत होते हैं। उदाहरणार्थ, जब समुदाय संरक्षित क्षेत्रों का पारिस्थितिकी मूल्य प्राप्त कर लिया जाता है तो अक्सर सरकार द्वारा उस क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र के रूप में घोषित कर दिया जाता है। कुछ मामलों में, इसके कारण बाहरी खतरों को दूर रखने में सहायता अवश्य मिली है, परंतु अधिकांश मामलों में इसके कारण संरक्षण की जिम्मेदारी स्थानीय समुदायों से सरकारी अभिकरणों के हाथों में हस्तांतरित हो गई है, जिनके पास संरक्षण के लिए न तो उचित संसाधन हैं, और न ही वह उत्साह और लगन जो संरक्षण की दृष्टि से होना आवश्यक और महत्वपूर्ण है, वे केवल इसे अपने सरकारी कर्तव्य के एक भाग के रूप में निष्पादित करते हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि ये क्षेत्र उपेक्षित रहे हैं और इनमें गिरावट हुई है। अधिकांश मामलों में किसी क्षेत्र को अभयारण्य के रूप में घोषित करने से वहां के स्थानीय समुदायों पर अनेक प्रकार के निर्बंध लागू हो गए हैं, और इनके परिणामस्वरूप संघर्ष बढे हैं। इन अभिकरणों के साथ संघर्ष तब भी शुरू होते हैं जब ग्रामीण उन क्षेत्रों को संरक्षित कर रहे हैं या करना चाहते हैं जिन्हें सरकार द्वारा या तो औद्योगिक उपयोग या वाणिज्यिक प्रयोजन से आवंटित कर दिया गया है। समुदाय संरक्षण क्षेत्रों के सामने एक सबसे बड़ी चुनौती यह है कि सरकार इन प्रयासों को न तो मान्यता प्रदान करती और न ही किसी प्रकार की सहायता प्रदान की जाती है। इसके परिणामस्वरूप स्थानीय समुदाय, जो संरक्षण की दृष्टि से सबसे बडे़ सहयोगी और साझेदार हो सकते हैं, वे सरकारी संरक्षण की संकल्पना और उसके क्रियान्वयन के दुश्मन बन गए हैं।
6.1 संघर्ष की स्थिति का वन्यजीवों और जैवविविधता पर प्रभाव
पिछले कुछ दशकों के दौरान स्थानीय समुदायों ने स्वयं को संगठित और सशक्त बनाना शुरू कर दिया है। संरक्षण नीति का आमतौर पर, और संरक्षित क्षेत्रों का विशेष रूप से विरोध बढ़ता जा रहा है। ऐसी स्थितियों में ऐसे असंतोष का लाभ उठाने के लिए अनेक राजनेता तैयार बैठे हैं। संरक्षित क्षेत्रों को समाप्त करने, और वन्यजीवों पर से प्रतिबंध हटाने की मांगें बढ़ती जा रही हैं। तोडफोड़ की घटनाएं, संरक्षण नियमों का जानबूझ कर उल्लंघन, और शिकारियों और इमारती लकड़ी के चोरों के साथ चुपचाप गठजोड़ की घटनाएं निरंतर दिखाई देने लगी हैं। सर्वोत्कृष्ट उद्देश्यों के साथ भी अपर्याप्त कर्मचारियों की संख्या और अपर्याप्त संसाधनों के साथ संरक्षित क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार विभिन्न राज्यों के वन विभाग इन स्थितियों का मुकाबला कर पाने में अक्षम साबित हो रहे हैं। स्थानीय लोगों और वन विभाग के अधिकारियों के बीच असंतोष और अविश्वास के इस सामान्य वातावरण ने न केवल स्थानीय लोगों के हितों के विरुद्ध कार्य किया है, बल्कि इसने वन्यजीवों और जैवविविधता के हितों के विरुद्ध भी कार्य किया है।
कुछ स्थितियों में इस प्रकार की नीति का सीधा पारिस्थितिकी प्रभाव काफी नकारात्मक हो सकता है। ऐसा कहा जाता है कि राजस्थान के कुम्बलगढ़ अभयारण्य की आग से तबाही केवल इसलिए हुई क्योंकि वहां की घास की कटाई नहीं की गई थी। दूसरी ओर, अभयारण्य के अन्य क्षेत्रों का अपक्षय संसाधनों के अनियंत्रित और अविनियमित उपयोग के कारण हुआ है। यह दर्शाता है कि समग्र रूप से लगाये गए प्रतिबंध हमेशा पारिस्थितिकी तंत्र की दृष्टि से कारगर नहीं होते। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सभी प्रकार की मानव गतिविधि अनिवार्य रूप से संरक्षण के अनुकूल नहीं होती; इसके विपरीत इनमें से अनेक गतिविधियाँ संरक्षण की दृष्टि से सुसंगत नहीं होती।
6.2 राजनीतिक वचनबद्धता और स्थानीय चर्चा की आवश्यकता
