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भारत में जैव-विविधता भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
जैव-विविधता का संबंध सभी स्रोतों से जीवों के बीच की बहुरूपता और भिन्नता से है, जिनमें स्थलीय, समुद्रीय और अन्य जलीय पारिस्थितिकी तंत्र और पारिस्थितिकी जटिलताएं शामिल हैं, जिनके वे भाग हैं। इसमें प्रजातियों और पारिस्थितिकी तंत्रों के भीतर और उनके बीच की आनुवंशिक विविधता भी शामिल है। इस प्रकार, जैव विविधता संपूर्ण जीव सृष्टि का प्रतिनिधित्व करती है। भारत विश्व के सबसे विशाल जैव विविधता वाले केन्द्रों में से एक है और यहां विश्व के 18 ‘‘जैव-विविधता संवेदनशील (biodiversity hotspots) स्थानों’’ में से दो स्थान पश्चिमी घाटों और पूर्वी हिमालय क्षेत्र (मायर्स 1999) में स्थित हैं। इन क्षेत्रों का वनाच्छादन अत्यंत सघन और विविध है और इसमें मौलिक सौंदर्य और असाधारण जैव विविधता विद्यमान है।
पिछले 100 वर्ष से भी अधिक समय से पृथ्वी की जैव-विविधता को काफी क्षति पहुंचाई गई है। बढ़ती मनुष्य जनसंख्या, बढ़ते उपभोग के स्तर और हमारे संसाधनों के उपयोग की घटती कुशलता ऐसे कुछ कारण हैं जिनका परिणाम पारिस्थितिकी तंत्रों के अत्यधिक शोषण और प्रहस्तन में हुआ है। गेंडे के सींग जैसे वन्यजीवों के अवैध व्यापार का परिणाम प्रजातियों की लुप्तता में हुआ है। जैव-विविधता के विनाश के परिणाम अत्यंत भयंकर हो सकते हैं क्योंकि किसी भी प्रजाति में हुई गड़बड़ी अन्य प्रजातियों में होने वाले असंतुलन को बढ़ावा देती है।
भारत के पवित्र कुंज (groves) कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां जैव-विविधता की समृद्धि को अच्छी तरह से संरक्षित करके रखा गया है। थार का मरुस्थल और हिमालय, दो ऐसे क्षेत्र हैं जो जैव-विविधता की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध और संपन्न हैं। देश में 103 राष्ट्रीय उद्यान और 535 वन्यजीव अभयारण्य हैं, और सरकार भारत की जैव-विविधता का संरक्षण करने के प्रति काफी गंभीर है।
जैव विविधता क्या है? जैविक विविधता अथवा जैव विविधता का सीधा अर्थ है, ”जीवित संसार की विविधताएं“। इस शब्द का उपयोग जीवित दुनिया के भीतर परिवर्तनशीलता के सभी पहलुओं को संदर्भित करने के लिए किया जाता है, जिसमें व्यक्तियों, आबादी, प्रजातियों, समुदायों और पारिस्थितिकी प्रणालियों के बीच विविधता शामिल है। चावल की किस्मों के बीच कीट प्रतिरोध में अंतर, एक वन पारिस्थितिकी तंत्र के भीतर वास की सीमा या झील मछली की प्रजातियों का वैश्विक विलोपन, सभी जैविक विविधता के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हैं। इस शब्द का प्रयोग आमतौर पर किसी क्षेत्र में या यहां तक कि पृथ्वी पर सभी प्रजातियों और निवासों के संदर्भ में किया जाता है।
जीवमंडल - एक 6000 किमी त्रिज्या वाले गोले-रूपी हमारे ग्रह पृथ्वी पर जैवमण्डल इसके चारों तरफ व्याप्त 30 किमी मोटी वायु, जल, स्थल, मृदा, तथा शैल युक्त एक जीवनदायी उबड़खाबड़ परत होती है, जिसके अंतर्गत पादपों एवं जन्तुओं का जीवन सम्भव होता है। सामान्यतः जैवमण्डल में पृथ्वी के हर उस अंग का समावेश है जहाँ जीवन पनपता है। क्योंकि अधिकांश जीव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जीवन के लिए सूर्य के प्रकाश पर निर्भर करते हैं, वह क्षेत्र जहाँ सूर्य का प्रकाश पहुंच पाता हैं जीवमंडल का मूल बनाते हैं - अर्थात् भूमि की सतह, मिट्टी के कुछ प्रारंभिक मिलीमीटर, और झीलों और महासागर के ऊपरी जल। बैक्टीरिया लगभग हर जगह होते हैं, यहां तक कि पृथ्वी की चट्टानी पपड़ी के कई किलोमीटर भीतर भी। जहां तरल पानी नही होता वहाँ सक्रिय जीवित जीव आमतौर पर अनुपस्थित होते हैं, लेकिन बैक्टीरिया और कवक के निष्क्रिय बीजाणु धु्रवीय हिमखंडों से लेकर पृथ्वी की सतह से कई किलोमीटर ऊपर तक उपस्थित होते हैं।
भारत के जैवविविधता संवेदनशील स्थान
