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भारत में क्षेत्रवाद
1.0 प्रस्तावना
भारत महाद्वीपीय आयामों वाला एक विशाल देश है, जिसमें 29 राज्य और 7 केंद्र शासित प्रदेश हैं। यह एक बहु-जातीय, बहु-भाषी देश है। यहां ढ़ेरों क्षेत्रीय भाषाएँ, संस्कृति के विभिन्न तनाव और अलग-अलग निष्ठाएँ हैं, जो एकल भी हैं और बहुविध भी। इन अद्भुत विविधताओं के बीच क्षेत्रीय भावनाएं, क्षेत्रीय दल, क्षेत्रीय संस्थाएं और अन्य ऐसे संगठन, जो स्थानीय लोगों की आकांक्षाओं के लिए आवाज उठाने और उन्हें एक मंच करने के लिए आवश्यक हैं, उठना और होना काफी स्वाभाविक है। वास्तव में, समय बीतने के साथ, ये बहुआयामी अपेक्षाएं, जिन्हें समग्र रूप से क्षेत्रवाद के रूप में भी वर्णित किया जा सकता है, काफी मजबूत हुई हैं।
छोटे राज्यों की पैरवी करने वालों का मानना है, कि यह बेहतर प्रशासन और बेहतर विकास की सुविधा प्रदान करते हैं। यह पंडित नेहरू की इस धारणा के विपरीत था, की ‘‘छोटे राज्य छोटी मानसिकता निर्मित करते हैं।’’ स्वतंत्रता के पश्चात् जब उनका प्रांतों के पुनर्गठन की समस्या से सामना हुआ, तो उन्होंने बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक राज्यों का पुरस्कार किया। हालांकि वे किसी भाषा के आधार पर विशिष्ट राज्य के गठन की मांग को योग्यता के आधार पर स्वीकार करने से सहमत थे, फिर भी समग्र रूप से राज्यों के पुनर्गठन के लिए केवल इसी एक आधार पर राज्यों की निर्मिति की मांगों को मानने को तैयार नहीं थे। यह स्वयं स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस की भाषा के आधार पर राज्यों की निर्मिति की मांग के विरुद्ध था।
भारत में भाषाई आधार पर राज्यों की निर्मिति के विषय में हमेशा से विरोधाभास रहा है। यहां तक कि राज्य पुनर्गठन समिति की रिपोर्ट को भी गलत तरीके से भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की रिपोर्ट के रूप में मान लिया गया था, जबकि समिति ने पूरी तरह सा भाषाई राज्यों का समर्थन नहीं किया था। जबकि समिति ने तेलुगु, तमिल, कन्नड, मराठी, मलयालम और बंगाली जैसी भाषाओं के आधार पर राज्यों की निर्मिति की सिफारिश की थी, फिर भी उसने भाषाई और बहु-भाषाई आधार पर राज्यों की निर्मिति के मामले का भी पुरस्कार प्रस्तुत किया था। एकीकरण के दबाव और भाषाई सिद्धांतों ने 550 से अधिक राजसी रियासतों के भारत में विलय के मामले का निर्णय किया।
भाषाई सिद्धांत का आधार शुरू से ही ‘‘एक भाषा, एक राज्य‘‘ न होकर ‘‘एक राज्य, एक भाषा‘‘ था। इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने ‘‘भाषाई साम्प्रदायिकता‘‘, जो स्वतंत्र भारत में काफी अपेक्षाओं के साथ मजबूती से उदित हो रहा था, के विरुद्ध कई सुरक्षा उपाय प्रतिपादित किये थे। राज्यों की सीमाओं को ग्राम स्तर तक सीमांकित करने के बावजूद संपूर्ण भारत में एकल भाषाई राज्यों में भाषाई अल्पसंख्यकों की उपस्थिति अवश्यंभावी थी।
इसके अतिरिक्त, कोई भी भाषाई समूह कभी भी एकीकृत या सजातीय नहीं रहा है। सभी प्रमुख भाषा आधारित राज्यों की जनसंख्या आतंरिक रूप से भाषाई क्षेत्र के भीतर असमान विकास और विभिन्न क्षेत्रों को उपलब्ध विकास के अवसरों के आधार पर कई मतभेद दर्शाती हैं।
2.0 क्षेत्रवाद के प्रमुख कारण
भारतीय राजनीती में क्षेत्रवाद उत्पन्न होने के कई कारण हैं, जैसेः
- केंद्रीय स्तर पर तैयार की गई प्रशासनिक नीतियां, लिए गए निर्णय और विकास योजनाएं देश के सभी लोगों को संतुष्ट नहीं कर सकतीं, और असंतुष्ट वर्गों को हमेशा यह लगता है, कि उनके हितों की रक्षा नहीं की गई है। ऐसी स्थिति में वे अपनी समस्याओं के समाधान के लिए क्षेत्रीय दल बना लेते हैं। डीएमके, एडीएमके, जम्मू कश्मीर की नेशनल कांफ्रेंस इत्यादि क्षेत्रीय दलों की निर्मिति इसी आधार पर हुई है।
- भारत अभी भी जातीय, नस्लीय और धार्मिक रुढ़िवादिता से मुक्त नहीं हो सका है। कभी-कभी भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद इन्हीं जातीय, नस्लीय और धार्मिक कारणों से पनपा है। इन्हीं आधारों पर हिन्दूमहासभा, रामराज्य परिषद, शिरोमणि अकालीदल, मुस्लिम लीग और यहां तक कि तेलुगु देसम पार्टी की स्थापना हुई।
- भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद कभी-कभी भाषाई समस्याओं के आधार पर भी निर्मित हुआ है। तमिलनाडु की डीएमके, एडीएमके पार्टियां, आंध्र प्रदेश की प्रजा राज्यम पार्टी या पश्चिम बंगाल की गोरखा लीग इन्हीं भाषाई समस्याओं के आधार पर निर्मित हुई हैं।
- कभी-कभी क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां एक या कुछ राजनीतिक नेताओं की पहल पर निर्मित होने के उदाहरण भी मिलते हैं। हालांकि ऐसी पार्टियां लंबे समय तक टिक नहीं पाती। नेता की मृत्यु के बाद ये पार्टियां विसर्जित हो जाती हैं।
- भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद कभी-कभी अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के नाम पर भी विकसित हुआ है। मुस्लिम लीग, झारखंड़ मुक्ति मोर्चा, टीवायसी इत्यादि इसी प्रकार के क्षेत्रीय दल हैं।
- कभी-कभी बड़े राष्ट्रीय दलों के आतंरिक संघर्ष भी क्षेत्रीय राजनैतिक दलों के उदय के कारण बने हैं। इसी प्रकार कांग्रेस पार्टी का लोकतांत्रिक कांग्रेस पार्टी, कांग्रेस (जे) इत्यादि छोटे दलों में विभाजन हुआ।
- कभी-कभी, जब एक बडे़ राष्ट्रीय दल के नेता का पार्टी से निष्कासन कर दिया जाता है, तो वह अपनी व्यथा को अभिव्यक्ति देने के उद्देश्य से एक क्षेत्रीय दल की स्थापना कर लेता है। श्री अजॉय घोष की बांग्ला कांग्रेस, या सुश्री ममता बॅनर्जी की तृणमूल कांग्रेस इसी प्रकार के क्षेत्रीय दलों के उदाहरण हैं।
- ये क्षेत्रीय दल अपनी नीतियां और कार्यक्रम क्षेत्रीय मांगों, शिकायतों, और स्थानीय लोगों के हितों के अनुसार बनाते हैं। इसीलिए, स्वाभाविक रूप से वे स्थानीय लोगों का विश्वास, निष्ठा और समर्थन प्राप्त करने में सफल होते हैं। राष्ट्रीय पार्टियां, लोगों के इसी विश्वास और निष्ठा का फायदा अपने मनहूस हितों को पूरा करने के लिए उठाती हैं। इसी प्रकार वे इन छोटी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन या मोर्चा बना लेती हैं, और वाम पंथी और दक्षिण पंथी पार्टियां इन गठबंधनों में साथीदार हो जाती हैं। इसने क्षेत्रीय दलों को काफी महत्त्व और विश्वास प्रदान किया है।
- स्वतंत्रता पूर्व के काल में लोग देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे, और इस संघर्ष ने उनमें एकता और राष्ट्रीयता की भावनाओं को सुलगाया था, जिसने देश की एकता और अखंड़ता को मजबूती प्रदान की थी। परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्रीयता की वह आग हवा हो गई और उसका स्थान संकीर्ण क्षेत्रीय हितों ने ले लिया था। इसने भी क्षेत्रीय राजनैतिक दलों के उदय का मार्ग प्रशस्त किया।
अंत में, भारत की राष्ट्रीय पार्टियों में मूल्यों का सामान्य पतन, शक्तियों का बहुत अधिक केन्द्रीकरण, नेताओं की तानाशाही भूमिका, क्षेत्रीय नेतृत्व के प्रति लापरवाही इत्यादि ने न केवल उनकी स्थिति को कमजोर किया है, बल्कि छोटे-बडे़ क्षेत्रीय दलों के उदय के मार्ग को भी प्रशस्त किया है।
2.1 क्षेत्रीय राजनीति
भारतीय राजनीति की राजनीतिक पार्टी पद्धति में क्षेत्रवाद उल्लेखनीय विशेषता बन गया है। हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्षेत्रीय राजनैतिक दलों ने क्षेत्रीय स्तर, राज्यों के स्तर, और यहां तक कि राष्ट्रीय स्तर तक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 1952 के पहले आम चुनावों के बाद निर्वाचन आयोग ने 19 राजनीतिक दलों को क्षेत्रीय दलों के रूप में घोषित किया था। वास्तव में, क्षेत्रीय राजनीतिक दल भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का अविभाज्य अंग बन गये हैं।
एक क्षेत्रीय राजनैतिक दल अपनी गतिविधियों को एक विशिष्ट क्षेत्रीय समूह, भाषा समूह, जातीय समूह या सांस्कृतिक समूह के प्रतिनिधित्व तक मर्यादित रखता है। अपनी नीतियां बनाते समय इन क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने आमतौर पर वैचारिक अखंड़ता प्रदर्शित की है। आमतौर पर वे राष्ट्रीय राजनीति में भाग लेने के प्रति उदासीन रहते हैं। यहां तक कि कभी-कभी वे राष्ट्रीय राजनीति या केंद्र शासन के प्रति उग्रवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए भी देखे गए हैं। इस उग्रवादी दृष्टिकोण का प्रदर्शन करते समय वे कई मौकों पर अनैतिक राजनीतिक गतिविधियों में लिप्त होते हुए भी देखे गए हैं। फिर भी, जब वे स्वयं अपने क्षेत्र या राज्य में सत्ता में आते हैं, तो वे बहुत ही जिम्मेदारी से राजनीतिक व्यवहार करते हुए दिखाई देते हैं।
इन क्षेत्रीय राजनैतिक दलों के सबसे अधिक उल्लेखनीय उदाहरण हैं तमिलनाडु की डीएमके और एडीएमके, आंध्र प्रदेश की तेलुगु देसम पार्टी, जम्मू एवं कश्मीर की नॅशनल कांफ्रेंस, पंजाब की अकाली दल पार्टी, पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, असम की असम गण परिषद और पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग की गोरखा लीग इत्यादि। यह तथ्य भी उल्लेखनीय है, कि आजकल, अपनी राजनीतिक गतिविधियों और सफलता की सीमाओं, दोनों में, राष्ट्रीय राजनैतिक दलों ने भी क्षेत्रीय दलों के रूप में विशेषता प्राप्त कर ली है। संपूर्ण देश की समस्याओं के संदर्भ में वे भी अपनी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ साझा करती हैं। यहां तक कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी ने भी काफी हद तक एक क्षेत्रीय पार्टी का स्वरुप प्राप्त कर लिया है।