स्थानीय परिस्थितियों को समझना और संबंधित सभी के सहभाग के साथ एक समाधान निकालना आवश्यक है, इनमें से भी स्थानीय लोगों के साथ संवाद करना सबसे आवश्यक है क्योंकि वे ही लोग इस संपूर्ण प्रक्रिया में सबसे अधिक प्रभावित होने वाले हैं। यह मान्यता कि संरक्षण और सामाजिक न्याय संवाद और राजनीतिक विकेंद्रीकरण के माध्यम से ही सर्वश्रेष्ठ तरीके से प्राप्त किये जा सकते हैं, भारत में और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गति पकड़ती जा रही है। इस वातावरण में, भूमि और सामान्य संपत्ति पर नियंत्रण पुनर्प्राप्त करने के लिए चलाये जा रहे स्थानीय लोगों के आंदोलन (जिन्हें गैर सरकारी संगठनों, नागरिक समाज गुटों, और अन्य लोगों का समर्थन प्राप्त है) पिछले चार दशकों से मजबूत होते जा रहे हैं। स्थानीय लोगों के प्रति अन्याय के विरुद्ध लडने वाले मानवाधिकार संगठन भी अब स्थानीय लोगों के राजनीतिक दृष्टि से सशक्त होने और अपने आसपास के संसाधनों के संरक्षण और सुरक्षा की दृष्टि से सशक्त होने की भाषा बोलने लगे हैं। इसका अनिवार्य रूप से अर्थ यह है कि अब भूमि के विषय में और आसपास के प्राकृतिक संसाधनों के विषय में लिए जाने वाले निर्णयों में और इनका संरक्षण करने की पद्धतियों के निर्णयों में स्थानीय लोग महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।
सामाजिक कार्य और मानवाधिकार संगठन अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के पारित किये जाने की ओर भारतीय जनजाति (स्वदेशी) जनसंख्या और अन्य वनवासियों की ऐतिहासिक अधिकारविहीनता की प्रवृत्ति को उलटने की दिशा में एक महत्वपूर्ण और स्वागतयोग्य कदम के रूप में देखते हैं। यह अधिनियम वनभूमि और वनोपज पर दो श्रेणी के समुदायों के 14 प्रकार के अधिकारों को प्रदान करने की अनिवार्यता करता है रू अनुसूचित जनजातियों (अर्थात भारतीय संविधान की एक अनुसूची में सूचीबद्ध किये गए स्वदेशी लोग), और अन्य पारंपरिक वनवासियों, जिन्हें उन समुदायों के रूप में परिभाषित किया गया है जो कम से कम तीन पीढ़ियों से वनों में निवास कर रहे हैं।
7.0 भारत में जंगल
वन और वृक्ष संसाधनों का सटीक मूल्यांकन किसी देश के वानिकी क्षेत्र के लिए अच्छी रणनीति तैयार करने के लिए आवश्यक है। वनों के फैलाव और जंगलों में पेड़ों की बढ़ती संख्या के सटीक आँकड़े एवं नवीनतम जानकारी तथा रुझान और नीति और निय-उद्देश्यों के निर्माण एवं उसमें परिवर्तन के मूलतत्व हैं। सन् 1965 में PISFR परियोजना के शुरू होने के बाद से ही एफएसआई व्यवस्थित नमूना भूखंडों के माध्यम से वनों के बढ़ते स्टॉक (मात्रा) और जंगलों के अन्य मापदंडों का आकलन करने के लिए फील्ड इन्वेंट्री का आयोजन कर रहा है। अब तक देश के लगभग 80 प्रतिशत वन क्षेत्रों को सूचीगत किया जा चुका है जिनमें से कई क्षेत्रों का सूचीकरण एक से अधिक बार भी किया गया हैं तथा कुल लगभग 140 रिपोर्टें प्रकाशित की गई हैं।
7.1 वन क्षेत्रों का आकलन
प्रति दो वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर देश को विभिन्न भू-प्राकृतिक क्षेत्रों में विभक्त करके एवं इन क्षेत्रों के 10 प्रतिशत जिलों की विस्तृत सूची बना कर, वन क्षेत्रों के भीतर तथा बाहर के वन संसाधनों का व्यापक मूल्यांकन करने की कार्यप्रणाली को विकसित किया गया हैं। इस प्रकार प्राप्त हुई यह जानकारी, राज्य की द्विवार्षिक वन रिपोर्ट बन जाती है। बाद के रिपोर्टों में, 10 प्रतिशत अन्य जिलों में सर्वेक्षण द्वारा इन अनुमानों में और सुधार किया जाता है। वनों के सूचीकरण के साथ ही जड़ी-बूटियों और झाड़ियों (वनस्पति) का सर्वेक्षण भी किया जाता है। इसके अलावा, वन क्षेत्रों में पुनर्जनन स्थिति, जैव विविधता सूचकांकों और मिट्टी में कार्बन की मात्रा का मूल्यांकन भी किया जाता है।