- हिमालयः इसमें संपूर्ण भारतीय हिमालयीन क्षेत्र (और पाकिस्तान, तिब्बत, नेपाल, भूटान, चीन और म्यांमार में आने वाला हिमालयीन क्षेत्र) शामिल है
- भारत-बर्माः इसमें असम और अंडमान द्वीप समूहों को छोडकर संपूर्ण उत्तर-पूर्वी भारत (और म्यांमार, थाईलैंड, विएतनाम, लाओस, कंबोडिया और दक्षिणी चीन) शामिल है
- सुंदालैंडः इसमें निकोबार द्वीप समूह (और इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापूर, ब्रूनेई, फिलीपींस) शामिल है
- पश्चिमी घाट और श्रीलंकाः इसमें संपूर्ण पश्चिमी घाट (और श्रीलंका) शामिल हैं
2.0 भारत की भौगोलिक विशेषताएं
विश्व के सबसे बडे़ देश के रूप में जैव-विविधता की चर्चाओं में भारत का महत्वपूर्ण स्थान है। यह विश्व का सातवां और एशिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है जिसका क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग किलोमीटर है। भारत की मुख्य भूमि 8° 4’ से 37° 6’ उत्तरी अक्षांश और 68° 7’ से 97° 25’ पूर्वी देशान्तर तक फैली हुई है। इसका सीमांत प्रदेश लगभग 15,200 किलोमीटर का और तटरेखा 7,516 किलोमीटर (भारत सरकार, 1985) की है। भारत का उत्तरी सीमांत प्रदेश चीनी जनवादी प्रजातंत्र के शिजांग (तिब्बत), नेपाल और भूटान के साथ लगा हुआ है। उत्तर-पश्चिम में भारत की सीमा पाकिस्तान के साथ है; उत्तर-पूर्व में चीन और म्यांमार के साथ; और पूर्व में म्यांमार के साथ लगी हुई है। दक्षिण प्रायद्वीप हिंद महासागर के उष्णकटिबंधीय जल तक फैला हुआ है, जिसमें बंगाल की खाड़ी दक्षिण पूर्व में स्थित है और अरब सागर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। प्रशासनिक उद्देश्य से भारत 29 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित है। यह देश लगभग 130 करोड़ लोगों का निवास स्थान है, जो विश्व जनसंख्या का लगभग 18 प्रतिशत है।
भौतिक दृष्टि से भारत चार अपेक्षाकृत अच्छी तरह से परिभाषित क्षेत्रों में विभाजित है - हिमालय का पर्वतीय क्षेत्र, गंगा नदी के मैदानी भाग, दक्षिणी (डेक्कन) पठार, और लक्षद्वीप और अंड़मान एवं निकोबार के द्वीप। सुदूर उत्तर के हिमालय क्षेत्र में विश्व के कुछ सबसे ऊंचे पर्वत शिखर स्थित हैं। हिमालय क्षेत्र का सबसे ऊंचा पर्वत कंचनजंगा (8586 मीटर) है जो सिक्किम में नेपाल की सीमा से लगा हुआ है। मुख्य हिमालयीन पर्वत श्रृंखला के दक्षिण में छोटे हिमालय स्थित हैं जिनकी ऊँचाई 3,600 मीटर से 4,600 मीटर है जो कश्मीर में पीर पंजाल द्वारा और हिमाचल प्रदेश में धौलाधर द्वारा प्रदर्शित होते हैं। इसके और अधिक दक्षिण में हिंद-गंगा मैदानों से लगी हुई शिवालिक पर्वत श्रृंखलाएं हैं जिनकी ऊँचाई 900 से 1,500 मीटर है।
भारत के उत्तरी मैदान पूर्व में असम से पश्चिम में पंजाब तक फैले हुए हैं (2,400 किलोमीटर का अंतर), जो दक्षिण में गुजरात राज्य के कच्छ के रण के खारे दलदली क्षेत्र तक फैले हुए हैं। गंगा सहित भारत की कुछ सबसे बड़ी नदियां हैं घाघरा, ब्रह्मपुत्र और यमुना, जो इन क्षेत्रों से होकर प्रवाहित होती हैं। इन नदियों का डेल्टा क्षेत्र बंगाल की खाड़ी के मुहाने पर स्थित है, जिसका आंशिक भाग भारत के पश्चिम बंगाल राज्य में, किंतु अधिकांश भाग बांग्लादेश में स्थित है। मैदानी इलाके उल्लेखनीय रूप से समरूप हैंः सैकड़ों किलोमीटर तक एकमात्र प्रत्याक्ष उच्चावच बाढ़-ग्रस्त पहाड़ियों से निर्मित हुए हैं। इस क्षेत्र में उच्चावच की भिन्नता 300 मीटर से अधिक नहीं है (खाद्य एवं कृषि संगठन/ संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम, 1981), परंतु एकसमान समतल अधिकांश भूतत्वीय मृदा विविधता को छिपा देती है। उदाहरणार्थ, उत्तर-पूर्वी भारत की कृषि की दृष्टि से उत्पादक और उर्वरक गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा की कछारी गाद और चिकनी मिट्टी थार के मरुस्थल की तुलनात्मक बंजर रेत के ठीक विरुद्ध है, जो राजस्थान राज्य के भारतीय भाग के मैदानों के सबसे उत्तर-पश्चिमी छोर पर स्थित है।
