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लोकतंत्र में नागरिक सेवाओं की भूमिका
1.0 प्रस्तावना
एक बडे़ लोकतंत्र को इसकी सभी समस्याओं और आकांक्षाओं के साथ चलाना कोई आसान काम नहीं है। एक संसदीय लोकतंत्र में जनता ही सभी शक्ति का स्रोत है। एक गणतांत्रिक प्रणाली में सत्ता लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों में निहित होती है। प्रशासन को चलाने की अंतिम जिम्मेदारी संसद के रूप में चुने हुए प्रतिनिधियों की होती है।
मंत्रियों की प्रतिबद्धता संसद के प्रति होती है, जिसके सदस्य एक सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर लोगों द्वारा चुने जाते हैं। इस दृष्टि से मंत्री लोगों के प्रति अप्रत्यक्ष रूप से जवाबदेह होते हैं। किंतु मुट्ठीभर मंत्रियों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे आधुनिक प्रशासन की बहुअंगी समस्याओं से निपट सकें। यहां नागरिक सेवा अधिकारियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। मंत्रीगण नीतियां निर्धारित करते हैं और इन नीतियों के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी लोक सेवकों की होती है। कार्यकारी निर्णयों का क्रियान्वयन भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों द्वारा किया जाता है।
प्रशासनिक सेवा के सदस्य राष्ट्रपति की इच्छा पर कार्य करते हैं और संविधान का अनुच्छेद 311 (संघ या राज्यों के नागरिक दायित्वों पर नियुक्त व्यक्तियों की पदच्युति, निष्कासन, या पदावनति) उनकी राजनीति से प्रेरित या प्रतिशोधी (प्रतिहिंसक) कार्रवाइयों से रक्षा करता है।
अपने कार्यों के निर्वहन में सिविल सेवा के सदस्य संपूर्ण निष्ठा, संविधान और देश के कानून के प्रति निष्ठा, देशभक्ति, राष्ट्रीय गौरव, कर्तव्य-निष्ठा, ईमानदारी, निष्पक्षता और पारदर्शिता बनाए रखने के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित किये जाते हैं।
भारत सरकार सभी लोक सेवकों से मान्यताओं और नैतिकता के मानकों को प्रोत्साहित करने की अनिवार्यता की अपेक्षा करती हैः
- वे अपने शासकीय दायित्वों का निर्वहन जिम्मेदारी, ईमानदारी, प्रतिबद्धता से और बिना किसी पक्षपात या भेदभाव से करें।
- वे प्रभावी व्यवस्थापन, नेतृत्व विकास और व्यक्तिगत प्रगति सुनिश्चित करें।
- शासकीय पद या जानकारी के दुरूपयोग से बचें, और
- सुशासन के साधन के रूप में सेवा करें और सामाजिक और आर्थिक विकास को बढ़ावा दें।
सुशासन के लिए मंत्रियों और लोक सेवकों के बीच स्वस्थ कार्यकारी संबंध अत्यंत महत्वपूर्ण है, अन्यथा सारी व्यवस्थाएं ठप हो जाएंगी।
जबकि राजनीतिक सिद्धांत में मंत्रियों और लोक सेवकों की भूमिका और उत्तरदायित्वों की विस्तृत परिभाषा की गई है, फिर भी व्यवहार में, कार्यों और उत्तरदायित्वों का यह विभाजन धुंधला हो जाता है, और दोनों पक्ष आमतौर पर एक दूसरे के कार्यों और उत्तरदायित्वों पर अतिक्रमण करते हुए दिखाई देते हैं। किसी भी लोकतंत्र में मंत्री संसद के माध्यम से जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं, अतः लोकसेवकों को मंत्रियों के प्रति जवाबदेह होना ही होगा।
हालांकि एक निष्पक्ष लोक सेवक ना केवल विद्यमान सरकार के प्रति उत्तरदायी होता है, बल्कि वह देश के संविधान के प्रति भी उत्तरदायी होता है, जिसके प्रति जवाबदेही की उसने शपथ ली है। साथ ही साथ, विधिवत निर्वाचित सरकार की नीतियों का कार्यान्वयन एक लोक सेवक का महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है। इसीलिए मंत्रियों और लोक सेवकों के बीच के कार्यों और उत्तरदायित्वों की स्पष्ट परिभाषा किया जाना आवश्यक है। एक ऐसी रूपरेखा अत्यंत उपयुक्त होगी जिसमें उत्तरदायित्व और जवाबदेही की स्पष्ट रूप से परिभाषा की गई हो। भारतीय संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकारों और उनमें से प्रत्येक के उत्तरदायित्वों के विभाजन का प्रावधान किया गया है।
चूंकि भारत एक संसदीय लोकतंत्र है, अतः इसमें मंत्रिपरिषद के स्तर पर विधायिका और कार्यपालिका के बीच एक अंतरफलक है, जो सामूहिक रूप से विधायिका के प्रति उत्तरदायी है। अनुच्छेद 53 और अनुच्छेद 154 के अनुसार, संघ और राज्यों की कार्यकारी शक्तियां प्रत्यक्ष रूप से या उनके मातहत अधिकारियों के माध्यम से राष्ट्रपति और राज्यपालों में निहित होती हैं। ये अधिकारी स्थायी नागरिक सेवा का निर्माण करते हैं और संविधान के भाग XIV द्वारा शासित होते हैं। (अनुच्छेद 308-323)
2.0 भारत में नागरिक सेवा का इतिहास
प्राचीन भारत से लेकर मुगल साम्राज्य तक, राजाओं की प्रशासन की अपनी-अपनी व्यवस्थाएं होती थीं और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए वे तद्नुसार नियुक्तियां किया करते थे। परंतु उन्होंने कभी भी अपने कर्मचारियों की नियुक्तियों और प्रशिक्षण के लिए कोई व्यवस्थित प्रणाली नहीं बनायी थी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी पहली ऐसी शासन व्यवस्था थी, जिसने काडर (संवर्ग) आधारित नागरिक सेवा की शुरुआत की, जो अंततः ब्रिटिश भारतीय शासन काल की प्रशासनिक व्यवस्था की आधारभूत रूपरेखा बनी। ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल और ब्रिटिश महारानी के शासन काल, दोनों में नागरिक सेवाओं की व्यवस्थाओं में, कंपनी के स्वरुप, कार्यों और उत्तरदायित्वों में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर तीन विशिष्ट कालखंडों के दौरान निरंतर कई बदलाव और विकास हुए।
2.1.1 1740 तक का कालखण्ड
इस अवधि के दौरान कंपनी की प्रमुख चिंता व्यापार को लेकर थी, जिसके लिए उन्हें समय-समय पर प्रशासन के साथ संपर्क करना पडता था। इस कालखंड के दौरान कंपनी के सेवक आमतौर पर दूरदर्शी युवक थे, ‘‘जो उपयोगी से अधिक आशान्वित थे।‘‘ इस दौरान एक चार-स्तरीय नियमित नागरिक सेवा की शुरुआत की गई। ये चार स्तर क्रमशः, प्रशिक्षु, लेखक, कनिष्ठ फैक्टर और वरिष्ठ फैक्टर थे। इन स्तरीय कर्मचारियों के लिए एक ही योग्यता की आवश्यकता थी, और वह थी लेखन प्रवीणता। बाद में उनमें वाणिज्यिक लेखा कार्यों की जानकारी की आवश्यकता भी पड़ने लगी। साथ ही, कोई भी युवा जो इन चार पदों में से किसी भी पद पर नियुक्ति की इच्छा रखता था, उसे उसके लिए एक याचिका प्रस्तुत करनी होती थी, और कंपनी के किसी भी एक निदेशक से नामांकन प्राप्त करना होता था।