देश को पेड़ की प्रजातियों की संरचना और अन्य शारीरिक और पारिस्थितिक मापदंडों के अनुसार 14 प्राकृतिक क्षेत्रों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक क्षेत्र में, जिलों को पहली तथा ग्रिड को द्वितीयक नमूना इकाइयाँ माना जाता है। हर साल दस प्रतिशत जिलों का सूचीकरण किया जा रहा है।
- 1 : 50,000 स्केल वाले भारतीय भौगोलिक क्षेत्र के सर्वे को 36 ग्रिडों में विभाजित किया गया है, जिन्हें फिर 4 उप-ग्रिडों में विभाजित किया गया है, जिससे मूल नमूनाकरण इकाइयों का निर्माण होता है। इन उप-ग्रिडों में से दो को यादृच्छिक रूप से चुना जाता है और सभी ग्रिडों में इन्हीं उप-ग्रिडों को नमूना चुनने के लिए चुना जाता है। ऐसे उप-ग्रिड के विकर्णों के चौराहे को मानचित्र पर केंद्र के रूप में चिह्नित किया जाता है। चयनित सबग्रिड के केंद्र में 0.1 हेक्टेयर क्षेत्र का एक भूखंड ऐसे प्रत्येक ग्रिड में चुना जाता है और डेटा केवल वन क्षेत्र में पड़ने वाले भूखंडों से एकत्र किया जाता है।
- मिट्टी, वन तल (ह्यूमस और कूड़े कार्बन) पर डेटा एकत्र करने के लिए, 0.1 मीटर प्लॉट के भीतर प्रत्येक कोने पर 1 मीटर × 1 मी के उप-भूखंड लिए जाते हैं।
- जड़ी बूटियों और झाड़ियों (पुनर्जनन सहित) से संबंधित डेटा क्रमशः 1 मी × 1 मी और 3 मी × 3 मी के चार वर्ग भूखंडों से एकत्र किए जाते हैं। इन भूखंडों को गैर-पहाड़ी क्षेत्र में विकर्णों और पहाड़ी क्षेत्रों में ट्रेल्स के साथ चारों दिशाओं में 0.1 हेक्टेयर भूखंड के केंद्र से 30 मीटर की दूरी पर रखा जाता है।
डेटा यादृच्छिक रूप से चयनित नमूना भूखंडों द्वारा एकत्र किया जाता है।
7.2 अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस - 21 मार्च
21 मार्च हर साल दुनिया भर में अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह उत्सव दुनिया भर में लाखों लोगों की पारिस्थितिक सुरक्षा और आजीविका की सुरक्षा में वनों की भूमिका पर ध्यान केंद्रित करता है। वन स्वच्छ हवा, पानी और ऊर्जा प्रदान करते हैं। निरंतर प्रबंधित वन एक हरियाली पूर्ण भविष्य के लिए और कार्बन तटस्थ अक्षय ऊर्जा प्रदान कर सकते हैं। वनों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस का वर्ष 2019 का विषय ‘वन और शिक्षा’ था।
इस विषय को संयुक्त राष्ट्र ने इसलिए लिए चुना था कि हमारे वनों को समझना और उन्हें स्वस्थ रखना हमारे भविष्य के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वनों से हवा, मिट्टी, पानी और लोगों को स्वस्थ रखने में मदद मिलती है। आज हमारे सामने आने वाली कुछ सबसे बड़ी चुनौतियों जैसे कि जलवायु परिवर्तन, भूख और शहरी और ग्रामीण समुदायों को जीवित रखने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। 2030 तक दुनिया की आबादी 8.5 बिलियन से अधिक हो जाएगी। वानिकी शिक्षा में निवेश करने से मानव जीवन बेहतर हो सकता है। वन शिक्षा के लिए महिलाओं और पुरुषों की समान पहुंच होनी चाहिए। वनों को स्वस्थ रखने के लिए आधुनिक और पारंपरिक ज्ञान दोनों महत्वपूर्ण हैं।
8.0 आईयूसीएन विश्व मुद्दे
8.1 राष्ट्रीय न्यायक्षेत्र के बाहर आने वाले क्षेत्र
- विश्व का लगभग दो-तिहाई हिस्सा जो अनोखी प्रजातियों और पारिस्थितिक तंत्र का घर हैं, राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र से परे है।
- असंगठित कानूनी ढांचे राष्ट्रीय न्यायालय के बाहर आने वाले क्षेत्र में जैव विविधता को असुरक्षित बनाते हैं
- राष्ट्रीय न्यायक्षेत्र के बाहर आने वाले क्षेत्रों में जैव विविधता का ह्रास मानव अस्तित्व के लिए आवश्यक संसाधन प्रदान करने की महासागरों की क्षमता को प्रभावित करता है