जैसा कि हम जानते हैं, भारत की जलवायु पर एशियाई मानसून का वर्चस्व है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है दक्षिण-पश्चिम की दिशा से जून और अक्टूबर के मध्य होने वाली वर्षा, और दिसंबर और फरवरी के बीच प्रवाहित होने वाली शुष्क हवाएं। मार्च से मई तक का मौसम शुष्क और गर्म होता है।
3.0 भारत की जैव-विविधता
3.1 आर्द्र भूमि (Wetlands)
भारत की आर्द्र भूमि के प्राकृतिक वासों की विविधता काफी समृद्ध है। आर्द्र भूमि का कुल क्षेत्रफल 15.26 मिलियन हेक्टेयर, या देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 4.63 प्रतिशत है। दो स्थानों को - चिलिका झील (ओड़िशा) और केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (भरतपुर) - अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की आर्द्र भूमियों (रामसर सम्मलेन) में मुरगाबी के विशेषरूप से महत्वपूर्ण वासों के रूप में शामिल किया गया है। देश की आर्द्र भूमियाँ क्षेत्र की दृष्टि से आठ श्रेणियों में वर्गीकृत की गई हैं (स्कॉट, 1989): दक्षिण में डेक्कन के पठार के जलाशय, जिनमें दक्षिण पश्चिम तट के पश्चजल और अन्य आर्द्र भूमियाँ भी शामिल हैं; राजस्थान, गुजरात और कच्छ की खाड़ी के विशाल खारे विस्तार; गुजरात के पूर्वी क्षेत्र से राजस्थान (केवलादेव घना राष्ट्रीय उद्यान) और मध्यप्रदेश तक के क्षेत्र की मीठे पानी की झीलें; भारत के पूर्वी तट (चिल्का झील) की डेल्टा आर्द्र भूमियाँ और पश्चजल; गंगा के मैदानों की मीठे पानी की दलदलें; ब्रह्मपुत्र के बाढ़ के मैदान; उत्तर पूर्वी भारत और हिमालय की तलहटी की कच्छ भूमि और दलदलें; कश्मीर और लद्दाख के पर्वतीय क्षेत्र की झीलें और निदियां; और अंडमान एवं निकोबार द्वीप वृत्त चाप के सदाबहार वन एवं अन्य आर्द्र भूमियाँ शामिल हैं।
3.2 वन
भारत के प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र इसे एक विशिष्ट पहचान प्रदान करते हैं। साथ ही इसके भूगोल, इतिहास और संस्कृति उसमें और अधिक योगदान प्रदान करते हैं। भारतीय वनों के परिदृश्य का विस्तार अंडमान एवं निकोबार द्वीपों, पश्चिमी घाट और उत्तर पूर्वी राज्यों के सदाबहार उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों से लेकर उत्तर में हिमालय की ऊंची चोटियों की शुष्क छोटी झाड़ियों तक फैला हुआ है। इन दो चरम स्थितियों के बीच देश में अर्ध सदाबहार वन, पर्णपाती मानसून वन, कंटीले वन, निचले पर्वतीय क्षेत्र के उपोष्णकटिबंधीय देवदार वन और समशीतोष्ण पर्वतीय वन भी मौजूद हैं।
उष्णकटिबंधीय वनों के सबसे महत्वपूर्ण वर्गीकरणों में से एक वर्गीकरण ग्रेटर भारत के लिए विकसित किया गया था और बाद में इसका वर्तमान भारत के लिए पुनर्प्रकाशन किया गया था। इस दृष्टिकोण का व्यापक अनुपालन भारत के बाहर के लिए अधिक उपयोगी साबित हुआ है। इसमें 16 प्रमुख वनों की पहचान की गई है, जिन्हें 221 कनिष्ठ प्रकारों में उपविभाजित किया गया है। प्रकारों को परिभाषित करने के लिए संरचना, मुखाकृति और वनस्पतिशास्त्र, सभी का उपयोग किया गया है।
उष्णकटिबंधीय वनों के मुख्य क्षेत्र अंडमान एवं निकोबार समूहों में; पश्चिमी घाट, जो प्रायद्वीपीय भारत की अरब सागर की तटरेखा की झालर बनाते हैं, उनमें और उत्तर पूर्व के ग्रेटर असम क्षेत्र में पाये जाते हैं। वर्षा वनों के छोटे अवशेष ओड़िशा राज्य में पाये जाते हैं। सदाबहार वनों की तुलना में अर्ध सदाबहार वन अधिक विस्तृत रूप में पाये जाते हैं, आंशिक रूप से क्योंकि मानव हस्तक्षेप के कारण सदाबहार वनों का अर्ध सदाबहार वनों में अपक्षय हो जाता है। प्रमुख तीनों वर्षा वन क्षेत्रों की वनस्पतियों और जीव जंतुओं के बीच व्यापक भिन्नता पाई जाती है।