2.1.2 1741 से 1833 का कालखण्ड
1757 के प्लासी के युद्ध ने ब्रिटिश ईस्ट इंड़िया कंपनी को पहले बंगाल और बिहार में, और फिर पूरे भारत देश में राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए सक्षम बनाया। इसके परिणामस्वरूप, प्रशासन की तुलना में व्यापार का महत्त्व कम हो गया। इस दौरान कंपनी ने बडे़ पैमाने पर शक्ति और जिम्मेदारी प्राप्त कर ली थी, और अब उसकी सेवा में कई स्तर के सेवक या कर्मचारी निर्माण हो गए थे।
इन नागरिक सेवकों को प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए कंपनी ने 1806 में एक महाविद्यालय की स्थापना की, जिसमें इंड़िया हाउस द्वारा आयोजित प्रारंभिक परीक्षा के आधार पर ही प्रवेश दिया जाता था। कंपनी के निदेशकों द्वारा नामांकित उम्मीदवारों को ही इस महाविद्यालय में प्रवेश के लिए योग्य माना जाता था, और उन्हें कालजयी (क्लासिक्स्) और गणित की परीक्षा में भी बैठना पड़ता था। महाविद्यालय ने एक पाठ्यक्रम निर्धारित किया था, जो विद्यार्थियों को भविष्य में भारत में उनके काम और जीवन की सीख देने में सहाय्यक सिद्ध होता था। यह व्यवस्था तब तक जारी रही जब तक इसे 1853 के चार्टर अधिनियम ने प्रतिस्थापित नहीं कर दिया। इस अधिनियम के अनुसार कंपनी के निदेशकों द्वारा नामांकन की व्यवस्था को एक प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।
2.1.3 1833 के बाद का कालखण्ड़
तीसरा चरण 1833 से शुरू हुआ, और भारत में ब्रिटिश शासन के अंत तक चलता रहा। बढ़ते राजनीतिक रसूख और भौगोलिक प्रभुत्व के साथ, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और इसके सेवकों की मुख्य चिंता भारत में अपने उपनिवेश को प्रशासित करने की थी। इस प्रकार के उपनिवेश को प्रशासित करने के लिए एक नियमित और अच्छी तरह से संगठित नागरिक सेवकों के समूह की नितांत आवश्यकता महसूस की गई, और तद्नुसार आवश्यक व्यवस्थाएं तैयार की गयीं। एक काडर आधारित नागरिक सेवा का संगठन उन्होंने पहले ही कर लिया था, जहां प्रवेश केवल प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से ही हो सकता था। यह घोषणा की गई कि ‘‘प्रतियोगी परीक्षा का उद्देश्य एक औपचारिक और शैक्षिक पांडित्य-प्रदर्शन प्राप्त करना, लेकिन सक्रिय जीवन के उच्चतम उद्देश्यों के लिए मन को प्रशिक्षित करना था।‘‘ अपेक्षा की गई थी कि ऐसी प्रतियोगी परीक्षा प्रणाली निश्चित रूप से भारत में ब्रिटिश सरकार के लिए अत्यधिक कुशल प्रशासकों के एक समूह का निर्माण करेगी।
1873 के चार्टर अधिनियम ने भारतीयों या ब्रिटिश भारत के मूल निवासियों को प्रतिवचनबद्ध नागरिक सेवाओं में प्रवेश की अनुमति प्रदान की थी। किंतु उनके अपने आर्थिक और सामाजिक कारणों के चलते ठेठ भारतीय प्रतियोगी परीक्षा में शामिल होने के लिए इंग्लैंड़ नहीं जा पाते थे। साथ ही, 1870 के संसद अधिनियम ने पर्याप्त योग्यता और क्षमता-संपन्न भारतीयों को नागरिक सेवाओं में रोजगार के लिए अतिरिक्त सुविधाएं भी प्रदान की थीं। 1886 में एटचिसन आयोग ने ‘‘प्रत्येक प्रांत में कई पद एक निचले स्तर की नागरिक सेवा में स्थानांतरित करने की भी सिफारिश की थी, ताकि भारतीयों को कनिष्ठ नागरिक अधिकारियों के रूप में अवसर प्राप्त हो सकें।‘‘ इस सिफारिश के पश्चात, तत्कालीन ब्रिटिश भारतीय शासन ने 108 पद प्रांतीय सेवाओं में स्थानांतरित कर दिए थे। इन्होने भारतीयों को प्रतियोगी परीक्षा भारत में भी आयोजित करने की मांग करने के लिए प्रोत्साहित किया। हालांकि इस मांग को स्वीकार नहीं किया गया।
इस्लिंगटन आयोग (1912) ने तो यहां तक सुझाव दिया, कि भारतीयों के लिए पदों में न्यूनतम 25 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया जाये, क्योंकि यह देखा गया था कि नागरिक सेवाओं में भारतीयों की कुल संख्या का योग 63 (5 प्रतिशत) था। अंततः वार्षिक 1.5 प्रतिशत वृद्धि के साथ नागरिक सेवाओं में भारतीयों की संख्या बढ़ कर 33 प्रतिशत हो गई। साथ ही, नागरिक सेवा आयोग के पर्यवेक्षण में भारत में भी एक प्रतियोगी परीक्षा की प्रणाली शुरू की गई। यह व्यवस्था 1923 तक जारी रही। 1923 में ली आयोग ने यह सिफारिश की, कि नागरिक सेवाओं में नियुक्तियों में 40 प्रतिशत भागीदारी यूरोपियों की हो, जबकि अन्य 40 प्रतिशत पदों पर भारतीय व्यक्तियों की नियुक्ति की जा सकती है, और बचे हुए 20 प्रतिशत पद केवल पदोन्नति के आधार पर भरे जाएंगे। यह व्यवस्था भारत की स्वतंत्रता के समय तक जारी रही। विशेष रूप से 1939 के बाद से भारतीयों ने इस प्रतिवचनबद्ध सेवा पर अपनी पकड़ मजबूत की, एक ऐसी प्रक्रिया जो 1919 के तत्काल बाद से शुरू हो गई थी। 1947 में जब भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई, और जब सत्ता का हस्तांतरण हुआ, तो भारतीय नागरिक सेवा की नामपद्धति में भी भारतीय प्रशासनिक सेवा के रूप में परिवर्तन किया गया।
भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की 150 वर्षों से भी अधिक की अवधि के दौरान उसकी नागरिक सेवा ही उसका प्रमुख आधार स्तंभ थी। उसने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को उनके साम्राज्य में कानून और व्यवस्था बनाये रखने में मदद की, विशेष रूप से उस काल के दौरान जब राष्ट्रवादी आंदोलन और उग्रवाद दैनंदिन जीवन का भाग बन गए थे। इसने समाज में एक अत्यधिक प्रतिष्ठित और विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का निर्माण भी किया। पदानुक्रम में बनी हुई इस व्यवस्था ने एक ऐसे वर्ग का निर्माण किया जिसके पास अत्यधिक शक्तियां और कौशल्य थे, और जो हमेशा पृथक, विशिष्ट और वर्ग के प्रति सजग बने रहे। इस रवैये का कुछ अंश आज भी इसके कुछ पालनकर्ताओं में जीवित दिखता है!