- राष्ट्रीय न्यायक्षेत्र के बाहर आने वाले क्षेत्रों के लिए संयुक्त राष्ट्र कानून कन्वेंशन के तहत एक नया अंतर्राष्ट्रीय संस्थान बनाने के लिए बातचीत चल रही है, जो मौजूदा कमियों को समाप्त करने में मदद करेगा
- एक नया अंतर्राष्ट्रीय तंत्र राष्ट्रीय न्यायक्षेत्र के बाहर आने वाले क्षेत्रों में समुद्री संरक्षित क्षेत्रों के लिए एक वैश्विक ढांचा प्रदान कर सकता है, यह सुनिश्चित कर सकता है कि राज्य संभावित हानिकारक गतिविधियों के प्रभावों का आकलन करें, और समावेशी वैज्ञानिक अनुसंधान की सुविधा प्रदान करें जो समुद्री आनुवंशिक संसाधनों से लाभ के समान साझाकरण में सक्षम हो।
दुनिया का लगभग दो-तिहाई महासागर राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र से परे है (एबीएन जे-एरिया बियाँड़ नैशनल ज्युरिस्डिकशन)- जहां किसी एक राज्य का अधिकार नहीं है। यह क्षेत्र 10 किमी से अधिक की गहराई तक जाता है और मात्रा के हिसाब से पृथ्वी के कुल निवास का 95 प्रतिशत हिस्सा है। राष्ट्रीय क्षेत्राधिकार से परे क्षेत्र महत्वपूर्ण जैव विविधता का घर है, जिसमें अद्वितीय प्रजातियां जो अत्यधिक गर्मी, ठंड, लवणता, दबाव और अंधेरे से बचने के लिए विकसित हुई हैं, शामिल हैं।
इस विशाल क्षेत्र के 0.0001 प्रतिशत से भी कम का अन्वेषण किया गया है, लेकिन इस बात के सबूत हैं कि मानव गतिविधियों के कारण इस पारिस्थितिक तंत्र और प्रजातियांं को गंभीर नुकसान हुए हैं। राष्ट्रीय क्षेत्राधिकार से परे समुद्री क्षेत्रों के संरक्षण और टिकाऊ उपयोग के लिए कोई व्यापक वैश्विक ढांचा नहीं है ताकि मानव गतिविधियों को और अधिक रोका जा सके। यूएन कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ सी एक अंतरराष्ट्रीय कानूनी व्यवस्था प्रदान करता है जो महासागरों को नियंत्रित करती है। यह समुद्री पर्यावरण के संरक्षण के लिए एक दायित्व निर्माण करता है, किंतु यह राष्ट्रीय न्यायालय के बाहर आने वाले क्षेत्र में समुद्री जैव विविधता के संरक्षण के लिए विशिष्ट तंत्र या प्रक्रिया प्रदान नहीं करता है। अन्य कानूनी उपाय समस्या के कुछ हिस्सों के लिए उपयोगी हैं, जैसे कि जहाजों से अनिश्चित मछली पकड़ने या विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र, जैसे कि अंटार्कटिक में प्रदूषण।
राष्ट्रीय न्यायालय के बाहर आने वाले क्षेत्रों के लिए एक कार्यान्वयन समझौता बनाने के लिए बातचीत चल रही है, जो मौजूदा कमियों को समाप्त करने तथा इन क्षेत्रों में जैव विविधता के संरक्षण और स्थायी उपयोग को सुनिश्चित करने में मदद करेगा।
यह महत्वपूर्ण क्यों है? वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि एबीएनजे में जैव विविधता के लिए खतरों को दूर करने के लिए तेजी से और प्रभावी कार्रवाई करने में विफलता मानव अस्तित्व के लिए आवश्यक संसाधनों और सेवाओं को प्रदान करने के लिए महासागरों की क्षमता को प्रभावित कर सकती है।
8.2 नेचुरल वर्ल्ड हेरिटेज (प्राकृतिक विश्व विरासत)
- प्राकृतिक विश्व धरोहर स्थल विश्व स्तर पर पृथ्वी के सबसे महत्वपूर्ण संरक्षित क्षेत्रों के रूप में मान्यता प्राप्त स्थल हैं
- ये स्थान लाखों लोगों को जीवनदायी लाभ प्रदान करती हैं - 90 प्र्रतिशत स्थान रोजगार प्रदान करते हैं, दो तिहाई पानी के महत्वपूर्ण स्रोत हैं और लगभग आधे बाढ़ या भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं को रोकने में मदद करती है।
- प्राकृतिक विश्व धरोहर स्थल जलवायु परिवर्तन, बुनियादी ढांचे के विकास, खनन, अवैध शिकार और अन्य खतरों से दबाव में हैं