पश्चिमी घाट के मॉनसूनी वन घाट के पश्चिमी (तटीय) सीमांत और पूर्वी क्षेत्र, दोनों ओर पाये जाते हैं जहां वर्षा कम होती है। इन वनों में वाणिज्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अनेक वृक्ष प्रजातियां पाई जाती हैं (उदाहरणार्थ भारतीय शीशम शीशम लातिफोलिया, मालाबार किनो प्टेरोकार्पस मार्सुपियम, सागवान और टर्मीनालिया क्रेनुलाता), परंतु अब ये अनेक क्षेत्रों से साफ हो गए हैं। वर्षा वनों में बड़ी संख्या में वृक्ष प्रजातियां मौजूद हैं। ऊपरी वितान के कम से कम 60 प्रतिशत वृक्ष ऐसी प्रजातियां हैं जो व्यक्तिगत रूप से कुल संख्या के एक प्रतिशत से अधिक का योगदान प्रदान नहीं करतीं। बांस के झुरमुट दक्षिण पश्चिम भारत के सदाबहार और अर्ध सदाबहार वनों के सभी भागों की धाराओं के आसपास या खराब सूखे कोटरों में दिखाई देते हैं, शायद ऐसे क्षेत्रों में जिन्हें कभी कृषि के लिए साफ किया गया था।
उत्तर पूर्वी भारत (जिसमें असम, नागालैंड़, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा और मेघालय राज्य और अरुणाचल प्रदेश के मैदानी क्षेत्र शामिल हैं) की उष्णकटिबंधीय वनस्पति आमतौर पर 900 मीटर की ऊँचाई तक पाई जाती है। यह सदाबहार और अर्ध सदाबहार वर्षा वनों, आर्द्र पर्णपाती मानसून वनों, तटवर्ती वनों, दलदलों और घास के मैदानों को आच्छादित करती है। सदाबहार वर्षा वन असम घाटी, पूर्वी हिमालय की तलहटी और नागा पहाड़ियों के निचले भागों, मेघालय, मिजोरम, और मणिपुर में पाये जाते हैं जहां वर्षा प्रति वर्ष 2300 मिलीमीटर से अधिक होती है। असम घाटी में विशाल डिप्टेरोकार्पस माक्रोकार्पस और शौरी असामिका अकेले पाये जाते हैं, जो कभी कभी 7 मीटर तक की परिधि और 50 मीटर तक की ऊँचाई प्राप्त कर लेते हैं। मॉनसूनी वन मुख्य रूप से आर्द्र साल शौरी रोबस्टा वन होते हैं, जो इस क्षेत्र में व्यापक रूप से पाये जाते हैं (आईयूसीएन, 1991)।
अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूहों में उष्णकटिबंधीय वर्षा वन और उष्ण कटिबंधीय अर्ध सदाबहार वर्षा वन, साथ ही उष्णकटिबंधीय मॉनसूनी आर्द्र मॉनसूनी वन पाये जाते हैं। (आईयूसीएन, 1986) उष्णकटिबंधीय सदाबहार वर्षा वन मुख्य भूमि की तुलना में आकार और प्रजातियों के मामले में थोडे़ ही कम भव्य होते हैं। इनकी मुख्य प्रजाति है पहाडी क्षेत्रों में डिप्टेरोकार्पस ग्रैण्डीलोरस, जबकि द्वीपसमूह के दक्षिणी भागों के कुछ द्वीपों में डिप्टेरोकार्पस केर्री अधिक प्रभावी हैं। अंडमान के मॉनसूनी वनों पर प्टेरोकार्पस डलबर्गीओइड्स और टर्मीनालिया सप्प का प्रभुत्व है।
3.3 समुद्री पर्यावरण
मत्स्य ग्रहण की क्षमता की भारत कमजोर नहीं है। भारत के किनारे के निकट का तटीय जल अत्यंत समृद्ध मछली क्षेत्र है। पिछले दस वर्षों के दौरान कुल वाणिज्यिक मछली पकड 1.4 से 1.6 मिलियन टन के बीच स्थिर है, जिनमें क्लुपोइड समूह की मछलियाँ शामिल हैं (उदाहरणार्थ विशेष सार्डिन सर्डिनेला, विशेष भारतीय शाद हिल्सा और विशेष वाइटबैट स्टोलेफोरस)। जो कुल पकड़ का लगभग 30 प्रतिशत है। 1981 में ऐसा अनुमान किया गया था कि इन जल क्षेत्रों में कार्यरत लगभग 1,80,000 गैर मशीनी.त नौकाएं मौजूद थीं (भारत के मछली पकड़ने वाले बेडे़ का लगभग 90 प्रतिशत) जो छोटे स्तर पर, निर्वाह योग्य मछली पकड़ने की गतिविधियों में कार्यरत थीं। उसी समय यहां लगभग 20000 मशीनीकृत नौकाएं और 75 गहरे पानी के मछली पकड़ने के जहाज भी मौजूद थे जो मुख्य रूप से महाराष्ट्र, केरल, गुजरात, तमिलनाडु और कर्नाटक राज्यों के बंदरगाहों से परिचालन करते थे।
हमने प्रसिद्ध ऑस्ट्रेलियाई ग्रेट बैरियर रीफ के बारे में पढ़ा है। भारत में भी प्रवाल भित्तियां पाई जाती हैं, परंतु ये केवल मुख्य भूमि के केवल कुछ भागों में ही पाई जाती हैं, मुख्य रूप से दक्षिणी अपतटीय क्षेत्र की कच्छ की खाड़ी में, और श्रीलंका के सामने के अनेक द्वीपों के निकट। यह सामान्य अनुपस्थिति व्यापक रूप से प्रमुख नदी तंत्रों की उपस्थिति के कारण और महाद्वीपीय जलमग्न सीमा के तलछट क्षेत्र की उपस्थिति के कारण है। अन्य क्षेत्रों में प्रवाल अंडमान, निकोबार, और लक्षद्वीप समूहों में पाये जाते हैं, हालांकि उनकी विविधता दक्षिण पूर्वी भारत की तुलना में कम है (यूएनईपी/आईयूसीएन, 1988)।