ब्रिटिश काल के दौरान की नागरिक सेवा की मुख्य विशेषतायें यह थीं कि प्रथमतः, यह एक बंद व अच्छी तरह से गठित प्रशासनिक सेवा थी, और दूसरे, इसकी रचना ब्रिटिश सत्ता की स्थिरता और निरंतरता बनाये रखने की दृष्टि से की गई थी।
श्रेष्ठतर नागरिक सेवा का भारतीयकरण करने की मांग राजनीतिक आंदोलनों की प्रमुख मांग बन गई, जिसने ब्रिटिश भारतीय शासन को इस औपनिवेशिक क्षेत्र में नियुक्तियों के लिए एक लोक सेवा आयोग के गठन पर विचार करने के लिए बाध्य किया। पहले लोक सेवा आयोग का गठन 1 अक्टूबर 1926 को किया गया। इसके बहुत ही सीमित सलाहकारी अधिकार थे। यह भारतीय लोगों की आशाओं को पूरा नहीं कर सका। अतः भारत शासन अधिनियम 1935 के अंतर्गत एक संघीय लोक सेवा आयोग की स्थापना की गई, और पहली बार, प्रांतीय स्तर पर भी लोक सेवा आयोगों की स्थापना का प्रावधान किया गया।
स्वतंत्रता के बाद, संविधान सभा को नागरिक सेवाओं में निष्पक्ष भर्ती सुनिश्चित करने के लिए और सेवा के हितों के संरक्षण के लिए संघीय और प्रांतीय, दोनों स्तरों पर, लोक सेवा आयोगों को एक सुरक्षित और स्वायत्त दर्जा देने की आवश्यकता महसूस हुई। 26 जनवरी 1950 को भारत के नए संविधान के लागू होने के साथ ही संघीय लोक सेवा आयोग को एक स्वायत्त निकाय के रूप में संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया, और इसका नाम संघ लोक सेवा आयोग रखा गया।
3.0 लोक सेवकों के संबंध में संवैधानिक प्रावधान
संघ लोक सेवा आयोग की स्थापना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 315 के अंतर्गत की गई है। आयोग में दस सदस्य व एक अध्यक्ष होते हैं।
आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की सेवा शर्तें संघ लोक सेवा आयोग (सदस्य) विनियम, 1969 द्वारा निर्धारित की जाती हैं।
आयोग की सेवा के लिए एक सचिवालय प्रदान किया गया है, जिसमें अध्यक्ष के रूप में एक सचिव होता है, जिसके साथ दो अतिरिक्त सचिव, कई संयुक्त सचिव, उप सचिव और अन्य सहायक कर्मचारी होते हैं। संविधान के अंतर्गत संघ लोक सेवा आयोग को निम्न उत्तरदायित्व और भूमिकाएं सौंपी गई हैंः
- प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से संघ के अंतर्गत सेवाओं और पदों पर नियुक्तियां करना;
- केंद सरकार की सेवाओं और पदों पर साक्षात्कारों के माध्यम से चयन करना;
- पदोन्नति और प्रतिनियुक्ति पर स्थानांतरण के लिए अधिकारियों की योग्यता पर सलाह देना;
- विभिन्न पदों और सेवाओं में नियुक्तियों की पद्धतियों से संबंधित मामलों पर केंद्र सरकार को सलाह देना;
- विभिन्न नागरिक सेवाओं में अनुशासन से संबंधित मामलों को निपटाना और
- असाधारण निवृत्ति वेतन, विधिक व्ययों की प्रतिपूर्ति इत्यादि से संबंधित मामले।
आयोग द्वारा निभाई जाने वाली मुख्य भूमिका है केंद्र और राज्यों के लिए समान विभिन्न लोक सेवाओं और पदों के लिए मानव संसाधनों की आपूर्ति करने के लिए व्यक्तियों का चयन करना (अर्थात, अखिल भारतीय सेवाओं के लिए)।
संविधान के अनुच्छेद 320(3) के अंतर्गत एक लोक सेवक के रूप में भारत सरकार के अधीन कार्यरत व्यक्तियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाइयों के संदर्भ में निरूपित किये जाने वाले दंड की मात्रा के बारे में आयोग से सलाह लेना अनिवार्य है।
अनुच्छेद 321 संसद को यह अधिकार प्रदान करता है, कि वह आयोग के कार्यों का विस्तार कानून या सार्वजनिक संस्थाओं के अंतर्गत निर्मित किसी भी स्थानीय प्राधिकरण या अन्य निकायों के लिए भी कर सकती है।
संविधान के अनुच्छेद 323 के अंतर्गत आयोग का यह दायित्व है, कि वह राष्ट्रपति को प्रति वर्ष उसके द्वारा किये गए कार्यों के संदर्भ में एक ब्यौरा प्रस्तुत करे, और ऐसा ब्यौरा प्राप्त होने पर राष्ट्रपति इस ब्यौरे की एक प्रति, किन्हीं मामलों में यदि आयोग की सलाह मान्य नहीं की गई है, तो वह क्यों मान्य नहीं की गई है, इसके कारणों के साथ, संसद के दोनों सदनों में प्रस्तुत करने के लिए निर्देशित करते हैं।
अखिल भारतीय सेवाएं अधिनियम 1951 और इसके अंतर्गत निर्मित नियम और कानून अखिल भारतीय सेवाओं, जैसे भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा और भारतीय वन सेवा, में नियुक्ति और सेवा शर्तों को विनियमित करते हैं।
जहां तक भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा में नियुक्तियों का प्रश्न है, तो यह आयोग द्वारा आयोजित लोक सेवा परीक्षा के माध्यम से की जाती है, और भारतीय वन सेवा में नियुक्तियां भारतीय वन सेवा परीक्षा के माध्यम से की जाती हैं। संदर्भित नियम और कानून में प्रावधान है, कि आयएएसध्आयपीएसध्आयएफएस सेवाओं में 33ः रिक्तियां आयोग की सलाह से राज्य सेवाओं के अधिकारियों में से भरी जाएं। चयन समिति, जिसकी अध्यक्षता आयोग के अध्यक्ष या सदस्य द्वारा की जाती है, में केंद्र और राज्य सरकारों के वरिष्ठ प्रतिनिधि शामिल होते हैं।