3.0 भारत में आंदोलन
3.1 बोडोलैंड़ (असम)
बोडो (जिन्हें ‘‘कछारी‘‘ भी कहा जाता है), असम के मैदानी जनजातियों का सबसे बडा समूह है। अलग बोडो मातृभूमि के लिए संघर्षरत सबसे प्रभावी संगठन ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन(एबीएसयू), ने ‘‘बोडो‘‘ की परिभाषा करते हुए कहा है, कि बोडो वे हैं, जो बोडो समूह में सम्मिलित हैं, और एक भाषा बोलते हैं, या उन्हें बोलनी चाहिए।
1960 के दशक में असम की मैदानी जनजातियों ने असम की मैदानी जनजातीय परिषद (पीटीसीए) की स्थापना की, और 1967 में असम की मैदानी जनजातियों के लिए ब्रह्मपुत्र के उत्तरी किनारों पर ‘‘उदयाचल‘‘ नामक नए राज्य की निर्मिति की मांग के लिए आंदोलन शुरू किया। किंतु 1978-79 में जनता सरकार में शामिल होने के बाद पीटीसीए ने स्वतंत्र राज्य की मांग के आंदोलन को छोड़ दिया।
इसी दौरान, 1979 में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (एएएसयू) के नेतृत्व में एक विदेशी विरोधी आंदोलन की शुरुआत की गई, जो छह साल तक चला और जिसका एबीएसयू ने विरोध किया। 1985 में पूर्व एएएसयू नेताओं द्वारा निर्मित असम गण परिषद (एजीपी) सरकार द्वारा ‘‘असम समझौते‘‘ पर हस्ताक्षर करने के बाद, उपेन्द्र नाथ ब्रह्मा को कोई अन्य विकल्प ढूंढ़ने की दृष्टी से प्रयत्न नहीं किया। जब उपेन्द्र नाथ ब्रह्मा के नेतृत्व में एबीएसयूख्एबीएसयू (यूबी), अन्य जनजातियों को नए आंदोलन में समाविष्ट करने में असफल रही, तो उन्होंने अपने बूते पर आगे जाने की पहल की और पुरानी ‘‘जनजातीय मातृभूमि‘‘ की अस्पष्ट मांग को छोड़ कर मैदानी जनजातियों के लिए एक अलग स्वतंत्र पूर्ण ‘‘बोडोलैंड‘‘ राज्य की मांग रखी।
आज के राजनीतिक रुझानों में कई विषय एक दूसरे के साथ इतनी जटिलता से अतिव्यापी हो चुके हैं, कि एक समीक्षक के लिए किसी एक विषय की व्यवहार्यता को समझाना काफी मुश्किल हो गया है। फिर चाहे वह बहुसंस्कृतिवाद या बहुलवाद से संबंधित हो, वह मान्यता से संबंधित हो या भिन्नता से, निहित जटिलता ने विश्लेषक को हमेशा विषय से दूर रखा है। राज्य के लिए इसी सुविधाजनक संदर्भ में, मान्यता की राजनीति, जो अपवादात्मक नहीं है, समकालीन राजनीति में प्रभावी विषय बनी हुई है, जिसका संबंध मान्यता, बहुसंस्कृतिवाद और भिन्नता से है।
ऐसे कई अल्पसंख्यक समूह हैं, जो अपनी पहचान की मान्यता और संस्कृति की भिन्नता के समावेश की मांग कर रहे हैं। अविकृत पहचान के लिए मान्यता आवश्यक है, क्योंकि अल्पसंख्यंक अपने आपको बहुसंख्य की तुलना में हमेशा कमजोर समझते रहे हैं। जैसा कि टेलर का मानना है, विभेद की राजनीति हमेशा प्रत्येक समूह के संस्कृति के अधिकार के सम्मान पर आधारित होनी चाहिएः अल्पसंख्यकों द्वारा अपनी सांस्कृतिक अखंड़ता की रक्षा और इसके बहुसंख्य या प्रभावी समूह द्वारा उनकी संस्कृति के साथ आत्मसात्करण के विरोध पर आधारित होनी चाहिए। इस संदर्भ में, असम के बोडो और एक स्वतंत्र बोडोलैंड के लिए उनका संघर्ष एक ऐसा उदाहरण है, जिसमें कई व्यापक बातें समाविष्ट हैं, उदाहरणार्थ, मान्यता, आत्मसात्करण, पहचान, इत्यादि। बोडो लोग शुरुआत से ही विस्तृत असमी पहचान की आत्मसात्करण नीतियों के विरोधी रहे हैं, क्योंकि उनकी अपनी एक अलग भाषा और एक अलग संस्कृति है। उनकी स्वतंत्र पहचान को मान्यता मिलने से उन्हें अपनी आकांक्षाओं पर, और इससे भी महत्वपूर्ण, अपनी भिन्नता पर केंद्रित होने में मदद मिलेगी। किंतु अधिक समग्र असमिया छतरी द्वारा बोडो मांगों को मान्य करने में निरंतर विफलता ने इस विशाल आंदोलन की शुरुआत को जन्म दिया है। बाद के समय में बीएलटी और एनडीएफबी के गठन ने असहमति की आवाजों के लिए आवश्यक प्रेरणा प्रदान की है। बाकी, 1980 और 1990 के दशकों में बीएलटी और एनडीएफबी दोनों के लंबे समय तक आंदोलन है।
हालांकि, 2003 के द्वितीय बोडो समझौते के परिणामस्वरूप बीएलटी का विरोध समाप्त हो गया, लेकिन उनके अन्य प्रतिनिधि एनडीएफबी ने अपना आंदोलन कभी भी शिथिल या समाप्त नहीं किया क्योंकि उनके अनुसार, द्वितीय समझौते ने उनके समुदाय की आवश्यकताओं को कभी भी संतुष्ट नहीं किया है। आज के परिदृश्य में, असम सरकार की अपर्याप्त प्रतिबद्धता की प्रतिक्रिया के रूप में इस समूह द्वारा उग्र आंदोलन निरंतर जारी हैं।
3.2 तेलंगाना आंदोलन