भारतीय प्रवाल भित्तियों में व्यापक श्रृंखला में संसाधन उपलब्ध हैं जो वाणिज्यिक दृष्टि से काफी बहुमूल्य हैं। प्रवालों, प्रवाल मलबे और प्रवाल रेत का शोषण मन्नार की खाड़ी और कच्छ की खाड़ी की भित्तियों के क्षेत्र में काफी व्यापक स्तर पर है, जबकि अलंकारिक सीपें, चौंक और मोती वाली सीप दक्षिण भारत के महत्वपूर्ण भित्ति उद्योग का आधार हैं। समुद्री पंखे और समुद्री शैवाल सजावटी कार्यों के लिए निर्यात किये जाते हैं, और दक्षिण पूर्वी तट के आसपास कांटेदार झींगा मछली उद्योग भी बडे़ पैमाने पर उपलब्ध है, जो उल्लेखनीय रूप से टुटिकोरिन, चेन्नई और मंडपम में पाया जाता है। भारतीय तटीय भित्तियों से मत्स्यालय की मछलियों के वाणिज्यिक दोहन को हाल ही में महत्त्व प्राप्त हुआ है और इन संसाधनों के दोहन के लिए कोई संगठित प्रयास नहीं किया गया है। भित्ति मत्स्यपालन केवल निर्वाह के स्तर तक है और इनका उत्पादन दर्ज नहीं किया जा सका है।
अन्य उल्लेखनीय समुद्री क्षेत्र हैं समुद्री घास के तल, जिनका हालांकि सीधे दोहन नहीं किया गया है, फिर भी वे वाणिज्यिक प्रजातियों की फसल की दृष्टि से बहुमूल्य हैं, विशेष रूप से झींगे और सदाबहार ठहराव की दृष्टि से। मन्नार की खाड़ी में ग्रीन टाइगर झींगा पेनेउस सेमीसुलकातुस की निर्यात बाजार के लिए व्यापक खेती की जाती है। समुद्री घास के तल डुगोंग डुगोंग दुगोन और अन्य कई प्रजातियों के समुद्री कछुओं के सबसे महत्वपूर्ण भोजन क्षेत्र भी हैं।
कछुओं ने निश्चित ही काफी गर्मागर्म बहस को जन्म दिया है। समुद्री कछुओं की पांच प्रजातियां भारतीय जलों में पाई जाती हैं रू हरा कछुआ चेलोनिया मीदास, लॉगरहेड करेट्टा करेट्टा, ओलिव रिडले लेपोदोचेलीस ओलिवासा, हॉक्सबिल एरेटमोचेलीस इम्ब्रिकाता और लेदरबैक देर्मोचेलीस कोरियसा। भारत में पाये जाने वाले अधिकांश समुद्री कछुओं की जनसंख्या कम होती जा रही है। इनकी संख्या में इस गिरावट का प्रमुख कारण है मनुष्य द्वारा जानबूझ कर किया गया इनका शिकार। कछुओं के लिए जाल बिछाया जाता है और यह भारत की संपूर्ण तटरेखा पर फैला हुआ है। दक्षिण पूर्वी भारत में इनकी वार्षिक पकड़ का अनुमान 4000 से 5000 कछुए है, जिनमें से चेलोनिया मीदास की संख्या लगभग 70 प्रतिशत होती है। करेट्टा करेट्टा और लेपोदोचेलीस ओलिवासा सबसे अधिक उपभोग की जाने वाली प्रजाति है। एरेटमोचेलीस इम्ब्रिकाता कभी-कभी ही खाया जाता है, परंतु इसके कारण मृत्युएं हुई हैं। अतः इसकी पकड़ केवल इसकी खोल के लिए ही की जाती है। देर्मोचेलीस कोरियसा को इसके तेल के लिए उबाला जाता है जिसका उपयोग नावों के छिद्रों को बंद करने और समुद्री बरमे से संरक्षण के लिए किया जाता है। आनुषंगिक जाल काफी व्यापक स्तर पर लगाये जाते हैं। मन्नार की खाड़ी में समुद्री घास के तल में कछुओं का पाया जाना काफी आम है जहाँ झींगा ट्रॉलर कार्यरत होते हैं, परंतु बंगाल के अपतटीय भागों में मशीनी नौकाओं की बढती संख्या के कारण आकस्मिक पकड की दर में वृद्धि हुई है।
4.0 प्रजातियों की विविधता
भारत के वनों, आर्द्र भूमियों और समुद्री क्षेत्रों में जैविक विविधता की विशाल संपदा उपलब्ध है। इस संपन्नता को प्रजातियों की वास्तविक संख्या में, और जिस अनुपात में वे विश्व संपदा का प्रतिनिधित्व करती हैं, उसमें दर्शाया गया है।
भारत में विशाल संख्या में वैज्ञानिक संस्थाएं और विश्वविद्यालयीन विभाग हैं जिनकी जैव-विविधता के विभिन्न पहलुओं में रूचि है। बड़ी संख्या में वैज्ञानिक और अनुसंधानकर्ता इनकी इन्वेंट्री, अनुसंधान और निगरानी में लगे हुए हैं। अतः देश की जैविक विविधता के वितरण और समृद्धि के विषय में ज्ञान का सामान्य स्तर काफी अच्छा है।
4.1 स्थानिक प्रजातियां (Endemic Species)