संविधान के अनुच्छेद 320, जो संघ लोक सेवा आयोग (सलाह से छूट) विनियम 1958 के साथ पढा जाता है, में निहित प्रावधानों के अनुसार, विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के समूह ‘‘ए’’ और समूह ‘‘बी’’ में समाविष्ट सभी पदों की नियुक्तियों के नियम आयोग की सलाह से बनाये जाने चाहियें। इसी प्रकार, अनुच्छेद 321 के प्रावधानों के तहत संसद द्वारा पारित किये गए तत्सम अधिनियमों के अनुसार निर्मित कर्मचारी राज्य बीमा निगम, दिल्ली नगरपालिक निगम, नई दिल्ली नगरपालिका परिषद, कर्मचारी भविष्य निधि संगठन इत्यादि जैसी संस्थाओं की कुछ श्रेणियों के पदों पर नियुक्तियों के लिए नियम बनाने और उनमें संशोधन करने के लिए भी आयोग की सलाह लेना आवश्यक है। नियुक्ति संबंधी नियम बनाने या उनमें संशोधनों के सभी प्रस्तावों पर संबंधित संगठन की काडर संरचना और इस संबंध में शासन द्वारा समय-समय पर जारी किये गए परिपत्रों को ध्यान में रख कर विचार किया जाता है। अनुमोदन के पश्चात, इन विषयों में आयोग की सलाह संबंधित मंत्रालयों/विभागों को संप्रेषित की जाती है। अब तक 14000 से अधिक नियुक्ति नियम बनाये गए हैं, या संशोधित किये गए हैं।
4.0 लोक सेवक बनाम राजनेता
लोक सेवकों का यह दायित्व है, कि उन्हें शासन द्वारा पारित आदेशों का क्रियान्वयन बिना पक्षपात के, ईमानदारी के साथ, और बिना किसी भय या अनुग्रह से करना चाहिए। और यही वह क्षेत्र है, जहां लोक सेवकों और कार्यकारी राजनेताओं के बीच मत भिन्नता देखी जाती है। स्वतंत्रता के समय जो अनिश्चितता विद्यमान थी, उसके मद्देनजर यह निर्णय लिया गया, कि विद्यमान प्रशासन संरचना को ही बनाये रखा जाय, जिसका परिणाम ‘‘औपनिवेशिक हैंगओवर‘‘ में हुआ। हालांकि, मंत्रियों और लोक सेवकों के बीच संबंधों की विशेषता, एक दूसरे की भूमिकाओं के प्रति आपसी आदर और समझदारी, और किसी भी पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष के क्षेत्र में अतिक्रमण ना करने में निहित थी।
बाद के वर्षों में, स्थितियां बिगड़नी शुरू हुईं। जबकि कुछ लोक सेवकों ने अपने संबंधित मंत्रियों को उद्देश्य परक और निष्पक्ष सलाह नहीं प्रदान की, वहीं कुछ मंत्रियों ने लोक सेवकों की सलाह का विरोध शुरू कर दिया, क्योंकि वे उनके अल्पकालिक राजनीतिक हितों के अनुरूप नहीं थीं। गठबंधन की राजनीति के उदय ने नौकरशाहों पर निर्भरता और बढ़ा दी। साथ ही, केंद्रीय और राज्यों के स्तर पर कुछ मंत्रियों में नीति निर्माण के बजाय स्थानांतरण जैसे सामान्य प्रशासनिक कार्यों में अधिक रूचि लेने की प्रवृत्ति भी बढ़ी। ठीक इसी प्रकार, कुछ लोक सेवकों ने उनके निर्णय लेने में उपकार के बदले में लचीलापन (आसानी से मुडने वाला) रखने की ‘‘चालबाजी’’ की कला भी सीख ली।
इस प्रवृत्ति में बढ़ते भौतिकवाद, समाज में बढ़ती भौतिकता और सभी स्तरों पर नैतिकता के गिरते स्तर ने और अधिक वृद्धि की। इसका परिणाम यह हुआ, कि ‘‘राजनीतिक निष्पक्षता‘‘ और शुचिता, जो स्वतंत्रता-पूर्व और स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल बाद के काल में लोक सेवाओं की विशेषता हुआ करती थी, वह धीरे-धीरे लुप्त होने लगी। इन प्रवृत्तियों ने भारत में लोक सेवाओं के राजनीतिकरण की प्रवृत्ति को जन्म दिया। वास्तव में, 1965 से 1980 के कालखण्ड को ‘‘प्रतिबद्ध नौकरशाही‘‘ के कालखण्ड के रूप में जाना जाता है।
4.1 संघर्ष के क्षेत्र
नीचे दिए गए क्षेत्र कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें विधायिका और नौकरशाही के बीच मतभेद अस्तित्व में हैं।
- निष्पक्षता की अवधारणा
- नीति निर्धारण में लोक सेवकों की परामर्शदाता की भूमिका
- लोक सेवकों की वैधानिक भूमिका
- प्रत्यायोजित (सौंपे गए) कार्यों का क्रियान्वयन
- लोक सेवाओं में नियुक्तियां और भर्तियां
- लोक सेवकों के स्थानांतरण और तैनातियां
सरदार पटेल का यह दूरदृष्टिपूर्ण उद्देश्य था, कि लोक सेवाएं सामाजिक सामंजस्य और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करें। वे एक मजबूत और गतिशील संघीय प्रशासनिक व्यवस्था चाहते थे, जिसमें अखिल भारतीय सेवाओं की महत्वपूर्ण भूमिका हो। उनके दृढ़ विश्वास को सत्य साबित करते हुए, तमाम बाधाओं के बावज़ूद, लोक सेवाओं ने देश के प्रशासन के लिए एक रूपरेखा प्रदान की है। आज भी अखंड़ता, निष्पक्षता और योग्यता हमारी लोक सेवाओं के मार्गदर्शक सिद्धांत बने हुए हैं।
स्वतंत्रता के उदय के समय दिए गए अपने उद्बोधन में उन्होंने लोक सेवकों के निम्न सलाह दी थीः
‘‘सबसे ऊपर मैं आपको सलाह दूंगा कि प्रशासन की निष्पक्षता और निष्कलंकता को हर कीमत पर बनाये रखें। एक लोक सेवक राजनीति में भाग लेना बर्दाश्त नहीं कर सकता, और उसे ऐसा करना भी नहीं चाहिए। ना ही उसे सांप्रदायिक झगडों में शामिल होना चाहिए। इनमें से किसी में भी सदाचार के मार्ग से विचलित होने का अर्थ है, लोक सेवा के स्तर और इसकी प्रतिष्ठा को गिराना। इसी प्रकार, कोई भी सेवा नाम लेने लायक नहीं बचेगी यदि उसके मन में अखंडता के उच्चतम मानक प्राप्त करने के विचार नहीं होंगे।‘‘