वह क्षेत्र जिसे आज तेलंगाना के नाम से जाना जाता है, तत्कालीन हैदराबाद रियासत का भाग था, जो 17 सितम्बर 1948 को भारतीय संघ में विलीन हो गई थी। 26 जनवरी 1950 को भारत सरकार ने एक लोक प्रशासक, एम.के. वेल्लोदी को हैदराबाद राज्य का पहला मुख्यमंत्री नियुक्त किया। 1952 में पहले लोकतांत्रिक चुनावों में, श्री बुर्गुला रामकृष्ण राव हैदराबाद राज्य के मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। 1 नवंबर 1953 को आंध्र को भाषा के आधार पर पहला राज्य बनाया गया (तत्कालीन मद्रास राज्य से)। नए राज्य की मांग के लिए 53 दिन के आमरण अनशन पर बैठे पोट्टी श्रीरामुलु की मृत्यु के पश्चात (रायलसीमा क्षेत्र के) कर्नूल शहर को इसकी राजधानी बनाया गया। हैदराबाद राज्य के आंध्र राज्य में विलय का प्रस्ताव 1953 में आया, और तेलंगाना क्षेत्र के विरोध के बावजूद, तत्कालीन मुख्यमंत्री बुर्गुला रामकृष्ण राव ने इस संदर्भ में केंद्रीय नेतृत्व के निर्णय का समर्थन किया। विलय के प्रस्ताव को स्वीकृति देते हुए आंध्र विधानसभा ने 25 नवंबर 1955 को एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें तेलंगाना के हितों की रक्षा करने का आश्वासन दिया गया था। 20 फरवरी 1956 को तेलंगाना के नेताओं और आंध्र के नेताओं के बीच एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार तेलंगाना क्षेत्र के हितों की रक्षा करते हुए तेलंगाना के आंध्र में विलय को स्वीकृति दी गई। उस समय इस आशय के एक ‘‘सज्जन समझौते‘‘ पर बेजवाडा गोपाला रेड्डी और बुर्गुला रामकृष्ण राव द्वारा हस्ताक्षर किये गए। अंत में, राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अंतर्गत हैदराबाद के तेलुगु भाषी क्षेत्रों का आंध्र राज्य में विलय हुआ, जिसके अनुसार, 1 नवंबर 1956 को आंध्र प्रदेश राज्य का जन्म हुआ। हैदराबाद राज्य की तत्कालीन राजधानी हैदराबाद को आंध्र प्रदेश राज्य की राजधानी बनाया गया। ‘‘सज्जन समझौते‘‘ और अन्य हितों की रक्षा की विफलता को मुद्दा बना कर 1969 में तेलंगाना क्षेत्र में एक आंदोलन शुरू हुआ।
एक स्वतंत्र राज्य की निर्मिति का समर्थन करते हुए, मर्री चन्ना रेड्डी ने तेलंगाना प्रजा समिति की शुरुआत की। विद्यार्थियों के नेतृत्व में आंदोलन तेज होता गया और हिंसक हो गया, हिंसा में और हिंसा पर काबू पाने के उद्देश्य से पुलिस द्वारा की गई गोलीबारी में लगभग 300 आंदोलनकारी विद्यार्थियों की मृत्यु हुई। दोनों क्षेत्रों के नेताओं के साथ कई दौर की बातचीत के बाद 12 अप्रैल 1969 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने एक आठ सूत्री योजना का सुझाव दिया। तेलंगाना के नेताओं ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया और तेलंगाना प्रजा समिति के नेतृत्व में आंदोलन जारी रहा। 1972 में, तेलंगाना संघर्ष के विरोध में आंध्र-रायलसीमा क्षेत्रों में जय आंध्र आंदोलन शुरू हुआ। 21 सितंबर 1973 को केंद्र के साथ एक राजनीतिक समझौता हुआ, और दोनों क्षेत्रों के लोगों को शांत करने के लिए एक 6 सूत्री योजना लागू की गई। 1985 में, तेलंगाना क्षेत्र के कर्मचारियों ने सरकारी विभागों में नियुक्तियों में भेदभाव के आरोप लगाये, के लोगों पर अन्याय किये जाने के बारे में शिकायतें की।
एन. टी. रामाराव के नेतृत्व वाली तत्कालीन तेलुगु देसम पार्टी सरकार ने सरकारी नौकरियों में तेलंगाना क्षेत्र के लोगों के हितों की सुरक्षा के लिए एक शासकीय आदेश जारी किया। 1999 तक, क्षेत्रीय आधार पर राज्य के बंटवारे के संबंध में कहीं से भी कोई मांग नहीं उठी। 1999 ने कांग्रेस ने एक स्वतंत्र तेलंगाना राज्य बनाने की मांग उठाई। उस दौरान कांग्रेस पार्टी लगातार हुए चुनावों में शर्मनाक हार की पीड़ा से गुजर रही थी, और शासन कर रही तेलुगु देसम पार्टी की स्थिति काफी मजबूत और अभेद्य थी। तेलंगाना संघर्ष में एक और नया अध्याय तब जुडा जब कल्वाकुंतला चंद्रशेखर राव ने, जो चंद्रबाबू नायडू सरकार में मंत्रिमंडल में शामिल ना किये जाने से उत्तेजित थे, तेलुगु देसम पार्टी छोड़ दी और 27 अप्रैल 2001 को तेलंगाना राष्ट्र समिति की स्थापना की।
तेलंगाना के कांग्रेस नेताओं के दबाव के चलते, कांग्रेस की केंद्रीय कार्य समिति ने 2001 में तत्कालीन राजग सरकार को तेलंगाना राज्य की मांगों पर ध्यान देने के लिए दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना करने के लिए एक प्रस्ताव भेजा। तत्कालीन गृह मंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने यह कहते हुए इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया, कि छोटे राज्य देश की अखंडता के लिए ‘‘न व्यवहार्य हैं, और ना ही अनुकूल हैं।‘‘ टीआरएस धीरे-धीरे स्वतंत्र राज्य की अपनी मांग को लेकर आंदोलन तेज करने लगा। कांग्रेस ने तेलंगाना राज्य के निर्माण का आश्वासन देते हुए टीआरएस के साथ गठबंधन कर लिया। 2004 में, कांग्रेस केंद्र में और राज्य, दोनों जगह में सत्ता में आई। स्वतंत्र राज्य की निर्मिति में देरी होते देख, दिसंबर 2006 में टीआरएस राज्य और केंद्र में कांग्रेस गठबंधन से बाहर हो गई और स्वतंत्र रूप से अपनी लड़ाई जारी रखी। अक्टूबर 2008 में तेलुगु देसम पार्टी ने अपना रुख बदल दिया, और राज्य के बंटवारे को अपना समर्थन घोषित कर दिया।