- इन स्थानों को खतरों से बचाने के लिए उनकी सुरक्षा और प्रबंधन में निवेश की तत्काल आवश्यकता है। इन स्थानों की स्थिति की बारीकी से निगरानी, विश्व विरासत-विशिष्ट जैव विविधता लक्ष्य, और साइट प्रबंधन में आईयूसीएन ग्रीन सूची मानकों को अपनाने से भी मदद मिल सकती है
- ये स्थान जैव विविधता की रक्षा और अगली पीढ़ी के लिए प्र.ति के खजाने को संरक्षित रखने के लिए एक समुदाय के रूप में हमारी क्षमता का लिटमस टेस्ट हैं।
मुद्दा क्या है? यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल स्थानों में से प्रत्येक पांच (23 प्रतिशत) में से एक प्राकृतिक स्थल हैं, जो अक्सर राष्ट्रीय उद्यान या प्राकृतिक भंडार जैसे संरक्षित क्षेत्रों होते हैं। प्राकृतिक विश्व धरोहर स्थलों को विश्व के सबसे महत्वपूर्ण संरक्षित क्षेत्रों के रूप में मान्यता प्राप्त है। दुनिया भर में 247 प्राकृतिक विश्व धरोहर स्थल हैं, जिनमें ऑस्ट्रेलिया के ग्रेट बैरियर रीफ, संयुक्त राज्य अमेरिका में येलोस्टोन नेशनल पार्क, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य में विरुंगा राष्ट्रीय उद्यान या इंडोनेशिया में सुमात्रा की उष्णकटिबंधीय वर्षावन शामिल हैं। प्राकृतिक विश्व धरोहर स्थल दुनिया भर के सभी 2,30,000़ संरक्षित क्षेत्रों द्वारा कवर की गई कुल सतह का 7 प्रतिशत हैं।
लगभग हर देश ने विश्व धरोहर कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किए हैं, तथा वे इन स्थानों की सुरक्षा के लिए सर्वोत्तम स्तर पर प्रतिबद्ध है। फिर भी प्राकृतिक विश्व धरोहर स्थल दबाव में हैं। सभी प्राकृतिक स्थलों का पहले सूचीबद्ध आकलन, वर्ल्ड हेरिटेज आउटलुक के अनुसार आक्रामक प्रजातियां, जलवायु परिवर्तन और पर्यटन के नकारात्मक प्रभाव वर्तमान में प्राकृतिक विश्व धरोहरों के लिए तीन सबसे बड़े खतरे हैं। जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक विश्व धरोहर के लिए सबसे तेजी से बढ़ता खतरा है, एवं यह 2014 से 2017 के तीन वर्षों की बीच दोगुना हो गया है। जलवायु परिवर्तन से अत्यधिक खतरे वाले कई स्थलों में सबसे अधिक प्रभावित कोरल रीफ और ग्लेशियर हैं। 2016 में, सर्वेक्षण में शामिल सभी रीस में से 85 प्रतिशत जलवायु परिवर्तन से प्रभावित थे। ग्रेट बैरियर रीफ जो कि विश्व की सबसे बड़ी रीस है को वैश्विक समुद्री सतह के तापमान में वृद्धि के कारण व्यापक विरंजन का सामना करना पड़ा है। ग्लेशियरों को फिर से ठीक करना एक बहुत महत्वपूर्ण कारण है जिसके लिए अफ्रीका की सबसे ऊंची चोटी के निकट तंजानिया के किलिमंजारो नेशनल पार्क को विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया है। जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक विश्व धरोहर के लिए अब तक का सबसे बड़ा संभावित खतरा है, जिसका अर्थ है कि निकट भविष्य में और अधिक स्थानों पर प्रभाव पड़ने की संभावना है।
सड़क, बांध, पर्यटन सुविधाओं, खनन, तेल और गैस परियोजनाओं का निर्माण शीर्ष संभावित खतरों में है। उदाहरण के लिए, बांग्लादेश के सुंदरवन - घने एवं विशाल मैंग्रोव जंगल जो कि रॉयल बंगाल बाघ के प्राकृतिक आवास है, पास ही में प्रस्तावित रामपाल कोयला-संचालित बिजली संयंत्र से गंभीर रूप से प्रभावित हो सकते हैं। अफसोस की बात है कि 2014 की के 54 प्रतिशत की तुलना में 2017 में, आधे से कम (48 प्रतिशत) साइटों का मूल्यांकन ही प्रभावी संरक्षण और प्रबंधन के रूप में किया गया था। 118 प्रा.तिक विश्व धरोहर स्थलों के संरक्षण और प्रबंधन के चिंता के विषय के रूप में लंबी अवधि के वित्त के गारंटी की कमी सबसे चुनौतीपूर्ण पहलू के रूप में सामने आया है।