स्थानिक का अर्थ है स्थानीय या देशी। भारत में अनेक स्थानिक वनस्पति और कशेरुकीय प्रजातियां हैं। वनस्पति में प्रजातियों की स्थानीयता का अनुमान 33 प्रतिशत का है, क्योंकि 140 स्थानिक पीढ़ियां किंतु कोई स्थानिक परिवार नहीं हैं (भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण, 1983)। स्थानिकों में समृद्ध क्षेत्र हैं उत्तर पूर्वी भारत, पश्चिमी घाट, उत्तर पश्चिमी और पूर्वी हिमालय। पूर्वी घाट के क्षेत्र में भी एक छोटा क्षेत्र स्थानीय स्थानिकों का पाया जाता है (मैकिन्नोन एवं मैकिन्नोन, 1986)। गंगा के मैदान आमतौर पर स्थानिकों की दृष्टि से कमजोर हैं, जबकि अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह भारत की वनस्पतियों में लगभग 220 प्रजातियों का योगदान देते हैं (भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण, 1983)।
डब्लूसीएमसी की लुप्तप्राय वनस्पति इकाई वनस्पति विविधता के विश्व केंद्रों की सूची पत्र बनाने प्रारंभिक अवस्था में है; अब तक विश्व भर के लगभग 150 वानस्पतिक स्थलों की संरक्षण के कार्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों के रूप में पहचान की गई है, परंतु सनी स्थानों की निरंतर पहचान करने का कार्य जारी है (आईयूसीएन, 1987)। भारत के लिए पांच स्थानों को जाती किया गया है; अगस्त्यमलाई पहाड़ियां, शांत घाटी और नया अमराम्बलम संरक्षित और पेरियार राष्ट्रीय उद्यान (ये सभी पश्चिमी घाट में स्थित हैं), और पूर्वी और पश्चिमी हिमालय।
स्तनपाईयों और पक्षियों में स्थानिकता अपेक्षाकृत कम है। भारतीय स्तनधारियों की केवल 44 प्रजातियों की ऐसी श्रृंखला है जो पूर्ण रूप से भारतीय प्रादेशिक सीमा में सीमित है। संरक्षण के महत्त्व की चार प्रजातियां पश्चिमी घाट में पाई जाती हैं। ये निम्नानुसार हैंः शेरपूंछ-मकाक, मकाका सिलेनुस, नीलगिरि पत्ती बंदर ट्राच्यपिथेकस जोहनी (स्थानीय भाषा में जिसका नीलगिरि लंगूर प्रेसबीटीस जोहनी नाम प्रचलित है), भूरा पाम सीविट पैराडोक्सुरुस जेर्डोनी और नीलगिरि तहर हेमित्रगुस हीलॉरियसे।
केवल 55 पक्षी प्रजातियां भारत के लिए स्थानिक हैं, जिनका वितरण उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों में केंद्रित है। ये मुख्य रूप से पूर्वी भारत में पर्वत श्रृंखलाओं के आसपास स्थित हैं जहां वर्षा छायाएं पाई जाती हैं, दक्षिण पश्चिम भारत में (पश्चिमी घाट में), और अंडमान और निकोबार द्वीप समूहों में स्थित हैं। (आईसीबीपी, 1992)।
इसके विपरीत, भारत की सरीसृप और उभयचर प्रजातियों में स्थानिकता काफी उच्च है। देश में लगभग 187 स्थानिक सरीसृप प्रजातियां हैं और 110 स्थानिक उभयचर प्रजातियां उपलब्ध हैं। आठ उभयचर प्रजातियां तो ऐसी हैं जो भारत के बाहर कहीं भी नहीं पाई जाती। इनमें कैसिलिअन, इंडोटीलू, गेगेनोफिस, और उरेओटीलूस शामिल हैं; और अनुराण, टोड बुफॉइड्स, माइक्रोहयलिद मेलनोबट्राचुस, और मेंढ़क रनिक्सालुस, नैंनोबट्राचुस और न्यक्तिबत्राचुस शामिल हैं। शायद उभयचर प्रजातियों में सबसे उल्लेखनीय हैं मोनोटीपिक मेलनोबट्राचुस जिसकी केवल एक प्रजाति है। यह संभवतः पूर्वी तंजानिया के पर्वतों में पाये गए दो प्रजातियों के अवशेषों के काफी निकट प्रतीत होती हैं।
4.2 लुप्तप्राय प्रजातियां
भारत में पशुओं की 172 ऐसी प्रजातियां हैं जिन्हें आईयूसीइन द्वारा वैश्विक स्तर पर लुप्त प्रे या विश्व की कुल लुप्तप्राय प्रजातियों के 2.9 प्रतिशत के बराबर माना गया है (ग्रूम्ब्रिज, 1993)। इनमें 53 स्तनधारियों की प्रजातियां, 69 पक्षियों की प्रजातियां, 23 सरीसृपों की प्रजातियां और 3 उभयचरों की प्रजातियां शामिल हैं। भारत में एशिया की कुछ दुर्लभ प्रजातियों की महत्वपूर्ण वैश्विक जनसंख्या पाई जाती है, जैसे बंगाल की लोमड़ी, एशियाई चीता, मरमरी बिल्ली, एशियाई शेर, भारतीय हाथी, एशियाई जंगली गधा, भारतीय गेंडा, मारखोर, गौर, एशियाई जंगली जल भैंसा इत्यादि।