दुर्भाग्य से, लोक सेवा की निष्पक्षता की यह दूरदृष्टि अब अस्तित्व में नहीं बची। शासन में होने वाले परिवर्तनों, विशेष रूप से राज्यों के स्तर पर, का परिणाम लोक सेवकों के थोकबंद स्थनांतरणों में होता है। राजनीतिक निष्पक्षता भी अब स्वीकार्य सिद्धांत नहीं बचा है, और कई लोक सेवकों की पहचान-सही या गलत-किसी ना किसी राजनीतिक व्यवस्था से की जाती है। एक धारणा बन गई है, कि केंद्र सरकार में भी अधिकारियों को सुविधाजनक पदस्थापना के लिए राजनेताओं के आश्रय की आवश्यकता होती है। इसीलिए, लोक सेवकों के प्रति सामान्य जनता की धारणा भी लोक सेवाओं के बढ़ते राजनीतिकरण के रूप में बन गई है। आज लोक सेवाओं की राजनीतिक निष्पक्षता और तटस्थता बनाये रखना एक गंभीर चुनौती बन गई है। इसकी जिम्मेदारी राजनीतिक कार्यपालिका और लोक सेवकों, दोनों पर समान रूप से है।
4.2 राजनीतिक बनाम कार्यक्रमों की तटस्थता
जैसा कि पॉल एप्पलबी द्वारा माना गया है, लोक सेवकों को ‘‘राजनीतिक तटस्थता’’ और ‘‘कार्यक्रम तटस्थता’’ के बीच गफलत नहीं करनी चाहिए। नीति निर्धारण के स्तर पर, लोक सेवकों की भूमिका ऐसे स्पष्ट और मुक्त परामर्शदाता की होनी चाहिए जो किन्हीं राजनीतिक विचारों में रंगी हुई प्रतीत नहीं हो। एक बार कोई नीति या कार्यक्रम एक निर्वाचित सरकार द्वारा अनुमोदित हो जाती है, तो लोक सेवकों का कर्तव्य है, कि उसका ईमानदारी और उत्साह से क्रियान्वयन किया जाये। उचित भावना से इस कार्य का क्रियान्वयन ना करना दुराचार की श्रेणी में आएगा जो उचित दंड़ के लिए उत्तरदायी माना जायेगा।
4.3 नीति निर्धारण में लोक सेवकों की परामर्शदाता की भूमिका
सरकार को नीति निर्माण और नीति निर्धारण में उचित परामर्श प्रदान करना लोक सेवकों के कर्तव्यों में से एक सबसे प्रमुख कर्तव्य है। नीति निर्धारण अंतिमतः मंत्री का कर्तव्य है। एक बार एक नीति निर्वाचित सरकार द्वारा अनुमोदित कर दी जाती है, तो लोक सेवक का कर्तव्य है, कि उस नीति का योग्य क्रियान्वयन किया जाये, चाहे वह व्यक्तिगत रूप से उस नीति को सही मानता है अथवा नहीं। उसी समय, एक लोक सेवक का कर्तव्य है कि वह नीति निर्माण के प्रारंभिक विचार के चरण पर ही शासन को इस नीति को कार्यान्वित किये जाने से होने वाले परिणामों का बिना किसी भय या लोभ के वास्तविक आधार, संपूर्ण विश्लेषण, और मुक्त और स्पष्ट अभिप्राय प्रदान करे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है, कि कई बार वरिष्ठ लोक सेवक दैनंदिन प्रशासनिक सामान्य कार्यों में ही इतने व्यस्त हो जाते हैं कि अपने कर्तव्यों के इस महत्वपूर्ण अंग में उचित योगदान देने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं। हालांकि, लोक सेवकों को नीति निर्धारण में उचित सलाह देने में सक्षम होने के लिए संबंधित क्षेत्र और समग्र सरकार के बारे में एक व्यापक दृष्टिकोण, वैचारिक स्पष्टता और अपेक्षित ज्ञान होना नितांत आवश्यक है।
यदि लागू की जाने वाली किसी नीति के बारे में लोक सेवक की धारणा है, कि यह सार्वजनिक हितों के विरुद्ध है, तो उसका कर्तव्य है कि वह राजनीतिक कार्यपालिका को इसके विपरीत परिणामों से ना केवल अवगत कराये बल्कि इनके विषय में उन्हें सही तरीके से समझाए। फिर भी यदि राजनीतिक कार्यपालिका इस सलाह को अस्वीकार करती है, तो एक लोक सेवक के पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं बचता, कि वह अपने विचारों को स्पष्ट रूप से उस नीति संबंधी दस्तावेजों में दर्ज करे। फिर, निकृष्ट नीतियों के लिए राजनीतिक कार्यपालिका को उत्तरदायी ठहराने का दायित्व संसद, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, न्यायपालिका जैसे संस्थागत निकायों और अंतिमतः मतदाताओं का होगा।
4.4 लोक सेवकों की वैधानिक भूमिका
लोक सेवकों को विभिन्न विधायी अधिनियमों के अंतर्गत कई प्रकार के वैधानिक कर्तव्यों का भी निर्वहन करना होता है, जो कभी-कभी अर्ध-न्यायिक श्रेणी में आते हैं। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट की भूमिका, आयकर अधिनियम के अंतर्गत एक निर्धारण अधिकारी की भूमिका, और भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता और संबंधित पुलिस अधिनियमों के अंतर्गत एक थानेदार (एस.एच.ओ.) की भूमिका, इस प्रकार के कर्तव्यों के कुछ उदाहरण हैं। ऐसा देखा गया है कि लोक सेवकों और मंत्रियों समेत निर्वाचित प्रतिनिधियों के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के बीच इस प्रकार के वैधानिक कार्यों में हस्तक्षेप की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इस तरह के हस्तक्षेप के सामने मौन स्वीकृति (बिना विरोध के स्वीकार करना) उन अधिकारीयों की गलती है, जिन्हें ऐसे वैधानिक उत्तरदायित्व सौंपे गए हैं, हालांकि जो लोग इस प्रकार के दबाव बनाते हैं, उन्हें भी इसके लिए उत्तरदायी बनाना पडेगा।