29 नवंबर 2009 को तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर टीआरएस ने अनिश्चित कालीन अनशन शुरू कर दिया। इससे केंद्र सरकार हिल गई, और 9 दिसंबर 2009 को उसने घोषणा की कि वह ‘‘तेलंगाना राज्य की निर्मिति की प्रक्रिया शुरू कर रही है।‘‘ किंतु 23 दिसंबर 2009 को केंद्र सरकार ने पुनः घोषणा की कि वह तेलंगाना मामले को स्थगित कर रही है। इसका समस्त तेलंगाना में उग्र प्रदर्शनों को जन्म दिया, जिनमें कई विद्यार्थियों ने तेलंगाना राज्य की निर्मिति के समर्थन में आत्मदाह किया। इसके पश्चात, 3 फरवरी 2010 को सरकार ने सेवा निवृत्त न्यायाधीश न्यामूर्ति श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में, स्वतंत्र राज्य की मांग पर विचार करने के लिए एक पांच सदस्यीय आयोग की स्थापना की। 30 दिसंबर 2010 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट शासन को सौंप दी। 2011-12 में तेलंगाना में मिलियन मार्च, चलो विधानसभा, सकलजनुला सम्मे (सामान्य हडताल) जैसे आंदोलनों की कई श्रृंखलाएं हुईं, जबकि विभिन्न पार्टियों के विधायकों ने सदन का बहिष्कार किया। तेलंगाना क्षेत्र के उसके अपने सांसदों द्वारा आंदोलन और मांग के समर्थन को देखते हुए, कांग्रेस ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को समस्या का ‘‘सौहार्दपूर्ण हल‘‘ निकालने के लिए 28 दिसंबर 2012 को एक सर्वदलीय बैठक बुलाने के निर्देश दिए।
अनेकों उतार-चढ़ाव के बाद, 02 जून 2014 को तेलंगाना राज्य का निर्माण हो गया।
3.3 गोरखालैंड
भारतीय गोरखा स्वदेशी लोग हैं, जो संपूर्ण हिमालयीन पट्टी और भारत के उत्तरपूर्वी राज्यों में बसे हुए हैं। गोरखा समुदाय प्रमुख रूप से जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड़, सिक्किम, दार्जिलिंग, असम के क्षेत्रों और भारत के उत्तर पूर्व के सभी राज्यों में बसे हुए हैं।
इन सभी क्षेत्रों में गोरखा समुदाय का एक लंबा और समृद्ध इतिहास है, जो स्वतंत्रता पूर्व काल तक जाता है। वास्तव में, इनमें से कई क्षेत्रों के इतिहास की तो शुरुआत ही गोरखा इतिहास के साथ होती है। उन्होंने इन क्षेत्रों के इतिहास में सैनिकों, प्रशासकों, बागान श्रमिकों, कृषकों और शिक्षाविदों के रूप में योगदान दिया है। आज गोरखा समुदाय दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरु और चेन्नई जैसे भारत के प्रमुख शहरों में भी रहता हुआ दिखाई देता है।
1986 में शुरू हुए आंदोलन के परिणामस्वरूप, ‘‘दार्जिलिंग जिले के पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक पुनरुत्थान‘‘ के लिए भारत सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार और गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के बीच 25 जुलाई 1988 को राज्य अधिनियम के अंतर्गत एक स्वायत्त पर्वतीय परिषद की स्थापना के लिए एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ। परिषद में दार्जिलिंग के तीन पर्वतीय उप खंड़ों और सिलिगुडी उप खंड के कुछ मौजों का समावेश किया गया।
परिषद को कुछ सीमित कार्यकारी अधिकार प्रदान किये गए, किंतु विधायी अधिकारों के अभाव में लोगों की आकांक्षाओं को संबोधित करना संभव नहीं था। परिषद में डूआर्स क्षेत्र को सम्मिलित नहीं किया जाना असंतोष का एक प्रमुख कारण बना। डूआर्स क्षेत्र के लोगों ने भी आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया था अतः वे स्वयं को छला हुआ महसूस कर रहे थे। परिषद ने डूआर्स और पर्वतीय क्षेत्र के बीच भी मतभेद पैदा किये, जो अब तक एक समान इतिहास और विरासत को साझा करते थे। इन समस्त कारणों ने परिषद के गठन के समय से ही इसमें विभाजन रेखाएं निर्माण कर दी थीं। समय के साथ, और राज्य सरकार की उपेक्षा के चलते गोरखालैंड की मांगें दुबारा से उठने लगीं। बाद में, 21 मार्च 2005 को परिषद के पार्षदों ने गोरखालैंड के समर्थन में सामूहिक त्यागपत्र सौंप दिए।
3.4 2007 में दार्जिलिंग को छठी सूची में शामिल करने का प्रस्ताव