एक कार्यशाला में दर्शाया गया था कि भारत में 3000 से 4000 तक वनस्पति प्रजातियां कुछ हद तक लुप्तप्राय होने के खतरे का सामना कर रही हैं। तब से वनस्पति की लुप्तप्राय प्रजातियों के अध्ययन, सर्वेक्षण और संरक्षण की परियोजना (POSSCEP) ने आंशिक रूप से इन वनस्पतियों को दर्ज किया है और अपने निष्कर्षों को लाल आंकडे पुस्तकों में प्रकाशित किया है।
5.0 संरक्षित क्षेत्रों का संजाल
5.1 विकास और इतिहास
भारत में वन्य जीवों के संरक्षण की एक लंबी परंपरा रही है। अनेक शिकारी और संग्राहक समुदाय वर्गों के लिए प्राकृतिक संसाधनों का किफायती उपयोग एक पूर्वावश्यकता थी जो लगभग ईसा पूर्व 6000 जितनी प्राचीन थी। बाद की सदियों में वनों की सघन सफाई के साथ ही कृषक एवं चरवाहे समाजों की उन्नति, परंतु पारिस्थितिकी विवेक की जागरूकता की आवश्यकता उभरी और अनेक तथाकथित मूर्तिपूजक प्रथाओं को बनाये रखा गया। जैसे-जैसे अधिकाधिक भूमि पर निवास या कृषि विकसित होती गई वैसे-वैसे ये शिकारी संरक्षण वन्यजीवों आश्रय स्थान बनते चले गए। बाद में इनमें से अनेक संरक्षितों को राष्ट्रीय उद्यान या अभयारण्यों के रूप में घोषित कर दिया गया, जो अधिकांश 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद किया गया। उदाहरणों में गुजरात के गीर, जम्मू कश्मीर का दाचीगाम, कर्नाटक का बांदीपुर, केरल का एराविकुलम, मध्यप्रदेश का माधव (जिसे अब शिवपुरी कहा जाता है), ओडिशा का सिमलीपाल और केवलदेव, और राजस्थान के रणथंबोर और सरिस्का शामिल हैं।
प्रत्येक राज्य या केंद्र शासित राज्य के वन विभागों के अंदर वन्यजीवों और वनों का प्रबंधन पारंपरिक रूप से एक ही प्रशासनिक संगठन के तहत किया जाता रहा है, जिसमें केंद्र सरकार की भूमिका मुख्य रूप से सलाहकारी रही है। हाल में दो नए घटनाक्रम हुए हैं। पहला, वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम ने मुख्य वन्यजीव वार्डन और राज्यों में वन्य जीव वार्डन के पदों के निर्माण का प्रावधान किया है जिन्हें अधिनियम के तहत सांविधिक अधिकार प्रदान किये गए हैं। इस अधिनियम के तहत राज्यों के लिए राज्य वन्यजीव परामर्श बोर्डों के गठन को भी अनिवार्य बनाया गया है। दूसरा, वन्य पशुओं और पक्षियों का समावेश संविधान की समवर्ती सूची में करने के कारण संघ को वन्यजीवों के संरक्षण में राज्यों पर कुछ कानूनी नियंत्रण प्राप्त हुआ है। उसके बाद से स्थिति में काफी सुधार हुआ है, जिन राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में राष्ट्रीय उद्यान या अभयारण्य हैं ऐसे सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने वन्यजीव शाखाओं का गठन किया है।
1970 में वन्यजीव संरक्षण पर राष्ट्रीय नीति को अपनाने के कारण और 1972 में वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम के पारित होने के कारण संरक्षित क्षेत्र संजाल में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है, जो 5 राष्ट्रीय उद्यानों और 60 अभयारण्यों से 1990 में बढ़कर क्रमशः 69 और 410 हो गई हैं।
बड़ी संख्या में संरक्षण परियोजनाओं के माध्यम से इस संजाल को और अधिक सुदृढ बनाया गया, उल्लेखनीय रूप से अप्रैल 1973 में भारत सरकार द्वारा विश्व वन्यजीव महासंघ की सहायता से शुरू की गई बाघ परियोजना, और घड़ियाल प्रजनन एवं प्रबंधन परियोजना के माध्यम से, जिसे यूएनडीपी/एफएओ की तकनीकी सहायता के साथ 1 अप्रैल 1975 को शुरू किया गया।
5.2 पश्चिमी घाट के संरक्षित क्षेत्र