4.5 प्रत्यायोजित कार्यों का निर्वहन
एक लोकतंत्र में, सभी कार्यों के लिए कार्यकारी अधिकार राजनीतिक कार्यपालिका में निहित होते हैं, जो संसद के माध्यम से सामान्य जनता के प्रति जवाबदेह होती है। फिर भी, किसी भी विशाल संस्था की ही तरह, सरकार को भी विभिन्न पदाधिकारियों के पदानुक्रम के माध्यम से कार्य करना होता है, ताकि निर्धारित कार्य विभिन्न स्तरों पर और विभिन्न ठिकानों पर सुचारू रूप से निष्पन्न किये जा सकें। इसके लिए आवश्यक है, कि सरकार के विभिन्न स्तरों पर विभिन्न कार्य भिन्न-भिन्न स्तर के अधिकारियों को प्रत्यायोजित किये जाएँ। इस प्रकार के प्रत्यायोजन राजसहायता के सिद्धांतों के अनुरूप ही हैं, जो सरकार को सामान्य जनता के निकट ले जाने का कार्य करते हैं। मजबूत व्यवस्थापन का सिद्धांत कहता है कि अधिकार और उत्तरदायित्व साथ-साथ चलते हैं।
आमतौर पर ऐसा देखा जाता है कि शासकीय विभागों में अधिकार के केंद्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, और यदि शुरुआत में अधिकारों का विकेंद्रीकरण भी किया गया हो, फिर भी कनिष्ठ अधिकारियों के अधिकारों में हस्तक्षेप और अतिक्रमण की प्रवृत्ति दिखाई देती है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण प्रवृत्ति है, और जो लोग राजनीतिक कार्यकारी या लोक सेवकों के वरिष्ठ पदों पर आसीन हैं उन्हें चाहिए की इस प्रवृत्ति पर नियंत्रण लगाया जाये, क्योंकि अधिकारों का केंद्रीकरण अकुशलताओं और सेवा वितरण की गुणवत्ता में कमी को जन्म देता है। विधायिका के लिए इस प्रवृत्ति को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक है कि कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में कठोर नियंत्रणों के लिए अधिनियमों का सहारा लिया जाय, जैसा कि संविधान के 73 वें और 74 वें संशोधनों के माध्यम से स्थानीय निकायों के विषय में किया गया है, जो बाद में राज्यों के अधिनियम बने।
5.0 लोक सेवाओं में नियुक्तियां/भर्तियां
भारत के संविधान में एक स्वतंत्र संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) और राज्य लोक सेवा आयोगों (पीएससी) का प्रावधान किया गया है। इसमें निहित है, कि केंद्रीय और राज्यों के लोक सेवा आयोगों का उत्तरदायित्व है कि वे क्रमशः केंद्रीय सेवाओं और राज्य सेवाओं में नियुक्तियों के लिए परीक्षाएं आयोजित करें। जबकि संघ लोक सेवा आयोग ने एक निष्कलंक छवि निर्मित कर ली है और उसके बारे में यह माना जाता है कि उसने एक निष्पक्ष और पारदर्शी भर्ती व्यवस्था विकसित कर ली है, सभी राज्य लोक सेवा आयोगों के बारे में ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकता है।
इसके अतिरिक्त, केंद्रीय और राज्यों के स्तरों पर विभिन्न पदों पर कई सारी नियुक्तियां सरकारी विभागों द्वारा और उनके अंतर्गत आने वाले विभिन्न संगठनों द्वारा सीधे की जाती हैं। इस प्रकार की बडे पैमाने पर होने वाली नियुक्तियों के उदाहरण के रूप में, जो अनेक प्रकार की शिकायतों और विवादों में भी रही हैं, पुलिस सिपाही भर्ती, शिक्षक भर्ती (चौटाला मामला), बस चालक और परिचालक भर्ती इत्यादि हैं। आवश्यकता इस बात की है, की इस प्रकार की भर्तियों के लिए उचित सिद्धांत और नियम गठित किये जाएँ, ताकि पक्षपात, स्वजन-पक्षपात (सत्ता में बैठे लोगों द्वारा अपने स्वजनों के प्रति किया पक्षपात), भ्रष्टाचार, और सत्ता के दुरूपयोग से बचा जा सके, जिसके लिए ये भर्ती प्रक्रियाएं अक्सर बदनाम रही हैं।
इन नियमों को सुनिश्चित करना चाहिए किः
- सभी सरकारी नौकरियों में भर्ती के लिए सही तरीके से परिभाषित योग्यता आधारित प्रक्रिया विद्यमान हो
- सभी पदों के लिए खुली प्रतियोगिता हो और इसका व्यापक प्रचार किया जाये
- भर्ती प्रक्रिया में स्वविवेक को यदि पूर्ण रूप से समाप्त नहीं किया जा सके, तो कम से कम इसे न्यूनतम किया जाये।
- प्राथमिक चयन लिखित परीक्षा के आधार पर हो, या विद्यमान सार्वजनिक/मंडल/विश्वविद्यालय परीक्षा में प्राप्त गुणों के आधार पर हो, जिसमें साक्षात्कार को न्यूनतम महत्त्व हो।
5.1 लोक सेवकों की पदस्थापना और स्थानांतरण
संविधान की कार्यपद्धति की समीक्षा के लिए बनाये गए राष्ट्रीय आयोग ने लोक सेवकों की पदस्थापनाओं और स्थानांतरण पर निम्न टिप्पणियां की हैंः
‘‘राजनीतिक वरिष्ठों द्वारा नियुक्तियों, पदोन्नतियों और अधिकारियों के स्थनांतरणों में अपनाये गए मनमाने और संदिग्ध तरीकों के कारण इसके स्वतंत्र नैतिक अधिकारों का क्षरण हुआ है।‘‘