यह महत्वपूर्ण क्यों है? प्राकृतिक विश्व धरोहर स्थल कई महत्वपूर्ण प्रजातियों को आवास प्रदान करते हैं, साथ ही दुर्लभ पारिस्थितिक प्रक्रियाओं और रोचक परिदृश्यों की रक्षा करते हैं। वे अर्थव्यवस्थाओं, जलवायु स्थिरता और मानव कल्याण में भी योगदान करते हैं। विश्व विरासत सूची में दो-तिहाई प्राकृतिक स्थल पानी के महत्वपूर्ण स्रोत हैं, और जिनमे से आधे बाढ़ या भूस्खलन जैसी प्रा.तिक आपदाओं को रोकने में मदद करते हैं। 90 प्रतिशत से अधिक सूचीबद्ध प्राकृतिक स्थान रोजगार पैदा करते हैं और पर्यटन और मनोरंजन से आय प्रदान करते हैं। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में विश्व धरोहर स्थलों में पाए जाने वाले वन, अनुमानित 5.7 बिलियन टन कार्बन स्टोर करते हैं तथा कुल संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क के औसत की तुलना में उच्च वन बायोमास कार्बन घनत्व रखते हैं।
8.3 डीप सी माईनिंग (गहरे समुद्र में खनन)
- डीप सी माईनिंग गहरे समुद्र में 200 मीटर से नीचे के क्षेत्र से खनिज प्राप्त करने की प्रक्रिया है
- स्थलीय स्त्रोतां का कम होना, धातुओं की बढ़ती मांग, वाणिज्यिक खनन तथा गहरे समुद्र की स्त्रोतों में रूचि ने इसे अत्यधिक प्रेरित किया है
- समुद्री-तल में कचरा जमा होने और खनन प्रक्रियाओं से होने वाले प्रदूषण के कारण संपूर्ण प्रजातियों का सफाया हो सकता है - जिनमें से कई तो इंसानों को अभी ज्ञात भी नही होंगी
- गहरे समुद्र में खनन को सीमित करने के लिए पर्यावरणीय के प्रभावों आकलन, प्रभावी विनियमन और शमन रणनीतियों की आवश्यकता है
- गहरे समुद्र की हमारी समझ को बेहतर बनाने के लिए व्यापक आधारभूत अध्ययन की आवश्यकता है
डीप सी माईनिंग, गहरे समुद्र से खनिज भंडार प्राप्त करने की प्रक्रिया है - 200 मीटर से नीचे महासागर का क्षेत्र जो पृथ्वी की सतह का लगभग 65 प्रतिशत है। गहरे समुद्र के खनिज भंडार में रुचि बढ़ रही है। यह मुख्य रूप से तांबा, निकल, एल्यूमीनियम, मैंगनीज, जस्ता, लिथियम और कोबाल्ट जैसी धातुओं के स्थलीय स्त्रोतो में कमी आने, स्मार्टफोन और हरित-प्रौद्योगिकियों जैसे कि पवन टरबाइन, सौर पैनल तथा बिजली भंडारण बैटरी के उत्पादन के लिए इन धातुओं की बढ़ती माँग के कारण बढ़ी है।
अब तक, ध्यान गहरे समुद्र की खोज, खनिज-जमा के आकार और सीमा के आकलन पर है। अंतर्राष्ट्रीय सीबेड अथॉरिटी (आईएसए) - जो राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र से परे गहरे समुद्र के क्षेत्रों में गतिविधियों को नियंत्रित करती है - ने, मई 2018 तक, गहरे समुद्र में खनिज भंडार की खोज के लिए 29 अनुबंध किए थे। प्रशांत और हिंद महासागरों में और मध्य-अटलांटिक रिज में 1.5 मिलियन वर्गकिमी - लगभग मंगोलिया के आकार से अधिक - के क्षेत्र को खनिज अन्वेषण के लिए अलग रखा गया है। लेकिन अन्वेषण जल्द ही शोषण में बदल सकता है। पापुआ न्यू गिनी के राष्ट्रीय जल में वाणिज्यिक खनन 2020 तक शुरू होने की संभावना है। अंर्तराष्ट्रीय जल में खनन के 2025 से शुरू होने की उम्मीद है।
यह महत्वपूर्ण क्यों है? समुद्रतल में भूगर्भीय विशेषताओं का एक खजाना छुपा है। इनमें समुद्र की सतह के नीचे 3,500-6,500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित समुद्री ज्वालामुखी, पानी के नीचे के पहाड़ जिन्हें सीमोट्स के रूप में जाना जाता है, ज्वालामुखीय गतिविधि द्वारा गर्म पानी के जलतापीय झरोखे, और मारियाना ट्रेंच-जो लगभग 11,000 मीटर की गहराई के साथ विश्व की सबसे गहरी जगह है, जैसी गहरी खाइयाँ शामिल है। यह सुदूर क्षेत्र ऐसी प्रजातियों जो सूर्य की रोशनी की कमी और उच्च दबाव जैसी कठोर परिस्थितियों में रहने के अनुकूल हैं के आवास हैं। इन में से कई प्रजातियों से विज्ञान अनजान हैं। गहरे समुद्र की हमारी समझ में कमी के कारण हम यहाँ की जैव विविधता और पारिस्थितिकी प्रणालियों को ठीक से नही समझते। इससे गहरे-समुद्र के खनन के संभावित प्रभावों का पूरी तरह से आकलन करना और समुद्री पर्यावरण की सुरक्षा के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपाय करना मुश्किल हो जाता है।