पश्चिमी घाट भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी किनारों पर स्थित पहाड़ी इलाके हैं, जो मुंबई से दक्षिण की ओर महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु राज्यों से होते हुए प्रायद्वीप की दक्षिणी नोक तक फैले हुए हैं। अनुमानतः 1,59,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को व्याप्त करते हुए पश्चिमी घाट जैव विविधता और संरक्षण रूचि के असाधारण क्षेत्र हैं, और ये ‘‘भारत के प्रमुख उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन क्षेत्रों में से एक हैं‘‘। चूंकि इस क्षेत्र ने अपने मूल वनाच्छादन के एक बडे़ भाग को पहले ही खो दिया है (हालांकि केरल और कर्नाटक के संरक्षित सदाबहार वनों से इमारती लकड़ी की निकासी को अब प्रतिबंधित गया है)। अतः यह क्षेत्र संरक्षण चिंता की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है। प्राकृतिक वन का बचा हुआ छोटा सा क्षेत्र, जिसमें, असाधारण जैविक समृद्धि और निरंतर बढ़ते खतरे के स्तर के साथ (कृषि, जलाशयों में बढ़ते वृक्षारोपण) ऐसे कारक हैं जिनके लिए महत्वपूर्ण संरक्षण निविष्टियों की अत्यंत आवश्यकता है।
वर्तमान में पश्चिमी घाट में सात राष्ट्रीय उद्यान हैं जिनका कुल क्षेत्रफल 2,073 वर्ग किलोमीटर है (जो क्षेत्र के कुल क्षेत्रफल के 1.3 प्रतिशत के बराबर है), और 39 वन्य जीव अभयारण्य हैं जिनका कुल क्षेत्रफल लगभग 13,862 वर्ग किलोमीटर (8.1 प्रतिशत) है।
भारत के इस क्षेत्र में वन्यजीव अभयारण्यों के प्रबंधन की अवस्था काफी भिन्न है। उदाहरणार्थ तमिलनाडु के नीलगिरि वन्यजीव अभयारण्य में कोई मनुष्य निवासी नहीं हैं, छोटा परित्यक्त वृक्षारोपण क्षेत्र है, और कोई उत्पाद शोषण नहीं है, जबकि केरल के परम्बिकुलम वन्यजीव अभयारण्य में काफी क्षेत्र वाणिज्यिक वृक्षरोपन और निजी स्वामित्व की संपदा के तहत शामिल है जहां बडे पैमाने पर उत्पाद का शोषण किया जाता है।
6.0 अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम और सम्मेलन
भारत प्रकृति के संरक्षण और धारणीय विकास से संबंधित अनेक अंतर्राष्ट्रीय संधियों और कार्यक्रमों में भागीदारी करता है। इनमें जैविक विविधता पर सम्मेलन, यह अनुबंधित भागीदार देशों पर यूनेस्को मनुष्य एवं जीवमंडल कार्यक्रम, जो अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सहयोग का एक वैश्विक कार्यक्रम है, जैसे वैज्ञानिक कार्यक्रमों का दायित्व लगाता है। भारत जिन संधियों और कार्यक्रमों में सहयोग कर रहा है उनके उदाहरणों में निम्न उदाहरणः
लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर सम्मेलन (सीआईटीईएस)ः चूंकि भारत 18 अक्टूबर 1976 को सीआईटीईएस का एक पक्ष बन चुका था अतः उसने सीआईटीईएस को अपने सीआईटीईएस प्रबंधन प्राधिकरण के माध्यम से वार्षिक स्तर पर लुप्तप्राय प्रजातियों के व्यापार के आंकडे़ं सीआईटीईएस को प्रस्तुत किये हैं। सीआईटीईएस सम्मेलन की विषयवस्तु और परिशिष्ट प्रदान किये गए हैं।
6.1 विश्व विरासत सम्मेलन (World Heritage Convention)
भारत ने 1977 में विश्व विरासत सम्मेलन की प्रतिपुष्टि कर दी थी और उस समय से अब तक पांच प्राकृतिक स्थलों को ‘‘उत्कृष्ट वैश्विक मूल्य‘‘ के क्षेत्रों के रूप में लिखा गया है। ये स्थल निम्नानुसार हैंः काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान, केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान, मानस राष्ट्रीय उद्यान, सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान और नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान।
6.2 जैव-विविधता सम्मेलन (Convention on Biological Diversity)
जैविक विविधता पर सम्मेलन रू भारत ने जैविक विविधता पर सम्मेलन पर 5 जून 1992 को हस्ताक्षर किये, 18 फरवरी 1994 को उसकी प्रतिपुष्टि की, और 19 मई 1994 को इसे प्रभावी बनाया। यह सम्मेलन भारत के प्राकृतिक संसाधनों के धारणीय प्रबंधन और संरक्षण की रूपरेखा प्रदान करेगा।
6.3 रामसर (आर्द्र भूमि) सम्मेलन (Ramsar Wetlands Convention)
भारत 1 फरवरी 1982 से रामसर सम्मेलन का एक अनुबंधित पक्ष रहा है। अब भारत के पास 1,92,973 हेक्टेयर क्षेत्र को व्याप्त करने वाले छह महत्वपूर्ण आर्द्रभूमि स्थल हैं। ये स्थान निम्नानुसार हैंः चिलिका झील, केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान, वुलर झील, हरिके झील, लोकटक झील और सांभर झील।
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