इसने सेवाओं में राजनीतिक व्यक्तियों के साथ कपटपूर्ण प्रथाओं में सम्मिलित होने को मजबूती प्रदान की है, ताकि स्थानांतरण की असुविधाओं से बचा जा सके, और राजनीतिक आकाओं के अनुग्रह से लाभ हासिल किया जा सके (‘‘खुले हाथों और ललचाती मुस्कानों के साथ’’)। वे नियमों से बंधे होने के बजाय राजनेताओं के हाथों की कठपुतलियां बन जाते हैं। यह होने से रोकने के लिए, आवश्यक है कि संविधान के अंतर्गत बेहतर व्यवस्थाएं बनायीं जाएँ। नियुक्तियों, स्थानांतरण और पदस्थापना के विषय राजनीतिक व्यक्तियों या शासकीय वरिष्ठों के स्वविवेक पर ना छोडे जाएँ, बल्कि इन्हें स्वतंत्र और स्वशासी निगमों को सौंप दिया जाना चाहिए। हाल के एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने नौकरशाहों के लिए निश्चित अवधि की अनुशंसा की है। उसने यह भी अनुशंसा की है, कि विधायिका द्वारा नौकरशाहों की सलाह की अस्वीकृति के कारणों को लिखित में दर्ज किया जाये।
लोक सेवा निगमों की स्थापना वैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत की जानी चाहिए। उनसे यह अपेक्षा की जाये कि वे संघ लोक सेवा आयोग के अनुसार कार्य करें। व्यवस्थापन संस्थाओं से लिए गए ऐसे प्रतिष्ठित व्यवस्थापन विशेषज्ञों, जो अपने कौशल्य के लिए जाने जाते हों, का समावेश इन निगमों में किया जाना चाहिए, ताकि विशेषज्ञों का एक व्यापक आधार का भंडार उपलब्ध हो सके। सिद्धांत यह नहीं है, कि राजनेताओं को कार्मिक नीति से बाहर किया जाये, बल्कि आवश्यकता इस बात की है कि निर्णय करने वाले राजनीतिज्ञों को अनुच्छेद 309 के अंतर्गत उचित संसदीय कानून के माध्यम से संस्थागत रूप में उपलब्ध ज्ञान और जानकारी प्रदान की जा सके। अनुच्छेद 309 के तहत संसदीय कानून की पवित्रता सामान्य रूप में सार्वजनिक सेवाओं और विशेष रूप से उच्चतर सिविल सेवाओं के प्रबंधन में खेलने या अस्वास्थ्यकर और अस्थिर प्रभावों की सार्वजनिक रूप से ज्ञात प्रवृत्तियों की प्रतिक्रिया करने के लिए आवश्यकता है।
सरकारी कर्मचारियों के मनमाने और विशिष्ट उद्देश्यों के लिए किये जाने वाले स्थानांतरण, जो सार्वजनिक हित और सुशासन में नहीं है, विशेष रूप से कुछ राज्यों में काफी चिंता का विषय बने हुए हैं, हालांकि केंद्र सरकार के स्तर पर स्थिति कुछ बेहतर अवश्य है।
केंद्र सरकार ने ऐसे कुछ उपाय किये हैं, जिनसे लोक सेवकों की अवधि की सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके। अखिल भारतीय सेवाओं को संचालित करने वाले नियमों में संशोधन किये गए हैं, और भारतीय प्रशासनिक सेवा में क्रमबद्ध अधिकारियों की पदस्थापना की अवधि को सुनिश्चित करने के प्रावधान किये गए हैं। उदाहरणार्थ, भारतीय प्रशासनिक सेवा (काडर) नियम 1955 में संशोधन किये गए हैं और इसमें निम्न रूप में एक उपनियम लाया गया हैः
केंद्र सरकार संबंधित सरकार या राज्य सरकारों के साथ परामर्श में संबंधित राज्य के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा (काडर संख्या का निर्धारण) विनियम, 1955 की अनुसूची के आइटम 1 द्वारा निर्धारित किसी विशिष्ट या सभी काडर आधारित पदों की अवधि निर्धारित कर सकती है।
जिन पदों के लिए इस प्रकार अवधि सुनिश्चित की गई है, उन में से किसी भी पद पर नियुक्त काडर अधिकारी निर्धारित अवधि तक उस पद पर रहेगा, हालांकि इस प्रावधान में पदोन्नति, सेवा निवृत्ति, राज्य के बाहर प्रतिनियुक्ति या दो महीने से अधिक के काल का प्रशिक्षण जैसे कारणों में शिथिलता प्रदान की जाएगी। न्यूनतम निर्धारित अवधि से पूर्व किसी अधिकारी का स्थानांतरण इन नियमों के साथ संलग्न अनुसूची में निर्दिष्ट केवल न्यूनतम अवधि के लिए निर्मित समिति की सिफारिश पर ही किया जा सकेगा।
6.0 लोक सेवा सुधार
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से अब तक केंद्र सरकार के स्तर पर प्रशासनिक सुधारों पर विचार करने के लिए लगभग पचास आयोगों और समितियों का गठन किया जा चुका है। जनवरी 1966 में स्थापित पहले प्रशासनिक सुधार आयोग से कहा गया था, कि वह विशेष रूप से निम्न विषयों से संबंधित सभी पहलुओं पर विचार करेः
- भारत सरकार का तंत्र और इसकी कार्य पद्धतियाँ
- सभी स्तरों के नियोजन तंत्र
- केंद्र-राज्य संबंध
- वित्तीय व्यवस्थापन
- कार्मिक व्यवस्थापन
- आर्थिक व्यवस्थापन
- राज्य स्तरीय व्यवस्थापन
- जिला व्यवस्थापन
- कृषि व्यवस्थापन, और
- आम जनता की शिकायतों के निवारण की समस्याएं
1970 के मध्य में समापन से पूर्व आयोग ने कुल 20 रिपोर्टें प्रस्तुत कीं, जिनका विस्तृत ब्यौरा नीचे दिया गया हैः
इन 20 रिपोर्टों में 537 प्रमुख सिफारिशें शामिल थीं। विभिन्न प्रशासनिक मंत्रालयों से प्राप्त निविष्टियों के आधार पर क्रियान्वयन की स्थिति को निर्देशित करने वाली एक रिपोर्ट नवंबर 1977 को संसद में पेश की गई थी।
इस रिपोर्ट की दृष्टि से प्रासंगिक पहले प्रशासनिक सुधार आयोग (ए.आर.सी.) की सिफारिशों की सूची नीचे दी गई हैः
- विशेषज्ञता की आवश्यकताः पहले प्रशासनिक सुधार आयोग ने विशेषज्ञता की आवश्यकता को समझा, चूंकि सरकार के कार्य विविधांगी हो गए थे। कार्यात्मक क्षेत्रों और कार्यात्मक क्षेत्रों से बाहर के क्षेत्रों के लिए वरिष्ठ व्यवस्थापकीय पदों के चयन की पद्धति प्रदान की गई थी।