प्रदूषण - व्हेल, टूना और शार्क जैसे प्रजाति खनन उपकरण और सतह पर जहाजों के कारण होने वाले शोर, कंपन और प्रकाश प्रदूषण के साथ-साथ ईंधन और विषाक्त उत्पादों के संभावित रिसाव और फैलाव से प्रभावित हो सकते हैं।
शमन - वर्तमान प्रौद्योगिकियाँ जैव विविधता के नुकसान सहित पर्यावरण को गंभीर और स्थायी नुकसान से बचाने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती हैं। खनन कार्यों की रणनीतियों में पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को रोकने वाले उपायों को प्राथमिकता देना होगी।
वृत्तीय अर्थव्यवस्था - गहरे समुद्र से कच्चे माल की मांग को कम करने करने के लिए उत्पादों की मरम्मत, रीसाइक्लिंग और पुर्नउपयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
9.0 विश्व आद्रभूमि दिवस 2019 - 02 फरवरी
विश्व आद्रभूमि दिवस 2019 ‘आद्रभूमि एवं जलवायु परिवर्तन‘ थीम के साथ मनाया गया।
जल जीवन है, और आर्द्रभूमि जीवन को सहारा देने की प्रणाली है जो जल चक्र को सुनिश्चित करती है। भारत में कई तरह की आद्रभूमियाँ पाई जाती है। जिनमें हिमालय की अधिक ऊँचाई वाले आर्द्रभूमियाँ, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियों के बाढ़क्षेत्र, तटीय क्षेत्रों पर समुद्र-तट पर बने समुद्रताल और सदाबहार दलदलों से लेकर समुद्री वातावरण में भित्तीयों की समृद्ध विविधता से संपन्न है। राष्ट्रीय आद्रभूमि एटलस के अनुसार, भारत का लगभग 4.7 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र आर्द्रभूमि के अंतर्गत है।
आर्द्रभूमि हमारे पानी और खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं। ‘भूमि के गुर्दों’ के रूप में, अपस्ट्रीम स्रोतों से आर्द्रभूमि को जल के प्रवाह और अपशिष्ट प्राप्त होता है। वे पानी की आपूर्ति को बनाए रखने, प्रदूषित पानी को साफ करने, तटरेखाओं की रक्षा करने और भूजल स्तर के पुनर्भरण में मदद करते हैं। आर्द्रभूमि में व्यापक खाद्य श्रृंखला और जैविक विविधता उन्हें ‘जैविक सुपरमार्केट’ बनाती है। वेटलैंड्स जैविक, रासायनिक और आनुवंशिक सामग्री के स्रोत, सिंक और ट्रांसफार्मर के रूप में मूल्यवान हैं। इसके अलावा, आर्द्रभूमि की मानवता की सांस्.तिक विरासत, मान्यताओं और प्रथाओं के साथ के साथ विशेष संबंध हैं। वे वास्तव में हमारी प्रा.तिक संपदा और ‘तरल संपत्ति’ का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
9.1 रामसर सम्मेलन
आर्द्रभूमि सम्मेलन, जिसे रामसर सम्मेलन कहा जाता है, आर्द्रभूमि और उसके संसाधनों के संरक्षण और बुद्धिमतापूर्ण उपयोग के लिए सरकारों के मध्य हुई संधि है जो राष्ट्रीय कार्यवाहियों एवं अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए रूपरेखा प्रदान करती है। यह सम्मेलन 1971 में ईरान के सिटी रामसर में हुआ था। सम्मेलन में शामिल दल आर्द्रभूमि को (कन्वेंशन द्वारा निर्धारित 8 मानदंडों के अनुसार) अंतर्राष्ट्रीय महत्व की सूची में शामिल करने और उनके क्षेत्र के सभी आर्द्रभूमि के बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोगके लिए प्रतिबद्ध हैं। अद्यतन, कन्वेंशन में 170 कॉन्ट्रैक्टिंग पार्टियां हैं, जिन्होंने 2,339 रामसर साइट्स जिसके अंर्तगत 252 मिलियन हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र आता हैं को संरक्षित करने का निश्चय किया है, जो इसे दुनिया के सबसे बड़े संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क में से एक बनाता है। 1982 में भारत भी कन्वेंशन की एक पार्टी बन गया, और अद्यतन सम्मेलन के 9 निश्चित मानदंडों के तहत 26 रामसर आर्द्रभूमि साइट को संरक्षित करने का निश्चय किया है।