भारत सरकार ने पश्चिम बंगाल सरकार और परिषद के प्रशासक की सलाह से, संसद में दो संशोधन विधेयक पेश किये - 2007 का संविधान की छठी सूची (संशोधन) विधेयक और 2007 का संविधान का (107 वां संशोधन) विधेयक। इन विधेयकों के द्वारा दार्जिलिंग के पर्वतीय क्षेत्र को छठी सूची का दर्जा प्रदान करने के प्रावधान थे। प्रशासन और राज्य सरकार की कार्य प्रणाली के बारे में विश्वास के गंभीर अभाव के चलते इन दोनों विधेयकों को भी लोगों की आकांक्षाओं की उपेक्षा करने के एक और षड्यंत्र के रूप में देखा गया। विधेयक के विरोध को देखते हुए, इन विधेयकों को श्रीमती सुषमा स्वराज की अध्यक्षता वाली गृह मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति को प्रेषित कर दिया गया समिति द्वारा सुनवाई के दौरान, सभी गोरखा समूहों ने प्रस्ताव को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ती केवल स्वतंत्र राज्य की निर्मिति के द्वारा ही हो सकती है। सुनवाइयों और सलाह मशविरों के आधार पर राज्य सभा को प्रस्तुत रिपोर्ट में कहा गया कि,
‘‘समिति गृह मंत्रालय को सावधान करती है और सलाह देती है, कि विधेयकों को संसद के दोनों सदनों में पेश करने के पूर्व जमीनी हकीकतों का पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए।‘‘
3.5 गोरखा प्रादेशिक प्रशासन (जीटीए)
परिषद के प्रशासन के विरुद्ध बढ़ते असंतोष के चलते, और क्षेत्र को छठी सूची का दर्जा देने के प्रस्ताव को ठंड़े बस्ते में डालने के कारण 2007 में गोरखालैंड के लिए एक नए जन आंदोलन की लहर उठी। परिषद के अध्यक्ष को हटा दिया गया और उसकी पार्टी के सदस्यों के साथ निर्वासित कर दिया गया। आंदोलन की बागड़ोर एक नए नेतृत्व ने संभाली। तीन वर्षों के आंदोलन के बाद, आंदोलन का नेतृत्व कर रहे दल ने राज्य सरकार के साथ दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र को प्रशासित करने के लिए एक अर्ध स्वायत्त संकाय की स्थापना करने के संबंध में एक समझौता किया। जीटीए के लिए समझौते के ज्ञापन पर 18 जुलाई 2011 को सिलिगुडी के निकट पिंटेल गांव में केंद्रीय गृह मंत्री श्री पी. चिदंबरम, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बॅनर्जी और आंदोलन के नेताओं की उपस्थिति में हस्ताक्षर किये गए। 2 सितंबर 2011 को पश्चिम बंगाल विधान सभा में जीटीए की निर्मिति से संबंधित विधेयक पारित किया गया। जीटीए को प्रशासनिक, कार्यकारी और वित्तीय अधिकार होंगे, परंतु विधायी अधिकार नहीं होंगे।
जीटीए समझौते में स्वयं में भी त्रुटि रेखाएं हैं। पहला, विधिक अधिकारों के अभाव का मतलब है, कि क्षेत्र के लोगों का उन्हें शासित करने वाले कानूनों के विषय में कोई नियंत्रण नहीं है। अर्थात, लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ती करने वाला सबसे मौलिक उपकरण ही उन्हें प्रदान नहीं किया गया है। दूसरा, डूआर्स को इसमें शामिल ही नहीं किया गया है, उलटे डूआर्स में ‘‘गोरखा बहुसंख्या‘‘ क्षेत्रों की पहचान करने के लिए एक सत्यापन दल स्थापित किया गया है। स्पष्ट है, कि यह डूआर्स को विभाजित करने का एक राजनीतिक षड़्यंत्र है। एकीकृत डूआर्स का एक विशिष्ट इतिहास और संस्कृति है। डूआर्स संस्कृति की मुख्य विशेषता ही उसकी विविधता है, क्योंकि गोरखा, आदिवासी, राजबोंगशी, बंगाली, मेचे, बोरो और अन्य रहिवासी एक दुसरे के साथ दशकों से रहते चले आ रहे हैं। गोरखा बहुसंख्य क्षेत्रों की पहचान की यह चाल न केवल क्षेत्र के लोगों की आकांक्षाओं को अस्वीकृत करेगी, बल्कि क्षेत्र को सांप्रदायिक रूप से विभाजित भी करेगी।
गोरखालैंड की मांग अभी भी अस्तित्व में हैः हालांकि जीटीए पर हस्ताक्षर हो चुके हैं, फिर भी गोरखालैंड की मांग करने वालों की आवाजें समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहीं। तीव्र और विपरीत प्रतिक्रिया के डर से, जीटीए पर हस्ताक्षर करने वाला दल भी समय-समय पर गोरखालैंड का राग अलापता रहता है, और गोरखालैंड और जीटीए, दोनों के बारे में विरोधाभासी बयान देता रहता है। जीटीएको पूर्ण राज्य की मांग से बहुत नीचे के स्तर पर किये गए समझौते के रूप में देखे जाने के अलावा इसे लोगों की पूर्ण राज्य की आकांक्षाओं के साथ विश्वासघात के रूप में भी देखा जा रहा है। डूआर्स अभी भी उबल रहा है।
आंदोलन का इतिहास, और आंदोलन पर हुई प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट है कि मांग केवल पूर्ण राज्य के लिए है, उससे कुछ भी कम स्वीकार करने के लिए लोग तैयार नहीं हैं, और किसी भी अन्य प्रकार की प्रशासनिक व्यवस्था असफल होना स्वाभाविक ही है। जब तक क्षेत्र को विधि निर्माण के अधिकार प्रदान नहीं किये जाते, तब तक की गई सभी व्यवस्थाएं अस्थायी और बेकार ही सिद्ध होंगी।
3.6 मराठी बनाम बिहारी