- एकीकृत ग्रेडिंग संरचनाः योग्यता और कार्य के स्वरुप और दायित्वों पर आधारित एक एकीकृत ग्रेडिंग संरचना का सुझाव दिया गया था।
- भर्तीः इस विषय में प्रशासनिक सुधार आयोग ने निम्न सिफारिशें की थीं
- प्रथम वर्ग की सेवाओं के लिए एक प्रतियोगी परीक्षा की सिफारिश की गई थी, जिसमें आयु सीमा बढ़ा कर 26 वर्ष करने की सिफारिश थी।
- वरिष्ठ स्तर के तकनीकी पदों के लिए लेटरल एंट्री।
- वर्ग दो सेवाओं के लिए सीधी भर्ती बंद की जाये।
- अण्लिपिक श्रेणी के कर्मचारियों की भर्ती के लिए एक सरल वस्तुनिष्ठ परीक्षा शुरू की जाये।
- कुछ क्षेत्रों में केंद्र शासन के पदों पर चयन राज्य शासन के कर्मचारियों में से किया जाये।
- भर्ती एजेंसियां
- संघ लोक सेवा राज्य लोक सेवा आयोगों के सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक नई पद्धति का सुझाव दिया गया था।
- लिपिक श्रेणी के कर्मचारियों के चयन के लिए भर्ती बोर्ड़ों की स्थापना की सिफारिश की गई थी।
- प्रशिक्षणः लोक सेवा प्रशिक्षण के लिए एक राष्ट्रीय नीति की निर्मिति की जानी थी।
- पदोन्नतियांः पदोन्नतियों के लिए विस्तृत दिशानिर्देश बनाये गए थे।
- संचालन एवं अनुशासनः अनुशासनात्मक जाँच प्रक्रियाओं में सुधार और लोक सेवा न्यायाधिकरणों की स्थापना की सिफारिश की गई थी।
- सेवा शर्तेंः आयोग ने अतिकालिक भत्ता, स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति, बहिर्गमन तंत्र, निवृत्तीवेतन राशि का निर्धारण, शासकीय अवकाश, परियोजनाओं की समयबद्ध पूर्णता के लिए प्रोत्साहन राशि और पुरस्कार, और विभिन्न पदों के कार्यों के मानदंड़ों की स्थापना और कर्मचारी निरीक्षण इकाई द्वारा उनकी समीक्षा जैसे विषयों से संबंधित मामलों पर भी सिफारिशें की थीं।
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, नागरिक सेवा सुधारों के विभिन्न आयामों पर विचार करने के लिए प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग के अलावा बीते वर्षों में कई अन्य समितियों और आयोगों का भी गठन किया गया था।
7.0 भारत में नागरिक सेवाओं का भविष्य
उदारीकरण पश्चात के भारत में अखिल भारतीय सेवाओं (आयएएस) की भूमिका एक नियामक के अनिवार्य रूप से हट कर एक सुविधा प्रदाता की हो गई है। इसने इन सेवाओं की चमक कुछ हद तक फीकी कर दी है, और आर्थिक निर्णय क्षमता के इसके वर्चस्व को भारग्रस्त बना दिया है।
इसके अलावा, पिछले तीन दशकों में, राज्यों के शासन की बागड़ोर क्षेत्रीय पार्टियों के हाथों में आ गई है, और अगले चुनाव की अनिवार्यता इन सत्ताधारी पार्टियों की कार्यसूची का निर्धारण करती है।
भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को अपने राजनीतिक आकाओं की मर्जी के अनुसार कार्य करना पड़ता है। इस प्रकार ‘प्रतिबद्ध नौकरशाही‘ की संकल्पना को आसानी से बढ़ावा मिलता जा रहा है। इसके अलावा, समाज का लोकाचार स्वयं परिवर्तित हो रहा है। बुरे मार्गों से कमाई गई संपत्ति आज तत्काल सम्मान प्रदान कर रही है।
लोक सेवकों द्वारा राजनीति में प्रवेश एक घृणास्पद रुझान है। यह रुझान उनके नौकरी के दौरान की निष्पक्षता पर सवाल खडे़ करता है। परंपरागत रूप से लोक सेवकों को सेवा निवृत्ति के बाद राज्यपाल बनाकर भेजने की प्रथा थी। अब इस सम्मान के लिए भी लोक सेवक राजनेताओं की खुलेआम खुशामद करते दिखाई देते हैं। ‘‘शीघ्र सेवा निवृत्त होने वाले’’ लोक सेवकों द्वारा निर्मित सबसे बड़ी बुराइयों में सेवा-निवृत्ति के पश्चात उनकी चैन की नौकरियां पाने की लालसा निहित है।
विनोद मेहता ने अपनी पुस्तक ‘‘द लखनऊ ब्वॉय ‘‘ में डॉ ई.ए.एस. शर्मा को श्रद्धांजलि दी है, जिन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ उन मूल्यों के लिए दृढ़तापूर्वक संघर्ष किया, जो उनकी दृष्टि से व्यापक रूप से राष्ट्र-हित में थे। यह मामला दूरसंचार क्षेत्र में लाइसेंस प्रदान करने के नियमों से संबंधित था।
हाल ही में आंध्र प्रदेश में कुछ अधिकारी जिन्होंने एक पूर्व मुख्यमंत्री के हमले झेले थे, वे अब चैन की सांस ले रहे हैं, और उनके उत्तराधिकारी, जिन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री के आदेशों का पालन किया था, वे अब सीबीआय की जांच के घेरे में हैं।
राल्फ वाल्डो एमरसन ने कहा था, ‘‘आपके भाग्य में वही व्यक्ति बनना लिखा है, जो व्यक्ति बनने का आपने निर्णय किया है।‘‘ लोक सेवकों का भाग्य उनके अपने आचरण पर निर्भर है। जब तक हम दृढ इच्छाशक्ति के साथ पेशेवर-कार्यशैली, गुमनामी, अखंड़ता और तटस्थता के पुराने रिवाजों की ओर वापस नहीं लौटते, तब तक क्षणभंगुर सद्भावना पूरी तरह से खत्म होती जाएगी।
हाल समय की आवश्यकता है खामोशी के साथ कड़ी मेहनत। व्यक्ति को व्यवस्था को बिना सुने, बिना प्रशंसा के और बिना रोए छोड़ना चाहिए, जबकि व्यवस्था में रहते हुए व्यक्ति को मुक्त, निष्पक्ष और स्पष्टवादी होना चाहिए।
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