रामसर सम्मेलन का ‘बुद्धिमतापूर्ण उपयोग’ का .ष्टिकोण विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त है। उल्लेखनीय है कि, ‘बुद्धिमतापूर्ण उपयोग’ शब्द का प्रयोग, प्रसिद्धि 1992 रियो सम्मेलन, जिसमें अक्षय विकास शब्द की परिभाषा दी गई थी, से बहुत पहले, 1972 में किया गया था । जैसा कि रामसर कन्वेंशन की कॉन्ट्रैक्टिंग पार्टियों द्वारा अनुलेखित है, आर्द्रभूमि का बुद्धिमतापूर्ण उपयोग का अर्थ ‘पारिस्थितिकी तरिकों का उपयोग करके अक्षय विकास के संदर्भ में उसके पारिस्थितिक चरित्र का रखरखाव है। ‘बुद्धिमतापूर्ण उपयोग दृष्टिकोण’ यह मानता है कि आर्द्रभूमि के नुकसान और गिरावट को रोकने के लिए लोगों और आर्द्रभूमि के बीच संबंधों को शामिल करना आवश्यक है, और इस तरह इस बात पर जोर दिया गया है कि स्थायी आधार पर इन पारिस्थितिकी प्रणालियों का मानव द्वारा उपयोग संरक्षण के साथ संगत हो।
आर्द्रभूमि पर हुए रामसर सम्मेलन की याद में तथा प्रकृति और समाज में आर्द्रभूमि के महत्व की जागरूकता बढ़ाने के लिए, प्रत्येक वर्ष 02 फरवरी को, विश्व आर्द्रभूमि दिवस मनाया जाता है। आर्द्रभूमियों के संरक्षण और उपयोग के लिए यह अब तक का एकमात्र बहुपक्षीय पर्यावरण समझौता है। प्रत्येक वर्ष, विश्व आर्द्रभूमि दिवस एक विशिष्ट थीम होती है। 2019 की थीम ‘आर्द्रभूमि एवं जलवायु परिवर्तन’ को आर्द्रभूमि में होने वाले नुकसानों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने के लिए चुना गया है।
आर्द्रभूमि जैविक, रासायनिक और आनुवंशिक सामग्री के एक स्त्रोत, सिंक और ट्रांसफार्मर के रूप में मूल्यवान हैं। आर्द्रभूमि बाढ़, सूखा और चक्रवात जैसी मौसम प्राकृतिक आपदाओं विनाशकारी प्रभावों को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आर्द्रभूमि एक प्राकृतिक स्पंज के रूप में कार्य करती है, अतिरिक्त वर्षा को अवशोषित और संग्रहीत करती है और बाढ़ को रोकती है। शुष्क मौसम के दौरान, वे संग्रहीत पानी को वातावरण में छोडकरं, सूखे को होने से रोकते है और पानी की कमी को कम करते हैं।
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, नोडल मंत्रालय के रूप में, 1985 से, आर्द्रभूमि संरक्षण के लिए, राज्य सरकारों को एकीकृत प्रबंधन योजनाओं के निर्माण और कार्यान्वयन में सहायता कर रहा हैं। राज्य सरकारों को, 180 आर्द्रभूमि प्रबंधन योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए, वित्तीय सहायता प्रदान की गई है। 2017 में, मंत्रालय ने आर्द्रभूमि (संरक्षण और प्रबंधन) नियमों को भी देश में आर्द्रभूमि के लिए विनियामक ढांचे के रूप में अधिसूचित किया है। कई राज्यों ने भी, आर्द्रभूमि के संरक्षण एवं बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग के लिए, आर्द्रभूमि प्राधिकरणों और नियमों को अधिसूचित किया है।
देश में आर्द्रभूमि और झीलों के संरक्षण और प्रबंधन में शामिल आर्द्रभूमि प्रबंधकों को प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए नेशनल प्लान फॉर कंजर्वेशन ऑफ एक्वेटिक इको-सिस्टम (एनपीसीए) योजना के क्षमता निर्माण कार्यक्रम के तहत प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। आर्द्रभूमि के मूल्यों और कार्यों और उनके संसाधनों के बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग के बारे में समाज के सभी वर्गों के बीच जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रत्येक वर्ष 2 फरवरी को विश्व आर्द्रभूमि दिवस मनाया जाता है।
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