3 फरवरी 2008 को महाराष्ट्र नव-निर्माण सेना (मनसे) और समाजवादी पार्टी के बीच हिंसक संघर्ष हुआ। मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने स्पष्ट किया कि समाजवादी पार्टी पर हमला उनके द्वारा किये गए ‘‘शक्ति के उत्तेजक और अनावश्यक‘‘ प्रदर्शन, और ‘‘उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासियों और उनके नेताओं की अनियंत्रित राजनीतिक और सांस्कृतिक दादागिरी‘‘ की प्रतिक्रिया था। इसके बाद उन्होंने भाषायी राजनीती और क्षेत्रवाद से संबंधित कई वक्तव्य किये, जिनमें बिहार और उ.प्र. के उत्तर भारतीयों पर महाराष्ट्र की संस्कृति को बिगाड़ने और स्थानीय लोगों के साथ भाईचारे से ना रहने के आरोप लगाये गए। उन्होंने उनपर स्थानीय लोगों के रोजगार छीनने के भी आरोप लगाये, और यह भी कहा कि उन्हें वहीं चले जाना चाहिए जहां से वे आये हैं। मनसे कार्यकर्ताओं द्वारा उत्तर भारतीयों के विरुद्ध काफी हिंसा हुई, जिसके परिणामस्वरूप राज्य में बडे़ पैमाने पर जीवन, संपत्ति की और उद्योगों की हानि होने के अलावा हजारों लोग अपने मूल राज्यों को वापस भाग गए।
काफी गिरतारियां हुईं, घटनाओं को उचित मीडिया कवरेज दिया गया, और नेता और राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करते रहे और इस सम्पूर्ण अराजकता में सामान्य जनता और उनकी समस्याओं की जड़ दोनों भुला दिए गए। यह सच है, कि अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासियों ने महाराष्ट्र में बहुत अधिक भीड़ बढ़ा दी है, जिससे नागरिक सुविधाओं पर दबाव काफी बढ़ा है। इसने उनके रोजगार के अवसरों को भी कम किया है। किंतु इसके लिए प्रवासियों को दोष देना उचित नहीं है। अविकसित और अर्ध विकसित क्षेत्रों के लोगों के पास जीवित रहने के लिए काम की तलाश में विस्थापित होने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
भारत के संविधान के अनुसार, भारत का नागरिक देश के किसी भी भाग में जाने और शांति पूर्वक वहां बसने के लिए स्वतंत्र है। इसलिए वे वहां जाते हैं जहां रोजगार उपलब्ध है, और वे उन्हें अपनी योग्यता के आधार पर हासिल करते हैं। इसके कारण राजनीतिक दलों को उनपर कुछ भी चुराने या छीनने का आरोप लगाने, या उनकी भाषा या संस्कृति की आलोचना करने का, या उनके विरुद्ध हिंसा भड़काने का कोई भी कारण नहीं है। उनकी प्रसिद्धि और वोट पाने की लालसा सामान्य नागरिकों के लिए दुःस्वप्न बन जाती है। यह जरूरत से ज्यादा उत्प्रवासनकी समस्या का हल नहीं है। इस समस्या का हल अन्य क्षेत्रों के विकास और वहां रोजगार के अवसरों की निर्मिति के साथ-साथ जनसंख्या की अनियंत्रित वृद्धि को नियंत्रित करने में समाहित है। यदि यह घृणा का प्रचार जारी रहा, तो यह हम किसी भी समस्या का हल नहीं निकाल पाएंगे, और यह लोगों को एक दूसरे से और अधिक विभाजित करेगा। आज जो विषय राज्यों के विभाजन का है, वही कल जिलों के विभाजन का स्वरुप ले सकता है और यह प्रक्रिया और आगे बढ़ती ही जाएगी।
4.0 क्षेत्रवाद को नियंत्रित करने के उपाय
क्षेत्रवाद लोगों की भावनाओं का भावनात्मक शोषण करके अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने का आसान रास्ता है। जबतक राजनीतिक नेतृत्व बाहरी लोगों के साथ भेदभाव किये बिना क्षेत्र के विकास के लिए कृतसंकल्प है, तब तक क्षेत्रवाद भारत के लिए अच्छा है।
क्षेत्रवाद की हानिकारक बुराइयों को दूर करने के कुछ उपाय निम्नानुसार हो सकते हैंः
- देश के समग्र और समान विकास को प्रोत्साहित करना। उपेक्षित क्षेत्रों को अधिक महत्त्व देना, ताकि उन्हें महसूस हो कि वे देश की मुख्य धारा के भाग हैं।
- केंद्र सरकार को राज्यों के मामलों में तब तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, जब तक कि ऐसा करना देश के हित में ना हो।
- लोगों की समस्याओं के समाधान शांतिपूर्ण और संवैधानिक तरीकों से करने के प्रयत्न किये जाने चाहिए। राजनीतिज्ञों को क्षेत्रीय मामलों की मांगों का दुरूपयोग करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
- विभिन्न राज्यों के विभिन्न विभागों को केंद्र सरकार के स्तर पर बनाना चाहिए, ताकि संबंधित विशिष्ट विभाग राज्य का आलोचनात्मक मूल्यांकन करके केंद्र को राज्य के सही विकास के लिए सुझाव दे सकें।
- राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों को छोड़ कर, राज्यों को उनके काम उनके हिसाब से करने की स्वतंत्रता प्रदान की जानी चाहिए।
- केंद्रीय स्तर पर प्रत्येक राज्य की सहभागिता नाममात्र होनी चाहिए। वंचित राज्यों के नेताओं को अपने-अपने राज्यों में बैठ कर केवल स्वतंत्र राज्य की मांग उठाने के बजाय, अपनी चिंताओं को प्रदर्शित करने के लिए केंद्र में अधिक सक्रीय सहभागिता के लिए आगे आना चाहिए।
- शिक्षा के क्षेत्र में एक राष्ट्रीय शिक्षा की प्रणाली विकसित की जानी चाहिए, ताकि लोगों में क्षेत्रीय भावनाओं से ऊपर उठ कर राष्ट्रीय भावना जागृत हो सके।
- निर्वाचन आयोग को क्षेत्रीय पार्टियों के लिए क्षेत्रवाद के विरुद्ध कुछ निश्चित मानदंड निर्धारित करने चाहिए। निर्वाचन आयोग को यह परिभाषित करना चाहिए, कि यदि कोई क्षेत्रीय पार्टी अकारण क्षेत्रवाद प्रोत्साहित करती हुई पायी जाती है, तो उस पर प्रतिबंध लगा दिया जायेगा।
- जहां तक संभव हो, ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जिनसे राष्ट्रीयता के विचार जागृत हों, साथ ही साथ सभी क्षेत्रों और राज्यों के लिए नीतियों और योजनाओं में समानता होनी चाहिए।
- राज्य में किसी भी राजनीतिक पार्टी की सरकार हो, फिर भी केंद्र को किसी राज्य या राजनीतिक पार्टी के प्रति पक्षपात पूर्ण रवैया नहीं अपनाना चाहिए। निधियां, पैकेज और आवंटन का वितरण आवश्यकता के अनुसार, और सामान रूप से किया जाना चाहिए।
- यदि किसी क्षेत्र से नए राज्य की मांग उठ रही हो, तो स्थिति का समग्र रूप से और व्यावहारिक रूप से विश्लेषण करने के लिए समितियों की स्थापना की जानी चाहिए। नए छोटे राज्यों के औचित्य को आवश्यक रूप से और निश्चित तौर पर बलकानी या क्षेत्रीयता के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इस प्रकार, नए राज्यों की मांगों को प्रभावी तरीके से सुलझाना चाहिए और इसकी स्वीकृति, आर्थिक विकास और प्रशासनिक सुविधा की दृष्टी से सावधानी पूर्वक की गई छानबीन के बाद ही दी जानी चाहिए।
- लोगों में राष्ट्रीयता की भावनाएं जागृत करने के लिए गैर-सरकारी संगठनों को आगे आना चाहिए। उन्हें लोगों में, विविधताओं में भी एकात्मता के साथ रहने की जागरूकता निर्माण करनी चाहिए। उन्हें लोगों को छोटे और विखंडित छोटे राज्यों की अपेक्षा एक विशाल राष्ट्र और राज्य में साथ-साथ रहने के लाभ सिखाने चाहियें।
5.0 संभावित भविष्यकालीन मांगें
पूर्वी महाराष्ट्र के नागपुर और अमरावती खंड़ों से बना विदर्भ क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है, जहां से एक अलग राज्य की मांग पिछले अनेक वर्षों से उठती रही है 1960 में महाराष्ट्र में विलय से पहले, विदर्भ एक अलग राज्य था।
विदर्भ क्षेत्र के लिए अलग राज्य की मांग का कारण है, महाराष्ट्र सरकार द्वारा इस क्षेत्र में विकास और निवेश के संबंध में की गई निरंतर उपेक्षा। वहां के लोगों को लगता है, कि उनकी बोली भाषा और सांस्कृतिक जुड़ाव महाराष्ट्र के बाकी हिस्सों से अलग हैं, अतः वे अपने आपको वंचित और उपेक्षित महसूस करते हैं। भाजपा के अलावा किसी भी अन्य राजनीतिक पार्टी ने वास्तव में उनकी अलग राज्य की मांग का समर्थन नहीं किया है।
सौराष्ट्र ने भी अलग राज्य की मांग की है। पूर्व में संयुक्त राज्य काठियावाड के नाम से जाना जाने वाला यह क्षेत्र, 1948 में सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा काफी समझाने के बाद सौराष्ट्र के रूप में नामकरण किये जाने पर राजी हुआ। बाद में, 1956 में इस क्षेत्र का बंबई राज्य में विलय किया गया, और अंततः 1960 में गुजरात राज्य में इसका विलय किया गया।
सौराष्ट्र क्षेत्र की गुजरात सरकार द्वारा निरंतर उपेक्षा की गई। जबकि गुजरात राज्य के अन्य क्षेत्रों का अच्छा विकास हुआ, फिर भी सौराष्ट्र क्षेत्र लंबे समय तक अविकसित बना रहा इस क्षेत्र की मांग है, कि इस क्षेत्र को स्वतंत्र राज्य का दर्ज प्रदान किया जाय, ताकि क्षेत्र का विकास हो सके और यहां रोजगार के अधिक अवसर निर्मित हो सकें। हालांकि यह क्षेत्र गुजरात राज्य और केंद्र को काफी अच्छा आर्थिक योगदान देता है, फिर भी इस क्षेत्र के विकास के लिए काफी कम काम किया गया है। लोगों का मानना है, कि एक स्वतंत्र राज्य के रूप में क्षेत्र का और अधिक और तीव्र गति से विकास संभव है।
एक और क्षेत्र, जिसके विभाजन का प्रस्ताव है, वह है पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हरित प्रदेश।
उत्तर प्रदेश भारत के सबसे बडे़ राज्यों में से एक है। इस प्रदेश के पूर्वी और पश्चिमी भागों में कई असमानताएं हैं। पश्चिमी क्षेत्र के लोगों का मानना है, कि वे राज्य के समग्र विकास में अधिक योगदान देते हैं। यही कारण है, कि वे अलग हरित प्रदेश की मांग करते आ रहे हैं। साथ ही, इसी राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों में भाषाई असमानताएं भी हैं। साथ ही, पश्चिमी क्षेत्र के लोगों को लगता है, कि उन्हें पूर्वी क्षेत्र की तुलना में राजनीतिक लाभ भी कम मात्रा में प्राप्त होते हैं। एक अलग राज्य उनके लिए राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करेगा, जिससे वे लंबे समय से अब तक वंचित रहे हैं।
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